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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ हो रही हैं। आपके वैभव का कोई निषेध नहीं कर सकता है तथा वीतराग विज्ञान –केवलज्ञान से आप परिपूर्ण हैं । आपकी ऐसी परिणति आत्म द्रव्य की योग्यता से स्वयं प्रगट हुई है। [ स्तुति - २०, श्लोक-११, पृष्ठ- २१७ ] [A] भावार्थ- बौद्ध संगत ज्ञानद्वैतका निराकरण कर यहाँ जैन समंत ज्ञान द्वैत का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि ज्ञानके बाहर कुछ भी नहीं है । जिस प्रकार दर्पणमें प्रतिबिम्बित मयूर आदि दर्पणरूप ही होते हैं उसी प्रकार ज्ञानमें प्रतफलित संसारके पदार्थ ज्ञानरूप ही है । .......
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[ स्तुति - २० श्लोक-१२, पृष्ठ-२१८ ] [1] भावार्थ - ......और जिस प्रकार अग्निसे व्याप्त ईंधन अग्निरूप हो जाता है उसी प्रकार उसके भीतर प्रतिफलित होनेवाले पदार्थ उसीरूप हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते है वे अन्तर्ज्ञेय की अपेक्षा ज्ञानाकार ही हो जाते हैं। [ स्तुति-२३, श्लोक-१, , पृष्ठ- २४८ ] [1] भावार्थ- परस्पर एक दूसरे पर रङ्गा डालना फाग खेलना कहलाता है। हे भगवन्! आप अकेले ही अनन्त पदार्थोंके साथ फाग खेलते हैं । फाग खेलने का रङ्गा निजस्वभाव रस है परन्तु आश्चर्य इस बातका है कि इस फाग में न तो आपने ही पर पदार्थोंको अपने रंग मे रंगा है और न पर पदार्थों के द्वारा आप ही रंगे जा सके हैं। मात्र पर पदार्थोंके आकार आपके ज्ञानोपयोगमें आकर मिल गये हैं। तात्पर्य यह है कि आप अपने ज्ञातृ स्वभाव से संसार के समस्त पदार्थोंको जानते हैं परन्तु जानते समय आपका ज्ञातृस्वभाव आपके पास रहता हैं और ज्ञेय बने हुए समस्त पदार्थ अपने स्थानपर रहते है। ज्ञान, ज्ञेयरूप नहीं होता ओर ज्ञेय, ज्ञानरूप नहीं होते। ऐसा ही पदार्थोंका स्वभाव हे । मात्र ज्ञानकी स्वच्छताके कारण ज्ञानमें ज्ञेयोको आकार प्रतिफलित होते है। [ स्तुति-२३, श्लोक-२४, पृष्ठ- २५९ ] [^] भावार्थ- हे भगवन्! पदार्थों के उत्पाद व्यय अथवा अस्ति नास्ति पक्षको जाननेवाले ज्ञान से युक्त आपके विद्यमान रहते हुए यह लोकत्रितय अन्तर्ज्ञेयकी अपेक्षा यद्यपि आपके ज्ञानमें अन्तर्निमग्न है तो भी बाह्यमें अपने-अपने पृथक् स्वभाव से प्रकाशमान है और आपके ज्ञानमें झलकता हुआ ऐसा जान पडता है मानों ज्ञान-दर्शनरूपी लताका एक पल्लव ही हो । तात्पर्य यह है कि आपका ज्ञान अनन्त है तथा उसके भीतर झलकनेवाला लोकत्रय अत्यन्त अल्प है। आपका ज्ञान इतना अधिक विस्तृत है कि उसमें ऐसे-ऐसे अनन्त लोकत्रितय झलक सकते हैं । [ स्तुति - २४, श्लोक-११,
पृष्ठ-२६६ ]
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