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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ वैसे ही आत्मा का ज्ञान अपने नियत आत्मा के प्रदेशों में रहता है तथा सर्व ज्ञेयरुप पदार्थ अपने अपने क्षेत्रमें रहते है कोई एक दूसरे में आते जाते नहीं तथा इनका ऐसा कोई अपूर्व ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है जिससे सर्व ज्ञेय पदार्थ तो अपने अपने आकारो को केवलज्ञान में झलकाने को समर्थ हैं और केवलज्ञान उसके सर्व आकारों को जानने में समर्थ है।
दर्पण का भी द्रष्टांत ले सकते हैं - एक दर्पण में एक सभाके विचित्र वस्त्रालंकृत हजारों मनुष्य दिखलाई पड़ रहे हैं। दर्पण अपने स्थान भींत पर स्थित है। सभा के लोग सभा के कमरे में अपने अपने आसन पर विराजमान है। न दर्पण उनके पास जाता न वे सभा के लोग दर्पण में प्रवेश करते तथापि परस्पर ऐसी शक्ति रखते हैं कि पदार्थ अपने आकार दर्पण को अर्पण करते हैं और दर्पण उनको ग्रहण करता है ऐसा ही ज्ञान का और ज्ञेयका सम्बन्ध जानना चाहिए।
[गाथा - २८, पृष्ठ-११७] [.] उत्थानिका- आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा ज्ञेय पदार्थों में निश्चयनय से प्रवेश
नहीं करता हुआ भी व्यवहार से प्रवेश किये हुए है ऐसा झलकता है एसी
आत्मा के ज्ञान की विचित्र शक्ति है। [गाथा-२९, पृष्ठ-११७-११८ ] [.] भावार्थ- इस गाथा में आचार्य ने और भी स्पष्ट कर दिया है कि आत्मा और
इसका केवलज्ञान अपूर्व शक्ति को रखनेवाले हैं। ज्ञान गुण ज्ञानी गुणी से अलग कहीं नहीं रह सकता है। इसलिये ज्ञान गुण के द्वारा आत्मा सर्व जगको दखता जानता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है कि ज्ञान आपे आप तीन जगत के पदार्थों के तीन कालवर्ती अवस्थाओंको एक ही समय में जानने को समर्थ है। जैसे दर्पण इस बात की आकांक्षा नहीं करता है कि मैं पदार्थों को झलकाऊँ परन्तु दर्पण की चमक का ऐसा ही कोई स्वभाव है जिसमें उसके विषय में आ सकनेवाले सर्व पदार्थ आपेआप उसमें झलकतें हैं- वैसे निर्मल केवलज्ञानमें सर्व ज्ञेय स्वयं ही झलकते हैं। जैसे दर्पण अपने स्थान पर रहता और पदार्थ अपने स्थान पर रहते तो भी दर्पण में प्रवेश हो गए या दर्पण उनमें प्रवेश हो गया ऐसा झलकता है। तैसे आत्मा और उसका केवलज्ञान अपने स्थान पर रहते और ज्ञेय पदार्थ अपने स्थान पर रहते कोई किसी में प्रवेश नहीं करता तो भी ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध से जब सर्व ज्ञेय ज्ञानमें झलकते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि मानो आत्मा के ज्ञानमें सर्व विश्व समा गया या यह आत्मा सर्व विश्व में व्यापक हो गया। निश्चय से ज्ञाता ज्ञेयोमें प्रवेश नहीं करता यही असली बात है। तो भी व्यवहार से ऐसा कहने में आता है कि आत्मा ज्ञेयो में प्रवेश कर गया।
गाथा में आंख का द्रष्टांत है। वहाँ भी ऐसा ही भाव लगा लेना चाहिए। आंख शरीर से कहीं न जाकर सामने के पदार्थों को देखती है। असल बात