Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव प्रपंच कथा
इस प्रकार तीसरे से सातवें तक पाँच प्रस्तावों में (हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह इन पाँचों प्रस्रवों से; त्वचा, जीभ, नाक, आँख, काँन इन पाँच, इन्द्रियों से, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों से तथा महामोह के वशीभूत होने से ) संसारी - जोव पर दुःखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं, उन घटनाओं का वर्णन किया जायेगा | इन घटनाओं में से कुछ का तो संसारी जीव स्वयं भुक्तभोगी है और कुछ अन्य लोगों से सुनी हुई है, किन्तु उन सब पर उसकी स्वयं की प्रतीति होने से वे समस्त घटनाएं स्वयं संसारी-जीव से सम्बन्धित और उसकी अपनी ही हैं, ऐसा कहा जायेगा । [७१-७२]
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८. आठवें प्रस्ताव में पूर्व वर्णित सातों प्रस्तावों की घटनाओं का मेल होता है और संसारी जीव अपना आत्महित करता है । संसार पर तीव्र विराग उत्पन्न करने वाली संसारी-जीव की इस प्रात्मकथा को सुनकर भव्य पुरुष प्रतिबोध प्राप्त करता है, किन्तु संसारी जीव द्वारा बारम्बार प्रेरित करने पर भी प्रगृहीतसंकेता बड़ी कठिनाई से प्रतिबोधित होती है । केवल- ज्ञान रूपी सूर्य से देदीप्यमान निर्मलाचार्य को पूछकर संसारी जीव ने ( अपने पूर्व भव में ) यह सब वृत्तान्त समझ लिया था । सदागम के द्वारा संसारी जीव को पुनः पुनः स्थिर करने पर उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । फलस्वरूप उसने अपनी यह आत्मकथा प्रतिपादित की, ऐसा प्रतिपादन किया जायेगा । [७३-७७]
रूपक कथा की परिपाटी
इस कथा में अन्तरंग लोगों के ज्ञान, आपसी बोलचाल, गमनागमन, विवाह, बन्धुता आदि समस्त लोक व्यवहारों का वर्णन किया गया है, उसे किसी भी प्रकार से दूषित नहीं समझना चाहिये; क्योंकि गुणान्तर की अपेक्षा से उपमा रूपक बोध कराने के लिए ऐसे वर्णन किये गये हैं । कहा है- जो प्रत्यक्ष और अनुभव सिद्ध हो तथा युक्ति से दूषित न हो उसे सत्यकल्पित उपमान कहा जाता है और इस प्रकार के उपमान सिद्धान्त प्रागम ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । जैसे कि, आवश्यक सूत्र में मुद्गल शैल-पाषाण और पुष्करावर्तक मेघ की स्पर्द्धा एवं नागदत्त चरित्र में क्रोध आदि को सर्प की उपमा दी गई है । उत्तराध्ययन सूत्र के पिण्डैषणा अध्ययन में मत्स्य ने अपना चरित्र कहा है तथा सूखे पत्तों ने भी अपना संदेश दिया है, वैसे ही सिद्धान्त ग्रन्थों के आलोक में यहाँ जो भी कथन उपमा-रूपक द्वारा किया जायेगा उसे युक्तियुक्त वचन ही समझना चाहिये । [७८-८३]
इस प्रकार इस कथा का अन्तरंग शरीर क्या है ? इसका वर्णन किया गया । अब मैं कथा के बहिरंग शरीर का प्रतिपादन करता हूँ । [ ६४ ]
कथा - शरीर - बहिरंग
मेरु पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित महाविदेह क्षेत्र में सुकच्छ नामक विजय
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