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उपमिति-भव-प्रपंच कथा त्याग कर दिया था और जो मदोन्मत्त युवतियों को अकुश में रखने में समर्थ थीं। विलास करती अनेक सुन्दर ललनाओं से वह राजमन्दिर देवलोक को भी अपने वैभव से पराजित कर रहा था। अनेक योद्धात्रों द्वारा वह राजमन्दिर चारों ओर से सुरक्षित था। [१४८-१५१]
१०. इस राजमन्दिर में सुरीले कण्ठ वाले नानाविध राग-रागिनियों व संगीत कला के मर्मज्ञ गायक, वीणा, बाँसुरी आदि वाद्यों के साथ सून्दर आलाप से मधर राग गाकर कर्णेन्द्रिय को अनेक प्रकार से मधुरता प्रदान करते थे। चित्ताकर्षक सन्दर अनेक प्रकार के चित्र वहाँ इस प्रकार सजाये गये थे कि जिन्हें देखकर आँखें तप्त हो जातीं और उन्हें एकटक देखते रहने का मन होता था। वहाँ चन्दन, अगर, कपूर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ अत्यधिक मात्रा में बिखरे हुए थे जिससे कि घ्राण (नासिका) को तृप्ति मिलती थी। कोमल वस्त्र, कोमल शैय्या और सून्दर स्त्रियों के योग से भी लोगों को स्पर्शनेन्द्रिय (स्पर्श) प्रमदित होती थी। मन पसन्द स्वादिष्ट उत्तम भोजन से वहाँ प्राणियों की जिह्वा सन्तुष्ट और तप्त होती थी और उनका स्वास्थ्य उत्तम रहता था। [१५२-१५६) राजमन्दिर-दर्शन से स्फुरणा
११. तात्त्विक दृष्टि से सब इन्द्रियों के निर्वाण (तृप्ति) का कारणभूत ऐसे अद्भुत राजमन्दिर को देखकर वह भिखारी आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि, यह क्या है ? अभी तक उन्मादग्रस्त होने से वह राजमन्दिर के तात्त्विक स्वरूप को पहचान नहीं सका, पर धीरे-धीरे-चेतना प्राप्त होने पर वह सोचने लगा कि, इस राजमन्दिर में निरन्तर उत्सव होते रहते हैं, पर द्वारपाल की कृपा दृष्टि से आज ही मैं इसे देखने में समर्थ हो सका हूँ, जो आज से पहले मैं कभी नहीं देख सका था। मझे याद आ रहा है कि, मैं कई बार भटकते हुए इस राजमन्दिर के दरवाजे तक आया हूँ पर दरवाजे के निकट पहुँचते-पहुँचते तो ये महापापी द्वारपाल मुझे धक्के देकर वहाँ से भगा देते थे। जैसा मेरा नाम निष्पुण्यक है वैसा ही मैं पुण्यहीन भी है कि देवताओं को भी अलभ्य ऐसे सुन्दर राजमन्दिर को पहले न तो मैं कभी देख सका और न कभी देखने का प्रयत्न ही किया। मेरी विचार शक्ति इतनी मोहग्रस्त और मन्द हो गई थी कि यह राजमन्दिर कैसा होगा ? इसको जानने की जिज्ञासा तक मेरे मन में कभी भी उत्पन्न नहीं हुई। चित्त को ग्राह्लादित करने वाले इस सुन्दर राजभवन को दिखाने की कृपा करने वाला यह द्वारपाल वास्तव में मेरा बन्धु है । मैं निर्भागी हूँ, फिर भी मुझ पर इसकी बड़ी कृपा है ।* सब प्रकार के संक्लेश से रहित होकर, परिपूर्ण हर्ष से इस राजभवन में रहकर जो लोग प्रानन्द भोग रहे हैं, वे वास्तव में भाग्यशाली हैं। [१५७-१६४] महाराजा सुस्थित का दृष्टिपात
१२. निष्पुण्यक दरिद्री को कुछ चेतना प्राप्त होने पर जब उसके मन में उपर्युक्त विचार चल रहे थे, तभी वहाँ जो कुछ घटित हुआ, उसे आप सुनें । इस * पृष्ट १०
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