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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
टंकोत्कीर्ण हूं मोहजनित राग द्वेषादिक या मैं झलकतें हैं ते मेरे रुप नाहीं पर
हैं एसैं तो अपने स्वरुपका निश्चय हुआ।[गाथा-९३, भावार्थ , पृष्ठ-३५४-३५५ ] [.] भावार्थ- बहुरि जो परं ज्योति है, जाका परं कहिये आवरणरहित; ज्योति
कहीये, अतीन्द्रिय अनन्त ज्ञानमें लोक अलोकवर्ती समस्त पदार्थ अपने त्रिकालवर्ती अनंत गुण पर्यायनिकरि सहित युगपद् प्रतिबिम्बित् होय रहे है, सो भगवान परम ज्योतिरुप आप्त है।
[गाथा-७ मेंसे] [.]
नमः श्री वद्धमानाय निर्द्वतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते।। भावार्थ- जाके केवलज्ञान विद्यारुप दर्पणविषै आलोकाकाश सहित षटद्रव्यनिका समुदायरुप समस्त लोक अपनी भूत-भविष्यत- वर्तमानकी समस्त अनन्तान्त पर्यायनिकरि सहित प्रतिबिम्बित होय रहे है। ऐसा अर जाका आत्मा समस्त कर्ममल रहित भया ऐसा श्री वर्द्धमान देवाधिदेव अंतिम तीर्थंकर ताकू अपने आवरण कषायादि मल रहित सम्यक्ज्ञान प्रकाश के अर्थे नमस्कार किया।
[मंगलाचरण, पृष्ठ-२] [.] अर्थ- तैसैं ही मति कहिये सम्यक्ज्ञान जो है सो करणानुयोग जो है ताहि
जानै है। कैसाक है करणानुयोग; लोक अर अलोकके विभाग को अर उत्सर्पिणीके छह काल अर अवसर्पिणीके छह काल के परिवर्तन कहिये पलटनेका, अर चार गतिनिके परिभ्रमणका आदर्शमिव कहिये दर्पणवत् दिखानेवाला है।
भावार्थ- जामे षद्रव्यका समुदायरुपतो लोक, अर केवल आकाश द्रव्य ही सो अलोक अपने गुण पर्यायनि सहित प्रतिबिम्बित होय रहे है। अर छहुकाल के निमित्त तैं जैसे जैसे जीव पुद्गलनिकी परिणति है ते प्रतिबिम्बरुप होये जामैं झलक है, अर जामे चारगतिनिका स्वरुप प्रगट दिपै है सो दर्पण समान करणानुयोग है। तिनै यथावत् सम्यक्ज्ञान ही जानै है।
[गाथा-४४, पृष्ठ-१३४-१३५]
ભગવાન ત્રણકાળ-ત્રણલોકને જાણે છે તેની વિશેષતા નથી પરંતુ શુદ્ધાત્માના જ્ઞાનપૂર્વક આનંદરૂપ થયા છે તેની વિશેષતા છે.
(भोक्षमार्ग प्राशययन मारा-१ (हिन्दी) पे७४ नं-३१)