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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
૩૧ अपेक्षा ज्ञानमय ही होता है, ज्ञान आत्मामय होता है। ज्ञान में ज्ञेयाकाररुप परिणमन होता है, वह ज्ञान की ही पर्याय है, इसलिए ज्ञानमय है।
[स्तुति-२१, छंद नं-१८, पृष्ठ-३५० ] [ ] भावार्थ- प्रत्येक पदार्थ अपने आप से पूर्ण तथा अन्य समस्त पदार्थों से शून्य
रहता है। हे प्रभो! आपके ज्ञान में यद्यपि समस्त ज्ञेय झलकते हैं, तथापि वे ज्ञान से तन्मय नहीं होते, भिन्न ही रहते हैं तथा ज्ञान आत्मा से अभिन्न ही बना रहता है।
[स्तुति-२१, छंद नं-२३, पृष्ठ-३५३ ] [.] जिनेन्द्र भगवान! प्रत्यक्ष ज्ञानज्योति, अतिनिश्चल, ज्ञेयाकार के ममत्व से
रहित , अंतर्मग्न दृष्टिवाले तथा आनन्द के पूर हैं। ईधन में व्याप्त अग्नि की तरह ज्ञेयाकारों में ज्ञान व्याप्त होने से आप सर्वव्यापी हैं। ज्ञेय, ज्ञानसे तन्मय नहीं हैं तथा ज्ञान से भिन्न ज्ञेय, ज्ञान के अविषयी भी नहीं है।
[स्तुति-२२ भूमिका , पृष्ठ-३५५ ] [] भावार्थ- हे जिनेन्द्र देव ! आप प्रत्यक्ष ज्ञान ज्योतिपुंज हैं, अत्यन्त निश्चल हैं।
यद्यपि आपके ज्ञान में समस्त ज्ञेयाकार प्रतिफलित होते हैं, तथापि आपको ज्ञेयाकारों का अनुभव एवं ममत्व कदापि नहीं होता है। आप अविनाशी ज्ञान के धारी होने से 'अक्षीण संवेदन' कहलाते हैं तथा अपने आप में अतिशयता से अन्तर्मग्न दृष्टि द्वारा निरन्तर अनन्त आनंद का प्रवाह बहानेवाले हैं।
[स्तुति-२२, छंद नं-१, पृष्ठ-३५६ ] [.] भावार्थ- हे प्रभो! जिस प्रकार ईधन में अग्नि व्याप्त होती है, उसी तरह ज्ञान
ज्ञेयाकारों में व्याप्त होता है। अत: समस्त ज्ञेय, ज्ञान से पृथक् नहीं हैं। ज्ञान में झलकने वाले समस्त ज्ञेय अंतर्जेय अपेक्षा ज्ञान से तन्मय-अभेद हैं तथा बहिर्जेय अपेक्षा ज्ञान से भिन्न हैं। ज्ञान ज्ञेयाकारों को जानने की अपेक्षा से सर्वव्यापी है।
[स्तुति-२२, छंद नं-२, पृष्ठ-३५७ ] [ ] भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! आपके ज्ञानरुपी मुख में विश्व के प्रतिबिम्बिरुप जल का
कुरला निरन्तर परिवर्तित होता रहता है, वह विश्व न तो भीतर जाता है, कारण कि विश्व कभी भी ज्ञान से तन्मय नहीं होता और वह न बाहर भी जाता है, कारण कि ज्ञेयाकारों को ज्ञान में झलकने से रोका नहीं जा सकता। तात्पर्य यह है कि ज्ञान में ज्ञेय तन्मय नहीं होते--प्रविष्ट नहीं होते तथा ज्ञान से ज्ञेय बाहर निकाले नहीं जा सकते, अत: वे कुरले की भांति ज्ञान में परिवर्तित होते रहते हैं।
[स्तुति-२२, छंद नं-३, पृष्ठ-३५८ ] [ ] भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! आप ज्ञान के समुद्र हैं। आपके ज्ञान-समुद्रमें केवलज्ञान
रुप निर्मल ज्ञानजल की कल्लोलें उठती रहती हैं। उन कल्लोलो में-- केवलज्ञान पर्यायों में सम्पूर्ण विश्व तैरता प्रतीत होता है अर्थात् संपूर्ण विश्व