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उपमिति-भव-प्रपंच कथा द्रमुक ! अपने पास के इस कुभोजन का त्याग कर और विशेषरूप से इस सुन्दर स्वादिष्ट भोजन को ग्रहण कर ; जिसके प्रताप से इस राजभवन में रहने वाले प्राणी आनन्द कर रहें हैं । इसके माहात्म्य को तू देख ।' [२२६-२३६]
२३. धर्मबोधकर के उपयुक्त वचन सुनकर उसे कुछ विश्वास हुआ और मन में कुछ निश्चय भी हुआ कि यह पुरुष मेरा हित करने वाला है, फिर भी वह अपने पास के भोजन का त्याग करने की बात से विह्वल हो गया। अन्त में उसने दीन वचनों से कहा-'आपने जो बात कही उसे मैं पूर्णतया सच मानता हूँ, पर मझे आपसे एक प्रार्थना करनी है, वह आप सुनें । हे नाथ ! मेरे इस मिट्टी के पात्र (भिक्षा पात्र) में जो भोजन है वह मुझे स्वभाव वश प्राणो से भी अधिक प्यारा है । इसे मैंने बहुत परिश्रम से प्राप्त किया है और भविष्य में इससे मेरा निर्वाह होगा, ऐसा मैं मानता हूँ। फिर आपका भोजन कैसा है ? इसे मैं वास्तव में नहीं जानता। अतः मैं अपना भोजन किसी भी अवस्था में छोड़ना नहीं चाहता। महाराज ! यदि आपको अपना भोजन भी मुझे देने की इच्छा हो तो मेरा भोजन मेरे पास रहने दें और आप आना प्रदान करें। [२४०-२४४] विश्वास हेतु दृढ़ प्रयत्न--
२४. उसके ऐसे वचन सुनकर धर्मवोधकर मन में सोचने लगा--'अहो ! अचिन्त्य शक्ति वाले महामोह की चेष्टा को देखो। यह बेचारा द्रमुक सब रोगों का घर, इस तुच्छ भोजन में इतना आसक्त है कि उसकी तुलना में मेरे उत्तम भोजन को भी तृण के समान हेय समझता है। फिर भी यथाशक्ति इस बेचारे गरीब को पुनः शिक्षा देनी चाहिये । शायद इससे उसका मोह टूटे या कम हो और इस बेचारे का हित हो सके। इस प्रकार सोचकर धर्मबोधकर ने भिखारी से कहा-'अरे भाई ! क्या तू यह भी नहीं समझता कि तेरे शरीर में जो ये अनेकों रोग हैं, उनका कारण यह तुच्छ भोजन ही है। तेरे पास जो तुच्छ भोजन है, यदि तू उसे अधिक मात्रा में खायेगा तो तेरे सब रोग बढ़ जायेंगे, अतः अच्छी बुद्धि वाले प्राणी को इसका बिल्कुल त्याग कर देना चाहिये । हे भद्र ! तुझे सभी प्रत्येक वस्तु उल्टी दिखाई देती है, इसलिये तू ऐसा मानता है। पर जब तू मेरे भोजन का तत्त्वतः एक बार स्वाद लेगा तब तेरा ऐसा सोचना स्वतः ही बन्द हो जायेगा और तुझे रोकने पर भी तू अपने आप इस कुभोजन का त्याग कर देगा। कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अमृत का पान करने के बाद जहर पीने की इच्छा करेगा? फिर मैं तुझसे पूछता हूँ कि क्या तूने अभी मेरे सुरमे की शक्ति और पानी की महिमा नहीं देखी ? क्या फिर भी तुझे मेरे वचन पर विश्वास नहीं है ? तू कहता है कि यह भोजन तूने बहुत परिश्रम से प्राप्त किया है, अतः तू इसका त्याग नहीं कर सकता। इसके सम्बन्ध में मैं तुझे अभी विस्तार से बतलाता हूं; जिसे तू मोह त्यागकर ध्यान से सुन । तुझे इसको प्राप्त करने में (क्लेश) कष्ट हुआ। सेवन से कितना क्लेश हो रहा है और भविष्य में भी इससे अनेक प्रकार के क्लेश पैदा होंगे, इसलिये इसका त्याग करना ही उचित है। तूने कहा कि भविष्य में इससे तेरा निर्वाह होगा, इसलिये इसे
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