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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
ज्ञेयाकार विकल्प आत्मामें पड़ता है परन्तु इस विकल्प के पड़ने पर भी क्या पदार्थ आत्मामें प्रविष्ट हो जाते हैं ? नहीं। पदार्थ पदार्थ ही रहते है ओर आत्मा आत्मा ही रहता है। ज्ञान ज्ञेय स्वभावकी ऐसी ही अद्भुत महिमा है कि वे दोनो पृथक्-पृथक् रहकर भी अपृथक् के समान जान पड़ते हैं। ज्ञान ज्ञेयका यह स्वभाव अचल है – कमी नष्ट नहीं होता है ओर आत्माके सिवाय अन्य द्रव्योमें नहीं पाया जाता है अत: उससे पृथक् है। [स्तुति-१६ , श्लोक-९, पृष्ठ-१७६] भावार्थ- वस्तुका स्वभाव विधि और निषेधरूप है। स्वचतुष्यकी अपेक्षा वस्तु विधिरूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा निषेधरूप है। ‘ज्ञानमें ज्ञेय है' यह विधिपक्ष है और 'ज्ञानमे ज्ञेय नहीं है' यह निषेध पक्ष है। ज्ञानमें ज्ञेयका विकल्प आता है' इस अपेक्षा से विधि पक्षकी सिद्धि होती है और 'ज्ञानमें ज्ञेयके प्रदेश नहीं आते हैं' इस अपेक्षा से निषेध पक्षकी सिद्धि होती है।
जिस प्रकार दर्पणमें पड़ा हुआ मयूरका प्रतिबिम्ब दर्पणसे भिन्न नहीं है उसी प्रकार ज्ञानमें आया हुआ ज्ञेयका विकल्प ज्ञान से भिन्न नहीं है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें अभेद [पना] है। परन्तु जब दर्पण और सामने खडे हुए मयूरकी अपेक्षा विचार करते हैं तब दर्पण जुदा है और मयूर जुदा है, ऐसा प्रतीत होता है। उसी प्रकार जब ज्ञान और उसमें आनेवाले पदार्थकी अपेक्षा विचार करते हैं तब ज्ञान और ज्ञेय पृथक-पृथक प्रतीत होते हैं।.....
[स्तुति-१६ , श्लोक-१२, पृष्ठ-१७७] [.] भावार्थ- संसारके समस्त पदार्थ चेतन और अचेतन भेदसे दो भागोमें विभक्त
हैं। अपने शुद्धज्ञानके द्वारा जब आप उन्हें जानते है तब अन्तर्जेय बनकर वे आपके ज्ञानमें आते हैं। इस अन्तर्जेय की अपेक्षा यद्यपि सब पदार्थ एक चैतन्यभाव को प्राप्त हो रहे है तथापि आपका ज्ञान उन दोनोंके महान अन्तरको प्रगट करता है। वह बतलाता है कि बहिर्जेय की अपेक्षा पदार्थ चेतन और अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं परन्तु अन्तर्जेयकी अपेक्षा सब चेतन ही हैं। जिस प्रकार दर्पणमें पड़ा हुआ मयूरादिका प्रतिबिम्ब परमार्थ से दर्पणका ही परिणमन हैं उसी प्रकार आपके ज्ञानमें आया हुआ चेतन अचेतन ज्ञेयोंका समूह, परमार्थ से ज्ञानका ही परिणमन है। यतश्च ज्ञान चेतनरूप है अत: उसमें आये हुए अन्तर्जेय भी चेतनरूप हैं। वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा चेतन और अचेतन दोनों द्रव्य पृथक्-पृथक् हैं अत: इनमें महान अन्तर है। हे प्रभो! इसे
आपका ज्ञान ही प्रगट कर रहा है। [स्तुति-१६ , श्लोक-२०, पृष्ठ-१४०] [.] भावार्थ- हे भगवन् ! अन्ततॆयों की अपेक्षा नाना ज्ञेयाकृतियों के समागम को
प्राप्त हो रहे हैं अर्थात् आपके दिव्यज्ञानमें नानाज्ञेयों की आकृतिर्यां प्रतिफलति