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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
त्याग नहीं करता हूँ तो सर्वदा दुःख के समुद्र में ही पड़ा रहूँगा । फिर मुझे क्या करना चाहिये ? मैं बिल्कुल सत्त्वहीन शक्तिहीन) निर्भागी हूँ अथवा मोहग्रस्त होने के कारण ऐसे संकल्प-विकल्प मुझे होते रहते हैं। मैं तो इस कुभोजन का सर्वथा त्याग कर देता हूँ: फिर जो होगा, सो देखा जायेगा। अथवा वास्तव में होगा भी क्या ? त्याग करने के बाद कुभोजन का नाम भी मुझे याद नहीं रहेगा। राज्य प्राप्त होने के बाद अपने पूर्व-समय का चाण्डालपन कौन याद करेगा? इस प्रकार निश्चय कर उसने सदबुद्धि से कहा-'हे भद्रे ! मेरा यह भिक्षापात्र लो और इसमें रखा सब कुत्सित भोजन फेंक कर इसे धोकर स्वच्छ कर दो।' सद्बुद्धि ने कहा-'इस विषय में तुझे धर्मबोधकर का परामर्श लेना चाहिये। क्योंकि अच्छी तरह विचार कर किये हुये काम में पीछे से परिवर्तन नहीं करना पड़ता।' [४०२-४११] निष्पुण्यक-सपुण्यक : दृढ़ निश्चय और त्याग का आनन्द
फिर वह निष्पुण्यक अपने साथ सदबुद्धि को लेकर धर्मबोधकर के पास गया और उन्हें अपनी पूरी मनः स्थिति से अवगत कराया। धर्मबोधकर ने कहा-'हे भद्र ! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है। मुझे तो इतना ही कहना है कि जो कुछ करना हो, अच्छी तरह से दृढ़ निश्चय करके ही करना चाहिये जिससे भविष्य में कभी लोगों में हँसी का पात्र न बनना पड़े।' दरिद्री ने उत्तर दिया--'नाथ ! बार-बार वही बात मुझे क्यों कहते हैं ? इस विषय में अब मेरा इतना दृढ़ निश्चय हो गया है कि कुभोजन की ओर मेरा तनिक भी मन नहीं जाता।' उसका सा उत्तर सुनकर विचक्षण धर्मबोधकर ने अन्य विचारशील लोगों के साथ विचार कर निष्पुण्यक से उसके भिक्षापात्र का त्याग करवा दिया, उसे शुद्ध जल से अच्छी तरह स्वच्छ कराया और उसमें महाकल्याणक भोजन भरवाया। इससे निष्पुण्यक अत्यधिक प्रमुदित हुआ जिससे उस दिन से ही पथ्य भोजन के प्रति उसकी रुचि बढ़ती गई। यह देखकर धर्मबोधकर भी प्रसन्न हए, तया भी हर्ष से थिरक उठी, सद्बुद्धि के आनन्द की सीमा नहीं रही और संपूर्ण राजमन्दिर के लोग हर्ष-विभोर हो गये । उस समय लोग कहने लगे-'यह निष्पुण्यक, जिस पर महाराज सुस्थित की कृपा दृष्टि हुई, जो धर्मबोधकर को प्रिय है, जिसका तद्दया ने लालन-पालन किया, जो प्रति दिन सद्बुद्धि से अधिष्ठित है, जिसने थोड़ा-थोड़ा अपथ्य भोजन का प्रतिदिन त्याग किया, तीनों औषधियों के सेवन से जो अनेक व्याधियों से रहित जैसा हो गया है, अतः अब वह निष्पुण्यक न रहकर महात्मा सपुण्यक हो गया है।' उसके बाद लोग उसे सपुण्यक के नाम से पहचानने लगे। पुण्यहीन प्राणियों को इतनी अनुकूलता कहाँ से मिल सकती है ? जो जन्म से दरिद्री और निर्भागी होता है, वह चक्रवर्ती पद के योग्य हो ही नहीं सकता। [४१२-४२१]
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