Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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अवतरण
दान्तिक योजना : कथा का उपनय
तत्त्ववेदी पुरुषों का यह मार्ग है कि जन-कल्याण की भावना में संलग्न होने से बिना कारण किसी भी प्रकार का मन में सकल्प (विचार) नहीं करते । यदि कभी अनजान में उनके चित्त में बिना प्रयोजन ही किसी प्रकार का विचार उत्पन्न हो भो जाये तब भी वे बिना प्रयोजन नहीं बोलते । यदि तत्त्वहीन लोगों के मध्य में रहते हुए, कभी कुछ बोल भी दें, तो बिना कारण वे इगितादि चेष्टा नहीं करते । यदि तत्त्वज्ञ पुरुष बिना प्रयोजन ही कायिक चेष्टा करते हैं तो तत्त्वहीन और तत्त्वज्ञ में कोई भेद नहीं रह जाता, अर्थात् उनका तत्त्ववेदीपन नष्ट हो जाता है । प्रतएव जो स्वयं तत्त्ववेदी मनीषियों की पंक्ति (गणना) में रहने के अभिलाषी हों उनको प्रति समय स्वय के विचार, वाणी और व्यवहार (मन-वचन-काय योग ) की सार्थ - कता पर पुनः पुनः चिन्तन करना चाहिये और जो इस स्थिति को समझने की क्षमता रखते हों ऐसे तत्त्वज्ञ मनीषियों के सन्मुख ही स्वय की स्थिति को प्रकट करना चाहिये । वे तत्त्ववेदी, निरर्थक संकल्प - विकल्पमय विचार वाणी और आचरण को सार्थक मानने वाले प्राणियों को अनुकम्पा (कृपा) करके रोक देते हैं । इसलिये मैं भी अपनी इस प्रवृत्ति की सार्थकता का प्रारम्भ में ही आवेदन करता हूँ | मेरी इच्छा इस 'उपमिति भव- प्रपंच' कथा को प्रारम्भ करने की है । इसी कथानक को मैंने दूसरे दृष्टान्त के द्वारा आपके सम्मुख प्रस्तुत किया उपर्युक्त कथा आपके ध्यान में आ गई हो तो, हे भव्यजनों! मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अन्य विक्षेपों (बाधात्रों) को त्याग कर इस कथा के दान्तिक - ( अन्तरंग ) अर्थ को ध्यानपूर्वक सुनें ।
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[ १ ]
अदृष्टमूलपर्यन्त नगर
दृष्टान्त में 'विविध प्रकार की जनमेदिनी से व्याप्त सदा स्थिर रहने वाला अदृष्टमूलपर्यन्त नगर कहा है' उसे आदि और अन्त से रहित अर्थात् अनादि अनन्त, अविच्छिन्न रूप वाला और अनन्त प्राणियों के संसार समझें ।
समूह से भरा हुआ
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