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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ श्री सुदृष्टि तरंगिणी
पंडित प्रवर टेकचन्दजी विरचित [.] अर्थ- इस ग्रंथ का नाम सुदृष्टि तरंगिणी है तावि ज्ञेय हेय उपादेय का कथन
है। सो ज्ञेय तो एक है ताविषै दो भेद करिये है सो एक ज्ञेय तो तजने योग्य है अरु एक ज्ञेय उपादेय है। स्वज्ञेय तो उपादेय है अरु परज्ञेय तजने योग्य
भावार्थ- सम्यकदृष्टि जीवनी के स्व–पर पदार्थ जानपना होय है। सो ज्ञेय हेय उपादेय करि सहज ही तीनि प्रकार होय है। सो तहां प्रथम तो ज्ञान के जानने में आवे सो सर्व स्वपर पदार्थ होय है। पीछे ताही ज्ञेय के दो भेद होय है। कोई पदार्थ अपने हित योग्य नाही सो हेय है, के तेक पदार्थ अपने हित योग्य होई सो उपादेय है। ऎसे ज्ञेय विर्षे हेय उपादेय करना है सो सम्यक्भाव है। और मिथ्यादृष्टि बालबुद्धिनिं के त्याग उपादेय नाही होय है।
ताविर्षे उनजीव अचेतन जड होय सो तो परज्ञेय हेय है और जीव वस्त देखने जानने मई चैतन्य होय सो उपादेय है। सो चेतन ज्ञेय भी दोय भेदरूप है। परसत्ता परप्रदेश परगुण परपर्याय रूप आत्मा सो परज्ञेय है। सो यह पर-आत्मा पर ज्ञेय है सो हेय है- तजने योग्य है। और आपमई स्वप्रदेश स्वगुण स्वसत्ता स्वपर्याय एकतारूप सो स्वज्ञेय है उपादेय है अंगीकार करने योग्य है। भावार्थ- चेतन अचेतन करि ज्ञेय दोय भेदस्वरूप है। सो धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य काल आकाश पुद्गल ये पंचभेद तो अजीव ज्ञेय के हैं सो अपते भिन्न ही हैं। तातें हेय हैं तजने योग्य हैं। और जीव है सो अनंत है अपने अपने द्रव्य गुण पर्याय सत्ता प्रदेश जुदे जुदे लीये हैं। तातै अपनी आत्मसत्ता विना अनंत परजीव- सत्ता परज्ञेय सो तजने योग्य है। और ज्ञान के जानपने में आये स्वात्मा के अनन्तगुण सो स्वहोय हैं। उपादेय हैं। अंगीकार करने योग्य हैं। और भी पर ज्ञेय के अनेक भेद हैं सो व्यवहारनय करि केतीक तो आत्मा को इष्ट सुखकारी उपादेय हैं। और केतीक आत्मा कू अनिष्ट दु:खकारी सो हेय हैं। सो आत्मा को संसार बिर्षे परज्ञेय में ममत्वकरि भ्रमण करते अनंतानंत परावर्तन काल भये।
[गाथा-२]