Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पठबन्ध
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सुन्दर देवांगनाओं को देखकर जलन होती है । उसकी प्रार्थना को जब अन्य देवांगनाएँ ठुकरा देती हैं तब जल-भुनकर रह जाता है । अन्य की देवांगनाएँ कैसे प्राप्त हों ? इसी उड़बुन में मन में शल्य की गाँठे बाँधता रहता है । महधिक देवों से निन्दित होता है । देवलोक से च्युत ( मरण) होने का समय निकट आने पर विलाप करता है । मौत को निकट देखकर रो-रोकर चिल्लाता है और अन्त में मरण प्राप्त कर समस्त प्रकार की अशुचियों से भरे हुए गर्भ की कीचड़ में पड़ता है ।
दरिद्री के दीन-वचन
इस प्रकार की स्थिति में उस दरिद्री की अवस्था के वर्णन में पहले कहा जा चुका है कि :-- 'आधातों से वह अधमरा हो रहा था और समस्त शरीर पर घाव हो रहे थे । इस कारण वह बार-बार चिल्लाता था - हे माँ ! मैं मर गया, मुझे बचाओ ! ऐसे ही दैन्य और आक्रोश- पूर्ण वचनों से वह अपना दुःख प्रकट कर रहा था ।' जीव की वह और यह दोनों अवस्थाएँ पूर्णरूप से समान हैं । महाअनर्थकारी इन समस्त दशाओं का कारण उसके मानसिक संकल्प-विकल्प, उन कुविकल्पों को प्रोत्साहित करने वाले कुदर्शन-ग्रन्थ और उन ग्रन्थों के प्रणेता एवं उनके प्रचारक कुतीर्थी ( कुगुरु) ही हैं ।
भिखारी के रोग
कथा में कहा गया है: - - ' वह भिखारी उन्माद, ज्वर आदि बीमारियों का 'घर लग रहा था' उसे इस जीव के सम्बन्ध में महामोह आदि समझें | उन्मादग्रस्त प्राणी जैसे अनेक प्रकार के अकरणीय कार्य करता है वैसे ही यह जीव मोहमिथ्यात्व और अज्ञान से प्रेरित होकर अविचारित कार्य करता है । जैसे ज्वर से सारा शरीर जलता रहता है वैसे ही राग के कारण सर्वाङ्ग ताप से तप्त ( पीड़ित ) रहता है । जैसे शूल की भयंकर पीड़ा हृदय और पसलियों में असह्य वेदना उत्पन्न करती है वैसे ही द्वेष के कारण हृदय में वैर-विरोध की प्रवल वेदना सर्वदा बनी रहती है । खुजली की तरह काम (विषय-वासना) की तीव्रतम अभिलाषा मन को सर्वदा कुरेदती ( खुजलाती रहती है । जिस प्रकार गलितकुष्ठ व्याधि से पीड़ित प्राणी जन-समूह द्वारा तिरस्कृत होता है और उस कारण उसका * मन उद्व ेगों से उद्वेलित रहता है । उसी प्रकार यह जीव भय, शोक और अरति ( अप्रीति ) से उत्पन्न होने वाली दीनता के कारण लोगों की जुगुप्सा का पात्र बनता है और उससे उसका चित्त उद्वेग से व्यथित रहता है, इससे उसकी दीनता को ही गलितकुष्ठ समझें । जैसे नेत्ररोग से देखने की शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही अज्ञान के कारण इस जीव की विवेक दृष्टि नष्ट हो जाती है । जैसे जलोदर की व्याधि से कार्य करने का उत्साह नष्ट हो जाता है वैसे ही प्रमाद के वशीभूत होकर शुभ नुष्ठानों की ओर इस जीव का उत्साह नष्ट हो जाता है । इस प्रकार यहाँ उन्माद * पृष्ठ ३२
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