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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
जिन स्वरूपसे सर्वज्ञ हैं पर पदार्थों के कारण नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
.....वस्तुतः ज्ञान के लिए आगममें प्रायः सर्वत्र दर्पणका दृष्टांत दिया गया है और उस द्वारा यह ज्ञान कराया गया है कि जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित करनेकी शक्ति स्वभावसे है उसी प्रकार ज्ञानका ज्ञेयाकाररूप परिणमन करना उसका अपना स्वभाव है। किन्तु जब इसका परकी अपेक्षा प्रतिपादन किया जाता है। जैसे यह कहना कि दर्पणमें पड़ा हुआ प्रतिबिम्बि दूसरो के कारण पड़ा है तब वह व्यवहार कहलाता है। इसी प्रकार ज्ञानको ज्ञेयाकार परिणमन करना उसका अपना स्वभाव है। किन्तु जब यह कहा जाता है कि ज्ञानका ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुकी स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पराश्रित कथन किया गया है, इसलिए यह व्यवहार है।
[पृष्ठ: ५०१-५०२] आत्म प्रबोध
श्री कुमार कवि विरचित [.] अर्थ- जो अनन्तानंत ज्ञानका धारक परमात्मा कर्म रहित होने के कारण
दर्पणमें दर्पण के समान अपने अंतरंग में प्रतिबिम्बित और स्फुरायमान अनन्तानन्त आकाश को 'ऐसा है' इस प्रकार जानता है वह निष्कलंकात्मा परमात्मा अपनी आत्मा से ही निश्चय के योग्य है। भावार्थ- यद्यपि आकाश अनन्तानन्त है तथापि उसे जो विशुद्ध परमात्मा जिस प्रकार दर्पण में प्रतिफलित दर्पण इस रुपका ऐसा है ऐसा स्पष्टरुपसे जान लिया जाता है उसी प्रकार अपने अनन्त ज्ञानके महात्म्य से स्पष्ट जान लेता है और समस्त कलंकोसे रहित है वह [ परमात्मा ] अपने से ही ज्ञात होता है दूसरा कोई पदार्थ उसका ज्ञान नहीं करा सकता। [गाथा-१३१, पृष्ठ-१४०] तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - २
पं. भागचंदजी कृत महावीराष्टक स्तोत्र [.] जिस प्रकार सम्मुख समागत पदार्थ दर्पण में झलकते है, उसी प्रकार जिनके
केवलज्ञान में समस्त जीव-अजीव अनन्त पदार्थ उत्पाद–व्यय-ध्रौव्य सहित युगपत प्रतिभासित होते रहते है;
[पृष्ठ-५] [.] जो अंतरंग दृष्टि से ज्ञानशरीर [ केवलज्ञान ] के पुज्ज एवं बहिरंग दृष्टि से तप्त
स्वर्ण के समान आभामय शरीरवान होने पर भी शरीर से रहित हैं; अनेक ज्ञेय उनके ज्ञानमें झलकतें हैं – अत: विचित्र [अनेक ] होते हुए भी एक अखण्ड
[पृष्ठ-७]