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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ अमृताशीतिः
श्रीमद् आचार्य योगीन्दुदेव विरचित [] हिन्दी अनुवाद की टीका- जो परभाव से शून्य निज-निरंजन परमात्मरुपी
आकाश के मध्यमें सम्पूर्ण दिशाओं का अवसानरुप होने से अतीत है, एसा यह लोक व परमागम में प्रसिद्ध रुप आकाश भी सूक्ष्म पुद्गल-धूलिकण के
समान दिखाई देता है, [.] भावार्थ- सहज परम पारिणामिक भाव की आराधना ही सर्वज्ञत्व को सम्पन
करती है - ऐसा अभिप्राय है। विशेष- अर्जुन की भांति आत्माराधकको भी निज-निरंजन परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ दिखाई नहीं देता है, अतः उसे लब्धलक्ष्य: यह विशेषण योगेन्दुदेव ने यहाँ दिया है। एसा साधक अपने उपयोगको निज वीतराग परमात्मतत्त्व में, जिसे यहाँ निरवधिनि आकाशरन्ध्र कहा गया है [ परमात्मप्रकाश, २/१६२ – १६५४ टीका] अत्यन्त गहराई तक उतार देता है। उक्त आकाश में स्थितिरुप निर्विकल्प समाधिका फल केवलज्ञानकी प्राप्ति है। उस केवलज्ञान रुपी ज्योतिमें समस्त ब्रह्मांड की एक 'अणु' के समान प्रतीति होती है।
[तत्वानुशासन-२५९, अरपुराण-६४-६५ ] [ ] जैसे अनन्त आकाश के मध्य यह लोक एक अणु जैसी स्थिति रखता है, ऐसा
ही अनन्त महिमा उस केवलज्ञान पर्याय की है, जिसकी जानने की सामर्थ्य इतनी अनंत है कि समस्त ब्रह्माण्ड इसके समक्ष अत्यन्त तुच्छ है और ऐसी सामर्थ्यवान पर्याय के जनक आत्मतत्त्व की महिमा तो उससे भी अनन्तानन्त
[पृष्ठ-१४६-१४७] आप्तमीमांसा
श्री समंतभद्राचार्य विरचित [प्रमाण का लक्षण और उसके भेद] तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वाद-नय-संस्कृतम्।। हे अर्हन भगवन् ! आपके मत में तत्वज्ञान को प्रमाण कहा है। वह प्रमाणज्ञान एक तो युगपत् सर्वभासनरूप प्रत्यक्ष ज्ञान है और दूसरा क्रमशः भासनरूप परोक्षज्ञान है। जो क्रमशः भासनरूप ज्ञान है वह स्याद्वाद तथा नयों से संस्कृत है। [ गाथा-१०१ ]
चर