Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
में टालने वाला क्रोध है, मेरुपर्वत को भी लघु मानने वाला मान है। सर्पिणी की गति को भी मात देने वाली माया है, स्वयंभूरमण समद्र को भी छोटा मानने वाला लोभ है, स्वप्न में लगी हुई प्यास के समान विषयों में लम्पटता है। भगवान का शासन-धर्म प्राप्त होने से पूर्व मेरे जीव की उपरोक्त दशा ही थी और यह अवस्था स्वयं द्वारा अनुभूत है । मैं ऐसा सोचता हूँ कि अन्य प्राणियों में ऐसे दोषों की उत्कटता शायद न हो ! इस बात की मेरे जीव के सम्बन्ध में किस प्रकार संगति बैठती है, इसको आगे, जिस समय मुझे प्रतिबोध होता है उस समय विस्तार से कहूँगा।
[ ६ ] निष्पुण्यक की मनोकल्पनाएँ
पूर्व में कह चुके हैं किः--'यह रंक उस अदृष्टमलपर्यन्त नगर में भिक्षा के लिये हर घर की ओर भटकता-भटकता सोचता था कि अमुक देवदत्त या बन्धुमित्र अथवा जिनदत्त के घर से मुझे अच्छी तरह से बनाई हुई रसवती और स्वादिष्ट भिक्षा प्रचुर मात्रा में मिलेगी। उस भिक्षा को लेकर मैं शीघ्र एकान्त स्थान पर चला जाऊँगा, जहाँ मुझे कोई भी देख नहीं सके । वहाँ बैठकर उस भिक्षा में से कुछ खा लगा और बाकी बची हुई दूसरे दिन के लिये छिपाकर रख दगा। अन्य भिखारियों को कदाचित् यह मालूम पड़ जायगा कि मुझे अच्छी और ज्यादा मात्रा में भिक्षा मिलती है तो वे मेरे पास आकर मुझ से माँगेगे और मुझे परेशान करेंगे, किन्तु मर जाऊ तब भी मैं उनको नहीं दूगा। जब मेरे साथ जबरदस्ती छीना-झपटी करेंगे तो मैं उनके साथ लड़ाई करूँगा। जब वे वे मुझको हाथा-पाई करते हुए मुट्ठियाँ और * लकड़ियों से मारेंगे तब मैं बड़। मुद्गर लेकर उन सब को चकनाचूर कर दूंगा। वे दुष्ट मेरे से बचकर कहाँ जायेंगे? ऐसे-ऐसे अनेक प्रकार के बनावटी कुविकल्पों के जाल से उस दरिद्री का मन आकुल-व्याकुल रहता है और वह प्रतिक्षण रौद्रध्यान में पड़ा रहता है। किन्तु उसको नगर में घर-घर भटकने पर भी थोड़ी सी भी भिक्षा नहीं मिल पाती। इसके फलस्वरूप उसके हृदय में अनन्तगुणा खेद बढ़ता रहता है । यदि कदाचित् भाग्यवश इसे थोड़ी सी झूठन मिल जाती है, तो मानो विशाल राज्य पर राज्याभिषेक हो गया हो ऐसा हर्षोन्मत्त होकर वह अपने से समस्त विश्व को तुच्छ समझता है।' उपरोक्त सारी बनावटी कल्पनायें जो कही गई हैं उनकी इस जोव के साथ पूर्ण संगति बैठती है जो इस प्रकार है:
इस संसार में अहनिश परिभ्रमण करते हुए शब्द, रूप, रस, गन्ध पोर स्पर्श ये पाँचों इन्द्रियों के विषय, स्वजन-सम्बन्धियों का समह, धन, सोना आदि और कामक्रीड़ा एवं विकथा ग्रादि में अत्यधिक प्रासक्ति संसार-वृद्धि का कारण
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