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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
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उपर सूर्ज है ताको प्रतिबिंब जलका भरया घटमैं है ।। तैसे ही तूं तीन लोक के ऊपर केवलज्ञान स्वरुपी सूर्ज है ताको प्रतिबिम्ब ज्ञान स्वरुपी इस देहरुपी घटमें हूं सो निश्चय मैं तेरे सैं अलग नाहीं ।
[ पृष्ठ-५९ ]
ज्ञानानन्द श्रावकाचार
श्री समंतभद्राचार्य प्रणित
[A] अरिहंत देवका स्वरुप सो अरिहंत देव कैसे हैं ? परम औदारिक शरीर में पुरुषाकार आत्म द्रव्य है, तथा घातिया कर्म मल जिनने घात किया है, अथवा जिन्होंने कर्म कल धो दिया है, तथा जिन्हों ने अनन्त चतुष्ठकी प्राप्ति की है, जिनमें निराकुलित, अनुपम, वाधारहित ज्ञान स्वरससे पूर्ण भरा है तथा लोकालोकको प्रकाशित करते हुए भी ज्ञेय रूप नहीं परिणामित होते हैं। एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावको ही धारण करते है, व शांत रस से अत्यंत तृप्त हैं। क्षुधादिक अढारह दोषो से रहित है। निर्मल [ स्वच्छ ] ज्ञान के पिंड हैं। जिनके निर्मल स्वभाव में लोकालोक के चराचर पदार्थ स्थित थे। उनके निर्मल स्वभाव की महिमा वचन अगोचर है । [ पृष्ठ- २ ] सिद्ध परम देव का स्वरुप - अपनी स्वच्छ शक्ति से जिनका स्वरुप दैदीप्यमान प्रकट हुआ है, सो मानो प्रकट होते ही समस्त ज्ञेयों को निगल गया है। पुन: कैसे है सिद्ध ?
एक-एक सिद्धकी अवगाहना में अनन्त अनन्त सिद्ध अलग-अलग अपनी सत्ता सहित स्थित हैं ।
सहज-सुख-साधन
लेखक - ब्र. शीतल प्रसादजी कृत [1] भावार्थ- जिसमें तीन काल के गोचर अनन्त गुण पर्याय संयुक्त पदार्थ अतिशय रुपमें प्रतिभासित होते है उसीको ज्ञानीयों ने ज्ञान कहा है। ज्ञान वही है जो सर्व ज्ञेयों को जान सके ।
[ पृष्ठ-३१० ]
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[A] भावार्थ- केवलज्ञान ज्योति का स्वरुप योगीयोंने ऐसा कहा है कि जिस ज्ञान के अनंतानन्त भाग में ही सर्व चर अचर लोक तथा अलोक प्रतिभासित हो जाता है। ऐसे अनंत लोक हो तो भी उस ज्ञानमें झलक जायें इतना विशाल व आश्चर्यकारी केवलज्ञान है।
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