Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पोठबन्ध
खिलौना और पापियों के लिये एक उदाहरण सा बन गया था। [पद्य० २८]' इस जीव के साथ इसकी सगति इस प्रकार है :--यह जीव निरन्तर असातावेदनीय कर्म की परम्परा रूप कीचड़ में फसा हुआ है, उसको जब प्रशमरस निमग्न, आत्मसुख के अनुभवी, भगवत्स्वरूप और श्रेष्ठ साधुगण देखते हैं तो उनके हृदय में सर्वदा करुणाभाव का संचार होने से यह जीव उनकी कृपा का पात्र बनता है। * जो सरागसयमी 1 साधुगण वीररस के आवेश से तपस्या करते हैं, धर्म के प्रति रागरूपी नशे में धुत्त होकर आचार-व्यवहार का पालन करते हैं वे अभिमानियों की तरह अहंकार से मत्त होते हैं, एसे साधुओं को दृष्टि में यह जीव हँसी-मजाक का पात्र बनता है । सरागसयमो यह सोचते हैं कि धम, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से धन नामक मुख्य पुरुषाथ के बिना इस प्राणी में धर्म या मानवता हो ही नहीं सकती। इन्हीं विचारों से ग्रस्त ये इस जीव को अनादर की दृष्टि से देखते हैं। ऐसे अभिमानी सय मियों को दृष्टि में यह जीव हास्य का कारण बनता है । जिनका चित्त मिथ्यात्व से अोतप्रोत है तथा जिनको किसी प्रकार किंचित् विषय-सुख के कण मिल गये हैं उन्हें यहाँ बाल कहा गया है। एसे बालजीवों की दृष्टि में यह जोव क्रीड़ा का स्थान बन जाता है। दुनिया में देखते हैं कि धन के मद में अन्धे बने हुए लोग छोटे व्यक्तियों का कदथना-विडंबना करने में, उनको तिरस्कृत करने में अपनी शान समझते हैं। पापो प्राणी किस प्रकार पाप एकत्रित करते हैं और उन पापा का फल किस प्रकार भोगना पड़ता है, इसकी प्ररूपण। करते समय इस जीव को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार जब भगवान् पाप-कर्मों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं उस समय भव्य प्राणियों को संसार से विरक्ति प्रोर वैराग्य प्राप्ति हो, इस हेतु से इस प्रकार के जीवों का दृष्टान्त देते हैं । इस प्रकार यह जीव कृपा, हास्य और क्रीड़ा का स्थान और पापियों का उदाहरण रूप बनता है।
दुःख की प्रतिमूर्ति
इस दरिद्री के वणन में पहले कहा जा चुका है कि:--'अदृष्टमूलपर्यन्त नगर में अन्य भी कई दरिद्रो रहते थे, पर निष्पुण्यक जैसा दुःखी और निर्भागियों का शिरोमणि तो सम्पूर्ण नगर में सम्भवतः कोई दूसरा नहीं था। [प० १२६ ]' उपयुक्त कयन स्वय मैंने मेरे जीव का अत्यन्त विपरीत एवं हित आचरण देखकर और अनुभव करके किया है । कारण यह है कि, मेरे इस जीव में जन्मान्ध को भी तुन्छ प्रमाणित करने वाला महामोह-अन्धत्व है, नारकीय वेदना को हँसकर टाल देने वाला राग है, दूसरों पर उपमातीत द्वष है, वैश्वानर (अग्नि) को हँसो
* पृष्ठ ३३ 1. सरागसंयमी-त्याग पर राग रखने वाला साधु । त्याग के लिए त्याग करने वाले नहीं
किन्तु मोह से त्याग करने वाले सरागसंयमी कहलाते हैं।
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