Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
चित्ताह्लादकारी और सब संतापों को नष्ट करने वाला था। उसके पीने से वह पूर्णरूपेण स्वस्थ के समान हो गया। उसका उन्माद बहुत कम हो गया, उसके रोग कम हो गये और उसके शरीर की दाह पीड़ा (जलन) ठंडी पड़ गई। उसकी सभी इन्द्रियाँ संतुष्ट हुई। इस प्रकार उसकी अन्तरात्मा के स्वस्थ्थ होने से उसकी विचारशक्ति भी किंचित् शुद्ध हुई और वह सोचने लगा :---- [२१६-२२५]
२१. 'प्रोह ! इन अत्यन्त कृपालु महापुरुष को मैंने महामोह के वश होकर मूर्खता से पापी और ठग समझा था। इन महापुरुष ने मुझ पर बड़ी कृपा कर, मेरी आँखों पर सुरमे का प्रयोग कर मेरी आँखों को बिल्कुल ठीक कर दिया जिससे मेरी दृष्टि-व्याधि दूर हो गई। फिर मुझे पानी पिलाकर स्वस्थ बना दिया। वास्तव में इन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैंने इन पर क्या उपकार किया है ? फिर भी इन्होंने मेरा इतना उपकार किया है। यह इनकी महानता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। [२२६-२२८] झूठन पर मूर्छा
२२. ऐसे विचारों के रहते हए भी अपने साथ लाये हए झूठन से प्राप्त तुच्छ भोजन पर उसका चित्त मंडरा रहा था। उस झूठन से उसकी मूर्छा (प्रगाढ़ प्रम) दूर नहीं हो रही थी। उसकी दृष्टि उसी झूठन पर बार-बार पड़ रही थी। उसे इस स्थिति में देखकर और उसके मन के प्राशय को समझ कर धर्मबोधकर ने कहा-'अरे मूर्ख द्रमुक ! तेरा यह कैसा विचित्र व्यवहार है ! यह कन्या तुझे परमान्न (खीर) का भोजन दे रही है, क्या तू देखता नहीं। इस दुनियाँ में पापो भिखारी तो बहुत होंगे पर मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ कि तेरे जैसा निर्भागी तो शायद हो कोई दूसरा हो, क्योंकि तू अपने तुच्छ भोजन पर इतना आसक्त है। मैं ऐसा अमृतमय परमान्न भोजन तुझे दिलवा रहा हूँ फिर भी तू अपनी पाकुलता को त्यागकर उसे नहीं लेता । तुझे एक दूसरी बात कहूँ, इस राजभवन के बाहर अनेक दुःखी प्राणी रहते हैं, पर उनको न तो इस भवन को देखकर अानन्द हुअा और न उन पर हमारे महाराज की कृपा दृष्टि ही हुई, जिससे हमारा उनके प्रति आदरभाव रहता, हम उनसे बात भी नहीं करते। पर तुझे तो इस राजभवन को देखकर प्रसन्नता हुई और हमारे महाराज की तुझ पर कृपा दृष्टि हुई इसीलिये हम तेरा इतना आदर कर रहे हैं। अपने स्वामी को जो प्रिय हो, वहो प्रिय कार्य स्वामीभक्त सेवक को करना चाहिये । इसी न्याय (विचार) से हम तुझ पर विशेष दयालु हैं। हमें यह पूर्ण विश्वास था कि हमारे राजा योग्य पात्र (व्यक्ति) पर ही अपनी कृपा दृष्टि डालते हैं, कोई मूढ उनके लक्ष्य में नहीं आता। यह विश्वास भी आज तूने गलत सिद्ध कर दिया है । तेरे अत्यन्त तुच्छ भोजन पर तेरा मन चिपका हुआ है, जिससे तू इतना सुन्दर अमृतमय भोजन भी नहीं लेता। यह भोजन सर्वरोग नाशक, मधुर और स्वादिष्ट है, इसे तू किसलिये नहीं ले रहा है ? अरे र्दु बुद्धि
* पृष्ठ १८ Jain Education International
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