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श्रात्मतत्व-विचार
उसने सिपाहियों से कह दिया- "आज मेरा पोष व्रत है, इसलिए नहीं
आ सकता । "
सन्देश राजा को मिला तो उसकी आँखें लाल हो गयीं । "यह मत्री क्या समझता है ? मेरे हुक्म का अनादर करता है | वेतन मेरा खाता है और सेवा धर्म की करता है । देखता हूँ इसे ।” – यह सोचकर उसने अपने एक विश्वासपात्र अंगरक्षक को मंत्री के पास भेजा और कहलाया - " राज दरबार में आओ, अन्यथा मत्री की मुद्रा वापस भेज दो।" यह अगरक्षक जाति का हज्जाम था । और, हजामो की आदत तो आप जानते ही है | नारद - विद्या करने में जरा भी पीछे न रहे और जरा गीला मिला कि मक्खी की तरह चिमट जाये ।
उसने रौब से राजा का सढेग सुनाया - "राज दरबार में आओ, वर्ना मंत्री - मुद्रा वापस कर दो ।" मंत्री के लिए यह पल परीक्षा की थी । मन्त्री-पढ छोड़ दे तो आजीविका जाये और इज्जत पर पानी फिर जाये; फिर भी उसने एक क्षण भी विचार किये बगैर और गुरु की भी सलाह लिये बगैर, मंत्री - मुद्रा अगरक्षक के हाथ में रख दी । मत्री ने राजा का मंत्री पद छोड़ दिया; मगर पोपह न छोडा ।
यह देख गुरु को आश्चर्य हुआ, उन्होने मंत्री से पूछा - " ऐसा क्यो किया ?" मंत्री ने कहा - "मुद्रा गयी तो उपाधि गयी, वह भी तो धर्मध्यान के बीच में आती थी। अब बेफिक्री से धर्मध्यान कर सकूँगा ।"
ऐसे शब्द कब निकल सकते है ? ऐसी टेक कब आ सकती है ? जब धर्म का रस पूरी तरह लग गया हो, तभी ऐसा हो सकता है । आपको उस मंत्री - जैसा धर्म का रम लगना चाहिए। वह रस गुरु सेवा से अवय लग सकता है ।
अब हम उस अगरक्षक की ओर आये । उसके हर्ष का पार नहीं था । वह मन में सोचता था कि, राजा की मुझ पर पूरी मेहरवानी है, इसलिए