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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
समाधि शतक
जैनधर्म भुषण ब्र- शीतलप्रसादजी कृत टीका [.] यदि हम निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिकनयसे विचार करें तो आत्मामें ये तीन
अवस्थाओं का विशेष नहीं भासता है। आत्मा सदा ही अपने स्वभावरुप - एक ज्ञायकभावरुप प्रतिभासता है। परंतु जब व्यवहारनय पर्यायार्थिक नयसे विचार करते है तब कर्म बंधन सहित आत्मा की द्रष्टि से आत्मा के तीन भेद हो जाते है।
[गाथा-४, पृष्ठ-२३ ] [.] अन्वयार्थ- सर्व इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में जाते हुऐ रोककर स्थिरीभूत
मनसे अर्थात् अपने भीतर जो कोइ आत्मा है उस तरफ अपने को सन्मुख रखते हुए क्षणमात्र भी अनुभव करनेवाले के जो स्वरुप झलकता है सो ही परमात्मा का स्वरुप है।
[गाथा-३०, पृष्ठ-६८,६९] [.] आत्मा ज्ञान स्वभावी है – इसका ज्ञानोपयोग ज्ञेय पदार्थों के निमित्त से कभी
कहीं भ्रमण किया करता है। हम लोग मन सहित पंचेन्द्रिय जीव है, इससे हमारा उपयोग कभी किसी इन्द्रिय कभी किसी इन्द्रियत्व, कभी मनके द्वारा उसका विशेष स्वरुप कारण, कार्य आदि का विचार करता है, परन्तु काम एक समय एक ही इन्द्रिय के द्वारा यह उपयोग करता है। इन्द्रिय के द्वारा उपयोग किसी विशेष को जानता है तथा मनके द्वारा भी किसी विशेष का चिन्तवन करता है।
अब जब उपयोग को अपने ही आत्मा के तरफ जाना हो, जिसका ही एक परिणाम उपयोग है तब उसको विशेषोंको छोडकर सामान्य पर आना पडेगा इसलिए सर्व इन्द्रियों व मन से उपयोग को हटाना पडेगा और अपने स्वामी अथवा अपने आत्मा की तरफ उस उपयोग को रखना पडेगा- सो ही यहाँ कहते हैं कि इन्द्रियों से व मनके विकल्पों से रहते हुए जिस समय आपके सन्मुख उपयोग करके अनुभव किया जाता है, उस समय जो कुछ भीतर प्रकाशीत होता, वही परमात्मा का स्वरुप है। परमात्मा की प्राप्ति का यही उपाय है, इन्द्रियको रोको मनको स्थिर करो और आपको देखो - जो कुछ दिखता है वही परमात्मा है। स्वानुभव व स्वसंवेदन उसी समय होता है, उसी समय परमानंदकी प्राप्ति होती है। कहने का प्रयोजन यह है कि निश्चयसे तूं स्वयं परमात्मा है। जब तूं पर से हटकर आपमें आवेगा, तूं स्वयं परमात्म स्वरुप है। अपने आत्माका अनुभव कुछ भी कठिन नहीं है, अपनी ही वस्तु है। अनादि से हमने इन्द्रिय और मनरुपी छ: झरोखो से बाहर देखने का अभ्यास कर रखा है, कभी भी उनसे देखना छोड़ते नही। जब कभी उन झरोखों में न झांक कर हम अपने घर की तरफ देखेंगे तब हमें स्वयं अपना स्वरुप दिखाई पडेगा।