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[] अन्वयार्थी
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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ (सर्वशनशान निश्चय-व्यवहार- स्प३५) [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! निश्चय से ज्ञान में आपके अनन्त चैतन्य-गुणो तथा
पर्यायों का रुप झलकता है। आपके शरीर के प्रतिबिम्ब की तो बात ही कया करना ? केवलज्ञान में तो समस्त लोकालोक ही झलकता है, अत: ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सारा जगत् आपका ही प्रतिबिम्ब है, आप विश्वरुप हो गये हैं। परमार्थ से तो ज्ञान ज्ञान रुप ही रहता है, ज्ञेयरुप नहीं होता। व्यवहार से विश्वरुप कहा गया है।
[स्तुति-१४ छंद नं-१९ पृष्ठ-२३८] अन्वयार्थ- स्व और पर दोनों को प्रकाशित करनेवाला आपका उपयोगरुपी वैभव द्विरुपता--स्व-पर रुपता को प्राप्त होता है और बहिर्मुख तथा अन्तर्मुख प्रतिभास के विक्रम से वह उपयोग वैभव वैसा ही स्वपरावभासीरुप ही अनुभव में आता है। भावार्थ- उपयोग जीव का लक्षण है। वह चैतन्यानुसारी परिणाम है। उसके दो प्रकार हैं--ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग को बहिर्मुख प्रतिभास तथा दर्शनोपयोगको अन्तर्मुख प्रतिमास कहते हैं। अत: आपका उपयोग स्वपर प्रकाशक है।
[स्तुति-१५, छंद नं-१७, पृष्ठ-२५२] [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आपके केवलज्ञान की अपार महिमा एवं सामर्थ्य है।
आपके केवलज्ञान में समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, वे ऐसे लगते हैं, मानो सम्पूर्ण लोकालोक ही आपके ज्ञान समुद्र में तैर रहा हो। आपका ज्ञान सर्व पदार्थों को जानता तो है, तथापि सर्व पदार्थ सदा ही ज्ञान से भिन्न रहते हैं। ज्ञानोपयोग ज्ञानमें रहता है, ज्ञेयोंके सन्मुख नहीं होता, ज्ञेयोंके पास नहीं जाता और ज्ञेय भी ज्ञानमें नहीं आते! ज्ञान तथा ज्ञेयमें कभी भी संकरदोष [ ऐकमेकरुप] नहीं होता। [स्तुति-१६ छंद नं-१०, पृष्ठ-२६३ ]
(स्पशेय ५२शेयर्नु मेशन) [ ] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! जगत् के समस्त पदार्थ ज्ञान के ज्ञेय बनते हैं। उनमें
निजात्मा स्वज्ञेय होता है तथा शेष समस्त द्रव्य परज्ञेय होते हैं। समस्त परज्ञेयों के आकार ज्ञान में झलकते हैं, उस समय ज्ञेयाकाररुप परिणमन ज्ञान में ही होने से वह ज्ञान ही है। इस अपेक्षा समस्त ज्ञेयाकार चैतन्यभाव को प्राप्त होते हैं।
[स्तुति-१६ , छंद नं-२०, पृष्ठ-२६९] [.] भावार्थ- ....वह ज्ञानोपयोग जगत् के समस्त पदार्थों को अपने में झलका कर
अपनेरुप कर लेता है। अर्थात् अनंत ज्ञेयाकार ज्ञान में झलकते हैं तथा वह झलकन ज्ञानमय ही है-- इस अपेक्षा ज्ञेयाकारों को अपनेरुप करता है। परमार्थ से ज्ञेयका आकार ज्ञेय में ही तथा ज्ञान का आकार ज्ञान में ही रहेता है, कोई भी किसी रुप नहीं होता। [स्तुति-१६ , छंद नं-२३, पृष्ठ-२७०-२७१]