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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
सो एक ही समय में स्पष्ट प्रत्यक्ष प्रतिभासित होता है। [ अथ द्विचत्वारिंशं प्रकरणम्, गाथा- ६९, पृष्ठ-४४३ ] [1] इस प्रकार इस शास्त्र की महिमा निरुपण की। इसका तात्पर्य यह है कि इस शास्त्र का नाम ज्ञानार्णव सार्थक है। ज्ञान को समुद्र की उपमा दी है। जो ज्ञान को जानता है वही निर्मल जल है और उसमें जो सर्व पदार्थ प्रतिबिंबित होता है वे ही रत्न है। इस प्रकार ज्ञान की स्वच्छता और एकाग्रता करने का इसमें वर्णन है। इस कारण इसका नाम ज्ञान समुद्र [ ज्ञानार्णव ] है। [ अथ द्विचत्वारिंशं प्रकरणम्, , गाथा- ८८, पृष्ठ- ४४७ ]
परीक्षामुख
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श्री माणिक्यनन्दिस्वामि विरचित
[વિલક્ષણ પ્રતિભાસથી પ્રમાણની સિદ્ધિ ]
[A] “प्रतिभासस्य च भेदकत्वात्।।६०।।
अर्थ- प्रतिभास भेद हीं प्रमाण के भेदों को सिद्ध करता है अर्थात् जिसने जितने प्रमाण माने है उनसे अधिक प्रमाणों की सिद्धि के लिये एक विलक्षण प्रतिभास साधती है। जिन्होंने रसेध्र जितने भी प्रमाण माने है उन सबके लिये व्याप्ति को विषय करनेवाला तर्क, प्रमाण प्रतिभास भेद [ विलक्षण प्रतिभास ] होने से मानना ही पडेगा, क्योंकि प्रतिभास भेद से ही प्रमाणों का भेद माना जाता है। [ पृष्ठ-१२८-१२९ ] [સામાન્ય વિશેષાત્મક પદાર્થના પ્રતિભાસથી વિષયાભાસની અસિદ્ધિ. ] [A] “तथाऽ प्रतिभासनात्कार्या करणाच्च ”।।६२।।
अर्थ- सामान्य विशेष रुप ही पदार्थ का प्रतिभास होता है । तथा वैसा ही पदार्थ अपने कार्य [ अर्थ क्रिया ] करने में समर्थ होता है । अन्य सामान्यरुप अथवा विशेषरुप पदार्थ नहीं, इसलिये वे विषयाभास कहे जाते हैं।
[ पृष्ठ-१२९ ]
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श्रोता- જ્ઞાન તો ક્ષયોપશમનો એક અંશ છે, એનાથી બંધ થતો નથી. સમાધાન- ક્ષયોપશમથી બંધ ન થાય એ વાત અત્યારે નથી. જે જ્ઞાનનો અંશ છે ઉઘાડ છે એ જ્ઞાનનો અંશ એકલા પરને જાણે અને સ્વને ન જાણે એ દોષનું કા૨ણ છે. (अपयन सुधा भाग-२, पे६४ नं-४४४ )