Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव-प्रपंच कथा
धूल से सारा शरीर मलिन हो रहा था । उसके पहनने के चिथड़े जाल जाल हो रहे थे। [१२१–१२३ ]
३. इस दरिद्री को चिढ़ाने के लिए नगर के दुर्दान्त डिम्भ ( चंचल और नटखट वालक) * प्रतिक्षण लकड़ी, बड़े-बड़े पत्थर ( ढेले ) और घूसे मार-मार कर उससे छेड़छाड़ करते थे जिससे वह अधमरा और बहुत दुःखी हो रहा था । सारे
'गों पर घाव थे, इस कारण वह बार-बार चिल्लाता था 'हे माँ ! मैं मर गया, मुझे बचाओ ।' ऐसे ही दैन्य और आक्रोश पूर्ण वचनों से वह अपना दुःख प्रकट कर रहा था । उसे उन्माद और बुखार भी हो रहा था । कुष्ठ, खुजली और हृदय - शूल से ग्रसित वह सब तरह के रोगों का घर लग रहा था । इतनी अधिक वेदना से वह घबरा गया था। सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर, भूख, प्यास आदि अनेक प्रकार की पीड़ाओं से वह अशान्त, त्रस्त और दुःखी होकर नरक जैसी यंत्रणा सहन कर रहा था । [१२४-१२७]
४. निष्पुण्यक दरिद्री का स्वरूप सज्जनों के लिये दया का स्थान, दुर्जनों के लिये हँसी-मजाक का पात्र, बालकों के लिये खेल का खिलौना और पापियों के लिये एक उदाहरण-सा बन गया था । [ १२८]
५. प्रदृष्टमूलपर्यन्त नगर में अन्य भी कई दरिद्री रहते थे, पर निष्पुण्यक जैसा दुःखी और निर्भागियों का शिरोमणि तो सम्पूर्ण नगर में सम्भवतः कोई दूसरा नहीं था । । १२६]
froyore की मिथ्या कल्पनाएँ
६. निष्पुण्यक अनेक संकल्पों विकल्पों द्वारा रौद्रध्यान ( दुर्ध्यान) करते हुए सोचता रहता कि मुझे अमुक-अमुक घर से भिक्षा मिलेगी । अर्थात् उसका सारा समय रौद्रध्यान में ही व्यतीत होता था, पर उससे प्राप्त क्या होता ! सिवाय परिताप के । भिक्षा में यदि उसे कहीं थोड़ा झूठा अन्न भी मिल जाता तो वह ऐसा प्रसन्न हो जाता जैसे कहीं का राज्य मिल गया हो ! अनेक प्रकार के तिरस्कार से प्राप्त झूठा अन्न खाते हुए उसे सर्वदा यह शंका बनी रहती कि कोई शक जैसे बलवान पुरुष मेरा भोजन चुरा न ले । उस थोड़े से झूठण से उस बेचारे की तृष्टि तो क्या होती, उसकी भूख और अधिक प्रज्वलित हो जाती। उस अन्न के पचते - पचते उसके शरीर में वात विसूचिका (उदर पीड़ा) उठ खड़ी होती । वह भोजन उसके लिये असाध्य रोगों का कारण बनता और शरीर में पहले से स्थित रोगों को बढ़ाने में सहायभूत बनता । इस वास्तविकता की उपेक्षा करते हुये निष्पुण्यक उसी भोजन को अच्छा मानता और उससे सुन्दर भोजन की तरफ दृष्टिपात भी नहीं करता । सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन चखने का कभी उसे स्वप्न में भी अवसर प्राप्त नहीं हुआ ।
* पृष्ठ ८
उदरशूल, संग्रहणी, हैजा
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