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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
33 को युगपत् जानता है। यद्यपि वह ज्ञान सदाकाल एकाकार रहता है, तथापि ज्ञेयाकारों से अनेकाकार सुशोभित होता है।
[स्तुति-२३, छंद नं-४ , पृष्ठ-३८१] [] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आपका केवलज्ञानरुपी दर्पण यद्यपि नाना ज्ञेयों के
आकारो रुप परिणमित होने से नानाकार अनेकाकार होता है, तथापि ज्ञेयाकारों को गौणकर ज्ञानस्वभाव मात्र को देखा जावे, तब तो वह ज्ञानाकार
मात्र एक रुप से सुशोभित होता है। [स्तुति-२३, छंद नं-६, पृष्ठ-३१२] [.] भावार्थ- जगत के समस्त पदार्थ आपके ज्ञान से बाहर भिन्न रहकर परिणमन
करते हैं तथा आपका ज्ञान अन्तर्जेय रुप से परिणमन करता है। बाह्य ज्ञेयरुप तथा अंतर्जेय रुप से परिणमन युगपत् ही होता है। इसलिए आपका अंतर्जेयाकार परिणमन किसी की सहायता की अपेक्षा बिना ही होता है। आप निरपेक्ष
रहकर लोकालोक को जानते हैं। [स्तुति-२३, छंद नं-१२, पृष्ठ-३८७ ] [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आपका ज्ञान, दर्पण की तरह स्वच्छता के कारण
परपदार्थो के आकारों को ग्रहण एवं धारण करता है, फिर भी वह पदार्थ से भिन्न ही रहता है। यद्यपि आपका ज्ञान परपदार्थो से रहित है, तथापि वह ज्ञेयाकारों से परिपूर्ण है तथा रागादि विकारों का क्षय हो जाने से वह ज्ञान अत्यंत शुद्ध है।
[स्तुति-२३, छंद नं-१८, पृष्ठ-३९१ ] [.] भावार्थ- आत्मा में पदार्थों की त्रिकालवर्ती आकृतियां झलकती हैं यद्यपि उन
आकृतियों की अपेक्षा आत्मा की विभिन्नता कही जाती है, तथापि आत्मा स्वभावत: एक ही है। आत्मा अन्यद्रव्यो में उत्पाद तथा व्यय भी नहीं करता
[स्तुति-२३, छंद नं-२२, पृष्ठ-३९४ ] भावार्थ- हे प्रभो! आपके चैतन्य रत्नाकर में तीनों लोक झलकते हैं, मानो वे उसमें डूब गए हैं, परन्तु वास्तव में तो तीनों लोक आपके ज्ञान से सदा ही भिन्न रहकर प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार पदार्थों की महिमा अचिन्तनीय है तथा आश्चर्यकारी भी है। [स्तुति-२४ , छंद नं-१५, पृष्ठ-४०९] भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! आपका केवलज्ञान स्वभाव मुझे आश्चर्य पैदा करता है। आपका केवलज्ञान असंख्यात प्रदेशी आत्मा की सीमा में ही रहता है, प्रदेशों से बाहर नहीं जाता है, अत: सीमित है, परन्तु जगत् के समस्त पदार्थों की पंक्ति अपने अपने गुण–पर्यायों की अनन्तता सहित केवलज्ञान में झलकती है। केवलज्ञान उन्हें जानता है अतः वह सीमित होकर भी सर्वव्यापी है। ऐसी विचित्र महिमा से सम्पन्न आपका निर्णय मुझे कठिनतासे हो रहा है।
[स्तुति-२५ छंद नं-१६ , पृष्ठ-४१०]
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भावार्थ- ह प्रा