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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
स्वतंत्रता और सुख है। ज्ञानी को एसी भावना होती है कि मैं सदाकाल स्वसन्मुख रहूं, पर सन्मुख कभी भी न होऊँ।
[पृष्ठ-२०] [.] निज आत्मा का अवलोकन ध्याता का परम इष्ट करनेवाला है। स्वसन्मुखतामें
सुख है और परसन्मुखता में दुःख। स्वसन्मुखतामें शुद्धि प्रगट होती है। पूर्ण शुद्धि को प्राप्त कर लेने पर जीव कभी भी आत्मा से विमुख नहीं होता है। परसन्मुखतामें राग उत्पन्न होता है, आत्म प्रदेशोमें धर्मो के स्कन्ध आकर जमा होता हैं, उनके निमित्त से ज्ञानादि गुणों का धात होता है, किसी न किसी शरीर का सम्बन्ध बना रहता है और शरीर के सम्बन्ध से जीव आधि
- व्याधि एवं उपाधिजन्य अनेक कष्टो को निरन्तर भोगता है। [पृष्ठ-२२] [.] ध्यान में ज्ञान की पर्याय निज आत्मद्रव्य के सन्मुख होती है, इसीलीये निज
द्रव्य–पर्याय के स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है। परलक्ष्य में रुके रहना ही ध्यान की बाधक सामग्री है, इसलिये बहिर्दुनिया के लक्ष्य मे रहने में हमें भय लगना चाहिए। जन- संसर्ग ध्यान में बाधक है। इसलिए जनसम्पर्क का त्याग करना चाहिए। ध्यानार्थी को स्वमत अथवा परमतवादियों से वाद-विवाद नहीं करना चहिए।
[ पृष्ठ-३६] जैन तत्व मीमांसा
___पं. फूलचंदजी सिध्धांत शास्त्री
निश्चय व्यवहार मीमांसा [.] स्वच्छ दर्पणमें, जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित होता है वह, उसी रूपमें
प्रतिबिम्बित होता है। यही सम्यकज्ञान की स्थिति है। जिस प्रकार दर्पण में समग्र वस्तु अखंड भावसे प्रतिबिम्बित होती है उसी प्रकार प्रमाणज्ञानमें भी समग्र वस्तु गुण पर्यायका भेद किये बिना अखंड भावसे विषयभावको प्राप्त होती है।
जैसे अर्थ विकल्पात्मक ज्ञानप्रमाण है यह प्रमाण का लक्षण है सो यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण है। यहां पर स्व-पर समुदायका नाम अर्थ है और ज्ञानका तदाकार होना इसका नाम विकल्प है सत्सामान्य निर्विकल्प होने के कारण उसकी अपेक्षा यद्यपि यह लक्षण असत्त है तथापि आलम्बनके बिना विषय रहित ज्ञानका कथन करना शक्य नहीं है। इसलिए ज्ञान स्वरूप सिध्ध होनेसे अन्यकी अपेक्षा के बिना ही सद्रूप है तथापि हेतुके वशसे वह ज्ञान अन्य शरणकी तरह उपचरित किया जाता है।
तात्पर्य यह है कि एक अखंड पदार्थमें असाधारण गुण द्वारा भेद करके उसे परके आलम्बनसे विशेषण सहित करना यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण है। यहाँ पर पंचाध्यायी में मतिज्ञान आदि जीव है इसे उपचरित