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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
ज्ञानार्णव श्रीमत् आचार्य शुभचन्द्र विरचित
संस्कृत टीकाकार पं- नयविलास [.] .....मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, मन: पर्यायज्ञान और केवलज्ञान; इस
प्रकार से वह ज्ञान अपने वंश सहित अपने अवान्तर भेदोंसे संयुक्त – भेदोंसे पाँच प्रकार का कल्पित किया गया है। विशेषार्थ- वास्तव में ज्ञान यह एक आत्मा का अखण्ड गुण है और इसीलिए उसके भेदों की सम्भावना नहीं है। प्रथम श्लोक में जो उस ज्ञान का यह लक्षण किया गया है कि जिसमें तीनों कालो के समस्त पदार्थ अपने अनन्त गुणों और पर्यायों के साथ युगपत् प्रतिबिम्बित होते हैं वह ज्ञान है; वह भी इस अखण्ड व निरावरण ज्ञानमें ही घटित होता है। उसके जो मतिश्रुतादिरुप भेद-प्रभेद माने गये हैं वे औपाधिक हैं- कर्म के निमित्त से कल्पित
किये गये हैं, इसलिए वे उपचरित हैं, वास्तविक नहीं हैं। [ ] अर्थ- एक भाव सर्व भावोंके स्वभाव स्वरुप है और सर्व भाव एक भावके
स्वभाव स्वरुप है; इस कारण जिसने तत्त्वसे [ यथार्थपनेसे ] एक भावको जाना उसने समस्त भावोंको यथार्थतया जाना। भावार्थ- आत्मा का एक ज्ञानभाव ऐसा है कि जिसमें समस्त भाव [ पदार्थ] प्रतिबिम्बित होते हैं। उन पदार्थों के आकार स्वरूप आप होता है तथा वे भाव सब ज्ञेय हैं। उनके जितने आकार हैं वे एक ज्ञानके आकार होते हैं। इस कारण , जो इस प्रकार के ज्ञान के स्वरुपको यथार्थ जानता है, उसने सब ही पदार्थ जाने अर्थात् ज्ञान ज्ञेयाकार हुआ इस कारण ज्ञानको जाना तब सब ही जाना। क्योंकि ज्ञान ही आत्मा है, इस कारण ऐसा कहा है।।१।।
[अथ चतुस्त्रिंशं प्रकरणम् , पृष्ठ-३४२] [.] अर्थ- जिसमें तीन काल के गोचर अनन्तगुणपर्याय संयुक्त पदार्थ अतिशयता
के साथ प्रतिभासित होते हैं, उसको ज्ञानी पुरुषोंने ज्ञान कहा है। यह
सामान्यतासे पूर्ण ज्ञानका स्वरुप है। [ सप्तमं प्रकरणम् गाथा-१, पृष्ठ-१०४ ] [.] अर्थ- जिस केवलज्ञान के अनन्तानन्त भाग करने परभी यह चराचर लोक
प्रतिभासित होता है तथा अलोकाकाश अनन्तानन्त प्रदेशी है, यह भी प्रगट प्रतिभासता है इस प्रकार योगीश्वरोंके ज्योति प्रकाशरुप कहा है। भावार्थ- केवलज्ञान में समस्त लोकालोक प्रकाशमान है। और यह ज्ञान योगीश्वरों को ही होता है।
[गाथा-१०, पृष्ठ-१०५] [.] अर्थ- योगीश्वरोंके पति श्री सिद्ध भगवान के ज्ञानरुपी सूर्य में भूत, भविष्यत् ,
वर्तमान तीनों काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य पर्यायों से व्याप्त जो यह जगत् है