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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
प्रतिभासित होते हैं इसलिये वे प्रतिभासके ही भीतर आ जाते हैं, इस अनुमान से भी ब्रह्म की सिद्धि होती है।
[पृष्ठ-१५८-१५९] न्याय दीपिका
श्री धर्मभूषणयति विरचित [.] जैन परम्परा में सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्र और आचार्य सिद्धसेनने प्रमाण का
सामान्य लक्षण निर्दिष्ट किया है और उसमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधविवर्जित ये तीन विशेषण दिये हैं। भारतीय दार्शनिकोमें समन्तभद्र ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने स्पष्टतया प्रमाण के सामान्य लक्षण में 'स्वपरावभासक' पद रखा है यद्यपि विज्ञानवादी बौद्धोनें भी ज्ञान को ‘स्वरूपस्य रूपतो गते:' कहकर स्वसंवेदी प्रकट किया है परंतु तार्किकरूप देकर विशेषरूप से प्रमाण के लक्षण में 'स्व' पदका निवेश समन्तभद्रका ही स्वोपज्ञ जान पड़ता है। क्योंकि उनके पहले वैसा प्रमाण लक्षण देखने में नहि आता। समन्तभद्रने प्रमाण सामन्य का लक्षण 'युगपत्सर्वभासितत्वज्ञान' भी किया है जो उपर्युक्त लक्षण में ही पर्यवसित है दर्शनशास्त्रो के अध्ययन से ऐसा मालूम होता है 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा प्रमिति [ परिच्छितिविशेष ] हो वह प्रमाण है,
समन्तभद्रने 'स्वपरावभासक' ज्ञानको प्रमिति का अव्यवहितकरण प्रतिपादन किया है। समन्तभद्रके उत्तरवर्ती पूज्यपाद ने भी स्वपरावभासक ज्ञानको ही प्रमितिकरण [ प्रमाण] होनेका समर्थन किया है और सन्निकर्ष, इन्द्रिय तथा मात्र ज्ञानको प्रमितिकरण [प्रमाण] मानने में दोषोद्भावन भी किया है। वास्तव में प्रमिति प्रमाणफल जब अज्ञाननिवृति है तब उसका करण अज्ञानविरोधी स्व और परका अवभासन करनेवाला ज्ञान ही होना चाहिए। समन्तभद्र के द्वारा प्रतिष्ठित इस प्रमाण लक्षण 'स्वपरावभासक' को आर्थिकरूपसे अपनाते हुए भी शाब्दिकरूपसे अकलङ्कदेवने अपना आत्मार्थग्राहक व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण लक्षण निर्मित किया है। तात्पर्य यह कि समन्तभद्र के 'स्व' पद की जगह 'आत्मा' और 'पर' पदके स्थान में 'अर्थ' पद एवं 'अवभासक' पद की जगह 'व्यवसायात्मक' पद को निर्दिष्ट किया है।
[ पृष्ठ-१४-१५]