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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
૫૫ युक्तानुशासन
श्रीमद् स्वामी समन्त भद्राचार्यवर्य प्रणीत [ ] इस पर यदि यह कहा जाय कि स्वतन्त्र एक द्रव्य एक द्रव्य प्रत्यक्षादिरुपसे
उपलभ्यमान न होने के कारण क्षणिक पर्यायकी तरह आकाश-कुसुम के समान अवस्तु है सो तो ठीक; परन्तु उभय तो द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य - विशेष समवायरुप सत् तत्त्व हैं और प्रागभाव – प्रध्वंसाभाव-अन्योन्याभाव - अत्यंताभावरुप असत् तत्त्व है, वह उनके स्वतन्त्र रहते हुए भी कैसे आकाश के पुष्प समान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि ज्ञान विशेषका विषय सर्वजनोमें सुप्रसिद्ध है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; -
__ क्योंकि कारण द्रव्य [ अवयव] कार्यद्रव्य [अवयवी] की, गुण-गुणी की, कर्म-कर्मवान की समवाय-समवायवानकी एक दूसरे से स्वतन्त्र पदार्थ के रुपमें एकवार भी प्रतीति नहीं होती। वस्तु तत्त्व इससे विलक्षण - जात्यान्तर अथवा विजातीय है और वह सदा सबोंको अवयव – अवयवीरुप, गुण-गुणीरुप, कर्म-कर्मवानरुप तथा सामान्य-विशेषरुप प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निर्बाध प्रतिभासित होता है।
श्री जयधवला श्री वीरसेनाचार्य विरचित
कषायपाहुड टीका [.] अर्थ- जिसके केवलज्ञानरुपी उज्जवल दर्पण में लोक और अलोक विशद रुप
से प्रतिबिम्ब की तरह दिखाई देते है अर्थात् झलकते है और जो विकसित कमल के गर्भ अर्थात् तपाये हुए सोने के समान पीतवर्ण है, वे वीर भगवान् जयवंत हो।।३।।
[पृष्ठ-३, मंगलाचरण।।३।। भारतिय विद्यापीठ जैनसंघ मथुरा] [.]
तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास केवलज्ञानम् ।।
- [भतार्थानुन ३२॥ भोटे] अर्थ- इसलिए आत्मा ही [ वास्तवमैं ] स्वपर अवभासक: है ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभासको केवलदर्शन कहते है और पर प्रतिभासको केवलज्ञान कहते है।
[धवला पुस्तक ६,खण्ड सं-१,भाग-६,सूत्र-१,गाथा-४, पृष्ठ-१६]