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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ भावार्थ- त्रिकालवर्ती पर्यायों का समूह आपके ज्ञान में ज्ञात होता है, अत: ज्ञेयाकारो की अपेक्षा ज्ञान अनन्तरुपता को प्राप्त हुआ कहा जाता है यह व्यवहार कथन है, परमार्थ से तो आपका ज्ञानस्वभाव सदा एकरुप रहता है।
[स्तुति-६, छंद नं-१६ , पृष्ठ-११५ ] [.भावार्थ- हे प्रभो ! समस्त पदार्थों की त्रिकालवर्ती पर्यायें आपके केवलज्ञानस्वभाव
में स्वयमेव एक साथ झलकती हैं-- जानने में आती हैं--एसा आपका सर्वज्ञ स्वभाव है, अत: आप ही केवलज्ञान स्वरुप ज्योतिषी हैं।
[ स्तुति-६, छंद नं-१७, पृष्ठ-११५ ] [.] अन्वयार्थ- जो [ सकलं] समस्त [चराचरं] चर अचर विश्व को [प्रसह्य]
बलपूर्वक [पीत्वा] पीकर अपने ज्ञान में झलकाकर [अकर्तृसंवेदनधाम्नि] कर्तृत्व के विकल्प से रहित ज्ञानधाम में [ सुस्थित:] अच्छी तरह स्थित है। भावार्थ- जिनेन्द्र परमात्मा केवलज्ञानी होते हैं। उनके केवलज्ञान में समस्त लोकालोक झलकता है। वे जगत् के ज्ञाता मात्र हैं, कर्ता नहीं।
[स्तुति-७, छंद नं-१३, पृष्ठ-१२९] [.] भावार्थ- हे प्रभो! आपके प्रदेश अनन्त धर्मो से व्याप्त हैं, साथ ही वे प्रदेश
दर्शन--ज्ञान को भी धारण किये हुये हैं। उन दर्शन तथा ज्ञान में समस्त ज्ञेयाकारों के झलकने के कारण आप विश्वमय-नानारुप भी सुशोभित हैं।
[स्तुति-९, छंद नं-२१, पृष्ठ-१६७] [.] अन्वयार्थ- हे भगवन् ! [ सहजप्रमार्जितचिदच्छरुपता प्रतिभासमान-निखिलार्थ
सन्तति] जिसके स्वाभावाकि और निर्मल चैतन्यस्वभाव में समस्त पदार्थों का समूह प्रतिबिंबित हो रहा है, जो [ स्वपरप्रकाश भरभावनामयं] निज और पर के प्रकाश समूह की भावना से तन्मय है। और [ अकृत्रिमं] अकृत्रिम् हैकिसी का किया हुआ नहीं हैं-ऐसा [ ते तत्] आपका वह [ किमपि] कोई अद्भूत [ वपुः भाति ] ज्ञानशरीर सुशोभित होता है। भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आपका चैतन्यस्वभाव सहज तथा निर्मल है, उसमें समस्त पदार्थ झलकते हैं। आप स्व-पर के प्रकाश समूह से तन्मय हैं। आपका
अकृत्रिम ज्ञान शरीर सुशोभित होता है। [स्तुति-१३, छंद नं-१, पृष्ठ-२१२] [.] अन्वयार्थ- हे नाथ! यदि संसार स्वयं ही प्रमेयपनेको प्राप्त होता है तो प्राप्त
हो, इसमें आत्मा का क्या नुकसान है ? क्योंकि सहजज्ञान के भार से परिपूर्ण पुरुष-आत्मा संसार को प्रमेय बनाने की इच्छा से प्रकाशित नहीं होता।
[स्तुति-१३, छंद नं-१५, पृष्ठ-२२०] [.] भावार्थ- यदि उदय को प्राप्त होता हुआ सूर्य बिना इच्छा ही जगत का