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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ रत्नकरंड श्रावकाचार श्रीमद् भगवत् समंतभद्राचार्य विरचित पं. सदासुखदासजीकृत - टीका [.] इस देहमें पगके नखौं लगाय मस्तक पर्यंत जो ज्ञान है, चैतन्य है सो हमारा
धन है इस ज्ञान भावतै अन्य एक परमाणुं मात्र हूँ हमारा नाहीं है। देह अर देह के संबंधी जे स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, राज्य, वैभवादिक हैं ते मोतें भिन्न पर द्रव्य हैं; संयोग ते उपजै हैं हमारा इनका कहाँ संबंध? संसारमें ऐसे संबंध अनंतानंत होय वियोग भये हैं। जिनका संयोग भया है तिनका वियोग निश्चयतें होय होगा। जो उपजै है सो विनशेगा। मैं ज्ञान स्वरुप आत्मा उपज्या नाहीं, विनसूंगा नाहीं, एसा जाके द्रढ निश्चय है तिसके देह छूटनेका अरु दस प्रकार परिग्रह का वियोग होने का भय नहीं तदि इसलोक के भय रहित सम्यक्द्रष्टि निःशंक है। बहुरि सम्यग्द्रष्टि के परलोक का भय हू नहीं है। जिसमें समस्त वस्तु अवलोकन करिये सो लोक है। जातें हमारा लोकतो हमारा ज्ञानदर्शन है जिसमें समस्त प्रतिबिंबित होय रहें हैं। [गाथा-१२ नो भावार्थ , पृष्ठ-३५-३६ ] भावार्थ- जो समस्त वस्तु झलक हैं सो हमारा ज्ञानस्वभावमें अवलोकन करे हूँ तो हमारे ज्ञानके बाह्य किसी वस्तुकू मैं नहीं देखू हूँ, नहीं जानूं हूँ। जो कदाचित हमारा ज्ञान है सो निद्रा करी मुद्रित होय जाय तथा रोगादिकर करि मूर्छाकरि मुद्रित होय जाय तो समस्त लोक विद्यमान है तो हू अभाव रुपसा ही भया यातें हमारा लोक तो हमारा ज्ञान ही है। हमारा ज्ञान बाह्य किसी वस्तु क देखने जाननेमैं आवे नहीं है अर हमारे ज्ञान तैं बाह्य जो लोक हैं जिसमें नाना प्रकार नरक स्वर्ग सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष है सो सब मेरा स्वभाव तें अन्य है। पाप पुण्य दोऊ ही विनाशीक है अर स्वर्ग नरकादिक पुण्य पापका फल हूँ विनाशीक है। अर मैं आत्मा ज्ञानदर्शन सुख वीर्यका अविनाशपणानै धारण करता अखंड हूँ अविनाशी हूं मोक्षका नायक हूं मेरा लोक मेरे मांहीं ही है। तिस ही मैं समस्त वस्तू कू अवलोकन करता वसूं हूं। [गाथा-११, भावार्थ, पृष्ठ-३६-३७] ......कोऊ अकस्मात् काल लब्धि के प्रभाव” उत्तमकुलादिकमें जिनधर्म पाया है यातें वीतराग सर्वज्ञका अनेकान्तरुप परमागम के प्रसादत प्रमाणनय निक्षेपनितें निर्णयकर परीक्षा प्रधानी होय वीतरागी सम्यक्ज्ञानी गुरुनिके प्रसाद” जैसा निश्चय भया- जो एक जाननेवाला ज्ञायकरुप अविनाशी अखंड चेतना लक्षण देहादिक समस्त पर द्रव्यनितें भिन्न मैं आत्मा हूं, देह जाति कुलरुप नाम इत्यादिक मौं तैं अत्यंत भिन्न हैं। अर रागद्वेष काम, क्रोध, मद, लोभादिक कर्म के उदय तें उपजै; मेरे ज्ञायक स्वभाव में विकार हैं। जैसे स्फटीकमणी तो आप स्वच्छ श्वेत स्वभाव है। तिसमें डांक को संसर्गरौं काला पीला हरया लाल अनेक रंगरुपके दिखै हैं तेसैं में आत्मा स्वच्छ ज्ञायकभाव हूँ निर्विकार