________________
મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧
स्थित है, उसी प्रकार केवलज्ञान में ज्ञात होनेवाला लोकालोक व्यवहार से केवलज्ञान में ही स्थित है। यदि यह न माना जावे तो व्यवहार से भी केवलज्ञान को सर्वगत नहीं कह सकते। [गाथा-३२, पंक्ति-७, पृष्ठ-५३ ] वह इसप्रकार- जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव सम्पन्न जीव है, पश्चात् व्यवहार से नर-नारकादि रूप भी जीव कहा जाता है, उसी प्रकार निश्चय से समस्त वस्तुओं को जाननेवाला अखण्ड एक प्रतिभासरूप ज्ञान कहा गया है, पश्चात् व्यवहार से मेघसमूह से ढके हुये सूर्य की विशिष्ट अवस्था के समान कर्म समूह से ढके हुये अखण्ड एक ज्ञानरूप जीव के मतिज्ञान,
श्रुतज्ञान आदि नाम होते हैं- यह भाव है। [गाथा-३५, पंक्ति-१४, पृष्ठ-५८] [.] क्योंकि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं है, इसलिये घट की उत्पति में मिट्टी
के पिण्ड समान उपादान रूप से स्वयं जीव ही ज्ञान रूप परिणमन करता है। दर्पण में झलकने वाले बिम्ब के समान व्यवहार से ज्ञेय पदार्थ जानकारी रूप से ज्ञान में स्थित हैं, यह अभिप्राय है।
[पंक्ति -६ ,पृष्ठ-६०] [.] जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ दर्पण में स्थित कहे जाते हैं; उसी प्रकार ज्ञेयरूप सभी पदार्थ व्यवहारनय से जानकारीरूप से ज्ञान में स्थित कहे जाते
[गाथा-३६ , पंक्ति -२०, पृष्ठ-६०] [.] टीकार्थ- जो सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें हैं, वास्तव में, वे पूर्वोक्त
सभी पर्यायें वर्तती हैं, प्रतिभासित होती हैं, ज्ञात होती हैं। विद्यमान-अविद्यमान वे सभी पर्यायें कहाँ वर्तती हैं ? वे सभी पर्यायें केवलज्ञान में वर्तती हैं। वे पर्यायें किसके समान केवलज्ञान में वर्तती हैं ? वे वर्तमान पर्यायों के समान केवलज्ञान में वर्तती हैं।
[गाथा-३८, पंक्ति -८, पृष्ठ-६३] [.] अपने क्षेत्र, काल, आकार से नियत होने के कारण उनका वहीं परिस्फुरण होने से वे ज्ञान–प्रत्यक्ष है।
[गाथा-३९, पंक्ति -१६ , पृष्ठ-६५ ] [.] वहाँ जैसे अग्नि समस्त जलाने योग्य पदार्थों को जलाती हुई सम्पूर्ण दाह्न के निमित्त
से होनेवाले सम्पूर्ण दाहाकार पर्याय रूप से परिणत सम्पूर्ण एक दहन-स्वरूप उष्णरूप से परिणत घास-पत्ते आदि के आकार रूप स्वयं को परिणत करती है, उसीप्रकार यह आत्मा सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानता हुआ सम्पूर्ण ज्ञेयों के निमित्त से होनेवाले सम्पूर्ण ज्ञेयाकार पर्यायरूप से परिणत सकल एक अखण्ड ज्ञानरूप अपने आत्मा को परिणमित करता है, जानता है, निश्चित करता है।
और जैसे वही अग्नि पूर्वोक्त लक्षण दास को नहीं जलाती हुई उस आकार रूप परिणत नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा भी पूर्वोक्त लक्षणवाले सर्व ज्ञेयों को नहीं जानता हुआ पूर्वोक्त लक्षणवाले सर्व ज्ञेयों को नहीं जानता हुआ