Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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रा०
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शूद्र, वेदोंका पठन पाठन नहीं कर सकता वेदानुयायियों का यह सिद्धांत है इसरीति से वेदोंका अर्थ न जानकर भी शूद्र जिसप्रकार उन पर परम श्रद्धान भक्ति रखता है उसीप्रकार जिसे जीव अजीव आदि पदार्थों के स्वरूपका ज्ञान भी नहीं है तो भी उसका श्रद्धान उनमें कर सकता है १ सो ठीक नहीं । शूद्र महाभारत आदि पुराणोंसे वेदका महत्व जानता है तथा जो पुरुष वेदोंके जानकार हैं उनके वचनोंपर चलता है इसलिये उसकी जो वेदोंपर भक्ति है वह महाभारत आदि वचन और वेदज्ञोंके वचनोंसे होने के कारण परनिमित्तसे है । स्वभावसे नहीं । निसर्गज सम्यग्दर्शनमें परके निमित्त के विना स्वभावसे श्रद्धान - इष्ट है इसलिये शूद्रकी वेदभक्तिका उदाहरण देना विषम पडजाता है, समान नहीं पडता । यदि शूद्र के भी स्वभाव से ही वेदों में भक्ति सिद्ध होती तब सम उदाहरण माना जाता और उससे निसर्गज सम्यग्दर्शनकी सिद्धि कर ली जाती सो हुआ नहीं, इसलिये निसर्गज सम्यग्दर्शन सिद्ध नहीं हो सकता । अथवा
sai पर सम्यक्त्वा प्रकरण चल रहा है इसलिये जीव अजीव आदि पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन ग्रहण किया जा सकता है । वेदोंपर जो शुद्रका श्रद्धान है वह यथार्थ श्रद्धान नहीं इसलिये भी शूद्रकी भक्तिका उदाहरण यहां विषम उदाहरण हो जाता है । दृष्टांतके विषम रहने पर दाष्टीतकी बात सिद्ध हो नहीं सकती यह नियम है इसलिये शूद्रकी वेदभक्तिके दृष्टांतसे दात निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं सिद्ध हो सकता । फिर भी यदि यह कहा जाय कि
मणिग्रहणवदिति चेन्न प्रत्यक्षेणोपलब्धिसद्भावात् ॥ ३ ॥
मणिको न भी जाननेवाले मनुष्यको जिससमय मणि मिल जाती है तो वह तुरंत उठा लेता है। | और उसके मिल जानेसे खुशी आदि जो फल होने चाहिये वे भी उसमें दीख पडते हैं उसीप्रकार जीव
भाषां
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