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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ है। इस प्रकार यद्यपि आपमें ज्ञेय आते हैं पर वे परमार्थ से ज्ञेय नहीं किन्तु ज्ञानके ही परिणमन है, अत: आप अनन्त ज्ञानसे घन-सान्द्र-परिपूर्ण हैं। जिस प्रकार दर्पणमें इष्ट-अनिष्ट पदार्थ प्रतिबिम्बित होनेपर भी उसमें मोह राग
और द्वेष नहीं होता उसी प्रकार इष्ट-अनिष्ट पदार्थ ज्ञानमें आने पर भी आप में मोह राग और द्वेष उत्पन्न नहीं होते। यहाँ अभेदनयसे ज्ञेय और ज्ञानमें अभेदरुपताका वर्णन करते हुए वीतराग विज्ञानके माध्यमसे भगवानका स्तवन किया गया है।
[स्तुति-४ , श्लोक-२२, पृष्ठ-५४ ] [.] __ भावार्थ- हे भगवान् ! जगतके समस्त पदार्थों को ग्रहण करनेवाली शब्दसत्ता
यद्यपि बहुत भारी है तथापि वह आपके ज्ञानसागरके एक कोनेमें स्थित है। अनन्त ज्ञानके एक कोने में प्रतिभासित शब्दसत्ता एसी जान पडती है जैसे अनन्त आकाशमें एक तारा चमक रहा हो। तात्पर्य यह है कि आपके ज्ञानके सामने शब्दसत्ताकी स्थिति अतितुच्छ है। [स्तुति-५,श्लोक-५, पृष्ठ-५८] भावार्थ- उसके ज्ञायक स्वभावके कारण यद्यपि परपदार्थ ज्ञेय होकर उसमें प्रतिभासित होते अवश्य है, परन्तु वे त्रिकालमें पर ही रहते हैं। ज्ञान और ज्ञेयका ऐसा ही विचित्र सम्बन्ध है कि वे परस्पर एक दूसरेके संपर्क में रहकर भी एक दूसरेरुप परिणमन नहीं करते। जिस प्रकार दर्पणमें घट-पटादि पदार्थोका प्रतिबिम्बि पडता है उसी प्रकार ज्ञानमें पदार्थोका प्रतिबिम्बि [विकल्प] आता है, परंतु जिस प्रकार घट-पटादिका प्रतिबिम्ब परमार्थ से दर्पणका ही परिणमन है उसी प्रकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होनेवाले परज्ञेयोंका प्रतिबिम्ब परमार्थ से ज्ञानका ही परिणमन है, ज्ञेयोंका नहीं। इस स्थितिमें ज्ञानमें जो ज्ञेयोंका आकार झलकता है वह एक चैतन्यरुप आत्माका ही परिणमन है इसी दृष्टि से यहां कहा गया है कि हे भगवन्! जो परपदार्थ आपकी ज्ञानसत्तामें आता है वह चिन्मयरुप ही है। [स्तुति-५,श्लोक-६, पृष्ठ-५९]
(शान पर्यायर्नु प्रमा। स्५३५) [.] भावार्थ- जो एकान्तवादी अन्तर्जेयोंको ही स्वीकृत कर बाह्य ज्ञेयका सर्वथा
निषेध करते हैं उनकी उस मान्यताका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि आत्मामें जो ज्ञान-ज्ञेयकी स्थिति है वह हठपूर्वक बाह्य पदार्थों का निषेध नहीं कर सकती, कयोंकि ज्ञानमें जो ज्ञेयकी आकृतिर्यां पड़ रही हैं वे बाह्य ज्ञेयके अस्तित्वको स्पष्टरुपसे सुचित करती हैं। जिस प्रकार दर्पणमें पड़नेवाली पदार्थों की प्रतिकृतिर्यां सामने स्थित पदार्थों के अस्तित्वको सूचित करती हैं उसी प्रकार ज्ञानमें पड़नेवाली प्रतिकृतियाँ बाह्य पदार्थों के अस्तित्वको सूचित करती हैं। तात्पर्य यह है कि हे भगवान! आप अनेकान्त दृष्टिसे अन्तर्जेय और