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મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ पूर्वोक्त लक्षणवाले सकल एक अखण्ड ज्ञानाकार रूप अपने आत्मा को परिणमित नहीं करता, जानता नहीं, निश्चित नहीं करता है।
दूसरा भी उदाहरण देते हैं- जैसे कोई अन्धा सूर्य से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ सूर्य को नहीं देखने के समान; दीपक से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ दीपक को नहीं देखने के समान; दर्पण में स्थित बिम्ब को नहीं देखते हुये दर्पण को नहीं देखने के समान; अपनी दृष्टि से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ हाथ-पैर आदि अंगो रूप से परिणत अपने शरीराकार स्वयं को अपनी दृष्टि से नहीं देखता; उसीप्रकार यह विवक्षित आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशित पदार्थों को नहीं जानता हुआ सम्पूर्ण अखण्ड एक केवलज्ञानरूप आत्मा को भी नहीं जानता है।
[श्लोक-४९, पंक्ति-५, पृष्ठ-७८ ] [.] वह इसप्रकार- ज्ञान आत्मा का लक्षण है और वह अखण्ड प्रतिभासमय सभी
जीवो में सामान्य रूप से पाया जानेवाला महा सामान्य रूप है। और वह महासामान्य ज्ञानमय अनन्त विशेषो में व्याप्त है। और वे ज्ञान विशेष विषयभूत, ज्ञेयभूत अनन्त द्रव्य–पर्यायों के ज्ञायक-ग्राहक- जाननेवाले हैं। अखण्ड एक प्रतिभासमय जो महासामान्य उस स्वभाववाले आत्मा को जो वह प्रत्यक्ष नहीं जानता , तो वह पुरुष प्रतिभासमय महासामान्य से व्याप्त जो अनन्त ज्ञानविशेष, उनके विषयभूत जो अनन्त द्रव्य-पर्यायें, उन्हें कैसे जान सकता है ? किसी भी प्रकार नहीं जान सकता।
[श्लोक-५०, पंक्ति -११, पृष्ठ-७९] [.] वह इसप्रकार- एक साथ सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते
हैं- ऐसा जानकर क्या करना चाहिये ? अज्ञानी जीवों के चित्त को चमत्कृत करने के कारण और परमात्मा सम्बन्धी भावना को नष्ट करने वाले जो ज्योतिष्क, मन्त्रवाद, रससिद्धि आदि खण्ड-विज्ञान-एकदेशज्ञान-क्षयोपशम ज्ञान हैं; वहाँ आग्रह छोडकर तीन लोक तीनकालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं को एक साथ प्रकाशित करनेवाले अविनश्वर, अखण्ड, एक प्रतिभासमय सर्वज्ञ शब्द से वाच्य जो केवलज्ञान उसकी उत्पत्ति का कारणभूत जो सम्पूर्ण रागादि विकल्प जाल रहित सहज शुद्धात्मा से अभेदरूप ज्ञान उसकी ही भावना करना चाहियेयह तात्पर्य है।
[श्लोक-५२, पंक्ति -८, पृष्ठ-८२] [ ] सम्पूर्ण एक अखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभासमय उत्कृष्ट ज्योति केवलज्ञान के कारणभूत,
शुद्धात्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न परमाबाद एक लक्षण सुखसंविति [ आनन्दानुभूति] के आकार परिणतिरूप रागादि विकल्पोंकी उपाधि रहित स्वसंवेदनज्ञान में [ उसी एक शुद्धात्मस्वरूप की] भावना करना चाहिये- यह अभिप्राय है।
[श्लोक-५९, पंक्ति-१३, पृष्ठ-९२]