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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
૨૫ परिणमन द्वारा ग्रहण करता हुआ पर पदार्थरुप होता हुआ प्रतीत होता है, अर्थात् ज्ञानका ज्ञेयाकार प्रतिबिम्ब वास्तवमें ज्ञान का ही परिणमन है इसलिए ज्ञेयाकार चित्स्वरुप कहा गया है। यहाँ स्पष्ट है कि ज्ञेयाकार परिणमनमें ज्ञान ही व्याप्त होता हैं, ज्ञेय नहीं।
[स्तुति-६ , छंद-७, पृष्ठ-९२] [.] अन्वयार्थ- अनन्त पदार्थों के वाचक शब्द भी अनंत है अतः शब्द सत्ता अनन्त
है तथा उनकी वाचक शक्ति भी अनन्त है, तथापि वह अनन्त शब्द सत्ता तथा अनंत वाचक शक्ति दोनों ही केवलज्ञान के एक कोने--एक अविभागी प्रतिच्छेद में संचार करते हैं। केवलज्ञान की ज्ञान सामर्थ्य शब्द सत्ताकी वाचक सामर्थ्य से भी अनंतगुणी है। इससे स्पष्ट है कि अनन्तज्ञेयों झलकाने वाले ज्ञान की सामर्थ्य
स्वभाव से ही अनन्त गुणी होती है। [स्तुति-६, छंद-८, पृष्ठ-९३ ] [.] भावार्थ- कुछ एकान्तवादी मात्र अन्तर्जेय-ज्ञायक आत्मा को स्वीकार करते हैं,
परंतु बर्हिज्ञेयों बाह्य पदार्थों का सर्वथा निषेध करते हैं। उनकी मान्यता का खण्डन करते हुये स्तुतिकार कहते हैं कि आत्मा में जो ज्ञान तथा ज्ञेय की स्थिति होती है, वह हठपूर्वक बाह्य पदार्थों का निषेध नहीं कर सकती, क्योंकि ज्ञान में जो ज्ञेयाकृतियाँ--अंकित होती है-- झलकती हैं, वे वचन बिना ही स्पष्टरुप से बाह्य
पदार्थों-ज्ञेयोके अस्तित्त्व को प्रगट करती हैं। [स्तुति-६, छंद नं-१० पृष्ठ-९५ ] [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र! आप तिर्यकप्रचय तथा उर्ध्वप्रचय सहित समस्त अन्तरंग
बहिरंग पदार्थों को जानने मात्र हैं, परन्तु उनसे ममत्व नहीं करते। वे अमूर्तिक, मूर्तिक पदार्थ तथा क्षण-क्षण परिवर्तनशील प्रदेश आपके ज्ञान में झलकते मात्र हैं, जिस प्रकार दर्पणतल में पदार्थ झलकते हैं परंतु वे विकार पेदा नहीं करते।
[स्तुति-५, छंद नं-१४ , पृष्ठ-९७ ] [.] भावार्थ- अखण्ड द्रव्यसत्ता तथा उसके खण्ड द्रव्यांश अनन्त हैं। फिर भी वे
आपके ज्ञान में झलकते हैं। ज्ञान में झलकने वाले द्रव्यो तथा उनके द्रव्यांशोप्रदेशो से शून्य रहित होने पर भी वे ज्ञानमें पृथक्-पृथक् ही झलकते हैं।
[स्तुति-५, छंद नं-१६ , पृष्ठ-९९] [.] भावार्थ- इस जगत में समस्त द्रव्य व्यंजन तथा अर्थ पर्यायोंसे संयुक्त हैं। द्रव्य
के प्रदेशों में होने वाले परिणमन को व्यंजन पर्याय तथा द्रव्य के गुणों मे होने वाले परिणमन को अर्थपर्याय कहा जाता है। व्यंजनपर्याय को द्रव्यपर्याय तथा अर्थपर्याय को गुणपर्याय नाम से भी कहा जाता है। प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी व्यंजन तथा अर्थपयार्यो सहित जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान में युगपत् स्पष्ट एवं यथावत् पृथक-पृथक झलकते हैं। सर्वज्ञ के ज्ञानका ऐसा अनन्त सामर्थ्य है।
[स्तुति-५, छंद नं-१९, पृष्ठ-१०१]