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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ स्वतंत्रता का सोपान
ब्रह्मचारी शीतल प्रसादजी कृत [ વસ્તુની સ્વતંત્રતાની પરિપૂર્ણતાની પરાકાષ્ટા ] [.] चेतना ही मेरा लक्षण है, चेतना ही मेरा भोजन है, चेतना ही मेरा वस्त्र है,
चेतना ही मेरा शयनगार है, चेतना ही मेरा सर्वस्व है, चेतना ही मेरा निर्मल दर्पण है, जिसमें सर्व लोकालोक झलकते हैं।
[पृष्ठ-१२] [ ]
स्वतंत्रता देवी परम ज्ञान दर्शन रुप है। इसके भीतर बिना किसी क्रमसे सर्व विश्वके सर्व पदार्थ अपने अनंत गुण पर्यायो के साथ एकदम झलक रहै है। यह स्वतंत्रतादेवी परमशांत स्वरुप है, यह परमानंद स्वरुप है, यह परम अमूर्तिक है, यह अनंत वीर्यको धरनेवाली है, इसका स्वभाव कमल समान प्रफुल्लित है, सूर्य समान तेजस्वी है, चन्द्रमा समान आनन्दामृतको बरसानेवाला है, स्फटिक समान निर्मल है, यह परम दातार है।
[पृष्ठ-२३] [.] एक ज्ञानी आत्मा सर्व संकल्प विकल्प जो संसार वर्द्धक है उनसे उपयोग को
हटाकर स्वतंत्रता प्रेरक विचारों की तरफ बढ़ता है। उसके सामने एक महा समुद्र आ जाता है जिस की शोभा देखने के लिये उमंगवान हो जाता है। यह सागर अथाह ज्ञान जल से परिपूर्ण है। इसकी निर्मलता में सर्व अनन्त ज्ञेय एक साथ झलकते है। अनन्त द्रव्य अपनी अनन्त त्रिकालवर्ती संभवीत पर्यायों के
समूह हैं, गुण पर्यायवान द्रव्य हैं। ज्ञानसे इनका अमिट संबंध है। [ पृष्ठ-२३] [ ] जो भव्यात्मा सर्व व्यवहारकी मलिन दृष्टि को दूर करके केवल निश्चयकी शुद्ध
दृष्टि को रखता हुआ देखता है उसे हरएक आत्मा परम स्वतंत्र झलकता है। यही स्वतंत्र झलकाव स्वात्मानुभवका कारण है। स्वानुभव ही साधक के लिये साध्य प्राप्तिका उपाय है। अंतरंग में सर्व तरह से निश्चिन्त होकर एक अपने ही स्वतंत्र आत्म स्वभावका मनन करता हुआ आत्मानंद का स्वाद लेता हुआ परम तृप्त हो रहा हूं।
[पृष्ठ-४३] [ ] शुद्ध दृष्टि झलकती है कि यह लोक छ: मूल द्रव्योंका समुदाय है। सर्व द्रव्य
अपनी मूल सत्तामें वक्षुद्र स्वभावमें विराजमान हैं। तब सर्व ही द्रव्य एक दूसरे से भिन्न भिन्न परम निर्विकार दिख पड़ते हैं। जैसे- सदा ही निर्विकार व शुद्ध रहनेवाला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश द्रव्य अपनी अपनी एक अखंड सत्ता को रखते हुए दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही असंख्यात कालाण रत्नों की राशि के समान पृथक-पृथक निर्विकार झलकते हैं। [पृष्ठ-४९]