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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
[क्षयोपशम भने यि आननो विषय समान छ.] [.] भावार्थ- हे प्रभो! आपके ज्ञानोपयोग की महिमा तो निराली है ही परन्तु
क्षायोपशमिक ज्ञानोपयोगकी महिमा भी कम नहीं थी क्योकि उसमें भी यह विश्व प्रतिफलित होता था और प्रतिफलित होकर भी उस ज्ञानोपयोग से बाह्य ही रहता था। भाव यह है कि ज्ञानोपयोग चाहे क्षायिक हो और चाहे क्षायोपशमिक हो, उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले ज्ञेय उससे भिन्न ही रहते हैं।
[स्तुति-२४ , श्लोक-२४, पृष्ठ-२७३] भावार्थ- जिस प्रकार ईधनको जलाना अग्नि का स्वभाव है उसी प्रकार ज्ञेय को जानना ज्ञानका स्वभाव है। वह ज्ञेय बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका होता है। घट-पटादि बाह्य ज्ञेय है और ज्ञानके भीतर पड़ा हुआ उनका विकल्प अन्तर्जेय है। ऐसा एकान्त नहीं है कि ज्ञान अन्तर्जेयको ही जानता है या बहिर्शेयको ही। अन्तर्जेय बहिर्जेय से सबन्ध रखता है अत: जहां अन्तर्जेयके जानने की बात कही जाती है वहाँ बहिर्जेयका जानना स्वत: आ जाता है और जहाँ बहिर्शेयके जाननेकी बात आती है वहाँ अन्तर्जेयका जानना स्वयंसिद्ध है। क्योंकि अन्तर्जेयको जाने बिना बहिर्शेयका जानना संभव नहीं है। उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि हे भगवन् ! आप ज्ञान स्वभावके कारण बाह्य पदार्थों को यद्यपि प्रतिसमय जानते हैं तथापि उनसे भिन्न रहते हैं। जिस प्रकार मयूर के प्रतिबिम्बसे युक्त होने पर भी दर्पण मयूर से भिन्न रहता है उसी प्रकार आपका ज्ञान, घट–पटादि बाह्य पदार्थों के विकल्पोसे युक्त होने पर भी उनसे भिन्न रहता हैं। [स्तुति-२५,श्लोक-९, पृष्ठ-२७९]
આ જ્ઞાનસ્વરૂપ પ્રભુ છે. જ્ઞાનસ્વરૂપ એટલે કે સમજણનો પિંડ! જ્ઞાનનો ગાંગડો! જ્ઞાનનો ડુંગર! જ્ઞાનનો મેરુ! એના સ્વભાવની મર્યાદા શું? આવા જ્ઞાન સ્વભાવનું જ્ઞાન થતાં તે ભલે અલ્પજ્ઞ છે... છતાં તેના સ્વભાવનું અમર્યાદિત જ્ઞાન તેના જ્ઞાનમાં આવી જાય છે. પ્રગટ નથી પણ (તેનું) જ્ઞાન આવી જાય છે. એ શું કીધું? જ્ઞાનની પર્યાયમાં આ આખું દ્રવ્ય શેય છે એવું જાણવામાં આવ્યું. જાણવામાં આવ્યું તો પણ એ જે (ત્રિકાળી) શેય છે એ પર્યાયમાં આવી ગયું નથી; પણ શેયનું જેટલું સામર્થ્ય છે એ જ્ઞાનમાં આવી ગયું છે.
(प्रवयन सुधा माग-२, पे४४ नं-४33)