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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
- गोम्मटसार जीवकांड - सम्यकज्ञान चंद्रिका भाषा टीका
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आ. नेमीचंद्र सिध्धांत चक्रवर्ती विरचित पं॰ प्रवर टोडरमलजीकृत भाषा टीका [દર્શનોપયોગ નિર્વિકલ્પ, નિરાકાર અને જ્ઞાનોપયોગ સવિકલ્પ, સાકાર [1] भावार्थ- वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। तर्हां सामान्य का ग्रहण कौं निराकार उपयोग कहिए, विशेषका ग्रहण कौं साकार उपयोग कहिए । जातैं सामान्य विषै वस्तु का साकार उपयोग कहिए । जातैं सामान्य विषै वस्तु का आकार प्रतिभासे नाहीं; विशेष विषै आकार प्रतिभासै हैं ।
[ गाथा - ६७५, पृष्ठ- ७३१ ]
अध्यात्म पंच संग्रह
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पं. दीपचंदजी काशलीवाल रचित
परमात्म पुराण
ऐसें ज्ञानगुणको च्यारि भेद कहिये है
ज्ञानकौं रिषि संज्ञा काहेतैं भई सो कहिये है- ज्ञान आपणां जानपणां का स्वसंवेदन विलास लिये है । ज्ञानके जानपणां है तातें आपको आप जाने हैं। आपके जानै आप सुध्ध है। आनंद अमृत वेदना ज्ञानपरणतिद्वार तै आपही आप आपमैं अनायरसास्वादु ले है। जिसके उपचारमात्रमैं ऐसा कहिये । ज्ञानमैं तिहं काल संबंधी ज्ञेयभाव प्रतिबिंबित भये सर्वज्ञता भई । लोकालोक असदभूत उपचार करि ज्ञानमैं आये। ज्ञान अपने सुभाव करि थिर हैं। [ पृष्ठ-३४ ]
अध्यात्म कमलमार्तण्ड भाग - २ पंडित राजमल्लजी विरचित [1] अर्थ- मैं पुद्गलादि पर द्रव्योंसे भिन्न लक्षण हूँ सामान्यतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रादि स्वरुप है । मेरे चैतन्य – स्वरुपसे अन्य जो कुछ भी प्रतिभासित् होता है वह सब अनेक गुण - गुणीमें व्याप्त लक्षणवाले पर पदार्थ हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, काल द्रव्य, दूसरे जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य भी मेरे से भिन्न है । तथा आत्मा और कर्म के निमित्तसे होनेवाली द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभादिरुप परिणति भी मुझसे भिन्न है। [ पेज नं-११ - भाग-२ ]
राग,
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