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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
परमाध्यात्म तरंगिणी
श्री शुभचंद्राचार्य प्रणीत टीका
हिन्दी - पं. जयचंद्रकृत
[1] चैतन्य स्वभाव से भूषित है, जिनके ज्ञानमें तीनों लोक प्रतिफलित है- झलकतें हैं और जिनके किसी भी ज्ञान आदि पदार्थ का कभी नाश नहीं होता ऐसे समताको धारण करनेवाला • समय योगियों में मुख्य सिध्ध परमेष्ठी को नमस्कार है। [ कलश-१, पृष्ठ-३ ] [A] अर्थ- ये पुरुष आप ही तै तथा परके उपदेशतै कोई प्रकार करी भेद विज्ञान है मूल उत्पत्ति कारण जाका ऐसी अविचल निश्चल अपने आत्मा विषे अनुभूतिकूं पावे हैं ते ही पुरुष आरसी की ज्यों आप में प्रतिबिम्बित भये जे अनंत भाव निके स्वभाव तिनिकर निरंतर विकार रहित होय हैं, ज्ञान में ज्ञेयनिके आकार प्रतिभासे तिनिकरि रागादि विकारकूं नाहीं प्राप्त होय हैं।
विशेष- इस श्लोक का खुलासा - भाव यह है कि जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में अग्नि का प्रतिबिम्ब पडता है परन्तु अग्नि की ज्वाला और उष्णता अग्निमें ही रहती है उनसे दर्पण विकृत नहीं बनता। उसी प्रकार जिस मनुष्यके भेद विज्ञान है कारण जिसमें ऐसी अनुभूति प्राप्त हो गई है उस मनुष्यके अन्तरंगमें यद्यपि इष्ट अनिष्ट पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं परन्तु उनसे उसकी आत्मा में राग-द्वेष आदि विकार नहीं होते । [ कलश - २१, पृष्ठ- २२] [A] अथवा ऐसा भी अर्थ है जो आत्मा का अज्ञान दूरि होय तब केवलज्ञान प्रगट होय है, तब समस्त लोक में तिष्ठते पदार्थ एकै काल ज्ञान विषै आय झलके हैं ताकी सर्व लोक देखो । [ कलश-३२, पृष्ठ-३१]
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[A] अनंत ज्ञानका आकार आनि झलके है, तौऊ आप अपने स्वरुप ही में रमे है बहुरि अनंत है धाम कहिये प्रताप जाका ।
[ कलश-३३, पृष्ठ-३३ ]
[1] विना परके सहाय न्यारे न्यारे द्रव्यनिकूं प्रतिभासनेका तै समस्त लोकालोक कूं साक्षात् प्रत्यक्ष करता है
जाका स्वभाव है, यहीं
जानता है।
[ कलश-१, पृष्ठ-४४ ] अनेक खंडरुप आकार
[1] जामैं ज्ञेय के निमित्ततै तथा क्षयोपशम के विशैषतैं प्रतिभास में आवें थे तिनितैं रहित ज्ञान मात्र आकार अनुभवमें आया..... [ कलश-२, पृष्ठ-४४ ]
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[1] भावार्थ- एक वस्तु के अनेक पर्याय होय हैं, तिनिकूं परिणाम भी कहिये अवस्था भी कहिये। ते संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादिकरि न्यारे न्यारे प्रतिभासरुप है। तौऊ एक वस्तु ही हैं, न्यारे नाहीं हैं ऐसा ही भेद - अभेद स्वरुप वस्तुका स्वभाव है। [ कलश- ७, पृष्ठ ४८]