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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ स्वात्मानुभवमनन
__ रचियता - श्री धर्मदासजी क्षुलक [ ] तूं, मैं , यह, वह, तेरो, मेरो, भलो, बूरो, छोटो, मोटो, जन्म, मरण, नाम,
स्त्री, पुरुष, नपूंसक, पाप, पुण्य, बंध, मोक्ष, एक, दोय, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, अजीव , शिष्य, ज्ञान, अज्ञान, चेतन, अचेतन, जीव, अजीव, मनुष्य, देव , तिर्यंच, नारकी, सुख, दु:ख, कालो, पीलो, धोलो, लाल, आकार, निराकार, तन, मन, वचन, धन, कहणा, सुणणा, देखणा, जाणणा, विचारणा, जीव, अजीव, आस्रव , बंध , संवर, निर्जरा, मोक्ष , पुण्य, पाप, गुरु ये केवल ज्ञान स्वरुप परमात्मा है सों केवल ज्ञान स्वरुप दर्पणवत् है, तामें यह का प्रकाश फैल रह्या है तामे तीन लोक झलकता है परन्तु जगत परमात्मा अग्नि उष्णतावत् एक नहीं मूल से ही भिन्न है अर्थात् केवल ज्ञानस्वरुप परमात्मा दर्पण को अनुभव जिस जीव कू लेणो होवै सो ऐसा अनुभव लेकर परम सुखी होहु।। लिखता हूं।
परमात्मा कू दर्पणवत् जानना मानना। जैसे एक मोटा दर्पण के सन्मुख अग्नि को कुंड अर दूसरो जलको कुंड यह दोनो कुंड साचसा उस दर्पण में दीखता है अब उस दर्पणकुं न तो ठंडो कियो जाय न उसकू उष्ण कियो जाय, अर उस दर्पणमें जलाग्नी दोन्यूं प्रत्यक्ष दीखता हैं ताकू न सत्य कही जाय न असत्य कही जाय सत्य कहूं तो दर्पणमें गरमपणो है नहीं अर दर्पण में जल सत्य है एसा कहूं तो दर्पणमें ठंडा शीतल होवे वा जलवत् रसरुप होयजवे नहीं अर दर्पण में जलाग्नि आदि वस्तु दीखती है सो प्रत्यक्ष दीखती है ताकू असत्य कैसे कही जाय। जो प्रत्यक्ष दीखता कू असत्य कहूं तो हाल प्रत्यक्ष मैं ही हु सो असत्य हो हुंगो सो मैं असत्य हूं नहीं वास्ते लोकालोक जीवाजीव आकार निराकार यह बी है अर इन सर्वसैं सर्वथा प्रकार मूलसे ही प्रथम से ही अलग है सौबी है।
[ पृष्ठ-४३-४४ ] [स्थामा विभिन्नतानो पोल] [.] बहुरि जैसे क्रोधादिकका क्रोधपणा आदिक क्रियापणा स्वरुप है तैसे जानन
क्रियारुप स्वरुप नाहीं है कोई ही प्रकार करि ज्ञानकू क्रोधादि क्रियारुप परिणाम स्वरुप स्थाप्या न जोय है तातें जानन क्रिया के क्रोधरुप क्रिया के स्वभाव का भेद करि प्रगट प्रतिभासमानपणा है। बहुरि स्वभाव के भेद तेही वस्तुका भेद हैं।
[ पृष्ठ-५२]
[ પ્રતિભાસ દ્વારા પણ સર્વે જીવો સિધ્ધ સ્વભાવી છે તે નક્કી થયું.] [.] है परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी तेरे सन्मुख यो जगत संसार नाहीं जैसे आकाश मैं