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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
૨૭ प्रकाशन करता है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है। इसी तरह सर्वज्ञ के ज्ञान में बिना इच्छा ही लोकालोक प्रकाशित होता है, जानने में आते हैं तो इसमें कोई नुकसान नहीं है- परंतु ज्ञेयों को जानने के लोभवाला अज्ञानी प्राणी पर पदार्थों को जानने की इच्छा करता है, तो इससे उसका नुकसान है। उसे ज्ञेयों से तथा ज्ञेयों के जानने के विकल्पो से अपना शुद्ध ज्ञानस्वभाव अनुभवमें नहीं आ पाता। अतः वह आत्मज्ञान के अभाव में अज्ञानी ही बना रहता है।
[स्तुति-१३, छंद नं-१७, पृष्ठ-२२०-२२१] भावार्थ- बाह्य कारण अर्थात् निमित्तकारण तथा अंतरंगकारण अर्थात् उपादान कारण की सन्निधि में ही कार्य होता है ऐसी वस्तु व्यवस्था सहज है अत: आप अपनी सामर्थ्य से ही ज्ञेयों को निमित्त मात्रपना प्राप्त कराते हुये स्वयं ही अनेक ज्ञेयाकारो भेदों से भरपूर परिणमित हो रहे हैं। वहाँ अंतरंग--उपादान कारण ही अपने कार्यों के सम्पादन में पूर्णत: समर्थ होता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामीने स्वयंभूस्त्रोत्र में भी ऐसा ही कहा है। [स्तुति-१३, छंद नं-२२, पृष्ठ-२२४ ] भावार्थ- जिस तरह दर्पण की स्वच्छता के कारण अनेक पदार्थ दर्पण में झलकते है, परंतु वह झलकन रुप अवस्था बाह्य पदार्थों की नहीं है, अपितु दर्पण की ही है. इसी तरह आत्मा के दर्शन में समस्त बाह्य पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं परंतु वह प्रतिबिम्बरुप अवस्था बाह्य पदार्थों की नहीं हैं अपितु दर्शनगुण का ही परिणमन है। बाह्य दृश्य पदार्थ कभी भी दर्शनरुप नहीं होते तथा दर्शन कभी भी दृश्यरुप नहीं होता। दृश्य-दृश्यरुप रहते हैं तथा दर्शन दर्शनरुप रहता है अत:एक अभेद दर्शनमात्र प्रतिभासित होवे, दर्शन में भेद उत्पादक दृश्य पदार्थों से कया प्रयोजन ? अर्थात् कुछ भी नहीं।
[स्तुति-१४ , छंद नं-१४ , पृष्ठ-२३५ ] [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आपकी आत्मशक्तियाँ परिपूर्ण विकास को प्राप्त हो चुकने
के कारण आपके ज्ञान तथा दर्शन की अवस्थाएँ समस्त ज्ञेय तथा दृश्य पदार्थों को अपनी ज्ञानदर्शन की निर्मलता में झलकाती हैं, मानो उन्हें अपने आत्मरुप करती हैं--इस प्रकार स्पष्टरुप से समस्त पदार्थों को प्रगट करती हैं अर्थात् आपके ज्ञान तथा दर्शन में समस्त लोकालोक झलकता है।
[स्तुति-१४ , छंद नं-१६ , पृष्ठ-२३६-२३७ ] [.] भावार्थ- जिस प्रकार भोजन का ग्रास मुख में पहुचकर मुख में ही धूमता
रहता है, उसी प्रकार समस्त लोकालोक भी आपके केवलज्ञानरुप मुख में ग्रास की तरह ज्ञेय बनकर परिवर्तित होता रहता है। केवलज्ञान इतना महान सामर्थ्य वाला है कि उसमें सम्पूर्ण विश्व एक छोटे से ग्रास की भांति झलकता
[स्तुति-१४ , छंद नं-१८, पृष्ठ-२३७-२३८ ]