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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
મંગલાચણ भावार्थ:- हे भगवान्। ज्ञान के बाहर कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता है अर्थात अंतर्जेय की अपेक्षा सब ज्ञान के ही परिणमन हैं आप एक ही विचित्र आकृतिरुप होते है। [लधुतत्त्व स्फोट, स्तुति-२०, छंद-१२, पेज नं-३२९]
ટીકાઃ- પ્રથમ તો આ આત્મા આખોય ઉપયોગમય છે, કારણ કે તે સવિકલ્પ અને નિર્વિકલ્પ પ્રતિભાસસ્વરૂપ છે (અર્થાત્ જ્ઞાન અને દર્શન સ્વરૂપ છે.) તેમાં જે આત્મા વિવિધાકાર પ્રતિભાસ્ય (વિવિધ આકારવાળા પ્રતિભાસવા યોગ્ય ) પદાર્થોને પામીને મોહ, રાગ અથવા હૈષ કરે છે તે સંસાર છે.
(वयनसार तत्पीपिst ast, uथा-१७५) टीकार्थ :- ज्ञान मति आदि के भेद से आठ प्रकार का है। अथवा दूसरा पाठ-ज्ञान अर्थ विकल्प है। वह इस प्रकार-अर्थ अर्थात् परमात्मा आदि पदार्थ, अनन्त ज्ञान सुखादि रुप मैं हूँ , रागादि आस्त्रव मुझसे भिन्न हैं-इस प्रकार निज और परके स्वरुप की जानकारी रुप से, दर्पण के समान पदार्थो को जानने में समर्थ [ ज्ञान] विकल्प है-यह विकल्पका लक्षण कहा गया है। वही ज्ञान ज्ञानचेतना है।
[प्रवचनसार तात्पर्यवृतिटीका-गाथा १२४ ] વર્તમાન અંશમાં જ બધી રમત છે- તે અંતરમાં દેખે તો (અનંત) શક્તિઓ દેખાશે; અને બહિર્મુખ થશે તો સંસાર દેખાશે; બસ ! અંશથી બહાર તો કોઈ જીવ જતો જ નથી; આટલી મર્યાદામાં રમત છે.
(द्रव्यहाट प्राश - बोल नं.-५४७) भावार्थ :- ज्ञानमें सर्व ज्ञेय पदार्थो का प्रतिबिम्ब पडता है जो ज्ञानाकार पदार्थो का ज्ञान में होता है उनके निमित्त कारण बाहरी पदार्थ हैं। इसलिये उपचार से उन ज्ञानाकारोंको पदार्थ कहते हैं। ज्ञान अपने ज्ञानाकारोंको जानता है इसको कहते हैं कि ज्ञान पदार्थो को जानता है। ज्ञानमें ज्ञानाकारों का भेद करके कहना ही व्यवहार है। निश्चय से ज्ञान आप अपने स्वभावमें ज्ञायकरुपसे विराजमान है-ज्ञेय-ज्ञायक का व्यवहार करना भी व्यवहार नय से है।
[प्रवचनसार भाषाटीका-गाथा ३० का भावार्थ]