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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ को ज्ञानतरंगे युगपत् जानती हैं। आप आत्मरस-निजरस से परिपूर्ण भरे हैं। आपके अगुरुलघुत्व गुण के कारण ही आप स्वच्छ-निजरस की तरंगें निरंतर उछलती रहती हैं।
[स्तुति-२२, छंद नं-१६, पृष्ठ-३६७-३६८ ] [.] भावार्थ- हे देव! यद्यपि आपका ज्ञान समस्त ज्ञेयों को जानता है, उनमें
संचार करता है तो भी आपकी ज्ञान तरंगे शुध्धज्ञान स्वभावकी स्वरसता को छोडने में समर्थ नहीं हैं अर्थात् ज्ञान ज्ञेयोंको जानने मात्रसे अशुध्ध नहीं होता। ज्ञानतरंगे वास्तवमें ज्ञान सामान्यको कभी नहीं छोडती है। वे ज्ञानतरंगे समस्त विश्व के झलकने से अपने परिपूर्ण विकसीत एवं पूर्ण स्वभावको ही व्यक्त करती हैं।
[स्तुति-२२, छंद नं-१७, पृष्ठ-३६९] अन्वयार्थ- इस जगत् में बाह्य विश्व अन्य है और ज्ञान विश्व अन्य है, इनमें जो ज्ञानरुपी विश्व है, निश्चय से वह ज्ञानरुप ही रहता है, जिस प्रकार मैन-मोम के द्वारा निर्मित सिंहाकार कया मोम से पृथक् है ? अर्थात् नहीं है उसी प्रकार आप में प्रतिबिम्बित विश्व का आकार क्या आपकी महिमा से पृथक् है ? अर्थात् नहीं है। भावार्थ- समस्त लोक बाह्य विश्व है तथा ज्ञान में प्रतिबिम्बित विश्व-ज्ञान विश्व है। दोनों विश्व भिन्न-भिन्न हैं। बाह्य विश्व भिन्न द्रव्यों की सत्ता हैं-- ज्ञान में प्रतिबिम्बित विश्व ज्ञानमयसत्ता-ज्ञानकी पर्याय है। जिस प्रकार मोम का सिंहाकार तथा वास्तविक सिंह दोनों भिन्न हैं, एक नहीं हो सकते, उसी प्रकार बाह्य विश्व तथा ज्ञानविश्व एकमेक नहीं हो सकते।
[स्तुति-२२, छंद नं-१८, पृष्ठ-३६९] [.] भावार्थ- यहाँ दर्शन-ज्ञानगुणों के आधार चैतन्य स्वभाव की महिमा बताते हुए
आचार्य लिखते हैं कि आपका शुद्ध चैतन्य सर्वत्र निर्बाध है अर्थात् सकलज्ञेयों का ज्ञायक है। आत्म प्रकाश से सुशोभित है। ज्ञेयों की झलकन से अपनी ज्ञानपरिणति को ही प्रगट करता है तथा अनेक विशेषताओं वाला अद्वितीय,
अनिर्वचनीय चैतन्य पुंज्ज है। [स्तुति-२२, छंद नं-२२, पृष्ठ-३७३ ] [.] भावार्थ- अनन्त ज्ञेयाकारों के कारण आपके अनन्त चैतन्य विकल्प उत्पन्न
होते हैं, तथापि आप अपने एकाकार आत्मरस द्वारा तथा अपने ही अरवण्ड प्रकाश द्वारा उन्हें अपने में समाहित कर लेते हैं। आपका ज्ञानप्रकाश लोकालोक तक सर्वत्र व्याप्त है, क्योंकि जिनागम में ज्ञान को ज्ञेय प्रमाण तथा ज्ञेय को लोकालोक प्रमाण कहा है, अत: आपका ज्ञान लोकालोक व्यापी है। आपके ज्ञान प्रकाश के समक्ष जगत् के सभी तेजवन्त प्रकाश सूर्यादि निष्तेज भासित होता हैं।
[स्तुति-२२, छंद नं-२३, पृष्ठ-३७३ ] [.] भावार्थ- हे भगवन् ! आपका ज्ञान पर की सहायता के बिना ही संपूर्ण जगत