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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
६७ केवलज्ञानमें आते हैं। किन्तु इसका यही तात्पर्य है कि केवलज्ञानकी प्रत्येक समयकी जो पर्याय होती है वह अखण्ड ज्ञेयरूप प्रतिभासको लिए हुए होती है और ज्ञानका स्वभाव जानना होने के कारण केवलज्ञान अपनी उस पर्यायको समग्र भावसे जानता है, इसलिए केवलज्ञान अपने इस ज्ञान द्वारा त्रिकालवर्ती और अलोक सहित त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंका ज्ञाता होने से सर्वज्ञ सत्ताको धारण करता है। ज्ञानमें और दर्पणमें यही अन्तर है कि दर्पणमें अन्य पदार्थ प्रतिबिम्बित होते है परन्तु वह उनको जानता नहीं। किन्तु केवलज्ञानमें अन्य अनन्त पदार्थ अपने अपने त्रिकालवर्ती शक्तिरूप और व्यक्तिरूप आकारोंके साथ प्रतिभासित भी होते है और वह उनको जानता भी है, इसलिए केवलज्ञानने आकाश की अनन्तताको जान लिया या तीनों कालोको जान लिया, अत: उनको अनन्त मानना ठीक नहीं यह प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित है उसी रूपमें वे अपने आकारको केवलज्ञानमें समर्पित
करते हैं और केवलज्ञान भी उन्हे उसी रूपमें जानता है। [ पृष्ठ-२९१ से २९३ ] [] पुरुषार्थसिध्धिउपाय- जिसमें दर्पणतलके समान समस्त अनन्त पर्यायोंके साथ
पदार्थ समूह युगपत् प्रतिभासित होता है वह केवलज्ञानरूपी परम ज्योति जयवंत होओ।
इन दोनो समर्थ आचार्योने केवलज्ञानके लिए दर्पणकी उपमा क्यों दी है इसका विशेष व्याख्यान हम पहले कर ही आये है। उसका तात्पर्य इतना ही है कि जैसे प्रत्येक पदार्थका आकार पदार्थमें रहते हुए भी दर्पणकी पर्याय स्वयं ऐसे परिणमनको प्राप्त हो जाती है जैसा कि विवक्षित पदार्थका आकार होता है। वैसे ही प्रत्येक समय के उपयोगात्मक केवलज्ञानका यह स्वभाव है कि वह प्रत्येक समय में होनेवाली अपनी पर्याय के माध्यमसे सब पदार्थों और उनकी वर्तमान, अतीत और अनागत पर्यायोंको जानता रहे। सब आचार्योने 'उपयोगात्मक ज्ञान ज्ञेयाकार होता है' यह जो कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है और यहाँ पर जो पूर्वोक्त दोनों आचार्योने केवलज्ञान दर्पण की उपमा दी है वह भी इसी अभिप्राय से दी है। [केवलज्ञान स्वभाव मीमांसा-,पृष्ठ-२९२ से २९४ ]
प्रमेय रत्नमाला [.] सूत्रार्थ- कौन ऐसा पुरुष है जो ज्ञानसे प्रतिभासित हुए पदार्थको प्रत्यक्ष मानता हुआ भी स्वयं ज्ञानको ही प्रत्यक्ष न माने ।।११।।
कौन ऐसा लौकिक या परीक्षक पुरुष है, जो ज्ञान से प्रतिभासनशील पदार्थको प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय मानते हुए भी उसी ज्ञानको प्रत्यक्षरुपसे स्वाकार न करे, अपितु वह करेगा ही। यहाँ पर विषयो ज्ञानके प्रत्यक्षपनेरुप धर्मका विषयभूत पदार्थ में उपचार करके उक्त प्रकारका निर्देष किया गया है, अन्यथा अप्रमाणिकपनेका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। [प्रथम समुदेशः, पृष्ठ-२७]