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বহন
भाग छह
ओशो
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गीता काव्य है, इसलिए एक-एक
शब्द को, जैसे हम काव्य को
समझते हैं, वैसे समझना होगा; कठोरता से नहीं, काट-पीट से नहीं, बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से; एक दुश्मन की तरह नहीं, एक प्रेमी की तरह; तो ही रहस्य खलेगा,और तो ही आप उस रहस्य के साथ आत्मसात हो पाएंगे।
जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों को आप याद कर सकते हैं; गीता कंठस्थ हो सकती है; पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं, क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए, जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता हो जाएं, गीता का वचन न रहे बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं, और जो बोला जा रहा है वह मेरी अंतर-अनुभूति की ध्वनि है, वह मैं ही हूं, वह मेरा ही फैलाव है—तब तक गीता पराई ही रहेगी; तब तक दूरी रहेगी, द्वैत बना रहेगा;
और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते है, प्रज्ञावान नहीं।
-ओशो
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JIDDIDDIDDIQUIDIDIIDIDUN
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गीता-दर्शन भाग छह
अध्याय 12-13
ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय बारह 'भक्ति-योग' एवं अध्याय तेरह 'क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ - विभाग- योग'
पर दिए गए तेईस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन ।
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বাতি
अध्याय 12-13
भाग छह
ओशो
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संकलनः स्वामी दिनेश भारती, स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादनः स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी
डिजाइन : मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या, स्वामी सत्यम विभव
डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद
संयोजनः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे ।
मुद्रणः टाटा डॉनली लिमिटेड, मुंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे
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द्वितीय विशेष राजसंस्करण - फरवरी 1999
ISBN 81-7261-124-2
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भूमिका
समग्र जीवन-दर्शन बनाम 'गीता-दर्शन'
जीवन की सार्थकता के लिए तत्वद्रष्टा ओशो द्वारा तीन सूत्र प्रस्तुत किए जाते हैं : वर्तमान में जीना, अकेले जीना और सहजता के साथ जीना। यदि बहुत बड़ी-बड़ी आध्यात्मिक-दार्शनिक सिद्धांतों की बातों को छोड़ दें तो व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा लगता है कि श्रीमद्भागवत् गीता को अपनी विशाल प्रवचन-माला, 'गीता-दर्शन' के द्वारा वे श्रोताओं और पाठकों के भीतर कुल मिलाकर इन्हीं तीन सूत्रों को गहराई के साथ प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं। कृष्ण-शरणागत अर्जुन जैसी ही समस्या आज के दिग्मूढ़-किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य की है। वह अपने शुद्ध वर्तमान में अकेले सहजता के साथ न जीकर भूत-भविष्य की नाना प्रकार की प्रतिबद्धताओं-अवधारणाओं की भीड़ के साथ जीवन के नाम पर पागलपन को जीता है। वह अर्जुन की तरह भयभीत है, द्वंद्वग्रस्त है और असत्य को सत्य समझ मोहमूढ़ बना हुआ है। गीता जैसे अप्रतिम अध्यात्म शास्त्र-ग्रंथ के अवतरण के लिए वह पूर्ण रूप से उपयुक्त पात्र है। दो सेनाओं, दो कुलों और दो विचारधाराओं-सत्यासत्य तथा धर्माधर्म के द्वंद्व में फंसे अर्जुन को कृष्ण ने गीता-ज्ञान प्रदान कर मोहमुक्त करने के साथ उसकी स्वधर्म-विमुखता का निवारण किया। - अब सवाल यह है कि 'गीता-दर्शन' की नई व्याख्याओं द्वारा क्या ओशो भी अपने पाठकों और श्रोताओं को अर्जुन की भांति मोहमुक्त करना चाहते हैं? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है। स्वधर्म-निरत और मोहमुक्त करने के पूर्व 'गीता-दर्शन' की अवतारणा आज के मनुष्य को अर्जुन बनाने में जुटी हुई है। अर्जुन पूर्ण रूप से मनुष्य है। वह अभीष्ट ज्ञान का उपयुक्त पात्र है। ___ अनेकानेक आंतरिक और बाह्य कारणों से आधुनिक काल का मनुष्य मानवता के लक्ष्यों, उपकरणों और विभूतियों से शून्य होकर टुकड़े-टुकड़ें हो गया है। वह या तो निर्जीव यंत्र हो गया है या सजीव राजनीति हो गया है। वह सत्य, धर्म अथवा 'मार्ग' के लिए हृदय से कहां आकुल होता है? ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि वह पहले मनुष्य बने और उसके भीतर अध्यात्म-ज्ञान की जमीन तैयार हो। ओशो ने 'गीता-दर्शन' के द्वारा यही कार्य नए सिरे से किया है और पुराने ज्ञान-दान के लिए नई तकनीक का प्रयोग किया है।
तो, कैसी है वह नई तकनीक, नया शिल्प, नई विश्लेषण पद्धति और मौलिक प्रवचन कला? इस पर ध्यान जाना चाहिए।
'गीता-दर्शन' के प्रत्येक अध्याय के आरंभ में दो-तीन या चार करके क्रम से अर्थ-सहित श्लोक प्रस्तुत किए जाते हैं। इसके बाद प्रश्नोत्तर श्रृंखला का आरंभ होता है। प्रश्न प्रायः वर्तमान संदर्भ से असंबद्ध प्रतीत होते हैं परंतु उनके उत्तरों में जो विश्लेषण होता है वह तथ्य को तह से उठाकर अंत में वहां पहुंचा देता है जहां गुत्थियां खुल गई होती हैं और अभीष्ट समाधान मिल गया होता है। इन आधुनिक जीवन से जुड़े सुकराती प्रश्न-कोणों से टकरा-टकरा कर जो समाधान निकलते-निकलते भी रह जाते हैं उन्हें शब्द विशेष का कोई नूतन, मौलिक
और वैज्ञानिक अर्थ देकर सिद्ध कर दिया जाता है। जैसे कृष्ण का वचन है कि अत्यंत भक्ति में निरत भक्तों का मैं शीघ्र उद्धार कर देता हूं। बारहवें अध्याय के तीसरे प्रवचन में इस स्थल को आधुनिक व्यक्ति-मन में खोलकर बैठाने के लिए ओशो ने वैज्ञानिक नियमों का सहारा लेकर जो अर्थ-चमत्कार उत्पन्न किया है वह यथास्थान देखा जा सकता है। विद्वानों ने कृष्ण शब्द का अनेक प्रकार से अर्थ किया है परंतु यहां ओशो का अर्थ बोध के सर्वथा नए आयाम को लेकर प्रस्तुत होता है। उनका कहना है, 'कृष्ण का मतलब है : नियम, शाश्वत धर्म।
जैसे ही आप अपने को छोड़ देते हैं, वह नियम काम करने लगता है।' ___ इस प्रकार ओशो अध्यात्म और दर्शन की शास्त्रीय बहस को आधुनिक मन के लिए सहज स्पर्श-क्षम बना कर उसकी मूर्छा तोड़ते हैं, उसे जगाते हैं। यह जगना जानने की अपेक्षा महत्वपूर्ण होता है। गीता की अन्य विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएं जहां व्यक्ति को जनाती हैं वहां
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'गीता - दर्शन' का विश्लेषण उसे पहले जगाकर अर्जुन बनाता है और द्वंद्व की सेनाओं के बीच खड़ा कर देता है और इसके बाद आरंभ होती है गीताकार कृष्ण के समानांतर उसके व्याख्याकार ओशो की भूमिका ।
बोध सापेक्षता इस भूमिका की अन्यतम विशेषता है। अन्य टीकाकारों की भांति ओशो का गीता के संदर्भ में अपना कोई विशेष मत या आग्रह नहीं है और न ही उनकी भांति ज्ञान, भक्ति, कर्म-योग, सर्वोदय या साम्यवाद जैसे सिद्धांतों के लिए खींचतान है। यही कारण है कि कहीं उलझन या भटकाव नहीं है। उनमें सहजता के साथ आमने-सामने का उत्तरदायित्व बोध है। प्रवचन के रूप में 'गीता-दर्शन' की व्याख्या मूलतः प्रबुद्ध-जागरूक बुद्धिजीवी साधकों की विशाल भीड़ के सामने प्रस्तुत की जाती है, प्रवचनकर्ता को संबंधित प्रश्नों के सामने खड़ा होना पड़ता है। एकांत में लिखी टीका और जन-समुदाय के सम्मुख किए गए प्रवचन में बहुत अंतर है। इसी अंतर से बोध सापेक्ष और उत्तरदायित्व बोध का जन्म होता है।
प्रवचन का स्फीति प्रधान शिल्प भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शन आदि के क्षेत्रों में एक सुपरिचित एवं स्वीकृत शिल्प है। गीता पर एक प्रवचन आचार्य विनोबा भावे का प्रसिद्ध है। इसमें पर्याप्त प्रवाह, पकड़ और प्रखरता है। धर्म-दर्शन पर स्वामी शरणानंद जी के प्रवचनों हिंदी भाषा की गरिमा और विचार - चिंतन की मौलिक गहराई स्वीकार करनी पड़ती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के भारतीय संस्कृति से संबंधित कुछ गंभीर प्रवचन उनके ललित निबंध-संकलन 'अशोक के फूल' में संकलित हैं। उन प्रवचनों और 'गीता-दर्शन' के प्रवचनों में एक मौलिक अंतर यह है कि वे निश्चित विषयों से संबंधित हैं और ये श्रोताओं के मनमाने अनिश्चित प्रश्नों पर आधारित हैं। किसी विषय के सामने खड़े वक्ता की दौड़ यदि एक निश्चित सीमा के भीतर सीधी दौड़ है तो प्रश्नों के सामने खड़े वक्ता की दौड़ अनिश्चित सीमा के भीतर 'बाधा दौड़' है जो बहुत अधिक वैचारिक ऊर्जा की मांग करती है। ऐसे ही ऊर्जावान हैं ओशो, आचार्य अथवा भगवान रजनीश के नाम से पूर्व विख्यात, परंपरागत विश्व-धर्म और दर्शन के आधुनिकतम वैज्ञानिक व्याख्याकार, वर्तमान विश्व के अन्यतम चिंतक - सर्जक महापुरुष और 'गीता-दर्शन' के हंसते खिलखिलाते प्रसन्न शिल्पकार !
वर्तमान दौर के लिए प्रवचन उपयुक्त संवाद - विधा है। बातचीत और भाषण के बीच यह मध्यम मार्ग है। आबादी की बाढ़ ने दुनिया को भीड़ बना दिया है और जिए जा रहे जीवन की दबाव - तनावग्रस्त जटिलता ने अकेले आदमी को भी भीड़ बना दिया है। ऐसी भीड़ लेखन - कार्य, ऐसा लगता है कि छूते-छूते रह जाता है। इस आंतरिक बाह्य भीड़ को छूना, समूह-मन को बांधना, उसे एकाग्र कर आत्म-साक्षात्कार तक पहुंचाना एक चुनौती है। इस कठिन चुनौती को देखते दिशा-निर्देशक के रूप में एक नाम उछलता है ओशो, अपने प्रवचनों के संदर्भ में नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले ।
ऐसे कृती की कृति 'गीता-दर्शन' में अवगाहन करने पर बारंबार मन में यह प्रश्न भी उठता है कि तर्क-बुद्धि को गहरे भावस्तर पर उतारकर व्यक्ति को अव्यक्ति बनाने वाली किस्से-कहानी के हल के वैयक्तिक स्पर्श से शुरू कर गहन से गहनतम निर्वैयक्तिक चिंतन - बिंदुओं का अंत में स्पर्श कराने वाली, श्रोताओं - पाठकों की वैचारिक परिधि को अचानक बहुत विस्तीर्ण कर देने वाली, दृष्टांतों- उदाहरणों आदि की ढेरी लगाकर विषयगत बोझिलता संपूर्ण रूप में अनुरंजन में ढाल कर संप्रेषित करने वाली, आवश्यकतानुसार व्यास-समास दोनों विश्लेषण पद्धतियों का सहारा लेकर तथा कृष्ण की गीता को केंद्र बनाकर ज्ञान-विज्ञान की विस्तीर्ण परिधि पर निर्बंध - स्वच्छंद दौड़ लगाने वाली, कसे हुए सूत्र, संतुलित परिभाषा, दो टूक निर्णय, नए क्रांतिकारी अर्थ आदि के साथ-साथ व्यंग्य - विनोद, किस्सागोई, तुलना, अंतर, प्रमाण, समीकरण - पृथक्करण, अन्वेषण, तर्क, कवित्व- कल्पना, समस्या, प्रश्न, समाधान, कसाव - बिखराव, बोध, सार्थक संदेश - निर्देश आदि तत्वों से संपन्न - संपृक्त ओशो की इस अत्यंत आकर्षक अभिव्यक्ति शैली को कौन सा नाम दिया जा सकता है?
साहित्य में ऐसी रम्य गद्य की एक विधा को हम आज ललित निबंध कहते हैं। समग्र रूप से ओशो की अभिव्यक्ति शैली इसी के अंतर्गत आएगी। लेकिन ओशो को हम ललित निबंधकार के रूप में नहीं जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व उनके साहित्यकार होने के प्रश्न पर हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में काफी बहस हो चुकी है। अब वह बहस लगभग ठंडी पड़ चुकी है। मेरी दृष्टि में वैसी बहस का उठना ही बेकार था। महान विचारक, चिंतक, दार्शनिक और आधुनिक तत्व द्रष्टा के रूप में उनका पद बहुत ऊंचा है। उन्होंने साहित्यकार के रूप में ललित निबंध नहीं लिखा है किंतु उनके ग्रंथों में शुद्ध ललित निबंध बिखरे पड़े हैं और भावकों को अनुरंजित - अनुप्राणित करते हैं। यदि इन्हें चयनित
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और संपादित कर पृथक से प्रकाशित किया जाए तो अटूट भाव से संस्कृति से जुड़े, गंभीर चिंतन केंद्रित और जीवन के गहन निष्कर्षात्मक शिखरों तक आरोहण कराने वाले ये विचार-रागविह्वल ललित निबंध हिंदी-साहित्य के भंगार बन जाएंगे। _ 'गीता-दर्शन' के बारहवें अध्याय के ग्यारहवें-बारहवें श्लोक के विश्लेषण-प्रवचन में उठे 'बुद्धि, भाव और कर्म' विषयक प्रश्न के उत्तर में जो कुछ कहा गया है वह बहुत दूर तक ललित निबंध के रस-गंध से ओत-प्रोत है। विशेषकर ओशो ने इस स्थल पर जो आकर्षण के तीन तलों, काम, प्रेम और भक्ति का वर्णन किया है वह मनोवैज्ञानिक निष्कर्षों से पूर्ण और गीता के भावलोक की स्वच्छंद परिक्रमा के रूप में कसी हुई रम्य रचना बन गया है। यही क्यों? पूरी पुस्तक में ऐसे स्थल बिखरे हैं तथा ओशो के अन्य विशाल साहित्य की यही स्थिति है। विशेषकर उन्होंने मीरा, सहजो बाई, कबीर, दादू और भीखा आदि पर जो कुछ कहा है वह लालित्यपूर्ण विचार-चिंतन की गहराइयों का प्रमाण है और ओशो को जादुई आकर्षणों से पूर्ण विशिष्ट शैलीकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है। 'गीता-दर्शन' में ओशो का यह विशिष्ट
शैलीकार अपनी संपूर्ण टटकाहट के साथ प्रतिष्ठित है। ___ओशो गीता को मात्र गीता के अर्थ में देखने के साथ-साथ उसे समग्र आधुनिक जीवन के व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में, दूर-दूर की खोज के साथ, पूरब-पश्चिम, विज्ञान-धर्म-राजनीति आदि से जोड़ते हुए, बटैंड रसेल, आइंस्टीन, मार्क्स, फ्रायड, जीसस, लाओत्से, मोहम्मद
और गांधी आदि के साथ, भारतीय, चीनी, अरबी और यूनानी आदि विश्व-मनीषा के साथ, सबके मंथनपूर्वक साधिकार, सबके सहित, जीवंत साहित्य की भांति प्रस्तुत करते हैं। इस साहित्य का लक्ष्य गीता-ज्ञान के साथ-साथ पाठकों और श्रोताओं के भीतर एक बेचैनी, एक विशेष प्रकार की अकुलाहट-छटपटाहट पैदा करना प्रतीत होता है। उन्हें जगाने-जागरूक करने के लिए एक-एक शब्द में मंत्र फूंक कर रचनाकार जैसे चोट करता है। इन्हीं सब कारणों से वर्तमान के साथ-साथ अगली शताब्दियों के इस प्रेरक प्रज्ञापुरुष की ओर बुद्धिजीवी समाज का आकर्षण बढ़ता जाता है।
विवेकीराय
विवेकीराय मार्ग बड़ी बाग, गाज़ीपुर-233001
डाक्टर विवेकीराय बहुआयामी साहित्यिक प्रतिभा से संपन्न कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंध की विविध विधाओं के यशस्वी लेखक, समर्थ समीक्षक और एक कुशल सम्पादक हैं। वे गांव और जनपद से लेकर राजधानियों तक अपनी सामाजिक और साहित्यिक सेवाओं के स्तर पर जुड़े हुए हैं। वे एक प्रखर विचारक और सृजनधर्मी लेखक हैं एवं शोध और समीक्षा की गहन प्रवृत्ति, मूल्यांकन की निष्पक्षता तथा रहस्य-बोध से सिक्त हैं।
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अनुक्रम गीता-दर्शन अध्याय 12
प्रेम का द्वार: भक्ति में प्रवेश ...1 .
तर्क और गणित का जगत / बुद्धि व समझ के पार हृदय का जगत / बाहर से लगाव मोह है / भीतर मुड़ गया प्रेम भक्ति है / प्रेम का दिशा-परिवर्तन / प्रेम की आंख ः हृदय / वासना और श्रद्धा / बुद्धि के लिए प्रेम अंधा है-और भक्ति भी / बुद्धि से अहंकार / प्रेम की छलांग / भक्ति-योग की श्रेष्ठता के कारण / दो के बीच एकत्व की घटना / योग अर्थात मिलन-दुई का मिट जाना / परमात्मा हमारे लिए प्रतीक्षारत है / हमारा एक कदम उठाना आवश्यक है / ज्ञान का लंबा चक्कर / भक्ति में पहला कदम ही अंतिम कदम है / भक्त का पागल साहस / ज्ञानी का हिसाब-किताब / बुद्धि से हृदय की ओर वापसी / तर्क वेश्या जैसा है / तर्क से उदासी का जन्म / तर्क के लिए अगम्य है भक्ति / भक्ति श्रेष्ठ है या ध्यान/ सगुण भक्ति और निर्गुण ध्यान / विचार और धारणा भी आकार है / निराकारवादी–नास्तिक जैसा / बुद्ध का इनकार, ताकि आप शून्य हो सकें / अनन्य भक्ति अर्थात सब परमात्ममय हो जाए / परमात्मा के प्रेम में खो जाना / अर्जुन के लिए भक्ति श्रेष्ठ है / अधिक लोगों के लिए भक्ति-योग उपयुक्त / प्रेम की गहन नैसर्गिक भूख / प्रेम लेना भी जरूरी-और देना भी / एकाग्रता का सहज अंकुरण-प्रेम में / आइंस्टीन का गणित से प्रेम / प्रेम की बहुत चर्चा-प्रेम के अभाव का सूचक / भजन अर्थात सबमें परमात्मा की ही झलक / जगत प्रतिध्वनि है / तर्क पर आधारित श्रद्धा-निकृष्ट/नास्तिकों से भयभीत आस्तिक / श्रेष्ठ श्रद्धा-अनुभवजन्य / विश्वास है-भरोसे का अभाव / लहर नहीं है-सागर ही है / जो तर्क से सिद्ध–वह तर्क से असिद्ध भी / परमात्मा न तर्क से सिद्ध होता-न तर्क से असिद्ध / अनुभव की नाव ही वास्तविक नाव है / प्रेम परम योग है।
दो मार्ग: साकार और निराकार ... 15
प्रार्थना, उपासना करते हैं, फिर भी इच्छा पूरी क्यों नहीं होती? / मांग शिकायत है / गलत मांगें / परमात्मा को सलाहें देना / मांगशून्य चित्त ही मंदिर में प्रवेश पाता है / मांग के साथ प्रार्थना असंभव / प्रार्थना अहोभाव है-धन्यवाद है / जो उसकी मर्जी / भक्ति में इष्ट देवता की उपासना भी क्या वासना है? / भीतर जाने का सिर्फ एक उपाय है / वासनाओं को एकाग्र करना / मन के प्राण-अनेकत्व में, परिवर्तनशील में / मन अर्थात चंचलता/मन अर्थात अशांति / अशुद्ध भाषा का उपयोग-करुणावश / बाह्य त्याग से आंतरिक त्याग में सहायता / परमात्मा की धारणा का उपयोग / अनेक से एक-फिर एक से अद्वैत / अनुभवशून्य साधक कैसे श्रद्धा की ओर बढ़े? / अनुभव नहीं-इसका बोध / ज्ञान की भ्रांति / परमात्मा का अनुभव थोड़ा-थोड़ा नहीं होता / अनुभव कैसे हो-इसकी खोज / बोध के लिए ध्यान का प्रवाह जरूरी / ध्यान या प्रार्थना की विधियां / मार्ग चुनकर चल पड़े / सगुण या निर्गुण-पहुंचना एक ही जगह / साकारवादी और निराकारवादी के बीच का विवाद / हमारी संकीर्ण दृष्टि / शून्यता और पूर्णता एक ही / मार्ग का भेद / महावीर शून्य
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से चले—प्रेम पर पहुंचे / कृष्ण परिपूर्ण प्रेम हैं लेकिन भीतर शून्य हैं / साधक विपरीत के आकर्षण से बचे / प्रेम सहज हो-तो भक्ति मार्ग है / उन्मत्त प्रेम-सगुण का मार्ग / निर्विचार शून्यता—निराकार, निर्गुण का मार्ग / निज रुझान पहचानना।
पाप और प्रार्थना ... 31
आज के बौद्धिक युग में भाव और भक्ति का मार्ग कैसे उपयुक्त हो सकता है? / सारा शिक्षण बुद्धि का / एक अति से दूसरी अति पर जाना आसान/ आज का युग-बुद्धि से पीड़ित / भाव की तरफ उन्मुख होने की विराट संभावना / बुद्धि के शिखर से भाव की गहराई में गति / पश्चिम में बुद्धि और सभ्यता के विपरीत बगावत / उपलब्धि में भ्रम-भंजन संभव / समृद्धि से फलित संन्यास / गरीबी का मजा-अमीरी के बाद / महातार्किक चैतन्य का परम भक्त बन जाना / प्रौढ़ता से गहराई का जन्म / प्रौढ़ता+सरलता-संतत्व / विपरीत का अनुभव जरूरी / भक्ति के बड़े युग की संभावना / बुद्धि की सीमा का बोध / बुद्धि के शिखर पर बुद्धि का अतिक्रमण / जीवन का रहस्य हृदय से हल / पापी कैसे प्रार्थना कर सकता है? / पापी रहकर ही प्रार्थना करनी पड़ेगी / पुण्य के नाम पर भी अहंकार-पोषण / प्रार्थना औषधि है / समग्र अस्तित्व का सहयोग जरूरी / क्या है पाप, क्या है पुण्य / अमूछित कृत्य पुण्य है-और मूर्छित कृत्य पाप / जहां हैं, वहीं से प्रार्थना शुरू करें / होश की छाया-पुण्य / पाप प्रार्थना में बाधा नहीं है / प्रार्थना को स्थगित मत करें / गिरना-उठना-सीखना / तुतलाती प्रार्थना-और अस्तित्व का आनंद / निर्गुण, निराकार के मार्ग की कठिनाइयां / अकेले की बेसहारा यात्रा / भक्त को परमात्मा का सहारा / अकेलेपन की पीड़ा / निराकार की साधना में अहंकार का खतरा / भक्त का समर्पण पहले ही चरण पर / ग्रेविटेशन
और ग्रेस का शाश्वत नियम / समर्पण होते ही प्रभु-प्रसाद सक्रिय / उद्धार अर्थात ग्रेस के नियम में आ जाना / अहंकार का बोध उतरना-पहले चरण पर या अंतिम चरण पर / भक्त अर्थात जो मिटने को तैयार / समर्पण और तात्कालिक उद्धार।
संदेह की आग ... 49
संदेह और अश्रद्धा से भरा व्यक्ति कैसे प्रार्थना और भक्ति करे? / अश्रद्धा की पीड़ा और अनास्था का कांटा / कुनकुनी श्रद्धा / नरक का अनुभव जरूरी / पुरी अश्रद्धा के बाद श्रद्धा / पकी हुई नास्तिकता / आग से गजर कर निखार / पके पत्ते का गिरना / लोभ से न खोजें / समग्र संदेह और श्रद्धा का जन्म / बिना श्रद्धा के आनंद असंभव / धर्म है-आनंद की खोज / ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण मिलना कठिन है, तो श्रद्धा कैसे हो? / प्यास की कमी के कारण-प्रमाण की मांग / अपनी बेचैनी और प्यास को समझो / ईश्वर के बिना तृप्ति नहीं / एक परम आश्रय की खोज / आदमी है-परमात्मा की प्यास / प्यास ही प्रमाण है / तर्क और शास्त्रों से प्यास नहीं बुझती / सब कुछ उसका प्रमाण है / परमात्मा की निकटतम झलक-स्वयं में / क्षुद्र में उलझा हुआ चित्त / रुकें-मौन हों-भीतर झांकें / देखने वाली आंखें चाहिए / ध्यान की आंख, भक्ति की आंख, श्रद्धा की आंख / अनुभव की पात्रता / अनुभव से प्रमाण / ध्यान और प्रेम के मार्ग में क्या फर्क है? / भिन्न व विपरीत मार्ग से-पहुंचना एक ही मंजिल पर / प्रेम की प्रक्रिया-मैं खो जाए, तू ही बचे / ध्यान की प्रक्रिया है-मैं ही बचूं, शेष सब मिट जाए / रास्ता बिलकुल अलग-अलग / तू के मिटते ही मैं भी मिट जाता / एक के मिटते ही दूसरा भी मिट जाता है / जीवन-मृत्यु, प्रकाश-अंधेरा, सुख-दुख-साथ-साथ / मिटने का स्वाद / प्रेम में मिटना सीखना / प्रेम में अमृत की झलक / प्रेम से अभय / परमात्मा का प्रेम पूरा मिटा डालेगा / पहले भाव-फिर तर्क / भाव से अनुभव-तर्क से अभिव्यक्ति / अहंकार का भ्रम-कि सब कुछ उस पर निर्भर / तर्क है-अहंकार का सहारा / भावों का दमन / शराब-कुछ देर बुद्धि से छुटकारे के लिए / नशे में दमित भावों का रेचन / नींद से ताजगी-तर्क और बुद्धि से मुक्ति के कारण / सपने में बुद्धि का हट जाना / सपने से ताजगी / भाव और अहंकार विसर्जन।
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अहंकार घाव है...67
क्या संसारी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता? / भ्रांत धारणा / भागना नहीं रुकना है / संसार से भागना असंभव / आप ही हैं रोग / संसार है-जागने की परिस्थिति / परिस्थिति नहीं-मनःस्थिति बदलना / वासना के बीज मन के भीतर / रूपांतरण की कला-धर्म / बेहोश कृत्य पाप है, तो भाव की बेहोशी का क्या अर्थ है? / भाव की बेहोशी में भीतर का जागरण / योग और तंत्र के जागने के प्रयोग / धर्म भी प्रयोगात्मक है / प्रभु-समर्पित हो जाने के बाद भी उठने वाले सुख-दुख का क्या करें? / समर्पण बेशर्त होता है / पूरा राजीपन / स्वीकार से अतिक्रमण / आनंद-सुख-दुख के पार/ जैसी उसकी मर्जी / अहंकार के साथ ही सख-दुख का खो जाना / आपकी बातें समझने के लिए बुद्धि को प्राथमिकता देनी या भाव को? / बुद्धि से समझना-भाव से पचाना / ज्ञान की अपच / अनुभव-तर्क अतीत है / बुद्धि द्वार बन जाए-प्रयोग के लिए / मुल्ला और तर्क / क्या निरहंकारी होकर भी सफल हुआ जा सकता है? / अहंकार के लक्षण-सफलता, महत्वाकांक्षा / सफलता के आंतरिक आयाम / सफलता-असफलता की व्यर्थता का बोध / अहंकार है–धारा के विपरीत संघर्ष / निरहंकार है-प्रतियोगिता के बाहर हट जाना / अहंकार के सूक्ष्म खेल / तुलना से मुक्ति / स्वयं का स्वीकार / अहंकार घाव है / अहंशून्यता और प्रभुप्रसाद / बिना विधि के सीधे भाव में डूबना / बच्चों जैसा सरल भाव / विक्षिप्त मन / भक्त का सीधे डूबना / भाव न हो, तो योगाभ्यास जरूरी / पहले अभ्यास-फिर तन्मयता / तीन मार्ग-भक्ति, योग और कर्म / श्रेष्ठतम मार्ग-प्रेम / धन-ग्रसित व्यक्ति प्रेमी नहीं हो सकता / कर्म-योग-आखिरी मार्ग / पहले दो से असफल व्यक्ति ही तीसरे में सफल / कर्म-योग अर्थात प्रभु अर्पित कर्म / सब वही करता है।
कर्म-योग की कसौटी... 85
ध्यान और भक्ति क्या साथ-साथ संभव नहीं हैं? / रुचि और रुझान के अनुकूल मार्ग चुनना / मार्ग एकांगी-मंजिल पूर्ण / मीरा और बुद्ध के विपरीत मार्ग / स्त्री के लिए सहज-भरना / पुरुष के लिए सहज-खाली हो जाना / अपने ही मार्ग का आग्रह / मार्ग अर्थात मिटने की प्रक्रिया / जन्म से धर्म का निश्चय न हो / समस्त धर्मों की शिक्षा दी जाए / अनुकूल धर्म का सचेतन चुनाव जरूरी / चुनाव की स्वतंत्रता / जीवंत धर्म-मुर्दा धर्म / कवि, चित्रकार का धर्म / गणितज्ञ का धर्म / प्राथमिक खोज-स्वयं का परिचय / अन्य मार्गों का समादर / प्रेम और काम-वासना में क्या फर्क है? / काम प्रेम बन सकता है / आकर्षण के तीन तल-शरीर, मन और आत्मा / काम, प्रेम और भक्ति / शरीर से ऊपर उठे / शरीर की निंदा न करें / सारा जगत काम-ऊर्जा का खेल / मनुष्य काम से ऊपर उठ सकता है / काम से प्रेम / प्रेम से भक्ति / कर्म और कर्म-योग में क्या फर्क है? / कर्म-योग की तीन पहचान / अशांति का विसर्जन / सुख-दुख, सफलता-असफलता में समभाव / साक्षीभाव का बढ़ना / कर्तव्य का बोझ ढोना कर्म-योग नहीं है / कर्तव्य नहीं—प्रेम / प्रभु की मर्जी / सही दिशा की कसौटी-आनंद का बढ़ना / उदास साधु-साधु नहीं / सब परमात्मा कर रहा है / कर्म तू कर–फल मुझ पर छोड़ / फल आपके हाथ में नहीं है / मर्म को जाने बिना अभ्यास न करें / शीर्षासन से मस्तिष्क के नाजुक तंतुओं को खतरा संभव / मस्तिष्क की निद्रा के लिए विशिष्ट मात्रा का रक्त-प्रवाह जरूरी / अंतस साधना-नाजुक और जटिल प्रक्रिया है / घड़ी सुधारने की बचकानी उत्सुकता / परोक्ष-ज्ञान अर्थात शास्त्रोक्त ज्ञान / शास्त्र अज्ञानियों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं / जीसस की कहानियों की सात-सात परतें / शास्त्रों में छिपी हुई कुंजियां / कुंजियों के दुरुपयोग की संभावना / विज्ञान के सूत्र–राजनीतिज्ञों के हाथ में खतरनाक / शास्त्रों की एक वैज्ञानिक व्यवस्था / शास्त्र ज्ञान से स्वानुभव की ओर / परमात्मा का स्मरण कैसे करें / शांत व शिथिल होकर किसी मूर्ति या इष्ट या किसी ध्वनि पर धारणा करना / जो भी प्यारा हो / स्वयं की फोटो या स्वयं के नाम से काम हो जाएगा / कर्मों का फल परमात्मा पर छोड़ दें तो भी ध्यान फलित / अकारण बोझ ढोना / कर्ता परमात्मा
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है / समस्त परेशानियों का विसर्जन-कर्ताभाव गिरते ही / प्रभु जो कराए।
परमात्मा का प्रिय कौन ... 103
निराकार की साधना इतनी कठिन क्यों है? / मन से निराकार और असीम का खयाल भी संभव नहीं / मन का भी हमें पूरा पता नहीं है / मन दूसरे के बिना जी नहीं सकता / कठिनाई मन की है / मन को छोड़ सकें तो निराकार मार्ग है / साकार का मार्ग क्रमिक है / साकार के मार्ग पर अहंकार को कठिनाई / सही मार्ग से बचने की हमारी तरकीबें / जीवित व्यक्ति को भगवान मानना कठिन / सामर्थ्य के अनुसार मार्ग चुन लें / चिंतन में शक्ति व समय न गंवाएं / हमारी चिंताएं-कि कृष्ण, बुद्ध, जीसस भगवान हैं या नहीं/ क्या आप भगवान हैं? / क्या दुनिया आपने ही बनाई है? / सोचते ही मत रहें-चलें/चैतन्य, मीरा, कबीर, रैदास, नरसी आदि अनेक भक्तों ने भक्ति का व्यापक प्रचार किया, फिर भी भक्ति-भाव से यह देश रिक्त क्यों है? / धर्म प्रचार से नहीं मिलता / अनुभव हस्तांतरित नहीं होते / अपना दीया जलाना सीखना / संतों की बातों पर भरोसा कठिन / जीवित कबीर से पंडितों का बचना; मृत कबीर पर विश्वविद्यालय से डाक्टरेट लेना / संतों से बचना-सूली देकर या पूजा करके / अध्यात्म सबसे बड़ा श्रम है / मुर्दा संतों से सुविधाएं / जिंदा गुरु का हमेशा विरोध / जिंदा गुरु खोजें / जिंदा गुरु हमेशा उपलब्ध हैं / बदलने की कीमिया सीखें-बातें नहीं / शिष्य बनना कठिन है | दूसरों को सिखाने का मजा / भाग्य में परमात्मा मिलना होगा तो मिलेगा / तो खोजें क्यों? / भाग्य का स्वीकार-सभी बातों में / फिर चुनें ही मत / समग्र स्वीकार से समर्पण घटित / भाग्य-परमात्मा को पाने की एक विधि / स्वीकार से शांति / ज्योतिष में रुचि-अनास्था सूचक / एक संस्मरणः ज्योतिषी की मुसीबत / क्या है उसे प्रिय / ग्रहण की पात्रता / अवरोध पैदा न करना / राग-द्वेष के रहते शांति नहीं / अहं-केंद्रित जीवन / स्वार्थी अर्थात स्वयं में बंद / हम निष्प्रयोजन मुस्कुराते भी नहीं / जीवन का उत्सव-अकारण / हेतुरहित प्रेम / प्रेम साधन नहीं-आनंद हो / ममता प्रेम नहीं है / रुक गया प्रेम-ममता है / प्रेम हो–पर ममता न हो / प्रेम को फैलने दें / प्रेम बढ़ेगा-तो अहंकार घटेगा / सुख-दुख-हमेशा साथ-साथ / ठीक जीवन अर्थात प्रभु-उन्मुख जीवन।
उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त ... 121
प्रभु प्राप्ति का मार्ग इतना कठिन क्यों है? / रास्ता बिलकुल सुगम है / व्यक्ति जटिल है / स्वयं से गुजर कर मार्ग मिलता है | आप ही हैं मार्ग/ गलत दिशा में खोजने के कारण कठिनाई / जाने-अनजाने सब की खोज-परमात्मा के लिए / भीतर मुड़ें-परमात्मा वहां सदा से खड़ा है / परमात्मा से दूरी-वास्तविक नहीं / सरल रास्ता न खोजें—सरल बनें / जटिलता की गांठे खोलें / राबिया का सुई खोजना / गलत दिशा-परमात्मा को बाहर खोजना / इंद्रियां हैं बहिर्गामी / इंद्रियों की जरूरत-संसार में / विज्ञान है-इंद्रियों का जगत / धर्म है-अतींद्रिय जगत / इंद्रियों के द्वार बंद कर भीतर डूब जाना / चेतना की दो क्षमताएं-स्मरण और विस्मरण / संसार में होना–व्यक्ति का अपना निर्णय है / दुख का बोधः मुक्ति का निर्णय / बुद्ध-सारथि-संवाद / महत्वाकांक्षा और शांति साथ-साथ असंभव / दो नावों पर एक साथ सवारी / धन पर पकड़ छोड़ दें, तो संसार कैसे चलेगा? / जरूरत और पकड़ का फर्क / धन की पकड़ पागलपन है / अमीरों की गरीबी / धन साधन हो–साध्य नहीं / सब इच्छाएं छोड़नी हैं, तो जीवन का लक्ष्य क्या है? / जीवन की धन्यता—इच्छा-शून्यता में / इच्छाओं को पकने देना / अनुभवों की आग / क्रोध का पूरा साक्षात्कार / स्वानुभव से क्रांति / गुरजिएफ के प्रयोग-साधकों पर / क्या शांति से संसार की चीजें भी मिल सकती हैं? / संसार के लिए भाग-दौड़ जरूरी / राजनीति–एक विक्षिप्तता / आत्मा गंवा कर सफलता/संसार की दिशा-बाहर / परमात्मा की दिशा-भीतर / विश्राम, अप्रयत्न-परमात्मा के लिए जरूरी/संसार
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में तैरने जैसा / परमात्मा में बहने जैसा / परमात्मा को प्रिय व्यक्ति के कुछ और लक्षण / किसी की उद्विग्नता का कारण न बनना / कृष्ण, बुद्ध, जीसस से भी लोगों को तकलीफ / हम उद्विग्न होने के कारण खोजते रहते हैं / अनुद्विग्न व्यक्ति-प्रतिक्रिया से मुक्त / दूसरे के सुख में सुख हो, तो ही दुख में दुख होगा /.मैं के मिटते ही-दुसरा भी मिट जाता / निरहंकारी-हर्ष और विषाद के पार / दुख स्वप्नवत है / भक्त-अभय को उपलब्ध / अहंकार
और इंद्रियों का जगत-मर्त्य / अमर्त्य का बोध / अभय-अर्थात मृत्यु घटती ही नहीं यह बोध / सुख की आशा-दूर में / आकांक्षारहित अर्थात जो है, उसमें तृप्त/ शुद्ध अर्थात बाहर भीतर एक-सा / निद्वंद्व से अद्वैत का मिलन / दक्षता अर्थात संसार की व्यर्थता का अनुभव / वासनाओं का त्याग प्रारंभ में ही।
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भक्ति
और स्त्रण गुण ... 141
भक्त के अधिकतम लक्षण स्त्रैण क्यों हैं? / भक्ति का मार्ग स्त्रैण चित्त के लिए / प्रत्येक व्यक्ति स्त्री-पुरुष दोनों / पुरुष के भीतर छिपी स्त्री / स्त्री के भीतर छिपा पुरुष / बाहर की तलाश से कभी तृप्ति न होगी / प्रेम अर्थात भीतर छिपी स्त्री का बाहर की स्त्री से थोड़ा तालमेल / स्वयं के भीतर छिपी स्त्री या पुरुष से अंतर मिलन पर ही काम-वासना से मुक्ति / पैंतालीस साल की उम्र में चित्त का बदलना / स्त्रैण का आध्यात्मिक अर्थ ः ग्राहक होना / भक्त गर्भ बन जाता है भगवान के लिए / सखी संप्रदाय में पुरुष स्त्री की तरह रहता है / गहन स्त्रैण, प्रेयसी भाव का विकास / रामकृष्ण की सखी-साधना / शरीर का स्त्रैण हो जाना / स्तन उभर आना / मासिक धर्म तक शुरू / भक्ति अर्थात प्रेयसी हूं भगवान की—यह भाव / सभी धर्म मौलिक रूप से स्त्रैण गुण वाले / स्त्रियों की लड़ाई-पुरुष जैसे होने की / पुरुष की बेचैनी और स्त्री के संतोष का जैविक कारण / विज्ञान का जन्म-पुरुष की बेचैनी से / संसार की दौड़ में पुरुष-चित्त उपयोगी / पुरुष बहिर्गामी-स्त्री अंतर्गामी / अंतर्यात्रा के लिए स्त्रैण गुणों का विकास जरूरी / काम-वासना के पार कैसे जाएं? / वासना दुष्पूर है-अनुभवियों ने कहा है / अनुभव से गुजरना जरूरी / अनुभव से वासना क्षीण / पुनरावृत्ति . से ऊब का जन्म / गहन अनुभव / अनुभव से व्यर्थता का बोध-सुनकर नहीं / दूसरे के अनुभव कोई काम के नहीं / न घबड़ाएं और न जल्दी करें। परमात्मा का निहित प्रयोजन / सभी जानने वाले वासना से मुक्त हो गए हैं / संसार एक विद्यापीठ है / वासना की आग से गुजर कर निखार / वासना का इंद्रधनुष / पकने के लिए समय जरूरी / पूरा-पूरा उतरो / ध्यानपूर्वक काम-कृत्य / परमात्मा की खोज का आरंभ भी क्या त्याज्य है? / आरंभ ही नहीं किया है, तो छोड़ोगे क्या खाक / तरह-तरह के धोखे / समस्त वासनाएं एक-जुट हो जाएं / आखिरी प्रगाढ़ वासना-परमात्मा को पाने की / एक कांटे से दूसरे कांटे को निकाला / निर्वासना में पता चलना कि परमात्मा को कभी खोया ही नहीं था / बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट, कृष्ण के शिष्यों में कोई भी उन जैसा न हुआ, फिर भी आप गुरु-शिष्य प्रणाली पर विश्वास करते हैं? / बुद्ध के शिष्यों में सैकड़ों लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं / हर व्यक्ति बेजोड़ है / परमात्मा पुनरुक्त नहीं करता / मौन सिद्ध को पहचानना मुश्किल / सदगुरुओं के अलग-अलग ढंग-बोलना, गाना, नाचना, बजाना / इतिहास में सभी बुद्धों की खबर नहीं है / बुद्ध सुविख्यात राजपुत्र हैं / क्राइस्ट के शिष्य बिलकुल गरीब, बे-पढ़े-लिखे थे / झुकने की सामर्थ्य चाहिए / नदी से पीना पानी-झुक कर / जो सीखने के लिए झुके-वह शिष्य / आप हंसते क्यों हैं / भीतर दुख है इसलिए / भीतर दुख न हो, तो अकारण प्रसन्नता संभव / दुख का मूल-द्वेष / सब चिंताएं-भूत और भविष्य से / शुभ, अशुभ-सब परमात्मा पर छोड़ दिया / सतत द्वंद्वों में डोलता हमारा मन / समतावान भक्त परमात्मा को प्रिय / शक्तिपात ध्यान का प्रयोग-कल / एक फूल में अपने अहंकार को प्रोजेक्ट करें / फूल को नीचे गिरा देना / बीस मिनट एक-टक मुझे देखेंगे / जो भी हो-उसे होने देना / रोना, चीखना-चिल्लाना, हंसना—जो भी हो / आपकी सारी विक्षिप्तता को मैं खींचंगा / दूसरे बीस मिनट में स्थिर, मौन रहना / तीसरे बीस मिनट में अभिव्यक्ति–उत्सव / एक घंटे के प्रयोग में बड़ी क्रांति संभव / परमात्मा की एक झलक-और यात्रा गतिमान / छोटी-सी झलक-जन्मों-जन्मों का पाथेय।
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सामूहिक शक्तिपात ध्यान ... 159
जीवन की अनंत गहराइयां / हृदय का द्वार खोलना जरूरी / भय के कारण वंचित रह जाएंगे / क्रांति के लिए साहस जुटाना / खाई-खंदकों में जीता हुआ आदमी / बीमारियों को छोड़ने का साहस / मैं तुमसे तुम्हारे सब रोग छीनना चाहता हूं / बीमारियां आदतों से ज्यादा नहीं / क्रोध, पीड़ा, विक्षिप्तता का भीतरी ज्वालामुखी / विक्षिप्तता को आकाश में फेंकने की विधि / यह समर्पण का प्रयोग है / बुद्धिमानी की यहां जरूरत नहीं / मुझे अपने भीतर प्रवेश करने का मौका दें / कचरे का जलना और सोने का निखार / अहंकार के प्रतीक फूल को नीचे गिराना / अहंकार बाधा है / मैं ऊर्जा के तूफान की तरह आपको झकझोर डालूंगा / आपको कुछ नहीं करना है / शक्ति के स्पर्श का पहला लक्षण–सांस का तेज हो जाना / सांस के माध्यम से विराट से जुड़ जाना / पूरे शरीर में नई ऊर्जा का प्रवाह / अनेक शारीरिक अभिव्यक्तियां / बीस मिनट के पहले चरण में-एकटक मेरी तरफ देखना / रोना, चिल्लाना, चीखना, कंपना-जो हो-होने देना / दूसरे बीस मिनट में अचानक जैसे के तैसे स्थिर हो जाना है / आंख बंद / दूसरे चरण में मौन में आपका रूपांतरण करूंगा / अपूर्व, अनजानी शांति का अनुभव / तीसरे बीस मिनट में अहोभाव की अभिव्यक्ति-उत्सव मनाना / दूसरों पर ध्यान मत देना / नहीं तो मुझसे-ध्यान से-चूक जाएंगे / तीन चरण का प्रयोग/ अंतरंग बातें बिना प्रयोग के समझना असंभव / लोगों के मंतव्य का भय / धर्म प्रयोगात्मक है / बिना प्रयोग का निर्णय गलत / इस प्रयोग को घर में भी करते रहें / मैं उपलब्ध रहूंगा / परमात्मा और साधक के संपर्क से दुबारा जन्म / ध्यान हो-स्नान जैसा-रोज का कृत्य / मन के निर्मल दर्पण में परमात्मा की छवि / परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं अनुभव है / यहां अमृत की तरफ एक इशारा हमने किया।
आधुनिक मनुष्य की साधना ... 167
क्या बंदरों की तरह उछल-कूद से ध्यान उपलब्ध हो सकेगा? / भीतर के बंदर का विसर्जन जरूरी / मनोवेगों का दमन खतरनाक / रोने की कला / स्क्रीम थैरेपीः रुदन-चीत्कार चिकित्सा / सक्रिय ध्यान से आंतरिक रेचन / सभ्यता–दमन की एक लंबी प्रक्रिया / प्राचीन ध्यान पद्धतियां और आज की सभ्यता / हमारी सेवा : एक संस्मरण / मैं एक चिकित्सक हूं / खेल-कूद में विद्यार्थियों का रेचन / काम, क्रोध, हिंसा आदि का सृजनात्मक रूपांतरण / प्रयोग करें और अनुभव लें/ आनंद की कुंजी-बच्चों जैसी सरलता / सस्ती बुद्धिमानी से बचना / प्रभु प्राप्ति से शांति और आनंद मिल जाएगा, तो फिर हम क्या करेंगे? / परम लक्ष्य है-कुछ न-करने में विश्राम / अहोभाव व आनंद से निकलने वाला सहज कृत्य / दो तरह की नावें-पतवार वाली और पाल वाली / पर-भाव का खोना-स्व-भाव का बचना / भाषा, जाति, राष्ट्र, धर्म-सब बाहरी सिखावन / स्वभाव अर्थात जो छीना न जा सके। आपके विरोधी सूर्योदय गौड़ के खिलाफ कुछ किया क्यों नहीं जाता? / वे मेरा ही काम कर रहे हैं / विरोध का आकर्षण / विरोध से सत्य निखरता है / दूसरी विरोधी ः श्रीमती निर्मला देवी श्रीवास्तव / व्यर्थ से छुटकारा पाने का उपाय / गांधी की आलोचना-गांधीवादियों से छुटकारे का उपाय / दो कामः गलत लोगों को हटाना और सही लोगों को बुलाना / सत्य सभी का उपयोग कर लेता है / निरहंकारी ही निंदा-स्तुति के पार / निंदा से अहंकार को चोट / दूसरों के मंतव्य पर बनी हमारी प्रतिमा / अहंकार समाज का दान है | भक्त या साधक दूसरों के मंतव्यों को आधार नहीं बनाता / हमारी दूसरों में उत्सुकता / झूठ को दूसरों के सहारे की जरूरत / मननशील-विधायक को खोज लेने वाला / परमात्मा जैसा भी रखे / सभी परिस्थिति में राजी / पत्नी के मरने पर च्यांगत्जू का खंजरी बजाना और गाना / भक्ति निष्काम होनी चाहिए / भक्ति-भाव, प्रेम, हृदय का मार्ग/स्त्रैण चित्त जरूरी / अत्यंत शांत और निष्काम भाव-दशा चाहिए।
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गीता-दर्शन अध्याय 13
दुख से मुक्ति का मार्ग : तादात्म्य का
विसर्जन ... 185
व्यक्ति दुखी है-स्वयं के कारण / पहले निदान–फिर इलाज/सुख की विफल खोज / ईश्वर पर अनास्था-दुख के कारण / सच्ची आस्तिकता का आधार-जीवन का आनंद / प्रश्न उठते हैं दुख से—आनंद से नहीं / सिमॉन वेल का सिर-दर्द और नास्तिकता / दुख और अस्वीकार का भाव / आनंदित व्यक्ति ईश्वर को इनकार करके भी आस्तिक / दुख का अंधेरा और आनंद का चिराग / दुख का कारण बाहर हो, तो अंततः परमात्मा जिम्मेवार / बाह्य क्रांतियों से दुखमुक्ति नहीं होती / स्वयं कारण हूं दुख का तो शिकायत असंभव / जिम्मेवारी का बोध और क्रांति का प्रारंभ / क्षेत्र क्या, क्षेत्रज्ञ कौन / मन की अवस्थाओं से हमारा तादात्म्य / मूल पापः ज्ञाता का ज्ञेय से तादात्म्य / धर्म है-घटनाओं से दूर खड़े रहने की कला / शरीर और चेतना के तादात्म्य से दुख / मन की काल्पनिक धारणाओं का शरीर पर प्रभाव / आदमी का भरोसा और चिकित्सा के असर / समस्त धर्मों का सार-मैं शरीर, मन सब का द्रष्टा हं / शरीर और मन से मैं अलग हूं-यह सिद्धांत नहीं—प्रयोगजन्य अनुभव है / जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों में द्रष्टा होने का प्रयोग करें। विचार नहीं अनुभव / द्रष्टा को निखारते जाएं / विचार की वंचना / भारत के भयभीत आत्मवादी / देह के पार सबके भीतर एक ही आत्मा / सबके भीतर बैठा जानने वाला ही परमात्मा है / प्रेम-एक दूसरे में प्रवेश की आकांक्षा / ध्यान का एक प्रयोगः दो प्रेमियों का एक दूसरे की आंखों में झांकना / देहातीत चैतन्य का प्रवाह एक दूसरे में / मैं-तू की सीमा का खोना / अहंकार अर्थात शरीर से तादात्म्य / सभी क्षेत्र के भीतर-एक क्षेत्रज्ञ-परमात्मा / व्यक्ति का बोधः शरीर
और चेतना के जोड़ के कारण / विज्ञान है खोज-क्षेत्र की, ज्ञेय की / धर्म है खोज-क्षेत्रज्ञ की, ज्ञाता की / क्षेत्रज्ञ को पाए बिना तृप्ति असंभव / कम से कम एक घंटा रोज लगाएं क्षेत्रज्ञ की खोज में / अपने को विचार से, भाव से, अनुभवों से अलग रखें / बिना प्रयोग किए समझना संभव नहीं / तैरने व साइकिल चलाने की कला का रहस्य / विज्ञान और कला का भेद / ध्यान गहनतम कला है / सभी विधियों का अंतिम चरणः साक्षी / चलो तो ही मंजिल आती है / ज्ञान दूसरे को दिया नहीं जा सकता / विज्ञान सार्वजनिक ज्ञान बन जाता है-धर्म नहीं / ज्ञान प्रत्येक को स्वयं पाना होता है / शब्द सुनकर जानने का धोखा / सिद्धांतों से वासनाओं की पूर्ति सस्ते में / मैं शरीर नहीं हं-इसकी कल्पना कर लेना / कल्पना से मुक्ति न मिलेगी / बिना जाने मान मत लेना / जो चलना नहीं चाहते, वे जल्दी से मान लेते हैं / करने से बचने की तरकीबें-आस्तिक की, नास्तिक की / भीतर छिपी है मंजिल।
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क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य ... 203
सभी कुछ परमात्मा है, तो शरीर और आत्मा, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह भेद और विलगाव क्यों है? / प्रतीत होता है-है नहीं / देखने में व्यक्तित्व का आरोपण / प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग व्याख्या / व्याख्या-शून्य होने पर ही सत्य का बोध संभव / हमारे अनुभव सापेक्ष हैं / सापेक्ष बुद्धि के लिए विपरीतता / परम प्रज्ञा में सब अद्वैत / सापेक्षता के कुछ प्रयोग / जब तक तुलना करने वाली बुद्धि-तब तक भेद / मिटना है-अभेद में उतरने की कला / गौर से देखें सब कुछ असीम है / वृक्ष, पृथ्वी, वायुमंडल, आकाश-सब जुड़े हुए / अस्तित्व में सभी कुछ अनादि और अनंत है / ध्यान है : बिना इंद्रियों के जीवन का अनुभव / शरीर और चेतना के भेद-ज्ञान से ही अद्वैत के बोध की क्षमता / समस्त धर्मों का एक ही लक्ष्य-क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान / विज्ञान द्वारा पदार्थ के परमाणु का विभाजन / धर्म द्वारा चेतना के परमाणु का विभाजन / चेतना के विस्फोट की ऊर्जा ही परमात्म-अनुभव / परमाणु विस्फोट से महाविनाश संभव / चेतना के विस्फोट से परम जीवन / व्यक्ति है पदार्थ और चैतन्य का जोड़ / एक ही सत्य-कहने के ढंग अनेक / गंतव्य एकः रास्ते अनेक / पंडितों का विवाद और यात्रा का स्थगन / महावीर और बुद्ध के कहने के ढंग बिलकुल विपरीत / आत्मा और अनात्मा / चलना विकास है, रुकना पतन है / तर्क का उपयोग–उपलब्धि की अभिव्यक्ति के लिए / असत्य को हटाने में तर्क का उपयोग / भारतीय शास्त्र अत्यंत तर्कयुक्त हैं / बुद्धि से हृदय पर उतरना / नृत्य और गीत हृदय के ज्यादा निकट / शरीर, इंद्रियां और इंद्रियों के विषय से मैं भिन्न हूं / धृति और चेतना से भी मैं भिन्न हं / निर्विषय चेतनता संभव नहीं-पश्चिमी मनोविज्ञान की मान्यता / विषय के अभाव में इंद्रियों का अभाव / चेतना के विषय खोते ही नींद का आ जाना / उत्तेजना में नींद का अभाव / बाह्य निर्भर चेतनता भी क्षेत्र है / विषय-बोध से भी तुम भिन्न हो / अज्ञान और ज्ञान-दोनों के पार हो तुम / संत फ्रांसिस के पास पशु-पक्षियों का आना-उसके प्रेम और शांति से खिंचकर / परम ज्ञान में ज्ञानी होने का बोध भी खो जाता है / पशु-पक्षियों को भी पता नहीं चलता-परम संत का / ज्ञेय और ज्ञाता-दोनों का खो जाना / मैं धृति अर्थात ध्यान भी नहीं हूं / उपयोग के बाद सीढ़ी और नाव को छोड़ देना जरूरी / ध्यान औषधि जैसी है / बीमारी से छूट जाने पर औषधि का त्याग जरूरी / सिद्धावस्था में पूजा-पाठ की जरूरत नहीं / सब पकड़ का छूट जाना / ध्यान, योग, साधना-सभी क्षेत्र हैं | जब तक विपरीत मौजूद है, तब तक विकार / प्रेम-घृणा, घृणा-प्रेम का खेल / जहां विपरीत नहीं, वहां पवित्रता, निर्दोषता, कुंवारापन / क्राइस्ट, कृष्ण और बुद्ध का प्रेम / विपरीत के अभाव में हमें मजा ही नहीं आएगा / ठंडा प्रेम / गरमी–विपरीत से, संघर्षण से
आती है / नई चीजें सचेत व उत्तेजित रखती हैं / पुरानी चीजें उबाती हैं / पश्चिम में सेंस डिप्राइवेशन (इंद्रिय निरोध) के वैज्ञानिक प्रयोग / सुनना, देखना, स्पर्श, क्रिया-सब का अभाव / बहुत होशपूर्ण व्यक्ति भी छत्तीस घंटे में बेहोश / समस्त विषयों के, विकारों के, निर्भरता के पार है-परम चैतन्य क्षेत्रज्ञ।
रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी ... 221
रामकृष्ण परमहंस समाधिस्थ होने पर मूर्छित-से क्यों हो जाते थे? / बाहर बेहोशी-भीतर होश / वस्तुगत और आत्मगत चेतना / चेतना की अंतर्लीनता / पश्चिम इससे अपरिचित है / हिस्टीरिया और रामकृष्ण की मूर्छा में भेद / रामकृष्ण लौटने पर परम शांत और परम आनंदित होते थे / लौट कर हिस्टीरिया का मरीज अधिक विकृत और पीड़ित / समाधि से पुनरुज्जीवित व ज्योतिर्मय होकर वापस लौटना / बेहोशी से दिव्यता पैदा नहीं होती / पश्चिमी मनोविज्ञान और संतों की मस्ती / जीसस को विक्षिप्त सिद्ध करने की कोशिशें / मैं ईश्वर का पुत्र है; मैं ब्रह्म है सृष्टि मैंने बनाई है-आदि घोषणाएं / पश्चिम का अधूरा मनोविज्ञान / पागल और संत का साम्य / असाधारण प्रतिभा के लोगों का पागल हो जाना / परिणाम कसौटी है / निराधार चेतना / बाह्य उत्तेजनाओं पर आधारित चेतना / गहरी नींद में भी होश का बना रहना / हमारी सतत घटती संवेदनशीलता / भीतर के अनाहत नाद में लीन रामकृष्ण / बुद्ध द्वारा भीतर-बाहर होश साधना / रामकृष्ण ने भीतर का साधा-बाहर का छोड़ दिया / रामकृष्ण का प्रयोग बद्ध के प्रयोग से सरल /
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मुक्ति अर्थात क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के तादात्म्य का टूटना देव योनि से क्यों संभव नहीं है? / दुख मूर्च्छा को तोड़ता है / सुख के बंधन से छूटना कठिन है / न स्वर्ग में कोई साधना करता — न नर्क में / मनुष्य स्वर्ग भी है — और नर्क भी / मनुष्य असंतोष है / मनुष्य होकर साधना न करना - आश्चर्यजनक है / मनुष्य से तीन रास्ते जाते हैं स्वर्ग नर्क और मोक्ष / स्वर्ग भी अर्जन है – नर्क भी / मोक्ष अर्जन नहीं स्वभाव है / ज्ञान के लक्षण / श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव / ब्राह्मण की सूक्ष्म अकड़ / हिंदुस्तान में कभी क्रांति नहीं हुई, क्योंकि ब्राह्मण क्षत्रिय के ऊपर रखा गया / श्रेष्ठता बनी रहे, तो ब्राह्मण गरीबी से भी राजी / रूस में क्रांति तब तक असंभव, जब तक बुद्धिजीवियों की श्रेष्ठता न टूटे / ज्ञान का जरा-सा स्वाद और श्रेष्ठता का रोग शुरू / ज्ञान के साथ-साथ विनम्रता भी बढ़ती जानी चाहिए / ज्ञान का दूसरा लक्षण: दंभाचरण का अभाव / दंभाचरण है - आदर की तलाश / सहजता है सदाचरण / दूसरों को सताओगे तो खुद सताए जाओगे / क्षमा-भाव / दया में भी अहंकार है / ज्ञानी को स्वानुभव के कारण मनुष्य की कमजोरियों का पता / बड़ा पापी हूं - इसका भी अहंकार / सरल अर्थात सीधा-सादा अनायोजित / बच्चे सरल होते हैं- भीतर बाहर एक से / भावों की सहज अभिव्यक्ति / आपका हंसना भी झूठा, रोना भी झूठा / सरलता की कठिनाइयां / असली तपश्चर्या है— सरलता / आचार्योपासना / स्वयं को अज्ञानी स्वीकार करना अत्यंत कठिन / शिक्षक और विद्यार्थी का काम चलाऊ संबंध / शिष्य गुरु को प्रत्युत्तर में कुछ भी दे नहीं सकता / गुरु से जो पाया, उसे किसी और शिष्य को देना / दोषों की खोज स्वयं में करना - ज्ञान का लक्षण है / स्वयं में दोष-दर्शन - दोष मुक्ति का पहला कदम / दूसरे दोषी हैं, तो तुम कभी न बदल पाओगे / ज्ञान के लक्षण का बढ़ना और प्रभु मंदिर की निकटता का बढ़ना ।
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समत्व और एकीभाव 239
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मनुष्य की बेचैनी का कारण क्या है? उसका क्या उपयोग संभव है? / मनुष्य एक सेतु है— पशु और परमात्मा के बीच / अतीत और भविष्य के बीच तनाव / वापस पशु हो जाने की राहत शराब व संभोग में / अधूरेपन की बेचैनी / बेचैनी का दुरुपयोग- क्रोध, हिंसा, घृणा, प्रतिस्पर्धा आदि में / दुख व बेचैनी को भुलाने के उपाय करना / बेचैनी की शक्ति को साधना में लगाना / क्रोध की ऊर्जा का सृजन में नियोजित करना / क्रोध के तटस्थ निरीक्षण से उसका रूपांतरण / अंतर्यात्रा के लिए ईंधन / अधिक बेचैनी, काम, क्रोध – सौभाग्य है / काम-क्रोध की खाद से अध्यात्म का फूल खिलना / साक्षी भाव को माली बनाएं / पलायन नहीं - साक्षात्कार / न भागो, न लड़ो - वरन जागो / जो भीतर है, वही बाहर प्रकट करें, तो समाज की नीति व्यवस्था में अराजकता आ जाए / क्या कोई मध्य मार्ग है? क्या कुछ भौतिक अनुशासन जरूरी नहीं ? / व्यक्ति झूठा है, तो समाज भी झूठा होगा / असत्य समाज में सत्य से अराजकता का आना / संन्यासी द्वारा समाज के झूठ का इनकार / झूठ सुविधापूर्ण है / सुविधा के लिए आत्मा को मत बेचना / झूठ की श्रृंखला / असत्य में पहले सुख, बाद में दुख / तथाकथित ज्ञानी व वास्तविक ज्ञानी को बाहर से कैसे पहचाना जाए ? / दूसरों की फिक्र छोड़ो, अपनी ओर देखो / स्वयं दंभशून्य होकर ही दूसरे की पहचान संभव / अहंकारी व्यक्ति को कृष्ण के वक्तव्य परम अहंकारपूर्ण लगेंगे / सदगुरुओं की चिंता छोड़ो, अपनी चिंता करो / प्रत्येक सदगुरु के अपने ढंग हैं, और अपनी व्यवस्था है / कुछ ज्ञानियों द्वारा हिंसा, क्रोध व भद्दी गालियों का उपयोग / व्यर्थ लोगों को दूर करने के आयोजन / बिना निर्णय लिए निकट रहने की क्षमता / सदगुरु बड़ी परीक्षाएं लेते हैं / तथाकथित गुरु तुम्हारे अहंकार को फुसलाएगा / समत्व कैसे उपलब्ध हो / सुख-दुख में सजगता रखें, कुछ क्षण रुकें, देखें / अनुभव और प्रतिक्रिया के बीच फासला बनाएं / गुरजिएफ द्वारा चौबीस घंटे बाद जवाब देना / दूर खड़े होकर देखने पर सुख-दुख में समत्व का बढ़ना / अव्यभिचारिणी भक्ति / व्यभिचारी मन - खंडित मन / एक प्रेमी से एकीभाव की ओर / अनेक से एक फिर एक से अनंत / एकलव्य की अव्यभिचारिणी भक्ति / भीड़ खोजना गलत मन का लक्षण / एकांत में ही स्वयं में प्रवेश / बुद्ध, महावीर, मोहम्मद, जीसस - सभी को एकांत में जाना पड़ा था / हम अकेलेपन से घबड़ाते हैं / बोर करने का मनोविज्ञान / वासनाशून्य व्यक्ति की निकटता / स्वयं में परमात्मा का बोध हो, तो ही सर्वत्र उसका बोध होना संभव / व्यभिचारी दूसरों में भी व्यभिचार का संदेह उठाता है / परमात्मा का सर्वत्र दर्शन ज्ञानी
का लक्षण ।
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समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में ... 257
श्रद्धा क्या है? और अंध-श्रद्धा क्या है? / श्रद्धा हृदय की बात है-अंध-श्रद्धा बुद्धि की / अंध-श्रद्धा भय और लोभ पर आधारित / भीतर छिपा संदेह / झूठे आस्तिक से नास्तिक होना अच्छा / नास्तिक नहीं झूठे आस्तिक अधार्मिक हैं / बुढ़ापे में आस्तिक हो जाना / जितना स्वयं के भीतर जाएंगे उतनी ही श्रद्धा बढ़ेगी/परमात्मा भीतर छिपा है / जिसका अनुभव संभव, उस पर भरोसा अनावश्यक / असंदिग्ध अनुभव-केवल स्वयं का संभव / शेष सभी अनुभव माध्यम के द्वारा / मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड रखकर बिना इंद्रियों के सब अनुभव / मस्तिष्क के तंतुओं को हिलाकर संभोग का अनुभव / स्वानुभव के बिना श्रद्धा नहीं / आपने बहु-प्रेम-संबंध को व्यभिचार कहा / लेकिन एक-प्रेम संकीर्ण व मोहयुक्त लगता है और बहु-प्रेम मुक्त व विस्तीर्ण / कृपया स्पष्ट करें / मुक्तिदायी है-एक को प्रेम या अनंत को प्रेम / अनेक को प्रेम-उलझाता है / बदलता हुआ प्रेम-छिछला / प्रेम पात्र बदलते हैं, क्योंकि प्रेम करना नहीं आता / एक ही जगह खोदें / पश्चिम में प्रेम एक खिलवाड़ हो गया है / सभी धर्म ठीक हैं—ऐसा कहकर धर्म से बचना / एक में ही पहले डूबें / एक ही रास्ते पर चला जा सकता है / मंजिल एक–रास्ते भिन्न / दुनिया के दो मौलिक धर्म-हिंदू और यहूदी / एकीभाव से भीतर एकजुटता (इंटिग्रेशन) घटित / व्यर्थ के कुतूहल / दर्शन-शास्त्र के अंतहीन प्रश्न / दर्शन-शास्त्र खुजली जैसा है / एकमात्र समाधानः अमृत का अनुभव / सभी दुखों का आधार-मृत्यु का भय / आदिरहित और अकथनीय ब्रह्म / परमात्मा दोनों है-अस्तित्व-अनस्तित्व, जीवन-मृत्यु / भाषा द्वैत निर्मित है / प्रकट ः उसका है-रूप, अप्रकट ः उसका नहीं-रूप / परमात्मा के प्रकट तथा अप्रकट दोनों रूपों का ज्ञान मुक्ति है / ध्यान, प्रेम, समर्पण, भक्ति-मिटने के, नहीं होने के उपाय / शब्द सत्य की ओर इंगित मात्र कर सकते हैं / परमात्मा-सब ओर से हाथ-पैर, नेत्र, सिर, मुखवाला-सर्वव्यापी है / श्रद्धायुक्त हृदय की पुकार वह सुनता है / संदेह मिटे तो ही श्रद्धा का जन्म / कुछ प्रयोग करना पड़े, जिनसे संदेह गिरे और श्रद्धा जनमे / संदेहों का गिरना-स्वयं में प्रवेश से / वह भीतर भी है और बाहर भी / मछली और सागर जैसा संबंध है-व्यक्ति और परमात्मा के बीच / इंद्रियों के भीतर से जानते हुए भी वह इंद्रियरहित है / भीतर देखने का अभ्यास / अंधा भी आत्मा को देख सकता है / बहरा भी ओंकार-नाद सुन सकता है / अंतस प्रवेश के लिए गूंगा, बहरा और अंधा होना पड़ता है / वह निर्गुण भी है और गुणों को भोगने वाला भी / मन की सबसे बड़ी कठिनाई-विपरीत को जोड़ने में / बुद्धि प्रिज्म की तरह तोड़ती है / मन, बुद्धि और इंद्रियों के हटते ही समस्त विपरीतताओं का जुड़ जाना / अर्जुन की बुद्धि को समझाना नहीं, तोड़ना है / बुद्धि को तोड़ने का उपाय–विपरीत सत्यों को एक साथ देखना / वह निर्गुण भी है-और सगुण भी / दो पंथ-निर्गुणवादी और सगुणवादी / बोध कथाः न पताका हिल रही है, न हवा-मन हिल रहा है / मूर्ति तोड़ने वाला मुसलमानः मूर्ति से बंधा हुआ / मन का एक पक्ष को चुनना और विपरीत पक्ष से लड़ना / चुनाव द्वंद्व है और अचुनाव अद्वैत।
स्वयं को बदलो ... 275
आपके प्रवचन और ध्यान के प्रयोग-सूत्र अच्छे लगते हैं / लेकिन कीर्तन के समय कोई भाव क्यों नहीं उठता? / केवल बातें सुनते रहने का बहुत मूल्य नहीं है / कुछ करना हो, तो कठिनाई / करने से बचने की तरकीबें / कहना कि गलत है, न करेंगे / पागल होने का साहस / धार्मिक लोगों से सांसारिक लोगों को कष्ट / मरे हुए कृष्ण को पूजना आसान / लोगों का भय छोड़ना पड़ेगा / शांत प्रयोग अक्सर सफल नहीं होता / भीतर की अशांति
और उपद्रव का रेचन ध्यान के पहले जरूरी / तूफान के बाद गहन शांति / मैं बोलता है, ताकि आप कुछ करें/ अन्य-धर्मी कृष्ण को परमात्मा नहीं मानते, तो क्या किया जाए? / दूसरों के लिए परेशान न हों, खुद जीवन में उतारें / हम दूसरों को बदलना चाहते हैं-स्वयं को नहीं / अपना शास्त्र दूसरों पर न लादें / गीता को महान कह कर अपने अहंकार की पुष्टि करना / अहंकार की छिपी घोषणाएं / प्रत्येक व्यक्ति परम ब्रह्म है-चाहे ब्रह्म अप्रकट ही हो ।
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अहंकार के शून्य होते ही सब ऊंचा - नीचापन खो जाता है / जो अच्छा लगे, उससे अपना जीवन बदल लें / क्या निराकार परमात्मा ही कृष्ण नहीं है? / कृष्ण में परमात्मा पूरा प्रकट है आप में ढंका हुआ है / निराकार परमात्मा भक्तों के लिए साकर रूप लेते हैं, क्या यह सच है? / भाव सृजनात्मक है / भावों का रूपायित होना / जीससमयता और स्टिगमेटा / भक्त स्वयं देखता है— दूसरे को दिखा नहीं सकता / अपना-अपना भाव अपनी-अपनी प्रतीति / रामकृष्ण द्वारा छः धर्मों की अलग-अलग साधना / रास्ते भिन्न हैं—विपरीत भी हैं परंतु मंजिल पर सब मिल जाते हैं अपनी रुझान चुन लेना - सगुण या निर्गुण / गणित कुशल के लिए निराकार मार्ग उपयुक्त / स्वैण मन साकार को पसंद करता है / ढांचा पहचानने में गुरु अत्यंत आवश्यक / सही विधि हो, तो सफलता आसान / गुह्य-ज्ञान के संबंध में बात करते समय रामकृष्ण बीच-बीच में रुक जाते और कहते कि मां मुझे सच बोलने नहीं देती / इसका क्या अर्थ है ? / सत्य को शब्दों में अभिव्यक्त करना करीब-करीब असंभव है / सत्य ही रोक लेता है / रामकृष्ण की काव्य-भाषा / रामकृष्ण बे पढ़े-लिखे हैं / बुद्ध भाषा में ज्यादा कुशल हैं। जितना गहरा सत्य उतनी ही भाषा कमजोर / छोटा आदमी विराट अनुभूति / रामकृष्ण की भक्त की भाषा बोलते-बोलते समाधि में डूब जाना / परमात्मा में विपरीत अतियां समाई हुई / परमात्मा स्वष्टा भी है और विनाशक भी / जन्म और मृत्यु की संख्या का निरंतर संतुलन / मृत्यु- संख्या कम करें, तो जन्म- संख्या भी कम करना पड़ेगा / परमात्मा बाहर भी है - और भीतर भी / अपरिवर्तनशील में भी परिवर्तनशील में भी / परमात्मा अनुभवगम्य है— समझा नहीं जा सकता / निकटतम है और दूर से दूर भी / वही बनाता, वही सम्हालता, वही मिटाता / तब आदमी निश्चित हो सकता है / सभी साधनाएं बुद्धि को एक तरफ हटाने के लिए / बुद्धि के बीच में न होने पर ही प्रकृति भी काम करती है / बुद्धि का नियंत्रण छोड़ने में भय / स्वास्थ्य लाभ के लिए मरीज का सो जाना जरूरी / बुद्धि को हटाना सीखें / साक्षी होने के छोटे-छोटे प्रयोग करें / होश बढ़ने पर क्रियाओं का धीमा होना / पाप के लिए त्वरा, तेजी, ज्वरं चाहिए / शरीर को भीतर से देखना / साक्षी के बढ़ने पर कर्ता व बुद्धि का कम होना / साक्षी द्वार है और बुद्धि बाधा ।
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पुरुष - प्रकृति - लीला ... 293
व्यक्तित्व के टाइप की खोज में सम्मोहन का क्या उपयोग है? सम्मोहन साधना के लिए क्या खतरनाक है? / जिससे लाभ – उससे खतरा भी / सम्मोहन का प्राचीन नाम योग तंद्रा / विशिष्ट रूप में आरोपित नींद / ऊपरी चेतन मन का सोना और अचेतन मन का सक्रिय होना / भीतर का मन बड़ा श्रद्धावान है / मृत्यु के सुझाव से मृत्यु तक संभव है / सम्मोहन से बीमारियों एवं दुर्व्यसनों का दूर होना / ध्यान व प्रार्थना में गहराई — सम्मोहन में सुझाव देकर / गुरु द्वारा शिष्य के अचेतन मन में प्रवेश / व्यावसायिक सम्मोहकों से खतरा संभव / पोस्ट-हिप्नोटिक - भविष्यगामी – सुझाव / अचेतन मन तक पहुंच गया संकल्प बहुत शक्तिशाली / परम श्रद्धास्पद व्यक्ति से ही सम्मोहित होना / सामान्य सम्मोहक द्वारा दिए गए अनैतिक सुझाव का इनकार / सम्मोहन से व्यक्तित्व का टाइप जानना, पिछले जन्मों में प्रवेश और ग्रंथि-विसर्जन / ध्यान के द्वारा भी स्वयं की अचेतन गहराइयों में प्रवेश / ऊर्जा का प्राकृतिक प्रवाह नीचे की ओर है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाने की चेष्टा क्यों करनी चाहिए? / आपको लगे कि दुख है, पीड़ा है, तो ही चेष्टा करें / नीचे बहती ऊर्जा है दुख और ऊपर बहती ऊर्जा है आनंद / प्रलोभन सुख का — मिलता है दुख / तप और साधना में शुरू में दुख, अंत में सुख / समस्त धर्म जीवन-ऊर्जा को ऊपर ले जाने के प्रयास हैं / सौ डिग्री गर्मी पर पानी का उड़ना / बुढ़ापा जीवन का विकास होना चाहिए - पतन नहीं / साधना की चेष्टा क्या प्रकृति का विरोध करना नहीं है? / ऊपर उठना भी नियमानुसार / ऊपर उठने या न उठने को स्वतंत्र है मनुष्य / पशु को चुनाव की स्वतंत्रता नहीं है / मनुष्य पशु से भी ज्यादा नीचे गिर सकता है / आदमी बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट बन सकता है— चंगेज, हिटलर और स्टैलिन भी / काम वासना या ब्रह्मचर्य - दोनों नियमगत हैं / आनंद के नियमों का उपयोग करना / ऊपर चढ़ने में श्रम और कष्ट / यात्रा का श्रम मंजिल के आनंद का अनिवार्य हिस्सा है / क्या मस्तिष्क के विशिष्ट तंतुओं को विद्युत से कंपा कर समाधि का सुख लिया जा सकता है ? / मस्तिष्क में शांति और विश्राम की अल्फा तरंगें पैदा करने में सहायक यंत्र / यंत्र आवाज करने लगे तो आप ध्यान में हैं / ध्यान की अल्फा तरंगों में परमानंद है / यंत्र की सहायता से उत्पन्न अल्फा में केवल यांत्रिक शांति है / मशीन के साथ तारतम्य बिठाने की कुशलता और ध्यान में मौलिक भिन्नता / यंत्र से ध्यान की पूर्ति असंभव / इलेक्ट्रोड से उत्पन्न संभोग सुख - परिपूर्णरूप से प्रेमशून्य / आंतरिक आत्मिक अनुभूति यंत्र से असंभव / जानकारी और स्वानुभव का फर्क / शास्त्र - ज्ञान को आत्म-ज्ञान मानने की भ्रांति / गीता कंठस्थ लोगों से प्रतियोगिता में कृष्ण हारेंगे / चार्ली चैपलिन की नकल प्रतियोगिता में स्वयं चैपलिन तीसरे नंबर पर आया / बुद्धिमान अर्थात जो स्मृति और ज्ञान में फर्क याद रखे / प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं / विज्ञान और ईसाइयत का संघर्ष / संसार बनता है, बिगड़ता
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है, लेकिन प्रकृति और पुरुष सदा हैं / प्रकृति अर्थात मूल उदगम / घटनाएं घटती हैं प्रकृति में, भोग की और मुक्ति की कल्पना घटती है पुरुष में / सुख-दुख, सुंदर - असुंदर की भावनाओं का हेतु पुरुष है / सौंदर्य और कुरूपता के बदलते माप दंड / कैक्टस का प्रेम / सुख-दुख सब मेरे ही भावों का फैलाव है / शुद्ध पुरुष और शुद्ध प्रकृति दोनों सुख-दुख रहित हैं / पुरुष का नाटक: ' प्रकृति पर आरोपण / प्रकृति का नगर और उसके बीच का निवासी है पुरुष / पुरुष स्वभावतः निर्दोष है / प्रकृति पर पुरुष को आरोपित न होने देना / आरोपण है बंधन और आरोपण का अभाव है मुक्ति ।
है
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गीता में समस्त मार्ग हैं ... 311
कृष्ण और अर्जुन के बीच क्या गुरु-शिष्य का संबंध है? फिर कृष्ण अर्जुन से गैर-जरूरी मार्गों की बात क्यों किए चले जाते हैं? / कृष्ण समस्त संभव मार्ग की बात कर रहे हैं / बुद्ध, महावीर, मोहम्मद – एक मार्ग की बात करते हैं / अनेक मार्गों की जानकारी स्वयं के मार्ग के चुनाव में उपयोगी / अर्जुन माध्यम से सारी मनुष्यता के लिए मार्ग देना / बाहर से मित्र - भीतर से गुरु-शिष्य / अर्जुन शिष्यत्व के प्रति अचेतन है / अर्जुन के वैराग्य के पीछे छिपा हुआ मोह / अर्जुन का वैराग्य सच्चा होता, तो कृष्ण अर्जुन को न रोकते / झूठा संन्यास - हार, हानि व असफलता के कारण / प्रश्नों के बहाने छिपी संभावनाओं को खोलना / अर्जुन का खुलना और कृष्ण का प्रकट होना / अर्जुन को चुनाव का मौका देना / अलग-अलग सभी मार्गों को कृष्ण परम श्रेष्ठ कहते हैं / प्रत्येक मार्ग का चरम शिखर उदघाटित करना / व्याख्याकारों का गीता के साथ अन्याय / शंकर द्वारा पूरी गीता पर ज्ञान को थोपना / रामानुज द्वारा भक्ति को पूरी गीता में श्रेष्ठ बताना / तिलक द्वारा पूरी गीता पर कर्म को आरोपित करना / गीता की अन्य टीकाओं की तुलना में आपकी व्याख्या कैसे भिन्न है ? / कुछ भी गीता पर आरोपित नहीं करना है / मैं गीता के साथ बहूंगा / कृष्ण की तरह मैं भी बड़ा विरोधाभासी लगूंगा / आपको जो मार्ग ठीक लगे, उस पर चल पड़ना / तालमेल बिठालने की कोशिश मत करना / कृष्ण द्वारा प्रत्येक मार्ग को उसकी शुद्धता में प्रस्तावित करना / शिष्य कैसे पहचानेगा गुरु को ? / गुरु ही चुनता है शिष्य को / अर्जुन का मनोविश्लेषण / आधुनिक मनोविश्लेषण की सीमाएं / भारतीय मनोविश्लेषण में गुरु बोलता है, शिष्य सुनता है / मरीज शब्द से हानि / कीर्तन में नाचती स्त्रियों के स्तन पर ही नजर जाने का अर्थ ? / बचपन से स्तनपान पूरा न हो सक़ा / दूध पीने की बोतल चूसने से लाभ / एक मार्ग पर सिद्ध होने के बाद भी रामकृष्ण परमहंस कैसे अन्य मार्गों की साधना कर सके ? / सिद्धावस्था के एक कदम पहले रुक जाना / ज्ञान और परम ज्ञान / परम ज्ञान से वापसी असंभव / निर्वाण और महानिर्वाण / संसार प्रक्षेपण है- हमारे भावों और विचारों का / जैसी वासना – वैसा जीवन / वासना के अनुकूल इंद्रियां / जैसी वासना - वैसा ही गर्भ चुनना / मांगों के पूरे हो जाने से ही हम दुखी हैं / तादात्म्य के अनुसार चेतना का रूप बदलना / ध्यान - ताकि लाटरी का नंबर पता चल जाए / परमात्मा से भी संसार मांगना / पुरुष के पृथक होने के बोध से जीवन एक अभिनय मात्र / ध्यान अर्थात परदे के पीछे जाने की कला / पुरुष हर हालत में स्वतंत्र है / कृष्ण बड़े असंगत और जटिल लगते हैं / सभी वर्तन के बावजूद पुरुष अछूता / कृष्ण बेबूझ हैं, क्योंकि क्षण-सत्य में जीते हैं / कृष्ण का अप्रतिबद्ध पल-पल जीना / जिंदगी एक नाटक है, तो चिंता किस बात की ? / आचरण-अनाचरण अभेद / बुद्ध और महावीर का संगत और व्यवस्थित जीवन / कृष्ण की सहज असंगतता / प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय / वासना के साथ सही-गलत का विसर्जन / अचाह की नीति - अतीत अवस्था / गीता का संदेश अति-नैतिक है / नीति-अनीति का अतिक्रमण - पुरुष - प्रकृति - पृथकता से ।
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पुरुष में थिरता के चार मार्ग ... 331
बुद्ध अहिंसा और नीति-नियम सिखाते हैं / किंतु कृष्ण हिंसा और अनीति सिखाते हैं, फिर भी उन्हें भगवान कहना क्या उचित है ? / बुद्ध, महावीर
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की शिक्षाएं साधारण आदमी के लिए / कृष्ण की शिक्षाएं प्रथम कोटि के आदमी के लिए / कृष्ण की बातें शिखर पर व जटिल हैं / चोरी करना बुरा है, क्योंकि धन में मूल्य है / कृष्ण के लिए धन और मिट्टी एक / धन और स्त्री की निंदा के पीछे छिपी हुई चाह और ईर्ष्या / आत्मा अमर है, तो हिंसा पाप कैसे? / हिंसा संभव नहीं, तो अहिंसा कैसे करिएगा? / कृष्ण का संदेश आत्यंतिक है / धन निर्मूल्य है तो चोरी और दान में भी कोई मूल्य न रह जाएगा / जैन और बौद्धों द्वारा कृष्ण को नर्क में डालना / कृष्ण की बातें आचरण-विरोधी, समाज-विरोधी, अहिंसा-विरोधी लगती हैं / कृष्ण ने सत्य को जैसा का तैसा कह दिया है / दुख का कारण व्यक्ति स्वयं है / हिंसा-अहिंसा के मामले में गीता से अड़चन / गीता से गांधी को भी तकलीफ / गांधी की तरकीबें समझाने की / महावीर को दुखी नहीं किया जा सकता / एकांत के प्रयोग में बिना कारण सुख-दुख का घटना / कर्ता-भाव-एक मात्र अज्ञान है / कुछ न-करने में, साक्षी पुरुष में ठहर जाने के बाद भी वर्तन कैसे जारी रह सकता है? / संबोधि के बाद भी वर्तन का जारी रहना-पुराने शेष कर्मों की त्वरा के कारण / पैंतीस वर्ष के बाद शरीर उतार पर / पैंतीस वर्ष से कम उम्र में संबोधि घटने से अल्पायु में मृत्यु / दीर्घायुत्व के लिए विशेष व्यवस्था / ज्ञानियों की बीमारियों का कारण / रामकृष्ण और रमण को कैंसर / चाह-शून्य होने के बाद कर्म-बंध नहीं बनते / व्यक्ति जैसा भाव करता है, वैसा बन जाता है, तो क्या मुक्त होने का भाव करने से वह मुक्त भी हो सकता है? / भाव-शून्य होने पर ही मुक्ति संभव / संसार है-भाव का विस्तार / जो है-उससे राजी न होना / बिकमिंग और बीईंग / भाव की यात्रा की समाप्ति / मोक्ष आपका स्वभाव है / कुछ और–अन्य होने की दौड़ / अचेष्टित सहज स्वभाव / पुरुष मात्र-द्रष्टा है-न कर्ता है, न भोक्ता है / कर्म-मात्र प्रकृति में है / बुद्धि को सूक्ष्म और शुद्ध करने के प्रयोग / स्थूल विषयों से बंधी स्थूल बुद्धि / बुद्धि का विषय के अनुरूप हो जाना / आंतरिक प्रकाश व आंतरिक नाद का अनुभव / कम प्रकाश में देखना, सूक्ष्म आवाजें सुनना / प्राचीन भारतीय गुरुकुलों में विद्यार्थी की संवेदनशीलता को बढ़ाने पर जोर / आधुनिक शिक्षा स्थूल है / विद्यार्थियों का उपद्रव-क्योंकि स्मृति है, बुद्धिमत्ता नहीं / अंतर्जगत को पकड़ने के लिए सूक्ष्मता और शुद्धि आवश्यक / सूक्ष्म और शुद्ध बुद्धि को हृदय पर लगाना भक्ति-योग है / उसे मस्तिष्क में, सहस्रार में लगाना ज्ञान-योग है / उसे कर्म में लगाना कर्म-योग है / मीरा और चैतन्य भक्त हैं / बुद्ध और महावीर ज्ञानी हैं / मोहम्मद और जीसस कर्म-योगी हैं / ईसाई-धर्म का केंद्र-सेवा / हिंदू संन्यासी समाधि में डूबता है / शुद्ध बुद्धि से परमात्मा दिखाई पड़ता है और अशुद्ध बुद्धि से पदार्थ / चार मार्ग-ज्ञान, भक्ति, कर्म और सदगुरु / उपासना अर्थात सदगुरु के पास बैठना / अहंकार छोड़कर ही गुरु के पास बैठना संभव / शिष्यत्व की पात्रता / पूर्व-धारणाओं के साथ सुनना असंभव / पहले चुप बैठना सीखो / द्रष्टा क्षेत्रज्ञ है-और दृश्य क्षेत्र है / गीता में कृष्ण एक ही बात को बार-बार क्यों दोहराते हैं? / प्रज्ञा के निखार के साथ-साथ एक बात के अनेक अर्थ प्रकट / एक ही बात को अनेक-अनेक ढंग से समझाना / बार-बार चोट करना / कृष्ण का मूल स्वर-क्षेत्र से क्षेत्रज्ञ पर वापसी।
कौन है आंख वाला ... 349
मानसिक रूप से पीड़ित, विकारग्रस्त और पागल लोग ही अध्यात्म की ओर क्यों झुकते हैं? / सभी मनुष्य पीड़ित और दुखी हैं / अध्यात्म से गुजर कर ही शांति व आनंद संभव / मनुष्य एक बीज है / बुद्धिमानी की एक ही पहचान-आनंद को उपलब्ध हो जाना / इलाज की खोज करना सौभाग्य है । बीमारी को छिपाना आत्मघाती है / मन का स्वभाव है पागल होना / मन से मुक्त होना स्वास्थ्य है / मन की विक्षिप्तता की जांचः एक प्रयोग / मन में जो भी चलता हो, उसे जोर से बोलना / अध्यात्म है-पागलपन से छुटकारे की विधि / जब तक मन मालिक, तब तक आप पागल / यदि भला-बुरा सब परमात्मा की मर्जी से होता है, तो साधना का क्या प्रयोजन रह जाता है? / यह समर्पण का परम सूत्र है / यह अहंकार विसर्जन की साधना-विधि है / अहंकार के गिरते ही बुरा होना बंद / अहंकार के रहते भलाई असंभव / भाग्य-हारे मन की सांत्वना नहीं है / भाग्य एक विधि है, एक कीमिया है / पश्चिम में बढ़ती हुई चिंता और तनाव-कर्ताभाव की अधिकता के कारण / पुरुषार्थ केंद्रित पश्चिम / भाग्य केंद्रित पूरब / बर्टेड रसेल और आइंस्टीन की चिंता / चिंता का मूल आधार-अहंकार, अस्मिता, मैं / सुख हो या दुख, सफलता हो या असफलता-कहनाः जो परमात्मा की मर्जी / दृष्टि अर्थात क्षण-भंगुर में छिपे अविनाशी को देख पाने की क्षमता / परिवर्तनशील को शाश्वत बनाने की हमारी चेष्टा / ध्यान के लिए समय कैसे निकालें/ आत्मा खो कर वस्तुएं इकट्ठी कर लेना / कर्ता परमात्मा या प्रकृति है, तो आप अकर्ता हो गए / साक्षी न कर्ता है, न भोक्ता / भीतर छिपे साक्षी को खोदना / अंधे को प्रकाश के बारे में समझाना व्यर्थ / परमात्मा को, शाश्वत को देखने के लिए भी आंख चाहिए।
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साधना और समझ ... 365
शास्त्रों का अध्ययन, ज्ञानियों का श्रवण, चिंतन-मनन, साक्षीभाव और समझ क्या पर्याप्त नहीं? अलग से ध्यान क्यों करना? / समझ के बीज को ध्यान की भूमि चाहिए / कृष्णमूर्ति को चालीस साल सुन कर भी समझ पैदा नहीं हुई / समग्र मन से पढ़ना या सुनना भी ध्यान बन सकता है / ध्यान अर्थात निस्तरंग चैतन्य / ध्यान के स्रोत ः प्रार्थना, पूजा, कीर्तन, श्रवण, दर्शन, तंत्र, योग/ तरंगायित चित्त में समझ असंभव / ध्यान पर जोर / पहले एक घंटा तो साध लें / हमारी होशियारी : ध्यान से बचने की / कृष्णमूर्ति के पास अहंकारियों का इकट्ठा होना / जब तक सीखना है, तब तक गुरु की जरूरत है / झुकने में बड़ी तकलीफ होती है / ध्यान के बिना साक्षीभाव संभव नहीं / कृष्णमूर्ति की बुनियादी भूल / कृष्णमूर्ति पर अनेक गुरुओं का अथक श्रम / गुरुओं के विरोध का मनोवैज्ञानिक कारण / कृष्णमूर्ति पर की गई जबर्दस्ती / स्वेच्छा से चलने पर कृष्णमूर्ति को तीन-चार जन्म और लगते / ज्ञानोपलब्धि के पूर्व की मनोदशा से ही अभिव्यक्ति करने की मजबूरी / साधना और गुरुओं का विरोध भी एक विधि है / ध्यान का बूंद-बूंद इकट्ठा करना / आत्मविश्वास और लगन का अध्यात्म में क्या उपयोग है? / अपने पर भरोसा अहंकार है / पुरुषार्थ की अकड़ से अध्यात्म में बाधा / विपरीत यात्राएं-संसार की और अध्यात्म की / महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा-गैर-आध्यात्मिक / मिटना है द्वार / आत्म-अविश्वास भी अहंकार का ही एक रूप / संसार में दौड़ना जरूरी, अध्यात्म में रुकना जरूरी / लगन अर्थात एकाग्रता / राजनीतिज्ञ की अंधी और विक्षिप्त लगन / अध्यात्म ईगो-ट्रिप नहीं है / पूरब में अध्यात्म के सूत्र हैं / पश्चिम में संसार के सूत्र हैं। दोनों अधूरे-अधूरे / अंतर्यात्रा के लिए संसार की व्यर्थता का बोध जरूरी / अपने को शरीर से पृथक साक्षी जानने वाले व्यक्ति को क्या शारीरिक दुख और मानसिक पीड़ाएं नहीं होती हैं? / कष्ट होगा-दुख नहीं / पीड़ा से तादात्म्य होने पर दुख / ज्ञानी अत्यंत संवेदनशील है / मूर्छा के कारण कष्ट का अपूर्ण बोध / कष्ट से बचने की तरकीब-रोना-चिल्लाना / दूसरी तरकीब-शरीर को जड़ बना लेना / कांटे पर लेटने का अभ्यास / अध्यात्म का धोखा-शरीर की जड़ता से/ खड़े श्री बाबा / आकाश सदा कुंवारा है / आत्मा आकाश की तरह है / लकीर खींचना-पत्थर पर, पानी पर, आकाश पर / परमात्मा है-अंतआकाश / सुख-दुख पाना-तादात्म्य के कारण / सुख-दुख भ्रांतियां हैं / अध्यात्म-भीतर छिपे अस्पर्शित चैतन्य की खोज /मन का चाक और चैतन्य की कील/चेतना कभी अशुद्ध नहीं हुई है / समस्त अभिनयों से अछूता / परमात्मा अनादि और गुणातीत होने से लिपायमान नहीं होता / बाहर कर्म-भीतर अकर्ता / हमारी मान्यताएं-हमारा आत्म-सम्मोहन हैं / धारणाओं के कुछ चमत्कारिक परिणाम / आत्म-सम्मोहन को तोड़ना / शुद्ध चैतन्य पर वापसी।
अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी ... 383
जीवन भर जिसने पाप किया हो, वह यदि मरते समय दूसरे जन्म में बुद्ध पुरुष बनने की चाह करे, तो क्या उसकी चाह पूरी हो सकती है? / मृत्यु-क्षण की अंतिम चाह, दसरे जन्म की प्रथम घटना बनती है / रात्रि नींद के पहले का अंतिम विचार ही सबह का पहला विचार / का अंतिम विचार है-पूरे जीवन का निचोड़ / धोखा संभव नहीं / वासना का बीज / जवानी में पाप और बुढ़ापे में धर्म / धर्म के लिए, पुण्य के लिए भी शक्ति चाहिए / जिंदगी मूर्छा में गुजारी, तो मरते समय होश रखना असंभव / मृत्यु बड़ा से बड़ा आपरेशन है / मृत्यु का एनेस्थेसिया / गर्भ में भी बेहोशी जरूरी / जन्म के समय बेहोशी / छोटी-छोटी बातों पर भी हमारी मालकियत नहीं / मृत्यु के पहले ध्यान में मरना सीखना / बिना एनेस्थेसिया के काशी नरेश का आपरेशन / बुद्धत्व की तैयारी अभी से करें-मृत्यु-क्षण के लिए मत टालें / यदि सभी मनुष्य अकर्ता बन जाएं, तो जीवन में क्या रस बाकी रह जाएगा? / कर्ताभाव से रस आ रहा हो, तो धर्म की चिंता छोड़ें / भविष्य की आशा में रस / साक्षी होते ही भविष्य का खो जाना / संसार है रोग, धर्म है चिकित्सा / धर्म के बिना दुख से मुक्ति असंभव / दुख का मूल कारणः कर्ता भाव, अहंकार / अतीत स्मृति है और भविष्य कल्पना /
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सत्य है-केवल वर्तमान / वर्तमान के क्षण में मन नहीं हो सकता /ध्यान का गहनतम सूत्रः वर्तमान में होना / वर्तमान में आनंद की वर्षा / आशा में धोखा है / वासना है भविष्य की दौड़ / वर्तमान है द्वार-अस्तित्व का / बुद्ध की मुसीबत—कि उन्हें सब उपलब्ध था / बुद्ध का भविष्य गिर गया / संसार की दौड़ छटी, तो धर्म की दौड़ शुरू हो गई / भविष्य में मोक्ष पाने की वासना / महल व्यर्थ हुए थे, अब मोक्ष की खोज भी व्यर्थ हो गई / चाह गिरी, तो प्रयास भी गिर गया / साक्षी मात्र रह गया / रुकते ही स्वयं मंजिल हो गए / बिना साधना के क्या अकस्मात आत्म-साक्षात्कार हो सकता है? / पहले प्रयास-फिर अप्रयास / पहले करना-फिर न-करना / पूरा दौड़ कर ही पूरा रुकना संभव / कड़ा श्रम-गहरी नींद / आत्म-साक्षात्कार तो अकस्मात ही होता है / फिर भी साधना तुम्हें निखारती है / अकस्मात विस्फोट के पहले एक लंबी यात्रा है / सब कुछ एक ही चैतन्य से स्पंदित / दीए भिन्न-भिन्न, किंतु प्रकाश एक / विषयों पर हमारा ध्यान है-जानने वाले पर नहीं / साक्षी का विस्मरण संसार है / दृश्य संसार है-और द्रष्टा परमात्मा / शरीर में छिपा निराकार / द्रष्टा को देखना बहुत मुश्किल है / स्वयं को जानने की कला है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ में भेद करना / शरीर भी दृश्य है-और मन भी / निर्विषय चेतना समाधि है / बौद्धिक ज्ञान अनुभव नहीं है / अनुभव के पहले समझ में आ जाना खतरनाक है / गीता को कंठस्थ किए लोग / अज्ञानी पंडित से अच्छी हालत में है। अज्ञानी, पंडित और अनुभवी / अनुभव के बिना सभी शास्त्र व्यर्थ / स्वानुभव के पूर्व कृष्ण से मिलना संभव नहीं।
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अध्याय 12 पहला प्रवचन
प्रेम का द्वार: भक्ति में प्रवेश
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गीता दर्शन भाग-60
श्रीमद्भगवद्गीता
ऐसा साहस भी रखना होगा कि जहां हम चुक जाते हैं, जरूरी नहीं अथ द्वादशोऽध्यायः
कि सत्य चुक जाता हो। और जहां हमारी सीमा आ जाती है, जरूरी
नहीं है कि अस्तित्व की सीमा आ जाती हो। अर्जुन उवाच
अपने से भी आगे जाने का साहस हो, तो ही भक्ति समझ में आ एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। | सकती है। जो अपने को ही पकड़कर बैठ जाते हैं, भक्ति उनके ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१।। समझ में नहीं आ सकेगी। जो अपनी बुद्धि को ही अंतिम मापदंड श्रीभगवानुवाच
| मान लेते हैं, उनके मापदंड में भक्ति का सत्य नहीं बैठ सकेगा। मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। इस बात को पहले समझ लें। कुछ जरूरी बातें इस बात को
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।२।। | समझने के लिए खयाल में लेनी होंगी। इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे एक तो जो हमें तर्क जैसा मालूम पड़ता है और उचित लगता है,
कृष्ण, जो अनन्य प्रेमी भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से सब भांति बुद्धि को भाता है, जरूरी नहीं है कि बहुत गहरी खोज निरंतर आपके भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप पर सही ही सिद्ध हो।
परमेश्वर को अति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो ___ जो हम जानते हैं, अगर वहां तक सत्य होता, तो हमें मिल गया अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को ही उपासते हैं, उन | होता। जो हमारी समझ है, अगर वहीं परमात्मा की अनुभूति होने दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है? ।। | वाली होती, तो हमें हो गई होती। जो हम हैं, वैसे ही अगर हम उस
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले, परम रहस्य में प्रवेश कर पाते, तो हम प्रवेश कर ही गए होते। मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे | एक बात तो साफ है कि जैसे हम हैं, उससे परम सत्य का कोई
हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए संबंध नहीं जुड़ता है। हमारी बुद्धि जैसी अभी है, आज है, उसका मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में | | जो ढांचा और व्यवस्था है, शायद उसके कारण ही जीवन का रहस्य भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ खुल नहीं पाता; द्वार बंद रह जाते हैं। मानता हूं।
कभी आपने देखा हो...सूफी निरंतर कहते रहे हैं...। सूफी फकीर बायजीद बार-बार कहता था कि एक बार एक मस्जिद में
बैठा हुआ था। और एक पक्षी खिड़की से भीतर घुस आया। बंद 7 क अतयं यात्रा पर इस अध्याय का प्रारंभ होता है। कमरा था, सिर्फ एक खिड़की ही खुली थी। पक्षी ने बड़ी कोशिश ५ एक तो जगत है, जो मनुष्य की बुद्धि समझ पाती है; | की, दीवालों से टकराया, बंद दरवाजों से टकराया, छप्पर से
सरल है। गणित और तर्क वहां काम करता है। समझ | | टकराया। और जितना टकराया, उतना ही घबड़ा गया। जितना में आ सके, समझ के नियमों के अनुकूल, समझ की व्यवस्था में | | घबड़ा गया, उतनी बेचैनी से बाहर निकलने की कोशिश की। बैठ सके, विवाद किया जा सके, निष्कर्ष निकाले जा सकें—ऐसा | | बायजीद बैठा ध्यान करता था। बायजीद बहुत चकित हुआ। एक जगत है। और एक ऐसा जगत भी है, जो तर्क के नियमों को | सिर्फ उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की, जो तोड़ देता है। बुद्धि वहां जाने की कोशिश करे, तो द्वार बंद पाती है। खिड़की खुली थी और जिससे वह भीतर आया था! वहां हृदय ही प्रवेश कर सकता है। वहां अंधा होना ही आंख वाला | | बायजीद बहुत चिंतित हुआ कि इस पक्षी को कोई कैसे समझाए होना है; और वहां मूढ़ होना बुद्धिमत्ता है।
| कि जब तू भीतर आ गया है, तो बाहर जाने का मार्ग भी निश्चित ऐसे अतयं के आयाम में भक्ति-योग के साथ प्रवेश होगा। ही है। क्योंकि जो मार्ग भीतर ले आता है, वही बाहर भी ले जाता बहुत सोचना पड़ेगा; क्योंकि जो सोचने की पकड़ में न आ सके, | | है। सिर्फ दिशा बदल जाती है, द्वार तो वही होता है। और जब पक्षी उसके लिए बड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। जो समझ के बाहर हो, उसे | | भीतर आ सका है, तो बाहर भी जा ही सकेगा। अन्यथा भीतर आने समझने के लिए स्वयं को पूरा ही दांव पर लगा देना होगा। और का भी कोई उपाय न होता।
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ॐ प्रेम का द्वार : भक्ति में प्रवेश 0
लेकिन वह पक्षी सब तरफ टकराता है, खुली खिड़की छोड़कर। | इस जगत में प्रवेश करते हैं। प्रेम से ही हम इस जगत के बाहर जा ऐसा नहीं कि उस पक्षी को बुद्धि न थी। उस पक्षी को भी बुद्धि रही | सकते हैं। लेकिन प्रेम के कुछ लक्षण समझ लेने जरूरी हैं। होगी। लेकिन पक्षी का भी यही खयाल रहा होगा कि जिस खिड़की । प्रेम का पहला लक्षण तो है उसका अंधापन। और जो भी प्रेम में से भीतर आकर मैं फंस गया, उस खिड़की से बाहर कैसे निकल नहीं होता, वह प्रेमी को अंधा और पागल मानता है। मानेगा। सकता हूं! जो भीतर लाकर मुझे फंसा दी, वह बाहर ले जाने का | | क्योंकि प्रेमी सोच-विचार नहीं करता; तर्क नहीं करता; हिसाब नहीं द्वार कैसे हो सकती है! यही तर्क उसका रहा होगा। जिससे हम लगाता; क्या होगा परिणाम, इसकी चिंता नहीं करता। बस, छलांग झंझट में पड़ गए, उससे हम झंझट के बाहर कैसे निकलेंगे! लगा लेता है। जैसे प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि उसमें डूब जाता है, इसलिए उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की। । और एक हो जाता है।
बायजीद ने सहायता भी पहुंचानी चाही। लेकिन जितनी सहायता । वे, जो भी आस-पास खड़े लोग हैं, वे सोचेंगे कि कुछ गलती करने की कोशिश की, पक्षी उतना बेचैन और परेशान हुआ। उसे | हो रही है। प्रेम में भी विचार होना चाहिए। प्रेम में भी सूझ-बूझ लगा कि बायजीद भी उसको उलझाने की, फांसने की, गुलाम बनाने | होनी चाहिए। कहीं कोई गलत कदम न उठ जाए, इसकी की, बंदी बनाने की कोशिश कर रहा है। और भी घबड़ा गया। पूर्व-धारणा होनी चाहिए।
बायजीद ने लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि संसार प्रेम अंधा दिखाई पड़ेगा बुद्धिमानों को। लेकिन प्रेम की अपनी में आकर हम भी ऐसे ही उलझ गए हैं; और जिस द्वार से हमने ही आंखें हैं। और जिसको वे आंखें उपलब्ध हो जाती हैं, वह बुद्धि भीतर प्रवेश किया है, उस द्वार को छोड़कर हम सब द्वारों की खोज की आंखों को अंधा मानने लगता है। जिसको प्रेम का रस आ जाता करते हैं। और जब तक हम उसी द्वार पर नहीं पहुंच जाते, जहां से है, उसके लिए सारा तर्कशास्त्र व्यर्थ हो जाता है। और जो प्रेम की हम जीवन में प्रवेश करते हैं, तब तक हम बाहर भी नहीं निकल | धुन में नाच उठता है, जो उस संगीत को अनुभव कर लेता है, वह सकते हैं।
आपके सारे सोच-विचार को दो कौड़ी की तरह छोड़ दे सकता है। बुद्धि के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। विचार के | उसके हाथ में कोई हीरा लग गया। अब इस हीरे के लिए आपकी कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। आपके जगत में आगमन | कौड़ियों को नहीं सम्हाला जा सकता। का द्वार प्रेम है। आपके अस्तित्व का, जीवन का द्वार प्रेम है। और प्रेम अंधा मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम के पास वे ही आंखें नहीं प्रेम जब उलटा हो जाता है, तो भक्ति बन जाती है। जब प्रेम की | | हैं, जो बुद्धि के पास हैं। प्रेम के पास कोई दूसरी आंखें हैं। प्रेम के दिशा बदल जाती है, तो भक्ति बन जाती है।
| देखने का ढंग कोई और है। प्रेम हृदय से देखता है। और चूंकि हम जब तक आप अपनी आंखों के आगे जो है उसे देख रहे हैं, जब इस जगत में प्रेम के कारण ही प्रविष्ट होते हैं। अपने प्रेम के कारण, तक उससे आपका मोह है, लगाव है, तब तक आप संसार में | दूसरों के प्रेम के कारण हम इस जगत में आते हैं। हमारा शरीर निर्मित उतरते चले जाते हैं। और जब आप आंख बंद कर लेते हैं और जो | होता है। हम अस्तित्ववान होते हैं। इसी प्रेम को उलटाना पड़ेगा।
आंख के आगे दिखाई पड़ता है वह नहीं, बल्कि आंख के पीछे जो इसी अंधे प्रेम का नाम, जब यह जगत की तरफ से हटता है और छिपा है, उस पर लगाव और प्रेम को जोड़ देते हैं, तो भक्ति बन | भीतर चैतन्य की तरफ मुड़ता है, श्रद्धा है। श्रद्धा अंधा प्रेम है, जाती है। द्वार वही है। द्वार दूसरा हो भी नहीं सकता।
लेकिन मूल-स्रोत की तरफ लौट गया। संसार की तरफ बहता हुआ जिससे हम भीतर आते हैं, उससे ही हमें बाहर जाना होगा। जिस | वही प्रेम वासना बन जाता है। परमात्मा की तरफ लौटता हुआ वही रास्ते से आप यहां तक आए हैं, घर लौटते वक्त भी उसी रास्ते से | | प्रेम श्रद्धा और भक्ति बन जाती है। जाइएगा। सिर्फ एक ही फर्क होगा कि यहां आते समय आपका ध्यान | | जैसा प्रेम अंधा है, वैसी भक्ति भी अंधी है। इसलिए जो बहुत इस तरफ था, आंखें इस तरफ थीं, रुख इस तरफ था। लौटते वक्त | | बुद्धिमान हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग, मार्ग ही मालूम नहीं इस तरफ पीठ होगी। आंखें वही होंगी, सिर्फ दिशा बदल जाएगी। | पड़ेगा। जो बहुत सोच-विचार करते हैं. जो बहत तर्क करते हैं. जो आप वही होंगे. रास्ता वही होगा: सिर्फ दिशा बदल जाएगी। | परमात्मा के पास भी बुद्धिमानीपूर्वक पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए प्रेम की दिशा के परिवर्तन का नाम भक्ति है। और प्रेम से हम | | | भक्ति का मार्ग नहीं है।
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0 गीता दर्शन भाग-660
___ उनके लिए मार्ग हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में कहेंगे कि भक्ति की प्रतीति होती है, कृष्ण उसी को योग कहते हैं। वही मिलन है, से श्रेष्ठ उन मार्गों में कोई भी मार्ग नहीं है। किस कारण? क्योंकि वही परम समाधि है। बुद्धि कितना ही सोचे, अहंकार के पार जाना बहुत मुश्किल है। प्रेम | | इस मिलने में परमात्मा तो पहले से ही तैयार है, सदा तैयार है। छलांग लगाकर अहंकार के बाहर हो जाता है। बुद्धि लाख प्रयत्न हम बाधा हैं। आमतौर से हम सोचते हैं, हम परमात्मा को खोज रहे करके भी अहंकार के बाहर नहीं हो पाती। क्योंकि जब मैं सोचता हैं और परमात्मा नहीं मिल रहा है। इससे बड़ी भ्रांति की कोई और हूं, तो मैं तो बना ही रहता हूं। जब मैं हिसाब लगाता हूं, तो मैं तो बात नहीं हो सकती। सचाई कुछ और ही है। परमात्मा हमें निरंतर बना ही रहता हूं। मैं कुछ भी करूं-पूजा करूं, ध्यान करूं, योग | से खोज रहा है। लेकिन हम ऐसे अड़े हुए हैं अपने पर कि हम साधूं लेकिन मैं तो बना ही रहता हूं।
उसको भी सफल नहीं होने देते। भक्ति पहले ही क्षण में मैं को पार कर जाती है। क्योंकि भक्ति सुना है मैंने, एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया था, तो का अर्थ है, समर्पण। भक्ति का अर्थ है कि अब मैं नहीं, तू ज्यादा | उसने उसे घर से निकाल दिया। फिर बाप था; साल, छः महीने में महत्वपूर्ण है। और अब मैं मैं को छोडूंगा, मिटाऊंगा, ताकि तुझे पा | | पिघल गया वापस। खबर भेजी लड़के को कि लौट आओ। लेकिन सकूँ। यह मेरा मिटना ही तेरे पाने का रास्ता बनेगा। और जब तक | लड़का भी जिद्दी था, और उसने लौटने से इनकार कर दिया कि जब मैं हूं, तब तक तुझसे दूरी बनी रहेगी। जितना मजबूत हूं मैं, उतनी | एक बार निकाल ही दिया, तो अब...अब आना उचित नहीं है। ही दूरी है, उतना ही फासला है। जितना पिघलूंगा, जितना गलूंगा, | अब मैं न हिलूंगा यहां से। वह राज्य की सीमा के बाहर जाकर बैठ जितना मिलूंगा, उतनी ही दूरी मिट जाएगी।
गया था। भक्ति को कृष्ण श्रेष्ठतम योग कहते हैं, एक कारण और है जिस सम्राट ने मंत्री को भेजा और कहा, थोड़ा तो हिलो, एक कदम वजह से।
| ही सही। तुम एक कदम चलो, बाकी कदम मैं चल लूंगा। बाप ने जहां दो हों, और फिर भी एक का अनुभव हो जाए, तो ही योग | | खबर भेजी है कि तुम एक कदम ही चलो, तो भी ठीक, बाकी कदम
हो. और एक का अनभव हो. तो योग का मैं चल लंगा। लेकिन तम्हारा एक कदम चलना जरूरी है। ऐसे तो कोई सवाल नहीं है।
| मैं भी पूरा चलकर आ सकता हूं। जब इतने कदम चल सकता हूं, __ अगर कोई ऐसा समझता हो कि केवल परमात्मा ही है और कुछ | | तो एक कदम और चल लूंगा। लेकिन वह मेरा आना व्यर्थ होगा, भी नहीं, तो योग का कोई सवाल नहीं है, मिलन का कोई सवाल क्योंकि तुम मिलने को तैयार ही नहीं हो। तुम्हारा एक कदम, तुम्हारी नहीं है। जब एक ही है, तो न मिलने वाला है, न कोई और है, जिसमें मिलने की तैयारी की खबर देगा। बाकी मैं चल लूंगा। मिलना है। मिलने की घटना तो तभी घट सकती है, जब दो हों। आपका एक कदम चलना ही जरूरी है, बाकी तो परमात्मा चला ___एक शर्त खयाल रखनी जरूरी है। दो हों, और फिर भी दो के | | ही हुआ है। लेकिन आपकी मिलने की तैयारी न हो, तो आप पर बीच एक का अनुभव हो जाए, तभी मिलने की घटना घटती है। | आक्रमण नहीं किया जा सकता। मिलन बड़ी आश्चर्यजनक घटना है। दो होते हैं, और फिर भी दो परमात्मा अनाक्रमक है; वह प्रतीक्षा करेगा। फिर उसे कोई समय नहीं होते। दो लगते हैं, फिर भी दुई मिट गई होती है। दो छोर मालूम की जल्दी भी नहीं है। फिर आज ही हो जाए, ऐसा भी नहीं है। अनंत पड़ते हैं, फिर भी बीच में एक का ही प्रवाह अनुभव होता है। दो | तक प्रतीक्षा की जा सकती है। समय की कमी हमें है, उसे नहीं। किनारे होते हैं, लेकिन सरिता बीच में बहने वाली एक ही होती है। | समय की अड़चन हमें है। हमारा समय चुक रहा है, और हमारी जब दो के बीच एक का अनुभव हो जाए तो योग।
शक्ति व्यय हो रही है। लेकिन एक कदम हमारी तरफ से उठाया इसलिए कृष्ण भक्ति को सर्वश्रेष्ठ योग कहते हैं। | जाए, तो परमात्मा की तरफ से सारे कदम उठाए ही हुए हैं।
मजा ही क्या है, अगर एक ही हो; तो मिलने का कोई अर्थ भी । वह एक कदम भक्ति एक ही छलांग में उठा लेती है। और ज्ञान नहीं है। और अगर दो हों, और दो ही बने रहें, तो मिलने का कोई | | को उस एक कदम को उठाने के लिए हजारों कदम उठाने पड़ते हैं। उपाय नहीं है। दो हों और एक की प्रतीति हो जाए; दो होना ऊपरी | क्योंकि ज्ञान कितने ही कदम उठाए, अंत में उसे वह कदम तो रह जाए, एक होना भीतरी अनुभव बन जाए। दो के बीच जब एक | | उठाना ही पड़ता है, जो भक्ति पहले ही कदम पर उठाती है। और
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प्रेम का द्वार : भक्ति में प्रवेश
वह है, अहंकार विसर्जन।
आपका संबंध और संवाद हो पाएगा। ज्ञानी कोई कितना ही बड़ा हो जाए, एक दिन उसे ज्ञानी होने की और ऐसा नहीं है कि एक बार आपका हृदय समझ जाए, तो अस्मिता भी छोडनी पडती है। इसलिए साक्रेटीज ने कहा है कि ज्ञान आपकी बद्धि की कसौटी पर ये सत्र नहीं उतरेंगे। उतरेंगे। लेकिन का अंतिम चरण है इस बात का अनुभव कि मैं ज्ञानी नहीं हूं। ज्ञान एक बार हृदय समझ जाए, एक बार आपके हृदय में इनके रस की की पूर्णता है इस प्रतीति में कि मुझसे बड़ा अज्ञानी और कोई भी | थोड़ी-सी धारा बह जाए, तो फिर बुद्धि की भी समझ में आ जाएंगे। नहीं है।
लेकिन सीधा अगर बुद्धि से प्रयोग करने की कोशिश की, तो बुद्धि अगर ज्ञान की पूर्णता इस प्रतीति में है कि मैं अज्ञानी हूं, तो बाधा बन जाएगी। इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि भक्त जो कदम पहले जैसा मैंने कहा, बहुत बार लगता है कि बुद्धि बिलकुल ठीक ही उठा लेता है...। भक्त पहले ही कदम पर अंधा हो जाता है, | कह रही है। चूंकि हमें ठीक का कोई पता नहीं है, जो बुद्धि कहती ज्ञानी अंतिम कदम पर अंधा होता है। बहुत यात्रा करके उसी द्वार | है, उसी को हम ठीक मानते हैं। पर आना होता है, जहां आदमी अपने को खोता है।
सुना है मैंने, एक बहुत बड़ा तर्कशास्त्री रात सोया हुआ था। पर ज्ञानी बहुत चक्कर लेता है! बड़े शास्त्र हैं, बड़े सिद्धांत हैं, उसकी पत्नी ने उसे उठाया और कहा कि जरा उठो। बाहर बहुत सर्दी बड़े वाद हैं, उन सबमें भटकता है। बड़े विचार हैं। और जब तक | | है और मैं गली जा रही हूं। खिड़की बंद कर दो। उसकी पत्नी ने ऊब नहीं जाता; और जब तक अपने ही विचारों से परेशान नहीं हो | कहा, देअर इज़ टू मच कोल्ड आउटसाइड। गेट अप एंड क्लोज जाता; और जब तक उसे यह समझ में नहीं आ जाता कि मेरे विचार | दि विंडो। उस तर्कशास्त्री ने कहा कि तू भी अजीब बातें कर रही ही जाले की तरह मुझे बांधे हुए हैं; और मेरे विचार ही मेरी | है! क्या मैं खिड़की बंद कर दूं, तो बाहर गरमी हो जाएगी? इफ हथकड़ियां हैं; और मैंने अपने ही विचारों से अपना कारागृह निर्मित | | आई क्लोज दि विंडो, विल आउटसाइड गेट वार्म? क्या बाहर सर्दी किया है, तब तक, तब तक वह लंबी भटकन से गुजरता है। | चली जाएगी अगर मैं खिड़की बंद कर दूं?
भक्त पहले ही कदम में अपने को छोड़ देता है। और जिस क्षण | | तर्क की लिहाज से बिलकुल ठीक बात है। उसकी पत्नी कह रही कोई अपने को छोड़ देता है, उसी क्षण परमात्मा उसे उठा लेता है। | थी कि बाहर बहुत सर्दी है, खिड़की बंद कर दो। उस तर्कशास्त्री ने भक्त का साहस अदभुत है। साहस का एक ही अर्थ होता है, कहा, क्या खिड़की बंद करने से बाहर गरमी हो जाएगी? खिड़की अज्ञात में उतर जाना। साहस का एक ही अर्थ होता है. अनजान में बंद करने से बाहर गरमी नहीं होने वाली। और पति सो गया। तर्क उतर जाना।
की किताब में भल खोजनी मश्किल है। क्योंकि पत्नी ने जो कहा ज्ञानी जान-जानकर चलता है; सोच-सोचकर कदम उठाता है। | था, उसका जवाब दे दिया गया। हिसाब रखता है। भक्त पागल की तरह कूद जाता है। इसलिए हमारी जिंदगी में हम अज्ञात के संबंध में जो तर्क उठाते हैं, वे ज्ञानियों को भक्त सदा पागल मालूम पड़े हैं। और उन भक्त पागलों करीब-करीब ऐसे ही होते हैं। उनके जवाब दिए जा सकते हैं। और ने हमेशा ज्ञानियों को व्यर्थ के उपद्रव में पड़ा हुआ समझा है। फिर भी जवाब व्यर्थ होते हैं। क्योंकि जिस संबंध में हम जवाब दे .
ये जो भक्ति के सूत्र इस अध्याय में हम चर्चा करेंगे, इनमें ये | | रहे हैं, उस संबंध में तर्कयुक्त हो जाना काफी नहीं है। बातें ध्यान रख लेनी जरूरी हैं।
और तर्क की और एक असुविधा है कि तर्क कुछ भी सिद्ध कर ये प्रेम और पागलपन के सूत्र हैं। इनमें थोड़ा-सा आपको | | सकता है। और तर्क कुछ भी असिद्ध कर सकता है। तर्क वेश्या पिघलना पड़ेगा अपनी बुद्धि की जगह से। थोड़ा आपका हृदय की भांति है। उसका कोई पति नहीं है। तर्क का कोई भी पति हो गतिमान हो और थोड़ी हृदय में तरंगें उठें, तो इन सूत्रों से संबंध सकता है। जो भी तर्क को चुकाने को तैयार है पैसे, वही पति हो स्थापित हो जाएगा। आपके सिरों की बहुत जरूरत नहीं पड़ेगी, | जाता है। इसलिए तर्क कोई भरोसे की नाव नहीं है। आपके हृदय की जरूरत होगी। आप अगर थोड़े-से नीचे सरक आज तक दुनिया में ऐसा कोई तर्क नहीं दिया जा सका, जिसका आएंगे, अपनी खोपड़ी से थोड़े हृदय की तरफ; सोच-विचार नहीं, | | खंडन न किया जा सके। और मजा यह है कि जो तर्क एक बात को थोड़े हृदय की धड़कन की तरफ निकट आ जाएंगे, तो इन सूत्रों से सिद्ध करता है, वही तर्क उसी बात को असिद्ध भी कर सकता है।
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• गीता दर्शन भाग-60
मैंने सुना है, एक बड़ा तर्कशास्त्री सुबह अपने बगीचे में बैठकर | भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठ नाश्ता कर रहा था। और जैसा कि अक्सर होता है, तर्कशास्त्री | | | भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को निराशावादी होता है। क्योंकि तर्क से कोई आशा की किरण तो | । ही उपासते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता निकलती नहीं। आशा की किरण तो निकलती है प्रेम से, जो | | कौन है? अतयं है। तर्क से तो केवल उदासी निकलती है। जिंदगी में अर्जुन ने पूछा, दो तरह के लोग देखता हूं, दो तरह के साधक, क्या-क्या व्यर्थ है, वही दिखाई पड़ता है; और कहां-कहां कांटे हैं, | दो तरह के खोजी। एक वे, जो देखते हैं कि आप निराकार हैं; वही अनुभव में आते हैं। फूलों को समझने के लिए तो हृदय | आपका कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई चाहिए। कांटों को समझने के लिए बुद्धि काफी है, पर्याप्त है। आकृति नहीं। आपका कोई अवतार नहीं। आपको न देखा जा
तर्कशास्त्री निराशावादी था। वह चाय पी रहा था और अपने सकता, न छुआ जा सकता। वे, जो मानते हैं कि आप अदृश्य, टोस्ट पर मक्खन लगा रहा था। तभी वह बोला कि दुनिया में इतना | विराट, असीम, निर्गुण, शक्तिरूप हैं, शक्ति मात्र हैं। ऐसे साधक, दुख है और दुनिया में सब चीजें गलत हैं कि अगर मेरे हाथ से यह | ऐसे योगी हैं। और वे भी हैं, जो आपको अनन्य प्रेम से भजते हैं, रोटी का टुकड़ा छूट जाए, तो मैं कितनी ही शर्त बद सकता हूं, | ध्यान करते हैं आपके सगुण रूप का, आपके आकार का, आपके अगर यह रोटी का टुकड़ा मेरे हाथ से छूटे, तो दुनिया इतनी बदतर | अवतरण का। इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? है कि जिस तरफ मैंने मक्खन लगाया है, उसी तरफ से यह जमीन अर्जुन यह पूछना चाह रहा है कि मैं किस राह से चलूं? मैं खुद पर गिरेगा, ताकि धूल लग जाए और नष्ट हो जाए! कौन-सी राह पकडूं? मैं आपको निराकार की तरफ से स्पर्श करूं
उसकी पत्नी ने कहा, ऐसा अनिवार्य नहीं है। दूसरी तरफ भी गिर कि साकार की तरफ 2मैं आपके प्रेम में पड जाऊं और दीवाना सकता है! तो उस तर्कशास्त्री ने कहा, फिर तुझे पता नहीं कि जो | हो जाऊं, पागल हो जाऊं? या विचारपूर्वक आपके निराकार का संसार के ज्ञानी कहते रहे कि संसार दुख है।
| ध्यान करूं? मैं भक्ति में पडू, प्रार्थना-पूजा में, प्रेम में; या ध्यान बात बढ़ गई और शर्त भी लग गई। तर्कशास्त्री ने उछाला रोटी | में, मौन में, निर्विचार में? का टुकड़ा। संयोग की बात, मक्खन की तरफ से नीचे नहीं गिरा। | क्योंकि जो निराकार की तरफ जाए, उसे निर्विचार से चलना मक्खन की तरफ ऊपर रही, और जिस तरफ मक्खन नहीं था, उस | | पड़ेगा। सब विचार आकार वाले हैं। और जहां तक विचार रह जाता तरफ से फर्श पर गिरा। पत्नी ने कहा कि देखो, मैं शर्त जीत गई! | है, वहां तक आकार भी रह जाएंगे। सभी विचार सगुण हैं। इसलिए
तर्कशास्त्री ने कहा, न तो तू शर्त जीती और न मेरी बात गलत | | विचार से निर्गुण तक नहीं पहुंचा जा सकता। तो सारे विचार छोड़ हुई। सिर्फ इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैंने गलत तरफ मक्खन | | दूं। खुद भी शून्य हो जाऊं भीतर, ताकि आपके शून्यरूप का लगाया! टुकड़ा तो वहीं गिरा है जैसा गिरना चाहिए था, सिर्फ | अनुभव हो सके। मक्खन मैंने दूसरी तरफ लगा दिया।
__ और ध्यान रहे, जो भी अनुभव करना हो, वैसे ही हो जाना पड़ता तर्क का कोई भरोसा नहीं है। पर हम तर्क से जीते हैं और हम है। समान को ही समान का अनुभव होता है। जब तक मैं शून्य न पूरी जिंदगी को तर्क के जाल से बुन लेते हैं। उसके बीच लगता है, | | हो जाऊं, तब तक निराकार का कोई अनुभव न होगा। और जब हम बहुत बुद्धिमान हैं। और अक्सर उसी बुद्धिमानी में हम जीवन | तक मैं प्रेम ही न हो जाऊं, तब तक साकार का कोई अनुभव न का वह सब खो देते हैं, जो हमें मिल सकता था।
| होगा। जो भी मुझे अनुभव करना है, वैसा ही मुझे बन जाना होगा। भक्ति, तर्क के लिए अगम्य है; विचार के लिए सीमा के बाहर । इसलिए बुद्ध अगर कहते हैं, कोई ईश्वर नहीं है, तो उसका है। होशियारों का वहां काम नहीं। वहां नासमझ प्रवेश कर जाते हैं। कारण है। क्योंकि बुद्ध का जोर है कि तुम शून्य हो जाओ। ईश्वर तो नासमझ होने की थोड़ी तैयारी रखना।
की धारणा भी बाधा बनेगी। अगर तुम यह भी सोचोगे कि कोई अब हम इन सूत्रों को लें।
ईश्वर है, तो यह भी विचार हो जाएगा। और यह भी तुम्हारे मन के इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, | आकाश को घेर लेगा एक बादल की भांति। तुम इससे आच्छादित जो अनन्य प्रेमी, भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके | | हो जाओगे। इतनी भी जगह मत रखो। तुम सीधे खाली आकाश हो
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प्रेम का द्वार ः भक्ति में प्रवेश
जाओ, जहां कोई विचार का बादल न रह जाए, परमात्मा के विचार | तुम्हारे भीतर रत्तीभर जगह खाली न बचे। का भी नहीं।
ध्यान रखें, निराकार का साधक कहता है, तुम्हारे भीतर रत्तीभर बुद्ध कहते हैं, कोई मोक्ष नहीं है। क्योंकि मोक्ष की धारणा भी जगह भरी न रहे; सब खाली हो जाए। जिस दिन तुम पूरे खाली हो तुम्हारे मन में रह जाएगी, वह भी कामना बनेगी, इच्छा बनेगी; वह जाओगे, उस दिन वह घटना घट जाएगी, जिसकी तलाश है। भी तुम्हारे मन को आच्छादित कर लेगी। तुम बिलकुल खाली, | भक्ति का मार्ग कहता है, तुम्हारे भीतर जरा-सी भी जगह खाली शून्य हो जाओ। तुम कोई धारणा, कोई विचार मत बनाओ। | | न बचे। तुम इतने भर जाओ कि वही रह जाए, तुम न बचो। क्योंकि ___ इसलिए बुद्ध ईश्वर को, मोक्ष को, आत्मा तक को इनकार कर वह जो खाली जगह है, उसी में तुम बच सकते हो। वह जो खाली देते हैं। इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है; इसलिए नहीं कि आत्मा जगह है, उसी में तुम छिप सकते हो। तो तुम्हारे विचार, तुम्हारे भाव, नहीं है; इसलिए भी नहीं कि मोक्ष नहीं है। बल्कि इसीलिए ताकि तुम्हारी धड़कनें, सब उसी की हो जाएं। अनन्य भक्ति का अर्थ यह तुम शून्य हो सको। और जिस दिन तुम शून्य हो जाओगे, तुमने होता है। जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी से भर जाता है या प्रेयसी अपने प्रेमी जो पूछा था कि मोक्ष है या नहीं, पूछा था कि ईश्वर है या नहीं, से भर जाती है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता। वह तुम जान ही लोगे। इसलिए उसकी कोई चर्चा करनी बुद्ध ने अगर आप प्रेम में हैं, तो यह सारा संसार खो जाता है, बस जरूरी नहीं समझी।
आपका प्रेमी बचता है। आप खाना भी खाते हैं, लेकिन खाते समय - इस कारण बुद्ध को लोगों ने समझा नास्तिक। असल में जो भी प्रेमी ही आपके भीतर होता है। आप रास्ते पर चलते भी हैं, निराकार को मानता है, वह नास्तिक मालूम पड़ेगा ही। क्योंकि सभी | बाजार में भी जाते हैं, दुकान पर भी बैठते हैं, काम भी करते हैं; आकार इनकार करने हैं। सभी आकार तोड़ डालने हैं। सारी मूर्तियां | | सब होता रहता है; लेकिन भीतर चौबीस घंटे उसी की धुन बजती सारी प्रतिमाएं चित्त से हटा देनी हैं। सारे मंदिर, मस्जिद विदा कर रहती है। प्रेमी मौजूद रहता है। उठने में, बैठने में, चलने में, सोते देने हैं। कुछ भीतर न बचे। भीतर खालीपन रह जाए। उस खालीपन | में, सपने में, वही छा जाता है। साधारण प्रेमी भी! में ही निराकार का संस्पर्श होगा। क्योंकि जो मैं हो जाऊं, उसी को | ___ परमात्मा के प्रेम में पड़ना असाधारण प्रेम है। भक्त बचे ही न, मैं जान सकूँगा। बुद्ध इनकार कर देते हैं, ताकि आप शून्य हो सकें। इतना भर जाए।
अर्जुन पूछता है, ऐसे लोग हैं, ऐसे साधक, खोजी हैं, सिद्ध हैं, अर्जुन पूछता है, ऐसे दो मार्ग हैं। बड़े उलटे मालूम पड़ते हैं। क्या वे उत्तम हैं? या वे लोग जो प्रेम से, अनन्य भक्ति से आपको एक तरफ निराकार है और निर्विचार होना है। और एक तरफ खोजते हैं?
साकार आप हैं; और सब भांति आपकी भक्ति से ही परिपूर्ण रूप प्रेम की पकड़ बिलकुल दूसरी है। निर्विचार होना है, तो खाली | से भर जाना है। घड़ा जरा भी खाली न रहे। कौन-सा मार्ग इनमें होना पड़े। निराकार की तरफ जाना है, तो खाली होना पड़े, श्रेष्ठ है? बिलकुल खाली। और अगर भक्ति से जाना है, तो भर जाना इस प्रश्न को पूछने में कई बातें छिपी हैं। पड़े-पूरा। उलटा है! जो भी भीतर है, खाली कर दो, ताकि शून्य पहली बात, जरूरी नहीं है कि कृष्ण, अर्जुन के अलावा किसी रह जाए, और शून्य में संस्पर्श हो सके निराकार का। | और ने पूछा होता, तो यही उत्तर देते। पहला तो आप यह खयाल
भक्ति का मार्ग है उलटा। भक्ति कहती है, भर जाओ पूरे उसी में ले लें। जरूरी नहीं है कि अर्जुन के अलावा किसी और ने पूछा से, परमात्मा से ही। वही तुम्हारे हृदय में धड़कने लगे; वही तुम्हारी | होता, तो कृष्ण यही उत्तर देते। अगर बुद्ध जैसा व्यक्ति होता, तो श्वासों में हो; वही तुम्हारे विचारों में हो। निकालो कुछ भी मत; | कृष्ण यह कभी न कहते कि भक्ति का मार्ग ही श्रेष्ठ है। कृष्ण का सभी को उसी में रूपांतरित कर दो। तुम्हारा खून भी वही हो। उत्तर दूसरा होता। तुम्हारी हड्डी और मांस-मज्जा भी वही हो। तुम्हारे भीतर | | अर्जुन सामने है। यह उत्तर वैयक्तिक है, ए पर्सनल रो-रोआं उसी का हो जाए। तुम उसी में सांस लो। उसी में भोजन | | कम्युनिकेशन। सामने खड़ा है अर्जुन। और जब कृष्ण उससे कहते करो। उसी में उठो, उसी में बैठो। तुम में तुम जैसा कुछ भी न बचे। | हैं, तो इस उत्तर में अर्जुन समाविष्ट हो जाता है। इस कारण बड़ी तुम उसी के रंग-रूप में हो जाओ। तुम उससे इतने भर जाओ कि | | अड़चन होती है। इस कारण गीता पर सैकड़ों टीकाएं लिखी गईं
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
और बड़ा विवाद है कि कृष्ण ऐसा क्यों कहते हैं!
ही मर जाते हैं। भोजन पूरा दिया जाए, चिकित्सा परी दी जाए, सिर्फ अगर शंकर लिखेंगे टीका, तो निश्चित ही उनको बड़ी अड़चन | मां की ऊष्मा, वह जो मां की गरमी है प्रेम की, वह उनको न मिले। मालूम पड़ेगी कि भक्ति-योग श्रेष्ठ! बहुत मुश्किल होगा। फिर | अगर उनको किसी और की गरमी और ऊष्मा और प्रेम दिया जाए, तोड़-मरोड़ होगी। फिर कृष्ण के मुंह में ऐसे शब्द डालने पड़ेंगे, जो तो भी उनके भीतर कुछ कमी रह जाती है, जो जीवनभर उनका पीछा उनका प्रयोजन भी न हो। इस तोड़-मरोड़ के करने की कोई भी करती है। जरूरत नहीं है।
मनसविद कहते हैं कि जब तक हम इस जमीन पर और बेहतर मेरी दृष्टि ऐसी है कि जब भी दो व्यक्तियों के बीच कोई संवाद | | माताएं पैदा नहीं कर सकते, तब तक दुनिया को बेहतर नहीं किया होता है, तो इसमें बोलने वाला ही महत्वपूर्ण नहीं होता, सुनने वाला जा सकता। और प्रेमपूर्ण माताएं जब तक हम पैदा नहीं करते, भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि जिससे बात कही गई है, वह दुनिया में युद्ध बंद नहीं किए जा सकते, घृणा बंद नहीं की जा भी समाविष्ट है। जब कृष्ण कहते हैं कि भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, तो सकती, वैमनस्य बंद नहीं किया जा सकता। क्योंकि आदमी के पहली तो बात यह है कि अर्जुन के लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। | भीतर कुछ मौलिक तत्व, प्रेम के न मिलने से, अविकसित रह जाता
दूसरी बात यह जान लेनी चाहिए कि अर्जुन जैसे सभी लोगों के | है। और वह जो अविकसित तत्व भीतर रह जाता है, वही जीवन लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। और अर्जुन जैसे लोगों की संख्या का सारा उपद्रव है। घृणा, हिंसा, क्रोध, हत्या, विध्वंस, सब उस बहुत बड़ी है। थोड़ी नहीं, सौ में निन्यानबे लोग ऐसे हैं, जिनके लिए अविकसित तत्व से पैदा होते हैं। भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। क्योंकि निर्विचार होना अति दुरूह है। अगर आपके भीतर प्रेम की एक सहज-स्वाभाविक भूख लेकिन प्रेम से भर जाना इतना दुरूह नहीं है। क्योंकि प्रेम एक है-जो कि है। आप प्रेम चाहते भी हैं, और आप प्रेम करना भी नैसर्गिक उदभावना है। और निर्विचार होने के लिए तो आपको | चाहते हैं। कोई आपको प्रेम करे, इसकी भी गहन कामना है। बहुत सोचना पड़ेगा कि क्यों निर्विचार हों! लेकिन प्रेम से भरने के | क्योंकि जैसे ही कोई आपको प्रेम करता है, आपके जीवन में मूल्य लिए बहुत सोचना न होगा। प्रेम एक स्वाभाविक भूख है। पैदा हो जाता है। लगता है, आप मूल्यवान हैं। जगत आपको
निर्विचार कौन होना चाहता है? शायद ही कोई आदमी मिले। चाहता है। कम से कम एक व्यक्ति तो चाहता है। कम से कम एक लेकिन प्रेम से कौन नहीं भर जाना चाहता? शायद ही कोई आदमी व्यक्ति के लिए तो आप अपरिहार्य हैं। कम से कम कोई तो है, जो मिले, जो प्रेम से न भर जाना चाहता हो!
आपकी गैर-मौजूदगी अनुभव करेगा; आपके बिना जो अधूरा हो जो आदमी प्रेम में जरा भी उत्सुक न हो, निराकार उसका रास्ता जाएगा। आप न होंगे, तो इस जगत में कहीं कुछ जगह खाली हो है। लेकिन आपकी अगर जरा-सी भी उत्सुकता प्रेम में हो, तो जाएगी, किसी हृदय में सही। साकार आपका रास्ता है। क्योंकि जो आपके भीतर है, उसके ही जैसे ही कोई आपको प्रेम करता है, आप मूल्यवान हो जाते हैं। रास्ते से चलना आसान है। और जो आपमें छिपा है, उसको ही | अगर आपको कोई भी प्रेम नहीं करता, तो आपको कोई मूल्य नहीं रूपांतरित करना सुगम है। और जो आपके भीतर अभी मौजूद ही | मालूम पड़ता। आप कितने ही बड़े पद पर हों, और कितना ही धन है, उसी को सीढ़ी बना लेना उचित है।
| इकट्ठा कर लें, और आपकी तिजोड़ी कितनी ही बड़ी होती जाए, प्रेम की गहन भूख है। आदमी बिना भोजन के रह जाए, बिना लेकिन आप समझेंगे कि आप निर्मूल्य हैं; आपका कोई मूल्य नहीं है। प्रेम के रहना बहुत कठिन है। और जो लोग बिना प्रेम के रह जाते | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त और कोई मूल्य का अनुभव होता ही नहीं। हैं, वे आदमी हो ही नहीं पाते।
लेकिन इतना ही काफी नहीं है कि कोई आपको प्रेम करे। इससे अभी मनसविद बहुत खोज करते हैं। और मनसविद कहते हैं भी ज्यादा जरूरी है कि कोई आपका प्रेम ले। ठीक जैसे आप श्वास कि अब तक खयाल में भी नहीं था कि प्रेम के बिना आदमी जीवित | | लेते हैं और छोड़ते हैं। सिर्फ आप श्वास लेते चले जाएं, तो मर न रह सकता है, न बढ़ सकता है, न हो सकता है।
जाएंगे। आपको श्वास छोड़नी भी पड़ेगी। श्वास लेनी भी पड़ेगी जिन बच्चों को मां के पास न बड़ा किया जाए और बिलकुल और श्वास छोड़नी भी पड़ेगी, तभी आप जिंदा और ताजे होंगे; और प्रेमशून्य व्यवस्था में रखा जाए, वे बच्चे पनप नहीं पाते और शीघ्र | तभी आपकी श्वास नई और जीवंत होगी। प्रेम लेना भी पड़ेगा और
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ॐ प्रेम का द्वार ः भक्ति में प्रवेश 0
प्रेम देना भी पड़ेगा। सिर्फ जो आदमी प्रेम ले लेता है, वह भी मर इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, मेरे में जाता है। उसने सिर्फ श्वास ली. श्वास छोड़ी नहीं।
मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो इस दुनिया में दो तरह के मुर्दे हैं, एक जो श्वास न लेने से मर | भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को गए हैं, एक जो श्वास न देने से मर गए हैं। और जिंदा आदमी वही | भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात है, जो श्वास लेता भी उतने ही आनंद से है, श्वास देता भी उतने | उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता है। ही आनंद से है; तो जीवित रह पाता है।
मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए प्रेम एक गहरी श्वास है। और प्रेम के बिना भीतर का जो गहन जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर छिपा हुआ प्राण है, वह जीवित नहीं होता। इसकी भूख है। इसलिए को भजते हैं...। इसमें बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। प्रेम के बिना आप असुविधा अनुभव करेंगे।
मुझमें मन को एकाग्र करके! यह प्रेम की भूख अध्यात्म बन सकती है। अगर यह प्रेम की | क्या आपने कभी खयाल किया कि एकाग्रता प्रेम की भूमि में भूख मूल की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की भूख पदार्थ सहज ही फलित हो जाती है! प्रेम की भूमि हो, तो एकाग्रता अपने की तरफ से परमात्मा की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की | आप अंकुरित हो जाती है। असल में आप अपने मन को एकाग्र भख परिवर्तनशील जगत से शाश्वत की तरफ लौटा दी जाए. तो | इसीलिए नहीं कर पाते, क्योंकि जिस विषय पर आप एकाग्र करना यह भक्ति बन जाती है।
चाहते हैं, उससे आपका कोई प्रेम नहीं है। इसलिए कृष्ण यह कहते हैं कि प्रेम का, भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, | | अगर एक विद्यार्थी मेरे पास आता है और कहता है, मैं पढ़ता तो उसके कारण हैं। एक तो अर्जुन से, और दूसरा सारी मनुष्य जाति | हूं-डाक्टरी पढ़ता हूं, इंजीनियरिंग पढ़ता हूं-लेकिन मेरा मन नहीं से। क्योंकि ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है, अति मुश्किल है, | लगता, मन एकाग्र नहीं होता; तो मैं पहली बात यही पूछता हूं कि जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य न हो।
जो भी तू पढ़ता है, उससे तेरा प्रेम है ? क्योंकि अगर प्रेम नहीं है, तो जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य नहीं है, निर्विचार उसकी एकाग्रता असंभव है। और जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता न हो, ऐसा साधना होगी। वह अपने को शून्य कर सकता है। जिसका प्रेम मांग असंभव है। वही युवक कहता है कि उपन्यास पढ़ता हूं, तो मन कर रहा है पुष्पित-पल्लवित होने की, बेहतर है कि वह भक्ति के एकाग्र हो जाता है। फिल्म देखता हूं, तो मन एकाग्र हो जाता है। द्वार से परमात्मा को, सत्य को खोजने निकले।
तो जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता हो जाती है। जहां लगाव है, वहां अर्जन का यह पछना अपने लिए ही है। लेकिन हम अक्सर एकाग्रता हो जाती है। जब भी आप पाएं कि किसी बात में आपकी अपने को बीच में नहीं रखते, पूछते समय भी। अर्जुन यह नहीं कह | एकाग्रता नहीं होती, तो एकाग्रता करने की कोशिश न करके इस बात रहा है कि मेरे लिए कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है। अर्जुन कहता है, | को पहले समझने की कोशिश कर लेनी चाहिए कि मेरा प्रेम भी वहां कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है। लेकिन उसकी गहन कामना अपने लिए ही | | है या नहीं है? प्रेम के लिए एकाग्रता का प्रश्न ही नहीं उठता। है। क्योंकि हमारे सारे प्रश्न अपने लिए ही होते हैं।
अगर आइंस्टीन अपने गणित को हल करता है, तो उसे एकाग्रता ___ आप जब भी कुछ पूछते हैं, तो आपका पूछना निर्वैयक्तिक करनी नहीं पड़ती। गणित उसका प्रेम है। उसकी प्रेयसी भी बैठी नहीं होता; हो भी नहीं सकता। भला आप प्रश्न को कितना ही रहे, तो वह प्रेयसी को भूल जाएगा और गणित को नहीं भूलेगा। निर्वैयक्तिक बनाएं, आप उसके भीतर खड़े होते हैं और आपका डाक्टर राममनोहर लोहिया मिलने गए थे आइंस्टीन को, तो छ: प्रश्न आपके संबंध में खबर देता है। आप जो भी पूछते हैं, उससे घंटे उनको प्रतीक्षा करनी पड़ी। और आइंस्टीन अपने बाथरूम में आपके संबंध में खबर मिलती है।
है और निकलता ही नहीं। आइंस्टीन की पत्नी ने बार-बार उनको अर्जुन को यह सवाल उठा है कि कौन-सा है श्रेष्ठ मार्ग। यह कहा कि आप चाहें तो जा सकते हैं; आपको बहुत देर हो गई। और सवाल इसीलिए उठा है कि किस मार्ग पर मैं चलूं? किस मार्ग से | क्षमायाचना मांगी। लेकिन कोई उपाय नहीं है। यही संभावना है कि मैं प्रवेश करूं? कौन से मार्ग से मैं पहुंच सकूँगा? कृष्ण जो उत्तर वे अपने बाथ टब में बैठकर गणित सुलझाने में लग गए होंगे। दे रहे हैं, उसमें अर्जुन खयाल में है।
छः घंटे बाद आइंस्टीन बाहर आया, तो बहुत प्रसन्न था, क्योंकि
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o गीता दर्शन भाग-60
कोई पहेली हल हो गई थी। खाना भूल जाएगा। पत्नी भूल जाएगी। पड़ता है। लेकिन वह जो गणित की पहेली है, वह नहीं भूलेगी। ___ इसलिए कहता हूं कि अगर आपने किसी को कभी प्रेम किया हो,
जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता सहज फलित हो जाती है। एकाग्रता | | तो एक बात आपके खयाल में आई होगी कि आप जहां भी देखें, प्रेम की छाया है। आप चाहें भी तो फिर मन की एकाग्रता को तोड़ | आपको अपने प्रेमी की भनक अनुभव होगी। अगर प्रेमी आकाश में नहीं सकते। इसीलिए तो जब आप किसी के प्रेम में होते हैं और | देखे, तो तारों में उसकी प्रेयसी की आंख उसे दिखाई पड़ेगी। चांद उसे भुलाना चाहते हैं, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। जिससे प्रेम | | को देखे, तो प्रेयसी दिखाई पड़ेगी। सागर की लहरों को सुने, तो नहीं है, उसे याद करना जितना मुश्किल है, उससे ज्यादा मुश्किल | प्रेयसी की प्रतीति होगी। फूलों को खिलता देखे, कि कहीं कोई गीत है, जिससे प्रेम है उसे भुलाना।
| सुने, कि कहीं कोई वीणा का स्वर सुने, कि पक्षी सुबह गीत गाएं, जिससे प्रेम है, उसे भुलाइएगा कैसे? कोई उपाय नहीं है। भुलाने कि सूरज निकले, कि कुछ भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ेगा। सब तरफ की कोशिश भी बस, उसको याद करने की कोशिश बनकर रह जाती से उसे एक ही खबर मिलती रहेगी और एक ही स्मरण पर चोट पड़ती है। और भुलाने में भी उसकी याद ही आती है, और कुछ भी नहीं रहेगी, और उसके हृदय में एक ही धुन बजती रहेगी। होता। और भुलाने में भी याद मजबूत होती है, पुनरुक्त होती है। जब कोई परमात्मा की तरफ इस भांति झुक जाता है कि फूल में
जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता छाया की तरह चली आती है। वही दिखाई पड़ने लगता है: आकाश में उड़ते पक्षी में वही दिखाई इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे में मन को एकाग्र करके! | पड़ने लगता है; कि घास पर जमी हुई सुबह की ओस में वही
एकाग्रता का अर्थ ही है, मुझमें अपने प्रेम को पूरी तरह डुबाकर; | | दिखाई पड़ने लगता है; तब समझना, भजन पूरा हुआ। मुझमें अपने हृदय को पूरी तरह रखकर या अपने हृदय में मुझे पूरी | | भजन का मतलब है, वही दिखाई पड़ता हो सब जगह। ऐसा मुंह तरह रखकर। प्रेम का अर्थ है, अपने को गंवाकर, अपने को | से राम-राम कहते रहने से भजन नहीं हो जाता। वह भी सब्स्टीटपट खोकर। मैं ही बचं; रोआं-रोआं मेरी ही याद करे। | है। जब अस्तित्व में अनुभव नहीं होता, तो आदमी मुंह से कहकर मेरे भजन और ध्यान में लगे हुए!
परिपूर्ति कर लेता है। मेरा ही गीत, मेरा ही नृत्य, उठते-बैठते जीवन की सारी क्रिया एक आदमी सुबह से राम-राम कहता चला जा रहा है। पास में मेरी ही स्मृति बन जाए। जहां भी देखें, मैं दिखाई पडूं। | खिले फूल में उसे राम नहीं दिखाई पड़ता। आकाश में सूरज ऊग __ अगर आपने कभी किसी को प्रेम किया है...। अगर इसलिए रहा है, उसे राम नहीं दिखाई पड़ता। वह अपने होंठों से ही राम-राम कहता हूं, क्योंकि प्रेम की घटना कम होती जाती है। प्रेम की चर्चा | कहे चला जा रहा है। बुरा नहीं है; कुछ और कहने से बेहतर ही है। बहुत होती है, प्रेम की कहानियां बहुत चलती हैं, प्रेम की फिल्में | कुछ न कुछ तो वह कहेगा ही। होंठ कुछ न कुछ करेंगे ही। बेहतर बहत बनती हैं। वे बनती ही इसलिए हैं कि प्रेम नहीं रहा है। वे | है; कुछ बुरा नहीं है; लेकिन यह भजन नहीं है। भजन तो यह है सब्स्टीटयूट हैं।
| कि चारों तरफ जो भी हो रहा है. वह सभी राम-मय हो जाए और भूखा आदमी भोजन की बात करता है। जिसके पास भोजन | | सभी में वही दिखाई पड़ने लगे। पर्याप्त है, वह भोजन की बात नहीं करता। नंगे आदमी कपड़े की | ___ जब तक आपको मंदिर में ही भगवान दिखाई पड़ता है, तब तक चर्चा करते हैं। और जब कोई आदमी कपड़े की चर्चा करता मिले, | समझना कि अभी आपको भगवान के मंदिर का कोई पता नहीं है। तो समझना कि नंगा है, भला कितने ही कपड़े पहने हो। क्योंकि जब तक आपको उसकी किसी बंधी हुई मूर्ति में ही उसकी प्रतीति हम जो नहीं पूरा कर पाते जीवन में, उसको हम विचार कर-करके | | होती है, तब तक समझना कि अभी आपको उसका कोई पता ही पूरा करने की कोशिश करते हैं।
नहीं है। अन्यथा सभी मूर्तियां उसकी हो जाएंगी। अनगढ़ पत्थर भी ___ आज सारी जमीन पर प्रेम की इतनी चर्चा होती है, इतने गीत | | उसी की मूर्ति होगा। रास्ते के किनारे पड़ी हुई चट्टान भी उसी की लिखे जाते हैं, इतनी किताबें लिखी जाती हैं, उसका कुल मात्र | | मूर्ति होगी। क्योंकि भजन से भरे हुए हृदय को सब तरफ वही सुनाई कारण इतना है कि जमीन पर प्रेम सूखता चला जा रहा है। अब पड़ने लगता है। चर्चा करके ही. फिल्म देखकर ही अपने को समझाना-सुलझाना यह जगत एक प्रतिध्वनि है। जो हमारे हृदय में होता है, वही हमें
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प्रेम का द्वार ः भक्ति में प्रवेश
सुनाई पड़ने लगता है।
लोभ से भरे हैं, तो आपको चारों तरफ, बस अपने लोभ का सुना है मैंने कि फ्रायड के पास, सिग्मंड फ्रायड के पास एक | | विस्तार, धन ही दिखाई पड़ेगा। मरीज आया। उसके दिमाग में कुछ खराबी थी और घर के लोग | ऐसा करें कि किसी दिन उपवास कर लें, और फिर सड़क पर परेशान थे। तो फ्रायड सबसे पहले फिक्र करता था कि इस आदमी | | निकल जाएं। आपको सिवाय होटलों और रेस्तरां के बोर्ड के कुछ में कोई काम-विकार, इसके सेक्स में कोई ग्रंथि, कोई उलझाव तो भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जिस रास्ते से आप रोज निकले थे. जिस नहीं है। क्योंकि आमतौर से सौ बीमारियों में मानसिक बीमारियों होटल का बोर्ड आपने कभी नहीं पढ़ा था, आप उसको बड़े रस से में-नब्बे बीमारियां तो काम-ग्रंथि से पैदा होती हैं। कहीं न कहीं पढ़ेंगे। आज भीतर उपवास है, भीतर भूख है, और भोजन अतिशय सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा उलझ गई होती है और उसकी वजह से महत्वपूर्ण हो गया है। आपको भोजन ही दिखाई पड़ेगा। मानसिक बीमारी पैदा होती है। तो फ्रायड पहले फिक्र करता था कि जर्मन कवि हेनरिक हेन ने लिखा है कि एक दफा मैं जंगल में इसके संबंध में जांच-पड़ताल कर ले।
भटक गया और तीन दिन तक भोजन न मिला। तो हमेशा जब भी सामने से एक घोड़े पर एक सवार जा रहा था। तो फ्रायड ने पूर्णिमा का चांद निकलता था, तो मुझे अपनी प्रेयसी की तस्वीर उससे पूछा...।
दिखाई पड़ती थी। उस दिन भी पूर्णिमा का चांद निकला, मुझे लगा फ्रायड के सिद्धांतों का एक हिस्सा था, फ्री एसोसिएशन आफ | | कि एक रोटी, सफेद रोटी आकाश में तैर रही है। प्रेयसी वगैरह थाट्स, विचार का स्वतंत्र प्रवाह। उससे अनुभव में आता है कि | दिखाई नहीं पड़ी। सफेद रोटी! आदमी के भीतर क्या चल रहा है।
जो भीतर है, वह चारों तरफ प्रतिध्वनित होने लगता है। यह उसने अचानक उस मरीज से पूछा कि देखो, वह घोड़े पर सवार जगत आपकी प्रतिध्वनि है। इस जगत में चारों तरफ दर्पण लगे हैं, जा रहा है। तुम्हें एकदम से घोड़े पर सवार को देखकर किस बात | जिनमें आपकी तस्वीर ही आपको दिखाई पड़ती है। की याद आती है? एकदम! सोचकर नहीं, एकदम जो भी याद | ___ भजन का अर्थ है, जब आपके भीतर भगवान का प्रेम गहन होता आती हो, मुझे कह दो। उस आदमी ने कहा कि मुझे औरत की याद | | है, तो सब तरफ उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। फिर आप आती है, स्त्री दिखाई पड़ती है।
जो भी करते हैं, वह भजन है। __फ्रायड दूसरी बातों में लग गया। एक पक्षी आकर खिड़की पर | कबीर ने कहा है, उर्ले, बैलूं, चलूं, सब तेरा भजन है। इसलिए बैठकर आवाज करने लगा। तो फ्रायड ने फिर बातचीत तोड़कर | अब अलग से करने की कोई जरूरत न रही।। कहा कि यह पक्षी आवाज कर रहा है, इसे सुनकर तुम्हें किस बात | | मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे की याद आती है? उसने कहा कि औरत की याद आती है। हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए...। . फ्रायड भी थोड़ा बेचैन हुआ। हालांकि उसके सिद्धांत के अति श्रेष्ठ श्रद्धा क्या है? एक तो श्रद्धा है, जो तर्क पर ही निर्भर
अनसार ही चल रहा था यह आदमी। तभी फ्रायड ने अपनी पेंसिल | होती है। वह श्रेष्ठ श्रद्धा नहीं है। क्योंकि उसका वास्तविक सहारा जो हाथ में ले रखी थी, छोड़ दी, फर्श पर पटक दी। और कहा, | | बुद्धि है। अभी भी छलांग नहीं हुई। लोगों ने ईश्वर के होने के इस पेंसिल को गिरते देखकर तुम्हें किस चीज की याद आती है? | प्रमाण दिए हैं। जो उन प्रमाणों को मानकर श्रद्धा लाते हैं, उनकी उस आदमी ने कहा, मुझे औरत की याद आती है!
श्रद्धा निकृष्ट श्रद्धा है। फ्रायड ने कहा, क्या कारण है तम्हें औरत का हर चीज में याद जैसे पश्चिम में परब में अनेक दार्शनिक हए जिन्होंने प्रमाण आने का? उस आदमी ने कहा, मुझे और किसी चीज की याद ही | दिए हैं कि ईश्वर क्यों है। अनेक प्रमाण दिए हैं। कोई कहता है, नहीं आती। ये सब बेकार की चीजें आप कर रहे हैं-घोड़ा, पक्षी, | | इसलिए ईश्वर को मानना जरूरी है, कि अगर वह न हो, तो जगत कि पेंसिल—इतना परेशान होने की जरूरत नहीं। मुझे और किसी | | को बनाया किसने? जब जगत है, तो बनाने वाला होना चाहिए। चीज की याद ही नहीं आती।
जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, तो कुम्हार भी होना चाहिए, नहीं तो कामवासना से भरे आदमी को ऐसा होगा। कामवासना भीतर | घड़ा कैसे होगा! हो, तो सारा जगत स्त्री हो गया। जगत प्रतिध्वनि है। अगर आप तर्क देने वालों ने कहा है कि जगत में प्रयोजन दिखाई पड़ता है।
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गीता दर्शन भाग-6
जगत प्रयोजनहीन नहीं मालूम पड़ता । जगत में एक्सिडेंट नहीं मालूम पड़ता; एक सिस्टम, एक व्यवस्था मालूम पड़ती है। तो जरूर कोई व्यवस्थापक होना चाहिए। जगत चैतन्य मालूम पड़ता है। यहां मन है, विचार है, चेतना है। यह चेतना पदार्थ से पैदा नहीं | हो सकती। तो जगत के पीछे कोई चैतन्य हाथ होना चाहिए।
हजारों तर्क इस तरह के लोगों ने ईश्वर के होने के दिए हैं। और अगर आप इन तर्कों के कारण ईश्वर को मानते हैं, तो आपकी श्रद्धा निकृष्ट श्रद्धा है। निकृष्ट इसलिए कि ये सब तर्क कमजोर हैं और सब खंडित किए जा सकते हैं। इनमें कोई भी तर्क ऐसा नहीं है, जिसका खंडन न किया जा सके। और जिस तर्क से आप सिद्ध करते हैं ईश्वर को, उसी तर्क से ईश्वर को असिद्ध किया जा सकता है। जैसे कि आस्तिक हमेशा कहते रहे हैं कि जब भी कोई चीज हो, तो उसका बनाने वाला चाहिए, क्रिएटर, स्रष्टा चाहिए। तो चार्वाक ने कहा है कि अगर हर चीज का बनाने वाला चाहिए, तो तुम्हारे ईश्वर का बनाने वाला कौन है? वही तर्क है। आस्तिक नाराज हो जाता है इस तर्क से। लेकिन इसी तर्क पर उसकी श्रद्धा खड़ी है। वह कहता है, बनाने वाला चाहिए, स्रष्टा चाहिए; सृष्टि है, तो स्रष्टा चाहिए। बिना स्रष्टा के यह सब बनेगा कैसे ?
नास्तिक कहता है, हम मानते हैं आपके तर्क को। लेकिन ईश्वर को कौन बनाएगा ? वहां आस्तिक को बेचैनी शुरू हो जाती है। इस बात को वह कहता है कुतर्क ।
अगर यह कुतर्क है, तो पहला तर्क कैसे हो सकता है ! और नास्तिक कहता है, अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है, तो फिर जगत को भी बिना बनाए होने में कौन-सी अड़चन है ! अगर ईश्वर बिना बनाया है, अनक्रिएटेड है, अस्रष्ट है, तो फिर फिजूल की बात में क्यों पड़ना ! यह जगत ही अस्रष्ट मान लेने में हर्ज क्या है? जब अस्रष्ट को मानना ही पड़ता है, तो फिर इस प्रत्यक्ष जगत को ही मानना उचित है। इसके पीछे और छिपे हुए, रहस्यमय को व्यर्थ | बीच में लाने की क्या जरूरत है !
ऐसा कोई भी तर्क नहीं है, जो नास्तिक न तोड़ देते हों। इसलिए आस्तिक नास्तिकों से डरते हैं। इसलिए नहीं कि वे आस्तिक हैं; आस्तिक होते तो न डरते। निकृष्ट आस्तिक हैं। उनके जिन तर्कों पर आधार है ईश्वर - आस्था का, वे सब तर्क तोड़े जा सकते हैं। और नास्तिक उन्हें तोड़ता है। इसलिए नास्तिक से बड़ा भय है।
और आज जो जमीन पर इतनी ज्यादा नास्तिकता दिखाई पड़ रही है, वह इसलिए नहीं कि दुनिया नास्तिक हो गई है। वह
निकृष्ट
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आस्तिकता थी, वह मुश्किल में पड़ गई है। दुनिया ज्यादा तर्कवान हो गई है। जिन तर्कों से आप ईश्वर को सिद्ध करते थे, उन्हीं से लोग अब ईश्वर को असिद्ध कर रहे हैं।
दुनिया ज्यादा तर्कवान हो गई है, ज्यादा विचारशील हो गई है। इसलिए अब धोखा नहीं दिया जा सकता। अब आपको तर्क | को उसकी पूरी अंतिम स्थिति तक ले जाना पड़ता है। अड़चन हो
जाती है।
श्रेष्ठ श्रद्धा क्या है? जो तर्क पर खड़ी नहीं है, अनुभव पर खड़ी है। जो विचार पर खड़ी नहीं है, प्रतीति पर खड़ी है। जो यह नहीं कहती कि इस कारण ईश्वर होना चाहिए। जो कहती है कि ऐसा अनुभव है, ईश्वर है। होना चाहिए नहीं, है!
अरविंद को किसी ने पूछा कि क्या ईश्वर में आपका विश्वास है ? तो अरविंद ने कहा, नहीं। जिसने पूछा था, वह बहुत हैरान हुआ। उसने पूछा था, डू यू बिलीव इन गॉड ? और अरविंद ने कहा, नो। सोचकर आया था दूर से वह खोजी कि कम से कम एक अरविंद तो ऐसा व्यक्ति है, जो मेरा ईश्वर में भरोसा बढ़ा देगा। और अरविंद से यह सुनकर कि नहीं! उसकी बेचैनी हम समझ सकते हैं।
उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! ईश्वर नहीं! आपका भरोसा नहीं; विश्वास नहीं। तो क्या ईश्वर नहीं है? तो अरविंद ने कहा, नहीं, ईश्वर है । लेकिन मुझे उसमें विश्वास की जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूं, वह है। एंड दिस इज़ नाट ए बिलीफ; आइ नो, ही इज़
यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम विश्वास ही उन चीजों में करते हैं, जिनका हमें भरोसा नहीं है। आप सूरज में विश्वास नहीं करते। पृथ्वी में विश्वास नहीं करते। मैं यहां बैठा हूं, इसमें आप विश्वास नहीं करते। आप जानते हैं कि मैं यहां बैठा हूं। आप ईश्वर में विश्वास करते हैं, क्योंकि आप जानते नहीं कि ईश्वर है या नहीं है। जहां भरोसा नहीं है, वहां विश्वास ।
यह जरा उलटा लगेगा, पैराडाक्सिकल लगेगा। क्योंकि हम तो विश्वास का मतलब ही भरोसा समझते हैं। जब कोई आदमी आपसे आकर कहे कि मुझे आपमें पक्का विश्वास हैं, तब आप समझ लेना कि इस आदमी को आपमें विश्वास नहीं है। नहीं तो पक्का विश्वास कहने की जरूरत न थी । भरोसा विश्वास शब्द का उपयोग ही नहीं करता। और जब कोई आदमी बहुत ही ज्यादा जोर देने लगे कि नहीं, पक्का ही विश्वास है, तब आप अपनी जेब
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प्रेम का द्वार : भक्ति में प्रवेश
वगैरह से सावधान रहना! वह आदमी कुछ भी कर सकता है। और दिखाई पड़ जाए कि सागर है, तो उसे अपने भीतर भी सागर ही उस आदमी को घर में मत ठहरने देना, क्योंकि इतना ज्यादा दिखाई पड़ेगा, फिर अपने को अलग मानने का उपाय न रह विश्वास खतरनाक है। वह बता रहा है कि वह भरोसा दिला रहा है। | जाएगा। लहर अपने अहंकार को बचाना चाहती हो, तो सागर को आपको कि विश्वास है। उसे विश्वास नहीं है।
इनकार करना जरूरी है। उसे कहना चाहिए, सागर वगैरह सब जिस दिन कोई प्रेमी बार-बार कहने लगे कि मुझे बहुत प्रेम है, बातचीत है; कहीं देखा तो नहीं। मुझे बहुत प्रेम है, उस दिन समझना कि प्रेम चुक गया। जब प्रेम और आप भी जानते हैं, सागर आपने भी नहीं देखा है। दिखाई होता है, तो कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती; अनुभव में आता है। | तो हमेशा लहरें ही पड़ती हैं। सागर तो हमेशा नीचे छिपा है; दिखाई जब प्रेम होता है, तो उसकी तरंगें अनुभव होती हैं। जब प्रेम होता | कभी नहीं पड़ता। जब भी दिखाई पड़ती है, लहर दिखाई पड़ती है। है, तो उसकी सुगंध अनुभव में आती है। जब प्रेम होता है, तो वाणी तो लहर कहेगी, सागर को देखा किसने है ? किसी ने कभी नहीं बहुत कचरा मालूम पड़ती है; कहने की जरूरत नहीं होती कि मुझे | देखा। सिर्फ बातचीत है। दिखती हमेशा लहर है। मैं हूं, और सागर प्रेम है। जब प्रेम चुक जाता है...।
सिर्फ कल्पना है। इसलिए अक्सर प्रेमी और प्रेयसी एक-दूसरे से नहीं कहते कि लेकिन लहर अगर अपने भीतर भी प्रवेश कर जाए, तो सागर मुझे बहुत प्रेम है। पति-पत्नी अक्सर कहते हैं, मुझे बहुत प्रेम है! | में प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि उसके भीतर सागर के अतिरिक्त और रोज-रोज भरोसा दिलाना पड़ता है, अपने को भी, दूसरे को भी, कुछ भी नहीं है। लहर सागर का एक रूप है। लहर सागर के होने क्योंकि है तो नहीं। अब भरोसा दिला-दिलाकर ही अपने को का एक ढंग है। लहर सागर की ही एक तरंग है। लहर होकर भी समझाना पड़ता है, और दूसरे को भी समझाना पड़ता है। लहर सागर ही है। सिर्फ आकृति में थोड़ा-सा फर्क पड़ा है। सिर्फ
जिस बात की कमी होती है, उसको हम विश्वास से पूरा करते | आकार निर्मित हुआ है। हैं। अरविंद ने ठीक कहा कि मैं जानता हूं, वह है। उसके होने के जब कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व को ठीक से समझ पाता है, लिए कोई तर्क की जरूरत नहीं है। उसके होने के लिए अनुभव की अपने को भी समझ पाता है ठीक से, तो लहर खो जाती है और जरूरत है
सागर प्रकट हो जाता है। या अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे को भी क्या है अनुभव उसके होने का? और आपको नहीं हो पाता | ठीक से समझ पाता है, तो लहर खो जाती है और सागर प्रकट हो अगर अनुभव, तो बाधा क्या है? |
जाता है। ऐसा ही समझें कि सागर के किनारे खड़े हैं; लहरें उठती हैं। हर ___ अगर आप किसी के गहरे प्रेम में हैं, तो जिस क्षण गहरा प्रेम लहर समझ सकती है कि मैं हूं। लेकिन लहर है नहीं; है तो सिर्फ | होगा, उस क्षण उस व्यक्ति की लहर खो जाएगी और उस लहर में सागर। अभी लहर है, अभी नहीं होगी। अभी नहीं थी, अभी है, आपको सागर दिखाई पड़ेगा। इसलिए अगर प्रेमियों को अपने अभी नहीं हो जाएगी। लहर का होना क्षणभंगुर है। लेकिन लहर के प्रेमियों में परमात्मा दिखाई पड़ गया है, तो आश्चर्य नहीं है। दिखाई भीतर वह जो सागर है, वह शाश्वत है।
पड़ना ही चाहिए। और वह प्रेम प्रेम ही नहीं है, जिसमें लहर न खो आप अभी नहीं थे, अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे। आप एक जाए और सागर का अनुभव न होने लगे। लहर सेज ज्यादा नहीं हैं। इस जगत के सागर में इस होने के सागर दसरे में भी दिखाई पड सकता है। स्वयं में भी दिखाई पड़ सकता में, अस्तित्व के सागर में आप एक लहर हैं। लेकिन लहर अपने | है। जहां भी ध्यान गहरा हो जाए, वहीं दिखाई पड़ सकता है। ऐसी को मान लेती है कि मैं हूं। और जब लहर अपने को मानती है, मैं | प्रतीति जब आपको हो जाए सागर की, तो उस प्रतीति से जो श्रद्धा हूं, तभी सागर को भूल जाती है। स्वयं को मान लेने में परमात्मा | का जन्म होता है, वह विश्वास नहीं है। दैट्स नाट ए बिलीफ। विस्मरण हो जाता है। क्योंकि जो लहर अपने को मानेगी, वह | श्रद्धा कोई विश्वास नहीं है, श्रद्धा एक अनुभव है। और तब ये सारी सागर को कैसे याद रख सकती है!
दुनिया के तर्क आपसे कहें कि परमात्मा नहीं है, तो भी आप हंसते इसे थोड़ा समझ लें। लहर अगर अपने को मानती है कि मैं हूं, | रहेंगे। और सारे तर्क सुनने के बाद भी आप कहेंगे कि ये सारे तर्क तो उसे मानना ही पड़ेगा कि सागर नहीं है। क्योंकि अगर उसे सागर | | बड़े प्यारे हैं और मजेदार हैं, मनोरंजक हैं। लेकिन परमात्मा है, और
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0 गीता दर्शन भाग-60
इन तर्कों से वह खंडित नहीं होता।
हम आकार हैं। और आकार के भीतर छिपा हुआ जो अस्तित्व ध्यान रहे, न तो तर्कों से वह सिद्ध होता है और न तर्कों से वह है, वह परमात्मा है। खंडित होता है। जो लोग समझते हैं, तों से वह सिद्ध होता है, वे श्रेष्ठ श्रद्धा उस श्रद्धा का नाम है, जो इस प्रतीति, इस साक्षात हमेशा मुश्किल में पड़ेंगे; क्योंकि फिर तर्कों से मानना पड़ेगा कि | से जन्म पाती है। यह किसी शास्त्र से पढ़ा हुआ, किसी गुरु का वह खंडित भी हो सकता है। जो चीज तर्क से सिद्ध होती है, वह कहा हुआ मान लेने से नहीं होगा। यह आपके ही जीवन-अनुभव तर्क से टूटने की भी तैयारी रखनी चाहिए। और जिस चीज के लिए | का हिस्सा बनना चाहिए। यह आपको ही प्रतीत होना चाहिए। आपके प्रमाण की जरूरत है, वह आपके प्रमाण के हट जाने पर | | अगर परमात्मा आपका निजी अनुभव नहीं है, तो आपकी खो जाएगी।
आस्तिकता थोथी है। उसकी कोई कीमत नहीं है। वह कागज की परमात्मा को आपके प्रमाणों की कोई भी जरूरत नहीं है। नाव है; उससे भवसागर पार करने की कोशिश मत करना। उसमें परमात्मा का होना आपका निर्णय नहीं है, आपके गणित का निष्कर्ष | बुरी तरह डूबेंगे। उससे तो किनारे पर ही बैठे रहना, वही अच्छा है। नहीं है। परमात्मा का होना आपके होने से पर्व है। और परमात्मा अनुभव की नाव ही वास्तविक नाव है। का होना अभी, इस क्षण में भी आपके होने के भीतर वैसा ही छिपा मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे है, जैसे लहर के भीतर सागर छिपा है।
हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त मुझ सगुणरूप परमेश्वर आप जब नहीं थे, तब क्या था? जब आप नहीं थे, तो आपके | को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं भीतर जो आज है, वह कहां था? क्योंकि जो भी है, वह नष्ट नहीं | | अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूं। होता। नष्ट होने का कोई उपाय नहीं है। विनाश असंभव है। प्रेम परम योग है। प्रेम से श्रेष्ठ कोई अनुभव नहीं है। और
विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जगत में कोई भी चीज विनष्ट | | इसीलिए भक्ति श्रेष्ठतम मार्ग बन जाती है, क्योंकि वह प्रेम का ही नहीं हो सकती। क्योंकि विनष्ट होकर जाएगी कहां? भेजिएगा कहां | | रूपांतरण है। उसे? पानी की एक बूंद को आप नष्ट नहीं कर सकते। भाप बन पांच मिनट रुकेंगे। कीर्तन करेंगे और फिर जाएंगे। सकती है, लेकिन भाप बनकर रहेगी। भाप को भी तोड़ सकते हैं। कोई भी बीच में उठे न। और जब तक कीर्तन पूरा न हो जाए, तो हाइड्रोजन-आक्सीजन बनकर रहेगी। लेकिन आप नष्ट नहीं कर | यहां धुन बंद न हो जाए, तब तक बैठे रहें। और सम्मिलित हों। सकते। एक पानी की बूंद भी जहां नष्ट नहीं होती, वहां आप जब | कौन जाने कोई धुन आपके हृदय को भी पकड़ ले और भक्ति का कल नहीं थे, तो कहां थे?
जन्म हो जाए। झेन में, जापान में साधकों को वे एक पहेली देते हैं। उसे वे कहते हैं कोआन। वे कहते हैं कि जब तुम नहीं थे, तो कहां थे, इसकी खोज करो। और जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तो तुम्हारा चेहरा कैसा था, इस पर ध्यान करो। और जब तुम मर जाओगे, तो तुम कहां पहुंचोगे, इसकी थोड़ी खोज करो। क्योंकि जब तक तुम्हें इसका पता न चल जाए कि जन्म के पहले तुम कहां थे और मरने के बाद तुम कहां रहोगे, तब तक तुम्हें यह भी पता नहीं चल सकता कि इसी क्षण अभी तुम कहां हो। __ अभी भी तुम्हें पता नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि लहर का भर तुम्हें पता है, जो अभी नहीं थी, अभी है, अभी नहीं हो जाएगी। उस सागर का कोई पता नहीं है, जो था, इस लहर के पहले भी; अभी भी है; और लहर मिट जाएगी, तब भी होगा। सिर्फ आकार मिटते हैं जगत में, अस्तित्व नहीं।
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अध्याय 12 दूसरा प्रवचन
दो मार्ग : साकार और निराकार
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गीता दर्शन भाग-6
ये त्यक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
हम दुखी हैं, तो सुख मांगते हैं। पर जरूरी नहीं कि सुख सुख सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३।। | ही लाए। अक्सर तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख ले आता
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । | है। दुख भी मांजता है, दुख भी निखारता है, दुख भी समझ देता है। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।४।। हो सकता है, दुख के मार्ग से निखरकर ही आप जीवन के सत्य को और जो पुरुष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में पा सकें और सुख आपके लिए महंगा सौदा हो जाए। करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और __ इसलिए क्या ठीक है, यह जो परमात्मा पर छोड़ देता है, वही सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अवल, निराकार, अविनाशी, | प्रार्थना कर रहा है। जो कहता है कि यह है ठीक और तू पूरा कर, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए वह प्रार्थना नहीं कर रहा है, वह परमात्मा को सलाह दे रहा है। उपासते हैं, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में आपकी सलाह का कितना मूल्य हो सकता है? काश, आपको समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। यह पता होता कि क्या आपके हित में है! वह आपको बिलकुल
पता नहीं है। आपको यह भी पता नहीं है कि वस्तुतः आप क्या
चाहते हैं! क्योंकि जो आप सुबह चाहते हैं, दोपहर इनकार करने पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भजन भी लगते हैं। और जो आपने आज सांझ चाहा है, जरूरी नहीं है कि करते हैं, प्रभु का स्मरण भी करते हैं। लेकिन कोई कल सुबह भी आप वही चाहें। इच्छा कभी पूरी नहीं होती!
पीछे लौटकर अपनी चाहों को देखें। वे रोज बदल जाती हैं; प्रतिपल बदल जाती हैं। और यह भी देखें कि जो चाहें पूरी हो जाती
हैं, उनके पूरे होने से क्या पूरा हुआ है? वे न भी पूरी होती, तो - हां मांग है, वहां प्रार्थना नहीं है। और मांग ही प्रार्थना | | कौन-सी कमी रह जाती? ठीक हमें पता ही नहीं है। हम क्या मांग OI को असफल कर देती है। प्रार्थना इसलिए असफल रहे हैं? क्यों मांग रहे हैं? क्या उसका परिणाम होगा?
गई कि आपको प्राप्ति हुई, नहीं हुई-ऐसा नहीं। सुना है मैंने कि एक सिनागाग में, एक यहूदी प्रार्थना-मंदिर में, प्रार्थना तो उसी क्षण असफल हो गई. जब आपने मांगा। जो एक बढा यहदी प्रार्थना कर रहा था। और वह परमात परमात्मा के द्वार पर मांगता जाता है, वह खाली हाथ लौटेगा। जो | था कि अन्याय की भी एक हद होती है! सत्तर साल से निरंतर, जब वहां खाली हाथ खड़ा हो जाता है बिना किसी मांग के, वही केवल से मैंने होश सम्हाला है—उस यहूदी की उम्र होगी कोई पचासी भरा हुआ लौटता है।
वर्ष-जब से मैंने होश सम्हाला है, सत्तर वर्ष से तेरी प्रार्थना कर परमात्मा से कुछ मांगने का अर्थ क्या होता है? पहला तो अर्थ | | रहा हूं। दिन में तीन बार प्रार्थनागृह में आता हूं। बच्चे का जन्म हो, यह होता है कि शिकायत है हमें। शिकायत नास्तिकता है। कि लड़की की शादी हो, कि घर में सुख हो कि दुख हो, कि यात्रा शिकायत का अर्थ है कि जैसी स्थिति है, उससे हम नाराज हैं। जो | पर जाऊं या वापस लौटूं, कि नया धंधा शुरू करूं, कि पुराना बंद परमात्मा ने दिया है, उससे हम अप्रसन्न हैं। जैसा हम चाहते हैं, | करूं, ऐसा कोई भी एक काम जीवन में नहीं किया, जो मैंने तेरी वैसा नहीं है। और जैसा है, वैसा हम नहीं चाहते हैं। | प्रार्थना के साथ शुरू न किया हो। जैसा आदेश है धर्मशास्त्रों में, शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा वैसा जीवन जीया हूं। पर-स्त्री को कभी बुरी नजर से नहीं देखा। बुद्धिमान मानते हैं। वह जो कर रहा है, गलत कर रहा है। हमारी | | दूसरे के धन पर लालच नहीं की। चोरी नहीं की। झूठ नहीं बोला। सलाह मानकर उसे करना चाहिए, वही ठीक होगा। जैसे कि हमें | बेईमानी नहीं की। परिणाम क्या है? और मेरा साझीदार है, स्त्रियों पता है कि क्या है जो ठीक है हमारे लिए।
के पीछे भटककर जिंदगीभर उसने खराब की है। तेरी प्रार्थना कभी ___ अगर हम बीमार हैं, तो हम स्वास्थ्य मांगते हैं। लेकिन जरूरी | उसे करते नहीं देखा। चोरी, बेईमानी, झूठ, सब उसे सरल है। नहीं कि बीमारी गलत ही हो। और बहुत बार तो स्वास्थ्य भी वह | जुआड़ी है, शराब पीता है। लेकिन दिन दूनी रात चौगुनी उसकी नहीं दे पाता, जो बीमारी दे जाती है।
| स्थिति अच्छी होती गई है। अभी भी स्वस्थ है। मैं बीमार हूं। धन
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0 दो मार्गः साकार और निराकार 0
का एक टुकड़ा हाथ में न रहा। सिवाय दुख के मेरे पल्ले कुछ भी | इसलिए हैं कि शराब के लिए कुछ पैसे मिल जाएं। नहीं पड़ा है। कारण क्या है? और मैं यह नहीं कहता हूं कि तू मेरे | हमारी सारी हालत ऐसी है। हम तो परमात्मा के द्वार पर इसलिए साझीदार को दंड दे। सिर्फ इतना ही पूछता हूं कि मेरा कसूर क्या | | जाते हैं कि कोई क्षुद्र मांग पूरी हो जाए। और ये सारे शिक्षक हमसे है? इतना अन्याय मेरे साथ क्यों? यह कैसे न्याय की व्यवस्था है? | कहते हैं कि तुम मांग छोड़कर वहां जाना, तो ही उसके द्वार में प्रवेश
सिनागाग में परमात्मा की आवाज गूंजी कि सिर्फ छोटा-सा | पा सकोगे, तो ही उसके कान तक तुम्हारी आवाज पहुंचेगी। लेकिन कारण है। बिकाज यू हैव बीन नैगिंग मी डे इन डे आउट लाइक एन | हमारी दिक्कत यह है कि तब हम आवाज ही क्यों पहंचाना चाहेंगे? आथेंटिक वाइफ। एक प्रामाणिक पत्नी की तरह तुम मेरा सिर खा हम उसके द्वार पर ही क्यों जाएंगे? हम उसके द्वार पर दस्तक ही रहे हो जिंदगीभर से, यही कारण है, और कुछ भी नहीं। तुम तीन क्यों देंगे? हम तो वहां जाते इसलिए हैं कि कोई मांग पूरी करना दफे प्रार्थना क्या करते हो, तीन दफे मेरा सिर खाते हो!
चाहते हैं। आपकी प्रार्थना से अगर परमात्मा तक को अशांति होती हो, तो लेकिन जो मांग पूरी करना चाहता है, वह उसके द्वार पर जाता आप ध्यान रखना कि आपको शांति न होगी। आपकी प्रार्थनाएं क्या ही नहीं। वह मंदिर के द्वार पर जा सकता है, मस्जिद के द्वार पर जा हैं? नैगिंग। आप सिर खा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं आपकी आस्तिकता सकता है, उसके द्वार पर नहीं जा सकता। क्योंकि उसका द्वार तो का सबूत नहीं हैं, और न आपकी प्रार्थना का। और न आपका दिखाई ही तब पड़ता है, जब चित्त से मांग विसर्जित हो जाती है। हार्दिक इन मांगों से कोई संबंध है। ये सब आपकी वासनाएं हैं। उसका द्वार वहां किसी मकान में बना हुआ नहीं है। उसका द्वार तो
लेकिन हमारी तकलीफ ऐसी है। बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, उस चित्त में है, जहां मांग नहीं है, जहां कोई वासना नहीं है, जहां वे सभी कहते हैं; मोहम्मद हों या क्राइस्ट हों, वे सभी कहते हैं कि . स्वीकार का भाव है। जहां परमात्मा जो कर रहा है, उसकी मर्जी के तुम्हारी सब मांगें पूरी हो जाएंगी, लेकिन तुम उसके द्वार पर मांग प्रति पूरी स्वीकृति है, समर्पण है, उस हृदय में ही द्वार खुलता है। छोड़कर जाना। यही हमारी मुसीबत है। फिर हम उसके द्वार पर | ___ मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के जाएंगे ही क्यों?
द्वार में तो वासना सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके हमारी तकलीफ यह है कि हम उसके द्वार पर ही इसीलिए जाना ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवाल है। वह चाहते हैं कि हमारी मांगें हैं और मांगें पूरी हो जाएं। और ये सब दीवाल हट जाए, तो द्वार खुल जाए। शिक्षक बड़ी उलटी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि तुम अपनी मांगें तो ऐसा मत पूछे कि आपकी प्रार्थनाएं, आपका भजन, आपका छोड दो. तो ही उसके द्वार पर जा सकोगे। और फिर तम्हारी सब ध्यान, आपकी मांग को परा क्यों नहीं करवाता। आपकी मांग के
हो जाएंगी। कछ मांगने को न बचेगा: सब तम्हें मिल कारण भजन ही नहीं होता. ध्यान ही नहीं होता. प्रार्थना ही नहीं जाएगा। लेकिन वह जो शर्त है, वह हमसे पूरी नहीं होती। | होती। इसलिए पूरे होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। जो चीज
मुल्ला नसरुद्दीन एक छोटे-से गांव में शिक्षक था। लेकिन | | शुरू ही नहीं हुई, वह पूरी कैसे होगी? आप यह मत सोचें कि धीरे-धीरे लोगों ने अपने बच्चों को उसकी पाठशाला से हटा लिया, | | आखिरी चीज खो रही है। पहली ही चीज खो रही है। पहला कदम क्योंकि वह शराब पीकर स्कूल पहुंच जाता और दिनभर सोया | ही वहां नहीं है। आखिरी कदम का तो कोई सवाल ही नहीं है। रहता। आखिर उसकी पत्नी ने कहा कि तुम थोड़ा अपना चरित्र | प्रेम मांगशून्य है। प्रेम बेशर्त है। जब आप किसी को प्रेम करते बदलो, अपना आचरण बदलो। यह तुम शराब पीना बंद करो, नहीं हैं, तो आप कुछ मांगते हैं? आपकी कोई शर्त है? प्रेम ही आनंद तो तुमसे पढ़ने कोई भी नहीं आएगा।
| है। प्रार्थना परम प्रेम है। अगर प्रार्थना ही आपका आनंद हो, आनंद मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि तू बात ही उलटी कह रही है। हम प्रार्थना के बाहर न जाता हो, कोई मांग न हो पीछे जो पूरी हो जाए तो उन बच्चों को पढ़ाने की झंझट ही इसीलिए लेते हैं कि शराब तो आनंद मिलेगा, प्रार्थना करने में ही आनंद मिलता हो, तो ही पीने के लिए पैसे मिल जाएं। और तू कह रही है कि शराब पीना प्रार्थना हो पाती है। तो जब प्रार्थना करने जाएं तो प्रार्थना को ही छोड़ दो, तो बच्चे पढ़ने आएंगे। लेकिन शराब पीना अगर मैं छोड़ आनंद समझें। उसके पार कोई और आनंद नहीं है। दूं, तो बच्चों को पढ़ाऊंगा किस लिए! हम तो बच्चों को पढ़ाते ही सुना है मैंने कि एक फकीर ने रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग
मांगें भी
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में पहुंच गया है। और वहां उसने देखा मीरा को, कबीर को, चैतन्य ___ इन प्रार्थनाओं को आप प्रार्थना मत समझना, अन्यथा असली को नाचते, गीत गाते, तो बहुत हैरान हुआ। उसने पास खड़े एक प्रार्थना से आप वंचित ही रह जाएंगे। असली प्रार्थना का अर्थ है, देवदूत से पूछा कि ये लोग यहां भी नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं! अस्तित्व का उत्सव। असली प्रार्थना का अर्थ है, मैं हूं, इसका हम तो सोचे थे कि अब ये स्वर्ग पहुंच गए, तो अब यह उपद्रव बंद | | धन्यवाद। मेरा होना परमात्मा की इतनी बड़ी कृपा है कि उसके लिए हो गया होगा। ये तो जमीन पर भी यही कर रहे थे। इस चैतन्य को | | मैं धन्यवाद देता हूं। एक श्वास भी आती है और जाती है...। हमने जमीन पर भी ऐसे ही नाचते और गाते देखा। इस मीरा को | | कभी आपने सोचा कि आपकी अस्तित्व को क्या जरूरत है? हमने ऐसे ही कीर्तन करते देखा। यह कबीर यही तो जमीन पर कर | आप न होते, तो क्या हर्ज हो जाता? कभी आपने सोचा कि रहा था। और अगर स्वर्ग में भी यही हो रहा है, स्वर्ग में आकर भी | अस्तित्व को आपकी क्या आवश्यकता है? आप नहीं होंगे, तो क्या अगर यही होना है. तो फिर जमीन में और स्वर्ग में फर्क क्या है? | मिट जाएगा? और आप नहीं थे, तो कौन-सी कमी थी? आप
तो उस देवदूत ने कहा कि तुम थोड़ी-सी भूल कर रहे हो। तुम | | अगर न होते, कभी न होते, तो क्या अस्तित्व की कोई जगह खाली समझ रहे हो कि ये कबीर, चैतन्य और मीरा स्वर्ग में आ गए हैं। रह जाती? आपके होने का कुछ भी तो अर्थ, कुछ भी तो तुम समझ रहे हो कि संत स्वर्ग में आते हैं। बस, यहीं तुम्हारी भूल आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती। फिर भी आप हैं। जैसे ही कोई हो रही है। संत स्वर्ग में नहीं आते। स्वर्ग संतों में होता है। इसलिए | | व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मेरे होने का कोई भी तो कारण संत जहां होंगे, वहीं स्वर्ग होगा। तुम यह मत समझो कि ये संत | | नहीं है; और परमात्मा मुझे सहे, इसकी कोई भी तो जरूरत नहीं है; स्वर्ग में आ गए हैं। ये यहां गा रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं, | | फिर भी मैं हं, फिर भी मेरा होना है, फिर भी मेरा जीवन है। इसलिए यहां स्वर्ग है। ये जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग होगा। और स्वर्ग यह जो अहोभाव है, इस अहोभाव से जो नृत्य पैदा हो जाता है, मिल जाए, इसलिए इन्होंने कभी नाचा नहीं था। इन्होंने तो नाचने जो गीत पैदा हो जाता है; यह जो जीवन का उत्सव है, यह जो में ही स्वर्ग पा लिया था। इसलिए अब इस नृत्य का, इस आनंद | | परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का बोध है कि मैं बिलकुल भी तो किसी का कहीं अंत नहीं है। अब ये जहां भी होंगे, यह आनंद वहीं होगा। | उपयोग का नहीं हूं, फिर भी तेरा इतना प्रेम कि मैं हूं। फिर भी तू इन संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। मुझे सहता है और झेलता है। शायद मैं तेरी पृथ्वी को थोड़ा गंदा ही
आप आमतौर से सोचते होंगे कि संत स्वर्ग में जाते हैं। संतों को | करता हूं। और शायद तेरे अस्तित्व को थोड़ा-सा उदास और रुग्ण नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। संत जहां होंगे, स्वर्ग में | | करता हूं। शायद मेरे होने से अड़चन ही होती है, और कुछ भी नहीं होंगे। क्योंकि संत का हृदय स्वर्ग है।
होता। तेरे संगीत में थोड़ी बाधा पड़ती है। तेरी धारा में मैं एक पत्थर प्रार्थना जब आ जाएगी आपको, तो आप यह पूछेगे ही नहीं कि | | की तरह अवरोध हो जाता हूं। फिर भी मैं हूं। और तू मुझे ऐसे प्रार्थना पूरी नहीं हुई! प्रार्थना का आ जाना ही उसका पूरा हो जाना | | सम्हाले हुए है, जैसे मेरे बिना यह अस्तित्व न हो सकेगा। है। उसके बाद कुछ बचता नहीं है। अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ यह जो अहोभाव है, यह जो ग्रेटिटयूड है, इस अहोभाव, इस बच जाता है, तो फिर प्रार्थना से बड़ी चीज भी जमीन पर है। और धन्यता से जो गीत, जो सिर झुक जाता है, वह जो नाच पैदा हो अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ पाने को शेष रह जाता है, तो फिर | | जाता है, वह जो आनंद की एक लहर जग जाती है, उसका नाम आपको, प्रार्थना क्या है, इसका ही कोई पता नहीं है। प्रार्थना है। जरूरी नहीं है कि वह शब्दों में हो।
प्रार्थना अंत है; प्रार्थनापूर्ण हृदय इस जगत का अंतिम खिला| __ शब्दों में तो जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि जीवन से हमें कहने हुआ फूल है। वह आखिरी ऊंचाई है, जो मनुष्य पा सकता है। वह की कला नहीं आती। नहीं तो प्रार्थना मौन होगी। शब्द तो सिक्खड़ अंतिम शिखर है। उसके पार, उसके पार कुछ है नहीं। के लिए हैं। वे तो प्राथमिक, जिसको अभी कुछ पता नहीं है, उसके
पर आपकी प्रार्थना के पार तो बड़ी क्षुद्र चीजें होती हैं। आपकी लिए हैं। जो जान लेगा कला, उसका तो पूरा अस्तित्व ही अहोभाव प्रार्थना के पार कहीं नौकरी का पाना होता है। आपकी प्रार्थना के का नृत्य हो जाता है। पार कहीं बच्चे का पैदा होना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं एक गरीब फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना कर रहा था। उसके कोई मुकदमे का जीतना होता है।
| पास ही एक बहुत बुद्धिमान, शास्त्रों का बड़ा जानकार, वह भी
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दो मार्ग : साकार और निराकार
प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा...।
पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है।
तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा ! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा ! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी की — असंस्कृत — इसकी प्रार्थना कहां परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया
और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है ! वह धीरे-धीरे गुनगुना रहा था।
वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट | बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले।
वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हद्द की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं | इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी । तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी!
वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आंख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है!
सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई।
प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है;
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उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव- दशा प्रार्थना है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, कल आपने कहा कि बाहर के व्यक्तियों और वस्तुओं की ओर बहता हुआ प्रेम वासना है और स्वयं के भीतर चैतन्य-केंद्र की ओर वापस लौटकर बहता हुआ प्रेम श्रद्धा है, भक्ति है। किंतु भक्ति योग में तो बाहर स्वयं से भिन्न किसी इष्टदेव की ओर साधक की चेतना बहती है। तब तो आपके कथनानुसार यह भी वासना हो गई, श्रद्धा व भक्ति नहीं। समझाएं कि भक्ति योग साधक की चेतना बाहर, पर की ओर बहती है या भीतर स्व की ओर ?
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'ड़ा जटिल है, लेकिन समझने की कोशिश करें। जैसे ही साधक यात्रा शुरू करता है, उसे भीतर का तो कोई
पता नहीं। वह तो बाहर को ही जानता है। उसे तो बाहर का ही अनुभव है। अगर उसे भीतर भी ले जाना है, तो भी बाहर के ही सहारे भीतर ले जाना होगा। और बाहर भी छुड़ाना है, तो धीरे-धीरे बाहर के सहारे ही छुड़ाना होगा।
तो परमात्मा को बाहर रखा जाता है। यह सिर्फ उपाय है, एक डिवाइस, कि परमात्मा वहां ऊपर आकाश में है। परमात्मा सब जगह है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां वह नहीं है। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। सच तो यह है कि बाहर-भीतर हमारे फासले हैं। उसके लिए बाहर और भीतर कुछ भी नहीं है।
घर में आप कहते हैं कि कमरे के भीतर जो आकाश है, वह भीतर है; और कमरे के बाहर आकाश है, वह बाहर है। वह आकाश एक है। दीवालें गिर जाएं, तो न कुछ बाहर है, न भीतर है। जो हमें भीतर मालूम पड़ता है और बाहर मालूम पड़ता है, वह भी एक है। सिर्फ हमारे अहंकार की पतली सी दीवाल है, जो फासला खड़ा करती है ।
इसलिए लगता है कि भीतर मेरी आत्मा और बाहर आपकी आत्मा । लेकिन वह आत्मा आकाश की तरह है। जिस दिन मैं का भाव गिर जाता है, उस दिन बाहर - भीतर भी गिर जाता है। उस दिन वही रह जाता है; बाहर-भीतर नहीं होता। लेकिन साधक जब शुरू
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गीता दर्शन भाग-6
करेगा, तो बाहर की ही भाषा उससे बोलनी पड़ेगी। आप वही भाषा तो समझेंगे, जो आप जानते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। अगर आपको कोई विदेशी भाषा भी सीखनी हो, तो भी उसी भाषा के जरिए समझानी पड़ेगी, जो आप जानते हैं। आप बाहर की भाषा जानते हैं। भीतर की भाषा को भी समझाने के लिए बाहर की भाषा से शुरू करना होगा।
तो परमात्मा को भक्त रखता है बाहर। और कहता है, संसार के प्रति सारी वासना छोड़ दो और सारी वासना को परमात्मा के प्रति लगा लो। यह भी इसीलिए कि वासना ही हमारे पास है, और तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन वासना की एक खूबी है कि वासना को अगर बचाना हो, तो अनेक वासनाएं चाहिए। वासना | को बचाना हो, तो नित नई वासना चाहिए। और जितनी ज्यादा | वासनाएं हों, उतनी ही वासना बचेगी। जैसे ही सारी वासना को परमात्मा पर लगा दिया जाए, वासना तिरोहित होने लगती है।
एक उदाहरण के लिए छोटा सा प्रयोग आप करके देखें, तो आपको पता चलेगा। एक दीए को रख लें रात अंधेरे में अपने कमरे
और अपनी आंखों को दीए पर एकटक लगा दें। दो-तीन मिनट ही अपलक देखने पर आपको बीच-बीच में शक पैदा होगा कि दीया नदारद हो जाता है। दीए की ज्योति बीच-बीच में खो जाएगी। अगर आपकी आंख एकटक लगी रही, तो कई बार आप घबड़ा जाएंगे कि ज्योति कहां गई! जब आप घबड़ाएंगे, तब फिर ज्योति आ जाएगी। ज्योति कहीं जाती नहीं। लेकिन अगर आंखों की देखने की क्षमता बचानी हो, तो बहुत-सी चीजें देखना जरूरी है। अगर आप एक ही चीज पर लगा दें, तो थोड़ी ही देर में आंखें देखना बंद कर देती हैं। इसलिए ज्योति खो जाती है।
जिस चीज पर आप अपने को एकाग्र कर लेंगे, और सब चीजें तो खो जाएंगी पहले, एक चीज रह जाएगी। थोड़ी देर में वह एक भी खो जाएगी। एकाग्रता पहले और चीजों का विसर्जन बन जाती है, और फिर उसका भी, जिस पर आपने एकाग्रता की।
अगर सारी वासना को संसार से खींचकर परमात्मा पर लगा दिया, तो पहले संसार खो जाएगा। और एक दिन आप अचानक पाएंगे कि परमात्मा बाहर से खो गया। और जिस दिन परमात्मा भी बाहर से खो जाता है, आप अचानक भीतर पहुंच जाते हैं। क्योंकि अब बाहर होने का कोई उपाय न रहा। संसार पकड़ता था, उसे छोड़ दिया परमात्मा के लिए। और जब एक बचता है, तो वह अचानक खो जाता है। आप अचानक भीतर आ जाते हैं।
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फिर यह जो परमात्मा की धारणा हमने बाहर की है, यह हमारे भीतर जो छिपा है, उसकी ही श्रेष्ठतम धारणा है। वह जो आपका भविष्य है, वह जो आपकी संभावना है, उसकी ही हमने बाहर धारणा की है। वह बाहर है नहीं, वह हमारे भीतर है, लेकिन हम बाहर की ही भाषा समझते हैं। और बाहर की भाषा से ही भीतर की भाषा सीखनी पड़ेगी।
अभी मनोवैज्ञानिक इस पर बहुत प्रयोग करते हैं कि एकाग्रता में | आब्जेक्ट क्यों खो जाता है। जहां भी एकाग्रता होती है, अंत में जिस पर आप एकाग्रता करते हैं, वह विषय भी तिरोहित हो जाता है; वह भी बचता नहीं। उसके खो जाने का कारण यह है कि हमारे मन का अस्तित्व ही चंचलता है। मन को बहने के लिए जगह चाहिए, तो ही मन हो सकता है। मन एक बहाव है। एक नदी की धार है। अगर मन को बहाव न मिले, तो वह समाप्त हो जाता है। वह उसका स्वभाव है।
स्थिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। और जब हम कहते हैं, चंचल मन, तो हम पुनरुक्ति करते हैं। चंचल मन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि चंचलता ही मन है। जब हम चंचल मन कहते हैं, तो हम दो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं व्यर्थ ही, क्योंकि मन का अर्थ ही चंचलता है। और थिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। जहां थिरता आती है, मन तिरोहित हो जाता है। जैसे स्वस्थ बीमारी जैसी कोई बीमारी नहीं होती। जैसे ही स्वास्थ्य आता है, बीमारी खो जाती है; वैसे ही थिरता आती है, मन खो जाता है। मन के होने के लिए अथिरता जरूरी है।
ऐसा समझें कि सागर में लहरें हैं, या झील पर बहुत लहरें हैं। झील अशांत है। तो हम कहते हैं, लहरें बड़ी अशांत हैं। कहना नहीं चाहिए, क्योंकि अशांति ही लहरें हैं। फिर जब शांत हो जाती है | झील, तब क्या आप ऐसा कहेंगे कि अब शांत लहरें हैं ! लहरें होतीं ही नहीं। जब लहरें नहीं होतीं, तभी शांति होती है। जब झील शांत होती है, तो लहरें नहीं होतीं। लहरें तभी होती हैं, जब झील अशांत होती है। तो अशांति ही लहर है।
आपकी आत्मा झील है, आपका मन लहरें है। शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। अशांति ही मन है।
तो अगर हम किसी भी तरह से किसी एक चीज पर टिका लें अपने को, तो थोड़ी ही देर में मन खो जाएगा, क्योंकि मन एकाग्र हो ही नहीं सकता। जो एकाग्र होता है, वह मन नहीं है; वह भीतर का सागर है। वह भीतर की झील है। वही एकाग्र हो सकती है।
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o दो मार्गः साकार और निराकार 0
तो कोई भी आब्जेक्ट, चाहे परमात्मा की प्रतिमा हो, चाहे कोई | | बड़े अक्षरों में रेत पर लिख दिया, ध्यान। तो वह आदमी थोड़ा यंत्र हो, चाहे कोई मंत्र हो, चाहे कोई शब्द हो, चाहे कोई | | संदिग्ध हुआ। उसने कहा कि उसी शब्द को दोहराने से क्या होगा! आकार-रूप हो, कोई भी हो, इतना ही उसका उपयोग है बाहर | थोड़ा और साफ करो। तो इक्क्यु ने और बड़े अक्षरों में लिख रखने में कि आप पूरे संसार को भूल जाएंगे और एक रह जाएगा। दिया, ध्यान। जिस क्षण एक रहेगा-युगपत-उसी क्षण एक भी खो जाएगा | उस आदमी ने कहा कि तम पागल तो नहीं हो? मैं पछता हं. और आप अपने भीतर फेंक दिए जाएंगे।
कुछ साफ करो। तो इक्क्यु ने कहा, साफ तो तुम्हारे करने से होगा। यह बाहर का जो विषय है, एक जंपिंग बोर्ड है, जहां से भीतर साफ मेरे करने से नहीं होगा। अब साफ तुम करो। बात सार की छलांग लग जाती है।
| मैंने कह दी। अब करना तुम्हारा काम है। इससे ज्यादा और मैं कुछ तो किसी भी चीज पर एकाग्र हो जाएं। इसलिए कोई फर्क नहीं नहीं कह सकता हूं। और इससे ज्यादा मैं कुछ भी कहूंगा तो गड़बड़ पड़ता कि आप उस एकाग्रता के बिंदु को अल्लाह कहते हैं; कोई | हो जाएगी। फर्क नहीं पड़ता कि ईश्वर कहते हैं, कि राम कहते हैं, कि कृष्ण | उस आदमी की कुछ भी समझ में न आया होगा। क्योंकि इक्क्यु कहते हैं, कि बुद्ध कहते हैं। आप क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क | | जो भाषा बोल रहा है, वह भाषा उसके लिए जटिल पड़ी होगी। नहीं पड़ता। आप क्या करते हैं, इससे फर्क पड़ता है। राम, बुद्ध, | उसने शुद्धतम बात कह दी। लेकिन शुद्धतम बात समझने की कृष्ण, क्राइस्ट का आप क्या करते हैं, इससे फर्क पड़ता है। क्या | | सामर्थ्य भी चाहिए। कहते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए जो बहुत करुणावान हैं, वे हमारी अशुद्ध भाषा में करने का मतलब यह है कि क्या आप उनका उपयोग अपने को बोलते हैं। इसलिए नहीं कि अशुद्ध बोलने में कुछ रस है। बल्कि एकाग्र करने में करते हैं? क्या आपने उनको बाहर का बिंदु बनाया इसलिए कि हम अशुद्ध को ही समझ सकते हैं। और धीरे-धीरे ही है, जिससे आप भीतर छलांग लगाएंगे? तो फिर क्या फर्क पड़ता हमें खींचा जा सकता है उस भीतर की यात्रा पर। एक-एक इंच हम है कि आपने क्राइस्ट से छलांग लगाई, कि कृष्ण से, कि राम से! बहुत मुश्किल से छोड़ते हैं। हम संसार को इस जोर से पकड़े हुए जिस दिन भीतर पहुंचेंगे, उस दिन उसका मिलना हो जाएगा, जो न | | हैं कि एक-एक इंच भी हम बहुत मुश्किल से छोड़ते हैं! और यह क्राइस्ट है, न राम है, न बुद्ध है, न कृष्ण है—या फिर सभी है। | यात्रा है सब छोड़ देने की। क्योंकि जब तक पकड़ न छूट जाए और कहां से छलांग लगाई, वह तो भूल जाएगा।
हाथ खाली न हो जाएं, तब तक परमात्मा की तरफ नहीं उठते। भरे कौन याद रखता है जंपिंग बोर्ड को, जब सागर मिल जाए! हुए हाथ उसके चरणों में नहीं झुकाए जा सकते। सिर्फ खाली हाथ सीढ़ियों को कौन याद रखता है, जब शिखर मिल जाए! रास्ते को उसके चरणों में झुकाए जा सकते हैं। क्योंकि भरे हुए हाथ वाला कौन याद रखता है, जब मंजिल आ जाए! कौन-सा रास्ता था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी रास्ते काम में लाए जा सकते हैं। इसीलिए जीसस ने कहा है कि चाहे सई के छेद से ऊंट निकल काम में लाने वाले पर निर्भर करता है।
| जाए. लेकिन धनी आदमी मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न कर सकेगा। अभी आप बाहर हैं, इसलिए बाहर परमात्मा की धारणा करनी। यह किस धनी आदमी की बात कही है? वे सभी धनी हैं, जिनके पड़ती है आपकी वजह से। परमात्मा की वजह से नहीं, आपकी | हाथ भरे हुए हैं। जिन्हें लगता है, कुछ हमारे पास है; जिन्हें लगता वजह से। भीतर की भाषा आपकी समझ में ही न आएगी। है कि कुछ पकड़ने योग्य है; जिन्हें लगता है कि कोई संपदा है। वे
इक्क्यु हुआ है एक झेन फकीर। किसी ने आकर इक्क्यु से पूछा | | उस द्वार में प्रवेश न कर सकेंगे। कि सार, सारे धर्म का सार संक्षिप्त में कह दो। क्योंकि मेरे पास जिसके पास कुछ है, उसके लिए द्वार बहुत संकीर्ण मालूम ज्यादा समय नहीं है। मैं काम-धंधे वाला आदमी हूं। क्या है धर्म | पड़ेगा। उसमें से वह निकल न सकेगा। और जिसके पास कुछ नहीं का मूल सार? तो इक्क्यु बैठा था रेत पर, उसने अंगुली से लिख | | है, उसके लिए वह द्वार इतना विराट है, जितना विराट हो सकता दिया, ध्यान। उस आदमी ने कहा, ठीक। लेकिन थोड़ा और है। यह पूरा संसार उससे निकल जाए, इतना बड़ा वह द्वार है। विस्तार करो। इतने से बात समझ में नहीं आई। तो इक्क्यु ने और लेकिन जिसके पास कुछ है, उसके लिए सुई के छेद का द्वार भी
दिल
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
बड़ा है। वह द्वार छोटा हो जाएगा। जितना हमारे हाथ पकड़े होते | को पकड़े हुए है, वह उतना ही अहंकारी है, जितना कोई और हैं चीजों को, उतने हम भारी और वजनी, उड़ने में असमर्थ हो जाते | अहंकारी है। और कई बार तो ऐसा होता है कि स्थूल अहंकार तो हैं। जितने हमारे हाथ खाली हो जाते हैं...।
खुद भी दिखाई पड़ता है, सूक्ष्म अहंकार दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए जीसस ने जो कहा है कि भीतर की दरिद्रता, उसका अर्थ ___ यह जो परमात्मा की यात्रा है, यह तो भीतर की ही यात्रा है। इतना ही है कि जिसने सारी पकड़ छोड़ दी संसार पर, वही भीतर | लेकिन बाहर से हम छोडें. तो हम भीतर की तरफ सरकने शरू हो से दरिद्र है।
जाते हैं। बाहर से हम छोड़ सकें, इसलिए बाहर ही परमात्मा को लेकिन आदमी बहुत उपद्रवी है, बहुत चालाक है। और सब | हमने खड़ा किया है। हमारे सब मंदिर. हमारी सब मस्जिदें, गिरजे, चालाकी में अपने को ही फंसा लेता है। क्योंकि यहां कोई और | | गुरुद्वारे, सब प्रतीक हैं। बाहर कोई मंदिर है नहीं। लेकिन बाहर नहीं है, जिसको आप फंसा सकें। आप खुद ही जाल बुनेंगे और मंदिर बनाना पड़ा है, क्योंकि हम केवल बाहर के ही मंदिर अभी फंस जाएंगे। खुद ही खड्डा खोदेंगे और गिर जाएंगे। हम सब समझ सकते हैं। लेकिन वह बाहर का मंदिर एक जगह हो सकती अपनी-अपनी कब्र खोदकर तैयार रखते हैं। कब मौका आ जाए| | है, जहां से हम संसार को छोड़कर उस मंदिर में प्रवेश कर जाएं। गिरने का, तो गिर जाएं! गिराते दूसरे हैं, कः हम ही खोद लेते हैं। | और फिर वह मंदिर भी छूट जाएगा। क्योंकि जब इतना बड़ा संसार
और वे दूसरे भी हमारी सहायता इसलिए करते हैं, क्योंकि हम | छूट गया, तो यह छोटा-सा मंदिर ज्यादा देर नहीं रुक सकता है। उनकी सहायता करते रहे हैं!
और जब संसार छट गया, तो संसार में बैठे हए परमात्मा की प्रतिमा __ आदमी बहुत जटिल है और सोचता है कि बहुत होशियार है। | भी छूट जाएगी। वह केवल बहाना है। . तो कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि वह बाहर की, संसार की | संसार को छोड़ सकें, इसलिए परमात्मा को बाहर रखते हैं। फिर संपत्ति छोड़ देता है, तो फिर कुछ भीतरी गुणों की संपत्ति को पकड़ | तो वह भी छूट जाता है। और जो संसार को ही छोड़ सका, वह लेता है।
अब इस एक को भी छोड़ देगा। जिसने अनेक को छोड़ दिया, वह सुना है. मैंने, एक तथाकथित संत का परिचय दिया जा रहा था। एक को भी छोड़ देगा। और जब अनेक भी नहीं बचता और एक और जो परिचय देने खड़ा था—जैसा कि भाषण में अक्सर हो | | भी नहीं बचता, तभी वस्तुतः वह एक बचता है, जिसको हमने जाता है उसकी गरमी बढ़ती गई, जोश बढ़ता गया। और वह अद्वैत कहा है। इसलिए हमने उसको एक नहीं कहा। फकीर की बड़ी तारीफ करने लगा। और उसने कहा कि ऐसा फकीर क्योंकि अनेक बाहर हैं, इनको छोड़ने के लिए एक परमात्मा की पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इन जैसा ज्ञान लाखों वर्षों में कभी होता है।। | धारणा काम में लानी पड़ती है। संसार को हम छोड़ते हैं उस एक बड़े-बड़े पंडित इनके चरणों में आकर बैठते हैं और सिर झुकाते हैं। के लिए। फिर जब वह एक भी छूट जाता है, तब जो बचता है, इन जैसा प्रेम असंभव है दोबारा खोज लेना। सब तरह के लोग उसको हम क्या कहें! उसको अनेक नहीं कह सकते। अनेक संसार इनके प्रेम में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं। और वह ऐसा कहता था, छट गया। उसको एक भी नहीं कह सकते। क्योंकि वह एक चला गया।
भी जो हमने बाहर बनाया था. वह भी बहाना था। वह भी छट गया। जब सारी बात पूरी होने के करीब थी, तो उस फकीर ने उस | अब जो बचा, उसे हम क्या कहें? अनेक कह नहीं सकते; एक कह भाषण करने वाले का कोट धीरे से झटका और कहा कि मेरी | नहीं सकते। इसलिए बड़ी अदभुत व्यवस्था हमने की। हमने उसको विनम्रता के संबंध में मत भूल जाना। डोंट फारगेट माई ह्युमिलिटी। | कहा, अद्वैत। न एक, न दो। हमने सिर्फ इतना कहा है, जो दो नहीं मेरी विनम्रता के संबंध में भी कुछ कहो!
| है। हमने केवल संख्या को इनकार कर दिया। विनम्रता के संबंध में भी कुछ कहो! तो यह आदमी विनम्र रहा। सब संख्याएं बाहर हैं—एक भी, अनेक भी। वे दोनों छूट गईं। होगा कि नहीं? तब तो विनम्रता भी अहंकार हो गया। और तब तो | | अब हम उस जगह पहुंच गए हैं, जहां कोई संख्या नहीं है। लेकिन विनम्रता भी संपत्ति हो गई। यह आदमी बाहर से हो सकता है, सब इस तक जाने के लिए बाहर के प्रतीक सहारे बन सकते हैं। छोड़ दिया हो, लेकिन इसने भीतर से सब पकड़ा हुआ है। इससे | खतरा जरूर है। खतरा आदमी में है, प्रतीकों में नहीं है। खतरा कुछ भी छूटा नहीं है, क्योंकि पकड़ नहीं छूटी है। और जो विनम्रता यह है कि कोई सीढ़ी को ही रास्ते की अड़चन बना ले सकता है।
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दो मार्गः साकार और निराकार -
और कोई समझदार हो, तो रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी सीढ़ी | वह बीमार है। कोई आदमी कारागृह में बंद हो और समझता हो कि बना ले सकता है। यह आप पर निर्भर है कि आप उसका उपयोग | मैं मुक्त हूं, तो कारागृह से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। और सीढ़ी की तरह करेंगे, उस पर चढ़ेंगे और आगे निकल जाएंगे, या | अगर कारागृह को अपना घर ही समझता हो और कारागृह की उसी के किनारे रुककर बैठ जाएंगे कि अब जाने का कोई उपाय न | दीवालें उसने भीतर से और सजा ली हों, तब तो अगर आप छुड़ाने रहा। यह पत्थर पड़ा है। अब कोई उपाय आगे जाने का नहीं है। | भी जाएं तो वह इनकार करेगा कि क्यों मेरे घर से मुझे बाहर निकाल
सीढ़ी अवरोध बन सकती है। अवरोध सीढ़ी बन सकता है। | रहे हो! और अगर उसने अपनी हथकड़ियों को, अपनी बेड़ियों को आप पर निर्भर है। प्रतीक खतरनाक हो जाते हैं, अगर उनको कोई | | सोने के रंग में रंग लिया हो और चमकीले पत्थर लगा लिए हों, तो जोर से पकड़ ले। प्रतीक छोड़ने के लिए हैं। प्रतीक सिर्फ बहाने हैं। | | वह समझेगा कि ये आभूषण हैं। और अगर आप तोड़ने लगें, तो उनका उपयोग कर लेना है और उन्हें भी फेंक देना है। और जब | | वह चिल्लाएगा कि मुझे बचाओ, मैं लुटा जा रहा हूं। कोई व्यक्ति फेंकता चला जाता है, उस समय तक, जब तक कि ___ कारागृह में बंदी आदमी बाहर आने के लिए क्या करे? पहली फेंकने को कुछ भी शेष रहता है, वही व्यक्ति उस अंतिम बिंदु पर | बात तो यह समझे कि वह कारागृह में है। फिर कुछ बाहर आने की पहुंच पाता है।
| बात उठ सकती है। फिर कुछ रास्ता खोजा जा सकता है। फिर एक प्रश्न और, फिर मैं सूत्र लूं।
उनकी बात सुनी जा सकती है, जो बाहर जा चुके हैं। फिर उनसे | पूछा जा सकता है कि वे कैसे बाहर गए हैं। फिर कुछ भी हो सकता
है। लेकिन पहली जरूरत है कि अनुभवशून्य व्यक्ति समझे कि मैं आपने कल कहा कि अनुभव पर आधारित श्रद्धा ही | | अनुभवशून्य हूं। वास्तविक श्रद्धा है। और यह भी कहा कि प्रेम और लेकिन बड़ी कठिनाई है। किताबें हम पढ़ लेते हैं, शास्त्र हम पढ़ भक्ति की साधना सहज व सरल है। यह भी कहा लेते हैं। और शास्त्रों के शब्द हममें भर जाते हैं और ऐसी भ्रांति होती कि आज तर्क व बुद्धि के अत्यधिक विकास के कारण है कि हमें भी अनुभव है। झूठी आस्तिकता खतरे में पड़ गई है। तो समझाएं कि ___ अभी एक वृद्ध सज्जन मेरे पास आए थे। आते से ही वे बोले अनुभवशून्य साधक कैसे श्रद्धा की ओर बढ़े? और | कि ऐसे तो मुझे समाधि का अनुभव हो गया है, लेकिन फिर भी आज के बौद्धिक युग में भक्ति-योग अर्थात भावुकता | सोचा कि चलो, आपसे भी पूछ आऊं। मैंने उनको कहा कि कुछ का मार्ग कैसे उपयुक्त है? श्रद्धा के अभाव में | भी साफ कर लें। अगर अनुभव हो चुका है समाधि का, तो अब भक्ति-योग की साधना कैसे संभव है?
दूसरी बात करें। यह छोड़ ही दें। फिर पूछने को क्या बचा है?
नहीं, उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि चलें, पूछ लेने में हर्ज क्या
| है! तो मैंने कहा, अनुभव हो गया हो, तो पूछने में समय खराब मेरा 1 हली बात, कैसे अनुभवशून्य साधक अनुभव की | | भी न करें, अपना भी खराब न करें। मेरा समय उनमें ही लगने दें, 4 ओर बढ़े? पहली बात तो वह यह समझे कि | जिन्हें अनुभव नहीं हुआ है। तो वे बोले, अच्छा, आप फिर ऐसा
अनुभवशून्य है। बड़ी कठिन है। सभी को ऐसा | ही समझ लें कि मुझे अनुभव नहीं हुआ है। लेकिन बताएं तो कि खयाल है कि अनुभव तो हमें है ही। अपने को अनुभवशून्य मानने | ध्यान कैसे करूं! मैंने कहा, मैं समझूगा नहीं। क्योंकि आप समझें में बड़ी कठिनाई होती है। लेकिन धर्म के संबंध में हम अनुभवशून्य | कि अनुभव नहीं हुआ है, मैं क्यों समझू कि आपको नहीं हुआ है। हैं, ऐसी प्रतीति पहली जरूरत है। क्योंकि जो हमारे पास नहीं है, अगर हुआ है, तो बात खत्म हो गई। वही खोजा जा सकता है। जो हमारे पास है ही, उसकी खोज ही कैसी अड़चन है! आदमी का अहंकार कैसी मुश्किल खड़ी नहीं होती।
| करता है। वे जानना चाहते हैं कि ध्यान क्या है, लेकिन यह भी बीमार आदमी समझता हो कि मैं स्वस्थ हूं, तो इलाज का कोई | | मानने का मन नहीं होता कि ध्यान का मुझे पता नहीं है। ध्यान का सवाल ही नहीं है। बीमार की पहली जरूरत है कि वह समझे कि |
| | तो पता है ही। चलते रास्ते सोचा कि चलो, आपसे भी पूछ लें।
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तो मैंने कहा, मैं चलते रास्ते लोगों को जवाब नहीं देता। आप | जो साधक नहीं है, वह पूछता है, ईश्वर है या नहीं? जो साधक सोचकर आएं, पक्का करके आएं। और यदि वगैरह से काम नहीं है, वह पूछता है कि मुझे उसका अनुभव हुआ या नहीं? इस फर्क चलेगा, कि समझ लें। मैं नहीं समझूगा; आप ही समझकर आएं। | को ठीक से समझ लें। जो साधक नहीं है, सिर्फ जिज्ञासु है, हुआ हो, तो कहें हां। बात खत्म हो गई। न हुआ हो, तो कहें नहीं। | दार्शनिक होगा। वह पूछता है, ईश्वर है या नहीं? उसको अपने में फिर बात शुरू हो सकती है।
उत्सुकता नहीं है; उसे ईश्वर का सवाल है कि ईश्वर है या नहीं। सुन लेते हैं, पढ़ लेते हैं, शब्द मन में घिर जाते हैं। शब्द इकट्ठे| | यह खोज व्यर्थ है। क्योंकि आप कैसे तय करेंगे कि ईश्वर है या हो जाते हैं, जम जाते हैं। उन्हीं शब्दों को हम दोहराए चले जाते हैं | | नहीं? पूछने की सार्थक खोज तो यह है कि मुझे उसका अनुभव और सोचते हैं कि ठीक, हमें पता तो है। थोड़ा कम होगा, किसी | | नहीं हुआ; कैसे उसका अनुभव हो? वह है या नहीं, यह बड़ा को थोड़ा ज्यादा होगा। लेकिन पता तो हमें है।
सवाल नहीं है। कैसे मुझे उसका अनुभव हो? और अगर मुझे ध्यान रखना, उसका अनुभव थोड़ा और कम नहीं होता। या तो | | अनुभव होगा, तो वह है। लेकिन अगर मुझे अनुभव न हो, तो होता है, या नहीं होता। अगर आपको लगता हो कि थोड़ा-थोड़ा | जरूरी नहीं है कि वह न हो। क्योंकि हो सकता है, मेरी खोज में अनुभव हमें भी है, तो आप धोखा मत देना। परमात्मा को टुकड़ों अभी कोई कमी हो। में काटा नहीं जा सकता। या तो आपको अनभव होता है परा. या तो साधक कभी भी इनकार नहीं करेगा। वह इतना ही कहेगा कि नहीं होता। थोड़ा-थोड़ा का कोई उपाय नहीं है; डिग्रीज का कोई मुझे अभी अनुभव नहीं हुआ है। वह यह नहीं कहेगा कि ईश्वर नहीं उपाय नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि हम जरा अभी इंचभर है। क्योंकि मुझे क्या हक है कहने का कि ईश्वर नहीं है! मुझे पता परमात्मा को जानते हैं, आप चार इंच जानते होंगे। हम पावभर | नहीं है, इतना कहना काफी है। लेकिन हमारी भाषा में बड़ी भूल जानते हैं, आप सेरभर जानते होंगे! बाकी जानते हम भी हैं। क्योंकि होती है। परमात्मा का कोई खंड नहीं है; वह अखंड अनुभव है।
हम निरंतर अपने को भूलकर बातें करते हैं। अगर एक आदमी अगर आपको लगता हो, थोड़ा-थोड़ा अनुभव है, तो समझ | | कुछ कहता है, और आपको अच्छा नहीं लगता, तो आप ऐसा नहीं
के अनुभव नहीं है। और जिसको अनुभव हो जाता है, उसकी कहते कि तुमने जो कहा, वह मुझे अच्छा नहीं लगा। आप ऐसा तो सारी खोज समाप्त हो जाती है। अगर आपकी खोज जारी है, | नहीं कहते हैं। आप ऐसा कहते हैं कि तुम गलत बात कह रहे हो। अगर थोड़ा-सा भी असंतोष भीतर कहीं है, अगर थोड़ा भी ऐसा | आप सारा जिम्मा दूसरे पर डालते हैं। लगता है कि जीवन में कुछ चूक रहा है, तो समझना कि अभी सूरज उगता है सुबह, आपको सुंदर लगता है। तो आप ऐसा नहीं अनुभव नहीं है। क्योंकि उसके अनुभव के बाद जीवन में कोई कमी | | कहते कि यह सूरज का उगना मुझे सुंदर लगता है। आप कहते हो, का अनुभव नहीं रह जाता; कोई अभाव नहीं रह जाता। फिर कोई | | सूरज बड़ा सुंदर है। आप बड़ी गलती कर रहे हो। क्योंकि आपके असंतोष की जरा-सी भी चोट भीतर नहीं होती। फिर कुछ पाने को | | पड़ोस में ही खड़ा हुआ कोई आदमी कह सकता है कि सूरज सुंदर नहीं बचता।
नहीं है। वह भी यही कह रहा है कि मुझे सुंदर नहीं लगता है। सूरज अगर कुछ भी पाने को बचा हुआ लगता हो, और लगता हो कि | की बात ही करनी फिजूल है। सूरज सुंदर है या नहीं, इसे कैसे तय अभी कुछ कमी है, अभी कुछ यात्रा पूरी होनी है, तो समझना कि करिएगा? इतना ही तय हो सकता है कि आपको कैसा लगता है। उसका अनुभव नहीं हुआ। परमात्मा अंत है-समस्त अनुभव का, | | किसी ने गाली दी, आपको बुरी लगती है, तो आप यह मत समस्त यात्रा का, समस्त खोज का।
| कहिए कि यह गाली बुरी है। आप इतना ही कहिए कि यह गाली तो पहली बात तो अनुभवशून्य साधक को समझ लेनी चाहिए मुझे बुरी लगती है। मैं जिस ढंग का आदमी हूं, उसमें यह गाली कि मैं अनुभवशून्य हूं। और ऐसा इसलिए नहीं कि मैं कहता हूं। जाकर बड़ी बुरी लगती है। ऐसा उसको ही समझना चाहिए। उसकी ही प्रतीति, कि मैं | | अपने को केंद्र बनाकर रखेगा साधक। अगर उसे ईश्वर दिखाई अनुभवशून्य हूं, रास्ता बनेगी।
| नहीं पड़ता, तो वह यह नहीं कहेगा कि संसार में कोई ईश्वर नहीं एक फर्क खयाल में रखें।
| है। यह तो बड़ी नासमझी की बात है। इतना ही कहेगा कि मुझे
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ॐ दो मार्गः साकार और निराकार *
संसार में ईश्वर का कोई अनुभव नहीं होता-मुझे!
अगर आप थोड़ा-सा शांत होकर ध्यान दें, तो हृदय की धड़कन साधक हमेशा स्वयं को केंद्र में रखेगा। और तब सवाल उठेगा| | भी सुनाई पड़ने लगेगी। वह तो चौबीस घंटे धड़क रहा है। आपको कि मुझे अनुभव नहीं होता, तो मैं क्या करूं कि अनुभव हो सके? उसका पता नहीं चलता, क्योंकि उस तरफ ध्यान नहीं है। जिस वह प्रमाण नहीं पूछेगा ईश्वर के लिए कि प्रमाण क्या हैं? वह तरफ ध्यान होता है, उस तरफ अनुभव होता है। पूछेगा, मार्ग क्या हैं?
तो साधक पूछेगा कि परमात्मा के अनुभव के लिए कैसा ध्यान तो पहली बात कि मुझे अनुभव नहीं है, इसकी. गहरी प्रतीति। | हो मेरा? किस तरफ मेरे ध्यान को मैं लगाऊं कि वह मौजूद हो, तो फिर दूसरी बात कि अनुभव का मार्ग क्या है? क्योंकि मुझे अनुभव | | उसकी मुझे प्रतीति होने लगे? उसकी प्रतीति आपके ध्यान के प्रवाह नहीं है, उसका अर्थ ही यह हुआ कि मैं उस जगह अभी नहीं हूं, पर निर्भर करेगी। जहां से अनुभव हो सके। मैं उस द्वार पर नहीं खड़ा हूं, जहां से वह आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखते हैं। अगर आप दिखाई पड़ सके। मैं उस तल पर नहीं हूं, जहां से उसकी झलक हो | चमार हैं, तो आपको लोगों के सिर नहीं दिखाई पड़ते, पैर दिखाई सके। मेरी वीणा तैयार नहीं है कि उसके हाथ उस पर संगीत को | पड़ते हैं। दिखाई पड़ेंगे ही। क्योंकि ध्यान सदा जूते पर लगा हुआ पैदा कर सकें। मेरे तार ढीले होंगे, तार टूटे होंगे। तो मुझे मेरी वीणा | है। और चमार दुकान पर आपकी शक्ल नहीं देखता, आपका जूता को तैयार करना पड़ेगा। मुझे योग्य बनना पड़ेगा कि उसका अनुभव | | देखकर समझ जाता है कि जेब में पैसे हैं या नहीं। वह जूता ही सारी हो सके।
कहानी कह रहा है आपकी। जो उसकी गति आपने बना रखी है, ईश्वर की तलाश स्वयं के रूपांतरण की खोज है। ईश्वर की उससे सब पता चल रहा है कि आपकी हालत क्या होगी। आपके तलाश ईश्वर की तलाश नहीं है, आत्म-परिष्कार है। मुझे योग्य जूते की हालत आपकी हालत है। बनना पड़ेगा कि मैं उसे देख पाऊं। मुझे योग्य बनना पड़ेगा कि वह मैंने सुना है कि एक दर्जी घूमने गया रोम। लौटकर आया तो मुझे प्रतीत होने लगे, उसकी झलक, उसका स्पर्श।
उसके पार्टनर ने, उसके साझीदार ने पूछा, क्या-क्या देखा? तो सब आपको खयाल है कि जितनी चीजें आपके चारों तरफ हैं, क्या बातें उसने बताई और उसने कहा कि पोप को भी देखने गया था। आपको उन सबका पता होता है? वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ में से | गजब का आदमी है। तो उसके साझीदार ने कहा कि पोप के संबंध केवल दो प्रतिशत चीजों का आपको पता चलता है। और पता | में कुछ और विस्तार से कहो। उसने कहा कि आध्यात्मिक है, इसलिए चलता है कि आप उन पर ध्यान देते हैं, इसलिए पता दुबला-पतला है। ऊंचाई पांच फीट दो इंच से ज्यादा नहीं, और चलता है। नहीं तो पता नहीं चलता।
कमीज की साइज थर्टी सिक्स शार्ट! अगर आप एक कार में बैठे हैं और कार का इंजन थोड़ी-सी पोप का दर्शन करने गया था वह। मगर दर्जी है, तो पोप की खट-खट की आवाज करने लगे, आपको पता नहीं चलेगा, ड्राइवर कमीज पर खयाल जाएगा। अब वह अगर लौटकर पोप की को फौरन पता चल जाएगा। आप भी वहीं बैठे हैं। आपको क्यों कमीज की खबर दे, तो इसका यह मतलब नहीं कि पोप की कोई सुनाई नहीं पड़ता? आपका ध्यान नहीं है उस तरफ। सुनाई तो आत्मा नहीं थी वहां। मगर आत्मा देखने के लिए कोई और तरह आपके भी कान को पड़ता ही होगा, क्योंकि आवाज हो रही है। का आदमी चाहिए। लेकिन ड्राइवर को सुनाई पड़ता है, आपको सुनाई नहीं पड़ता। ध्यान जहां हो, वही दिखाई पड़ता है। तो फिर साधक पूछेगा आपका ध्यान उस तरफ नहीं है, ड्राइवर का ध्यान उस तरफ है। कि मुझे उसका अनुभव नहीं होता, तो कहीं कोई आयाम ऐसा है
आप अपने कमरे में बैठे हैं। कभी आपने खयाल किया कि | | जिस तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता है। तो उस तरफ मैं कैसे ध्यान दीवाल की घड़ी टक-टक करती रहती है, आपको सुनाई नहीं | को ले जाऊं? पड़ती। आज लौटकर कमरे में आंख बंद करके ध्यान करना, फौरन | | फिर ध्यान की विधियां हैं। फिर प्रार्थना के मार्ग हैं। फिर उनमें टक-टक सुनाई पड़ने लगेगी। और टक-टक धीमी आवाज है। से चुनकर लग जाना चाहिए। जो भी प्रीतिकर लगे, उस दिशा में बाहर का कितना ही शोरगुल हो रहा है, अगर आप ध्यान देंगे, तो | | पूरा अपने को डुबा देना चाहिए। अगर आपको लगता है कि टक-टक सुनाई पड़ने लगेगी।
| प्रार्थना, कीर्तन-भजन आपके हृदय को आनंद और प्रफुल्लता से
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भर देते हैं, तो फिर आप फिक्र मत करें।
| हैं, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं ! परमात्मा की खोज में भी हम योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। पड़ोसी की फिक्र रखते हैं, कि पड़ोसी क्या सोचेगा! अगर मैं सुबह | | कोई ऐसा न समझे कि भक्ति से ही पहुंचा जा सकता है। कोई से उठकर कीर्तन कर दूं, तो आस-पास खबर हो जाएगी कि आदमी | ऐसा न समझे कि भक्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। तो पागल हो गया। हम पड़ोसियों की इतनी फिक्र करते हैं कि मरते कृष्ण दूसरे सूत्र में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त हैं, और मेरे में वक्त भी परमात्मा का ध्यान नहीं होता। मरते वक्त भी यह ध्यान सब भांति डूबे हुए हैं, जिनका मन सब भांति मुझमें लगा हुआ है, होता है कि कौन-कौन लोग मरघट पहचाने जाएंगे। फलां आदमी
और जो मुझ सगुण को, साकार को निरंतर भजते हैं श्रद्धा से, वे जाएगा कि नहीं! मरते वक्त भी यह खयाल होता है कि कौन-कौन श्रेष्ठतम योगी हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल वे ही पड़ोसी पहुंचाने जाएंगे।
पहुंचते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार का ध्यान करते हैं। वे क्या फर्क पड़ता है कि कौन पहुंचाने आपको गया! और न भी | | भी पहुंच जाते हैं, जो शून्य के साथ अपना एकीभाव करते हैं। वे गया कोई पहुंचाने, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मर ही गए। लेकिन | | भी मुझको ही उपलब्ध होते हैं। उनका मार्ग होगा दूसरा, लेकिन मरने के बाद भी पड़ोसियों का ध्यान रहता है। जिंदा में भी पूरे | | उनकी मंजिल मैं ही हूं। तो कोई सगुण से चले कि निर्गुण से, वह वक्त पड़ोसी से परेशान हैं, कि पड़ोसी क्या सोचेगा! और पड़ोसी | पहुंचता मुझ तक ही है। सोच रहा है कि आप क्या सोचेंगे! वह आपकी वजह से रुका है, | | पहुंचने को और कोई जगह नहीं है। कहां से आप चलते हैं, आप उसकी वजह से रुके हैं! यह भी हो सकता है कि आप नाचने | | इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जहां आप पहुंचेंगे, वह जगह एक है। लगें. तो शायद पडोसी भी नाच उठे। तो वह भी आपकी वजह से आपके यात्रा-पथ अनेक होंगे, आपके ढंग अलग-अलग होंगे। रुका हो।
| आप अलग-अलग विधियों का उपयोग करेंगे, अलग नाम लेंगे, अगर प्रार्थना आपको प्रीतिकर लगती हो, तो भय छोड़ दें, और अलग गुरुओं को चुनेंगे, अलग अवतारों को पूजेंगे, अलग मंदिरों उस तरफ पूरे हृदय को आनंद से भरकर नाचने दें और लीन होने | | में प्रवेश करेंगे, लेकिन जिस दिन घटना घटेगी, आप अचानक दें। अगर आपको प्रार्थना ठीक न समझ में आती हो, तो प्रार्थना पाएंगे, वे सब भेद खो गए, वे सब अनेकताएं समाप्त हो गईं और ठीक नहीं है, ऐसा कहकर बैठ मत जाएं। तो फिर बिना प्रार्थना के | आप वहां पहुंच गए हैं, जहां कोई भेद नहीं है, जहां अभेद है। मार्ग भी हैं; ध्यान है, निर्विचार होने के उपाय हैं। तो फिर विचार के बड़ा उलटा मालूम पड़ता है। जो तर्क, चिंतन करते रहते हैं, उन्हें त्याग का प्रयोग शुरू करें।
| लगता है, दोनों बातें कैसे सही हो सकती हैं ! क्योंकि निराकार और लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं। अगर उनसे कहो प्रार्थना, तो वे | | साकार तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। सगुण और निर्गुण तो विपरीत कहते हैं, लोग क्या कहेंगे! अगर उनसे कहो ध्यान, तो वे कहते | | मालम पडते हैं। कितना विवाद चलता है। पंडितों ने अपने सिर हैं, बड़ा कठिन है। हमसे न हो सकेगा। न करने का बहाना हम | | खाली कर डाले हैं। अपनी जिंदगियां लगा दी हैं इस विवाद में कि हजार तरह से निकाल लेते हैं।
सगुण ठीक है कि निर्गुण ठीक है। बड़े पंथ, बड़े संप्रदाय खड़े हो साधक हमेशा करने का बहाना खोजेगा कि किस बहाने मैं कर गए हैं। बड़ी झंझट है। एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने की इतनी सकू। कोई भी बहाना मिल जाए, तो मैं कर सकूँ। ऐसी जिसकी चेष्टा है कि करीब-करीब दोनों ही गलत हो गए हैं। विधायक खोज है, वह आज नहीं कल अपने ध्यान को उस दिशा | इस जमीन पर इतना जो अधर्म है, उसका कारण यह नहीं है कि में लगा लेता है, जहां परमात्मा की प्रतीति है।
| नास्तिक हैं दुनिया में बहुत ज्यादा। नहीं। आस्तिकों ने एक-दूसरे अब हम सूत्र को लें।
को गलत सिद्ध कर-करके ऐसी हालत पैदा कर दी है कि कोई भी और जो परुष इंद्रियों के समदाय को अच्छी प्रकार वश में| सही नहीं रह गया। मंदिर, मस्जिद को गलत कह देता है; मस्जिद करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा | | मंदिर को गलत कह देती है। मंदिर इस खयाल से मस्जिद को गलत एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार और अविनाशी, कहता है कि अगर मस्जिद गलत न हुई, तो मैं सही कैसे होऊंगा! सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते मस्जिद इसलिए गलत कहती है कि अगर तुम भी सही हो, तो हमारे
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सही होने में कमी हो जाएगी।
के खिलाफ हैं और पूरी जमीन परमात्मा की लाशों से भर गई है। लेकिन सुनने वाले पर जो परिणाम होता है, उसे लगता है कि कृष्ण का यह तत्क्षण दूसरा सूत्र इस बात की खबर देता है कि मस्जिद भी गलत और मंदिर भी गलत। ये जो दोनों को गलत कह | कितने ही विपरीत दिखाई पड़ने वाले मार्ग हों, मंजिल एक है। रहे हैं, ये दोनों गलत हैं। और यह गलती की बात इतनी प्रचारित इसे थोड़ा समझें, क्योंकि तर्क के लिए बड़ी कठिनाई है। तर्क होती है, क्योंकि दुनिया में कोई तीन सौ धर्म हैं, और एक धर्म को | | कहता है कि अगर आकार ठीक है, तो निराकार कैसे ठीक होगा? दो सौ निन्यानबे गलत कह रहे हैं। तो आप सोच सकते हैं कि जनता क्योंकि तर्क को लगता है कि आकार के विपरीत है निराकार। पर किसका परिणाम ज्यादा होगा! एक कहता है कि ठीक। और दो | | लेकिन निराकार आकार के विपरीत नहीं है। आकार में भी निराकार सौ निन्यानबे उसके खिलाफ हैं कि गलत। हरेक के खिलाफ दो सौ | | ही प्रकट हुआ है। और निराकार भी आकार के विपरीत नहीं है। निन्यानबे हैं। इन तीन सौ ने मिलकर तीन सौ को ही गलत कर दिया | | जहां आकार लीन होता है, उस स्रोत का नाम निराकार है। है और जमीन अधार्मिक हो गई है।
लहर के विपरीत नहीं है सागर। क्योंकि लहर में भी सागर ही सुना है मैंने, दो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में बात कर रहे थे। प्रकट हुआ है। लहर भी सागर के विपरीत नहीं है, क्योंकि सागर उनका दिल था कि जाएं और आज एक फिल्म देख आएं। लेकिन से ही पैदा होती है, तो विपरीत कैसे होगी! और सागर में ही लीन दोनों को अपने पिताओं का डर था। मन तो पढ़ने में बिलकुल लग होती है, तो विपरीत कैसे होगी! जो मूल है, उदगम है और जो अंत नहीं रहा था। फिर एक ने कहा कि छोड़ो भी, कब तक हम परतंत्र है, उसके विपरीत होने का क्या उपाय है? रहेंगे? यह गुलामी बहुत हो गई। अगर यही गुलामी है जिंदगी, तो निराकार और आकार विपरीत नहीं हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, इससे तो बेहतर है, हम दोनों यहां से भाग खड़े हों। परीक्षा से भी क्योंकि हमारे पास देखने की सीमित क्षमता है। वे विपरीत दिखाई छूटेंगे और यह बापों की झंझट भी मिट जाएगी।
| पड़ते हैं, क्योंकि देखने की हमारे पास इतनी विस्तीर्ण क्षमता नहीं पर दूसरे ने कहा कि यह भूलकर मत करना। क्योंकि वे हमारे है कि दो विरोधों को हम एक साथ देख लें। हमारी देखने की क्षमता दोनों के बाप बड़े खतरनाक हैं। वे जल्दी, देर-अबेर, ज्यादा देर तो इतनी कम है कि जिसका हिसाब नहीं। नहीं लगेगी, हमें पकड़ ही लेंगे और अच्छी पिटाई होगी। तो दूसरे | | अगर मैं आपको एक कंकड़ का छोटा-सा टुकड़ा हाथ में दे दूं ने कहा कि कोई फिक्र नहीं; अगर पिटाई भी हो, तो अब बहुत हो | | और आपसे कहूं कि इसको पूरा एक साथ देख लीजिए, तो आप गया सहते। हम भी सिर खोल देंगे उन पिताओं के।
पूरा नहीं देख सकते। एक तरफ एक दफा दिखाई पड़ेगी। फिर तो उस दूसरे ने कहा, यह जरा ज्यादा बात हो गई। धर्मशास्त्र में उसको उलटाइए, तो दूसरी तरफ दिखाई पड़ेगी। और जब दूसरा लिखा हुआ है, माता और पिता का आदर परमात्मा की भांति करना | हिस्सा दिखाई पड़ेगा, तो पहला दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा। चाहिए। तो उस दूसरे ने कहा, तो फिर ऐसा करना, तुम मेरे पिता __एक छोटे-से कंकड़ को भी हम पूरा नहीं देख सकते, तो सत्य का सिर खोल देना, मैं तुम्हारे पिता का! तो धर्मशास्त्र की भी आज्ञा | | को हम पूरा कैसे देख सकते हैं? कंकड़ तो बड़ा है, एक छोटे-से पूरी हो जाएगी।
| रेत के कण को भी आप परा नहीं देख सकते. आधा ही देख सकते ये दुनिया में तीन सौ धर्मों ने यह हालत कर दी है। एक-दूसरे ने हैं। आधा हमेशा ही छिपा रहेगा। और जब दूसरे आधे को एक-दूसरे के परमात्मा का सिर खोल दिया है। लाशें पड़ी हैं अब | देखिएगा, तो पहला आधा आंख से तिरोहित हो जाएगा। परमात्माओं की। और वे सब इस मजे में खोल रहे हैं कि हम तुम्हारे | आज तक किसी आदमी ने कोई चीज पूरी नहीं देखी। बाकी परमात्मा का सिर खोल रहे हैं, कोई अपने का तो नहीं! आधे की हम सिर्फ कल्पना करते हैं कि होनी चाहिए। उलटाकर
हिंदुओं ने मुसलमानों को गलत कर दिया है; मुसलमानों ने | जब देखते हैं, तो मिलती है; लेकिन तब तक पहला आधा खो जाता हिंदुओं को गलत कर दिया है। साकारवादियों ने निराकारवादियों है। आदमी के देखने की क्षमता इतनी संकीर्ण है! को गलत कर दिया है; निराकारवादियों ने साकारवादियों को गलत तो हम सत्य को पूरा नहीं देख पाते हैं। सत्य के संबंध में हमारी कर दिया है। बाइबिल कुरान के खिलाफ है; कुरान वेद के खिलाफ हालत वही है, जो हाथी के पास पांच अंधों की हो गई थी। उन है; वेद तालमुद के खिलाफ है; तालमुद इसके...। सब एक-दूसरे सबने हाथी ही देखा था, लेकिन पूरा नहीं देखा था। किसी ने हाथी
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का पैर देखा था; और किसी ने हाथी का कान देखा था; और किसी | | विपरीत हैं। ने हाथी की सूंड देखी थी। और वे सब सही थे; और फिर भी सब ज्ञान से चलने वाले को शून्य होना पड़ता है। और प्रेम से चलने गलत थे।
| वाले को पूर्ण होना पड़ता है। लेकिन शून्यता और पूर्णता एक ही और जब वे गांव में वापस लौटकर आए, तो बड़ा उपद्रव और | घटना के दो नाम हैं। शून्य से ज्यादा पूर्ण कोई और चीज नहीं है। विवाद खड़ा हो गया। क्योंकि उन सबने हाथी देखा था, और सभी | और पूर्ण से ज्यादा शून्य कोई और चीज नहीं है। का दावा था कि हम हाथी देखकर आ रहे हैं। लेकिन किसी ने कहा | • हमारे लिए तकलीफ है। क्योंकि हमारे लिए शून्य का अर्थ है कि हाथी सप की भांति है और किसी ने कहा कि हाथी है मंदिर के कुछ भी नहीं। और हमारे लिए पूर्ण का अर्थ है सब कुछ। ये हमारे खंभे की भांति और बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। और निर्णय कुछ | | देखने के ढंग, दृष्टि, हम जितना समझ सकते हैं, हमारी सीमा, भी नहीं हो सकता था, क्योंकि सभी की बातें इतनी विपरीत थीं। | उसके कारण यह अड़चन है।
लेकिन वे सारी विपरीत बातें इसलिए विपरीत मालूम पड़ती थीं| | लेकिन जो शून्य हो जाता है, वह तत्क्षण पूर्ण का अनुभव कर कि उन सबने अधूरा-अधूरा देखा था। और कोई हाथी से अगर लेता है। और जो पूर्ण हो जाता है, वह भी तत्क्षण शून्य का अनुभव पूछता, तो वह कहता, यह सब मैं हूं।
कर लेता है। थोड़ा-सा फर्क होता है। वह फर्क आगे-पीछे का होता यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है। इसलिए अगर एक ने कहा | | है। जो शून्य होता हुआ चलता है, उसे पहले अनुभव शून्य का होता हो कि निराकार है वह, और किसी दूसरे ने कहा हो, साकार है वह। है। शून्य का अनुभव होते ही पूर्ण का द्वार खुल जाता है। जो पूर्ण यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है और हाथी से पूछ रहा है कि क्या | की तरफ से चलता है, उसे पहले अनुभव पूर्ण का होता है। पूर्ण हो तुम! तो हाथी कहता है, सब हूं मैं। वह जिसने कहा है कि सूप होते ही शून्य का द्वार खुल जाता है। की भांति, वह मैं ही हूं; और जिसने कहा है, खंभे की भांति, वह ऐसा समझ लें कि शून्यता और पूर्णता एक ही सिक्के के दो मैं ही हूं। उन सब की भूल इसमें नहीं है; वे जो कहते हैं, उसमें भूल | | पहलू हैं। जो सिक्के का हिस्सा आपको पहले दिखाई पड़ता है, जब नहीं है। उनकी भूल उसमें है, जो वे इनकार करते हैं। | आप उलटाएंगे, पूरा सिक्का आपके हाथ में आएगा, तो दूसरा
कोई भूल नहीं है अंधे की, अगर वह कहता है कि हाथी मैंने | हिस्सा दिखाई पड़ेगा। देखा जैसा, वह खंभे की भांति है। अगर वह इतना ही कहे कि इसीलिए ज्ञानी पहले प्रेम से बिलकुल रिक्त होता चला जाता है जितना मैंने देखा है हाथी, वह खंभे की भांति है, तो जरा भी भूल | | और अपने को शून्य करता है। प्रेम से भी शून्य करता है, क्योंकि नहीं है। लेकिन वह कहता है, हाथी खंभे की भांति है। और जब | वह भी भरता है। कोई कहता है कि हाथी खंभे की भांति नहीं है, सूप की भांति है, तो | तो महावीर ने कहा है कि सब तरह के प्रेम से शून्य; सब तरह झगड़ा शुरू हो जाता है। तब वह कहता है, हाथी सूप की भांति हो के मोह, सब तरह के राग, सबसे शून्य। इसलिए महावीर ने कह नहीं सकता, क्योंकि खंभा कैसे स्प होगा!
दिया कि ईश्वर भी नहीं है। क्योंकि उससे भी राग बन जाएगा, प्रेम हाथी से कोई भी नहीं पूछता! और हाथी से पूछने के लिए अंधे | बन जाएगा। कुछ भी नहीं है, जिससे राग बनाना है। सब संबंध समर्थ नहीं हो सकते। और अगर हाथी कह दे कि मैं सब हूं, तो तोड़ देने हैं। और प्रेम संबंध है। और अपने को बिलकुल खाली अंधे सोचेंगे, हाथी पागल है। क्योंकि अंधे तो देख नहीं सकते हैं। कर लेना है। सोचेंगे, हाथी पागल हो गया है। अन्यथा ऐसी व्यर्थ, बद्धिहीन बात जिस दिन खाली हो गए महावीर, उस दिन जो पहली घटना नहीं कहता। कोई अंधा उसकी मानेगा नहीं। सब अंधे अपनी मानते | | घटी, वह आप जानते हैं वह क्या है! वह घटना घटी प्रेम की। हैं। और जब अपनी मानते हैं, तो दूसरे के वक्तव्य को गलत करने | इसलिए महावीर से बड़ा अहिंसक खोजना मुश्किल है। क्योंकि की चेष्टा जरूरी हो जाती है। क्योंकि दूसरे का वक्तव्य स्वयं को | शून्य से चला था यह आदमी। और सब तरफ से अपने को शून्य गलत करता मालूम पड़ता है।
कर लिया था। परमात्मा से भी शून्य कर लिया था। जिस दिन पहुंचा कृष्ण का यह सूत्र कह रहा है कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो प्रेम | | मंजिल पर, उस दिन इससे बड़ा प्रेमी खोजना मुश्किल है। यह से चलते हैं। और वे भी पहुंच जाते हैं, जो ज्ञान से चलते हैं। मार्ग | | उलटी बात हो गई।
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ॐ दो मार्गः साकार और निराकार
इसलिए महावीर ने जितना जोर दिया फिर प्रेम पर—वह अहिंसा रहा हो, वहां बंधन हो ही गया होगा। उनका नाम है प्रेम के लिए। वह ज्ञानी का शब्द है प्रेम के लिए। | लेकिन उन्हें खयाल नहीं है कि यह आदमी बांधा नहीं जा क्योंकि प्रेम से डर है कि कहीं आम आदमी अपने प्रेम को न समझ | सकता, क्योंकि भीतर यह आदमी है ही नहीं। यह मौजद नहीं है। ले। इसलिए अहिंसा। अहिंसा का मतलब इतना ही है कि दूसरे को | जो मौजूद हो, वह बांधा जा सकता है। अगर आप आकाश पर मुट्ठी जरा भी दुख मत देना।
बांधेगे, तो मुट्ठी रह जाएगी, आकाश बाहर हो जाएगा। आकाश और ध्यान रहे, जो आदमी दूसरे को जरा भी दुख न दं, इसका | को अगर बांधना हो, तो हाथ खुला चाहिए। आपने बांधा कि खयाल रखता है, उस आदमी से दूसरे को सुख मिल पाता है। और आकाश बाहर गया। जो आदमी खयाल रखता है कि दूसरे को सुख दूं, वह अक्सर दुख जो शून्य की भांति है, वह बांधा नहीं जा सकता। भीतर यह देता है।
| आदमी शून्य है, लेकिन इसकी यात्रा प्रेम की है। इसलिए कृष्ण भूलकर भी दूसरे को सुख देने की कोशिश मत करना। वह | जैसा शून्य आदमी खोजना मुश्किल है। आपकी सामर्थ्य के बाहर है। आपकी सामर्थ्य इतनी है कि आप __आप दोनों तरफ से चल सकते हैं। अपनी-अपनी पात्रता, कृपा करना, और दुख मत देना। आप दुख से बच जाएं दूसरे को | क्षमता, अपना निज स्वभाव पहचानना जरूरी है। देने से, तो काफी सुख देने की आपने व्यवस्था कर दी। क्योंकि जब इसलिए कृष्ण ने कहा कि वे जो दूसरी तरफ से चलते आप कोई दुख नहीं देते, तो आप दूसरे को सुखी होने का मौका देते | हैं–निराकार, अद्वैत, निर्गुण, शून्य-वे भी मुझ पर ही पहुंच हैं। सुखी तो वह खुद ही हो सकता है। आप सुख नहीं दे सकते; | जाते हैं। सिर्फ अवसर जुटा सकते हैं।
तब सवाल यह नहीं है कि आप कौन-सा मार्ग चुनें। सवाल यह सुख देने की कोशिश मत करना किसी को भी भूलकर, नहीं तो है कि आप किस मार्ग के अनुकूल अपने को पाते हैं। आप कहां वह भी दुखी होगा और आपको भी दुखी करेगा। सुख कोई दे नहीं | | हैं? कैसे हैं? आपका व्यक्तित्व, आपका ढांचा, आपकी बनावट, सकता है।
आपके निजी झुकाव कैसे हैं? इसलिए महावीर ने नकार शब्द चुन लिया, अहिंसा। दुख भर ___ एक बड़ा खतरा है, और सभी साधकों को सामना करना पड़ता मत देना, यही तुम्हारे प्रेम की संभावना है। इससे तुम्हारा प्रेम फैल | है। और वह खतरा यह है कि अक्सर आपको अपने से विपरीत सकेगा।
| स्वभाव वाला व्यक्ति आकर्षक मालम होता है। यह खतरा है। __ महावीर शून्य होकर चले और प्रेम पर पहुंच गए। कृष्ण परे के | | इसलिए गुरुओं के पास अक्सर उनके विपरीत चेले इकट्ठे हो जाते पूरे प्रेम हैं। और उनसे शून्य आदमी खोजना मुश्किल है। सारा प्रेम | हैं। क्योंकि जो विपरीत है, वह आकर्षित करता है। जैसे पुरुष को है, लेकिन भीतर एक गहन शून्य खड़ा हुआ है। इसलिए इस प्रेम | स्त्री आकर्षित करती है; स्त्री को पुरुष आकर्षित करता है। में कहीं भी कोई बंधन निर्मित नहीं होता।
आप ध्यान रखें, यह विपरीत का आकर्षण सब जगह है। अगर इसलिए हमने कहानी कही है कि सोलह हजार प्रेयसियां, आप लोभी हैं, तो आप किसी त्यागी गुरु से आकर्षित होंगे। फौरन पत्नियां हैं उनकी। और फिर भी हमने कृष्ण को मुक्त कहा है। | आप कोई त्यागी गुरु को पकड़ लेंगे। क्यों? क्योंकि आपको लगेगा सोलह हजार प्रेम के बंधन के बीच जो आदमी मुक्त हो सके, वह | कि मैं एक पैसा नहीं छोड़ सकता और इसने सब छोड़ दिया! बस, भीतर शून्य होना चाहिए; नहीं तो मुक्त नहीं हो सकेगा। | चमत्कार है। आप इसके पैर पकड़ लेंगे। तो त्यागियों के पास
पर जैन नहीं समझ सके कृष्ण को। जैसा कि हिंदू नहीं समझ | अक्सर लोभी इकट्ठे हो जाएंगे। यह बड़ी उलटी घटना है, लेकिन सकते महावीर को। जैन नहीं समझ सके, क्योंकि जैनों को लगा, घटती है। जिसके आस-पास सोलह हजार स्त्रियां हों! एक स्त्री नरक पहुंचा | अगर आप क्रोधी हैं, तो आप किसी अक्रोधी गुरु की तलाश
देने के लिए काफी है। सोलह हजार स्त्रियां जिसके पास हों, इसके | करेंगे। आपको जरा-सा भी उसमें क्रोध दिख जाए, आपका लिए बिलकुल आखिरी नरक खोजना जरूरी है। इसलिए जैनों ने | | विश्वास खतम हो जाएगा। क्योंकि आपका अपने में तो विश्वास कृष्ण को सातवें नरक में डाला हुआ है। क्योंकि जहां इतना प्रेम घट | | है नहीं; आप अपने दुश्मन हैं; और यह आदमी भी क्रोध कर रहा
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गीता दर्शन भाग-6
है, तो आप ही जैसा है; बात खतम हो गई।
जिस दिन आपको पता चलता है कि गुरु आप जैसा है, गुरु खतम। वह आपसे विपरीत होना चाहिए । अगर आप स्त्रियों के पीछे भागते रहते हैं, तो गुरु को बिलकुल स्त्री पास भी नहीं फड़कने देनी चाहिए; उसके शिष्य चिल्लाते रहने चाहिए कि छू मत लेना, कोई स्त्री छू न ले। तब आपको जंचेगा कि हां, यह गुरु ठीक है।
सब अपने दुश्मन हैं, इसलिए अपने से विपरीत को चुन लेते हैं। फिर बड़ा खतरा है। क्योंकि अपने से विपरीत को चुन तो लेते हैं आप, आकर्षित तो होते हैं, लेकिन उस मार्ग पर आप चल नहीं सकते हैं। क्योंकि जो आपके विपरीत है, वह आप हो नहीं सकते। इसलिए अक्सर चेले कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
साधक को पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है? मैं किस ढंग का हूं? मेरा ढंग ही मेरा मार्ग बनेगा |
तो बेहतर तो यह है कि अपनी स्थिति को ठीक से समझकर और यात्रा पर चलना चाहिए। गुरु को समझकर यात्रा पर चलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने को समझकर गुरु खोजना चाहिए। गुरु खोजकर पीछा नहीं करना चाहिए। जो अपने को समझकर गुरु खोज लेता है, मार्ग खोज लेता है, जो अपने स्वधर्म को पहचान लेता है...।
समझ लें कि आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता । बहुत लोग हैं, जिनको अनुभव नहीं होता। मगर सबको यह खयाल रहता है कि मैं प्रेम करता हूं। तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। अगर आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता है, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है। अगर प्रेम करने वाले आपको पागल मालूम पड़ते हैं, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है।
कभी आपने सोचा कि अगर मीरा आपको बाजार में नाचती हुई मिल जाए, तो आपके मन पर क्या छाप पड़ेगी?
इसको ऐसा सोचिए कि अगर आप बाजार में नाच रहे हों कृष्ण का नाम लेकर, तो आपको आनंद आएगा या आपको फिक्र लगेगी कि कोई अब पुलिस में खबर करता है! लोग क्या सोच रहे होंगे ? लोक-लाज, मीरा ने कहा है, छोड़ी तेरे लिए। वह लोक-लाज छोड़ सकेंगे आप?
प्रेम का कोई अनुभव आपको अगर हुआ हो और वह अनुभव आपको इतना कीमती मालूम पड़ता हो कि सब खोया जा सकता है, तो ही भक्ति का मार्ग आपके लिए है।
और कुनकुने भक्त होने से न होना अच्छा। ल्यूक वार्म होने से
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कुछ नहीं होता दुनिया में। उबलना चाहिए, तो ही भाप बनता है पानी । और जब तक आपकी भक्ति भी उबलती हुई न हो, कुनकुनी हो, तब तक सिर्फ बुखार मालूम पड़ेगा, कोई फायदा नहीं होगा। | बुखार से तो न- बुखार अच्छा । अपना नार्मल टेम्प्रेचर ठीक | क्योंकि बुखार गलत चीज है; उससे परिवर्तन भी नहीं होता, और उपद्रव भी हो जाता है।
और ध्यान रहे, परिवर्तन हमेशा छोर पर होता है। जब पानी उबलता है सौ डिग्री पर, तब भाप बनता है। और जब प्रेम भी | उबलता है सौ डिग्री पर, जब बिलकुल दीवाना हो जाता है, तो ही मार्ग खुलता है। उससे पहले नहीं।
अगर वह आपका झुकाव न हो, तो उस झंझट में पड़ना ही मत । तो फिर बेहतर है कि आप प्रेम का खयाल न करके, ध्यान का खयाल करना । फिर किसी परमात्मा से अपने को भरना है, इसकी फिक्र छोड़ | देना। फिर तो सब चीजों से अपने को खाली कर लेना है, इसकी | आप चिंता करना । वही आपके लिए उचित होगा। फिर एक-एक विचार को धीरे-धीरे भीतर से बाहर फेंकना। और भीतर साक्षी - भाव को जन्माना। और एक ही ध्यान रह जाए कि उस क्षण को मैं पा लूं, जब मेरे भीतर कोई चिंतन की धारा न हो, कोई विचार न हो।
जब मेरे भीतर निर्विचार हो जाएगा, तो मेरा निराकार से मिलन हो जाएगा । और जब मेरे भीतर प्रेम ही प्रेम रह जाएगा - उन्मत्त प्रेम, विक्षिप्त प्रेम, उबलता हुआ प्रेम-तब मेरा सगुण से मिलन हो जाएगा।
अपना निज रुझान खोजकर जो चलता है, और उसको उसकी पूर्णता तक पहुंचा देता है...। आप ही हैं द्वार; आप ही हैं मार्ग; आप में ही छिपी है मंजिल । थोड़ी समझ अपने प्रति लगाएं और थोड़ा अपना निरीक्षण करें और अपने को पहचानें, तो जो बहुत कठिन दिखाई पड़ता है, वह उतना ही सरल हो जाता है।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई उठे नहीं । कीर्तन में भाव से भाग लें और फिर जाएं।
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अध्याय 12 तीसरा प्रवचन
पाप और प्रार्थना
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । | तरफ के आखिरी छोर को छू लेता है, तो दाईं तरफ घूमना शुरू अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवमिरवाप्यते ।। ५।। हो जाता है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । ___ यह युग बुद्धि का युग है, इतना ही काफी नहीं है जानना। यह
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।६।। युग बुद्धि से पीड़ित युग भी है। इस युग की ऊंचाइयां भी बुद्धि की किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त | हैं, इस युग की परेशानियां भी बुद्धि की हैं। इस युग की पीड़ा भी
वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात परिश्रम विशेष है, । | बुद्धि है। क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक यह सारा आज का चिंतनशील मस्तिष्क परेशान है, विक्षिप्त है। प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान रहता | और जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है, वैसे-वैसे हमें पागलखाने बढ़ाने है, तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति पड़ते हैं। जितना सभ्य मल्क हो, उसकी जांच का एक सीधा उपाय होनी कठिन है।
है कि वहां कितने ज्यादा लोग पागल हो रहे हैं! और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में बुद्धि पर ज्यादा जोर पड़ता है, तो तनाव सघन हो जाता है। हृदय अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही तैलधारा के | हलका करता है, बुद्धि भारी कर जाती है। हृदय एक खेल है, बुद्धि सदृश अनन्य भक्ति-योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते | एक तनाव है। है, उनका में शीघ्र ही उद्धार करता हूं।
तो बुद्धि की इतनी पीड़ा के कारण और बुद्धि का इतना संताप | जो पैदा हुआ है, उसके कारण, दूसरी तरफ घूमने की संभावना पैदा
हो गई है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि आज के हम बुद्धि से परेशान हैं। इस परेशानी के कारण हम भाव की बौद्धिक युग में भक्ति, भाव-साधना का मार्ग कैसे | | तरफ उन्मुख हो सकते हैं। और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि शीघ्र उपयुक्त हो सकता है? श्रद्धा के अभाव में | ही पृथ्वी पर वह समय आएगा, जब पहली दफा मनुष्य भाव में भक्ति-साधना में प्रवेश कैसे संभव है?
| इतना गहरा उतरेगा, जितना इसके पहले कभी भी नहीं उतरा था।
गांव का एक ग्रामीण है, तो गांव का ग्रामीण भावपूर्ण होता है,
| लेकिन अगर कभी कोई शहर का बुद्धिमान भाव से भर जाए, तो + सा प्रश्न बहुतों के मन में उठता है। युग तो बुद्धि का | गांव का ग्रामीण उसके भाव का मुकाबला नहीं कर सकता है। ५ है, तो भाव की तरफ गति कैसे हो सके? दोनों में | क्योंकि जिसने बुद्धि के शिखर को जाना हो और जब उस शिखर
विपरीतता है; दोनों उलटे छोर मालूम पड़ते हैं। से वह भाव की खाई में गिरता है, तो उस खाई की गहराई उतनी ही हमारा सारा शिक्षण, सारा
होती है. जितनी शिखर की ऊंचाई थी। जितनी ऊंचाई से आप गिरते कोई शिक्षा है, न कोई संस्कार है। भाव के विकसित होने का कोई हैं, उतनी ही गहराई में गिरते हैं। अगर आप समतल जमीन पर उपाय भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी जीवन की व्यवस्था बुद्धि से गिरते हैं, तो आप कहीं गिरते ही नहीं। चलती मालूम पड़ती है। तो इस बुद्धि के शिखर पर बैठे हुए युग तो गांव के ग्रामीण की जो भाव-दशा है, वह बहुत गहरी नहीं में, कैसे भाव की तरफ गति होगी? कैसे भक्ति की तरफ रास्ता | । हो सकती है। लेकिन शहर के बुद्धिमान की, सुशिक्षित की, खुलेगा?
| सुसंस्कृत की जब भाव-दशा पैदा होती है, तो वह उतनी ही गहरी जीवन का एक बहुत अनूठा नियम है, वह आप समझ लें। वह | होती है-उतनी ही विपरीत गहरी होती है-जितने शिखर पर वह नियम है कि जब भी हम एक अति पर चले जाते हैं, तो दूसरी अति | खड़ा था। . पर जाना आसान हो जाता है। जब भी हम एक छोर पर पहुंच जाते ___ मनुष्यता बुद्धि के शिखर को छू रही है। और बुद्धि के शिखर हैं, तो दूसरे छोर पर पहुंचना आसान हो जाता है, घड़ी के पेंडुलम | | को छूने से जो-जो आशाएं हमने बांधी थीं, वे सभी असफल हो की तरह। घड़ी का पेंडुलम घूमता है बाईं तरफ, और जब बाईं | गई हैं। जो भी हमने सोचा था, मिलेगा बुद्धि से, वह नहीं मिला।
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ॐ पाप और प्रार्थना
करीब आ गया है।
और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है।
| तरफ उतर जाए। निश्चित ही, इस आदमी की भक्ति गहरी होगी। बर्दैड रसेल जैसे बुद्धिमान आदमी ने कहा है-और इस सदी __ ऐसा समझें कि एक गरीब आदमी संन्यासी हो जाए, सब छोड़ में जिनकी बुद्धि पर हम भरोसा कर सकें, उन थोड़े से लोगों में दे। लेकिन सब था क्या उसके पास छोड़ने को! उसके त्याग की एक है रसेल। रसेल ने कहा है कि पहली बार आदिवासियों को कितनी गहराई होगी? उसके त्याग की उतनी ही गहराई होगी, एक जंगल में नाचते देखकर मुझे लगा, अगर यह नाच मैं भी नाच जितना उसने छोड़ा है। उससे ज्यादा नहीं हो सकती। उसके पास सकं. तो मैं अपनी सारी बद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हैं। कुछ था ही नहीं। एक सम्राट संन्यासी हो जाए। इस सम्राट के त्याग अगर यही उन्मुक्त, चांद की रात में यही उन्मुक्त गीत मैं भी गा | की गहराई उतनी ही होगी, जितना इसने छोड़ा है। सर्वं, तो महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भला न हो, ध्यान रहे, जब बुद्ध और महावीर सब छोड़कर सड़क पर करना बहुत कठिन है।
| भिखारी की तरह खड़े हो जाते हैं, तब आप यह मत समझना कि ये बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना | | वैसे ही भिखारी हैं, जैसे दूसरे भिखारी हैं। इनके भिखारीपन में एक जटिल है। लेकिन पश्चिम में, जो निश्चित ही हम से बुद्धि की दौड़ | | तरह की शान है। और इनके भिखारीपन में एक अमीरी है। और में आगे हैं, बुद्धि की पीड़ा बहुत स्पष्ट हो गई है। हम स्कूल, इनके भिखारीपन में छिपा हुआ सम्राट मौजूद है। कोई भिखारी कालेज, युनिवर्सिटी बना रहे हैं, पश्चिम में उनके उजड़ने का वक्त | इनका मुकाबला नहीं कर सकता। क्योंकि दूसरा भिखारी फिर भी
भिखारी ही है। उसे सम्राट होने का कोई अनुभव नहीं है। इसलिए आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, | उसके संन्यास में कोई गहराई नहीं हो सकती। पढ़कर क्या होगा? अगर मुझे एम.ए. या डाक्टरेट की उपाधि मिल | उसका संन्यास हो सकता है एक सांत्वना हो, अपने को गई, तो क्या होगा? मुझे क्या मिल जाएगा? और पश्चिम के | | समझाना हो। उसने शायद इसलिए सब छोड़ दिया हो कि पहली पिताओं के पास, गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। क्योंकि बच्चे जब | | तो बात कुछ था भी नहीं, पकड़ने योग्य भी कुछ नहीं था। और फिर अपने बाप से पूछते हैं कि आप पढ़-लिख गए, आपको जीवन में | | दूसरी बात, सोचा हो कि अंगूर खट्टे हैं। जो नहीं मिलता, वह पाने क्या मिल गया है जिसकी वजह से हम भी इस पढ़ने के चक्र से | | योग्य भी नहीं है। शायद उसने अपने को समझा लिया हो कि मैं गुजारे जाएं? आपने क्या पा लिया है?
त्याग करके परमात्मा को पाने जा रहा हूं। कुछ उसके पास था नहीं। आज पश्चिम में अगर हिप्पी, और बीटनिक, और युवकों का उसके छोड़ने का कोई मूल्य नहीं है। बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो लेकिन जब कोई बुद्ध या महावीर सब छोड़कर जमीन पर उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो-जो आशाएं दी थीं, भिखारी की तरह खड़ा हो जाता है, तो इस छोड़ने का राज और है। . वे पूरी नहीं हुईं। और बुद्धि का भ्रम-जाल टूट गया। एक बुद्ध की शान और है। यह बुद्ध कितना ही बड़ा भिक्षापात्र अपने डिसइलूजनमेंट, सब भ्रम टूट गए हैं।
हाथ में ले लें, इनकी आंखों में सम्राट मौजूद रहेगा। और जब ये __ भ्रम टूटते ही तब हैं, जब कोई चीज उपलब्ध होती है; उसके | बुद्ध एक वृक्ष के नीचे सो जाएंगे—इन्होंने महल जाने हैं और यह पहले नहीं टूटते। गरीब आदमी को भ्रम बना ही रहता है कि धन | भी जान लिया है कि उन महलों में कोई सुख न था—तो इनकी नींद से सुख मिलता होगा। धन से सुख नहीं मिलता, इसके लिए धनी | | वृक्ष के नीचे और है। और एक भिखारी जब वृक्ष के नीचे सोता है, होना जरूरी है। इसके पहले यह अनुभव में नहीं आता। आएगा भी | | जिसने महल नहीं जाने हैं, वह भी कहता हो कि महलों में कुछ नहीं कैसे? अनुभव का अर्थ ही यह होता है कि जो हमारे पास है, उसका है, लेकिन उसकी नींद की गुणवत्ता और होगी। ये दोनों अलग तरह ही हम अनुभव कर सकते हैं। जो हमारे पास नहीं है, उसकी हम | | के लोग हैं। आशाएं और सपने बांध सकते हैं।
हम जिस अनुभव से गुजर जाते हैं, उसके विपरीत जब हम जाते जमीन पर पहली दफा इन पांच हजार वर्षों में, बुद्धि ने पूरा हैं, तो उसकी गहराई उतनी ही बढ़ जाती है। इसलिए गरीब का जो शिखर छुआ है। बुद्धि का भ्रम टूट गया है। और इस भ्रम के टूटने | आनंद है, वह केवल अमीर को मिलता है। गरीब होने का जो मजा के कारण इस क्रांति की संभावना है कि मनुष्य पहली दफा भक्ति की है, वह केवल अमीर को मिलता है। और जो अमीर अभी अमीरी
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गीता दर्शन भाग-60
से ऊबा नहीं है, उसे जिंदगी के सब से बड़े मजे की अभी कमी है। | भिखमंगा ही रहता है। सम्राट अगर भिखारी होने का भी सपना वह है अमीरी के बाद गरीबी का मजा। और जो आदमी बुद्धि से | देखे, तो भी सम्राट ही रहता है। अनुभव खोते नहीं। जो भी अनुभव अभी ऊबा नहीं है, समझ लेना कि अभी बुद्धि के शिखर पर नहीं | आपको मिल गया है, वह आपके जीवन का अंग हो गया। पहुंचा। जिस दिन शिखर पर पहुंचेगा, उस दिन ऊबकर छोड़ देगा। तो जब कोई बुद्धि के शिखर पर पहुंच जाता है...। थोड़ा सोचें। क्योंकि जो भी आशाएं बंधी थीं, वे इंद्रधनुष साबित होती हैं। दूर अगर कभी आइंस्टीन भक्त हो जाए, तो आपके साधारण भक्त से दिखाई पड़ती हैं, पास पहुंचकर खो जाती हैं।
टिकेंगे नहीं। ऐसा हुआ है। अगर आप अब भी बुद्धि को पकड़े हैं, तो समझना कि काफी | चैतन्य महाप्रभु आइंस्टीन जैसी बुद्धि के आदमी थे। बंगाल में बुद्धिमान नहीं हैं। क्योंकि बड़े बुद्धिमान बुद्धि को छोड़ दिए हैं। बड़े | | कोई मुकाबला न था उनकी प्रतिभा का। उनके तर्क के सामने कोई धनियों ने धन छोड़ दिया है। बड़े बुद्धिमानों ने बुद्धि छोड़ दी है। | टिकता न था। उनसे जूझने की हिम्मत किसी की न थी। उनके जिन्होंने संसार का अनुभव ठीक से लिया है, वे मोक्ष की तरफ चल शिक्षक भी उनसे भयभीत होते थे। दूर-दूर तक खबर पहुंच गई थी
कि उनकी बुद्धि का कोई मुकाबला नहीं है। और फिर जब यह __ अगर आप अभी भी संसार में चल रहे हैं, तो समझना कि अभी | चैतन्य इस बुद्धि को छोड़कर और झांझ-मजीरा लेकर रास्तों पर संसार का अनुभव नहीं मिला। और अगर अभी भी बुद्धि को पकड़े नाचने लगा, तो फिर चैतन्य महाप्रभु का मुकाबला भी नहीं हैं और छोटे-छोटे तर्क लगाते रहते हैं, तो समझना कि अभी बुद्धि | है-इस नृत्य, और इस गीत, और इस प्रार्थना, और इस भाव, के शिखर पर नहीं पहुंचे हैं। अभी आपको आशा है। और अगर और इस भक्ति का। अभी भी रुपए इकट्ठे करने में लगे हैं, तो उसका मतलब है कि अभी न होने का कारण है। नाचे बहुत लोग हैं। गीत बहुत लोगों ने रुपए से आपकी पहचान नहीं है। अभी आप गरीब हैं; अभी अमीर गाए हैं। प्रार्थना बहुत लोगों ने की है। भाव बहुत लोगों ने किया है, नहीं हुए हैं। अमीर तो जब भी कोई आदमी होता है, रुपए को छोड़ | लेकिन चैतन्य की सीमा को छूना मुश्किल है। क्योंकि चैतन्य का देता है। क्योंकि अमीर का भ्रम भंग हो जाता है। और जब तक भ्रम | | एक और अनुभव भी है, वे बुद्धि के आखिरी शिखर से उतरकर भंग न हो, तब तक समझना कि गरीब है।
लौटे हैं। उन्होंने ऊंचाइयां देखी हैं। उनकी नीचाइयों में भी ऊंचाइयां गरीब सोच भी नहीं सकता कि अमीरी के बाद आने वाली गरीबी छिपी रहेंगी। क्या होगी। गरीब तो अमीरी के संबंध में भी जो सोचता है, वह भी तो इस युग के लिए, यह ध्यान में रख लेना जरूरी है कि यह गरीब की ही धारणा होती है।
युग एक शिखर अनुभव के करीब पहुंच रहा है, जहां बुद्धि व्यर्थ __ मैंने सुना है, एक भिखमंगा अपनी पत्नी से कह रहा था कि अगर हो जाएगी। और जब बुद्धि व्यर्थ होती है, तो जीवन के लिए एक मैं राकफेलर होता, तो राकफेलर से भी ज्यादा धनी होता। उसकी | ही आयाम खुला रह जाता है, वह है भाव का, वह है हृदय का, पत्नी ने कहा, हैरानी की बात है! क्या तुम्हारा मतलब है? भिखमंगा वह है प्रेम का, वह है भक्ति का। कह रहा है कि अगर मैं राकफेलर होता, तो राकफेलर से भी ज्यादा आदमी अब पुराने अर्थों में भावपूर्ण नहीं हो सकता। अब तो नए धनी होता। उसकी पत्नी ने कहा, हैरानी है! क्या मतलब है तुम्हारा अर्थों में भावपूर्ण होगा। पुराना आदमी सरलता से भावपूर्ण था। कि अगर तुम राकफेलर होते, तो राकफेलर से भी ज्यादा धनी होते? | उसकी भावना में सरलता थी, गहराई नहीं थी। नया आदमी जब
उस भिखमंगे ने कहा कि तू समझी नहीं। राकफेलर अगर में भावपूर्ण होता है, आज का आदमी जब भावपूर्ण होता है, तो उसके होता, तो किनारे-किनारे भीख मांगने का धंधा भी जारी रखता। वह | भाव में सरलता नहीं होती. गहराई होती है। और गहराई बडी कीमत जो अतिरिक्त कमाई होती, वह राकफेलर से ज्यादा होती! साइड की चीज है। बाइ साइड वह मैं अपना धंधा भीख मांगने का भी करता रहता। तो ___ इसे हम ऐसा समझें, एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा सरल राकफेलर से निश्चित मैं ज्यादा धनी होता, क्योंकि जो मैं | | होता है, लेकिन गहरा नहीं होता। गहरा हो नहीं सकता। क्योंकि भिखमंगेपन से कमाता, वह राकफेलर के पास नहीं है। गहराई तो आती है अनुभव से। गहराई तो आती है हजार दरवाजों
अगर भिखमंगा राकफेलर होने का भी सपना देखे, तो भी पर भटकने से। गहराई तो आती है हजारों भूल करने से। गहराई तो
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पाप और प्रार्थना
आती है प्रौढ़ता से, अनुभव से। सार जब बच जाता है सब अनुभव गहराई होगी, वह संत की गहराई है। का, तो गहराई आती है।
विपरीत का अनुभव उपयोगी है। बच्चे को जवान होना जरूरी ___एक बूढ़ा आदमी सरल नहीं हो सकता, लेकिन गहरा हो सकता | है। जवान का अर्थ है, वासना। सभी बच्चे जवान हो जाते हैं, है। एक बच्चा गहरा नहीं हो सकता, सरल हो सकता है। और जब | लेकिन सभी जवान बूढ़े नहीं हो पाते हैं! शरीर बूढ़ा हो जाता है, कोई बूढ़ा आदमी अपनी गहराई के साथ सरल हो जाता है, तो संत चित्त बूढ़ा नहीं हो पाता। और जिसका चित्त बूढ़ा होता है, वह संत का जन्म होता है।
हो गया। चित्त के बूढ़े होने का अर्थ यह है कि जवानी में जो तूफान इसलिए जीसस ने कहा है कि वे लोग मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश उठे थे, वे समझ लिए और पाया कि व्यर्थ हैं। कर सकेंगे, जो बच्चों की भांति भोले हैं।
बूढ़े भी कहते हैं कि सब बेकार है। कहते हैं; ऐसा उन्होंने पाया लेकिन ध्यान रहे. जीसस ने यह नहीं कहा है कि बच्चे मेरे स्वर्ग नहीं है। अगर कोई चमत्कारी उनसे कहे कि हम तम्हें फिर जवान के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। बच्चे नहीं; जो बच्चों की भांति भोले बनाए देते हैं, तो वे अभी तैयार हो जाएंगे। खो गया है, हाथ से हैं। इसका मतलब साफ है कि पहली तो बात बच्चे नहीं हैं। तभी ताकत खो गई है, वासना नहीं खो गई है। मरते दम तक वासना तो कहा कि बच्चों की भांति। बच्चे नहीं हैं; जो बूढ़े हैं सब अर्थों पीछा करती है। में, लेकिन फिर भी बच्चों की भांति भोले हैं, वे ही स्वर्ग के राज्य सब बच्चे जवान हो जाते हैं, लेकिन सभी जवान बूढ़े नहीं हो में प्रवेश कर सकेंगे।
पाते हैं। बूढ़े तो बहुत थोड़े से लोग होते हैं। बूढ़े का मतलब है, एक बच्चा सरल है, अज्ञानी है। अभी उसकी जिंदगी में | | जिनके लिए जवानी अनुभव से व्यर्थ हो गई। और जो बूढ़े होकर जटिलता नहीं है, लेकिन जटिलता आएगी। अभी जटिलता आने | फिर वापस उस सरलता को पहुंच गए, जिस सरलता को लेकर का वक्त करीब आ रहा है। जल्दी ही वह भटकेगा, उलझेगा, | पैदा हुए थे। लेकिन इस सरलता में एक गुणात्मक, क्वालिटेटिव वासना से भरेगा। जमानेभर की आकांक्षाएं उसे घेर लेंगी। उसकी | | फर्क है। इस सरलता के नीचे जो तूफान छिपा था, ज्वालामुखी, वह सरलता के नीचे ज्वालामुखी छिपा है।
नहीं है। इस सरलता को भ्रष्ट नहीं किया जा सकता। यह सरलता ___ गांव का आदमी सरल दिखाई पड़ता है। वह भी बच्चे की तरह | बोधपूर्वक है। सरल है। उसके भीतर वह सारा ज्वालामुखी छिपा है, जो शहर के बच्चे की सरलता भ्रष्ट की जा सकती है। भ्रष्ट होगी ही; होनी आदमी में प्रकट हो गया है। उसे शहर ले आओ, वह शहर के चाहिए। नहीं तो उसके जीवन में गहराई नहीं आएगी। उसे भ्रष्ट भी आदमी जैसा ही जटिल हो जाएगा। और यह भी हो सकता है, होना पड़ेगा और उसे भ्रष्टता के ऊपर भी उठना पड़ेगा। जीवन एक ज्यादा जटिल हो जाए। जब गांव के लोग चालाक होते हैं, तो शहर शिक्षण है। उसमें भूल करके हम सीखते हैं। के लोगों से ज्यादा चालाक हो जाते हैं। क्योंकि उनकी जमीन बहुत बुद्धि की भूल हमने कर ली है इस युग में। अब अगर हम सीख दिन से बिना उपयोग की पड़ी है। उसमें चालाकी के बीज पड़ जाते | जाएं, तो हम हृदय की तरफ वापस लौट सकते हैं। हैं, तो जो फसल आती है, वह आप में नहीं आ सकती। आपकी पृथ्वी पर भक्ति के एक बड़े युग के आने की संभावना है। उलटा जमीन काफी फसल ला चुकी है चालाकी की।
लगेगा, क्योंकि हमें तो लग रहा है कि सब नष्ट हुआ जा रहा है। गांव का आदमी चालाक हो जाए, तो बहुत चालाक हो जाता है। लेकिन तूफान के बाद ही शांति आती है। और यह जो नष्ट होना गांव का आदमी सरल है, लेकिन उसकी सरलता की कोई कीमत | दिखाई पड़ रहा है, यह तूफान का आखिरी चरण है। और इसके नहीं है। उसकी सरलता बच्चे की सरलता है। उसके भीतर | पीछे एक गहन सरलता उत्पन्न हो सकती है। ज्वालामुखी छिपा है। वह कभी भी भ्रष्ट होगा। शायद उसे भ्रष्ट मगर आप, सारी दुनिया कब सरल होगी, इसकी प्रतीक्षा में मत होना ही पड़ेगा। क्योंकि इस जगत में भ्रष्ट हुए बिना कोई अनुभव | | रहें। आप होना चाहें, तो आज ही हो सकते हैं। और सारी दुनिया नहीं है। उसे इस जगत से गुजरना ही पड़ेगा। और अगर इस जगत | | होगी या नहीं होगी, यह प्रयोजन भी नहीं है। दुनिया हो भी जाएगी से गुजरकर यह जगत उसे व्यर्थ हो जाए और वह वापस गांव लौट | | और आप नहीं हुए, तो उसका कोई अर्थ नहीं है। आप हो सकते हैं जाए, और वापस लौट जाए उसी ग्राम्य-सरलता में, तो उसकी जो अभी। लेकिन शायद आप भी अभी बुद्धि से ऊबे नहीं हैं। अभी
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
शायद आपको भी यह साफ नहीं हुआ है कि बुद्धि का जाल कुछ कोशिश भी मत करना। उससे कोई संबंध नहीं है। विज्ञान की कोई अर्थ नहीं रखता है।
| उलझन हो, बुद्धि हल कर देगी। टेक्नालाजी का कोई सवाल हो, आदमी की बुद्धि कितनी छोटी है! इस छोटी-सी बुद्धि से हम | बुद्धि हल कर देगी। जो भी मृत है, पदार्थ है, उसकी उलझन बुद्धि क्या हल कर रहे हैं? इस जीवन की विराट पहेली को! कितने दर्शन हल कर देती है। बुद्धि का उपयोग यही है। हैं, कितने शास्त्र हैं, कुछ भी हल नहीं हुआ। बुद्धि अब तक एक लेकिन जहां भी जीवित है, और जहां भी जीवन की धारा है, नतीजे पर नहीं पहुंची है। अभी तक जीवन की पहेली पहेली की और जहां अमृत का प्रश्न है, वहीं बुद्धि थक जाती है और व्यर्थ पहेली बनी हुई है। अभी तक कोई जवाब नहीं है।
हो जाती है। हजारों साल की निरंतर हजारों मस्तिष्कों की मेहनत के बाद भी, | ___ सुना है मैंने कि एक बहुत बड़े सूफी फकीर हसन के पास एक जीवन क्या है, इसका कोई उत्तर नहीं है। मनुष्य इतने दिन से | युवक आया। वह बहुत कुशल तार्किक था, पंडित था, शास्त्रों का कोशिश करके भी बुद्धि से कुछ पा नहीं सका है। जीवन के सभी | ज्ञाता था। जल्दी ही उसकी खबर पहुंच गई और हसन के शिष्यों में प्रश्न अभी भी प्रश्न हैं। कुछ हल नहीं हुआ।
| वह सब से ज्यादा प्रसिद्ध हो गया। दूर-दूर से लोग उससे पूछने धर्म या भक्ति केवल इसी बात की पहचान है कि बुद्धि से एक | आने लगे। यहां तक हालत आ गई कि लोग हसन की भी कम भी उत्तर मिल नहीं सका। शायद बुद्धि से उत्तर मिल ही नहीं सकता। फिक्र करते और उसके शिष्य की ज्यादा फिक्र करते। क्योंकि हसन हम गलत दिशा से खोज रहे हैं। लेकिन यह स्मरण आ जाए, यह तो अक्सर चप रहता। और उसका शिष्य बड़ा कशल था सवालों खयाल में आ जाए, तो आप दूसरी दिशा में खोज शुरू कर दें। । | को सुलझाने में।
आपके पास बुद्धि है। अच्छा है होना; क्योंकि अगर बुद्धि न हो, | । एक दिन एक आदमी ने हसन से आकर कहा, इतना अदभुत तो यह भी समझ में आना मुश्किल है कि बुद्धि से कुछ मिल नहीं | | शिष्य है तुम्हारा! इतना वह जानता है कि हमने तो दूसरा ऐसा कोई सकता। इतना उसका उपयोग है।
आदमी नहीं देखा। धन्यभागी हो तुम ऐसे शिष्य को पाकर। हसन बायजीद ने कहा है कि शास्त्रों को पढ़कर एक ही बात समझ में | | ने कहा कि मैं उसके लिए रोता है, क्योंकि वह केवल जानता है। आई कि शास्त्रों से सत्य नहीं मिलेगा। लेकिन काफी बड़ी बात | | और जानने में इतना समय लगा रहा है कि भावना कब कर पाएगा? समझ में आई।
भाव कब कर पाएगा? जानने में ही जिंदगी उसकी खोई जा रही है, झेन फकीर रिझाई ने कहा है कि सोच-सोचकर इतना ही पाया | तो भाव कब करेगा? मैं उसके लिए रोता हूं। उसको अवसर भी कि सोचना फिजूल है। लेकिन बहुत पाया। इतना भी मिल जाए| | नहीं है, समय भी नहीं है। वह बुद्धि से ही लगा हुआ है। बुद्धि से, तो बुद्धि का बड़ा दान है। लेकिन इसके लिए भी | बुद्धि से सब कुछ मिल जाए, जीवन का स्रोत नहीं मिलता। वह साहसपूर्वक बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।
| वहां नहीं है। बुद्धि एक यूटिलिटी है; एक उपयोगिता है; एक यंत्र हम तो बुद्धि का प्रयोग भी नहीं करते हैं। इसलिए हम बुद्धिमान | है, जिसकी जरूरत है। लेकिन वह आप नहीं हैं। जैसे हाथ है, ऐसे बने रहते हैं। अगर हम बद्धि का प्रयोग कर लें. तो आज नहीं कल | बुद्धि एक आपका यंत्र है। उसका उपयोग करें, लेकिन उसके साथ हम उस जगह पहुंच जाएंगे, जहां खाई आ जाती है और रास्ता | | एक मत हो जाएं। उसका उपयोग करें और एक तरफ रख दें। समाप्त हो जाता है। वहां से लौटना शुरू हो जाता है।
लेकिन हम उससे एक हो गए हैं। सभी बुद्धिमान बुद्धि के विपरीत हो गए हैं। चाहे बुद्ध हों, और आप चलते हैं, तो पैर का उपयोग कर लेते हैं। फिर बैठते हैं, चाहे जीसस, चाहे कृष्ण, सभी बुद्धिमानों ने एक बात एक स्वर से | | तब आप पैर नहीं चलाते रहते हैं। अगर चलाएं, तो लोग पागल कही है कि बुद्धि से जीवन का रहस्य हल नहीं होगा। जीवन का | | समझेंगे। पैर चलने के लिए है, बैठकर चलाने के लिए नहीं है। रहस्य हृदय से हल होगा।
बुद्धि, जब पदार्थ के जगत में कोई उलझन हो, उसे सुलझाने के हां, बुद्धि से संसार की उलझनें हल हो सकती हैं। क्योंकि संसार | लिए है। लेकिन आप बैठे हैं, तो भी बुद्धि चल रही है। नहीं है कोई की सब उलझनें मृत हैं। गणित का कोई सवाल हो, बुद्धि हल कर | | सवाल, तो भी बुद्धि चल रही है! देगी। और ध्यान रखना, गणित का सवाल हृदय से हल करने की आज एक मित्र मेरे पास आए थे। वे कह रहे थे, कोई तकलीफ
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• पाप और प्रार्थना
नहीं है, कोई अड़चन नहीं है, सब सुविधा है, लेकिन बस सिर । प्रार्थनापूर्वक जो पाप से मुक्त होता है, वही मुक्त होता है। बिना चलता रहता है।
| प्रार्थना के पाप से मुक्त होने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। कि कोई तकलीफ नहीं है; कोई उलझन नहीं है; कोई समस्या नहीं | प्रार्थना की क्या जरूरत? हम अपने को खुद ही पवित्र कर लेंगे। है; फिर सिर क्यों चलता रहता है ? उसका अर्थ हुआ कि बुद्धि के | किसी परमात्मा के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। हम खुद ही अपने साथ आप एक हो गए हैं। अपने को अलग नहीं कर पा रहे हैं। । | को ठीक कर लेंगे। चोरी है, तो चोरी छोड़ देंगे। बेईमानी है, तो
जो आदमी बुद्धि से अपने को अलग कर लेगा, वही भाव में बेईमानी छोड़ देंगे; ईमानदार हो जाएंगे। प्रवेश कर पाता है। और बुद्धि ने अब इतनी पीड़ा दे दी है कि हम | लेकिन ध्यान रहे, कभी-कभी पापी भी परमात्मा को पहंच जाते अपने को अलग कर पाएंगे; करना पड़ेगा। बुद्धि ने इतना दंश दे | | हैं, इस तरह के पुण्यात्मा कभी नहीं पहुंच पाते। क्योंकि जो कहता दिया है, बुद्धि के कांटे इतने चुभ गए हैं छाती पर कि अब ज्यादा | | है कि मैं बेईमानी छोड़ दूंगा, वह बेईमानी छोड़ भी सकता है, दिन बुद्धि के साथ नहीं चला जा सकता है। इसलिए मैं कहता हूं | | लेकिन उसकी ईमानदारी के भीतर भी जो अहंकार होगा, वही कि इस बुद्धि के युग में भी श्रद्धा की बड़ी क्रांति की संभावना है। | उसका पाप हो जाएगा।
विनम्रता, ऐसी विनम्रता जो पुण्य का भी गर्व नहीं करती, प्रार्थना
के बिना नहीं आएगी। एक मित्र ने पूछा है कि पाप और पुण्य का भेद क्या और फिर आप अगर सच में ही इतने अलग होते जगत से, तो है? और जब तक मन पाप से भरा है, तब तक श्रद्धा, आप खुद ही अपना रूपांतरण कर लेते। आप इस जगत के एक भक्ति, भाव कैसे होगा? प्रार्थना कैसे होगी, जब तक हिस्से हैं। यह पूरा जगत आपसे जुड़ा है। यहां जो भी हो रहा है, मन पाप से भरा है? तो पहले मन पुण्य से भरे, फिर | उसमें आप सम्मिलित हैं। आप अलग-थलग नहीं हैं कि आप प्रार्थना होगी!
अपने को पुण्यात्मा कर लेंगे। इस समग्र अस्तित्व का सहारा मांगना पड़ेगा।
__ आदमी बहुत कमजोर भी है, असहाय भी है। वह जो भी करता ++ क लगता है। समझ में आता है। फिर भी ठीक नहीं | | है, वह सब असफल हो जाता है। अपने को अलग मानकर आदमी 1 है। और नासमझी से भरी हुई बात है।
जो भी करता है, वह सब टूट जाता है। जब तक इस पूरे के साथ - ठीक लगता है कि जब तक मन पाप से भरा है, तो | अपने को एक मानकर आदमी चलना शुरू नहीं करता, तब तक प्रार्थना कैसे होगी! यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई चिकित्सक कहे | जीवन में कोई महत घटना नहीं घटती। कि जब तक तुम बीमार हो, जब तक मैं औषधि कैसे दूंगा! पहले प्रार्थना का इतना ही अर्थ है। प्रार्थना का अर्थ है कि मैं अकेला तुम ठीक हो जाओ, स्वस्थ हो जाओ, फिर औषधि ले लेना। | नहीं हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि अकेला होकर मैं बिलकुल असहाय लेकिन जब ठीक हो जाओ, तो औषधि की जरूरत क्या होगी? | हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि इस पूरे अस्तित्व का सहारा न मिले, तो
अगर पाप छोड़ने पर प्रार्थना करने का आपने तय किया है, तो | मुझ से कुछ भी न हो सकेगा। प्रार्थना इस हेल्पलेसनेस, इस आपको कभी प्रार्थना करने का मौका नहीं आएगा। जब तक पाप असहाय अवस्था का बोध है। और प्रार्थना पुकार है अस्तित्व के है, आप प्रार्थना न करोगे। और जब पाप ही न रह जाएगा, तो प्रति कि तेरा सहारा चाहिए, तेरा हाथ चाहिए, तेरे बिना इस रास्ते प्रार्थना किसलिए करोगे? फिर प्रार्थना का अर्थ क्या है? पर चलना मुश्किल है। प्रार्थना औषधि है। इसलिए पापी रहकर ही प्रार्थना करनी पड़ेगी। तो प्रार्थनापूर्ण व्यक्ति में जब पुण्य आता है, तो वह पुण्य का भी
और दूसरी बात कि पाप हट कैसे जाएगा? बिना प्रार्थना के हट धन्यवाद परमात्मा को देता है, अपने को नहीं। प्रार्थनाहीन व्यक्ति न पाएगा। और बिना प्रार्थना के जो पाप को हटाते हैं, उनका पुण्य | अगर पुण्य भी कर ले, तो अपनी ही पीठ ठोकने की कोशिश करता उनके अहंकार का आभूषण बन जाता है। और अहंकार से बड़ा है; वह भी पाप हो जाता है। इसलिए कई बार तो ऐसा होता है कि पाप नहीं है।
निरहंकारी पापी भी परमात्मा के पास जल्दी पहुंच जाता है बजाय
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अहंकारी पुण्यात्मा के।
फकीर लौटा। रात उसे देवदूत जमीन पर छोड़ गए। बड़ी मुश्किल सुना है मैंने कि एक साधु, एक फकीर मरा। उसने जीवन में कोई | | खड़ी हुई। उसने कभी कोई पाप न किया था। बारह घंटे का कुल पाप नहीं किया था। इंच-इंच सम्हालकर चला था। जरा-सी भी समय था। सूझ में ही न आता था उसको कि कौन-सा पाप करूं! भूल-चूक न हुई थी। वह बिलकुल निश्चित था कि स्वर्ग के द्वार फिर यह भी था कि छोटा ही हो, ज्यादा न हो जाए। और अनुभव न पर परमात्मा मेरा स्वागत करने को तैयार होगा। निश्चितता | होने से पाप का, बड़ी अड़चन थी। बहुत सोचा-विचारा, कुछ स्वाभाविक थी। फिर जिंदगीभर कष्ट झेला था उसने। और पुरस्कार सोच-समझ में नहीं आया कि क्या करूं। फिर भी सोचा कि गांव की मांग थी। स्वभावतः अकड़ भी थी। जब वह स्वर्ग के दरवाजे की तरफ चलूं। पर पहुंचा, तो सिर झुकाकर प्रवेश करने का मन न था। बैंड-बाजे | __ जैसे ही गांव में प्रवेश करता था, एक बिलकुल काली-कलूटी से स्वागत होगा, यही कहीं गहरे में धारणा थी।
बदशक्ल स्त्री ने इशारा किया झोपड़े के पास। घबड़ाया। स्त्रियों से लेकिन दरवाजे पर जो दूत मिला, दरवाजा तो बंद था और उस सदा दूर रहा था। पर सोचा कि यही पाप सही। कोई तो पाप करना दूत ने कहा कि तुम एक अजीब आदमी हो। तुम पहले ही आदमी ही है। और फिर स्त्री इतनी बदशक्ल है कि पाप भी छोटा ही होगा। हो जो बिना पाप किए यहां आ गए हो। अब हम बड़ी मुश्किल में चला गया। स्त्री तो बड़ी आनंदित हुई। हैं। क्योंकि यहां के जो नियम हैं, उनमें तुम कहीं भी नहीं बैठते। रात उस स्त्री के पास रहा, उसे प्रेम किया। और सुबह भगवान किताब में लिखा है-स्वर्ग के दरवाजे के नियम की किताब को धन्यवाद देता हुआ कि चलो, एक पाप हो गया, अब प्रायश्चित्त में-कि जो पाप किया हो बहुत, उसे नरक भेज दो; जो पाप कर | कर लूंगा और स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। जैसे ही झोपड़े से विदा के प्रायश्चित्त किया हो, उसे स्वर्ग भेज दो। तुमने पाप ही नहीं | होने लगा, वह स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा कि किया। तुम्हें नरक भेजें, तो मुश्किल है। क्योंकि जिसने पाप नहीं फकीर, मुझे कभी किसी ने चाहा नहीं, किसी ने कभी प्रेम नहीं किया, उसे नरक कैसे भेजें! और तुमने पाप किया ही नहीं, इसलिए किया। तुम पहले आदमी हो जिसने मुझे इतने प्रेम और इतनी चाहत प्रायश्चित्त का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हें स्वर्ग कैसे भेजें! | से देखा। इतने प्रेम से मुझे स्पर्श किया और अपने पास लिया। एक दरवाजे बंद हैं दोनों-स्वर्ग का भी, नरक का भी। और तुम्हारे | ही प्रार्थना है कि इस पुण्य का भगवान तुम्हें खूब पुरस्कार दे। साथ हम क्या करें, लीगल झंझट खड़ी हो गई है।
फकीर की छाती बैठ गई। इस पुण्य का भगवान तुम्हें पुरस्कार तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, तुम जमीन पर लौट जाओ; बारह घंटे दे! फकीर ने घड़ी देखी कि मुसीबत हो गई, घंटाभर ही बचा है। ये का हम तुम्हें वक्त देते हैं; हमें झंझट में मत डालो। सदा का चला ग्यारह घंटे खराब हो गए! हुआ नियम है, उसको तोड़ो मत। बारह घंटे के लिए लौट जाओ, आगे का मुझे पता नहीं है कि उसने घंटेभर में क्या किया। स्वर्ग
और छोटा-मोटा सही, एक पाप करके आ जाओ। फिर प्रायश्चित्त | वह पहुंच पाया किं नहीं पहुंच पाया! लेकिन मुश्किल है कि वह कर लेना। स्वर्ग का दरवाजा तुम्हारा स्वागत कर रहा है। फिर तुम | कोई पाप कर पाया हो। उसका कारण है। इस कहानी से कई बातें इतने अकड़े हुए हो कि नरक जाने योग्य हो, लेकिन पाप तुमने किया खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। नहीं! और स्वर्ग में तो वही प्रवेश करता है, जो विनम्र है, और विनम्र पहली बात तो, इतना आसान नहीं है तय करना कि क्या पाप है तुम जरा भी नहीं हो। एक छोटा पाप कर आओ। थोड़ी विनम्रता भी | और क्या पुण्य है, जितना आसान हम सोचते हैं। हम तो कृत्यों पर आ जाएगी। थोड़ा झुकना भी सीख जाओगे। और तुमने एक भी पाप लेबल लगा देते हैं कि यह पाप है और यह पुण्य है। कोई कृत्य न नहीं किया, तो तुमने मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया।
पाप है, न पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने की स्थिति वह फकीर बहुत घबड़ाया। उसने कहा, क्या कहते हैं। मनुष्य पर निर्भर करता है। जीवन व्यर्थ गंवा दिया? तो उस देवदूत ने कहा कि थोड़ा-सा पाप निश्चित ही फिर से सोचिए, हंसिए मत इस कहानी में। जिस कर ले तो मनुष्य विनम्र होता है, झुकता है, अस्मिता टूटती है। और स्त्री को कभी किसी ने प्रेम न किया हो, उसको किसी का प्रेम करना थोड़ा-सा पाप मानवीय है, ह्यूमन है। तुम इनह्यूमन मालूम होते हो, अगर पुण्य जैसा मालूम पड़ा हो, तो कुछ भूल है? और अगर बिलकुल अमानवीय मालूम पड़ते हो। तुम लौट जाओ। परमात्मा भी इसको पुण्य माने, तो क्या आप कहेंगे कि गलती हुई ?
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पाप और प्रार्थना
वह फकीर भी बाद में चिंता में पड़ गया कि पुण्य क्या है ? पाप क्या है ? अगर दूसरे को इतना सुख मिला हो, तो पाप कहां है ? अगर दूसरा इतना आनंदित हुआ हो कि उसके जीवन का फूल पहली दफा खिला हो, तो पाप कहां है?
पाप कृत्य में नहीं है। कृत्य का क्या परिणाम होता है। उसमें भी परिणामों का कोई अंत नहीं है। आपने कृत्य आज किया है, परिणाम हजारों साल तक होते रहेंगे उस कृत्य के। क्योंकि परिणामों की श्रृंखला है।
अगर सारे परिणाम कृत्य में समाविष्ट किए जाएं, तो तय करना बहुत मुश्किल है कि क्या है पाप, क्या है पुण्य। कई बार आप पुण्य करते हैं और पाप हो जाता है। आप पुण्य ही करना चाहते थे और पाप हो जाता है। किस कृत्य को क्या नाम दें! कृत्य सवाल नहीं है।
दूसरी बात इस कहानी से खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वह फकीर तो पाप करना चाहता था जान-बूझकर, फिर भी पाप नहीं हो पाया। यह बहुत गहन है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक था पी. डी. आस्पेंस्की । उसके शिष्य बेनेट ने लिखा है कि जब पहली दफा उसने हमें शिक्षा देनी शुरू की, तो उसकी शिक्षाओं में एक खास बात थी, जान-बूझकर पाप करना । और हम सब लोग बैठे थे और उसने कहा कि घंटेभर का समय देता हूं, तुम जान-बूझकर कोई ऐसा काम करो, जिसको तुम समझते हो कि वह एकदम बुरा है और करने योग्य नहीं है।
बेनेट ने लिखा है कि घंटेभर हम बैठकर सोचते रहे। बहुत उपाय किया कि किसी को गाली दे दें, धक्का मार दें, चांटा लगा दें। लेकिन कुछ भी न हुआ । और घंटा खाली निकल गया और आस्पेंस्की हंसने लगा और उसने कहा कि तुम्हें पता होना चाहिए, पाप को जान-बूझकर किया ही नहीं जा सकता। यू कैन नाट डू ईविल कांशसली । वह जो बुराई है, उसको सचेतन रूप से करने का उपाय ही नहीं है। बुराई का गुण ही है अचेतन होना।
इसलिए फकीर मुश्किल में पड़ गया। वह कोशिश करके पाप करने निकला था।
आप कोशिश करके पाप करने नहीं निकलते हैं; पाप हो जाता है। आपको कोशिश नहीं करनी पड़ती। कोशिश तो आप करते हैं। किन करूं, फिर भी हो जाता है । पाप होता है— कोशिश से नहीं, होशपूर्वक नहीं - पाप होता बेहोशी में, मूर्च्छा में।
इसलिए पाप का एक मौलिक लक्षण है, मूर्च्छित कृत्य । जो कृत्य
मूर्च्छा में होता है, वह पाप है । और जो कृत्य होशपूर्वक हो सकता है, वही पुण्य है। इसको हम ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिस काम को करने के लिए मूर्च्छा अनिवार्य हो, उसको आप समझना कि पाप है । और जिस काम को करने के लिए होश अनिवार्य हो, जो होश के बिना हो ही न सके, होश में ही हो सके, समझना कि ' पुण्य है। बुद्ध का शिष्य आनंद, कुछ साधु यात्रा पर जा रहे हैं, तो उनकी तरफ से बुद्ध से पूछने खड़ा हुआ कि ये साधु यात्रा पर जाते हैं उपदेश करने। इनकी कुछ उलझनें हैं। एक उलझन का आप जवाब दे दें; बाकी तो मैंने इन्हें समझा दिया है।
तो बुद्ध ने पूछा, क्या उलझन है? तो आनंद ने कहा कि ये फकीर पूछते हैं- ये सब भिक्षु पूछते हैं — कि अगर स्त्री के पास रहने का कोई अवसर आ जाए, तो रुकना कि नहीं रुकना ? तो बुद्ध ने कहा, मत रुकना । स्त्री से दूर रहना। तो आनंद ने पूछा, और कहीं ऐसी मजबूरी ही हो जाए कि रुकना ही पड़े, तो क्या करना ? तो बुद्ध ने | कहा, स्त्री की तरफ देखना मत। आंख नीची रखना।
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यह बात पुरुष के लिए लागू हो जाएगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । स्त्री की तरफ देखना ही मत; आंख नीची रखना ।
पर आनंद ने कहा कि ऐसा कोई अवसर आ जाए कि आंख उठानी ही पड़े और स्त्री को देखना ही पड़े? तो बुद्ध ने कहा, स्पर्श
जिस कृत्य को भी होशपूर्वक किया जा सके, वह पाप नहीं रह | जाता। और अगर पाप होगा, तो किया ही न जा सकेगा। मूर्च्छा जरूरी है। इसलिए मैं पाप की व्याख्या करता हूं, मूच्छित कृत्य । पुण्य की व्याख्या करता हूं, होशपूर्ण कृत्य ।
मत करना ।
पर आनंद भी जिद्दी था और इसलिए बुद्ध से बहुत-सी बातें निकलवा पाया । उसने कहा, यह भी मान लिया। पर कभी ऐसा | अवसर आ जाए - बीमारी, कोई दुर्घटना – कि स्त्री को छूना पड़े, तो उस हालत में क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, अब आखिरी बात कहे देता हूं, होश रखना छूते वक्त । और बाकी सब बातें फिजूल हैं। अगर होश रखा जा सके, तो बाकी सब बातें फिजूल हैं। बाकी उनके लिए हैं, जो होश न रख सकते हों।
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लेकिन आप पुण्य भी करते हैं, तो मूर्च्छा में करते हैं। फिर समझ लेना कि वह पुण्य नहीं है। चार लोग आ जाते हैं और आपको काफी फुसलाते हैं, फुलाते हैं, कि आप जैसा दानी कोई भी नहीं है | जगत में; एक मंदिर बनवा दें। नाम रह जाएगा। वे आपकी मूर्च्छा को उकसा रहे हैं। वे आपके अहंकार को तेल दे रहे हैं। वे आपके
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o गीता दर्शन भाग-
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अहंकार पर मक्खन लगा रहे हैं। आप फूले जा रहे हैं भीतर कि मेरे | आप होश में नहीं थे। निश्चित ही, आपने कोई शराब बाहर से जैसा कोई पुण्यात्मा नहीं है जगत में! मूर्छा पकड़ रही है। इस | नहीं पी थी। लेकिन भीतर भी शराब के झरने हैं। और बाहर से ही मूर्छा में आप चेक वगैरह मत दे देना। वह पाप होगा। भला उससे | शराब पीना जरूरी नहीं है। मंदिर बने, लेकिन वह पाप होगा। क्योंकि मूर्छा में कोई पुण्य नहीं अगर आप शरीर-शास्त्री से पूछे, तो वह बता देगा कि आपके हो सकता।
शरीर में ग्रंथियां हैं, जहां से नशा, मादक द्रव्य छूटते हैं। जब आप और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आप चोरी भी करने जाएं, तो क्रोध में होते हैं, तो आपका खून तेज चलता है और खून में जहर होशपूर्वक करने जाना। तो पहली तो बात यह कि आप चोरी नहीं | छूट जाते हैं। उन जहर की वजह से आप मूर्छित हो जाते हैं। उस कर पाएंगे। जैसे ही होश से भरेंगे, हाथ वापस खिंच आएगा। | मूर्छा में आप कुछ कर बैठते हैं, वह आपका किया हुआ कृत्य नहीं किसी की हत्या भी करने जाएं, तो मैं नहीं कहता कि हत्या मत | | है। वह मूर्छा है, बेहोशी है। करना। मैं इतना ही कहता हूं कि होशपूर्वक करना। होश होगा, इस जगत में कोई भी बुराई बिना बेहोशी के नहीं होती। और हत्या नहीं हो सकेगी। हत्या हो जाए, तो समझ लेना कि आप इस जगत में कोई भी भलाई बिना होश के नहीं होती। इसलिए एक बेहोश हो गए थे। और आप बेहोश हो जाएंगे, तो ही हो सकती है। ही भलाई है, होश से भरे हुए जीना; और एक ही बुराई है, बेहोशी
इस जगत में कुछ भी बुरा करना हो, तो बेहोशी चाहिए, नींद में होना। चाहिए। जैसे आप नहीं कर रहे हैं, कोई शराब के नशे में आपसे | और इस बात की प्रतीक्षा मत करें कि जब पुण्य से भर जाएंगे करवाए ले रहा है।
पूरे, तब प्रार्थना करेंगे। जैसे हैं, जहां हैं, वहीं प्रार्थना शुरू कर दें। ऐसा हुआ कि अकबर निकलता था एक रास्ते से और एक नंगा | आपकी प्रार्थना भी आपका होश बनेगी। आपकी प्रार्थना भी फकीर सडक के किनारे खडा होकर अकबर को गालियां देने लगा। आपको जगाएगी। आपकी प्रार्थना भी आपकी बेहोशी और मूर्छा अकबर ने बहुत संतुलन रखा। बहुत बुद्धिमान आदमी था। लेकिन | | को तोड़ेगी। और आपकी प्रार्थना का अंतिम परिणाम होगा कि आप अपने सिपाहियों को कहा कि इसको पकड़कर कल सुबह मेरे | | एक सचेतन व्यक्ति हो जाएंगे। यह जो सचेतन, जागा हुआ बोध सामने हाजिर करो।
मनुष्य के भीतर है, वही उसे पाप से छुटाता है। . दूसरे दिन सुबह उस फकीर को हाजिर किया गया। वह आकर | ___ पापों को काटने के लिए पुण्यों की जरूरत नहीं है। पापों को अकबर के चरणों में सिर झुकाकर खड़ा हो गया। अकबर ने कहा | काटने के लिए होश की जरूरत है। और जहां होश है, वहां पाप कि कल तुमने गालियां दीं, उसका तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। क्या | होने बंद हो जाते हैं। और जहां होश है, वहां पुण्य फलित होने प्रयोजन था? उस फकीर ने कहा कि आप जिससे उत्तर मांग रहे हैं, | लगते हैं। पुण्य ऐसे ही फलित होने लगते हैं, जैसे सूरज के उगने उसने गालियां नहीं दीं। जिसने दीं, वह शराब पीए हुए था। रातभर | | पर फूल खिल जाते हैं। ऐसे ही होश के जगने पर पुण्य होने शुरू में मेरा नशा उतर गया। इसलिए आप मुझसे जवाब मांगकर अन्याय | | हो जाते हैं। पुण्य करने नहीं पड़ते। आपकी छाया की तरह आपके कर रहे हैं। जिसने गालियां दी थीं, वह अब मौजूद नहीं है। और मैं | | पीछे चलने लगते हैं। वे आपकी सुगंध हो जाते हैं। वे हो जाते हैं, जो मौजूद हूं, उस वक्त मौजूद नहीं था।
तब आपको पता लगता है। जब दूसरे आपसे कहते हैं, तब आपको अकबर ने अपने आत्म-संस्मरणों में यह घटना लिखवाई है। | पता लगता है। और उसने कहा है कि मुझे उस दिन खयाल आया कि निश्चित । लेकिन आदमी बेईमान है, आत्मवंचक है। और आदमी हजार ही, जो मूर्छा में किया गया हो, उसके लिए व्यक्ति को जिम्मेवार तरकीबें निकाल लेता है अपने को समझाने की, कि मैं तो पापी हूं; क्या ठहराना!
मुझसे क्या प्रार्थना होगी! यह आपकी होशियारी है। यह आप यह आप जो भी कर रहे हैं...। इसलिए आपको भी लगता है, कभी | कह रहे हैं कि अभी क्या प्रार्थना करनी! प्रार्थना आपको करनी नहीं क्रोध में आप गाली दे देते हैं, किसी को मार देते हैं, बाद में आपको | है। करना आपको पाप ही है। लेकिन आप यह भी अपने मन में नहीं लगता है कि मैं तो नहीं करना चाहता था! सोचा भी नहीं था कि | मानना चाहते कि मैं प्रार्थना नहीं करना चाहता हूं। आप कहते हैं, मैं करूं, अब पछताता भी हूं, और खयाल आता है कि कैसे हो गया! | ठहरा पापी; मुझसे क्या प्रार्थना होगी? तो किससे प्रार्थना होगी?
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o पाप और प्रार्थना
आपसे ही प्रार्थना होगी। और पाप प्रार्थना में बाधा नहीं है। यह भी नहीं है। ऐसा ही है, जैसे आपके घर में अंधेरा हो; और आप कहें कि अंधेरा | और संतों का काम इतना ही है, जो मां-बाप का काम है। बच्चा बहुत है, दीया कैसे जलाएं! और अंधेरा इतना ज्यादा है कि दीया चलता है, तो मां-बाप उसके उस भूल भरे चलने पर भी इतने प्रसन्न जलेगा कैसे! और अंधेरा हजारों साल पुराना है, दीए को बुझाकर | होते हैं। फिर जब वह ठीक चलने लगेगा, तो कोई प्रसन्न नहीं होगा। रख देगा! नाहक मेहनत क्या करनी। जब अंधेरा नहीं होगा, तब आपको पता है! जब पहली दफा बच्चा खड़ा हो जाता है डगमगाता, दीया जला लेंगे।
तो घरभर में खुशी और उत्सव छा जाता है। ऐसी क्या बड़ी घटना अंधेरा आपके दीए के जलने को रोक नहीं सकता। अंधेरे की हो रही है? दुनिया चल रही है! ये और एक सज्जन खड़े हो गए, ताकत क्या है ? पाप से कमजोर दुनिया में कोई चीज नहीं है। पाप | तो कौन-सा फर्क पड़ा जा रहा है? लेकिन उसका यह खड़ा होना, की ताकत क्या है? अंधेरा कमजोर है। अंधेरा है ही कहां? दीया | उसका यह साहस, उसका जमीन पर से झके होने से खड़ा हो जाना, जलते ही तिरोहित हो जाएगा। और चाहे हजारों वर्ष पुराना हो, तो | अपने पैरों पर यह भरोसा, मां-बाप खुश हो जाते हैं; बैंड-बाजे भी एक क्षण टिक न सकेगा। और छोटा-सा दीया मिटा देगा। और | बजाते हैं। घर में गीत; फूल सजाते हैं। बच्चा उनका खड़ा हो गया! दीए से अंधेरा यह नहीं कह सकेगा कि मैं हजारों साल से यहां रह जब पहली दफा बच्चा आवाज निकाल देता है, बेतुकी, बेमतलब रहा हूं और तू अभी अतिथि की तरह आया और मुझ मेजबान को | की, कोई अर्थ नहीं होता, उसमें से मां-बाप अर्थ निकालते हैं कि वह हटाए दे रहा है! मैं नहीं हटता। नहीं, अंधेरा खड़ा होकर जवाब भी | मामा कह रहा है, पापा कह रहा है। वह कुछ नहीं कह रहा है। वह न दे सकेगा। अंधेरा पाया ही नहीं जाएगा।
केवल पहली दफा टटोल रहा है। कुछ नहीं कह रहा है। लेकिन बड़ी प्रार्थना के लिए पाप बाधा नहीं है। नहीं तो वाल्मीकि जैसा पापी, | खुशी छा जाती है। फिर वह भाषा भी अच्छी बोलने लगेगा, बड़ा राम में ऐसा नहीं डूब सकता था। कि अंगुलिमाल जैसा पापी, बुद्ध | विद्वान भी हो जाएगा, तब भी यह खुशी नहीं होगी। में ऐसा लीन नहीं हो सकता था।
संतों का, गुरुओं का इतना काम है कि जब पहली दफा कोई ___ पाप बाधा नहीं है। और जब प्रार्थना कोई करता है, तो पाप वैसे | तुतलाने लगे प्रार्थना, तो उसको सहारा दें। पहली दफा जब कोई ही हट जाता है, जैसे दीया जलता है और अंधेरा हट जाता है। और | प्रार्थना के जगत में कदम रखे, तो उसको आसरा दें। इसको उत्सव जले हुए दीए में पाप नहीं होता। जले हुए दीए के साथ जो होता है, | की घड़ी बना लें। तो जो आज डांवाडोल है, कल थिर हो जाएगा। उसी का नाम पुण्य है।
जो आज तुतला रहा है, कल ठीक से बोलने लगेगा। आज जो तो प्रार्थना को रोकें मत। कल पर टालें मत। स्थगित मत करें। | केवल आवाज है, कल गीत-संगीत भी बन सकती है। वे प्रार्थना को शुरू होने दें।
संभावनाएं हैं। . और क्या फर्क पड़ता है! जब बच्चा पहली दफा चलता है, तो लेकिन पहला कदम बिलकुल जरूरी है। पहले कदम में ही जो गिरता ही है। अगर कोई भी बच्चा यह तय कर ले कि मैं चलूंगा| | चूक करता है...। और चूक एक ही है पहले कदम की। गिरना तभी जब गिरूंगा नहीं, तो चलेगा ही नहीं कभी। और जब पहली चूक नहीं है। गलत कदम का उठ जाना चूक नहीं है। गलत उठेगा दफा कोई तैरना सीखता है, तो दो-चार दफे मुंह में पानी भी भर | ही; गिरना होगा ही। चूक एक ही है, स्थगित करना। कि पहला जाता है और डुबकी भी लग जाती है। लेकिन कोई अगर यह तय कैसे उठाऊं; कहीं गलती न हो जाए! तो जो रुक जाता है पहले को कर ले कि तैरूंगा तभी जब परी तरह सीख लंगा. फिर वह कभी उठाने से. वही एकमात्र चक है। बाकी कोई चक नहीं है। तैरेगा नहीं। तैरने के लिए भी बिना सीखे पानी में उतरना जरूरी है। | भूलें करना बुरा नहीं है। भूल करने के डर से रुक जाना बरा है।
और बच्चा चल पाता है। गिरता है; घुटने टूट जाते हैं। घसिटता भूल को दोहराना बुरा है, एक ही भूल को बार-बार करना नासमझी है। बार-बार खड़ा होता है, फिर बैठ जाता है। एक दिन चलने है। लेकिन पहली दफा ही भूल न हो, ऐसा जो परफेक्शनिस्ट हो, लगता है। प्रार्थना भी ऐसे ही शुरू होगी क ख ग से। आप कभी | | ऐसा जो पूर्णतावादी हो, वह इस दुनिया में मूढ़ की हालत में ही पूरी प्रार्थना पहले दिन नहीं कर पाएंगे। आप पहले ही दिन कोई | | मरेगा। वह कुछ भी सीख नहीं पाएगा। चैतन्य और मीरा नहीं हो जाने वाले हैं। लेकिन होने की कोई जरूरत __भूल करें, दिल खोलकर करें। एक ही भूल दुबारा भर न करें।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
हर भूल से सीखें और पार निकल जाएं और नई भूल करने की | | तेरा हृदय बैठा जा रहा है; वह दुखी हो गया। उसके हृदय की हिम्मत रखें। संसार में भूलें करने से नहीं डरते, तो परमात्मा में भूलें | पंखुड़ियां बंद हो गईं। तरंगों में खबर आने लगी कि वह दुख से करने से क्या डरना है! और जब संसार भी भूलों को क्षमा कर देता | भरा हुआ है। ठीक गुलाब के पौधे से भी तरंगें आने लगीं कि वह है और आप सफल हो जाते हैं, तो परमात्मा भी क्षमा कर ही देगा। बहुत दुखी है। उसकी पंखुड़ियां मुरझा गई हैं और बंद हो गई हैं। क्षमा किया ही हुआ है। और जब पहली दफा कोई तुतलाता है। । आप आनंदित हैं, तो आपके पास रखा हुआ गुलाब का पौधा प्रार्थना, तो सारा अस्तित्व खुश होता है, प्रसन्न होता है। | भी आंदोलित होता है। तो फिर झूठ नहीं लगता, कुछ आश्चर्य नहीं
कहा है हमने कि जब बुद्ध को पहली दफा ज्ञान हुआ, तो जिन | है कि बुद्ध का भीतर का कमल खिला हो, तो बेमौसम फूल भी आ वृक्षों पर फूल नहीं खिलने थे, खिल गए।झूठी लगती है बात। कहा गए हों। क्योंकि साधारण आदमी के खुश होने से अगर फूल खुश है हमने कि महावीर जब रास्ते पर चलते थे, तो अगर कोई कांटा होते हैं, तो बुद्ध तो कभी-कभी करोड़ वर्ष में कोई बुद्ध होता है। पड़ा हो, तो महावीर को देखकर उलटा हो जाता था। झूठी लगती | | उस वक्त अगर बेमौसम फूल ले आते हों पौधे, तो कुछ आश्चर्य है बात। कांटे को क्या मतलब होगा? और बेमौसम फूल खिलते नहीं लगता। हैं कहीं? कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो सारी दिशाएं सुगंध से भर पुश्किन की बात से तो ऐसा लगता है, फूल जरूर खिले होंगे। गईं। भरोसा नहीं आता।
बुद्ध के पास के पौधे इतने आनंदित हो गए होंगे-ऐसा तो कभी लेकिन अभी रूस में एक प्रयोग हुआ है और रूस के वैज्ञानिक होता है, करोड़ वर्षों में तो अगर बेमौसम भी थोड़े से फूल खिला पुश्किन ने घोषणा की है कि पौधे भी आपकी खुशी से प्रभावित दिए हों, स्वाभाविक लगता है। होते हैं और खुश होते हैं; और आपके दुख से दुखी होते हैं, जब आप पहली दफा तुतलाते हैं प्रार्थना, तो यह सारा अस्तित्व पीड़ित होते हैं।
खुश होता है। इस अस्तित्व की खुशी ही प्रभु का प्रसाद है। पुश्किन की खोज मूल्यवान है और पुश्किन ने पौधों को | तो डरें मत। हिम्मत करें। गिरेंगे ही न; फिर उठ सकते हैं। नौ सम्मोहित करने का, हिप्नोटाइज करने का प्रयोग किया है। और बार जो गिरता है, दसवीं बार उसके गिरने की संभावना समाप्त हो पुश्किन ने यह भी प्रयोग किया है कि पास में एक गुलाब का पौधा जाती है। रखा है और एक व्यक्ति को पास में ही बेहोश किया, सम्मोहित अब हम सूत्र को लें। किया। जब सम्मोहित होकर कोई बेहोश हो जाता है, फिर उससे किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त जो भी कहा जाए, वह आज्ञा मानता है। पुश्किन ने उस बेहोश | वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात विशेष परिश्रम है। क्योंकि आदमी से कहा कि तू आनंद से भर गया है। तेरा चित्त प्रफुल्लित | देह-अभिमानियों में अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की है और सुख की धारा बह रही है।
जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान है, तब तक शुद्ध वह आदमी डोलने लगा आनंद में। उस आदमी के मस्तिष्क में सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। और जो मेरे इलेक्ट्रोड लगाए गए, जो यंत्र पर खबर दे रहे हैं कि उसमें आनंद परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ की लहरें उठ रही हैं; उसका मस्तिष्क नई तरंगों से भर गया है। सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति-योग से निरंतर चिंतन उसके साथ ही उसी तरह के इलेक्ट्रोड गुलाब के पौधे पर भी लगाए | करते हुए भजते हैं, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं। गए हैं। जैसे ही यह आदमी आनंदित होकर भीतर प्रफल्लित हो ।
| इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक, कि वे भी पहुंच जाते हैं, गया और यंत्र ने खबर दी कि वह आनंद से भर रहा है; जिस तरह | जो निराकार, निर्गुण, शून्य की उपासना करते हैं। वे भी मुझ तक का ग्राफ उसके मस्तिष्क की तरंगों का बना, ठीक उसी तरह का ही पहुंच जाते हैं, कृष्ण कहते हैं। वे भी परम सत्य को उपलब्ध हो ग्राफ गुलाब के पौधे से भी बना। और पुश्किन ने लिखा है, गुलाब | जाते हैं। लेकिन उनका मार्ग कठिन है। उनका मार्ग दुर्गम है। और के पौधे के भीतर भी वैसी ही आनंद की तरंगें फैलने लगीं। | उनके मार्ग पर क्लेश है, पीड़ा है, कष्ट है। क्या क्लेश है उनके __ और जब उस आदमी को कहा गया कि तू दुख से परेशान है; | मार्ग पर? तेरी पत्नी की मृत्यु हो गई है; कि तेरे घर में आग लग गई है और । जो निराकार की तरफ चलता है, उसे कुछ अनिवार्य कठिनाइयों
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से गुजरना पड़ता है। पहली तो यह कि वह अकेला है यात्रा पर। सारा जाल-परिवार, पति-पत्नी, मित्र, क्लब, होटल, समूह, कोई उसका संगी-साथी नहीं। और आपको पता है, कभी आप संघ, मंदिर, चर्च-अकेले होने से बचने की तरकीबें हैं। अकेले अंधेरी गली से गुजरते हैं, तो खुद ही गीत गुनगुनाने लगते हैं, सीटी होने से घबड़ाहट होती है। बजाने लगते हैं। कोई है नहीं वहां। अकेले में डर लगता है। लेकिन | मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई थी, तो उसकी लाश के पास अपनी ही सीटी सुनकर डर कम हो जाता है। अपनी ही सीटी, बैठकर रो रहा था। नसरुद्दीन का मित्र भी था एक, फरीद। वह अपना ही गीत!
उससे भी ज्यादा छाती पीटकर रो रहा था। नसरुद्दीन को बड़ा अखर उस अज्ञात के पथ पर जहां कि गहन अंधेरा है, क्योंकि कोई रहा था। पत्नी मेरी, और ये सज्जन इस तरह रो रहे हैं कि किसी को संगी-साथी नहीं है, और इस जगत का कोई प्रकाश काम नहीं आता शक हो सकता है कि इनकी पत्नी मरी हो। नसरुद्दीन भी काफी है; निराकार का यात्री अकेले जाता है। कोई परमात्मा, कोई ताकत लगा रहा था, लेकिन मित्र भी गजब का था, नसरुद्दीन से परमात्मा की धारणा का सहारा नहीं है। तो पहली तो कठिनाई यह हमेशा आगे! है कि अकेले की यात्रा है।
भीड बढ़ गई थी। कई अजनबी लोग भी इकटे हो गए थे। और भरोसा भी हो कि परमात्मा है, तो दो हैं आप। अकेले नहीं हैं। | नसरुद्दीन को बड़ी बेचैनी हो रही थी। पत्नी के मरने की इतनी नहीं,
एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक चर्च बनाना चाहती थी। | जितना यह आदमी बाजी मारे लिए जा रहा है! आखिर नसरुद्दीन से कुल दो पैसे थे उसके पास। और गांव में जाकर उसने कहा कि नहीं रहा गया, उसने कहा कि ठहर भी फरीद! इतना दुख मत मना; घबड़ाओ मत, संपत्ति कुछ मेरे पास है, कुछ और आ जाएगी। और ज्यादा मत घबड़ा। मैं फिर दुबारा शादी कर लूंगा। जहां संपत्ति है, वहां और संपत्ति आ जाती है। दो पैसे मेरे पास हैं। ___ लोग बहुत चकित हुए। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन, अभी पत्नी चर्च हम बना लेंगे।
मरे देर नहीं हुई। लाश घर में रखी है; अभी लाश गरम है। और गांव के लोग बहुत हंसे कि तू पागल हो गई है। दो पैसे से कहीं | तुम कह रहे हो, दूसरी शादी कर लोगे! तो नसरुद्दीन ने कहा, कोई चर्च बना है! तू अकेली एक फकीर औरत और दो पैसे। बस! | शादी करने के लिए तो शादी की नहीं थी। अकेले होने की तकलीफ इससे हो जाएगा? चर्च बन जाएगा?
है। उसके मरते ही मैं फिर अकेला हो गया। और इतना अकेला तब ___ उस स्त्री ने कहा कि नहीं, एक और मेरे साथ है। एक मैं हूं, मैं भी नहीं था, जब पहली दफा शादी की थी। अब और ज्यादा अकेला फकीर औरत हूँ। और ये दो पैसे हैं। ये भी काफी कम हैं। लेकिन | | हो गया, क्योंकि साथ का अनुभव हो गया। परमात्मा भी मेरे साथ है। तीनों का जोड़ काफी से ज्यादा है। मगर रास्ते पर जा रहे हैं। अंधेरे में एक कार निकल जाती है; कार के तुम्हें वह तीसरा दिखाई नहीं पड़ता। मुझे वह दिखाई पड़ता है, | प्रकाश में आंखें चौंधिया जाती हैं। जब कार चली जाती है, अंधेरा इसलिए दो पैसे की भी फिक्र नहीं है। और मैं भी फकीर औरत हूं, और ज्यादा हो जाता है। पहले इतना नहीं था। पहले कुछ दिखाई इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हम तीनों मिलकर जरूरत से | भी पड़ता था, अब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। ज्यादा हैं।
नसरुद्दीन ने कहा कि इस पत्नी की वजह से ही तो अब और वह जो भक्त का रास्ता है, उस पर परमात्मा साथ है। भक्त जल्दी दूसरी पत्नी की जरूरत है। यह खाली कर गई; बहुत अकेले कितना ही कमजोर हो, परमात्मा से जुड़कर बहुत ज्यादा है। सारी | | हो गए। कमजोरी खो जाती है।
__ आपकी पत्नी जब मर जाती है या पति जब मर जाता है, तो जो निराकार का पथिक अकेला है; किसी का उसे साथ नहीं है। पीड़ा होती है, वह उसके मरने की कम है; अगर ठीक से खोज कठिनाई होगी। अकेले होने से बड़ी और कठिनाई भी क्या है! | करेंगे, तो अकेले हो जाने की ज्यादा है। शायद नसरुद्दीन बहुत
जिंदगी में कभी आप अकेले हए हैं? अकेला होने का आपको | नासमझ है. इसलिए तत्काल उसने सच्ची बात कह दी। आप छ पता है? जरा देर अकेले छूट जाते हैं, तो जल्दी से अखबार पढ़ने महीने बाद कहेंगे। और अगर जरा मंद बुद्धि हुए, छः साल बाद लगते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, किताब उठा लेते हैं। कुछ न कुछ | | कहेंगे। यह दूसरी बात है। लेकिन बात उसने ठीक ही कह दी। करने लगते हैं, ताकि अकेलापन पता न चले। हमारे जीवन का अकेले होने की पीड़ा है। किसी को भी हाथ में हाथ लेकर
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गीता दर्शन भाग-60
भरोसा आ जाता है कि अकेले नहीं हैं।
उनके अहंकार का खतरा हो सकता है। तो इस्लाम ने वह दरवाजा तो निराकार का रास्ता तो बिलकुल अकेला है। न पत्नी साथी | बंद कर दिया। होगी, न मित्र साथी होगा, न पति। निराकार की जो ठीक साधना | भारत ने वह दरवाजा बंद नहीं किया। क्योंकि भारत की आकांक्षा है, उसमें तो गरु भी साथी नहीं होगा। उसमें गरु भी कह देगा कि यह रही कि कोई भी दरवाजा बंद न हो, चाहे एक
एक दरवाजे से हजारों मैं सिर्फ रास्ता बताता हूं, चलना तुझे है। मैं तेरे साथ नहीं आ सकता वर्ष में एक भी आदमी क्यों न निकलता हो। लेकिन दरवाजा खुला हूं। निराकार की आत्यंतिक साधना में तो गुरु कहेगा, तू मुझे छोड़, | रहना चाहिए। एक आदमी को भी बाधा नहीं होनी चाहिए। तभी तेरी यात्रा शुरू होगी। कहेगा कि मुझे पकड़ मत; कहेगा कि | निराकार के मार्ग से हजारों साल में एकाध आदमी निकलता है। गुरु की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि अकेले होने की ही साधना है। | लेकिन दरवाजा खुला रखा जाता है। क्योंकि वह जो निराकार के गुरु का होना भी बाधा है।
मार्ग से निकलता है, वह भक्ति के मार्ग से निकल ही न सकेगा। इसलिए यह सूत्र कहता है, कृष्ण कहते हैं, अति कठिन है। । उसका कोई उपाय ही नहीं है। वह उसी मार्ग से निकल सकेगा। पहली बात कि अकेला हो जाना होगा। दूसरी बात, अगर बुद्ध को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। महावीर को परमात्मा की तरफ समर्पण न हो, तो उस अकेलेपन में अहंकार के भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। कोई उपाय नहीं है। वह उठने की बहुत गुंजाइश है। बहुत ऐसा हो सकता है कि मैं हूं। यह | उनका स्वभाव नहीं है। मैं की अकड़ बहुत तीव्र हो सकती है, क्योंकि इसको मिटाने के | मीरा को निराकार के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता; वह लिए कोई भी नहीं है।
उसका स्वभाव नहीं है। सब मार्ग खुले और साफ होने चाहिए। निराकार और मेरा अहंकार. अगर कहीं ये दोनों मिल जाएं तो। पर मार्ग कठिन है, क्योंकि अहंकार के उठने का डर है। खतरा है, बड़े से बड़ा खतरा है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं ब्रह्म देह-अभिमान मजबूत हो सकता है। खतरा है। हूं, तो इसमें दोनों संभावनाएं हैं। इसका एक मतलब तो यह होता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, पहुंच तो जाते हैं मुझ तक ही वे लोग है कि अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही है; तब तो ठीक है। और अगर | भी, जो निराकार से चलते हैं। लेकिन वह स्थिति कठिन है। और इसका यह मतलब हो कि मैं ही हूं, अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है; | जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके तो बड़ा खतरा है।
| मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति-योग से निरंतर इस्लाम ने इस तरह की बात को बिलकुल बंद ही करवा दिया, | | चिंतन करते भजते हैं, उनका मैं शीघ्र उद्धार करता हूं। ताकि कोई खतरा न हो। तो जब अल-हिल्लाज ने कहा कि अहं | भक्त के लिए एक सुविधा है। वह पहले चरण पर ही मिट ब्रह्मास्मि-अनलहक-मैं ही हूं ब्रह्म, तो इस्लाम ने हत्या कर दी। | सकता है। यह उसकी सुविधा है। ज्ञानी की असुविधा है, आखिरी
हत्या करनी उचित नहीं है। लेकिन अभी मैं एक फकीर, सूफी | चरण पर मिट सकता है; बीच की यात्रा में रहेगा। वह रहना मजबूत फकीर की टिप्पणी पढ़ रहा था अल-हिल्लाज की हत्या पर। तो | | भी हो सकता है। और ऐसा भी हो सकता है. वह इतना मजबत हो उसने कहा कि यह बात ठीक नहीं है कि अल-हिल्लाज की हत्या | | जाए कि आखिरी चरण उठाने का मन ही न रहे, और अहंकार में की गई। लेकिन एक लिहाज से ठीक है। क्योंकि अल-हिल्लाज | ही ठहरकर रह जाए। की हत्या करने से क्या मिटता है! अल-हिल्लाज तो पा चुका था, | लेकिन भक्त को एक सुविधा है, वह पहले चरण पर ही मिट इसलिए हत्या करने से कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस हत्या करने से | सकता है। सुविधा ही नहीं है, पहले चरण पर उसे मिटना ही होगा, दूसरे लोग, जो कि अपने अहंकार को मजबूत कर लेते अनलहक क्योंकि वह साधना की शुरुआत ही वही है। रोग को साथ ले जाना कहकर, उनके लिए रुकावट हो गई।
नहीं है। ज्ञानी का रोग साथ चल सकता है आखिरी तक। आखिर यह बात भी मुझे ठीक मालूम पड़ी। अल-हिल्लाज की हत्या से में छूटेगा, क्योंकि मिलन के पहले तो रोग मिटना ही चाहिए, नहीं कुछ मिटता ही नहीं, क्योंकि अल-हिल्लाज उसको पा चुका, जो तो मिलन नहीं होगा। लेकिन भक्त के पथ पर वह पहले, प्रवेश पर अमृत है। इसलिए उसको मारने में कोई हर्जा नहीं। अगर उसको न | | ही बाहर रखवा दिया जाता है, छुड़वा दिया जाता है। मारा जाए, तो न मालूम कितने नासमझ लोग चिल्लाने लगेंगे। भक्त अपने कर्मों को समर्पण कर देता है। वह कहता है, अब
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मैं नहीं कर रहा हूं; तू ही कर रहा है। वह बुरे भले का भी भाव छोड़ देता है। वह कहता है, जो प्रभु की मर्जी । अब मेरी कोई मर्जी नहीं है । अब तू जो मुझसे करवाए, मैं करता रहूंगा। तेरा उपकरण हो गया। तू सुख में रखे तो सुखी, और तू दुख में रखे तो दुखी । न तो मैं की आकांक्षा करूंगा, और न दुख न मिले, ऐसी वासना सुख रखूंगा। अब मैं सब भांति तेरे ऊपर छोड़ता हूं। यह जो समर्पण है, इस समर्पण के साथ ही अहंकार गलना शुरू हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, उनका मैं जल्दी ही उद्धार कर लेता हूं, क्योंकि वे पहले चरण में ही अपने को छोड़ देते हैं।
ज्ञानी का उद्धार भी होगा, लेकिन वह आखिरी चरण में होगा। घटना अंत में वही हो जाएगी। लेकिन कोई अपनी यात्रा के पहले
बोझ को रख देता है, कोई अपनी यात्रा की समाप्ति पर बोझ को छोड़ता है। और जहां बोझ छूट जाता है अस्मिता का, अहंकार का, उद्धार शुरू हो जाता है।
कृष्ण जब कहते हैं, मैं उद्धार करता हूं, तो आप ऐसा मत समझें कि कोई बैठा हुआ है, जो आपका उद्धार करेगा। कृष्ण का मतलब है नियम । कृष्ण का मतलब है, शाश्वत धर्म, शाश्वत नियम। जैसे ही आप अपने को छोड़ देते हैं, वह नियम काम करना शुरू कर देता है।
पानी है; नीचे की तरफ बहता है। फिर उसको गरम करें आग से; भाप बन जाता है। भाप बनते ही ऊपर की तरफ उठने लगता है।
एक नियम तो ग्रेविटेशन का है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। ने खोजी यह बात कि जमीन चीजों को अपनी तरफ न्यूटन खींचती है, इसलिए सब चीजें नीचे की तरफ गिरती हैं। लेकिन एक . और नियम भी है जो ग्रेविटेशन के विपरीत है। जिसको योगियों ने लेविटेशन कहा है। नीचे की तरफ खींचने में तो कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है; लेकिन ऊपर की तरफ भी एक खिंचाव है, जिसको एक बहुत कीमती महिला सिमोन वेल ने ग्रेस कहा है। ग्रेस और ग्रेविटेशन | नीचे की तरफ कशिश; ऊपर की तरफ प्रभु प्रसाद, ग्रेस ।
नियम है। जब आप गिर पड़ते हैं जमीन पर, केले के छिलके पर पैर फिसल जाता है, तो आप यह मत सोचना कि कोई भगवान बैठा है, जो आपकी टांग तोड़ता है। कि खटाक से, आपने गड़बड़ की, केले के छिलके पर फिसले, उसने उठाया हथौड़ा और फ्रैक्चर कर दिया ! कोई बैठा हुआ नहीं है कि आपका फ्रैक्चर करे। किस-किस का फ्रैक्चर करने का हिसाब रखना पड़े। नियम है। आपने भूल की,
नियम के अनुसार आपका पैर टूट गया। कोई तोड़ता नहीं है पैर । | पैर टूट जाता है; नियम के विपरीत पड़ने से टूट जाता है।
ठीक ऐसे ही ग्रेस है। जैसे ही आपका अहंकार हटा, आप ऊपर की तरफ खींच लिए जाते हैं। कोई खींचता नहीं है। कोई ऐसा बैठा नहीं है कि आपके गले में फांसी लगाकर और ऊपर खींचेगा ।
उद्धार का मतलब ऐसा मत समझना कि कोई आपको उठाएगा और खींचेगा। कोई नहीं उठा रहा है; कोई उठाने की जरूरत नहीं है। जैसे ही बोझ हलका हुआ, आप ऊपर उठ जाते हैं।
जैसे आप एक कार्क की गेंद ले लें; और उसके चारों तरफ मिट्टी लपेटकर उसे पानी में डाल दें। वह जमीन में बैठ जाएगी नदी की, क्योंकि वह मिट्टी जो चारों तरफ लगी है, उस कार्क को भी डुबा लेगी। लेकिन जैसे-जैसे मिट्टी पिघलने लगेगी और पानी में बहने लगेगी, कार्क उठने लगेगा ऊपर की तरफ। कोई उठा नहीं रहा है। मिट्टी बिलकुल बह जाएगी पिघलकर, हटकर, कार्क जमीन से ऊपर उठ आएगा। पानी की सतह पर तैरने लगेगा। किसी ने उठाया नहीं है। नियम! कार्क जैसे ही बोझिल नहीं रहा, उठ जाता है।
उद्धार का अर्थ है कि आप जैसे ही अपने को छोड़ देते हैं, उठ | जाते हैं, खींच लिए जाते हैं।
कृष्ण कहते हैं, मैं उसको, जो सगुण रूप से, साकार को, एक परमात्मा की धारणा को, उसके चरणों में अपने को समर्पित करता है; अनन्य भाव से निरंतर, सतत उसका स्मरण करता है; वही उसकी धुन, वही उसका स्वर श्वास-श्वास में समा जाता है; रोएं - रोएं में उसी की पुलक हो जाती है; उठता, बैठता, सोता, सब भांति उसी को याद करता है; उसके ही प्रेम में लीन रहने लगता है; ऐसी जो तल्लीनता बन जाती है, उसका मैं शीघ्र ही उद्धार कर लेता हूं।
शीघ्र इसलिए कि वह पहले चरण पर ही बोझ से हट जाता है। ज्ञानी का भी उद्धार होता है, लेकिन आखिरी चरण पर ।
तो जिन्हें यात्रा - पथ में अपने को बचा रखना हो और अंत में ही छोड़ना हो, वे निराकार की तरफ जा सकते हैं। जिनको पहले ही चरण पर सब छोड़ देना हो, भक्ति उनके लिए है। निश्चित ही, जो पहले चरण पर छोड़ता है, पहले चरण पर ही मिलन शुरू हो जाता है । जितनी देर आप अपने को खींचते हैं, उतनी ही देर होती है। जितने | जल्दी अपने को छोड़ देते हैं, उतने ही जल्दी घटना घट जाती है।
यह आत्मिक उत्थान आपके अहंकार के बोझ से ही रुका है। यह खयाल कि मैं हूं, इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और
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@ गीता दर्शन भाग-60
जब तक मैं हूं, तब तक परमात्मा नहीं हो सकता। और जब मैं मिट रास्ता खुल सकता है। क्योंकि गुरु तो केवल बहाना है। जब कोई जाऊं, तभी वह हो सकता है।
अपने को पूरी तरह छोड़ता है, तो वह गुरु को परमात्मा मानकर ही जीसस ने कहा है, जो अपने को मिटाएंगे, केवल वे ही बचेंगे। छोड़ता है। और किसी का इतनी सरलता से, इतनी पूर्णता से किसी जो अपने को बचाएंगे, वे व्यर्थ ही अपने को मिटा रहे हैं। को परमात्मा मान लेना, अगर वह आदमी गलत हो-अगर सही
हम अपने को बचा रहे हैं। कुछ है भी नहीं बचाने योग्य, फिर | हो, तब तो इसका रूपांतरण होगा ही-अगर वह गलत हो, तो भी बचा रहे हैं!
| उसका भी रूपांतरण होगा। कुछ ही दिन पहले एक युवक मेरे पास आया था-अमेरिका और छोड़ तो रहा है परमात्मा के लिए। वह गुरु तो प्रतीक है। से लंबी यात्रा करके, न मालूम किन-किन आश्रमों, किन-किन | उसके पीछे जो छिपा हुआ है परमात्मा, उसके लिए छोड़ा जा रहा है। साधना-स्थलों पर भटककर। मुझसे कहने लगा, गुरु की तलाश लेकिन हम डरे हुए हैं कि कहीं कुछ खो न जाए! जिनके पास है। लेकिन अब तक गुरु मिला नहीं। मैंने उससे पूछा, किस भांति कुछ भी नहीं है! गुरु की तलाश करोगे? क्या उपाय है तुम्हारे पास? कैसे तुम ___ कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया के मजदूरों से कहा है कि सारी जांचोगे? क्या है कसौटी? क्या है तराजू ? कोई निकष है, जिससे दुनिया के सर्वहारा मजदूरो, इकट्ठे हो जाओ, क्योंकि तुम्हारे पास तुम कसोगे कि कौन गुरु है ? तुम्हें पता है कि गुरु का क्या अर्थ है ? | सिवाय हथकड़ियां खोने को कुछ भी नहीं है। यूनाइट आल दि क्या लक्षण है?
प्रोलिटेरियंस, बिकाज यू हैव नथिंग टु लूज, एक्सेप्ट योर चेन्स। उसने कहा, नहीं; यह तो मुझे कुछ पता नहीं है। तो फिर, मैंने | सिवाय जंजीरों के खोने को है भी क्या! तो डरते किसलिए हो? कहा, तुम भटकते रहो पूरी जमीन पर। गुरु कैसे मिलेगा? क्योंकि इकट्ठे हो जाओ! गुरु से मिलना हो, तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। तुमने कहीं पता नहीं, यह बात कहां तक सच है, क्योंकि ऐसा गरीब आदमी किसी के पास कभी अपने को छोड़ा? उसने कहा कि कहीं छोडूं खोजना मुश्किल है, जिसके पास कुछ न हो। गरीब के पास भी अपने को और कोई नुकसान हो जाए! और आदमी गलत हो, और | कुछ होता है; कम होता है। भिखमंगे के पास भी कुछ होता है; सच्चा न हो, और धोखेबाज हो। और गुरु तो हो, लेकिन मिथ्या कम होता है। बिलकुल ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके हो, बनावटी हो, और कुछ नुकसान हो जाए!
पास कुछ भी न हो। सांसारिक अर्थों में तो कुछ न कुछ होता है। तो मैंने उससे पूछा, तेरे पास खोने को क्या है, यह पहले तू लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह बात बिलकुल सही है कि मुझे बता दे! नुकसान क्या होगा? तेरे पास कुछ खोने को है जो | | आपके पास कुछ भी नहीं है; आप सर्वहारा हो। फिर भी डरे हुए कोई तुझसे छीन लेगा? तेरी हालत ऐसी है कि नंगा आदमी नहाता | हो कि कहीं कुछ चूक न जाए। परमात्मा के पास भी सम्हलकर जाते नहीं, क्योंकि वह सोचता है, नहाऊंगा, तो कपड़े कहां सुखाऊंगा! हो कि कहीं कुछ छिन न जाए! कि जिसके पास कुछ भी नहीं है, रातभर पहरा देता है कि कहीं जो इतना डरा है, भक्ति का मार्ग उस के लिए नहीं है। भक्ति के चोरी न हो जाए! तू बचा क्या रहा है? तेरे पास है क्या? और जब | मार्ग पर तो ट्रस्ट, भरोसा, उसका भरोसा, कि ठीक है। वह तेरे पास कुछ है ही नहीं, तो क्या हानि तुझे पहुंचाई जा सकती है? | | मिटाएगा, तो इसमें ही कुछ लाभ होगा। कि वह छीनेगा, तो इसमें क्या तुझसे छीना जा सकता है ? तो तू हिम्मत कर और अपने को | | कुछ बात होगी, रहस्य होगा। कि वह नुकसान करेगा, तो उस बचाना छोड़। क्योंकि जिस दिन तू अपने को बचाना छोड़ेगा, उसी नुकसान से जरूर कुछ लाभ होने वाला होगा। इस भांति जो अपने दिन गुरु से मिलने की संभावना शुरू होती है। उसी दिन से तू | को छोड़ने को तैयार है, तो उद्धार इसी क्षण हो सकता है। योग्य बनना शुरू हुआ।
भक्त के लिए एक क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के और फिर अगर गलत गुरु भी मिल जाएगा, तो डर क्या है? जो लिए जन्मों-जन्मों तक भी रुकना पड़ सकता है, क्योंकि अपनी ही अपने को छोडता है परी तरह. उससे गलत गरु भी डरता है। और चेष्टा से लगा है। भक्त तो अभी एवेलेबल हो जाता है, इसी अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई अपने को ठीक से छोड़ दे | वक्त-अगर वह छोड़ दे। और तत्काल नियम काम करना शुरू गलत गुरु के पास भी, तो गलत गुरु के लिए भी ठीक होने का कर देता है। कृष्ण उसे खींच लेते हैं।
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पाप और प्रार्थना
कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब होता है अट्रैक्शन, इसका मतलब होता है मैग्नेट । कृष्ण का मतलब होता है, जो खींचता है, आकृष्ट करता है।
कृष्ण एक नियम हैं। अगर आप अपने को छोड़ने को तैयार हैं, तो नियम आपको खींच लेता है। आप जगत के आत्यंतिक चुंबक के निकट पहुंच जाते हैं। आप खींच लिए जाते हैं - दुख से, पीड़ा से, अंधकार से । लेकिन स्वयं को गंवाने की हिम्मत चाहिए। स्वयं को मिटाने का साहस चाहिए। स्वयं को गला देने की तैयारी
चाहिए।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई बीच से उठे न। जब तक कीर्तन पूरा न हो जाए, बैठें। और कीर्तन में सम्मिलित हों।
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अध्याय 12 चौथा प्रवचन
संदेह की आग
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0 गीता दर्शन भाग-60
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। अश्रद्धा से। आप दोनों की खिचड़ी हैं। वही तकलीफ है। उसकी भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।७।। | वजह से न तो आप अश्रद्धा की यात्रा कर सकते हैं, क्योंकि जब
मय्येव मन आधत्स्व मयि बाद निवेशय।। अश्रद्धा पर जाना चाहते हैं, तो श्रद्धा पैर को रोक लेती है। और निवसिष्यसि मय्येव अत अय न संशयः ।।८।। उसकी वजह से श्रद्धा की यात्रा भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि जब हे अर्जुन, उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं | श्रद्धा की तरफ जाना चाहते हैं, तो अश्रद्धा पैर रोक लेती है। शीघ्र ही मृत्यु-रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता । कृपा करें और पूरी तरह अश्रद्धालु हो जाएं। डरें मत। भय भी न हूं। इसलिए हे अर्जुन, तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही | खाएं। तर्क ही करना है, तो पूरा कर लें। कुतर्क की सीमा का भी
बुद्धि को लगा; इसके उपरांत तू मेरे में ही निवास करेगा कुछ संकोच न करें। पूरी तरह उतर जाएं अपनी अश्रद्धा में। वह अर्थात मेरे को ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। पूरी तरह उतर जाना ही आपको नरक में ले जाएगा। और नरक में
जाए बिना नरक से कोई छुटकारा नहीं है।
और दूसरों की बातें मत सुनें। क्योंकि अधकचरी दूसरों की बातें पहले थोड़े से प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, शंका, | कोई सहायता न पहुंचाएंगी। जब आप नरक की तरफ जा रहे हों, अश्रद्धा, अनास्था, विद्रोह आदि से भरा हुआ व्यक्ति | तो स्वर्ग की बात ही भूल जाएं और पूरी तरह नरक में उतर जाएं। कैसे प्रार्थना करे, भक्ति करे, समर्पण करे? एक बार अनुभव कर लें ठीक से, तो फिर किसी को कहना नहीं
पड़ेगा कि श्रद्धा का अमृत क्या है। अश्रद्धा का जहर जिसने देख
लिया, वह अपने आप श्रद्धा के अमृत की तरफ चलना शुरू हो नसके मन में यह सवाल उठ आया हो कि कैसे समर्पण जाता है। 101 करूं, कैसे प्रार्थना करूं, वह व्यक्ति, और वह व्यक्ति | इस युग की तकलीफ अश्रद्धा नहीं है। इस युग की तकलीफ
जो अश्रद्धा से भरा हो, अनास्था से भरा हो, शंका से | अधूरापन है। आपका आधा हिस्सा श्रद्धा से भरा है और आधा भरा हो, एक ही नहीं हो सकते। क्योंकि जो शंका से भरा है, प्रार्थना अश्रद्धा से भरा है। कोई भी यात्रा पूरी नहीं हो पाती। का सवाल ही उसके मन में नहीं उठेगा। जो शंका से भरा है, और ध्यान रहे, बुराई से भी छूटने का कोई उपाय नहीं है, जब समर्पण का विचार ही उसके मन में नहीं उठेगा।
तक बुराई पूरी न हो जाए। और पाप के भी बाहर उठने का कोई और जिसके मन में समर्पण और प्रार्थना का विचार उठना शुरू रास्ता नहीं है, जब तक कि पाप में आप पूरी तरह डूब न जाएं। हो गया है, उसे समझ लेना चाहिए, उसकी शंकाएं बीमारियां बन जिसमें हम पूरी तरह डूबते हैं, जिसका हमें पूरा अनुभव हो जाता गई हैं; उसकी अश्रद्धा उसे खा रही है। अपनी अनास्था से वह खुद | है, फिर किसी को कहने की जरूरत नहीं होती कि आप इसके बाहर ही सड़ रहा है। उसकी अनास्था उसके लिए कैंसर है। निकल आएं। आप स्वयं ही निकलना शुरू कर देते हैं।
और जब तक यह दिखाई न पड़ जाए, तब तक प्रार्थना की यात्रा अभी तो बहुत लोग आपको समझाते हैं कि श्रद्धा करो और नहीं हो सकती। कोई दूसरा आपको यात्रा नहीं करा सकेगा। श्रद्धा नहीं आती। क्योंकि जिसने अश्रद्धा ही ठीक से नहीं की है, आपको स्वयं ही जानना पड़ेगा कि अश्रद्धा की पीड़ा क्या है। | उसे श्रद्धा कैसे आ सकेगी! श्रद्धा अश्रद्धा के बाद का चरण है। अनास्था का कांटा आपको बुरी तरह चुभेगा, तो ही आप उसे __ आस्तिक वही हो सकता है, जो नास्तिक हो चुका है। नास्तिकता निकालने के लिए तैयार होंगे।
के पहले सारी आस्तिकता बचकानी, दो कौड़ी की होती है। जिसने इसलिए मुझसे अगर पूछते हैं कि क्या करें, अश्रद्धा से भरे हैं? नास्तिकता नहीं जानी, वह आस्तिक हो कैसे सकेगा? जिसने अभी तो पूरी तरह अश्रद्धा से भर जाएं। कुनकुनी अश्रद्धा ठीक नहीं है। इनकार करना नहीं सीखा, उसके हां का भी कोई मूल्य नहीं है। अश्रद्धा से पूरी तरह भर जाएं, ताकि उससे ऊब सकें और छुटकारा | उसके स्वीकार में भी कोई जान नहीं है। उसका स्वीकार नपुंसक है, हो सके।
इम्पोटेंट है। आम हालत ऐसी है कि न तो आप श्रद्धा से भरे हैं, और न । कोई डर नहीं है। न कहें, परमात्मा नाराज नहीं होता है। लेकिन
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@ संदेह की आग
पूरे हृदय से न कहें, तो न भी उबारने वाली हो जाती है। और जिसने अश्रद्धा भी झूठी है। उसकी खोज भी झूठी है। उसका व्यक्तित्व ही पूरी तरह से न कहकर देख लिया और देख लिया कि न कहने का पूरा झूठा है। दुख और संताप क्या है और झेल ली चिंता और आग की लपटें, | | सच्चे होना सीखें। सच्चे होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं वह आज नहीं कल हां कहने की तरफ बढ़ेगा। उसकी हां में बल | | है। नास्तिक भी सच्चा हो सकता है। फिर नास्तिकता पूरी होनी होगा। उसकी हां में उसके जीवन का अनुभव होगा।
चाहिए; तो आप सच्चे नास्तिक हो गए। और मैंने अब तक नहीं तो मुझसे यह मत पूछे कि आपका चित्त अश्रद्धा से भरा है, तो सुना है कि कोई सच्चा नास्तिक आस्तिक बनने से बच गया हो। आप प्रार्थना की तरफ कैसे जाएं। पूरी तरह अश्रद्धा से भर जाएं। सच्चे नास्तिक को आस्तिक बनना ही पड़ता है। क्योंकि जिसकी आपके लिए प्रार्थना की तरफ जाने के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। | नास्तिकता तक में सच्चाई है, वह कितने देर तक अपने को
मगर अधूरे-अधूरे होना अच्छा नहीं है। परमात्मा की प्रार्थना भी आस्तिक बनाने से रोक सकता है! कर रहे हैं और भीतर संदेह भी है, तो प्रार्थना क्यों कर रहे हैं? बंद लेकिन तुम्हारी आस्तिकता तक झूठी है। और जिसकी आस्तिकता करें यह प्रार्थना। अभी संदेह ही कर लें ठीक से। और जब संदेह न तक झूठी है, वह कैसे परमात्मा तक पहुंच सकता है! धार्मिकता भी बचे, तब प्रार्थना शुरू करें। कुछ भी पूरा करना सीखना चाहिए। | झूठी है, ऊपर-ऊपर है। जरा-सा खोदो, तो हर आदमी के भीतर क्योंकि पूरा करते ही व्यक्तित्व अखंड हो जाता है। आप नास्तिक मिल जाता है। बस, ऊपर से एक पर्त है आस्तिकता की टुकड़े-टुकड़े में नहीं होते।
स्किन डीप। चमड़ी जरा-सी खरोंच दो, नास्तिक बाहर आ जाता है। आपके भीतर पच्चीस तरह के आदमी हैं। आप एक भीड हैं। और वह जो भीतर है. वही असली है। वह जो ऊपर-ऊपर है, उसका एक मन का हिस्सा कछ कहता है। दसरा मन का हिस्सा कछ कोई मल्य नहीं है। कहता है। तीसरा मन का हिस्सा कुछ कहता है।
तो पहले तो ईमानदारी से इस बात की खोज करें कि अश्रद्धा है, एक देवी मेरे पास आज सुबह ही आई थीं। कहती हैं कि बीस | | शंका है, तो ठीक है। मेरे चित्त में जो स्वाभाविक है, मैं उसका पीछा साल से ईश्वर की खोज कर रही हैं। मैंने उनसे कहा कि कल सुबह | करूंगा। तो मैं शंका पूरी करूंगा जब तक कि हार न जाऊं। और चौपाटी पर ध्यान के लिए पहुंच जाएं छः बजे। उन्होंने कहा, छः बजे | जब तक कि मेरी शंका टूट न जाए, तब तक जहां मेरी शंका मुझे आना तो बहुत मुश्किल होगा।
ले जाएगी, मैं जाऊंगा। बीस साल से ईश्वर की खोज चल रही है। सुबह छः बजे चौपाटी ___ थोड़ी हिम्मत करें और शंका के रास्ते पर चलें। ज्यादा आगे पर आना मुश्किल है! यह ईश्वर की खोज है! इस तरह के अधूरे | आप नहीं जा सकेंगे। क्योंकि शंका का रास्ता कहां ले जाएगा? लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। ये त्रिशंकु की भांति अटके रह जाते हैं। शंका का अंतिम परिणाम क्या होगा? संदेह करके कहां पहुंचेंगे? संकोच भी नहीं होता, सोचने में खयाल भी नहीं आता कि मैं कह | क्या मिलेगा? रही हूं कि बीस साल से मैं ईश्वर को खोज रही हूं और सुबह छः । आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि संदेह से उसे आनंद मिला बजे पहुंचना मुश्किल है! यह खोज कितनी कीमत की है? हो। और आज तक किसी ने भी नहीं कहा कि शंका से उसे जीवन
बीस जन्म भी इस तरह खोजो, तो कहीं पहुंचना नहीं हो पाएगा। की परम अनुभूति का अनुभव हुआ हो। आज तक किसी ने भी नहीं यह खोज है ही नहीं। यह सिर्फ धोखा है। ईश्वर से कुछ लेना-देना कहा कि इनकार करके उसने अस्तित्व की गहराई में प्रवेश कर भी मालूम नहीं पड़ता है। यह भी ऐसे रास्ते चलते पूछ लिया है। लिया हो। यह भी ऐसे ही कि कहीं ईश्वर पड़ा हुआ मिल जाए और फुर्सत का | | आज नहीं कल आपको दिखाई पड़ने लगेगा कि आप अस्तित्व समय हो; तो जैसा ताश खेल लेते हैं, ऐसा उसको भी उठा लेंगे। | के बाहर-बाहर परिधि पर भटक रहे हैं। आज नहीं कल आपको ईश्वर अगर कहीं ऐसे ही मिलता हो—बिना कुछ खर्च किए, बिना | खद ही दिखाई पडने लगेगा. आपकी शंका ईश्वर को नहीं मिटा कुछ श्रम किए, बिना कुछ छोड़े, बिना कुछ मेहनत उठाए–तो | | रही है, आपको मिटा रही है। और आपका संदेह धर्म के खिलाफ सोचेंगे ले लेंगे।
| नहीं है, आपके ही खिलाफ है; आपके ही पैरों को और जड़ों को इस भाव से जो चलता है, उसकी श्रद्धा भी झूठी है, उसकी काटे डाल रहा है।
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गीता दर्शन भाग-6
जब तक आपको यह दिखाई न पड़ जाए कि आपकी शंका आपकी ही शत्रु है, तब तक, तब तक आप प्रार्थना की यात्रा पर नहीं निकल सकते हैं। मेरे कहने से आप नहीं निकलेंगे। किसी के कहने से आप नहीं निकलेंगे। जब आपकी शंका आपको आग की तरह जलाने लगेगी, तभी!
'आ'
बुद्ध के पास एक आदमी आया था। और वह आदमी कहने लगा, आपकी बातें सुनते हैं, अच्छा लगता है; लेकिन संसार से छूटने का मन नहीं होता अभी। और आप कहते हैं कि संसार दुख है, यह भी समझ में आता है; लेकिन फिर भी अभी संसार में रस है तो बुद्ध ने कहा, मेरे कहने से कि संसार दुख है, तुझे कैसे समझ सकेगा ! और जिस दिन तुझे समझ में आ जाएगा कि संसार दुख है, तू मेरे लिए रुकेगा ! तू छलांग लगाकर बाहर हो जाएगा। बुद्ध ने कहा, तू ऐसा समझ कि तेरे घर में आग लग गई है। तो तू मुझसे पूछने आएगा कि घर से बाहर निकलूं, न निकलूं? तू किस से पूछने रुकेगा ? अगर मैं तेरे घर में मेहमान भी हूं, तो भी तू मुझे भीतर ही छोड़कर बाहर निकल जाएगा। पहले तू बाहर निकल जाएगा।
लेकिन तुझे खुद ही अनुभव होना चाहिए कि घर में आग लगी | है। तुझे तो लग रहा हो कि घर के चारों तरफ फूल खिले हैं और आनंद की वर्षा हो रही है, और मैं तुझसे कह रहा हूं घर में आग लगी है, तो तू मुझसे कहता है, आपकी बात समझ में आती है। क्योंकि तेरी इतनी हिम्मत भी नहीं है कहने की कि आपकी बात मुझे समझ में नहीं आती। तेरा यह भी साहस नहीं है कहने का कि तुम झूठ बोल रहे हो। यह घर आनंद से भरा है। आग कहां लगी है! तू बिलकुल कमजोर है। तो तू कहता है कि बात समझ में आती है कि घर में आग लगी है, फिर भी छोड़ने का मन नहीं होता ।
ये दोनों बातें विरोधी हैं। अगर घर में आग लगी है, तो छोड़ने का मन होगा ही । छोड़ने का मन कहना भी ठीक नहीं है । घर में आग लगी हो, तो आपको पता भी नहीं चलता कि आग लगी है। जब आप घर के बाहर हो जाते हैं, ठीक से सांस लेते हैं, तब पता चलता है कि घर में आग लगी है। घर में आग लगी है, यह सोचने के लिए भी समय नहीं गंवाते । भागकर पहले बाहर हो जाते हैं।
जिस दिन आपकी शंका, संदेह, अनास्था आपके लिए अग्नि की लपटें बन जाएगी, उसी दिन आप प्रार्थना की तरफ दौड़ेंगे, उसके पहले नहीं।
इसलिए मैं आपसे कहता हूं, किसी की सुनकर प्रार्थना के रास्ते
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पर मत चले जाना। किसी की मानकर कि संसार दुख है, परमात्मा |को मत खोजने लगना । अपनी ही मानना, क्योंकि आपके अतिरिक्त | आप जब भी किसी और की मान लेंगे, आप झूठे हो जाएंगे।
तो अच्छा है; बुरा कुछ भी नहीं है। आपकी अश्रद्धा भी आपके | जीवन में निखार लाएगी। आपकी नास्तिकता भी आपको तैयार करेगी आस्तिकता के लिए। आपका संदेह भी आपको छांटेगा, | काटेगा, तराशेगा, और आप योग्य बनेंगे कि परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर सकें।
मेरी दृष्टि में परमात्मा के विपरीत कुछ भी नहीं है। हो भी नहीं सकता। इसलिए अगर कोई कहता है कि नास्तिक परमात्मा के | विरोध में है, तो वह नासमझ है। उसे आस्तिकता की कोई खबर नहीं है।
नास्तिक भी तैयारी कर रहा है आस्तिक होने की। वह भी कह रहा है कि नहीं है परमात्मा । उसके भीतर भी खोज शुरू हो गई है। नहीं तो क्या प्रयोजन है यह कहने से भी कि परमात्मा नहीं है? क्या प्रयोजन है सोचने से कि वह है या नहीं? क्या जरूरत है कि अश्रद्धा करके हम अपनी शक्ति नष्ट करें ?
वह जो अश्रद्धा कर रहा है, वह असल में श्रद्धा की तलाश में है। वह चाहता है कि हो। लेकिन उसे मालूम नहीं पड़ता कि है । इसलिए इनकार करता है। और इनकार करता है, तो पीड़ा अनुभव करता है।
इनका पूरा होने दें। यह धार तलवार की गहरे उतर जाए और हृदय को काट डाले पूरा। आप प्रार्थना के रास्ते पर आ जाएंगे। प्रार्थना रास्ते पर आना स्वाभाविक हो जाता है।
और जल्दी मत करें। बिना अनुभव के कहीं से भी निकल जाना | खतरनाक है। बिना अनुभव के कहीं से भी भाग जाना खतरा है। | क्योंकि जहां से भी आप बिना अनुभव के भाग जाते हैं, वह जगह आपका पीछा करेगी। और आपके मन में रस तो बना ही रहेगा। और आपके मन की दौड़ तो उसी तरफ होती ही रहेगी। आप भाग सकते हैं कहीं से भी। लेकिन जिससे आप बिना अनुभव के भाग रहे हैं, | वह आपका पीछा करेगा; वह छाया की तरह आपके साथ होगा ।
तो मेरी दृष्टि भागने की नहीं है। मेरी दृष्टि तो किसी चीज के अनुभव की परिपक्वता में उतर जाने की है। जब पका हुआ पत्ता वृक्ष से गिरता है, तो उसका सौंदर्य अनूठा है। न वृक्ष पता चलता | कि पत्ता कब गिर गया; न वृक्ष में कोई घाव होता है पत्ते के गिरने से; न कोई पीड़ा होती । न पत्ते को पता चलता है कि मैंने वृक्ष को
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o संदेह की आग
कब छोड़ दिया। हवा का एक हलका-सा झोंका काफी हो जाता है। कहीं मन का कोई कोना कहेगा, काश! मीरा का ईश्वर सच होता,
लेकिन कच्चे पत्ते को तोड़ना, वृक्ष में भी घाव छूटता है और कच्चे | तो हम भी नाच सकते थे। पत्ते की भी नस-नस तन जाती है। कच्चे पत्ते का टूटना दुर्घटना है। नाचना आप चाहते हैं; आनंदित आप होना चाहते हैं। ऐसा पके पत्ते का गिरना एक सुखद, शांत, नैसर्गिक बात है। आदमी खोजना मुश्किल है, जिसकी आनंद की आकांक्षा न हो।
आप जहां से भी हटें, पके पत्ते होकर हटना। कच्चे पत्ते की तरह और संदेह से आनंद मिलता नहीं। अश्रद्धा से आनंद मिलता नहीं। मत टूट जाना, नहीं तो घाव रह जाएंगे। और पके पत्ते का जो सौंदर्य | अनास्था से आनंद मिलता नहीं। और आनंद की आकांक्षा है, और है, उससे आप वंचित रह जाएंगे।
बुद्धि संदेह खड़े कर देती है। जहां आनंद मिल सकता है, वहां बुद्धि डरें मत। अभी संदेह है, तो संदेह को पकने दें। और किसी की | सवाल खड़ा कर देती है। और हृदय मांगता है आनंद। और बुद्धि मत सुनना। क्योंकि चारों तरफ सुनाने वाले लोग बहुत हैं। चारों | आनंद दे नहीं सकती। इस दुविधा में प्राण उलझ जाते हैं। तरफ आपको सधारने वाले लोग बहत हैं। उनसे सावधान रहना।। तो आप भी नकली नाच नाच सकते हैं। आप भी मजीरा उठाकर चारों तरफ आपको बनाने वाले लोग बहुत हैं, उनसे जरा बचना। | नाच सकते हैं। लेकिन वह ऊपर-ऊपर होगा। क्योंकि मीरा के नाच अपनी जीवन-धारा को मौका देना कि वह स्वभावतः जो भी चाहती में मीरा के पांव असली काम नहीं कर रहे हैं, मीरा की श्रद्धा असली है, उसके पूरे अनुभव से गुजर जाए। नहीं तो बड़ा उपद्रव होता है। काम कर रही है। मीरा से अच्छी नर्तकियां होंगी, जो ज्यादा अच्छा पूरे इतिहास में यह उपद्रव हुआ है।
नाच लेंगी। लेकिन मीरा के नाच का गुण और है। कितनी ही बड़ी हमारी तकलीफ क्या है? जिस मित्र ने पूछा है, संदेह मन में कोई नर्तकी और नर्तक हो, मीरा के नाच में जो बात है, वह उसके होगा, प्रार्थना का लोभ भी नहीं छूटता। क्योंकि हमने देखा है उन नाच में नहीं हो सकती। मीरा के पैर अनगढ़ होंगे। ताल न हो; लय लोगों को, जो प्रार्थना में आनंदित हैं। तकलीफ कहां खड़ी होती है ? | न हो; संगीत का अनुभव न हो; लेकिन कुछ और है, जो संगीत
मीरा नाच रही है। आपको लगता है कि काश, मैं भी ऐसा नाच | से भी बड़ा है। और कुछ और है, जो व्यवस्था से भी बड़ा है। और सकता! यह नाच संक्रामक है। यह आपके हृदय में भी पुलक | कुछ इतना गहन उतर गया है भीतर कि उसके उतरने के कारण नाच जगाता है; प्रलोभन पैदा करता है। यह मीरा की मुस्कुराहट, यह | हो रहा है। इस नाच के पीछे कुछ अलौकिक खड़ा है। उसकी आंखों की ज्योति, यह उसके चेहरे से बरसती हुई अमृत की ___ वह अलौकिक की श्रद्धा न हो, तो नाच तो आप भी सकते हैं, धारा, यह आपको भी लगती है कि मेरे जीवन में भी हो। लेकिन आपकी आत्मा में आनंद पैदा नहीं होगा। नाच बाहर-बाहर
लेकिन मीरा कहती है कि मैं कृष्ण को देखकर नाच रही हूं। | रह जाएगा। आप भीतर खाली के खाली, रिक्त, उदास, वैसे के भीतर संदेह खड़ा हो जाता है। कृष्ण आपको कहीं दिखाई नहीं | वैसे रह जाएंगे। पड़ते। मीरा पागल मालूम पड़ती है। यह कृष्ण पर भरोसा करना | मीरा की श्रद्धा ही केंद्र है। आप संदेह के केंद्र पर नाच सकते हैं, मुश्किल है।
| लेकिन मीरा के सुख की अनुभूति आपको नहीं होगी। मीरा जिसके लिए नाच रही है, उस पर भरोसा करना मुश्किल और बड़ी कठिनाई इससे खड़ी होती है कि जाग्रत पुरुषों का भी है; और मीरा के नाच से बचना भी मुश्किल है। इससे तकलीफ बाहर का जीवन ही हमें दिखाई पड़ता है। उनके भीतर का तो हमें खड़ी होती है। लगता है, काश, हम भी ऐसा नाच सकते! लेकिन कुछ पता नहीं है। जिस कारण मीरा नाच रही है, उसके लिए तर्कयुक्त प्रमाण नहीं हम महावीर को देखते हैं। उनकी शांत मुद्रा दिखाई पड़ती है। मिलते। किस ईश्वर के लिए नाच रही है, वह ईश्वर कहीं दिखाई | उनकी आंखों का मौन दिखाई पड़ता है। मन प्रलोभन से भर जाता नहीं पड़ता। हजार शंकाएं बुद्धि खड़ी करती है।
है। काश, ऐसा हमें भी हो सके! फिर महावीर की बात सुनते हैं, - तो हम कहते हैं, कोई ईश्वर वगैरह नहीं है। तो फिर मीरा पागल | | उस पर श्रद्धा नहीं आती। है, दिमाग इसका खराब है, ऐसा कहकर अपने को समझा लेते हैं। बुद्ध को देखते हैं। उनके आस-पास जो हवा बहती है शांति की, फिर भी वह मीरा की धुन, वह नाच पीछा करता है। वह आपके - वह हमें भी छूती है। उनके पास पहुंचकर जो स्नान हो जाता है, कि सपनों में आपके साथ जाएगा। आप उठेंगे और बैठेंगे और लगेगा, पोर-पोर जैसे किसी ताजगी से भर गए, वह हमें भी प्रतीत होता है।
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00 गीता दर्शन भाग-60
लेकिन बुद्ध की बात सुनकर श्रद्धा नहीं आती।
पर गोली का निशान है। गोली लकड़ी को आर-पार करके निकल बुद्ध के भीतर जो है, उसका हमें पता नहीं। बाहर जो है, हमें गई है। और एकाध मामला नहीं है; डेढ़ सौ निशान हैं! पता है। तो एक बड़ी उलटी प्रक्रिया शुरू होती है कि हम सोचते हैं, उसे लगा कि कोई मुझ से भी बड़ा निशानेबाज पैदा हो गया। जिस भांति बुद्ध बैठे हैं, हम भी बैठ जाएं, तो शायद जो भीतर घटा | | पास से निकलते एक राहगीर से उसने पूछा कि भाई, यह कौन है, वह हमें भी घट जाएगा। तो महावीर जैसा चलते हैं, हम भी आदमी है? किसने ये निशान लगाए हैं? किसने ये गोलियां चलाई चलने लगे। महावीर ने वस्त्र छोड़ दिए, तो हम भी वस्त्र छोड़ दें। | हैं? इसकी मुझे कुछ खबर दो। मैं इसके दर्शन करना चाहूंगा!
तो अनेक लोग महावीर को देखकर नग्न खड़े हो गए हैं। वे | | उस ग्रामीण ने कहा कि ज्यादा चिंता मत करो। गांव का जो चमार सिर्फ नंगे हैं; दिगंबर नहीं हैं। क्योंकि महावीर की नग्नता के पहले | है, उसका लड़का है। जरा दिमाग उसका खराब है। नट-बोल्ट भीतर एक आकाश उत्पन्न हो गया है। उस आकाश में वस्त्र छोड़ थोड़े ढीले हैं! दिए हैं। इनके भीतर वह आकाश उत्पन्न नहीं हुआ। इन्होंने सिर्फ उस सेनापति ने कहा, मुझे उसके दिमाग की फिक्र नहीं है। जो वस्त्र छोड़ दिए हैं। इनकी देह भर नंगी हो गई है।
आदमी डेढ़ सौ निशाने लगा सकता है इस अचूक ढंग से, वर्तुल महावीर चींटी भी हो. तो पांव फंक-फंककर रखते हैं। इसलिए | | के ठीक मध्य में, उसके दिमाग की मुझे चिंता नहीं। वह महानतम नहीं कि उन्हें डर है कि कहीं चींटी मर न जाए। उनके पीछे चलने | | निशानेबाज है। मैं उसके दर्शन करना चाहता हूं। . वाला भी पांव फूंक-फूंककर रखने लगता है कि कहीं चींटी मर न | उस ग्रामीण ने कहा कि थोड़ा समझ लो पहले। वह गोली पहले जाए। लेकिन इसे अपनी ही आत्मा का पता नहीं है, इसे चींटी की | | मार देता है, चाक का निशान बाद में बनाता है। ' आत्मा का पता कैसे हो सकता है! इसे अपने ही भीतर के जीवन | __करीब-करीब धर्म के इतिहास में ऐसा हुआ है। हम सब गोली का कोई अनुभव नहीं है, चींटी के जीवन का अनुभव कैसे हो | | पहले मार रहे हैं, चाक का निशान बाद में बना रहे हैं! लेकिन सकता है! इसकी अहिंसा थोथी, उथली, ऊपर-ऊपर हो जाती है। | | राहगीर को तो यही दिखाई पड़ेगा कि गजब हो गया। जिसे पता ऊपर से आचरण हो जाता है। भीतर का अंतस वैसा का वैसा बना | | नहीं, उसे तो दिखाई पड़ेगा कि गजब हो गया। रहता है।
जिंदगी बाहर से भीतर की तरफ उलटी नहीं चलती है। जिंदगी भीतर अंतस बदले, तो ही बाहर जो क्रांति घटित होती है; वह | की धारा भीतर से बाहर की तरफ है; वही सम्यक धारा है। गंगोत्री वास्तविक होती है। लेकिन यह भूल होती रही है।
भीतर है। गंगा बहती है सागर की तरफ। हम सागर से गंगोत्री की मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर हुआ, बालशेम। थोड़े से जमीन | तरफ बहाने की कोशिश में लगे रहते हैं। पर हुए कीमती फकीरों में एक। बालशेम से किसी ने पूछा कि तुम अगर आपके भीतर संदेह है, तो घबड़ाएं मत। संदेह की गंगा जब भी बोलते हो, तो तुम ऐसी चोट करने वाली मौजू कहानी कह | को सागर तक पहुंचने दें। और रुकावट मत डालें। आज नहीं कल देते हो। कहां से खोज लेते हो ये कहानियां? तो बालशेम ने कहा, आप पाएंगे कि संदेह ही आपको समर्पण तक ले आया। इससे एक कहानी से समझाता हूं।
उलटा कभी भी नहीं हुआ है। और बालशेम ने कहा कि एक सेनापति एक छोटे गांव से | सभी संदेह करने वाले, सम्यक संदेह करने वाले, राइट डाउट गुजरता था। बड़ा कुशल निशानेबाज था। उस जमाने में उस जैसा | करने वाले लोग समर्पण पर पहुंच गए हैं। अश्रद्धा ही श्रद्धा का द्वार निशानेबाज कोई भी न था। सौ में सौ निशाने उसके लगते थे।। बन जाती है। मगर पूरी अश्रद्धा। अनास्था ईमानदार, प्रामाणिक अचानक उसने देखा गांव से गुजरते वक्त अपने घोड़े पर, एक अनास्था आस्था की जननी है। बगीचे की चारदीवारी पर, लकड़ी की चारदीवारी, फेंसिंग, उसमें | थोपें मत। ऊपर-ऊपर से थोपें मत। ऊपर की चिंता मत करें। कम से कम डेढ़ सौ गोली के निशान हैं। और हर निशान चाक के | | मत पूछे कि मन अनास्था से भरा है, तो कैसे प्रार्थना करें। अनास्था एक गोल घेरे के ठीक बीच केंद्र पर है। डेढ सौ।
| से पूरा भर जाने दें। और मैं आपको कहता हूं कि प्रार्थना का बीज सेनापति चकित हो गया। इतना बड़ा निशानेबाज इस छोटे गांव | | आपके भीतर छिपा है। अनास्था को पूरी तरह बढ़ने दें। यह में कहां छिपा है। और जो चाक का गोल घेरा है. ठीक उसके केंद्र अनास्था ही उस बीज के लिए भूमि बन जाएगी। प्रार्थना का अंकुर
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आपके भीतर पैदा होगा।
नहीं मालूम पड़ती। बिना ईश्वर के चैन नहीं मालूम पड़ता। इसलिए नास्तिक होने से मत डरें अगर आस्तिक होना है। और अगर | श्रद्धा बढ़ाना चाहते हैं। पहले अपने भीतर की इस बात को समझिए किसी दिन ईश्वर के चरणों में पूरा सिर रखकर हां भर देनी है, तो कि मेरे भीतर कोई बेचैनी है, जिसकी वजह से ईश्वर की श्रद्धा अभी जब तक आपको लगे कि वह नहीं है, तब तक ईमानदारी से | बढ़ाना चाहता हूं। और अगर बेचैनी ठीक से समझ में आ जाए, तो इनकार करना। जल्दी हां मत भरना। जल्दी भरी गई हां गर्भपात है, | आप फिर प्रमाण नहीं पूछेगे, सबूत नहीं पूछेगे। एबार्शन है। उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह मुर्दा पैदा होता है। । प्यासा आदमी यह नहीं पूछता कि पानी है या नहीं! प्यासा
अनास्था के गर्भ को कम से कम नौ महीने तक तो चलने दें। आदमी पूछता है, पानी कहां है? प्यास न लगी हो, तो आदमी और अगर यह गर्भ पूरा हो गया हो, तो फिर मुझसे पूछने की | पूछता है, पता नहीं, पानी है या नहीं! प्यासे आदमी ने अब तक जरूरत न रह जाएगी। अगर आप सच में ही ऊब गए हों अपनी | नहीं पूछा है कि पानी है या नहीं। प्यासा आदमी पूछता है, पानी अश्रद्धा से, तो आप उसे छोड़ ही देंगे, फेंक ही देंगे। न ऊबे हों, | कहां है? कैसे खोजूं? तो थोड़ी प्रतीक्षा करें। थोड़ा ऊबें।
__ईश्वर के प्रमाण की जरूरत क्या है? आपके भीतर ईश्वर के डर इसलिए नहीं है मुझे, क्योंकि अश्रद्धा से कभी आनंद मिलता | बिना बेचैनी है, यह काफी प्यास है। और यही उसका प्रमाण है। नहीं. इसलिए आप तप्त नहीं हो सकते। आज नहीं कल आप उसे इस बात के फर्क को समझ लें। फेंक ही देंगे। श्रद्धा से ही आनंद मिलता है। और बिना आनंद के एक आदमी पूछता है, ईश्वर है या नहीं, इसका प्रमाण चाहिए। कोई व्यक्ति कब तक जीवित रह सकता है?
| मैं प्रमाण नहीं देता। मैं कहता हूं, छोड़ो फिक्र। जिसका प्रमाण नहीं, धर्म को पृथ्वी से मिटाया नहीं जा सकता तब तक, जब तक कि | | उसकी फिक्र क्यों करनी? ईश्वर को जाने दो; उसकी बला। तुम आदमी आनंद की मांग कर रहा है। जिस दिन आदमी आनंद के | | अपने रास्ते पर जाओ। ईश्वर तुमसे कभी कहने आता नहीं कि मेरा बिना जीने को राजी हो जाएगा, उस दिन धर्म को मिटाया जा सकता | प्रमाण तुमने अभी तक पता लगाया कि नहीं। तो झंझट में पड़ते क्यों है, उसके पहले नहीं।
हो? क्यों अपने मन को खराब करते हो? शांति से सोओ। क्यों धर्म परमात्मा की खोज नहीं है, आनंद की खोज है। और जिन्हें | नींद खराब करनी! अनिद्रा मोल लेनी! क्या बात है? आनंद खोजना है, उन्हें परमात्मा खोजना पड़ता है। और आनंद की | चैन नहीं है भीतर। कहीं भीतर कोई एक प्यास है, जो बिना ईश्वर खोज हमारे भीतर का नैसर्गिक स्वर है।
के नहीं बुझ सकती। बिना ईश्वर के प्यास नहीं बुझ सकती। वह प्यास भीतर से धक्के देती है कि पता लगाओ ईश्वर का।।
अपनी प्यास को समझो; ईश्वर को छोड़ो। पानी उतना . इससे ही संबंधित एक प्रश्न और एक मित्र ने पूछा | महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी प्यास महत्वपूर्ण है। पानी तो गौण है।
है, ईश्वर की ओर श्रद्धा बढ़ाना बहुत कठिन लगता | अगर प्यास न हो, तो पानी का करिएगा भी क्या! और अगर प्यास है, क्योंकि उसके अस्तित्व को मानने का कोई ठोस | हो, तो हम पानी खोज ही लेंगे। सबूत या कारण नहीं मिलता!
एक नियम जीवन का है कि उसी चीज की प्यास होती है, जो है। जो नहीं है, उसकी प्यास भी नहीं होती। जो नहीं है, उसका कोई
अनुभव भी नहीं होता; प्यास का भी अनुभव नहीं होता। उसके है श्वर की श्रद्धा बढ़ाना बहुत ही कठिन मालूम पड़ता | | अभाव का भी अनुभव नहीं होता। २ है। बढ़ाइए ही क्यों? ऐसी झंझट करनी क्यों! | आदमी की प्यास ही प्रमाण है। इसका मतलब यह हुआ कि
कौन-सी अडचन आ रही है आपको कि ईश्वर की | आपको सब कुछ मिल जाए, तो भी तृप्ति न होगी, जब तक कि श्रद्धा बढ़ानी है! मत बढ़ाइए। छोड़िए ईश्वर की बात ही। बेचैनी | आपको ईश्वर न मिल जाए। अगर आपको तृप्ति हो सकती है बिना क्या है? क्यों चाहते हैं कि ईश्वर की श्रद्धा बढ़े?
| उसके, तो आप तृप्त हो जाएं; ईश्वर को कोई एतराज नहीं है। आप तो अपने भीतर तलाश करिए। बिना ईश्वर के आपको शांति | मजे से तृप्त हो जाएं। वह आपकी तृप्ति में बाधा डालने नहीं आएगा।
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लेकिन आप तृप्त हो नहीं सकते। यह कठिनाई ईश्वर की नहीं | | प्यास है। है। यह आदमी के होने के ढंग की कठिनाई है। आदमी इस ढंग का | | नीत्शे ने कहा है, जिस दिन आदमी अपने से ऊपर जाना बंद कर है कि बिना ईश्वर के तृप्त नहीं हो सकता। और इसलिए जब हम देगा, उस दिन मर जाएगा। यह अपने से ऊपर जाने की एक प्यास आदमी से ईश्वर छीन लेते हैं, तो वह न मालूम किस-किस तरह | है आदमी के भीतर। के ईश्वर गढ़ लेता है।
जैसे बीज टूटता है और आकाश की तरफ उठना शुरू हो जाता रूस में एक बड़ा प्रयोग हुआ कि कम्युनिस्टों ने ईश्वर छीन | है। वह आकाश की तरफ उठने की आकांक्षा ही वृक्ष बन जाती है। लिया। तो आपको पता है क्या हुआ? जैसे ही ईश्वर छिन गया, | आदमी भी निरंतर अपने से ऊपर उठकर आकाश की तरफ जाना लोगों ने राज्य को ईश्वर मानना शुरू कर दिया। चर्च से जीसस की | चाहता है। वह आकाश की तरफ जाने की आकांक्षा ही ईश्वर है। मूर्ति तो हट गई, लेकिन क्रेमलिन के चौराहे पर लेनिन की लाश आप तब तक बीज ही रहेंगे, जब तक ईश्वर का वृक्ष आप में न रख दी गई। लोग उसको ही फूल चढ़ाने लगे; उसके ही चरणों में | लग जाए। जब तक आप ईश्वर न हो जाएं, तब तक कोई संतोष सिर रखने लगे!
संभव नहीं है। ईश्वर से कम में कोई तृप्ति नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। लेनिन तो नास्तिक था। मानता नहीं है यही प्रमाण है कि आपके भीतर प्यास है। इसके अतिरिक्त और कि मृत्यु के बाद कुछ भी बचता है। लेकिन उसकी लाश रखी है | | कोई प्रमाण नहीं है। कोई गणित नहीं है ईश्वर का, कि सिद्ध किया क्रेमलिन में। लाखों लोग प्रतिवर्ष चरण छू रहे हैं। किसके चरण छू | जा सके कि दो और दो चार होते हैं, ऐसा कोई गणित हो। कोई तर्क रहे हैं? जो नहीं है अब उसके? और जो अब नहीं है, वह कभी भी नहीं है, जिससे साबित किया जा सके कि वह है। - नहीं था। इस मुद्दे को क्यों छू रहे हैं?
| और अच्छा है कि कोई तर्क नहीं है। क्योंकि तर्कों से जो सिद्ध गहरी प्यास है। कहीं किसी चरण में सिर रखने की आकांक्षा है। | | होता है, वह और कुछ भी हो-गणित की थ्योरम हो, विज्ञान का किसी अज्ञात के सामने झुकने का मन है। तृप्ति न होगी; तो लेनिन | | फार्मूला हो-धर्म की अनुभूति नहीं होगी। और अच्छा है कि तर्क के ही चरणों में सिर रख रहे हैं। ईश्वर को हमने छीन लिया है। तो | | से वह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तर्क से कोई चीज कितनी ही सिद्ध हमने फिर कुछ भी गढ़ लिया है। लेकिन आदमी बिना श्रद्धा के नहीं हो जाए, उससे प्यास नहीं बुझती।
। रह पाता। ईश्वर की श्रद्धा छीनो, राज्य की श्रद्धा करेगा, नेता की समझें। प्यास तो पानी से बुझती है। लेकिन एच टू ओ का श्रद्धा करेगा। यहां तक कि अभिनेता की श्रद्धा करेगा! कुछ चाहिए, | फार्मूला कागज पर लिखा रखा हो, बिलकुल गणित से व्यवस्थित, जो उसके श्रद्धा का आश्रय बन जाए। कुछ चाहिए, जिसके लिए | उससे नहीं बुझती। एच टू ओ के फार्मूले को आप पी जाना वह समझे कि जी सकता हूं।
घोलकर, प्यास नहीं बुझेगी। प्यास तो पानी से बुझेगी। क्योंकि लेकिन आदमी बिना ईश्वर के नहीं रह सकता। आदमी ईश्वर प्यास एक अनुभव मांगती है; एक ठंडक मांगती है, जो आपके के बिना बेचैन ही रहता है। एक परम आश्रय चाहिए। प्राणों में उतर जाए। एक रस मांगती है, जो आपके भीतर जाए और
तो मैं आपसे नहीं कहता कि कोई प्रमाण है उसका। कोई प्रमाण | आपको रूपांतरित कर दे। फार्मूला तो किताब पर होता है। नहीं है आपकी प्यास के अतिरिक्त। अपनी प्यास को मिटा लो, । ईश्वर का कोई फार्मूला नहीं है। और जितनी किताबें ईश्वर के आपने ईश्वर को मिटा दिया। ईश्वर को मिटाने की फिक्र मत करो। लिए लिखी गई हैं. वे केवल इशारे हैं. उनमें ईश्वर का कोई फार्मला वह आपके वश की बात नहीं है। अपनी प्यास को मिटा लो; ईश्वर नहीं है। मिट गया।
सब शास्त्र हार गए हैं; अब तक उसे कह नहीं पाए हैं। कभी और आपकी प्यास के मिटाने का कोई उपाय नहीं है। आप ही | | उसे कहा भी नहीं जा सकेगा। लेकिन शास्त्रों ने कोशिश की है। हो वह प्यास। अगर प्यास आपसे कोई अलग चीज होती, तो हम | कोशिश इशारे की तरह है; मील के पत्थर की तरह है कि और उसे मिटा भी लेते। आप ही हो प्यास। आदमी परमात्मा की एक आगे, और आगे। हिम्मत देने के लिए है, कि बढ़े जाओ; दो कदम प्यास है। आदमी अलग होता, तो प्यास को हम काट देते। कोई | और; ज्यादा दूर नहीं है; पास ही है। सर्जरी कर लेते। और आदमी को अलग कर लेते। आदमी खुद ही | हिम्मत से कोई बढ़ा चला जाए, तो एक दिन उस अनुभव में उतर
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जाता है। लेकिन प्रमाण मत खोजना आप। प्रमाण कोई है नहीं। दाने-दाने पर उसका हस्ताक्षर है। लेकिन वह है अस्तित्व की भाषा,
और या फिर हर चीज प्रमाण है। फिर ऐसी कौन-सी चीज है, जो | एक्झिस्टेंस की। उसका प्रमाण नहीं है? फिर चारों तरफ आंखें डालें। आकाश में आपको अपने ही अस्तित्व का कोई पता नहीं है। आप ऐसे जीए
सूरज का उगना, और रात आकाश में तारों का भर जाना, और एक | चले जाते हैं कि पक्का करना मुश्किल है कि आप जी रहे हैं, कि बीज का फूटकर वृक्ष बनना, और एक झरने का सागर की तरफ | मर गए हैं, कि...। बहना, और एक पक्षी के कंठ से गीत का निकलना। एक बच्चे की ___ मैंने सुना है कि अनेक लोगों को तो तभी पता चलता है कि वे आंखों में झांकें; और एक काई जमे हुए पत्थर को देखें; और सागर | जिंदा थे, जब वे मर जाते हैं। मरकर उनको पता चलता है कि अरे! के किनारे की रेत को, और सागर की लहरों को-तो फिर हर जगह | यह क्या हो गया? मर गए! उसका प्रमाण है। फिर वही वही है।
जिंदगी का ही हमें कोई खयाल नहीं आ पाता। अस्तित्व भीतर एक दफा खयाल में आ जाए कि वह है, तो फिर सब जगह | | बहा चला जाता है और हम चीजें बटोरने में, फर्नीचर इकट्ठा करने उसका प्रमाण है। और जब तक उसका खयाल न आए, तब तक | में, मकान बनाने में, क्षुद्र में व्यस्त होते हैं। वह क्षुद्र की व्यस्तता उसका कोई प्रमाण नहीं है।
इतनी ज्यादा है कि यह भीतर की जो धारा बह रही है, इसका हमें और कहां आएगा उसका खयाल? पहले सागर में नहीं आएगा। अवसर ही नहीं मिलता, मौका ही नहीं मिलता है। पहले फूलों में नहीं आएगा। पहले आकाश के तारों में नहीं ___ मेरे पास लोग आते हैं। एक बूढ़े मित्र, एक कालेज के प्रिंसिपल
आएगा। पहले तो अपने में ही लाना पड़ेगा उसका खयाल। क्योंकि हैं, वे कुछ दिन पहले मेरे पास आए। कम से कम साठ के करीब मैं ही अपने निकटतम हूं। अगर वहां भी उसकी भनक मुझे नहीं उम्र हो गई होगी। वे कहने लगे कि अब तो ऊब गया संसार से। सुनाई पड़ती, तो पत्थर में कैसे सुनाई पड़ेगी!
अब तो मेरा मन परमात्मा की तरफ लगा दें। तो मैंने उनसे कहा, __ अब लोग मजेदार हैं। लोग मूर्तियों के सामने सिर टेक रहे हैं। | अगर सच में ही ऊब गए हों, तो एक छलांग लें। अब सारा जीवन वे मर्तियां उनके लिए भगवान कैसे हो पाएंगी? वे कितना ही मानें | ध्यानपर्ण करने में लग जाएं। कि भगवान हैं, वे हो न पाएंगी। क्योंकि जिनको अपने भीतर के __उन्होंने कहा, सारा जीवन ! घंटा, आधा घंटा रोज दे सकता हूं।
चैतन्य में भी भगवत्ता का कोई स्पर्श नहीं हुआ, उनको पत्थर में | | क्योंकि अभी नौकरी जारी रखी है। वैसे तो कोई जरूरत नहीं है अब छिपी भगवत्ता बहुत दूर है। वहां भी है; पर फासला बहुत ज्यादा | | नौकरी की। सब है। लेकिन वक्त-बेवक्त कब जरूरत पड़ जाए, है। और पत्थर की भाषा अलग है; आदमी की भाषा अलग है। । | इसलिए! ऐसे तो सब लड़के कामकाज में लग गए हैं। लड़कियों की
आदमी में भगवान नहीं दिखता और पत्थर में दिखता है! | शादी हो गई है। लेकिन प्रतिष्ठा है, बंगला है, कार है, तो उस सब आदमी—जिसको हम समझ सकते हैं, छू सकते हैं, जिसके भीतर | को तो सम्हालना पड़ता है। तो ऐसी कुछ तरकीब बताएं कि आधा उतर सकते हैं, जिसकी चेतना का संस्पर्श हो सकता है-उसमें घंटा रोज ध्यान कर लूं। और दो साल बाद, पक्का आपको विश्वास दिखाई नहीं पड़ता, और पत्थर में दिखाई पड़ जाता है! तो आप दिलाता हूं कि दो साल बाद पूरा जीवन ध्यान में लगा दूंगा। अपने को धोखा दे रहे होंगे। क्योंकि पत्थर तो बहुत दूर है; अभी । मैंने कहा, माना। मुझे तो आप विश्वास दिलाते हैं, दो साल आदमी में तो दिखाई पड़े, तो फिर किसी दिन पत्थर में भी दिखाई। बाद। दो साल बाद आप बचेंगे, इसका कोई पक्का भरोसा है! और पड़ सकता है। और फिर तो ऐसा हो जाता है कि ऐसी कोई चीज | | कहते हैं कि संसार से मन ऊब गया, लेकिन बंगले की प्रतिष्ठा है, नहीं दिखाई पड़ती, जिसमें वह न हो। फिर तो सारा जगत उसका | वह नहीं छोड़ी जाती! और कहते हैं कि अब संसार में कुछ प्रमाण है।
लेना-देना नहीं रहा, लेकिन नौकरी को खींचे जा रहे हैं जबरदस्ती! तो दो बातें हैं, या तो उसका कोई प्रमाण नहीं है। अगर आप क्या है, कठिनाई क्या है आदमी की? और दो साल बाद टाल रहे किताबों, शब्दों, तर्कों में सोचें, उसका कोई प्रमाण नहीं है। और | | हैं, कि दो साल बाद। दो साल बाद भी पक्का मानिए, अगर वे बचे या अगर अस्तित्व में सोचें, तो सभी कुछ उसका प्रमाण है। फिर रहे, तो वे और आगे सरका देंगे बात को। क्योंकि यह सरकाने वाला ऐसी कोई चीज नहीं है, जहां उसका हस्ताक्षर न हो। रेत के मन दो साल बाद भी तो साथ ही रहेगा। यह पोस्टपोन करता जाता
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है। यह तब तक हटाता जाता है, जब तक मौत आकर इसको काट बैलेंस को बढ़ा पाएंगे। ही नहीं डालती। और कह देती है कि अब हटाने की कोई जगह न __ और भी एक आंख है। उसी आंख को कृष्ण श्रद्धा कह रहे हैं। बची, समय समाप्त हो गया।
| उसी आंख को बुद्ध ध्यान कहते हैं। उसी आंख को मीरा कीर्तन यह जो हमारी क्षुद्र में उलझी हुई चित्त की दशा है, इसके कारण | कहती है, भजन कहती है, प्रार्थना कहती है। उसका प्रमाण नहीं मिलता। क्षुद्र में जब चित्त लगा होगा, तो क्षुद्र | ___ एक और कान है—मौन का, चुप हो जाने का। जब बाहर की का ही प्रमाण मिलता है।
| सब आवाजें छोड़ दी जाती हैं, तो भीतर की सतत ध्वनि सुनाई पड़ने क्षुद्र से थोड़ा हटें भीतर की तरफ, और विराट को थोड़ा मौका | | लगती है। दें। उसकी आवाज आपको सुनाई पड़ सके, इसलिए थोड़ा चुप हों। नाद भीतर बज रहा है, पर आप खाली नहीं हैं, आप उन्मुख नहीं अपनी आवाज थोड़ी बंद करें। क्योंकि उसकी आवाज बहुत धीमी हैं। आप उस नाद की तरफ बेमुख हैं, पीठ किए खड़े हैं। वहां सतत है। और अपनी दौड़-धूप जरा रोकें और थोड़ा रुकें; ठहरें। क्योंकि धीमी-धीमी चोट पड़ रही है। वहां कोई निरंतर तारों को छेड़ रहा ठहरेंगे, तो उसका पता चलेगा, जो भीतर सदा से ठहरा हुआ है। है। और आप कहते हैं, प्रमाण कहां है? जब तक आप दौड़ रहे हैं, तब तक भीतर जो ठहरा हुआ है, उससे हमारी हालत ऐसी है, मैंने सुना है कि एक संगीतज्ञ अपनी पत्नी संबंध नहीं हो पाता। थोड़े रुक जाएं।
के साथ एक चर्च के पास से गुजरता था। और सांझ को चर्च की परमात्मा को खोजने के लिए कोई दौड़ने की जरूरत नहीं है। | घंटियां बज रही थीं। बड़ी प्यारी और मधुर थीं। और सांझ के सन्नाटे संसार खोजना हो, तो दौड़ना पड़ता है। परमात्मा को खोजना हो, में, जब रास्ता सुनसान हो गया था और चर्च के वृक्षों के पक्षी भी तो रुकना पड़ता है। परमात्मा को खोजने के लिए कोई शोरगुल | आकर शांति से सो गए थे, सांझ के उस सन्नाटे में उन घंटियों का मचाने की जरूरत नहीं है। उसे खोजना हो, तो चुप और मौन होने | बजना उस संगीतज्ञ के हृदय में लहरें लेने लगा। की जरूरत है। तो प्रमाण मिलना शुरू हो जाएगा।
उसने अपनी पत्नी से कहा-धीमे से कहा; संगीतज्ञ था, जोर और कोई दूसरा आपको प्रमाण नहीं दे सकता। आप ही अपने से बोलने में उसे लगा होगा, हिंसा होगी; इतनी मधुर आवाज में को प्रमाण दे सकेंगे। अपनी प्यास को समझें और अपने भीतर बाधा पड़ेगी-उसने धीरे से कहा, सुनती हो; कितनी प्यारी झांकने की कला सीखें। प्रमाण बहुलता से है। उसी-उसी का प्रमाण | आवाज है! घंटियां कितनी मधुर हैं! है। लेकिन देखने वाली आंखें और सुनने वाले कान चाहिए। उसकी पत्नी ने क्या कहा पता है! उसने कहा, ये चर्च के मूरख
जीसस ने बार-बार कहा है, अगर आंखें हों, तो देख लो; अगर | लोग घंटा बजाना बंद करें, तो तुम्हारी बात सुन सकूँ कि तुम क्या कान हों, तो सुन लो। अगर समझ हो, तो समझ लो।
कह रहे हो! जिनसे कहा है, वे आप ही जैसे कान वाले थे, आंख वाले थे, संगीतज्ञ ने दुबारा नहीं कहा होगा उससे; अब कुछ कहने का समझ वाले थे। यह जीसस की बात ठीक नहीं मालूम पड़ती। यह उपाय नहीं रहा। बाहर घंटा बज रहा है, उसमें शोरगुल भी सुनाई आंख वाले लोगों से ऐसा कहना कि आंख हो तो देख लो, कान पड़ सकता है और संगीत भी। अगर संगीत को पकड़ने वाला हृदय हो तो सुन लो, समझ हो तो समझ लो, अपमानजनक मालूम पड़ता | | है, तो संगीत सुनाई पड़ सकता है। है। क्योंकि इतने अंधे, इतने बहरे, इतने बुद्धिहीन कहां खोजे होंगे! | नहीं तो मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक शास्त्रीय संगीतज्ञ क्योंकि जिंदगीभर जीसस यही कहते हैं।
को सुनने चला गया था। थोड़ी ही देर में मुल्ला की पत्नी ने देखा वे किन्हीं और आंखों की बात कर रहे हैं। इन आंखों से आप कि मुल्ला बहुत बेचैन हो रहा है, करवट बदल रहा है अपनी कुर्सी परमात्मा का प्रमाण न पा सकेंगे। इन आंखों से पदार्थ का ही | पर। उसकी पत्नी ने कहा, तुम इतने परेशान क्यों हो रहे हो? उसके प्रमाण मिलेगा। इन कानों से आप उसकी आवाज न सुन सकेंगे। | माथे पर पसीना भी बह रहा है। इन कानों से तो आपको जगत का शोरगल ही सनाई पड़ेगा। इस | उसने कहा कि मैं इसलिए परेशान हो रहा है, क्योंकि यह आदमी बुद्धि से आप उसको न समझ पाएंगे। इस बुद्धि से तो आप | जैसी आवाजें कर रहा है, ऐसे ही अपना बकरा भी आवाजें करके हिसाब-किताब की दुनिया में ही, रुपए-पैसे की दुनिया में ही, बैंक मर गया था। इसकी हालत खराब है। यह सन्निपात में मालूम होता
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है। अब यह जल्दी ही मरने वाला है। अपन यहां से निकल भागें। | है। तो फिर आपको रुकना पड़ेगा। फिर किसी के वश के बाहर हैं कहीं हम भी न फंसें इस उपद्रव में कि यह कैसे मर गया! और यह | | आप। फिर आप इंपासिबल हैं, असंभव हैं। फिर आपके साथ कुछ मरेगा पक्का। यही हालत अपने बकरे की हो गई थी, जब वह इस | किया नहीं जा सकता। तरह की आवाजें कर-करके मरा था।
| तो रुकें। धीरे-धीरे थक जाएंगे अपने से किसी दिन, तो शायद संगीत की समझ कान से नहीं होती। कान से तो सुनाई पड़ रहा आप राजी हो जाएं कि ठीक; चखेंगे पहले, प्रमाण बाद में खोज लेंगे। है उसे भी। संगीत की समझ भीतर एक हारमनी, एक समस्वरता | और जो चखने को राजी हो जाता है, उसे प्रमाण मिल जाता है। पैदा हो, तो पकड़ में आती है।
ईश्वर तो विराटतम समस्वरता है; वह तो महानतम संगीत है। उसके योग्य हृदय बनाना होगा, तो उसका प्रमाण मिलेगा। उसका | आखिरी प्रश्न। आपने कहा है कि दो विपरीत मार्ग प्रमाण खोजकर आप सोचते हैं कि हम अपने को बदलेंगे, तो हैं, ध्यान और प्रेम; बुद्धि या भाव। तो बताएं कि आपको जन्मों-जन्मों तक उसकी कोई खबर न मिलेगी। आप ध्यान-साधना और प्रेम-साधना में क्या फर्क है? क्या अपने को बदलें, तो उसका प्रमाण आपको आज भी मिल सकता ध्यानी व्यक्ति समाधि के पहले प्रेमपूर्ण नहीं होता? है। जन्मों तक रुकने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन हम उलटे हैं। हम कहते हैं, पहले प्रमाण चाहिए, तभी तो हम उसको खोजने निकलेंगे! और उसकी खोज ही शुरू तब | एमान और प्रार्थना में बहुत फर्क है; भाषाकोश में चाहे होती है, जब आप अपने हृदय को उसके प्रमाण को पाने योग्य
व्या फर्क न भी मिले। जो लोग प्रयोग करते हैं, उनके बनाते हैं। यह अड़चन है।
लिए बहुत फर्क है। दोनों की प्रक्रियाएं विपरीत हैं। अगर आपकी तैयारी हो, कि बिना इसकी फिक्र किए कि वह है | | परिणाम जब आता है, तो फर्क नहीं रह जाता। लेकिन मार्ग पर या नहीं, हम अपने हृदय को शांत करने को तैयार हैं। और हर्ज क्या बहुत फर्क है। हो जाएगा? अगर वह न भी हुआ और आपका हृदय शांत हो गया, | __ ऐसा समझें कि आप एक बड़ा वर्तुल बनाएं, एक सर्किल तो क्या हर्ज हो जाएगा? फायदा ही होगा। और अगर वह न भी बनाएं। और वर्तुल का एक केंद्र हो, और वर्तुल की परिधि से आप हुआ और आपका हृदय प्रेम से भर गया, तो नुकसान क्या है? लकीरें खींचें केंद्र की तरफ। तो परिधि से जब आप दो लकीरें केंद्र फायदा ही होगा। और अगर वह न भी हआ और आप मौन हो गए की तरफ खींचेंगे, तो दोनों में फासला होगा। फिर जैसे-जैसे वे केंद्र और ध्यान में उतर गए, तो क्या खो देंगे आप? कुछ पा ही लेंगे। के करीब पहुंचने लगेंगी, फासला कम होता जाएगा। और जब वे
लेकिन जो भी उस ध्यान में गए हैं, जो भी उस मौन में गए हैं, | बिलकुल केंद्र पर पहुंचेंगी, तो फासला समाप्त हो जाएगा। एक ही उन्होंने तत्क्षण कहा कि मिल गया प्रमाण उसका। वह है। लेकिन | | बिंदु पर दोनों मिल जाएंगी। परिधि पर फासला होगा; केंद्र पर वे भी हमें प्रमाण नहीं दिला सकते। उनको ही प्रमाण मिला है। फासला समाप्त हो जाएगा।
धर्म की सभी अभिव्यक्तियां निजी और वैयक्तिक हैं। और धर्म सभी मार्ग संसार की परिधि से परमात्मा के केंद्र की तरफ जाते के सभी गवाह निजी और वैयक्तिक हैं। वे दूसरे के लिए गवाही हैं। मार्गों में बड़ा फर्क है। विपरीतता भी हो सकती है। लेकिन केंद्र नहीं दे सकते हैं।
पर पहुंचकर सारी विपरीतता खो जाती है, और वे एक हो जाते हैं। मैं अपने लिए गवाही दे सकता हूं कि मिल गया। पर मेरी गवाही | | प्रेम के मार्ग का अर्थ है, दूसरा महत्वपूर्ण है मुझ से, पहली बात। आपके लिए क्या मतलब की होगी? आप फिर भी कहेंगे, प्रमाण? | मझे अपने को समाप्त करना है और दूसरे को बढ़ाना है। वह दूसरा तो फिर मैं आपसे भी कहूंगा, स्वाद लेना पड़ेगा, चखना पड़ेगा। कोई भी हो। वह क्राइस्ट हों, कृष्ण हों। कोई भी प्रतीक हो। गुरु हो,
तो तैयार हों चखने के लिए, स्वाद लेने के लिए। लेकिन अगर कोई धारणा हो, कोई भी भाव हो। दूसरा महत्वपूर्ण है; मैं महत्वपूर्ण आप कहें कि जब तक हम मानें न कि वह है, तब तक हम चखें | | नहीं हूं। मुझे अपने को छांटना है और दूसरे को बड़ा करना है। कैसे? स्वाद तो हम पीछे लेंगे, पहले पक्का प्रमाण हो जाए कि वह और एक ऐसी जगह आ जाना है, जहां मैं बिलकुल शून्य हो
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0 गीता दर्शन भाग-600
जाऊं और वह दूसरा ही सिर्फ शेष रह जाए। मुझे मेरी कोई खबर है, तो ध्यान रहे, मुझे उस तू का पता तभी तक होगा, जब तक मुझे न रहे। मैं मिट जाऊं। मैं बचं न। मैं ऐसा पंछ जाऊं. जैसे कहीं था सक्ष्म में मेरा भी पता चल रहा है। नहीं तो त का पता नहीं होगा। ही नहीं। जैसे पानी पर खींची लकीर मिट जाती है, ऐसे मैं मिटत कहिएगा कैसे उसे? किसके खिलाफ? किसके विरोध में? अगर जाऊं; और दूसरा रह जाए। और दूसरा ही रह जाए। बस, दूसरे का सफेद लकीर दिखाई पड़ती है, तो काली पृष्ठभूमि चाहिए। ही मुझे पता हो। दूसरे की ही प्रतीति मुझे हो कि वह है, और मैं न अगर मैं बिलकुल ही मिट गया हूं, तो तू कैसे बचेगा? थोड़ा रहूं। तू बचे और मैं खो जाए। यह तो प्रेम की प्रक्रिया है। प्रार्थना मुझे बचना चाहिए, थोड़ा; तो मुझे तू का पता चलेगा। मैं होना का यही रूप है।
चाहिए। मैं को ही तो पता चलेगा कि तू है। तो मैं को भुला सकता ध्यान की प्रक्रिया बिलकुल उलटी है। ध्यान की प्रक्रिया है कि हूं, लेकिन मिट नहीं सकता। अगर मैं बिलकुल मिट जाऊंगा, जिस सारा जगत खो जाए और मैं ही बचूं। सब खो जाए मेरे चित्त से। क्षण मेरा मैं बिलकुल तिरोहित हो जाएगा, उसी क्षण तू भी खो जिन्हें मैं प्रेम करता हूं, वे भूल जाएं। जिन्हें मैंने चाहा है, वे भूल | जाएगा। एक बचेगा, जो न मैं है और न तू। जाएं। ईश्वर भी मेरे खयाल में न रह जाए। दूसरा न बचे। दूसरे का | और ठीक ऐसा ही घटेगा ध्यान के मार्ग पर। जब मैं बिलकल कोई बोध ही न बचे। दि अदर, वह जो दूसरा है, उसको मैं पोंछ | | अकेला मैं बचूंगा, तब भी मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं हूं? मेरे होने डालूं, बिलकुल समाप्त कर दूं। वह रहे ही न। बस, एक मैं ही रह | | का बोध भी दूसरे के बोध के कारण होता है। दूसरा चाहिए परिधि जाऊं, अकेला। कोई विचार न हो; कोई भाव न हो; कोई विषय न | | पर, तभी मुझे पता लगता है कि मैं हूं। और जब दूसरा बिलकुल हो। कुछ भी न बचे। खाली, अकेला मैं बचूं; सारा संसार खो | खो गया, पूरा संसार खो गया, तो मैं भी नहीं बच सकता। मैं भी जाए। यह ध्यान की प्रक्रिया है।
| उस संसार का एक हिस्सा था। मैं भी उसी संसार के साथ खो तू बिलकुल मिट जाए और शुद्ध मैं बचे-यह ध्यान है। मैं | | जाऊंगा। जैसे ही तू पूरा मिट जाता है, मैं भी तिरोहित हो जाता हूं। बिलकुल मिट जाऊं, शुद्ध तू बचे—यह प्रेम है। ये बिलकुल उलटे | | और जो बचता है, वह न मैं है, न तू है। चलते हैं। इसलिए रास्ता बिलकुल अलग-अलग है।
ये मार्ग विपरीत हैं। इन मार्गों से जहां पहुंचा जाता है, वह एक इसलिए ध्यानी मजाक उड़ाएगा प्रेमी की, कि क्या पागलपन में ही है। और अब आप समझ सकते हैं कि दोनों तरफ से पहुंचा जा पड़ा है! दूसरे को छोड़, क्योंकि दूसरा बंधन है। और प्रेमी मजाक | | सकता है। दो में से एक को मिटा दो, दूसरा अपने आप मिट जाता उड़ाएगा ध्यानी की, कि क्या कर रहे हो! खुद को बचा रहे हो? यह है। अब आप किसको चुनते हैं मिटाना, यह व्यक्ति की निजी रुझान खुद का बचाना ही तो उपद्रव है। खुद को मिटाना है। यह मैं ही तो | | पर है। रोग है। और तुम इसी को बचा रहे हो! इसको समर्पित कर दो। तू। दो में से एक को मिटा देने की कला है। दूसरा मिटेगा, क्योंकि के चरणों में डाल दो।
दूसरा उस एक का ही अनिवार्य हिस्सा था। अगर हम दुनिया से तो प्रेमी और ध्यानी मार्ग पर जब होते हैं, तब एक-दूसरे को | प्रकाश को मिटा दें, तो अंधेरा मिट जाएगा। लगेगा मुश्किल है। समझ भी नहीं पाते। एक-दूसरे को गलत ही समझेंगे। क्योंकि | क्योंकि घर में आप दीया बुझा देते हैं, अंधेरा तो नहीं मिटता। अंधेरा उलटे जा रहे हो! इससे तो और भटक जाओगे। लेकिन जब दोनों और प्रकट हो जाता है। लेकिन दुनिया से नहीं मिट रहा है प्रकाश। पहुंच जाते हैं बिंदु पर, तो बड़ी अदभुत घटना घटती है। अस्तित्व से अगर प्रकाश मिट जाए, तो अंधेरा मिट जाएगा। अगर
वह अदभुत घटना यह है कि चाहे मैं तू को मिटाकर चलूं और अंधेरा मिट जाए, तो प्रकाश मिट जाएगा। मैं को बचाऊ-ध्यान का मार्ग; या मैं मैं को मिटाऊं और तू को अगर दुनिया से हम मृत्यु को मिटा दें, तो जीवन उसी दिन मिट बचाऊ-प्रार्थना का मार्ग; जिस क्षण मैं मिट जाता है, उस क्षण तू जाएगा। अभी हमको उलटा लगता है। अभी तो हमको लगता है नहीं बच सकता। और जिस क्षण तू मिट जाता है, उस दिन मैं नहीं | | कि मृत्यु जीवन को मिटाती है। आपको पता नहीं है फिर। वे एक बच सकता। क्योंकि दोनों साथ-साथ बचते है
ही चीज के दो हिस्से हैं। अगर मृत्यु न हों, तो जीवन नहीं हो इसे थोड़ा समझ लें। यह आखिरी बिंदु की बात है। | सकता। और जीवन न हो, तब तो मृत्यु होगी ही कैसे? एक चीज जब मैं अपने मैं को मिटाता चला जाता हूं और सिर्फ तू ही बचता को मिटा दें, दूसरी तत्क्षण मिट जाएगी।
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* संदेह की आग
बहुत मजे की बात है। अगर हम दुनिया से दुख मिटा दें, तो सुख और अगर आप पोटलियां बांधकर प्रकाश को भीतर लाएंगे, तो मिट जाएंगे। अगर हम दुनिया से शत्रु मिटा दें, तो मित्र मिट | | पोटलियां भीतर आ जाएंगी, प्रकाश बाहर ही रह जाएगा। जाएंगे। अगर हम दुनिया से घृणा मिटा दें, तो प्रेम मिट जाएगा। प्रकाश को लाने का, भक्त कहता है, एक ही उपाय है कि मैं आप दूसरे को नहीं बचा सकते हैं; वह अनिवार्य जोड़ा है। वे एक अपने द्वार-दरवाजे खोल दूं। मैं कोई बाधा न डालूं। मैं किसी तरह साथ ही होते हैं।
का अवरोध खड़ा न करूं। तो प्रकाश तो अपने से आ जाएगा। इसी का प्रयोग है ध्यान, इसी का प्रयोग है प्रार्थना। एक को मिटा | | प्रकाश तो आ ही रहा है। मेरे ही कारण रुका है। दें, दूसरा अपने आप मिट जाएगा। उसकी फिक्र न करें। आप एक | | भक्त की साधना का भाव यह है कि परमात्मा तो प्रतिपल को मिटाने में लगें। फिर आपका रुझान है, जो आपको करना हो। | उपलब्ध है। मेरे ही कारण रुका है। उसे खोजने नहीं जाना है। मैं __ अपने को मिटाने की तैयारी हो, तो प्रार्थना में चल पड़ें। डर ही उसको जगह-जगह से दीवालें बनाकर रोके हूं कि मेरे भीतर नहीं लगता हो अपने को मिटाने में, तो फिर समस्त को मिटा दें, जो भी | आ पाता। मैं ही इतना होशियार, इतना कुशल, इतना चालाक हूं पर है। भाव से, विचार से, सब को हटा दें। फिर अकेले रह जाएं। | कि मैं उसको भी सम्हाल-सम्हालकर भीतर आने देता हूं। जहां तक दोनों से ही पहुंच जाएंगे वहां, जहां दोनों नहीं बचते हैं। | तो मैं उसे भीतर प्रवेश करने नहीं देता। चारों तरफ मैंने सरक्षा की अब हम सूत्र को लें।
दीवाल बना रखी है। भक्त कहता है, इस दीवाल को गिरा देना है। हे अर्जुन, उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं | तो कृष्ण कह रहे हैं कि जैसे ही कोई अपने चारों तरफ की शीघ्र ही मृत्यु-रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं। | अस्मिता की, अहंकार की दीवाल को गिरा देता है, मैं तत्क्षण इसलिए हे अर्जुन, तू मेरे में मन को लगा, और मेरे में ही बुद्धि को | | उसका उद्धार करने में लग जाता हूं। क्योंकि प्रकाश भीतर प्रवेश लगा। इसके उपरांत तू मेरे में ही निवास करेगा अर्थात मेरे को ही | | करने लगता है। और उस प्रकाश की किरणें आकर आपको प्राप्त होगा. इसमें कछ भी संशय नहीं है।
रूपांतरित करने लगती हैं। और जब आपको मिटने में मजा आ मुझ में चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु-रूपी | | जाता है, तो फिर मिटने में दिक्कत नहीं रहती। समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ!
पहले ही चरण की कठिनाई है। हमें लगता है कि अगर मिट गए जैसा मैंने कहा, प्रार्थना के मार्ग पर स्वयं को मिटाना शुरू करना तो! कहीं मिट न जाएं। तो डरे हुए हैं। एक दफा आपको मिटने का होता है। तो वह जो तू है, प्रार्थना के साधक के लिए परमात्मा जो जरा-सा भी मजा आ जाए, जरा-सा भी स्वाद आ जाए, तो आप है, भगवान जो है, जो भी उसकी धारणा है परम सत्ता की, वह कहेंगे कि अब, अब बचना नहीं है, अब मिटना है। अपने को गलाता है, मिटाता है, उसके चरणों में समर्पित करता है। रामानुज के पास एक आदमी आया। और उस आदमी ने कहा
और जैसे-जैसे वह अपने को गलाता है, मिटाता है, वैसे-वैसे | | कि तुम जैसे आनंद में डूब गए हो, मुझे भी डुबा दो। मुझे परमात्मा परमात्मा शक्तिशाली होता जाता है।
| की बड़ी तलाश है। मुझे भी सिखाओ यह परमात्मा का प्रेम। तो परमात्मा की शक्ति का अर्थ ही यह है कि मैं अब कोई बाधा रामानुज ने कहा कि तूने कभी किसी को प्रेम किया है ? उस आदमी नहीं डाल रहा हूं। मैं अपने को मिटा रहा हूं। अब मैं कोई अड़चन | ने कहा कि मैं हमेशा परमात्मा की खोज करता रहा और प्रेम वगैरह खड़ी नहीं कर रहा हूं। मैं अपने को हटा रहा हूं। मैं रास्ते से मिट | | से मैं हमेशा दूर रहा। इस झंझट में मैं पड़ा नहीं। रहा हूं। और मैं उसे कह रहा हूं कि अब तू जो भी करना चाहे, कर। | रामानुज ने कहा कि फिर भी तू सोच। थोड़ा-बहुत, किसी को __ ऐसा समझें कि आप द्वार-दरवाजे बंद करके अपने घर में बैठे | | भी कभी प्रेम किया हो—किसी मित्र को, किसी स्त्री को, किसी हैं। बाहर सूरज निकला है। सारा जगत आलोक से भरा है। और | बच्चे को, किसी पशु को, पक्षी को किसी को कभी थोड़ा प्रेम आप अपने द्वार-दरवाजे बंद करके घर के अंदर अंधेरे में बैठे हैं। | | किया हो। उसने कहा कि मैं संसार की झंझट में नहीं पड़ता। मैं तो
भक्त कहता है कि प्रकाश को तो भीतर लाना मुश्किल है। अपने को रोके हुए हूं। परमात्मा को प्रेम करना है। आप मुझे रास्ता क्योंकि मेरी सामर्थ्य क्या? उस सूरज के प्रकाश को मैं भीतर लाऊंगा | बताओ। ये बातें आप क्यों पूछ रहे हो! भी कैसे? कोई पोटलियां बांधकर उसे लाया भी नहीं जा सकता। | रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि मैं तुझसे फिर पूछता हूं। थोड़ा
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गीता दर्शन भाग-60
प्रेम में।
खोज; अपने अतीत में कभी कोई थोड़ी-सी झलक भी प्रेम की तुझे तैयार होता है। लेकिन जिसने प्रेम नहीं किया, वह मरने से बहुत मिली हो? उस आदमी ने कहा कि मैं आया हूं परमात्मा को खोजने | डरता है।
और तुम कहां की बातों में मुझे लगा रहे हो! सीधी रस्ता बता दो। प्रेमी मरने को हमेशा तैयार है। प्रेमी मजे से मर सकता है। प्रेमी तो रामानुज ने कहा कि फिर मुश्किल है। क्योंकि अगर तूने | को मरने में जरा भी भय नहीं है। तो अगर मजनू को मरना हो, तो थोड़ा-सा भी मिटना जाना होता किसी के भी प्रेम में, तो तुझे मर सकता है। फरिहाद को मरना हो, तो मर सकता है। कोई अड़चन थोड़ा-सा रस होता। थोड़ा-सा ही मिटना जाना होता किसी के भी | | नहीं है। क्या बात है? आखिर प्रेमी मरने से क्यों नहीं डरता?
जरूर प्रेमी ने कुछ जान लिया है, जो मृत्यु के आगे जाता है और छोटा-सा भी प्रेम करो, तो थोड़ा तो मिटना ही पड़ता है। चाहे | | मृत्यु जिसे नहीं मिटा पाती। इसलिए जिसके जीवन में प्रेम की एक स्त्री से प्रेम हो, एक पुरुष से प्रेम हो। एक छोटे-से बच्चे से | अनुभूति हुई, वह मरने से नहीं डरेगा। मरने से तो वे ही डरते हैं, भी प्रेम करो, तो थोड़ा तो मिटना ही होता है। अपने को थोड़ा तो | | जिन्होंने जाना ही नहीं कि मृत्यु के आगे कुछ और भी है। खोना ही होता है, तभी तो वह दूसरा आप में प्रवेश कर पाता है। | कृष्ण कहते हैं, जो मुझ में पूरी तरह मिटने को तैयार है, मिटने नहीं तो प्रवेश ही नहीं कर पाता।
को अर्थात मुझ में पूरी तरह मरने को तैयार है, उसे मैं मृत्यु-रूपी तो रामानुज ने कहा कि फिर मेरे वश के बाहर है तू। तेरी बीमारी संसार से ऊपर उठा लेता हूं। जरा कठिन है। अगर तूने किसी को प्रेम किया होता, तो मैं तुझे यह | वह तो जैसे ही कोई मिटने को तैयार होता है प्रेम में, वैसे ही बड़े प्रेम का मार्ग भी बता देता। क्योंकि तुझे थोड़ा स्वाद होता, तो | | मृत्यु के पार उठ जाता है। प्रेम मृत्यु पर विजय है। आपका क्षुद्र प्रेम तू समझ जाता कि मिटने का मतलब क्या है। तू कहता है, कभी | भी मृत्यु पर छोटी-सी विजय है। और अगर आपके जीवन में कोई तूने किया ही नहीं, तो तुझे मिटने का कोई अनुभव नहीं है। | भी प्रेम नहीं है, तो आप सिर्फ मरे हुए जी रहे हो। आपको जीवन
संसार के प्रेम भी परमात्मा के रास्ते पर सबक हैं। इसलिए संसार का कोई अनुभव ही नहीं है। के प्रेम से भी घबड़ाना मत। उस प्रेम के भी अनुभव को ले लेना। इसीलिए जीवन इतना तड़पता है प्रेम को पाने के लिए। जीवन
थोड़ा ही सही, क्षणभर को ही सही, क्षणभंगुर ही सही, की यह तड़प मृत्यु के ऊपर कोई अनुभव पाने की आकांक्षा है। यह थोड़ा-सा भी मिटने का अनुभव इतनी तो खबर दे जाएगा कि मिटने | तड़प इतनी जोर से है, कि प्रेम! कहीं से प्रेम! किसी को मैं प्रेम कर में दुख नहीं है, मिटने में सुख है। इतनी तो प्रतीति हो जाएगी कि | सकू और कोई मुझे प्रेम कर सके! यह असल में किसी भांति मैं मिटने में एक मजा है। क्षणभर सही; वह स्वाद क्षणभर रहा हो। जान सकू-एक क्षण ही सही-जो मृत्यु के बाहर है, अतीत है, एक बूंद ही मिली हो उसकी, लेकिन इतना तो समझ में आ जाएगा | पार है, अतिक्रमण कर गया हो मृत्यु का। कि मिटने में घबड़ाने की जरूरत नहीं है। मिटने में रस है, सुख है। तो प्रभु का प्रेम तो पूरा मिटा डालता है। प्रेमियों का प्रेम पूरा नहीं मिटने में मजा है, एक मस्ती है। तो फिर हम परमात्मा की तरफ | मिटाता है। क्षणभर को मिटाता है। कभी-कभी मिटाता है। क्षणभर मिटने की बात भी सीख सकते हैं।
बाद हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। द्वार-दरवाजे मिटते परमात्मा की तरफ तो पूरा मिटना होगा, रत्ती-रत्ती। कुछ भी | नहीं। जैसे हवा का तेज झोंका आता है, जरा-सा खुलते हैं और फिर बचना नहीं होगा। लेकिन जैसे ही हम मिटना शुरू हो जाते हैं कि बंद हो जाते हैं। जरा-सी झलक बाहर की रोशनी की, और द्वार फिर परमात्मा प्रवेश करने लगता है।
बंद हो जाते हैं। ऐसा साधारण प्रेम है। कृष्ण का यह कहना कि उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी लेकिन परमात्मा का प्रेम तो सारे द्वार-दरवाजे गिरा देने का है। भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु-रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला | | सब जलाकर राख कर देने का है। अपने को उसमें ही खत्म कर देने हूं। इसमें दूसरा शब्द है मृत्यु-रूप संसार, जो सोचने जैसा है। का है। फिर जो अनभति होती है, वह अमत की है। ___ इस जगत में प्रेम के अतिरिक्त मृत्यु के बाहर का कोई अनुभव । इसलिए कृष्ण कहते हैं, मृत्यु के पार उद्धार करने वाला हूं। नहीं है। जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने सिर्फ मृत्यु को ही जाना इसलिए हे अर्जुन, तू मेरे में मन को लगा; मेरे में ही बुद्धि को लगा। है। इसलिए एक बड़ी मजेदार घटना घटती है कि प्रेमी मरने को | इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा, मुझको ही प्राप्त होगा।
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0 संदेह की आग
इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
तर्क के पीछे आप भावों को घसीटेंगे, तो आपने बैलगाड़ी के पीछे मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा। दो बातें बैल बांध रखे हैं। फिर आप कितनी ही कोशिश करें, बैलगाड़ी कहीं कही हैं। मुझ में मन को लगा, मुझ में ही बुद्धि को लगा। लेकिन | | जा नहीं सकती। और अगर जाएगी भी, तो किसी गड्ढे में जाएगी। पहले कहा कि मुझ में मन को लगा।
सीधा करें व्यवस्था को। भाव से बहें, क्योंकि भाव स्वभाव है, हम सब कोशिश करते हैं, पहले बुद्धि को लगाने की। प्रमाण | निसर्ग है। बुद्धि को पीछे चलने दें। बुद्धि हिसाबी-किताबी है। चाहिए, तर्क चाहिए, तब हम भाव करेंगे। यह नहीं हो सकता, यह अच्छा है; उसकी जरूरत है। उलटा है। पहले भाव। तो कृष्ण कहते हैं, मुझ में मन को लगा। ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, मुझ में मन को लगा। पहले अपने भाव बुद्धि को भी लगा।
को मुझ से जोड़ दे। फिर कोई हर्जा नहीं तेरी बुद्धि का। एक दफा मन लग जाए, तो फिर बुद्धि भी लग जाती है। तर्क तो | | इसलिए ऐसा मत सोचना कि आस्तिक जो हैं. वे कोई तर्कहीन हमेशा भाव का अनुसरण करता है। क्योंकि भाव गहरा है और तर्क हैं। अतळ हैं, तर्कहीन नहीं हैं। आस्तिक जो हैं, वे भी तर्क करते तो उथला है। बच्चा भाव के साथ पैदा होता है; तर्क तो बाद में | | हैं, और खूब गहरा तर्क करते हैं। लेकिन भाव के ऊपर तर्क को सीखता है। तर्क तो दूसरों से सीखता है; भाव तो अपना लाता है। | नहीं रखते हैं। कोई तार्किकों की कमी नहीं है आस्तिकों के पास। बुद्धि तो उधार है; मन तो अपना है, निजी है। यह जो निजी भाव | | लेकिन भाव पहले है। और जो उन्होंने भाव से जाना है, उसे ही वे अगर एक दफा चल पड़े, तो फिर बुद्धि इसके पीछे चलती है। । | तर्क की भाषा में कहते हैं।
इसलिए देखें, हमारे तर्कों में बड़ा फर्क होता है, अगर हमारे भाव __ अब कोई शंकर से बड़ा तार्किक खोजना आसान थोड़े ही है। में फर्क हो। अगर हमारा भाव अलग हो, तो वही स्थिति हमें दूसरा | | लेकिन शंकर का तर्क है भाव से बंधा। भाव पहले घट गया है। तर्क सुझाती है।
और अब तर्क केवल उस भाव को प्रस्थापित करने के लिए, उस सुना है मैंने कि एक सूफी फकीर शराब पीकर और प्रार्थना कर भाव को समझाने के लिए, उस भाव को पुष्ट करने के लिए है। रहा था। उसके गुरु को खबर दी गई। जिन्होंने खबर दी, वे जब कोई आदमी तर्क को पहले रखता है, तो वह अपने को शिकायत लाए थे, और उन्होंने कहा कि निकाल बाहर करो अपने पहले रखता है। जब कोई आदमी भाव को पहले रखता है, तो वह इस शिष्य को। यह शराब पीकर प्रार्थना कर रहा है! और अगर | निसर्ग को पहले रखता है। निसर्ग आपसे बड़ा है, विराट है। बड़े लोग देख लेंगे कि प्रार्थना करने वाले लोग शराब पीते हैं, तो कैसी को पीछे मत बांधिए छोटे के। छोटे को बड़े के पीछे चलने दीजिए। बदनामी न होगी!
तो कृष्ण कहते हैं, मुझ में मन को लगा; मुझ में बुद्धि को लगा। गुरु सुनकर नाचने लगा। और उसने कहा कि धन्यवाद तेरा, कि | | इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा। तू फिर मेरे हृदय में आ मेरे शिष्य शराब भी पी लें, तो भी प्रार्थना करना नहीं भूलते हैं! और | जाएगा। गजब हो जाएगा, अगर दुनिया यह जान लेगी कि अब शराबी भी | ___ तो ऐसा मत सोचना कि भगवान ही भक्त के हृदय तक आता प्रार्थना करने लगे हैं!
है। जिस दिन भक्त राजी हो जाता है कि भगवान उसके हृदय में आ स्थिति एक थी। तर्क अलग हो गए। वे खबर लाए थे कि अलग जाए, उस दिन भक्त भी भगवान के हृदय में पहुंच जाता है। तो करो इसको आश्रम से। और गुरु ने कहा कि मैं जाऊंगा और | ऐसा ही नहीं है कि भक्त ही याद कर-करके भगवान को अपने स्वागत से उसे वापस लाऊंगा कि तूने तो गजब कर दिया। हम तो | हृदय में रखता है। शुरुआत भक्त को ऐसे ही करनी पड़ती है। जिस बिना शराब पीए भी कभी-कभी प्रार्थना करना भूल जाते हैं। बिना | दिन यह घटना घट जाती है...। शराब पीए कभी-कभी प्रार्थना करना भूल जाते हैं! तू तो हद कर कबीर ने कहा है कि बड़ी उलटी हालत हो गई है। हरि लागे दिया कि शराब पीए है, तो भी प्रार्थना करने गया है! तेरी याददाश्त, | पाछे फिरें, कहत कबीर कबीर। पहले हम चिल्लाते फिरते थे कि तेरा स्मरण शराब भी नहीं मिटा पाती!
| हे प्रभु, कहां हो! और अब हालत ऐसी हो गई है कि हम कहीं भी स्थिति एक है, भाव अलग हैं, तो तर्क बदल जाते हैं। तर्क भाव | || भागे-हरि लागे पाछे फिरें, कहत कबीर कबीर-अब हरि के पीछे चलें, तो ही कोई परमात्मा की खोज में जा सकता है। अगर पीछे-पीछे भागते हैं और कहते हैं, कबीर! कबीर! कहां जाते हो
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गीता दर्शन भाग-60
कबीर?
कि मुझे शक है कि आपने यह विज्ञापन पढ़ा कैसे! और फिर इसमें भक्त शुरू करता है भगवान को अपने भीतर लेने से और लिखा हुआ है कि आदी आर्यन जाति का चाहिए, और स्पष्टतः आखिर में पाता है कि भगवान ने उसे अपने भीतर ले लिया है। | आप यहूदी हैं। तो आप किस लिए आए हैं?
कृष्ण कहते हैं, उसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, मुझको | | तो उस यहूदी बूढ़े ने कहा, टु टेल यू जस्ट दिस, दैट डोंट डिपेंड ही प्राप्त होगा। इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
| आन मी–सिर्फ यही खबर करने आया हूं कि मुझ पर निर्भर मत अगर भाव से शुरू करें, तो कुछ भी संशय नहीं है। अगर बुद्धि रहना। कोई और आदमी खोज लो। इतना भर सूचन करने आया हूं से शुरू करें, तो संशय ही संशय है। जरा-सा फर्क कि आप बुद्धि | कि मुझ पर निर्भर मत रहना। को पहले रख लें, फिर संशय ही संशय है। भाव को पहले रख लें, हंसी आती है, लेकिन थोड़ा खोजेंगे, तो उस यहूदी को अपने फिर कोई संशय नहीं है।
भीतर पाएंगे। सारी दुनिया जैसे आपकी ही सोच-समझ, आपकी अपने भीतर खोज करनी चाहिए कि मैंने किस चीज को | बुद्धि, आपके तर्क पर निर्भर है! और अगर आप जरा डांवाडोल प्राथमिकता दे रखी है। हमारा अहंकार अपने को ही प्राथमिकता हुए वहां से, तो यह सारी व्यवस्था टूट जाएगी! दिए हुए है। और हम को तो ऐसा लगता है कि हमारे ही ऊपर तो कुछ नहीं है वहां भीतर सम्हालने को, लेकिन बस, सम्हाले हुए सारा सब कुछ टिका है। अगर हम ही जरा डांवाडोल हो गए अपने | हैं! और कोई आप पर निर्भर नहीं है। लेकिन बड़ी जिम्मेवारी उठाए अहंकार से, तो सारा जगत न गिर जाए! सब को ऐसा लगता है। | हुए हैं। सारा भार सारे संसार का आपकी ही समझ पर है! अगर
सुना है मैंने, छिपकलियां मकानों को सम्हाले रहती हैं। आप नासमझ हो गए, तो सारा जगत रास्ते से विचलित हो जाएगा। छिपकलियां सोचती हैं कि अगर वे हट गईं, तो कहीं मकान की छत यह जो तर्क की दृष्टि है, यह जो अहंकार का बोध है, इसकी न गिर जाए! हम सब को भी ऐसा लगता है कि अगर हमने अपना वजह से हम भाव को कभी भी आगे रखने में डरते हैं, क्योंकि भाव तर्क छोड़ दिया, बुद्धि छोड़ दी, तो यह सारा जगत अभी भूमिसात अराजक है। और भाव कहां ले जाएगा, नहीं कहा जा सकता। हो जाए! सब गिर न जाए।
| इसलिए हम सदा भाव को दबाए रखते हैं, क्योंकि भाव क्या ___ एक छोटी-सी कहानी से अपनी बात मैं पूरी करूं। नाजी जर्मनी करेगा, वह भी अनजान, अपरिचित, अज्ञात है। . में जब हिटलर की हुकूमत थी, एक दिन अखबार में एक विज्ञापन तो भाव से हम भयभीत हैं। न तो कभी हम हंसते हैं खुलकर, निकला। किसी पुलिस के बड़े आफिसर की जगह खाली थी। और | क्योंकि डर लगता है कि कहीं सीमा के बाहर न हंस दें! न हम कभी कोई बड़ा महत्वपूर्ण पद था। जिस आफिसर को इंटरव्यू लेना था रोते हैं हृदयपूर्वक, क्योंकि लगता है कि लोग क्या कहेंगे कि अभी उस जगह के लिए, सुबह ही उसने देखा कि एक यहूदी बूढ़ा | भी बच्चों जैसा काम कर रहे हो! अखबार हाथ में लिए है और जहां विज्ञापन निकला था अखबार नहीं; हम कुछ भी भाव से नहीं करने देते। सब पर बुद्धि को में, एडवरटाइजमेंट निकला था, उस पर लाल स्याही से गोल घेरा अड़ा देते हैं। तो भीतर आंसू भी इकट्ठे हो जाते हैं। सागर में भी बनाए हुए अंदर आया।
इतना खारापन नहीं है, जितना आपके भीतर एक जिंदगी में इकट्ठा वह आफिसर थोड़ा चकित हुआ कि यह बूढ़ा यहूदी क्या इस | हो जाता है। आंसू ही आंसू इकट्ठे हो जाते हैं। हंसे भी कभी नहीं, विज्ञापन के लिए आया हुआ है! उसने पूछा कि क्या आप इस | तो मर्दा हंसियां इकट्ठी हो जाती हैं. उनकी लाशें सड़ जाती हैं। सब विज्ञापन के लिए आए हुए हैं? उस बूढ़े ने कहा, जी हां। तो जहर हो जाता है भीतर। भाव कहीं बाहर निकल न जाए, तो बुद्धि आफिसर और भी चकित हुआ। उसने कहा, थोड़ा देखिए तो कि को सम्हाल-सम्हालकर चलते हैं। विज्ञापन में क्या लिखा है! कि आदमी जवान चाहिए, और आपकी | | इस दुनिया में इसलिए लोगों को इतनी ज्यादा शराब पीने की उम्र कम से कम सत्तर पार कर चुकी है। आदमी स्वस्थ-सुडौल जरूरत पड़ती है, क्योंकि शराब पीकर थोड़ी देर को बुद्धि एक तरफ चाहिए, और आपकी हालत ऐसी है कि आप जिंदा कैसे हैं, इस पर हट जाती है और भाव बाहर आ जाता है। और जब तक हम भाव आश्चर्य होता है। इसमें लिखा हुआ है कि आंखें बिलकुल स्वस्थ | | | को आगे नहीं रखते, तब तक दुनिया से शराब नहीं मिट सकती। और ठीक होनी चाहिए, और आप इतना मोटा चश्मा लगाए हुए हैं । अब यह बड़े मजे का और उलझा हुआ मामला है। अक्सर जो
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संदेह की आग
लोग दुनिया से शराब मिटाना चाहते हैं, वे ही इस दुनिया में शराब | सपना छुटकारा दे रहा है बुद्धि से। के जिम्मेवार हैं। क्योंकि वे ही लोग बुद्धि को थोपते हैं, कि शराब अभी वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए हैं कि अगर नींद में बाधा डाली में यह खराबी है, यह खराबी है, इसलिए मत पीओ। इससे यह | जाए, तो ज्यादा नुकसान नहीं होता। लेकिन सपने में बाधा डाली नुकसान है, यह नुकसान है, इसलिए मत पीओ। ये ही लोग हैं, जाए, तो ज्यादा नुकसान होता है। रात में कुछ घड़ी आप सपना जिन्होंने सब नुकसान और खराबियां बता-बताकर भाव के जगत देखते हैं, कुछ घड़ी सोते हैं। तो वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग किए को भीतर बिलकुल कुंठित कर दिया है। और इन्हीं की कृपा है कि हैं-अब तो जांचने का उपाय है कि कब आप सपना ले रहे हैं और उस कुंठित आदमी को थोड़ी देर को तो राहत चाहिए, तो वह पीकर | कब सो रहे हैं तो जब आप सपना ले रहे हैं, तब जगा दिया राहत ले लेता है। थोड़ी देर को वह खुल जाता है।
हड़बड़ाकर। जब भी सपना लिया, तब जगा दिया। और जब शांति __ आप देखें, एक आदमी शराब पीता है; जैसे-जैसे शराब पकड़ने | से सोए रहे, तो सोने दिया। तो पाया कि आदमी तीन दिन से ज्यादा लगती है उसको, उसके चेहरे पर रौनक आने लगती है। मुस्कुराने | | बिना सपने के नहीं रह सकता। बिलकुल टूट जाता है। लगता है। जिंदगी में गति मालूम पड़ने लगती है। क्या हो रहा है? दूसरा प्रयोग भी किया है कि जब नींद आई, तब जगा दिया। यह आदमी अभी मरा-मरा क्यों था? इस आदमी में यह ताजगी और जब सपना आया, तब सोने दिया। कोई तकलीफ नहीं होती। कहां से चली आ रही है?
सुबह आदमी उतना ही ताजा उठता है। इसलिए पहले खयाल था यह शराब से नहीं आ रही है। शराब तो जहर है; उससे क्या | | कि नींद से ताजगी मिलती है। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं, सपने ताजगी आएगी! यह ताजगी इसलिए आ रही है कि ताजगी तो सदा | से ताजगी मिलती है। से भाव में भरी थी, लेकिन दबाकर बैठा था। अब वह जो दबाने | बड़ी हैरानी की बात है। सपने से ताजगी क्यों मिलती होगी? वाली थी बुद्धि, शराब उसको बेहोश कर रही है। वह पहरेदार सपने से ताजगी इसीलिए मिलती है कि बुद्धि का बोझ हट जाता बेहोश हो रहा है। तो भीतर के दबे हुए भाव बाहर आ रहे हैं। है। और जब बुद्धि का बोझ हट जाता है, तो आप जिंदगी का रस
इसलिए शराब पीकर आदमी ज्यादा आदमी मालम पडता है. लेकर वापस लौट आते हैं। जिंदा मालूम पड़ता है, अच्छा मालूम पड़ता है, भला मालूम पड़ता __ भक्त जागते जिंदगी का बोझ फेंक देता है और एक आध्यात्मिक है। शराब यह सब कुछ नहीं कर रही है। लेकिन शराब पहरे को हटा | स्वप्न में लीन हो जाता है। उस स्वप्न में वह सब कुछ न्योछावर रही है। वह जो तर्क का और बुद्धि का झंडा गड़ा हुआ था और बंदूक कर देता है। और कृष्ण कहते हैं, तब उसे मैं उठा लेता हूं। लिए पहरेदार खड़ा था, वह पी रहा है शराब, वह बेहोश हो जाएगा। तुम्हारी बुद्धि से जो सत्य दिखाई पड़ रहा है, वह इतना सत्य
यही काम नींद कर रही है। सुबह आप ताजे मालूम पड़ते हैं, | नहीं है, जितना प्रेम और भाव से दिखाई पड़ने वाला स्वप्न भी क्योंकि रात सपनों में तर्क से नहीं चलते, भाव से चलते हैं। रात | सत्य होता है। सपने में तर्क सो जाता है और भाव की दुनिया मुक्त हो जाती है। अब पांच मिनट कीर्तन करें। लेकिन कोई बीच में न उठे। कीर्तन आकाश में उड़ना हो, तो उड़ते हैं। उस वक्त यह नहीं कहते कि मैं पूरा करें और फिर जाएं। संदेह करता हूं, आकाश में उड़ना कैसे हो सकता है ? हम उड़ते हैं। सुबह भला संदेह करें। लेकिन रात मजे से उड़ते हैं। और जिससे प्रेम करना है, उससे सपने में प्रेम कर लेते हैं। उस वक्त यह नहीं कहते कि यह मैं क्या कर रहा हूं! यह अनैतिक है।
सपने में आप भाव से जीने लगते हैं; बुद्धि हट जाती है। इसलिए रात ताजगी देती है। सुबह आप ताजे उठते हैं। आप सोचते होंगे कि सपनों की वजह से आपको नुकसान होता है, तो आप गलती में हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सपना न आए, तो आप सुबह ताजे होकर न उठ सकेंगे। सपना आपको ताजा कर रहा है, क्योंकि
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अध्याय 12 पांचवां प्रवचन
अहंकार घाव है
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । गया है। भगोड़ों के लिए नहीं है परमात्मा। ठहर जाने वाले लोगों अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ।।९।। के लिए है, थिर हो जाने वाले लोगों के लिए है। __ अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।। __ आप कहां हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर आप शांत हैं और मदर्थमपि कर्माणि कुन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। १० ।।। ठहरे हए हैं, तो वहीं परमात्मा से मिलन हो जाएगा। अगर आप और तू यदि मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए दुकान पर बैठे हुए भी शांत हैं और आपके मन में कोई दुविधा, कोई समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन, अभ्यासरूप-योग से मेरे को | अड़चन, कोई द्वंद्व, कोई संघर्ष, कोई तनाव नहीं है, तो उस दुकान प्राप्त होने के लिए इच्छा कर।
| पर ही परमात्मा उतर आएगा। और आप आश्रम में भी बैठे हो और यदि तू अपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है, तो | सकते हैं, और मन में द्वंद्व और दुविधा और परेशानी हो, तो वहां केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार भी परमात्मा से कोई संपर्क न हो पाएगा। मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को न तो पत्नी रोकती है, न बच्चे रोकते हैं। आपके मन की ही ही प्राप्त होगा।
| द्वंद्वग्रस्त स्थिति रोकती है। संसार नहीं रोकता, आपके ही मन की विक्षिप्तता रोकती है।
संसार से भागने से कुछ भी न होगा। क्योंकि संसार से भागना पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, क्या संसारी | एक तो असंभव है। जहां भी जाएंगे, पाएंगे संसार है। और फिर ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता? घर-बार और स्त्री | आप तो अपने साथ ही चले जाएंगे, कहीं भी भागें। घर छूट सकता ही क्या ईश्वर को पाने में बाधा है? संसारी के लिए है, पत्नी छूट सकती है, बच्चे छूट सकते हैं। आप अपने को क्या ईश्वर को पाने का कोई उपाय नहीं है? छोड़कर कहां भागिएगा?
और पत्नी वहां आपके कारण थी, और बच्चे आपके कारण थे।
आप जहां भी जाएंगे, वहां पत्नी पैदा कर लेंगे। आप बच नहीं - सी भ्रांति प्रचलित है कि संसारी परमात्मा को प्राप्त सकते। वह घर आपने बनाया था। और जिसने बनाया था, वह ___ नहीं कर सकता है। इससे बड़ी और कोई भ्रांति की साथ ही रहेगा। वह फिर बना लेगा। आप असली कारीगर को तो
बात नहीं हो सकती, क्योंकि होने का अर्थ ही संसार साथ ले जा रहे हैं। वह आप हैं। में होना है। आप संसार में किस ढंग से होते हैं, इससे फर्क नहीं अगर यहां धन को पकड़ते थे, तो वहां भी कुछ न कुछ आप पकड़ पड़ता। संसार में होना ही पड़ता है, अगर आप हैं। होने का अर्थ लेंगे। वह पकड़ने वाला भीतर है। अगर यहां मुकदमा लड़ते थे अपने ही संसार में होना है। फिर आप घर में बैठते हैं कि आश्रम में, इससे मकान के लिए, तो वहां आश्रम के लिए लड़िएगा। लेकिन मुकदमा कोई फर्क नहीं पड़ता।
आप लड़िएगा। यहां कहते थे, यह मेरा मकान है; वहां आप घर भी उतना ही संसार में है, जितना आश्रम। और आप कहिएगा, यह मेरा आश्रम है। लेकिन वह मेरा आपके साथ होगा। पत्नी-बच्चों के साथ रहते हैं या उनको छोड़कर भागते हैं, जहां __ आप भाग नहीं सकते। अपने से कैसे भाग सकते हैं? और आप आप रहते हैं, वह भी संसार है; जहां आप भागते हैं, वह भी संसार | | ही हैं रोग। यह तो ऐसा हुआ कि टी.बी. का मरीज भाग खड़ा हो। है। होना है संसार में ही।
सोचे कि भागने से टी.बी. से छुटकारा हो जाएगा। मगर वह और जब परमात्मा भी संसार से भयभीत नहीं है, तो आप इतने | टी.बी. आपके साथ ही भाग रही है। और भागने में और हालत क्यों भयभीत हैं? और जब हम परमात्मा को मानते हैं कि वही खराब हो जाएगी। कण-कण में समाया हुआ है; इस संसार में भी वही है; संसार भी भागना बचकाना है। भागना नहीं है, जागना है। संसार से भागने वही है...।
से परमात्मा नहीं मिलता, और न संसार में रहने से मिलता है। संसार से भागकर वह नहीं मिलेगा। क्योंकि गहरे में तो जो भाग | | संसार में जागने से मिलता है। संसार एक परिस्थिति है। उस रहा है, वह उसे पा ही नहीं सकेगा। उसे तो पाता वह है, जो ठहर परिस्थिति में आप सोए हुए हों, तो परमात्मा को खोए रहेंगे। उस
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0 अहंकार घाव है
परिस्थिति में आप जाग जाएं, तो परमात्मा मिल जाएगा।
इतना आसान नहीं परमात्मा को पाना कि आप घर से निकलकर ऐसा समझें कि एक आदमी सुबह एक बगीचे में सो रहा है। मंदिर में आ गए और परमात्मा मिल गया! कि आप जंगल में चले सूरज निकल आया है, और पक्षी गीत गा रहे हैं, और फूल खिल | गए, और परमात्मा मिल गया! परमात्मा को पाने के लिए आपकी गए हैं, और हवाएं सुगंध से भरी हैं, और वह सो रहा है। उसे कुछ | जो चित्त-अवस्था है, इससे निकलना पड़ेगा और एक नई भी पता नहीं कि क्या मौजूद है। आंख खोले, जागे, तो उसे पता | चित्त-अवस्था में प्रवेश करना पड़ेगा। चले कि क्या मौजूद है। जब तक सो रहा है, तब तक अपने ही ये ध्यान और प्रार्थनाएं उसके ही मार्ग हैं कि आप कैसे बदलें। सपनों में है।
आम हमारी मन की यही तर्कना है कि परिस्थिति को बदल लें, तो हो सकता है-यह फूलों से भरा बगीचा, यह आकाश, ये सब हो जाए। हम जिंदगीभर इसी ढंग से सोचते हैं। लेकिन हवाएं, यह सूरज, ये पक्षियों के गीत तो उसके लिए हैं ही नहीं हो परिस्थिति हमारी उत्पन्न की हुई है। मनःस्थिति असली चीज है, सकता है, वह एक दुखस्वप्न देख रहा हो, एक नरक में पड़ा हो। परिस्थिति नहीं। इस बगीचे के बीच, इस सौंदर्य के बीच वह एक सपना देख रहा ___ एक आदमी गाली देता है, तो आप सोचते हैं, इसके गाली देने हो कि मैं नरक में सड़ रहा हूं और आग की लपटों में जल रहा हूं। से दुख होता है, पीड़ा होती है, क्रोध होता है। इस आदमी से हट
जिसे हम संसार कह रहे हैं, वह संसार नहीं है। हमारा सपना, | जाएं, तो न क्रोध होगा, न पीड़ा होगी, न अपमान होगा, न मन में हमारा सोया हुआ होना ही संसार है। परमात्मा तो चारों तरफ मौजूद संताप होगा। है, पर हम सोए हुए हैं। वह अभी और यहां भी मौजूद है। वही लेकिन जो आदमी गाली देता है, वह क्रोध पैदा नहीं करता। आपका निकटतम पड़ोसी है। वही आपकी धड़कन में है; वही | | क्रोध तो आपके भीतर है; उसको केवल हिलाता है। आप भाग आपके भीतर है; वही आप हैं। उससे ज्यादा निकट और कुछ भी | जाएं; क्रोध को आप भीतर ले जा रहे हैं। अगर कोई आदमी न नहीं है। उसे पाने के लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। वह होगा, तो आप चीजों पर क्रोध करने लगेंगे। यहां है, अभी है। लेकिन हम सोए हुए हैं।
__लोग दरवाजे इस तरह लगाते हैं, जैसे किसी दुश्मन को धक्का इस नींद को तोड़ें। भागने से कुछ भी न होगा। इस नींद को मार रहे हों! लोग जूतों को गाली देते हैं और फेंकते हैं। लोग हटाएं। यह मन होश से भरे, इस मन के सपने विदा हो जाएं, इस | | लिखती हुई कलम को जमीन पर, फर्श पर पटक देते हैं। क्रोध में मन में विचारों की तरंगें न रहें, यह मन शांत और मौन हो जाए, तो | | चीजें...एक कलम क्या क्रोध पैदा करेगी? एक दरवाजा क्या क्रोध आपको अभी उसका स्पर्श शुरू हो जाएगा। उसके फूल खिलने | पैदा करेगा? लगेंगे; उसकी सुगंध आने लगेगी; उसका गीत सुनाई पड़ने लेकिन क्रोध भीतर भरा है। उसे आप निकालेंगे; कोई न कोई लगेगा; उसका सूरज अभी-अभी आपके अंधेरे को काट देगा और बहाना आप खोजेंगे। और बहाने मिल जाएंगे। बहानों की कमी नहीं आप प्रकाश से भर जाएंगे।
है। तब फिर आप सोचेंगे, इस परिस्थिति से हटूं, तो शायद किसी इसलिए मेरी दृष्टि में, जो भाग रहा है, उसे तो कुछ भी पता नहीं दिन शांत हो जाऊं। तो आप जन्मों-जन्मों से यही कर रहे हैं, है। यह हो सकता है कि आप संसार से पीड़ित हो गए हैं, इसलिए | परिस्थिति को बदलो और अपने को जैसे हो वैसे ही सम्हाले रहो! भागते हों। लेकिन संसार की पीड़ा भी आपका ही सृजन है। तो आप अगर रहे, तो आप ऐसा ही संसार बनाते चले जाएंगे। आप आप भागकर जहां भी जाइएगा, वहां आप नई पीड़ा के स्रोत तैयार | | स्रष्टा हैं संसार के। मन को बदलें; वह जो भीतर चित्त है, उसको कर लेंगे।
| बदलें। अगर कोई गाली देता है, तो उससे यह अर्थ नहीं है कि उसकी यह ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता, तो आप जाकर देखें। आश्रमों | गाली आप में क्रोध पैदा करती है। उसका केवल इतना ही अर्थ है, में बैठे हुए लोगों को देखें, संन्यासियों को देखें। अगर वे जागे नहीं | क्रोध तो भीतर भरा था, गाली चोट मार देती है और क्रोध बाहर आ हैं, तो आप उनको पाएंगे वे ऐसी ही गृहस्थी में उलझे हैं जैसे आप। | जाता है। ऐसे ही जैसे कोई कुएं में बालटी डाले और पानी भरकर
और उनकी उलझनें भी ऐसी ही हैं, जैसे आप। उनकी परेशानी भी | बालटी में आ जाए। बालटी पानी नहीं पैदा करती, वह कुएं में भरा यही है। वे भी इतने ही चिंतित और दुखी हैं।
| हुआ था। खाली कुएं में डालिए बालटी, खाली वापस लौट आएगी।
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बुद्ध में, महावीर में गाली डालिए, खाली वापस लौट आएगी। | आपके कारण दिखाई पड़ रहा है। जैसे ही आप बदले, आपकी कोई प्रत्युत्तर नहीं आएगा। वहां क्रोध नहीं है।
दृष्टि बदली, देखने का ढंग बदला, संसार तिरोहित हो जाता है और और आपको जो आदमी गाली देता है, अगर समझ हो, तो आप पाते हैं कि चारों तरफ वही है। फिर वृक्ष में वही दिखाई पड़ता आपको उसका धन्यवाद करना चाहिए कि आपके भीतर जो छिपा | है और पत्थर में भी वही दिखाई पड़ता है। मित्र में भी वही दिखाई था, उसने बाहर निकालकर बता दिया। उसकी बड़ी कृपा है। वह पड़ता है और शत्रु में भी वही दिखाई पड़ता है। फिर जीवन का सारा न मिलता, तो शायद आप इसी खयाल में रहते कि आप अक्रोधी | विस्तार उसका ही विस्तार है। हैं, बड़े शांत आदमी हैं। उसने मिलकर आपकी असली हालत बता ___ संसार आपकी दृष्टि के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। और दी कि भीतर आप क्रोधी हैं; बाहर-बाहर, ऊपर-ऊपर से रंग-रोगन | | परमात्मा भी आपकी दृष्टि के ही अनुभव में उतरेगा; आपके दृष्टि किया हुआ है। सब व्हाइट-वाश है; भीतर आग जल रही है। यह | के परिवर्तन में उतरेगा।
के इसने आपके रोग की खबर दी। यह आदमी क्रांति चाहिए आंतरिक, भीतरी, स्वयं को बदलने वाली। भागने डाक्टर है, इसने आपका निदान कर दिया। इसकी डायग्नोसिस से | में समय खराब करने की कोई भी जरूरत नहीं है। भागने में व्यर्थ पता चल गया कि आपके भीतर क्या छिपा है। इसे धन्यवाद दें और उलझने की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार परमात्मा को पाने का अपने को बदलने में लग जाएं।
अवसर है; एक मौका है। उस मौके का उपयोग करना आना चाहिए। __पत्नी आपको नहीं बांधे हुए है। स्त्री के प्रति आपका आकर्षण । सुना है मैंने कि एक घर में एक बहुत पुराना वाद्य रखा था, है, वह बांधेगा। पत्नी से क्या तकलीफ है? या पति से क्या लेकिन घर के लोग पीढ़ियों से भूल गए थे उसको बजाने की कला। तकलीफ है? आप भाग सकते हैं। लेकिन आकर्षण तो भीतर भरा वह कोने में रखा था। बड़ा वाद्य था। जगह भी घिरती थी। घर में है। कोई दूसरी स्त्री उसे छू लेगी, और वह आकर्षण फिर फैलना | भीड़ भी बढ़ गई थी। और आखिर एक दिन घर के लोगों ने तय शुरू हो जाएगा। फिर आप संसार खड़ा कर लेंगे।
किया कि यह उपद्रव यहां से हटा दें। वह जो बेटा है आपका, वह आपको बांधे हए नहीं है। बेटे से । वह उपद्रव हो गया था। क्योंकि जब संगीत बजाना न आता हो आप बंधे हैं, क्योंकि आप अपने को चलाना चाहते हैं मृत्यु के बाद और उसके तारों को छेड़ना न आता हो...। तो कभी बच्चे छेड़ देते भी। बेटे के कंधों से आप जीना चाहते हैं। आप तो मर जाएंगे; यह | थे, तो घर में शोरगुल मचता था। कभी कोई चूहा कूद जाता, कभी पता है कि यह शरीर गिरेगा; तो आप अब बेटे के सहारे इस जगत कोई बिल्ली कूद जाती। आवाज होती। रात नींद टूटती। वह उपद्रव में रहना चाहते हैं। कम से कम नाम तो रहेगा मेरा मेरे बेटे के साथ। | हो गया था। वह आपको बांधे हुए है।
तो उन्होंने एक दिन उसे उठाकर घर के बाहर कचरेघर में डाल बेटे को छोड़कर भाग जाइए; शिष्य मिल जाएगा। फिर आप | | दिया। लेकिन वे लौट भी नहीं पाए थे कि कचरेघर के पास से उसके सहारे संसार में बचने की कोशिश में लग जाएंगे। बाकी | | अनूठा संगीत उठने लगा। देखा, राह चलता एक भिखारी उसे उठा कोशिश वही रहेगी, जो आप भीतर हैं। नाम बदल जाएंगे, रंग लिया है और बजा रहा है। भागे हुए वापस पहुंचे और कहा कि बदल जाएंगे, लेबल बदल जाएंगे, लेकिन आप इतनी आसानी से लौटा दो। यह वाद्य हमारा है। पर उस भिखारी ने कहा, तुम इसे नहीं बदलते हैं।
फेंक चुके हो कचरेघर में। अगर यह वाद्य ही था, तो तुमने फेंका तो ध्यान रखें, क्षुद्र धर्म परिस्थिति बदलने की कोशिश करता है। | क्यों? और उस भिखारी ने कहा कि वाद्य उसका है, जो बजाना सत्य धर्म मनःस्थिति बदलने की कोशिश करता है। आप बदल | जानता है। तुम्हारा वाद्य कैसे होगा? जाएं, जहां भी हैं। और आप पाएंगे, संसार मिट गया। आप बदले | | जीवन एक अवसर है। उससे संगीत भी पैदा हो सकता है। वही कि संसार खो जाता है; और जो बचता है, वही परमात्मा है। यहीं संगीत परमात्मा है। लेकिन बजाने की कला आनी चाहिए। अभी संसार की हर पर्त के पीछे वह छिपा है।
तो सिर्फ उपद्रव पैदा हो रहा है, पागलपन पैदा हो रहा है। आप आपको संसार दिखाई पड़ता है. क्योंकि आप संसार को ही गुस्सा होते हैं कि इस वाद्य को छोड़कर भाग जाओ, क्योंकि यह देखने वाला मन लिए बैठे हैं। जो आपको दिखाई पड़ रहा है, वह | उपद्रव है।
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ॐ अहंकार घाव है व
यह वाद्य उपद्रव नहीं है। एक ही है जगत का अस्तित्व। जब जब चैतन्य नाच रहे हैं सड़कों पर, तो आप यह मत सोचना कि बजाना आता है, तो वह परमात्मा मालूम पड़ता है। जब बजाना नहीं | | वे बेहोश हैं। हालांकि वे कहते हैं कि मैं बेहोश हूं। और हालांकि आता, तो वह संसार मालूम पड़ता है।
वे कहते हैं कि हमने शराब पी ली परमात्मा की। वे सिर्फ इसलिए अपने को बदलें। वह कला सीखें कि कैसे इसी वाद्य से संगीत उठ | कहते हैं कि आप इन्हीं प्रतीकों को समझ सकते हैं। आए। और कैसे ये पत्थर प्राणवान हो जाएं। और कैसे ये एक-एक उमर खय्याम ने कहा है कि अब हमने ऐसी शराब पी ली है, फूल प्रभु की मुस्कुराहट बन जाएं। धर्म उसकी ही कला है। जिसका नशा कभी न उतरेगा। और अब बार-बार पीने की कोई
तो जो धर्म भागना सिखाता है, समझना कि वह धर्म ही नहीं है। जरूरत न रहेगी। अब तो पीकर हम सदा के लिए खो गए हैं। कहीं कोई भूल-चूक हो रही है। जो धर्म रूपांतरण, आंतरिक क्रांति शराब का उपयोग किया है प्रतीक की तरह। क्योंकि आप एक सिखाता है, वही वास्तविक विज्ञान है।
| ही तरह का खोना जानते हैं, जिसमें आपकी सारी चेतना ही शून्य हो जाती है।
भाव में शराब का थोड़ा-सा हिस्सा है। आपकी सब बीमारियां एक मित्र ने पूछा है कि आपने बताया कि बेहोशी में | सो जाती हैं, आपका अहंकार सो जाता है, आपका मन सो जाता किया हुआ कृत्य पाप है। लेकिन भाव से भी तो | है, आपके विचार सो जाते हैं। लेकिन आप? आप पूरी तरह जाग बेहोशी होती है? कृपया समाधान कीजिए। गए होते हैं और भीतर पूरा होश होता है। लेकिन यह तो अनुभव
से ही होगा, तो ही खयाल में आएगा। यह तो बात जटिल है। यह
तो आपको कैसे खयाल में आएगी! भाव में डूबकर देखें। होशी बेहोशी में बड़ा फर्क है। एक बेहोशी नींद में | | लेकिन हम डरते हैं। डर यही होता है, कहीं अगर भाव में पूरे होती है, तब आपको कुछ भी पता नहीं होता। एक | डूब गए, तो जो-जो हमने दबा रखा है, अगर वह बाहर निकल
बेहोशी शराब पीने से भी होती है, तब भी आपको | पड़ा, तो लोग क्या कहेंगे! डरते हैं हम, क्योंकि हमने बहुत कुछ कुछ पता नहीं होता। एक बेहोशी भाव से भी होती है, आप पूरे छिपा रखा है। और हमने चारों तरफ से अपने को बांध रखा है बेहोश भी होते हैं और आपको पूरा पता भी होता है। जब आप मग्न नियंत्रण में। तो कहीं नियंत्रण ढीला हो गया, और जरा-सा भी कहीं होकर गीत में नाच रहे होते हैं, तो यह नृत्य भी होता है, इस नृत्य | छिद्र हो गया, और हमने जो रोक रखा है, वह बाहर निकल पड़ा में पूरा डूबा हुआ होना भी होता है; और भीतर दीए की तरह चेतना | तो? उस भय के कारण हम अपने को कभी छोड़ते नहीं, समर्पण
भी जलती है, जो जानती है, जो देखती है, जो साक्षी होती है। नहीं करते। . अगर आपके भाव में बेहोशी शराब जैसी आ जाए, तो आप हम कहीं भी अपने को शिथिल नहीं करते। हम चौबीस घंटे डरे समझना कि चूक गए। तो समझना कि यह भाव भी फिर शराब ही | | हुए हैं और अपने को सम्हाले हुए हैं। यह जिंदगी नरक जैसी हो हो गई।
जाती है। इसमें सिवाय संताप के और विष के कुछ भी नहीं बचता। प्रार्थना में बेहोशी का मतलब इतना है कि आप इतने लीन हो | | यह रोग ही रोग का विस्तार हो जाता है। गए हैं कि मैं हूं, इसका कोई पता नहीं है। मैं हूं, इसका कोई शब्द | खुलें; फूल की तरह खिल जाएं। माना कि बहुत-सी बीमारियां निर्मित नहीं होता। लेकिन जो भी हो रहा है, उसके आप साक्षी हैं। आपके भीतर पड़ी हैं। लेकिन आप उनको जितना सम्हाले रखेंगे, जो साक्षी है, उसमें कोई मैं का भाव नहीं है। और वह जो साक्षी है, उतनी ही वे आपके भीतर बढ़ती जाएंगी। उनको भी गिर जाने दें। वह आप नहीं हैं; आप तो लीन हो गए हैं। और आपके लीन होने उनको भी परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दें। और आप जल्दी के बाद जो भीतर असली आपका स्वरूप है, वह भर देखता है।। ही पाएंगे कि बीमारियां हट गईं और आपके भीतर फूल का खिलना उस दर्शन में, उस द्रष्टा के होने में, जरा भी बेहोशी नहीं है। | शुरू हो गया। आपके भीतर का कमल खिलने लगा।
भाव की बेहोशी में आपके जो-जो रोग हैं, वे सो गए होते हैं; जिस दिन यह भीतर का कमल खिलना शुरू होता है, उसी दिन और आपके भीतर जो शुद्ध चेतन है, वह जाग गया होता है। पता चलता है कि बेहोशी भी है और होश भी है। एक तल पर हम
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
बिलकुल बेहोश हो गए हैं, और एक तल पर हम पूरी तरह होशवान | क्योंकि जब तक भीतर प्रतीति न हो इस बात की कि सब बेहोशी हो गए हैं। ये घटनाएं एक साथ घटती हैं।
| हो गई है और फिर भी भीतर कोई जागा है, दीया जल रहा है, तब शराब में हम केवल बेहोश होते हैं, कोई होश नहीं होता। | तक कैसे, तब तक आप बाहर से ही देखेंगे। तो आप बाहर से इसलिए कुछ साधकों ने तो इस भाव की जागरूकता को पाने के | नाचते हुए देखेंगे मीरा को, तो आपको लगेगा कि बेहोश है, होश बाद शराबें पीकर भी देखी हैं, कि क्या हमारी इस भाव की | नहीं है इसे। लगेगा ही। कपड़ा गिर गया। साड़ी का पल्लू गिर जागरूकता को शराब डुबा सकती है?
गया। अगर होश होता, तो मीरा अपना पल्लू सम्हालती, कपड़ा आपको पता हो या न हो, योग और तंत्र के ऐसे संप्रदाय रहे हैं, सम्हालती। होश में नहीं है, बेहोश है। जहां कि शराब भी पिलाई जाएगी। जब भाव की पूरी अवस्था आ निश्चित ही, शरीर के तल पर बेहोशी है। कपड़े के तल से होश जाएगी और साधक कहेगा कि अब मैं बाहर से तो बिलकुल बेहोश हट गया है। वहां मीरा अब नहीं है। न कपड़े में है, न शरीर में है। हो जाता हूं, लेकिन मेरा भीतर होश पूरा बना रहता है, तो फिर गुरु | | भीतर कहीं सरक गई है। लेकिन वहां होश है। उसको शराब भी पिलाएगा, अफीम भी खिलाएगा। और धीरे-धीरे पर यह तो आप भी मीरा हो जाएं, तभी खयाल में आए, अन्यथा बेहोशी की, मादकता की मात्रा बढ़ाई जाएगी और उससे कहा | कैसे खयाल में आए! मीरा के भीतर झांकने का कोई भी उपाय नहीं जाएगा कि यहां बाहर बेहोशी घेरने लगे, शरीर बेहोश होने लगे, है। कोई खिड़की-दरवाजा नहीं, जिससे हम भीतर झांक सकें। तो भी तू भीतर अपने होश को मत खोना।
| अगर मीरा के भीतर झांकना है, तो अपने ही भीतर झांकना पड़े, और यह बात यहां तक प्रयोग की गई है कि सब तरह की शराब और कोई उपाय नहीं है। बद्ध को समझना हो, तो बद्ध हए बिना और सब तरह के मादक द्रव्य पीकर भी साधक भीतर होश में बना कोई रास्ता नहीं है। रहता है, तब फिर सांप को भी कटवाते हैं उसकी जीभ पर; कि जब | ___ इसलिए शिष्य जब तक गुरु ही नहीं हो जाता, तब तक गुरु को सांप काट ले, उसका जहर भी पूरे शरीर में फैल जाए, तो भी भीतर | नहीं समझ पाता है। कैसे समझेगा? अलग-अलग तल पर खड़े का होश जरा भी न डिगे, तभी वे मानते हैं कि अब तूने उस होश | हुए लोग हैं। वे अलग भाषाएं बोल रहे हैं। अलग अनुभवों की बातें को पा लिया, जिसको मौत भी न हिला सकेगी।
कर रहे हैं। तब तक मिसअंडरस्टैंडिंग ज्यादा होगी, नासमझी ज्यादा पर अनुभव के बिना कुछ खयाल न आ सकेगा। थोड़ा भाव में | होगी, समझ कम होगी। अगर सच में ही समझना चाहते हैं, तो डूबना सीखें। भाव में जो डूबता है, वह उबर जाता है। और भाव प्रयोग की हिम्मत जुटानी चाहिए। से जो बचता है, वह डूब ही जाता है, नष्ट ही हो जाता है। विज्ञान भी प्रयोग पर निर्भर करता है और धर्म भी। दोनों
लेकिन कुछ चीजें हैं, जो समझ से नहीं समझाई जा सकतीं। कोई | एक्सपेरिमेंटल हैं। विज्ञान भी कहता है कि जाओ प्रयोगशाला में उपाय नहीं है। और जितनी भीतरी बात होगी, उतना ही अनुभव पर और प्रयोग करो। और जब तुम भी पाओ कि ऐसा होता है, तो ही निर्भर रहना पड़ेगा।
| मानना, अन्यथा मत मानना। धर्म भी कहता है कि जाओ अगर मेरे पैर में दर्द है, तो आपको मानना ही पड़ेगा कि दर्द है।। प्रयोगशाला में, प्रयोग करो। हालांकि प्रयोगशालाएं दोनों की और क्या उपाय है! और अगर मैं आपको समझाने जाऊं और अलग हैं। विज्ञान की प्रयोग शाला बाहर है, धर्म की प्रयोगशाला आपके पैर में कभी दर्द न हुआ हो, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। | भीतर है। आप ही हो धर्म की प्रयोगशाला। मैं कितना ही कहूं कि पैर में दर्द है, लेकिन आपको अगर दर्द का | । इसलिए विज्ञान की प्रयोगशाला तो निर्मित करनी पडती है. और कोई अनुभव नहीं है, तो शब्द ही सुनाई पड़ेगा; अर्थ कुछ भी समझ | | आप अपनी प्रयोगशाला अपने साथ लिए चल रहे हो। नाहक ढो रहे में न आएगा। आपको भी दर्द हो, तो ही...। अनुभव को शब्द से | | हो वजन। बड़ा अदभुत यंत्र आपको मिला है, उसमें आप प्रयोग कर हस्तांतरित करने की कोई भी सुगमता नहीं है।
| लो, तो अभी आपको खयाल में आ जाए कि क्या हो सकता है। बुद्ध के पास कोई आया और उसने कहा कि जो आपको हुआ भाव की बेहोशी बहुत गहन होश का नाम है। वह किसी दूसरे है, थोड़ा मुझे भी समझाएं। तो बुद्ध ने कहा कि समझा मैं न सकूँगा। तल पर होश है, जागरूकता है। तुम रुको और वर्षभर जो मैं कहूं, वह करो। समझ में आ जाएगा।
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अहंकार घाव है
एक मित्र ने पूछा है कि अपने आप को भगवान के चरणों में समर्पित कर देने के बाद क्या सुख-दुख के भाव हममें नहीं उठेंगे? उन्हें उठने देने से रोकने का क्या उपाय है?
फि
'र आपको रोकने की जरूरत नहीं, जब भगवान के चरणों में समर्पित ही कर दिया। तो समर्पण पूरा नहीं कर रहे हैं। पीछे आप भी इंतजाम रखेंगे अपना जारी ! हमें खयाल नहीं है कि हम क्या सोचते हैं, किस ढंग से सोचते हैं! अगर अपने को भगवान के हाथ में समर्पण कर दिया, तो फिर सुख-दुख के भाव उठेंगे या नहीं, यह भी भगवान पर छोड़ दें। क्या पहले तय कर लेंगे, फिर समर्पण करेंगे ? तब तो समर्पण: झूठा हो जाएगा, सशर्त, कंडीशनल हो जाएगा। क्या भगवान से यह कहकर समर्पण करेंगे कि समर्पण करता हूं, लेकिन ध्यान रहे, अब सुख-दुख का भाव नहीं उठना चाहिए। अगर उठा, तो समर्पण वापस ले लूंगा । रद्द कर दूंगा कांट्रेक्ट ।
यह कोई समझौता तो नहीं है कि आप इसमें शर्त रखेंगे। समर्पण का मतलब है, बेशर्त। आप कहते हैं, छोड़ता हूं तुम्हारे हाथ में | अब दुख देना हो तो दुख देना, मैं राजी रहूंगा। समर्पण का मतलब यह है । सुख देना तो सुख देना, मैं राजी रहूंगा। दोनों छीन लेना, राजी रहूंगा। दोनों जारी रखना, राजी रहूंगा। मेरी तरफ से, तुम कुछ भी करो, राजीपन रहेगा। समर्पण का यह अर्थ है। तुम क्या करोगे, अब मैं उस पर कोई विचार न करूंगा। मैं सिर्फ राजी रहूंगा ।
यह जो राजीपन है...। स्वीकार कर लूंगा कि तुम्हारी मर्जी है; जरूर कुछ बात होगी, जरूर कुछ लाभ होगा। सुख-दुख कैसे बचेंगे ! ! जिस आदमी ने अपने को छोड़ दिया, उसके सुख-दुख बच सकते हैं?
सुख-दुख है क्या ? आपकी अपने आप पर पकड़ ही तो जड़ में है। और समर्पण में आप अपनी पकड़ छोड़ते हैं। जो आदमी कहता है कि सुख होगा तो राजी, दुख होगा तो राजी, क्या उसको सुख-दुख हो सकते हैं? सवाल यह है। कैसे हो सकते हैं! क्योंकि सुख का मतलब ही होता है कि चाहता हूं। दुख का मतलब होता है, नहीं चाहता हूं। सुख का मतलब होता है, कहीं छिन न जाए, यह भय। दुख का मतलब होता है, कहीं टिक न जाए, यह भय । समर्पण का अर्थ है, सुख तो राजी, दुख तो राजी । सुख छिन
जाए तो राजी, दुख बना रहे तो राजी । सुख-दुख बचेंगे कैसे ? सुख-दुख के बचने की आधारशिला खो गई।
सुख है क्या? जिसको आप चाहते हैं। दुख है क्या? जिसको आप नहीं चाहते हैं । और कभी आपने खयाल किया कि कैसा | चमत्कार है कि आज जिसे आप चाहते हैं, वह सुख है; और कल अगर न चाहें, तो वही दुख हो जाता है। और आज जिसे आप नहीं | चाहते थे, वह दुख था; और कल अगर आप उसी को चाहने लगें, सुख हो जाता है।
एक प्रेमी है। वह कहता है कि इस स्त्री के बिना मैं जी न सकूंगा। यही मेरा सुख है। और लगता है उसे कि इसके बिना मैं नहीं जी | सकूंगा। और कल शादी हो जाती है। और परसों वह अदालतों में घूम रहा है कि तलाक कैसे करूं ! स्त्री वही है। पहले कहता था, | इसके बिना न जी सकूंगा। अब कहता है, इसके साथ न जी सकूंगा। वह कल सुख था, आज दुख हो गया। और आप ऐसा मत सोचना, कुछ हैरानी की बात नहीं है। ऐसी घटनाएं घटती हैं।
मेरे एक परिचित हैं। स्पेन में रहते हैं। उन्होंने अपनी पत्नी को तलाक दिया और दो साल बाद उसी स्त्री से दुबारा शादी कर ली ! पहले सुख पाया, फिर दुख पाया। दो साल उसके बिना रहे, और फिर लगा कि वह सुख है। जब उन्होंने मुझे खबर की, तो मैंने कहा कि तुम पहले अनुभव से कुछ भी सीखे नहीं मालूम पड़ता। यह स्त्री कभी सुख थी, फिर दुख हो गई थी। अभी फिर सुख हो गई है ! | कितनी देर चलेगा? और कब दुख हो जाए, ज्यादा देर नहीं चलेगा मामला। क्योंकि व्यक्ति वे के वही हैं। फिर दुख हो जाएगा।
इतने दूर जाने की जरूरत नहीं है। आपकी पत्नी ही थोड़े दिन मायके चली जाती है, तो सुखद मालूम पड़ने लगती है। लौट आती है, तो देखते ही से फिर तबीयत घबड़ाती है कि वापस आ गई !
दूरी सुख के भावों को जन्म देने लगती है, निकटता उबाने लगती है। जो भी हमारे पास है, उससे ही हम ऊब जाते हैं। तो ऐसा कुछ नहीं है कि कोई चीज सुख है और कोई चीज दुख है। भाव ! आपका भाव अगर चाह का है, तो सुख है; और अगर बेचाह का हो गया, | तो दुख है। चीज वही हो, इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है।
लेकिन समर्पण करने वाले ने अपनी चाह छोड़ दी, अपना भाव छोड़ दिया। अब उसे दुख देना मुश्किल है। अब उसे सुख देना भी मुश्किल है । और जिस व्यक्ति को सुख और दुख दोनों देना मुश्किल हो जाता है, वही आनंद को उपलब्ध होता है।
आनंद सुख नहीं है। शब्दकोश में ऐसा ही लगता है, भाषा में
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6 गीता दर्शन भाग-60
ऐसा ही लगता है कि महासुख का नाम आनंद है। भूलकर भी ऐसा | पड़ती है। लेकिन अगर मेरी बात अनुभव करनी है, तो भाव से मत सोचना। आनंद का सुख से उतना ही संबंध है, जितना दुख से। | करनी पड़ेगी। समझ के लिए बुद्धि जरूरी है। लेकिन समझ या उतना ही संबंध नहीं है। आनंद का अर्थ है, जहां सुख-दुख दोनों | | अनुभव नहीं है। अगर समझ पर ही रुक गए और समझदार होकर व्यर्थ हो गए, वह चित्त की दशा।
ही रुक गए, तो आप बड़े नासमझ हैं। समर्पण के बाद आनंद है। लेकिन अगर न हो, तो समझना कि | मैं जो कह रहा हूं, उसे समझने के लिए बुद्धि की जरूरत है। समर्पण नहीं है। यह मत समझना कि समर्पण के बाद आनंद नहीं लेकिन मैं जो कह रहा हूं, उसका अनुभव करने के लिए भाव की है। समर्पण के बाद आनंद न हो, तो समझना कि समर्पण नहीं है। जरूरत है। तो बुद्धि से समझ लेना, और फिर भाव से करने में उतर समर्पण के बाद आनंद है ही। समर्पण शरीर है और आनंद उसकी जाना। अगर बुद्धि पर ही रुक गए और भाव तक न गए, तो वह आत्मा है। लेकिन समर्पण पूरा होना चाहिए।
| समझ बेकार हो गई और मैं आपका दुश्मन साबित हुआ। आप वैसे पूरे समर्पण का अर्थ है कि अब मेरा कोई चुनाव नहीं। अब मैं | | ही काफी बोझ से भरे थे और मैंने थोड़ा बोझ बढ़ा दिया। आपके नहीं कहता, यह मिले; अब मैं यह नहीं कहता, यह न मिले। अब | मस्तिष्क पर ऐसे ही काफी कूड़ा-करकट इकट्ठा है, उसमें मैंने और . मैं हूं ही नहीं। अब मेरा कोई निर्णय नहीं है। अब मैंने अपनी | | थोड़ा उपद्रव जोड़ दिया। बागडोर उसके हाथ में डाल दी है। वह पूरब ले जाए तो ठीक, बुद्धि का काम है समझ लेना। लेकिन वहीं रुक जाना बुद्धिमान पश्चिम ले जाए तो ठीक, कहीं न ले जाए तो ठीक। जो भी वह करे, | | का लक्षण नहीं है। समझकर उसे प्रयोग में ले आना और भाव में ठीक। मेरी हां बेशर्त है। वह जो भी कहेगा, मैं कहूंगा, हां। | उतार देना, अनुभव बना लेना। ।
फिर चिंता आपको नहीं रह जाएगी कि सुख-दुख के भाव उठेंगे, और जब तक कोई चीज अनुभव न बन जाए, तब तक ऐसी ही तो हम उनको कैसे रोकेंगे। आप ही न बचेंगे, उनको रोकने की | | हालत होती है कि आप कोई चीज पेट में गटक लें और पचा न आपको कोई भी जरूरत न रह जाएगी। वे भी न बचेंगे। आपके | | पाएं। तो बीमारी पैदा करेगी, विजातीय हो जाएगी, जहर बन साथ ही समाप्त हो जाएंगे। वे आपके ही संगी-साथी हैं। | जाएगी, और शरीर से बाहर निकालने का उपाय करना पड़ेगा। __ अहंकार का ही पहलू है एक सुख, और एक दुख। अहंकार को | | लेकिन आप कोई चीज चबाएं, ठीक से पचाएं, तो खून बनती है, जो बात रुचती है वह सुख, जो बात नहीं रुचती वह दुख। अहंकार मांस-मज्जा बनती है। बीमारी नहीं होती: फिर उससे स्वास्थ्य पैदा खो जाता है, दोनों भी खो जाते हैं। जो शेष रह जाता है, उसको | होता है। नियंत्रण करने की जरूरत भी नहीं है।
"बुद्धि का काम है कि आपके भीतर ले जाए, लेकिन भाव का और जिसने परमात्मा के हाथ में अपनी नाव छोड़ दी, अब काम है कि पचाए। और जब तक आप भाव से पचा न सकें, उसको अपने साथ नियंत्रण की समझदारी ले जाने की जरूरत नहीं | डायजेस्ट न कर सकें, तब तक सब ज्ञान जहर हो जाता है। तो है। उसकी समझदारी अब काम भी नहीं पड़ेगी।
अच्छा हो कि अपने कान बंद कर लेना चाहिए। जो बात भाव में न | उतारनी हो, उसे न सुनना ही बेहतर है। क्या सार है?
| हम खाने में उन्हीं चीजों को खाते हैं. जिन्हें हमें पचाना है। जिन्हें एक मित्र ने पूछा है, आपकी बातों को समझने के नहीं पचाना है, उन्हें नहीं खाते। नहीं खाना चाहिए, क्योंकि उन्हें लिए तो बुद्धि की ही आवश्यकता पड़ती है, तो इस खाने का अर्थ है कि हम पेट पर व्यर्थ का बोझ डाल रहे हैं और अवसर पर बुद्धि को ही प्राथमिकता देनी चाहिए या | | शरीर की व्यवस्था को रुग्ण कर रहे हैं। और अगर इस तरह की भाव को? क्या सिर्फ भाव को प्रधानता देने से | | चीजें हम खाते ही चले जाएं, तो हम शरीर को पूरी तरह नष्ट कर आपकी बातें समझ में आ जाएंगी?
डालेंगे। तो भोजन हमारा जीवन नहीं बनेगा. मत्य बन जाएगा।
शब्द भी भोजन हैं। आप ऐसा मत सोचना कि सुन लिया। सुन
| लिया नहीं, आपके भीतर चली गई बात। अब आप इससे बच नहीं 7 श्चित ही, मेरी बात समझनी है, तो बुद्धि से समझनी | सकते। कुछ करना पड़ेगा। या तो इसे पचाना पड़ेगा और या फिर
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ॐ अहंकार घाव है
यह आपके भीतर बीमारी पैदा करेगी।
| लेकिन अनुभव के पहले इनकार कर देना अज्ञान है। बहुत लोग ज्ञान से बीमार हैं। उनको ज्ञान का अपच हो गया है। तो ईश्वर को, आत्मा को, मुक्ति को, आनंद को, अद्वैत को काफी सुन लिया है, पढ़ लिया है, चारों तरफ से इकट्ठा कर लिया | बिना अनुभव के इनकार कर देना अज्ञान है। अनुभव का एक मौका है और पचाने की उन्हें कोई सुध-बुध नहीं है। वे भूल ही गए कि अपने को दें। अब तक जिसने भी अनुभव किया, वह इनकार नहीं पचाना भी है। अब वह सब पत्थर की तरह उनकी छाती पर बैठ कर पाया। और जिन्होंने इनकार किया, उन्होंने अनुभव नहीं किया, गया है। उससे तो बेहतर है सुनना ही मत, पढ़ना ही मत। जब लगे सिर्फ तर्क से ही बात चलाई है। कि पचाने की तैयारी है, तो!
तर्क बड़े खतरनाक हो सकते हैं और गलत चीजों के पक्ष में भी बुद्धि भीतर ले जाने का द्वार है। भाव पचाने की व्यवस्था है। दिए जा सकते हैं। सही चीजों के विपरीत भी दिए जा सकते हैं। सुनें, बुद्धि से समझें, और भाव तक पहुंचने दें।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने लड़के का विवाह करना निश्चित ही, बुद्धि दो तरह के काम कर सकती है। या तो भाव चाहता था। एक धनी लड़की थी—कुरूप, बेडौल, बदशक्ल। तक पहुंचने दे और या बाहर ठेलने की कोशिश करे, भीतर न आने | मुल्ला का इरादा धन पर था। तो अपने लड़के को कहा कि सुना दे। अगर आप सिर्फ तर्क का ही भरोसा करते हों, तो आपकी बुद्धि तूने, सुलताना से तेरे विवाह की बात चलाई है। चीजों को बाहर धक्का देना शुरू कर देगी। क्योंकि जो बात तर्क | लड़के ने कहा, सुलताना! क्या मतलब? गांव के नगरसेठ की की पकड़ में नहीं आएगी, बुद्धि कहेगी, भीतर मत लाओ। और लड़की? उससे? लेकिन उसे तो कम दिखाई पड़ता है! जितनी कीमती बातें हैं, कोई भी तर्क की पकड़ में नहीं आतीं। मुल्ला ने कहा, अभागे, अपने को भाग्यवान समझ। पत्नी को क्योंकि तर्क की पकड़ में वही बात आ सकती है, जो केवल तर्क कम दिखाई पड़ता हो, इससे ज्यादा अच्छी बात पति के लिए और हो। अनुभव की कोई भी बात तर्क की पकड़ में नहीं आ सकती। | क्या हो सकती है! तू सदा स्वतंत्र रहेगा। जो भी करना हो कर। तर्क और अनुभव का कहीं मेल नहीं होता।
पत्नी को कुछ दिखाई भी नहीं पड़ेगा। ___एक अंधा आदमी है; उसको प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता। आप लड़का थोड़ा चौंका। उसने कहा, लेकिन मैंने सुना है कि वह उसको कितना ही तर्क करिए, समझ में नहीं आ सकता। वह तुतलाती भी है, हकलाती भी है! इनकार करता चला जाएगा। वह तर्क देगा; आपको गलत सिद्ध मुल्ला ने कहा, अगर मुझे शादी करनी होती दोबारा, तो मैं ऐसी करेगा। उसकी बुद्धि अगर तर्क से ही चले...।
ही स्त्री से शादी करता। यह तो भगवान का वरदान समझ। क्योंकि हम सब भी ऐसा ही कर रहे हैं परमात्मा के संबंध में। तर्क से स्त्री अगर तुतलाए, हकलाए, तो ज्यादा बोलने की हिम्मत नहीं ही चलते हैं, इनकार करते चले जाते हैं। इनकार का एक अवरोध जुटाती। पति शांति से जीता है! खड़ा हो जाता है। फिर कोई चीज भीतर प्रवेश नहीं करती। तर्क । उसके लड़के ने कहा, लेकिन मैंने तो सुना है कि वह बहरी भी पहले ही कह देता है, बेकार है। गणित में नहीं आती। अनुभव की | है! उसे ठीक सुनाई भी नहीं पड़ता! बात रहस्य मालूम पड़ती है। यह अपनी सीमा नहीं। तर्क कह देता नसरुद्दीन ने कहा कि नालायक, मैं तो सोचता था तुझमें थोड़ी है, इसे बाहर छोड़ो।
बुद्धि है। अरे, पत्नी बहरी हो, इससे बेहतर और क्या। तू गाली दे, बुद्धि दूसरा काम कर सकती है कि द्वार बन जाए। जो अनुभव | चिल्ला, नाराज हो, वह कुछ भी नहीं समझ पाएगी। में आने योग्य हो, चाहे तर्क की समझ में न भी आता हो, उस पर लड़के ने आखिरी बार हिम्मत जुटाई। उसने कहा, यह भी सब भी प्रयोग करने की हिम्मत सदबुद्धि है। नहीं तो बुद्धि दुर्बुद्धि हो ठीक। लेकिन उसकी उम्र मुझसे बीस साल ज्यादा है! जाती है। तर्क कुतर्क हो जाता है। नहीं, मुझे अनुभव में नहीं है, ___ मुल्ला ने कहा, एक छोटे-से दोष के लिए कि वह बीस साल लेकिन मैं प्रयोग करके देखूगा।
| पहले पैदा हुई, इतना महान अवसर चूकता है! इतनी-सी छोटी-सी हजार चीजें हैं, जो आपके अनुभव में नहीं हैं। लेकिन आप बात को नाहक शोर-गुल मचाता है। ऐसी सुंदर स्त्री तेरे लिए ढूंढ़ प्रयोग करके देखें, तो आपका अनुभव बढ़ सकता है। और अनुभव रहा हूं और तू छोटी-सी बात कि बीस साल ज्यादा है! तो दुनिया में चीजें आ सकती हैं। और न आएं अनुभव में, तो मत मानना। में पूर्णता तो कहीं भी नहीं होती।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
आदमी किस-किस बात के लिए क्या-क्या तर्क नहीं खोज | अहंकार सफलता की मांग करता है। निरहंकार सफलता की मांग सकता है! ऐसी कोई बात आपने सुनी, जिसके विपरीत तर्क न ही नहीं करता। खोजा जा सके? या ऐसी कोई बात सुनी, जिसके पक्ष में तर्क न सफलता का मतलब क्या है? सफलता का मतलब है कि मैं खोजा जा सके? तर्क का अपना कोई पक्ष नहीं है, न कोई विपक्ष दूसरों से आगे। सफलता का मतलब है कि क्या मैं दूसरों को है। तर्क तो नंगी तलवार है। उससे मित्र को भी काट सकते हैं, शत्रु असफल कर सकूँगा? सफलता का मतलब है, क्या मैं दूसरों को को भी काट सकते हैं। और चाहें तो अपने को भी काट सकते हैं। | पीछे छोड़कर उनके आगे खड़ा हो सकूगा? सफलता का अर्थ है, तलवार का कोई आग्रह नहीं है कि किसको काटें। | महत्वाकांक्षा, एंबीशन। ये सब तो अहंकार के लक्षण हैं। अहंकार
इसलिए जरा तलवार सम्हालकर हाथ में लेना। उससे क्या काट | कहता है कि मुझे आगे खड़े होना है, नंबर एक होना है। नंबर दो रहे हैं, थोड़ा सोच लेना। बहुत-से लोग अपने ही तर्क से खुद को | | में बड़ी पीड़ा है। पंक्ति में पीछे खड़ा हूं, क्यू में, तो भारी दुख है। काट डालते हैं।
जितना पीछे है. उतनी पीड़ा है। नंबर एक होना है। तर्क का उपयोग करना, अगर वह अनुभव की तरफ ले जाए। ___ अहंकार की खोज महत्वाकांक्षा की खोज है। और जब मुझे नंबर तर्क का उपयोग करना, अगर वह जीवन की गहराई की तरफ ले | एक होना है, तो दूसरों को मुझे हटाना पड़ेगा; और दूसरों को मुझे जाए। तर्क का उपयोग करना, अगर वह शिखरों का दर्शन कराए। | रौंदना पड़ेगा; और दूसरों के सिरों का मुझे सीढ़ियों की तरह उपयोग तर्क का उपयोग करना, अगर वह गहराइयों में उतारे। अगर तर्क करना पड़ेगा; और दूसरों के ऊपर, छाती पर चढ़कर मुझे आगे गहराइयों में उतरने से रोकता हो, तो ऐसे तर्क को कुतर्क समझना; | जाना पड़ेगा। सिंहासनों के रास्ते लोगों की लाशों से पटे हैं। छोड़ देना, क्योंकि वह आत्महत्या है।
तो अहंकार की तो खोज ही यही है कि मैं सफल हो जाऊं। तो मेरी बात बुद्धि से समझें। लेकिन वह बात केवल बुद्धि की नहीं | | आपको खयाल में नहीं है। जब आप पूछते हैं कि अगर मैं है। बुद्धि का हम उपयोग कर रहे हैं एक माध्यम की तरह, एक | निरहंकारी हो जाऊं, तो क्या मैं सफल हो सकूँगा? इसका मतलब साधन की तरह। वह बात भाव की है। और जब तक आपके भाव हआ कि आप निरहंकारी भी सफल होने के लिए होना चाहते हैं। में न आ जाए, तब तक यात्रा अधूरी है। और यात्रा शुरू ही करनी तो आप चूक गए बात ही। हो, तो मंजिल तक जाने की चेष्टा करनी चाहिए। क्योंकि तभी निरहंकारी होने का अर्थ यह है कि सफलता का मूल्य अब मेरा रहस्य खुलता है।
मूल्य नहीं है। मैं कहां खड़ा हूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा हूं, तो भी उतना ही आनंदित हूं, जितना
प्रथम खड़ा हो जाऊं। आखिरी प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि क्या यह ___जीसस ने कहा है, इस जगत में जो सबसे पीछे खड़े हैं, मेरे प्रभु संभव है कि अहंकार से भरे हुए इस जगत में कोई के राज्य में वे सबसे प्रथम होंगे। लेकिन इस जगत में जो सबसे व्यक्ति निरहंकारी होकर जी सके और सफल भी हो | | पीछे खड़े हैं! सके ? क्या जहां सारे लोग अहंकार से भरे हैं, वहां निरहंकार का मतलब है कि पीछे खड़े होने में भी मुझे उतना ही निरहंकारी होकर जीना धारा के विपरीत तैरना न मजा है। मेरे मजे में कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मेरे खड़े होने में है। होगा? क्या इससे अड़चन, कठिनाइयां, असफलताएं मेरे होने में मेरा मजा है। न आएंगी?
लाओत्से ने कहा है, मुझे कभी कोई हरा न सका, क्योंकि मैं लड़ने के पहले ही हारा हुआ हूं। मेरा कोई कभी अपमान न कर
सका, क्योंकि मैंने अपने मान की कोई चेष्टा नहीं की। और ड़ा समझें। पहली तो बात कि क्या अहंकार से भरे हुए सभाओं में जहां लोग जूते उतारते हैं, वहां मैं बैठ जाता हूं, ताकि इस जगत में कोई व्यक्ति निरहंकारी होकर सफल हो | कभी किसी को उठाने का मौका न आए। तो लाओत्से ने कहा है सकता है? निरहंकार सफलता की मांग नहीं करता। कि मेरी विजय असंदिग्ध है। मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं
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अहंकार घाव है
लड़ने के पहले ही हार जाता हूं। मैं हारा ही हुआ हूं। निरहंकार का अर्थ है कि जो कहता है, हमने तुम्हारे लड़ने की नासमझी, विजय की मूढ़ता, तुम्हारा संघर्ष, तुम्हारी महत्वाकांक्षा, इसका पागलपन अच्छी तरह समझ लिया और अब हम इसमें सम्मिलित नहीं हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता ।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल होगा नहीं। बारीक फासले हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल नहीं होगा। वही सफल होता है। लेकिन उसकी सफलता की यात्रा का पथ बिलकुल दूसरा है।
लोग धन इकट्ठा कर लेते हैं बाहर का । निरहंकारी भीतर के धन को उपलब्ध हो जाता है। लोग बाहर की विजय इकट्ठी कर लेते हैं। निरहंकारी भीतर उस जगह पहुंच जाता है, जहां कोई हार संभव नहीं है। लोग जीवन के लिए सामान जुटा लेते हैं, निरहंकारी जीवन को ही पा लेता है। लोग क्षुद्र को इकट्ठा करने में समय व्यतीत कर देते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं; निरहंकारी विराट से जुड़ जाता है।
निरहंकार की सफलता अदभुत है। लेकिन वह सफलता का आयाम दूसरा है। उसे कौड़ियों में, रुपए-पैसे में नहीं तौला जा सकता। इस संसार की सफलता से उस सफलता का कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन इस संसार में भी निरहंकारी से ज्यादा शांत और आनंदित आदमी नहीं पाया जा सकता।
तो अगर आप सफल होना चाहते हैं, तो कृपा करके अहंकार के रास्ते पर ही चलें। अगर आपको सफलता की मूढ़ता दिखाई पड़ गई है कि सफल होकर भी कौन सफल हुआ है ? कौन नेपोलियन, कौन सिकंदर, कहां है? किसने क्या पा लिया है? अगर आपको . यह समझ में आ गया हो, तो सफलता शब्द को छोड़ दें। वह अज्ञानपूर्ण है। बच्चों के लिए शोभा देता है। आप सफलता की बात ही छोड़ दें।
किसी से आगे होने का मतलब भी क्या है? और आगे होकर भी क्या करिएगा? आगे ही क्यू में खड़े हो गए, तो वहां है क्या?
आगे खड़े हो जाते हैं, बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। क्योंकि फिर उनको तकलीफ यह होती है कि अब क्या करें!
सिकंदर से किसी ने कहा था कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा, तो कभी सोचा है कि फिर क्या करेगा! तो सिकंदर एकदम उदास हो गया था और उसने कहा कि नहीं, मुझे यह खयाल नहीं आया। लेकिन तुम ऐसी बात मत करो। इससे मन बड़ा उदा होता है। कि अगर मैं सारी दुनिया जीत लूंगा, तो कोई दूसरी दुनिया
तो है नहीं। तो फिर मैं क्या करूंगा !
पूछें राष्ट्रपतियों से, प्रधानमंत्रियों से कि जब वे क्यू के आगे पहुंच जाते हैं, तो वहां कोई बस भी नहीं जिस पर सवार हो जाएं। वहां कुछ भी नहीं है। बस, क्यू के आगे खड़े हैं। और पीछे से लोग धक्का दे रहे हैं, क्योंकि वे आगे आने की कोशिश कर रहे हैं।
और वह जो आगे आ गया है, उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि अब वह यह भी नहीं कह सकता कि अपनी पूंछ कट गई; यहां | आकर कुछ मिला नहीं। और अब पीछे लौटने में भी बेचैनी मालूम पड़ती है कि अब क्यू में कहीं भी खड़ा होना बहुत कष्टपूर्ण होगा। | इसलिए वह कोशिश करता है कि जमा रहे वहीं ।
लेकिन वह अकेला ही तो नहीं है। सारी दुनिया वहीं पहुंचने की कोशिश कर रही है। तो पीछे धक्के हैं ! लोग टांग खींच रहे हैं। सब | उतारने की कोशिश में लगे हैं। सब मित्र भी शत्रु हैं वहां । क्योंकि वे जो आस-पास खड़े हैं, वे सब वहीं पहुंचना चाह रहे हैं।
इसलिए राजनीतिज्ञ का कोई दोस्त नहीं होता । हो नहीं सकता। सब मित्र शत्रु होते हैं। मित्रता ऊपर-ऊपर होती है, भीतर शत्रुता होती है। क्योंकि वे भी उसी जगह के लिए, क्यू में नंबर एक आने की कोशिश में लगे हैं।
इसलिए राजनीतिज्ञ को जितना अपने शत्रुओं से सावधान रहना पड़ता है, उससे ज्यादा अपने मित्रों से। क्योंकि शत्रु तो काफी दूर | रहते हैं, उनके आने में काफी वक्त लगता है। उतनी देर में कुछ | तैयारी हो सकती है। मित्र बिलकुल करीब रहते हैं। जरा-सा धक्का और वे छाती पर सवार हो जाएंगे। तो उनको ठिकाने पर रखना पड़ता है चौबीस घंटे।
तो प्राइम मिनिस्टर्स का काम इतना है कि अपने कैबिनेट के मित्रों को ठिकाने पर रखे । कि कोई भी जरा ज्यादा न हो जाए ! और जरा ज्यादा अकड़ न दिखाने लगे, और जरा तेजी में न आ जाए कोई । | तेजी में आया, तो उसको दुरुस्त करना एकदम जरूरी है। क्योंकि वह वही काम कर रहा है, जो कि पहले इन सज्जन ने किया था!
तो यह जो मूढ़ता है, जिसको दिखाई पड़ जाए - चाहे धन का हो, चाहे पद का हो, चाहे यश का हो - जिसको यह मूढ़ता दिखाई पड़ जाए कि यह विक्षिप्तता है, कि पहले पहुंचकर करिएगा क्या ! तो आदमी निरहंकार की यात्रा पर चलता है।
निरहंकार सफलता-असफलता की व्यर्थता का बोध है। लेकिन तब सफलता होती है। पर वह आंतरिक है। हो सकता है, इस जगत में उसका कोई मूल्यांकन भी न हो । बुद्ध को कितनी सफलता
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0 गीता दर्शन भाग-60
मिली, हम कैसे आंकें ? क्योंकि बैंक बैलेंस तो कुछ है नहीं। बुद्ध | देते हैं। राजनीतिज्ञ भी कभी साधु के चरणों में आकर बैठता है। यह को कुछ मिला कि नहीं मिला, हम कैसे पहचानें ? क्योंकि इतिहास | आदमी अलग हट गया मैदान से। एक दुश्मन कम हुआ। इसने में कहीं कोई मूल्यांकन नहीं हो सकता। जो मिला है, वह कुछ दूसरे लड़ाई छोड़ दी। यह बहने लगा धारा में। आयाम, किसी दूसरे डायमेंशन का है। इस जगत में उसकी कोई | तो आपको लगता है कि आप विपरीत धारा में बहेंगे निरहंकारी पहचान नहीं है।
होकर, तो गलत लगता है। आप अहंकारी होकर धारा के विपरीत लेकिन फिर भी हमको उसकी सुगंध लगती है। बुद्ध के उठने बह रहे हैं, जीवन की धारा के विपरीत। निरहंकारी होकर आप में, बैठने में हमें लगता है कि कुछ मिल गया है। उनकी आंखों में | जीवन की धारा में बहेंगे। हां, और अहंकारियों के विपरीत आप लगता है कि कुछ मिल गया है। उनका मौन, उनकी शांति, उनका जाएंगे, लेकिन इससे कोई अड़चन न होगी। अड़चन हो सकती है, आनंद! जीवन में उनका अभय, जीवन के प्रति उनकी गहन अगर आप निरहंकार से भी संसार का धन, संसार की प्रतिष्ठा और आस्था! मृत्यु से भी जरा-सा संकोच नहीं। खो जाने की सदा पद पाना चाहते हों। तो हो सकती है। तैयारी। जैसे वह पा लिया हो, जो खोता ही नहीं है। अमृत का कोई सुना है मैंने, एक सम्राट प्रार्थना कर रहा था एक मंदिर में। वर्ष अनुभव उन्हें हुआ है। उसकी हमें सुगंध, उसकी थोड़ी झलक, का पहला दिन था और सम्राट वर्ष के पहले दिन मंदिर में प्रार्थना उसकी भनक, उनके स्पर्श से, उनकी मौजूदगी से लगती है। लेकिन | करने आता था। वह प्रार्थना कर रहा था और परमात्मा से कह रहा संसार की भाषा में उसे तौलने का कोई उपाय नहीं, कोई तराजू नहीं, था कि मैं क्या हूं! धूल हूं तेरे चरणों की। धूल से भी गया बीता हूं। कोई कशिश नहीं कि नाप लें, जांच लें, क्या मिला है।
पापी हं। मेरे पापों का कोई अंत नहीं है। दष्ट हं. कर हं. कठोर हं। सफलता तो निरहंकार की है। सच तो यह है कि सिर्फ मैं कुछ भी नहीं हूं। आई एम जस्ट ए नोबडी, ए नथिंग। बड़े भाव निरहंकार ही सफल होता है। लेकिन वे फल, जो निरहंकार की से कह रहा था। सफलता में लगते हैं, आंतरिक हैं, भीतरी हैं। संसार की सफलता और तभी पास में बैठा एक फकीर भी परमात्मा से प्रार्थना कर निरहंकार की सफलता नहीं है। लेकिन संसार की कोई सफलता रहा था और वह भी कह रहा था कि मैं भी कुछ नहीं हूं। आई एम सफलता ही नहीं है।
नोबडी, नथिंग। सम्राट को क्रोध आ गया। उसने कहा, लिसेन, हूं तो यह मत पूछे। और यह भी मत पूछे कि इतने जहां लोग इज़ क्लेमिंग दैट ही इज़ नथिंग? एंड बिफोर मी! सुन, कौन कह अहंकार से भरे हैं, अगर हम इन सबके विपरीत बहने लगें, तो बड़ी | रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं? और मेरे सामने। जब कि मैं कह रहा अड़चन होगी! आप गलती में हैं। अहंकार का मतलब ही होता है, | | हूं कि मैं कुछ भी नहीं हूं, तो कौन प्रतियोगिता कर रहा है? धारा के विपरीत बहना। अहंकार का मतलब होता है कि नदी से । जो आदमी कह रहा है, मैं कुछ भी नहीं है, वह भी इसकी फिक्र विपरीत बहना। नदी की धार बह रही है पश्चिम की तरफ, तो आप | में लगा हुआ है कि कोई दूसरा न कह दे कि मैं कुछ भी नहीं हूं। बह रहे हैं पूरब की तरफ। अहंकार का मतलब ही होता है, उलटे | कोई प्रतियोगिता न कर दे। अब जब तुम कुछ भी नहीं हो, तो अब जाना। क्योंकि लड़ने में अहंकार का रस है। जब धारा से कोई | क्या दिक्कत है! अब क्या डर है! लेकिन कहीं दूसरा इसमें भी आगे विपरीत लड़ता है, तभी तो पता चलता है कि मैं हूं। जब आप नदी न निकल जाए। में धारा के साथ बहते हैं, तो कैसे पता चलेगा कि आप हैं! जब । अहंकार के खेल बहुत सूक्ष्म हैं। तो अगर आप किसी निरहंकारी आप लड़ते हैं धारा से, तब पता चलता है कि मैं हूं।
से कहें कि तुमसे भी बड़े निरहंकारी को मैंने खोज लिया है, तो तो अहंकार है, जीवन की धारा के विपरीत। निरहंकार है, धारा | उसको भी दुख होता है, कि अच्छा, मुझसे बड़ा? मुझसे बड़ा भी के साथ। माना कि और सब लोग जो ऊपर की तरफ जा रहे हैं धारा | कोई विनम्र है? तुम गलती में हो। मैं आखिरी हूं। उसके आगे, में, आप उनसे नीचे की तरफ जाएंगे। लेकिन आप यह मत सोचिए | | मुझसे बड़ा विनम्र कोई भी नहीं है। उसको भी पीड़ा होती है। कि इससे वे दुखी होंगे। इससे वे प्रसन्न होंगे, क्योंकि एक | निरहंकारी को भी लगता है कि मुझसे आगे कोई न निकल जाए! कांपिटीटर कम हुआ, एक प्रतियोगी अलग हटा।
तो फिर यह अहंकार की ही यात्रा रही। फिर यह निरहंकार झूठा है, इसलिए आप जरा देखें, अहंकारी भी निरहंकारियों को सम्मान | थोथा है।
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अहंकार घाव है
निरहंकार का मतलब है, हम प्रतियोगिता के बाहर हट गए। अब हमसे कोई आगे-पीछे कहीं भी हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। हम अपने होने से राजी हो गए। अब हमारी दूसरे से कोई स्पर्धा नहीं है।
निरहंकार का मतलब है, मैं जैसा हूं, हूं। अब मैं किसी के आगे और पीछे अपने को रखकर नहीं सोचता। अब मैं अपनी तुलना नहीं करता हूं। और मेरा मूल्य मैं तुलना से नहीं आंकता हूं।
जिस दिन कोई व्यक्ति अपना मूल्य तुलना से नहीं आंकता, उसने संसार के तराजू से अपने को हटा लिया। लेकिन ऐसा व्यक्ति परमात्मा की आंखों में मूल्यवान हो जाता है। जो व्यक्ति पड़ोसियों की आंखों का मूल्य खोने को राजी है, वह परमात्मा की आंखों में मूल्यवान हो जाता है । और जो व्यक्ति पड़ोसियों की आंखों में ही अपने मूल्य को थिर करने में लगा है, उसका कोई मूल्य परमात्मा की आंखों में नहीं हो सकता है।
यहां से जो हटता है प्रतियोगिता से, तत्क्षण परमात्मा के हाथों में उसका गौरव है। इसलिए जीसस ने कहा कि जो यहां अंतिम हैं, वे प्रभु के राज्य में प्रथम हो जाएंगे।
लेकिन आप अंतिम होने की कोशिश इसलिए मत करना कि प्रभु राज्य में प्रथम होना है ! नहीं तो आप अंतिम हो ही नहीं रहे हैं। जीसस जिस दिन पकड़े गए और जिस दिन, दूसरे दिन उनकी मौत हुई, रात जब उनके शिष्य उन्हें छोड़ने लगे, तो एक शिष्य ने उनसे पूछा कि जाते-जाते यह तो बता दो ! माना कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में हम प्रथम होंगे, लेकिन हम भी बारह हैं। तो सबसे प्रथम कौन होगा? माना कि तुम तो प्रभु के पुत्र हो, तो बिलकुल सिंहासन बगल में बैठोगे। लेकिन तुम्हारे बगल में कौन बैठेगा?
वे बारह जो शिष्य हैं, उनको भी चिंता है कि वहां बारह की पोजीशन! कौन कहां बैठेगा? तो बात ही चूक गई। जीसस को खो गए। फिर जीसस को समझे ही नहीं ।
प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे, यह परिणाम है, अगर आप अंतिम होने को राजी हैं। लेकिन अगर यह आपकी वासना है, तो यह कभी भी नहीं होगा। क्योंकि तब आप अंतिम होने को राजी ही नहीं हैं। तब तो आप प्रथम ही होने को राजी हैं। यह संसार हो कि वह संसार हो, कहीं भी, लेकिन होना प्रथम है। आप लगे हैं उपद्रव में प्रतियोगिता के ।
निरहंकार का अर्थ है कि परमात्मा की आंखों में जैसा भी मैं हूं, मैं आनंदित हूं। और अब मैं किसी से तुलना नहीं करता हूं। और मैं छोड़ता हूं प्रतियोगिता । यह समझ, यह बोध जिसे आ जाए, फिर
वह इसकी फिक्र नहीं करेगा कि क्या तकलीफें होंगी। कोई तकलीफ न होगी। सब तकलीफें अहंकार से होती हैं। निरहंकारी को कोई भी | तकलीफ नहीं है। चुभता ही कांटा, अहंकार के घाव में है।
एक आदमी निकला और उसने नमस्कार नहीं किया। रोज करता था। तकलीफ शुरू हो गई। कुछ भी नहीं था। यह हाथ जोड़ लेता था, तो क्या मिलता था! और आज नहीं जोड़े, तो क्या तकलीफ हो रही है ! किसी ने गाली दे दी, तो तकलीफ हो गई ! किसी ने जरा ढंग से न देखा, तो तकलीफ हो गई। रास्ते से जा रहे थे, कोई हंसने लगा, तो तकलीफ हो गई। कहां, यह घाव है कहां ?
यह आपका अहंकार है, जिसमें यह घाव है। तो आप सोचते हैं कि कोई हंस रहा है, तो बस, मुझे ही सोचकर हंस रहा है। कोई गाली दे रहा है, तो मुझे नीचे उतार रहा है। आप ऊपर चढ़े क्यों हैं? | कोई गाली भी देकर कितना नीचे उतारेगा? आप उससे पहले ही नीचे खड़े हो जाएं।
कोई सम्मान नहीं कर रहा है, तो पीड़ा हो रही है। क्योंकि सम्मान की मांग है। दुख दूसरा नहीं दे रहा है। दुख का घाव आप पहले बनाए हैं; दूसरा तो घाव को छू रहा है सिर्फ ।
अहंकार छूटते ही पीड़ा का विसर्जन हो जाता है। आपका घाव ही समाप्त हो गया।
आपने खयाल किया है, अगर पैर में चोट लग जाए किसी दिन, तो फिर दिनभर उसी जगह चोट लगती है। लेकिन आपने खयाल किया कि सारी जमीन आपके घाव की इतनी फिक्र कर रही है ! दरवाजे से निकलें, तो दरवाजा उसी में चोट मारता है। कुर्सी के पास जाएं, तो कुर्सी उसमें चोट मारती है। बच्चे से बात करने लगें, तो बच्चा उस पर पैर रख देता है। यह मामला क्या है कि सारी | दुनिया को पता हो गया है कि आपके पैर में चोट लगी है ! और सब उसी को चोट मार रहे हैं !
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किसी को पता नहीं है। लेकिन आज आपको चोट लगती है, क्योंकि घाव है । कल भी लगती थी, लेकिन पता नहीं चलता था, क्योंकि घाव नहीं था। कल भी इस बच्चे ने यहीं पैर रखा था, और यह कुर्सी कल भी यहीं छू गई थी, लेकिन तब आपको पता भी नहीं चला था, क्योंकि घाव नहीं था ।
अहंकार घाव है। फिर हर चीज उसी में लगती है। आप तैयार ही खड़े हैं कि आओ और लगो ! और जब तक कुछ न लगे, तब तक आपको बेचैनी लगती है कि आज बात क्या है, कुछ लग नहीं रहा है! और हर आदमी सम्हला हुआ चल रहा है कि कोई न कोई
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
लगाने आ रहा है।
के लिए इच्छा कर। इतनी भीड़ है, इतनी बड़ी दुनिया है, किसी को मतलब है कृष्ण ने कहा, और अगर त पाए कि एकदम से भाव कैसे करूं. आपसे! कोई आपको चोट पहुंचाने को उत्सुक नहीं है। और अगर और एकदम से मन को कैसे लगा दूं प्रभु में, और एकदम से कैसे कोई पहुंचा भी देता है, तो वह चोट आपको इसलिए पहुंचती है कि | डूब जाऊं, लीन हो जाऊं; अगर तुझे ऐसा प्रश्न उठे कि कैसे, तो
आप घाव तैयार रखे हैं। नहीं तो पता भी नहीं चलता। ठीक था, | फिर अभ्यासरूप-योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर। किसी ने गाली दी और आप अपने रास्ते पर चले गए।
यह बात समझ लेने जैसी है। बद्ध को लोगों ने गालियां दी हैं। तो बद्ध ने कहा है कि जब तम दो तरह के लोग हैं। एक तो वे लोग हैं, जिनको यह कहते से गाली देते हो, तब मैं सोचता हूं कि तुम किसको गाली दे रहे हो! ही कि डूब जाओ, डूब जाएंगे। वे नहीं पूछेगे, कैसे? इस शरीर को? तो यह तो मिट ही जाएगा। और जो मिट ही जाने छोटे बच्चे हैं। उनसे कहो कि नाचो और नाच में डूब जाओ। तो वाला है उसके साथ गाली का क्या लेना-देना! तुम मुझको गाली | वे यह नहीं पूछेगे, कैसे? नाचने लगेंगे और डूब जाएंगे। और अगर दे रहे हो? तुम्हें मेरा क्या पता होगा? तुम्हें अपना ही पता नहीं है। कोई बच्चा पूछे कैसे, तो समझना कि बूढ़ा उसमें पैदा हो गया, वह तो मैं सोचता हूं और हंसता हूं कि क्या हो गया है!
अब बच्चा है नहीं। कैसे का मतलब ही यह है कि पहले कोई स्वामी राम कहते थे कि कोई उन्हें गाली दे दे, तो वे हंसते हुए | तरकीब बताओ, तब हम डूबेंगे। डूब सीधा नहीं सकते। इसका आते थे और कहते थे, आज बाजार में बड़ा मजा आ गया। राम | मतलब यह हुआ कि डूबने और हमारे बीच में कोई बाधा है, को लोग गालियां देने लगे। और हम खड़े होकर हंसने लगे कि | जिसको तोड़ने के लिए तरकीब की जरूरत होगी। . अच्छे फंसे राम! और चाहो नाम, उपद्रव होगा!
बच्चा डूब जाएगा; नाचने लगेगा। बच्चा जानता ही है। खेल में जब वे पहली दफा अमेरिका गए, तो लोग समझे नहीं कि वे डूब जाता है। बच्चे को खेल से निकालना पड़ता है, डुबाना नहीं किसको राम कहते हैं। वे खुद को ही राम कहते थे, खुद के शरीर | पड़ता। बच्चा डूबा होता है; मां-बाप को खींच-खींचकर बाहर को। वे कहते कि राम को आज बड़ी भूख लगी है; हम बड़े हंसने | | निकालना पड़ता है, कि निकल आओ। अब चलो। और वह है कि लगे। या राम को लोगों ने गालियां दीं, और हम हंसने लगे। तो | | खिंचा जा रहा है। खेल में डूबा हुआ था। ये मां-बाप उसे कहां खाने लोग पूछते कि आप किसकी बात कर रहे हैं? तो वे कहते, इस राम | की, पीने की, सोने की, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं! वह लीन था। की। इसको जब गाली पड़ती है, तो हम पीछे खड़े होकर हंसते हैं | | उस लीनता में वह अस्तित्व के साथ एक था। चाहे वह गुड्डी हो, कि देखो, अब क्या होता है! अब यह राम क्या करता है! यह | | चाहे वह कोई खिलौना हो, चाहे कोई खेल हो। वह जानता है। अहंकार अब क्या करता है!
बच्चे कभी नहीं पूछते कि खेल में कैसे डूबें? आपने किसी बच्चे __ अगर आप पीछे खड़े होकर हंसने लगें, तो फिर यह कुछ भी को सुना है पूछते कि खेल में कैसे डूबें? वह डूबना जानता है। वह नहीं कर सकेगा। यह गिर ही जाएगा। यह करता ही तब तक है, पूछता नहीं। जब तक आप मानते हैं कि यही मैं हूं। जब तक यह | । जो लोग बच्चों की तरह ताजे होते हैं-थोड़े से लोग, और उनकी आइडेंटिफिकेशन है, यह तादात्म्य है, तभी तक इसकी पीड़ा है। | संख्या रोज कम होती जाती है वे लोग सीधे डूब सकते हैं।
अहंकार से हटकर देखें। अहंकार से हटते ही आप नरक से हट | | पुरानी कहानियां हैं साधकों की। तिलोपा ने अपने शिष्य नारोपा गए। अहंकार से हटते ही स्वर्ग का द्वार खल गया। अहंकार से हटते | | को कहा कि तू आंख बंद कर और डूब जा। और नारोपा ने आंख ही इस जगत में आपका न कोई संघर्ष है, न कोई प्रतिस्पर्धा है। | बंद कर ली और डूब गया। और ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अहंकार से हटते ही यह जगत आपको स्वीकार कर लेगा, जैसे आप | बड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है। इतना मामला आसान! हम भी हैं। अहंकार से हटते ही आप परमात्मा की आंखों में ऊपर उठ गए। आंख बंद करते हैं। और कोई कितना ही कहे, डूब जाओ, आंख अब हम सूत्र को लें।
| बंद हो जाती है, विचार चलते रहते हैं। डूबने का कुछ पता नहीं और यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ | चलता। बल्कि आंख बंद करके और ज्यादा चलने लगते हैं। आंख नहीं है, तो हे अर्जुन, अभ्यासरूप-योग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने | खुली रहती है, थोड़े कम चलते हैं। बाहर उलझे रहते हैं, तो थोड़ा
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अहंकार घाव है
खयाल कम रहता है। आंख बंद की कि मुश्किल हो जाती है। आपसे लोग कहते हैं, एकांत में बैठ जाओ। आप कहते हैं, एकांत में तो और मुसीबत हो जाती है। इतना तो लोगों से बातचीत करते रहते हैं, तो मन सुलझा रहता है। उलझा रहता है, इसलिए लगता है, सुलझा है! अकेले में तो हम ही रह जाते हैं, और बड़ी तकलीफ होती है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डाक्टर के पास गया था। और डाक्टर से कहने लगा, एक बड़ी मुसीबत हो गई है। सुबह - सांझ, रात - सुबह, जागूं कि सोऊं, बस एक मुश्किल हो गई है, अपने से बातें, अपने से बातें, अपने से बातें करने में लगा हूं। कुछ इलाज ?
डाक्टर ने कहा, इतने परेशान मत होओ। लाखों लोग अपने से बातें करते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, आप समझे नहीं । तुम्हें पता नहीं है, अपने से बात करने से मैं भी इतना न घबड़ाता। लेकिन मैं इतना उबाने वाला हूं कि अभी तक मैं दूसरों को बोर करता था, अब खुद ही को कर रहा हूं। अभी तक दूसरों को उबाता था। तब तक भी थोड़ी राहत थी। अब मैं अपने को ही उबाता हूं चौबीस घंटे। वही बातें जो हजार दफे कह चुका हूं, कह रहा हूं।
इसलिए हम भागते हैं अकेलेपन से। जल्दी पकड़ो किसी को । कहीं भी कोई मिल जाए, तो एकदम झपट पड़ते हैं, आक्रमण कर देते हैं। हमारे प्रश्न, हमारी बातचीत कुछ नहीं है, भीतर की बेचैनी |
है।
अब मौसम आपको भी पता है कि कैसा है। जिससे आप पूछ रहे हैं, उसको भी पता है कि कैसा है। आप कहते हैं, कहो, कैसा मौसम है ?
क्या पूछना है ! नहीं लेकिन सिलसिला शुरू कर रहे हैं आप सिर्फ । ये तो सिर्फ ट्रिक्स हैं प्राथमिक । फिर जल्दी से आप जो आपके भीतर उबल रहा है, वह उसके ऊपर उबाल देंगे। फिर जो ज्यादा ताकतवर होगा, वह दूसरे को दबाकर उसकी खोपड़ी में बातें डालकर भाग खड़ा होगा। जो कमजोर होगा, वह बेचारा सुन लेगा, कि ठीक है। अब दुबारा जरा सावधान रहना इस आदमी से। जब यह पूछे कि मौसम कैसा है, तभी निकल जाना।
लेकिन अकेले में घबड़ाहट होती है, क्योंकि अकेले में आप ही अपने से पूछ रहे हैं कि मौसम कैसा है और आपको पता है कि मौसम कैसा है। कुछ... ।
लेकिन तिलोपा ने नारोपा को कहा, आंख बंद कर और डूब जा । और वह डूब गया। छोटे बच्चे जैसा रहा होगा।
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जमीन बचपन में थी। अब जमीन जवान है; अडल्ट हो गई है। हजार, दो हजार, तीन हजार साल पहले, पांच हजार साल पहले जो लोग थे, बच्चों जैसे थे। उनसे कहा कि डूब जाओ, तो वे डूब गए। उन्होंने नहीं पूछा कि कैसे ? हम पूछेंगे, कैसे ?
तो कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू डूब सकता हो मुझमें, | तो डूब जा । फिर तो कोई बात करने की नहीं है। लेकिन अर्जुन सुसंस्कृत क्षत्रिय है। पढ़ा-लिखा है । उस समय का बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी है। तो कृष्ण को भी शक है कि वह डूब सकेगा कि नहीं। तो वे कहते हैं, और अगर न डूब सके, तो फिर | अभ्यासरूप-योग द्वारा मुझको प्राप्त होने की इच्छा कर। फिर तुझे अभ्यास करना पड़ेगा।
भक्त बिना योग के पहुंच जाता है। जो भक्त नहीं हो सकता, उसको योग से जाना पड़ता है। योग का मतलब है, टेक्नालाजी । अगर सीधे नहीं डूब सकते, तो टेक्नीक का उपयोग करो। तो फिर एक बिंदु बनाओ। उस पर चित्त को एकाग्र करो। कि एक मंत्र लो। सब शब्दों को छोड़कर, ओम, ओम, एक ही मंत्र को दोहराओ, दोहराओ। सारा ध्यान उस पर एकाग्र करो।
।
अगर मंत्र से काम न चलता हो, तो शरीर को बिलकुल थिर करके आसन में रोक रखो। क्योंकि जब शरीर बिलकुल थिर हो जाता है, तो मन को थिर होने में सहायता पहुंचाता है। तो शरीर को बिलकुल पत्थर की तरह, मूर्ति की तरह थिर कर लो। सिद्धासन है, पद्मासन है, उसमें बैठ जाओ।
अगर आंख खोलने से बाहर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, और आंख बंद करने से भीतर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, तो आधी आंख खोलो। तो नाक ही दिखाई पड़े बस, इतना बाहर। और भीतर भी नहीं, बाहर भी नहीं। तो नाक पर ही अपने करो। ये सब टेक्नीक हैं। ये उनके लिए हैं, भक्त नहीं हो सकते। जो प्रेम नहीं कर सकते, उनके लिए हैं। योग उनके लिए है, जो प्रेम में असमर्थ हैं। जो प्रेम में समर्थ हैं, उनके लिए योग की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन जो प्रेम में समर्थ नहीं हैं, उनको पहले अपने को तैयार करना पड़े कि कैसे डूबें । तो नाक के बिंदु पर डूबो; कि नाभि पर ध्यान को केंद्रित करो; कि बंद कर लो अपनी आंखों को और भीतर एक प्रकाश का बिंदु कल्पित करो, उस पर ध्यान को एकाग्र करो। वर्षों मेहनत करो। अभ्यासरूप-योग द्वारा !
और जब इन छोटे-छोटे, छोटे-छोटे प्रयोगों से अभ्यास | करते-करते वर्षों में तुम इस जगह आ जाओ कि अब तुम न पूछो
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गीता दर्शन भाग-6
कि कैसे। क्योंकि तुम्हें पता हो गया कि ऐसे डूबा जा सकता है; तब सीधे परमात्मा में डूब जाओ। तब अपने बिंदु, और अपने मंत्र, और अपने यंत्र, सब छोड़ दो, और सीधी छलांग लगा । जो सीधा कूद सके, इससे बेहतर कुछ भी नहीं है। प्रेमी सीधा कूद सकता है। लेकिन अगर बुद्धि बहुत काम करती हो, तो फिर पूछेगी, हाउ ? कैसे? तो फिर योग की परंपरा है, पतंजलि के सूत्र हैं, फिर साधो । फिर उनको साध-साधकर पहले सीखो एकाग्रता, फिर तन्मयता में उतरो ।
अभ्यासरूप-योग के द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। और यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ हो... ।
यह भी हो सकता है कि तू कहे कि बड़ा कठिन है। कहां बैठें ! और कितना ही बैठो सम्हालकर, शरीर कंपता है। और मन को कितना ही रोको, मन रुकता नहीं। और ध्यान लगाओ, तो नींद आती है, तल्लीनता नहीं होती।
अगर तू इसमें भी समर्थ न हो, तो फिर एक काम कर। तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो। इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति, मेरी सिद्धि को पा सकेगा।
अगर तुझे यह भी तकलीफ मालूम पड़ती हो, अगर भक्ति-योग तुझे कठिन मालूम पड़े, तो फिर ज्ञान योग है। ज्ञान योग का अर्थ है, योग की साधना, अभ्यास । अगर तुझे वह भी कठिन मालूम पड़ता हो, तो फिर कर्म - योग है। तो फिर तू इतना ही कर कि सारे कर्मों को मुझमें समर्पित कर दे। और ऐसा मान ले कि तेरे भीतर मैं ही कर रहा हूं। और मैं ही तुझसे करवा रहा हूं। और तू ऐसे कर जैसे कि मेरा साधन हो गया है, एक उपकरण मात्र । न पाप तेरा, न पुण्य तेरा । न अच्छा तेरा, न बुरा तेरा। सब तू छोड़ दे और कर्म को मेरे प्रति समर्पित कर दे।
ये तीन हैं। श्रेष्ठतम तो प्रेम है। क्योंकि छलांग सीधी लग जाएगी। नंबर दो पर साधना है। क्योंकि प्रयास और अभ्यास से लग सकेगी। अगर वह भी न हो सके, तो नंबर तीन पर जीवन का कर्म है। फिर पूरे जीवन के कर्म को प्रभु-अर्पित मानकर चलता जा।
इन तीन में से ही किसी को चुनाव करना पड़ता है। और ध्यान रहे, जल्दी से तीसरा मत चुन लेना। पहले तो कोशिश करना, खयाल करना पहले की, प्रेम की। अगर बिलकुल ही असमर्थ अपने को पाएं कि नहीं, यह हो ही नहीं सकता... ।
कुछ लोग प्रेम में बिलकुल असमर्थ हैं। असमर्थ हो गए हैं अपने अभ्यास से । जैसे कोई आदमी अगर धन को बहुत पकड़ता हो,
पैसे को बहुत पकड़ता हो, तो प्रेम में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि विपरीत बातें हैं। अगर पैसे को जोर से पकड़ना है, तो आदमी को प्रेम से बचना पड़ता है। क्योंकि प्रेम में पैसे को खतरा है। प्रेमी पैसा इकट्ठा नहीं कर सकता। जिनसे प्रेम करेगा, वे ही उसका पैसा खराब करवा देंगे। प्रेम किया कि पैसा हाथ से गया।
तो जो पैसे को पकड़ता है, वह प्रेम से सावधान रहता है कि प्रेम की झंझट में नहीं पड़ना है। वह अपने बच्चों तक से. भी जरा सम्हलकर बोलता है। क्योंकि बाप भी जानते हैं, अगर जरा मुस्कुराओ, तो बच्चा खीसे में हाथ डालता है। मत मुस्कुराओ, | अकड़े रहो, घर में अकड़कर घुसो । बच्चा डरता है कि कोई गलती तो पता नहीं चल गई। गलती तो बच्चे कर ही रहे हैं। और बच्चे नहीं करेंगे, तो कौन करेगा ! तो समझता है कि कोई गड़बड़ हो गई है; जरा दूर ही रहो। लेकिन बाप अगर मुस्कुरा दे, तो बच्चा फौरन खीसे में हाथ डालता है।
तो बाप पत्नी से भी सम्हलकर बात करता है। क्योंकि जरा ही वह ढीला हुआ और उसकी जरा कमर झुकी कि पत्नी ने बताया कि उसने साड़ियां देखी हैं। फलां देखा है।
तो जिसको पैसे पर बहुत पकड़ है, वह प्रेम से तो बहुत डरा हुआ | रहता है। और हम सबकी पैसे पर भारी पकड़ है। एक-एक पैसे पर पकड़ है। और बहाने हम कई तरह के निकालते हैं कि पैसे पर हमारी पकड़ क्यों है। लेकिन बहाने सिर्फ बहाने हैं। एक बात पक्की है कि पैसे की पकड़ हो, तो प्रेम जीवन में नहीं होता।
तो जितना ज्यादा पैसे की पकड़ वाला युग होगा, उतना प्रेमशून्य होगा। और प्रेमपूर्ण युग होगा, तो बहुत आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हो सकता। पैसे पर पकड़ छूट जाएगी।
प्रेमी आदमी बहुत समृद्ध नहीं हो सकता। उपाय नहीं है। पैसा छोड़कर भाग जाएगा उसके हाथ से। किसी को भी दे देगा। कोई भी उससे निकाल लेगा।
तो हम अगर प्रेम में समर्थ हो सकें, तब तो श्रेष्ठतम । अगर न हो सकें, तो फिर अभ्यास की फिक्र करनी चाहिए । फिर | योग-साधन हैं। अगर उनमें भी असफल हो जाएं, तो ही तीसरे का | प्रयोग करना चाहिए, कि फिर हम कर्म को...। क्योंकि वह मजबूरी है। जब कुछ भी न बने, तो आखिरी है।
जैसे पहले आप एलोपैथ डाक्टर के पास जाते हैं। अगर वह असफल हो जाए, फिर होमियोपैथ के पास जाते हैं। वह भी असफल हो जाए, तो फिर नेचरोपैथ के पास जाते हैं। वह नेचरोपैथी
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O अहंकार घाव है ।
खड़े हो जाते हैं, तो फिर सबको खड़ा होना पड़ता है। पांच मिनट बैठकर कीर्तन में सम्मिलित हों।
है, वह आखिरी है। जब कि ऐसा लगे कि अब कुछ होता ही नहीं | है; कि ज्यादा से ज्यादा नेचरोपैथ मारेगा और क्या करेगा, तो ठीक है अब। सब हार गए, तो अब कहीं भी जाया जा सकता है।
कर्म-योग आखिरी है। क्योंकि उसके बाद फिर कुछ भी नहीं है उपाय। तो सीधा कर्म-योग से प्रयोग शुरू मत करना, नहीं तो दिक्कत में पड़ जाएंगे। क्योंकि उससे नीचे गिरने की कोई जगह नहीं है।
पहले प्रेम से शुरू करना। अगर हो जाए, अदभुत। न हो पाए, तो अभी दो उपाय हैं। अभी दो इलाज बाकी हैं। फिर अभ्यास का प्रयोग करना। और जल्दी मत छोड़ देना। क्योंकि अभ्यास तो वर्षों लेता है। तो वर्षों मेहनत करना। अगर हो जाए, तो बेहतर है। अगर न हो पाए, तो फिर कर्म पर उतरना। __ और ध्यान रहे, जिसने प्रेम का प्रयोग किया और असफल हुआ,
और जिसने योग का अभ्यास किया-अभ्यास किया, मेहनत की-और असफल हुआ, वह कर्म-योग में जरूर सफल हो जाता है। लेकिन जिसने न प्रेम का प्रयोग किया, न असफल हुआ; न जिसने योग साधा. न असफल हआ. वह कर्म-योग में भी सफल नहीं हो पाता।
वे दो असफलताएं जरूरी हैं तीसरे की सफलता के लिए। क्योंकि फिर वह आखिरी कदम है और जीवन-मृत्यु का सवाल है। फिर आप पूरी ताकत लगा देते हैं। क्योंकि उसके बाद फिर कोई विकल्प नहीं है। इसलिए निकृष्ट से शुरू मत करना।
कई लोग अपने को धोखा देते रहते हैं। वे कहते हैं, हम तो कर्म-योग में लगे हैं। मेरे पास लोग आ जाते हैं। धंधा करते हैं, नौकरी करते हैं। वे कहते हैं, हम तो कर्म-योग में लगे हैं। जैसे कोई भी काम करना कर्म-योग है!
कोई भी काम करना कर्म-योग नहीं है। कर्म-योग का मतलब है, काम आप नहीं कर रहे, परमात्मा कर रहा है, यह भाव। दुकान
आप नहीं चला रहे, परमात्मा चला रहा है। और फिर जो भी सफलता-असफलता हो रही है, वह आपकी नहीं हो रही है, परमात्मा की हो रही है। और जिस दिन आप दीवालिया हो जाएं, तो कह देना कि परमात्मा दीवालिया हो गया। और जिस दिन धन बरस पड़े, तो कहना कि उसका ही श्रेय है। मैं नहीं हैं। अपने को हटा लेना और सारा कर्म उस पर छोड़ देना।
अब हम कीर्तन करें। बीच में उठे मत। थोड़े-से पांच मिनट के लिए नासमझी कर देते हैं। और जब कीर्तन चलता है, तब आप
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अध्याय 12 छठवां प्रवचन
कर्म-योग की कसौटी
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। पूर्णता तो होगी उपलब्ध, अभी है नहीं। और यह जो अधूरा सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।।११।। आदमी है, इसे तो अपने अधूरेपन से ही प्रारंभ करना होगा। ता जा
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् ज्ञानाख्यानं विशिष्यते। आपके पास ज्यादा हो, वैसा ही मार्ग चुनना उचित है। ध्यानात्कर्मफलत्यागः त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। १२ ।। और मार्ग तो सदा ही एकांगी होता है। मंजिल पूर्ण होती है। मार्ग और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए ही अगर पूर्ण हो, तो फिर मंजिल का कोई अर्थ ही न रहा। मन वाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब को मार्ग और मंजिल में फर्क क्या है? मार्ग और मंजिल में बड़ा फर्क के फल का मेरे लिए त्याग कर।
यही है कि मार्ग तो अधूरा होगा। और इसलिए जितने लोग हैं इस क्योंकि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान जगत में, उतने मार्ग होंगे। हर आदमी अपनी जगह से चलेगा; और
श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का हर आदमी वहीं से शुरू करेगा, जहां है और जो है। पहुंचना है ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब कमों के फल का मेरे | | वहां, जहां व्यक्ति समाप्त हो जाता है, और जहां अव्यक्ति, लिए त्याग करना श्रेष्ठ है। और त्याग से तत्काल ही परम निराकार, पूर्ण उपलब्ध होता है। शांति होती है।
सभी नदियां यात्रा करती हैं सागर की तरफ। सागर कोई यात्रा नहीं करता। कोई नदी पूरब से चलती है, कोई पश्चिम से चलती
है। कोई दक्षिण की तरफ बहती है; कोई उत्तर की तरफ बहती है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, बुद्धि और भाव | नदियों के रास्ते होंगे। और नदियों को रास्ते पकड़ने ही पड़ेंगे। अगर का विकास क्या साथ-साथ संभव नहीं है? स्वस्थ नदी यह सोचे कि सागर का तो कोई आयाम, कोई दिशा नहीं है, व्यक्ति क्या ध्यान और भक्ति एक साथ नहीं कर इसलिए मैं भी कोई आयाम और दिशा न पकडूं, तो फिर सागर तक सकता? व्यक्ति तो पूरा है-बुद्धि भी, भाव भी, कर्म न पहुंच पाएगी। सागर तक पहुंचने के लिए रास्ता पकड़ना होगा। भी-तो फिर साधना का मार्ग एकांगी क्यों होना | हम जहां खड़े हैं, वहां से सागर दूर है।। चाहिए?
तो ज्यादा विचारणीय यह नहीं है कि पूर्ण पुरुष क्या है; ज्यादा | विचारणीय यह है कि अपूर्ण पुरुष आप कैसे हैं। और अपने को
समझकर यात्रा पर निकलना होगा। अगर आप पैदल चल सकते हैं, का क्ति तो पूरा है, लेकिन वह व्यक्ति है आदर्श। वह तो ठीक; बैलगाड़ी से चल सकते हैं, तो ठीक; घोड़े की सवारी कर प्प आप नहीं हैं, जो पूरे हैं। जब व्यक्ति अपनी पूर्णता को | सकते हैं, तो ठीक; हवाई जहाज से यात्रा कर सकते हैं, तो ठीक।
प्रकट होता है, उपलब्ध होता है, तब उसमें सभी बातें __ आप क्या साधन चुनते हैं, वह आपकी सामर्थ्य पर निर्भर है। पूरी हो जाती हैं। उसकी बुद्धि भी उतनी ही प्रखर होती है, जितना | और साधन महत्वपूर्ण है। और साधन एकांगी होगा। क्योंकि जो उसका भाव। उसका कर्म, उसकी बुद्धि, उसका हृदय, सभी मिल आपका साधन है, वह दूसरे का नहीं होगा; उसमें फर्क होंगे। जाते हैं, त्रिवेणी बन जाते हैं।
एक भक्त है। अब जैसे मीरा है। मीरा को बुद्ध का मार्ग समझ में लेकिन यह है अंतिम लक्ष्य। आप अभी ऐसे हैं नहीं। और यात्रा नहीं आ सकता। मीरा को-मीरा के पास है हृदय एक स्त्री का, एक करनी है आपको। तो आप तो जिस तरफ ज्यादा झुके हैं, जिस प्रेमपूर्ण हृदय-इस प्रेमपूर्ण हृदय को यह तो समझ में आ सकता है आयाम में आपकी रुचि, रुझान ज्यादा है, उससे ही यात्रा कर सकेंगे। कि परमात्मा से अपने को भर ले; परमात्मा को अपने में विराजमान
और आप अभी खंड-खंड हैं, अधूरे हैं। कोई है, जिसके पास | कर ले; परमात्मा के लिए अपने द्वार-दरवाजे खुले छोड़ दे और उसे भाव ज्यादा है और बुद्धि कम है। कोई है, जिसके पास कर्म की प्रवेश कर जाने दे। मीरा को बुद्ध की बात समझ में नहीं आ सकती कुशलता है और कर्म का लगाव है, न बुद्धि है, न भाव है; या कि अपने को सब भांति खाली और शून्य कर लिया जाए। तुलना में कम है। और कोई है कि बुद्धि गहन है, भाव कोरा है, | | थोड़ा समझें। पुरुष को आसान है समझ में आना कि अपने को कर्म की वृत्ति नहीं है। ऐसे हम अधूरे-अधूरे हैं।
| खाली कर लो। स्त्री को सदा आसान है समझ में आना कि अपने
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को भर लो, पूरी तरह भर लो। स्त्री गर्भ है, शरीर में भी और मन | वाला दूसरे रास्ते को गलत कहने को तैयार हो जाता है। तब संघर्ष, में भी। वह अपने को भर सकती है। भरने की वृत्ति उसमें सहज है। विवाद, वैमनस्य स्वभावतः पैदा हो जाते हैं। पुरुष अपने को खाली करता है। शरीर के तल पर भी अपने को लेकिन अगर यह बात हमारे खयाल में आ जाए कि जितने खाली करता है। भरना उसे थोड़ा कठिन मालूम होता है। | लोग हैं इस जमीन पर, जितने हृदय हैं, उतने ही रास्ते परमात्मा
तो मीरा को समझ में आती है बात कि परमात्मा से अपने को की तरफ जाते हैं। जाएंगे ही। न मैं आपकी जगह खडा हो सकता भर ले। गर्भ बन जाए और परमात्मा उसमें समा जाए। बुद्ध को | हूं, न आपकी जगह से चल सकता हूं। न तो मैं आपकी जगह जी समझ में आनी मुश्किल है। बुद्ध को लगता है, अपने को उलीच सकता हूं, और न आपकी जगह मर सकता हूं। कोई लेन-देन दूं और सब भांति खाली कर दूं; और जब मैं शून्य हो जाऊंगा, तो | संभव नहीं है। आप ही जीएंगे अपने लिए और आपको ही मरना जो सत्य है, उससे मेरा मिलन हो जाएगा।
पड़ेगा अपने लिए। और आप ही चलेंगे। मैं अपने ही ढंग से बुद्ध शून्य होकर सत्य बनते हैं। मीरा अपने को भरकर पूर्ण से चलूंगा। अगर यह बोध साफ हो जाए-और होना चाहिए-तो सत्य बनती है। उन दोनों के रास्ते अलग हैं। न केवल अलग, बल्कि | दुनिया बेहतर हो सके। विपरीत हैं। लेकिन जहां वे पहुंच जाते हैं, वह मंजिल एक है। अगर यह बोध साफ हो जाए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही रास्ते __ मंजिल पर पहुंचकर बुद्ध और मीरा में फर्क करना मुश्किल हो से चलेगा, अपने ही ढंग से चलेगा, तो हम धर्मों के बीच कलह जाएगा। सारा फर्क रास्ते का फर्क था। जैसे-जैसे मंजिल करीब | का कोई कारण न खोज पाएं। लेकिन सबको ऐसा खयाल है कि आएगी, अंतर कम होता जाएगा। और जब मंजिल बिलकुल आ जिस रास्ते से मैं चलता हूं, वही ठीक है। उपद्रव होता है। जाएगी, तो आप मीरा की शक्ल में और बुद्ध की शक्ल में फर्क न | जैसे आप हैं, वैसा ही आपका रास्ता होगा। क्योंकि आपका रास्ता कर पाएंगे। आप पहचान भी न पाएंगे, कौन मीरा है, कौन बुद्ध! आपसे ही निकलता है। वह पहुंचेगा परमात्मा तक, लेकिन निकलता
लेकिन यह तो आखिरी घटना है। इस आखिरी घटना के इंचभर | | आपसे है। पहुंचते-पहुंचते आप समाप्त होते जाएंगे और जिस दिन , पहले भी बुद्ध और मीरा को पहचाना जा सकता है। उनमें फर्क होंगे। परमात्मा पर आप पहुंच जाएंगे, पाएंगे कि आप बचे नहीं। यह मैंने मोटी बात कही। लेकिन एक-एक व्यक्ति में फर्क होंगे। इसलिए आज तक किसी व्यक्ति का परमात्मा से मिलना नहीं
इसीलिए दुनिया में इतने धर्म हैं। क्योंकि अलग-अलग लोगों ने हुआ है। जब तक व्यक्ति रहता है, तब तक परमात्मा की कोई खबर अलग-अलग रास्तों से चलकर उस सत्य की झलक पाई है। और नहीं रहती। और जब परमात्मा होता है, तो व्यक्ति समाप्त हो गया जिसने जिस रास्ते से चलकर झलक पाई है. स्वभावतः वह कहेगा. होता है. मिट गया होता है. खो गया होता है। यही रास्ता ठीक है। उसके कहने में कोई गलती भी नहीं है। दूसरे __ जैसे बूंद सागर में गिरती है, तो जब तक बूंद रहती है, तब तक रास्ते वह जानता भी नहीं है। दूसरे रास्तों पर वह चला भी नहीं है। सागर से दूर रहती है, चाहे फासला इंचभर का ही क्यों न हो। आधे और जिन रास्तों पर आप चले नहीं हैं, उनके संबंध में आप क्या इंच का क्यों न हो, जरा-सा रत्तीभर का फासला क्यों न हो, लेकिन कहेंगे? जिस रास्ते से आप गुजरे हैं, कहेंगे, यही ठीक है। और जब तक अभी सागर से दूर है, तभी तक बूंद है। जिस क्षण मिलेगी, कहेंगे कि इसी पर आ जाओ। और समझाएंगे लोगों को कि कहीं बूंद खो गई और सागर ही रह गया। भटक मत जाना किसी और रास्ते पर।
तो यह कहना कि बूंद सागर से मिलती है, बड़ा मुश्किल है। इसलिए जब दुनिया में अलग-अलग धर्मों के लोग कहते हैं कि | मिलती तब है, जब बूंद नहीं रह जाती। और जब तक बूंद रहती है, आ जाओ हमारे रास्ते पर, तो जरूरी नहीं है कि उनके इस कहने में | | तब तक मिलती नहीं, तब तक दूर रहती है। करुणा न हो और सिर्फ आपको बदलने की राजनैतिक आकांक्षा आप मिट जाएंगे रास्ते पर। रास्ता आपको समाप्त कर लेगा। हो। जरूरी नहीं है। हो सकता है करुणा हो; और हो सकता है कि | रास्ते का मतलब ही है, अपने मिटने का उपाय, अपने को खोने का जिस रास्ते पर चलकर उनको आनंद की खबर मिल रही है, वे | | उपाय, समाप्त करने का उपाय। चाहते हों कि आप भी उसी पर चलें।
धर्म एक अर्थ में मृत्यु है और एक अर्थ में जीवन। इस अर्थ में लेकिन इससे खतरा पैदा होता है। इससे हर रास्ते को जानने मृत्यु है कि आप मिट जाएंगे; और इस अर्थ में महा जीवन कि
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परमात्मा उपलब्ध होगा। बूंद खो जाएगी और सागर हो जाएगा। मुसलमान बनते हैं, वे उनकी च्वाइस से बनते हैं। वे मुसलमान धर्म
लेकिन अभी आप प्रथम चरण पर पूर्णता का खयाल न करें। में पैदा नहीं हुए हैं, क्योंकि मुसलमान धर्म तो था नहीं। जब अभी तो आप अपना झुकाव समझ लें। और अपने झुकाव को मोहम्मद के प्रभाव में वे आते हैं, तो अपने चुनाव से आते हैं। वे समझकर चलें। अन्यथा बहुत समय, बहुत शक्ति व्यर्थ ही चली चुनते हैं इस्लाम को। फिर उनके बच्चे तो इस्लाम में पैदा होते हैं, जाती है।
| वे मुर्दा होंगे। अब मैं देखता हूं कि अगर एक व्यक्ति ऐसे घर में पैदा हो जाए, बुद्ध जब पैदा होते हैं, तो जो आदमी बौद्ध बनता है, वह चुनता जिसका जन्मगत संस्कार भावना का है और वह भावना वाला न है। वह सोचता है कि बुद्ध से मेरी बात मेल खाती है कि नहीं? यह हो...। एक व्यक्ति जैन घर में पैदा हो जाए, महावीर की परंपरा में मुझे अनुकूल पड़ती है या नहीं? तो वह तो चुनकर बनता है। पैदा हो जाए, और उसके पास हृदय हो मीरा जैसा, तो मुश्किल में लेकिन उसका बेटा, उसके बेटों के बेटे, वे तो बिना चुने बनेंगे। पड़ेगा। अगर कोई भक्ति के संप्रदाय में पैदा हो जाए, और उसके | बस, जैसे ही जन्म से धर्म जुड़ेगा, वैसे मुर्दा होता जाएगा। पास बुद्धि हो बुद्ध या महावीर जैसी, तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि इसलिए बुद्ध जब जिंदा होते हैं, तो जो ताजगी होती है; महावीर जो सिखाया जाएगा, वह उसके अनुकूल नहीं है। और जो उसके जब जिंदा होते हैं, लो उनके आस-पास जो हवा होती है; मोहम्मद अनुकूल हो सकता है, वह उसका संप्रदाय नहीं है।
या जीसस जब जिंदा होते हैं, तो उनके पास जो फूल खिलते हैं, तो अपने विपरीत चलने से बहत कष्ट होगा। और अपने फिर वे बाद में नहीं खिलते। वे धीरे-धीरे मुझाते जाते हैं। मुर्दा ही विपरीत चलकर कोई पहंच नहीं सकता।
जाएंगे। बाद में धर्म एक बोझ हो जाता है। आज दुनिया में जो इतनी अधार्मिकता दिखाई पड़ती है, उसका | हजार, दो हजार साल पहले आपके किसी बाप-दादे ने धर्म चुना एक कारण यह भी है कि आप इस बात की खोज ही नहीं करते कि था, तो उसके लिए तो चुनाव था, क्रांति थी। आपके लिए? आपके आपके अनुकूल क्या है। आप इसकी फिक्र में लगे रहते हैं, मैं किस | लिए बपौती है। आपको मुफ्त मिल गया है, बिना चुनाव किए, घर में पैदा हुआ हूं। कौन-सा शास्त्र मुझे पढ़ाया गया, कुरान, कि बिना मेहनत किए, बिना सोचे, बिना समझे। बस, आपको रटा बाइबिल, कि गीता? आप इसकी फिक्र नहीं करते कि मैं क्या हूं? | दिया गया बचपन से। तो आप उस अर्थ में बौद्ध, मुसलमान, हिंदू मैं कैसा हूं? क्या गीता मुझसे मेल खाएगी? या कुरान मुझसे मेल | नहीं हो सकते। खाएगा? या बाइबिल मुझसे मेल खाएगी? जो आपसे मेल खाता | । मेरी अपनी समझ है कि दुनिया बेहतर होगी, जिस दिन हम धर्मों हो, वही आपके लिए रास्ता है।
| की शिक्षा देंगे-सब धर्मों की और व्यक्ति को स्वतंत्र छोड़ देंगे दुनिया ज्यादा धार्मिक हो सकती है, अगर हम धर्म को जन्म के कि अपना धर्म चुन ले। उस दिन दुनिया से धर्मों के झगड़े भी साथ जोड़ना बंद कर दें। और बच्चों को सारे धर्मों की शिक्षाएं दी | समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि एक-एक घर में पांच-पांच, सात-सात जाएं और यह बच्चे के निर्णय पर हो कि जब वह इक्कीस वर्ष का | धर्मों के लोग मिल जाएंगे। क्योंकि कोई बेटा चुनेगा सिक्ख धर्म हो जाए, एक उम्र पा ले प्रौढ़ता की, तब अपना धर्म चुन ले। उसे | | को, कोई बेटा चुनेगा इस्लाम धर्म को, कोई बेटा हिंदू रहना चाहेगा, सारे धर्मों की शिक्षा दे दी जाए और उसे अपने हृदय की पहचान के कोई बेटा ईसाई होना चाहेगा। यह उनकी मौज होगी। और एक घर मार्ग समझा दिए जाएं और इक्कीस वर्ष का होकर वह अपना धर्म | | में जब सात धर्म, आठ धर्म, दस धर्म हो सकेंगे, तो दुनिया से चुन ले। तो यह दुनिया ज्यादा धार्मिक हो सकती है। क्योंकि तब | | धार्मिक दंगे बंद हो सकते हैं, उसके पहले बंद नहीं हो सकते। कोई व्यक्ति अपने अनुकूल चुनेगा।
| उपाय नहीं है उसके पहले बंद करने का अभी आपकी अनुकूलता का सवाल नहीं है। संयोग की बात है | इसलिए धार्मिक आदमियों के लिए तो एक बडी जिम्मेवारी है और कि आप कहां पैदा हो गए हैं। उससे आपका तालमेल बैठता है कि वह यह कि वे अपने बच्चों को अगर सच में धार्मिक बनाना चाहते नहीं बैठता है, कहना मुश्किल है। इसलिए देखें, जब भी कोई धर्म हैं, तो हिंदू, मुसलमान, ईसाई न बनाएं। सिर्फ धर्मों की शिक्षा दें। प्रारंभ होता है, तो उसमें जो जान होती है, वह बाद में नहीं रह जाती। और उनसे कह दें कि तुम समझ लो ठीक से, और जब तुम्हारी मौज
अब मोहम्मद पैदा हों। तो मोहम्मद जब पैदा होते हैं, तो जो लोग आए, और जब तुम्हें भाव पैदा हो, तब तुम चुनाव कर लेना। और
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तुम जो भी चुनाव करो तुम्हारे लिए, वह तुम्हारा चुनाव है। हर्जा नहीं है। वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष, दस वर्ष इसमें ही खोना पड़े
तो हम दुनिया से बहुत-सा उपद्रव अलग कर सकते हैं। | कि मैं क्या हूं, कैसा हूं, मेरा रुझान क्या है, मेरा व्यक्तित्व क्या है,
सभी रास्ते सही हैं। लेकिन सभी रास्ते सभी के लिए सही नहीं | तो हर्जा नहीं है। हैं। हर रास्ता पहुंचाता है, लेकिन हर रास्ता आपको नहीं एक बार ठीक से आप अपनी नस को पकड़ लें और अपनी नाड़ी पहुंचाएगा। आपको तो एक ही रास्ता पहुंचा सकता है। इसलिए को पहचान लें, तो रास्ता बहुत सुगम हो जाएगा। अन्यथा आप खोजना जरूरी है कि कौन-सा रास्ता आपको पहुंचा सकता है। अनेक दरवाजों पर भटकेंगे. जो दरवाजे आपके लिए नहीं थे।
एक संगीतज्ञ है। एक कवि है। एक चित्रकार है। निश्चित ही, | आप बहत-से रास्तों पर जाएंगे और सिर्फ धल-धवांस खाकर इनके धर्म अलग-अलग होंगे। क्योंकि इनके व्यक्तित्व वापस लौट आएंगे, क्योंकि वे रास्ते आपके लिए नहीं थे। अलग-अलग हैं।
लेकिन तब अगर ऐसा भी हो, तो भी यह भूल मत करना कि अगर एक कवि को एक ऐसा धर्म पकड़ाया जाए, जो गणित की | | जिस रास्ते से आपको न मिला हो, तब भी किसी से मत कहना कि तरह रूखा-सूखा, नियमों का धर्म है, तो उसे समझ में नहीं वह रास्ता गलत है। क्योंकि वह रास्ता भी किसी के लिए सही हो आएगा। उससे कोई मेल नहीं बैठेगा। और अगर वह मजबूरी में सकता है। वह आपके लिए गलत सिद्ध हुआ है, इससे सबके लिए उसको ओढ़ भी ले, तो वह ऊपर से ओढ़ा हुआ होगा। उसकी | गलत सिद्ध नहीं हो गया है। आत्मा से कभी भी उसका संबंध नहीं जुड़ेगा। वह धर्म उसके भीतर | ___ इतनी विनम्रता मन में रखनी ही चाहिए खोजी को कि जिस रास्ते बीज नहीं बनेगा, अंकुरित नहीं होगा। उसमें फल-फूल नहीं लगेंगे। | से मैं नहीं पहुंच पाया, जरूरी नहीं है कि वह रास्ता गलत हो। इतना उसे तो कोई काव्य-धर्म चाहिए। ऐसा धर्म जो नाचता हो, गाता हो। | ही सिद्ध होता है कि मुझमें और उस रास्ते में मेल नहीं बना, उसे तो उसी धर्म से मेल बैठ पाएगा।
| तालमेल नहीं बना। मैं उस रास्ते के योग्य नहीं था। वह रास्ता मेरे अब एक चित्रकार हो, एक मूर्तिकार हो, उसे तो कोई धर्म | | योग्य नहीं था। लेकिन किसी के योग्य हो सकता है। चाहिए, जो परमात्मा को सौंदर्य की भांति देखता हो। उसे तो कोई | और उस व्यक्ति का खयाल रखकर हमेशा एक स्मरण बनाए धर्म चाहिए, जो सौंदर्य की पूजा करता हो, तो ही उसके अनुकूल | रखना चाहिए कि जब भी कोई चीज गलत हो, तब कहना चाहिए, बैठेगा। ऐसा कोई धर्म जो सौंदर्य का दुश्मन हो, विरोध करता हो | | मेरे लिए गलत हो गई। और जब भी कोई चीज सही हो, तो कहना रस का, राग का, उसके अनुकूल नहीं बैठेगा। और अगर वह चाहिए, मेरे लिए सही हो गई। लेकिन उसे सार्वजनिक, युनिवर्सल किसी तरह उस धर्म में अपने को समाविष्ट भी कर ले, तो कभी भी ट्थ, सार्वभौम सत्य की तरह घोषणा नहीं करनी चाहिए। उससे उसका हृदय उसे छुएगा नहीं। फासला बना ही रहेगा। | अनेक लोगों को कष्ट, पीड़ा और उलझाव पैदा होता है। . एक गणितज्ञ हो और गणित की तरह साफ-सुथरा काम चाहता हो और दो और दो चार ही होते हों, तो उसे कोई कविता वाला धर्म प्रभावित नहीं कर सकता। उसे उपनिषद प्रभावित नहीं करेंगे, एक मित्र ने पूछा है, भक्ति-योग में आपने प्रेम को क्योंकि उपनिषद काव्य हैं। उसे पतंजलि का योग-सूत्र प्रभावित | आधारभूत स्थान दिया है। पता नहीं हम सामान्य करेगा, क्योंकि वह विज्ञान है।
लोग प्रेम से परिचित हैं या केवल कामवासना से! ___ अपनी खोज पहले करनी चाहिए, इसके पहले कि आप दोनों में क्या फर्क है? और क्या कामवासना प्रेम परमात्मा की खोज पर निकलें। वह नंबर दो है। आप नंबर एक हैं। | बन सकती है?
और अगर आप गलत, अपने को ही नहीं समझ पा रहे हैं ठीक से कि मैं कैसा हूं, क्या हूं, तो आप परमात्मा को न खोज पाएंगे। क्योंकि रास्ता आपसे निकलेगा।
| 7 छने जैसा है और समझने जैसा है। क्योंकि हम इसलिए आत्म-विश्लेषण पहला कदम है। और ठीक 4 कामवासना को ही प्रेम समझ लेते हैं। और आत्म-विश्लेषण न हो पाए, तो रुकना; जल्दी मत करना। कोई । कामवासना प्रेम नहीं है, प्रेम बन सकती है।
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गीता दर्शन भाग-60
कामवासना में संभावना है प्रेम की। लेकिन कामवासना प्रेम नहीं तो शरीर है। हर व्यक्ति की तीन स्थितियां हैं। शरीर की भांति वह है। केवल बीज है। अगर ठीक-ठीक उपयोग किया जाए, तो पदार्थ है। मन की भांति वह व्यक्ति है, चेतन। और परमात्मा की अंकुरित हो सकता है। लेकिन बीज वृक्ष नहीं है।
भांति वह निराकार है, महाशून्य है, पूर्ण। इसलिए जो कामवासना से तृप्त हो जाए या समझ ले कि बस, काम, प्रेम, भक्ति, तीन कदम हैं। पर समझ लेना जरूरी है कि अंत आ गया, उसके जीवन में प्रेम का पता ही नहीं होता। | जब तक आप किसी के शरीर से आकृष्ट हो रहे हैं...। और ध्यान
कामवासना प्रेम बन सकती है। कामवासना का अर्थ है, दो रहे, आवश्यक नहीं है कि आप जीवित मनुष्यों के शरीर से ही शरीर के बीच आकर्षण; शरीर के बीच। प्रेम का अर्थ है, दो मनों | | आकृष्ट होते हों। यह भी हो सकता है कि कृष्ण की मूर्ति में आपको के बीच आकर्षण। और भक्ति का अर्थ है, दो आत्माओं के बीच कृष्ण का शरीर ही आकृष्ट करता हो, तो वह भी काम है। आकर्षण। वे सब आकर्षण हैं। लेकिन तीन तलों पर।
कृष्ण का सुंदर शरीर, उनकी आंखें, उनका मोर-मुकुट, उनके ___ जब एक शरीर दूसरे शरीर से आकृष्ट होता है, तो काम, | हाथ की बांसुरी, उनका छंद-बद्ध व्यक्तित्व, उनका अनुपात भरा सेक्स। और जब एक मन दूसरे मन से आकर्षित होता है, तो प्रेम, शरीर. उनकी नीली देह, वह अगर आपको आकर्षित करती हो. लव। और जब एक आत्मा दूसरी आत्मा से आकर्षित होती है, तो | तो वह भी काम है। वह भी फिर अभी प्रेम भी नहीं है; भक्ति भी भक्ति, श्रद्धा।
नहीं है। हम शरीर के तल पर जीते हैं। हमारे सब आकर्षण शरीर के | ___ और अगर आपको अपने बेटे के शरीर में भी, शरीर भूल जाता आकर्षण हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर का आकर्षण | | हो और जीवन का स्पंदन अनुभव होता हो। खयाल ही न रहता हो बुरा है।
कि वह देह है, बल्कि इतना ही खयाल आता हो कि एक अभूतपूर्व शरीर का आकर्षण बुरा बन जाता है, अगर वह उससे ऊपर के | घटना है, एक चैतन्य की लहर है। ऐसी अगर प्रतीति होती हो, तो आकर्षण तक पहुंचने में बाधा डाले। और शरीर का आकर्षण | बेटे के साथ भी प्रेम हो गया। और अगर आपको अपने बेटे में ही सहयोगी हो जाता है, सीढ़ी बन जाता है, अगर वह ऊपर के | परमात्मा का अनुभव होने लगे, तो वह भक्ति हो गई। आकर्षण में सहयोगी हो।
किस के साथ पर निर्भर नहीं है भक्ति और प्रेम और काम। कैसा अगर आप किसी के शरीर की तरफ आकर्षित होकर धीरे-धीरे संबंध! आप पर निर्भर है। आप किस भांति देखते हैं और किस उसके मन की तरफ भी आकर्षित होने लगें, और किसी के मन के भांति आप गति करते हैं! प्रति आकर्षित होकर धीरे-धीरे उसकी आत्मा के प्रति भी आकर्षित | तो सदा इस बात को खयाल रखें, क्या आपको आकृष्ट कर रहा होने लगें, तो आपकी कामवासना विकृत नहीं हुई, ठीक मार्ग से है-देह, पदार्थ, आकार? चली और परमात्मा तक पहुंच गई।
__ पर इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि कुछ बुरा लेकिन किसी के शरीर पर आप रुक जाएं, तो ऐसा जैसे आप है। भला है। इतना भी है, यह भी क्या कम है! कुछ तो ऐसे लोग कहीं गए और किसी के घर के बाहर ही घूमते रहे और दरवाजे से | हैं, जिनको देह भी आकृष्ट नहीं करती। तो भीतर के आकर्षण का भीतर प्रवेश ही न किया। तो गलती घर की नहीं है; गलती आपकी | | तो कोई सवाल ही नहीं उठता। उन्हें कुछ आकृष्ट ही नहीं करता। है। घर तो बुला रहा था कि भीतर आओ। दीवालें बाहर से दिखाई वे मरे हुए लोग हैं; वे लाश की तरह चलते हैं। उन्हें कुछ खींचता जो पड़ती हैं, वे घर नहीं हैं।
ही नहीं। उन्हें कुछ पुकारता नहीं। उनके लिए कोई आह्वान नहीं शरीर तो केवल घर है। उसके भीतर निवास है। उसके भीतर मालूम पड़ता। वे इस जगत में अकेले हैं, अजनबी हैं। इस जगत दोहरा निवास है। उसके भीतर व्यक्ति का निवास है, जिसको मैं | | से उनका कहीं कोई संबंध नहीं जुड़ता। मन कह रहा हूं। और अगर व्यक्ति के भी भीतर प्रवेश करें, तो कोई हर्ज नहीं। कम से कम शरीर खींचता है; यह भी तो खबर अंतर्गर्भ में परमात्मा का निवास है, जिसको मैं आत्मा कह रहा हूं। है कि आप जिंदा हैं। कोई चीज खींचती है। कोई चीज आपको
हर व्यक्ति अपने गहरे में परमात्मा है। अगर थोड़ा उथले में पुकारती है। आपको बाहर बुलाती है। यह भी धन्यभाग है। लेकिन उसको पकड़ें, तो व्यक्ति है। और अगर बिलकुल बाहर से पकड़ें, इस पर ही रुक जाना खतरनाक है। आप बहुत सस्ते में अपने जीवन
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को बेच दिए। आप कौड़ियों पर रुक गए। अभी और आगे यात्रा | सभी कुछ उसका है। इसलिए सभी तरफ से उसकी तरफ जाया जा हो सकती थी। आप दरवाजे पर ही ठहर गए। अभी तो यात्रा शुरू सकता है। और हर चीज उसका मंदिर है। ही हुई थी और आपने समझ लिया कि मंजिल आ गई! आपने | जिन्होंने ये बातें समझाई हैं, दुश्मनी की, घृणा की, कंडेमनेशन पड़ाव को मंजिल समझ लिया। ठहरें; लेकिन आगे बढ़ते रहें। की, शरीर को दबाने, नष्ट करने की, वे पैथालाजिकल रहे होंगे;
मैंने सुना है, यहूदी फकीर हिलेल से किसी ने पूछा कि अध्यात्म | वे थोड़े रुग्ण रहे होंगे। उनका चित्त थोड़ा मनोविकार से ग्रसित रहा का क्या अर्थ है? तो उसने कहा, और आगे, और आगे। वह होगा। वे स्वस्थ नहीं थे। क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति तो अनुभव करेगा
आदमी कुछ समझा नहीं। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं! तो | कि शरीर तक भी उसी की खबर है। शरीर भी है इस दुनिया में हिलेल ने कहा कि जहां भी तेरा रुकने का मन होने लगे, इस वचन इसीलिए, क्योंकि परमात्मा है। नहीं तो शरीर भी नहीं हो सकेगा। को याद रखना, और आगे, और आगे। जब तक तू ऐसी जगह न और शरीर भी जीवित है, क्योंकि परमात्मा की किरण उस तक पहुंच जाए, जहां और आगे कुछ बचे ही नहीं, तब तक तू बढ़ते | आती है और उसे छूती है। जाना। यही अध्यात्म का अर्थ है।
इस भांति जब कोई देखने को चलता है, तो सारा जगत स्वीकार शरीर पर रुकना मत। और आगे। शरीर भी परमात्मा का है। योग्य हो जाता है। कामवासना भी स्वीकार योग्य है। वह आपकी इसलिए बुरा कुछ भी नहीं है। निंदा मेरे मन में जरा भी नहीं है। शक्ति है। और परमात्मा ने उसका उपयोग किया है, बहुलता से लेकिन शरीर शरीर ही है, चाहे परमात्मा का ही हो। वह बाहरी उपयोग किया है। परकोटा है। और आगे। मन भी एक परकोटा है, शरीर से गहरा, फूल खिलते हैं; आप जानते हैं क्यों? पक्षी सुबह गीत गाते हैं; शरीर से सूक्ष्म, लेकिन फिर भी परकोटा है। और आगे। और जब जानते हैं क्यों? मोर नाचता है; जानते हैं क्यों? कोयल बहुत हम शरीर और मन दोनों को छोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं, तो सब प्रीतिकर मालूम पड़ती है, क्यों? परकोटे खो जाते हैं और सिर्फ आकाश रह जाता है।
वह सब कामवासना है। मोर नाच रहा है, वह प्रेमी के लिए इसलिए किसी भी व्यक्ति के प्रेम से परमात्मा को पाया जा | निमंत्रण है। कोयल गा रही है, वह साथी की तलाश है। फूल खिल सकता है। एक पत्थर की मर्ति के प्रेम में गिरकर भी परमात्मा को | रहे हैं, वह तितलियों की खोज है, ताकि फूलों के वीर्यकणों को पाया जा सकता है। परमात्मा को कहीं से भी पहुंचा जा सकता है। | तितलियां अपने साथ ले जाएं और दूसरे फूलों पर मिला दें। सिर्फ ध्यान रहे कि रुकना नहीं है। उस समय तक नहीं रुकना है, | सेमर का वृक्ष देखा आपने! जब सेमर का फूल पकता है और जब तक कि शून्य न आ जाए और आगे कुछ भी यात्रा ही बाकी न | गिरता है, तो उस फूल के साथ जो बीज होते हैं, उनमें रुई लगी बचे। रास्ता खो जाए, तब तक चलते ही जाना है।
| होती है। वनस्पतिशास्त्री बहुत खोजते थे कि इन फूलों के बीज में . लेकिन कामवासना के संबंध में मनुष्य का मन बहुत रुग्ण है। रुई की क्या जरूरत है? सेमर में रुई की क्या जरूरत है? बहुत और हजारों-हजारों साल से आदमी को कामवासना के विपरीत | | खोज से पता चला कि वे बीज अगर सेमर के नीचे ही गिर जाएं, और विरोध में समझाया गया है। शरीर की निंदा की गई है। और | तो सेमर इतना बड़ा वृक्ष है कि वे बीज उसके नीचे सड़ जाएंगे, पनप कहा गया है कि शरीर जो है वह शत्रु है। उसे नष्ट करना है, उससे नहीं सकेंगे। उन बीजों को दूर तक ले जाने के लिए वृक्ष रुई पैदा दोस्ती तोड़नी है। उससे सब संबंध छोड़ देने हैं। शरीर ही बाधा है, | | करता है। ताकि वे बीज रुई में उलझे रहें और हवा के झोंके में रुई ऐसा समझाया गया है।
वृक्ष से दूर चली जाए। कहीं दूर जाकर बीज गिरें, ताकि नए वृक्ष इस समझ के दुष्परिणाम हुए हैं। क्योंकि यह नासमझी है, समझ पैदा हो सकें। नहीं है। और जो व्यक्ति अपने शरीर से लड़ने में लग जाएगा, वह वे बीज क्या हैं? बीज वृक्ष के वीर्यकण हैं, वे कामवासना हैं। इसी लड़ाई में नष्ट हो जाएगा। उसकी सारी खोज भटक जाएगी, अगर सारे जगत को गौर से देखें, तो सारा जगत काम का खेल इसी लड़ने में नष्ट हो जाएगा।
| है। और इस सारे जगत में केवल मनुष्य है, जो काम से प्रेम तक शरीर भी परमात्मा का है। ठीक आस्तिक इस जगत में ऐसी कोई उठ सकता है। वह केवल मनष्य की क्षमता है। चीज नहीं मानता, जो परमात्मा की नहीं है। आस्तिक मानता है, कामवासना तो पूरे जगत में है। पौधे में, पशु में, पक्षी में, सब
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गीता दर्शन भाग-6
है। अगर आपके जीवन में भी कामवासना ही सब कुछ है, तो आप समझना कि आप अभी मनुष्य नहीं हो पाए। आप पौधे, पशु-पक्षियों के जगत का हिस्सा हैं। वह तो सब के जीवन में है।
मनुष्य प्रेम तक उठ सकता है। मनुष्य की संभावना है प्रेम। जिस दिन आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं; वासना से उठते हैं और प्रेम से भर जाते हैं। दूसरे के शरीर का आकर्षण महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। दूसरे के व्यक्तित्व का आकर्षण, दूसरे की चेतना का आकर्षण, दूसरे के गुणका आकर्षण; दूसरे के भीतर जो छिपा है! आपकी आंखें जब देखने लगती हैं शरीर के पार और जब व्यक्ति की झलक मिलने लगती है, तब आप मनुष्य बने।
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और जब आप मनुष्य बन जाते हैं, तब आपके जीवन में दूसरी संभावना का द्वार खुलता है, वह है भक्ति । जिस दिन आप भक्त बन जाते हैं, उस दिन आप देव हो जाते हैं; उस दिन आप दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
काम तो सारे जगत की संभावना है। अगर आप भी कामवासना ही जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं, तो आपने कोई उपलब्धि नहीं की; मनुष्य जीवन व्यर्थ खोया । अगर आपके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं, तो आपने कुछ उपलब्धि की।
और प्रेम के बाद दूसरी छलांग बहुत आसान है। प्रेम आंख गहरी कर देता है और हम भीतर देखना शुरू कर देते हैं। और जब शरीर के पार हम देखने लगते हैं, तो मन के पार देखना बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि शरीर बहुत ग्रॉस, बहुत स्थूल है। जब उसके भीतर भी हम देख लेते हैं, तो मन तो बहुत पारदर्शी है, कांच की तरह है। उसके भीतर भी दिखाई पड़ने लगता है। तब हर व्यक्ति भगवान का मंदिर हो जाता है। तब आप जहां भी देखें, आंख अगर गहरी जाए, तो भीतर वही दीया जल रहा है। दीए होंगे करोड़ों, लेकिन दीए की ज्योति एक ही परमात्मा की है।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कर्म-योग की साधना में लगा हूं, पर डर होता है कि पता नहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूं! क्योंकि न मैं भक्ति करता हूं, न मैं ध्यान करता हूं। मैं तो, जो कर्म है जीवन का, उसे किए चला जाता हूं। पर मापदंड क्या है कि मुझे पक्का पता चल सके कि जो मैं कर रहा हूं, वह कर्म - योग है, और आत्मवंचना नहीं हो रही है? और
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यह कर्म - योग मेरा स्वभाव है, मेरे अनुकूल है या नहीं, इसका भी कैसे पता लगे ?
है। और जिसने पूछा है, उसके मन में प्र सिर्फ जिज्ञासा नहीं है, मुमुक्षा है। पीड़ा से उठा हुआ
प्रश्न है, बुद्धि से नहीं ।
निश्चित ही, आदमी अपने को धोखा देने में समर्थ है, बहुत कुशल है । और दूसरे को हम धोखा दें, तो वहां तो दूसरा भी होता है, कभी पकड़ ले। हम खुद को ही धोखा दें, तो वहां कोई भी नहीं होता पकड़ने वाला। हम ही होते हैं। सिर्फ देने वाला ही होता है। | इसलिए लंबे समय तक हम दे सकते हैं। खुद को धोखा ह जन्मों-जन्मों तक दे सकते हैं। दे सकते ही नहीं, हमने दिया है। हम दे रहे हैं।
यह स्वाभाविक है साधक के मन में प्रश्न उठना कि न मैं ध्यान कर रहा हूं, न मैं भक्ति कर रहा हूं, मैं अपने कर्म को किए चला जा रहा हूं; कहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा ?
तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात, अगर आप अपने कर्म को परमात्मा पर छोड़ दिए हैं, तो जो ध्यान से होता है, वह इस छोड़ने से होना शुरू हो जाएगा। आप शांत होने लगेंगे।
अगर आप अशांत हों, तो समझना कि कर्म - योग आप जो कर रहे हैं, वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि जैसे ही मैं परमात्मा पर छोड़ देता हूं कि सारा कर्म उसका, मुझे अशांत होने की जगह नहीं रह जाती। अशांति तो तभी तक है, जब तक मैं अपने पर सारा बोझ लिए हुए हूं।
अगर आपके कर्म-योग में आपकी अशांति खो रही हो, खो गई हो, और आप शांत होते जा रहे हों, तो समझना कि ठीक रास्ते पर हैं; धोखा नहीं है।
दूसरी बात, अगर आपने कर्म परमात्मा पर छोड़ दिया है, तो फल कोई भी आए, आपके भीतर समभाव निर्मित रहेगा। चाहे सुखी हों, चाहे दुखी हों; चाहें सफलता आए, चाहे असफलता | आए। अगर सफलता अच्छी लगती हो और असफलता बुरी लगती हो, तो समझना कि आप अपने को धोखा दे रहे हैं। क्योंकि जब मैंने छोड़ ही दिया परमात्मा पर, तो मेरी न सफलता रही और न असफलता रही। अब वह जाने । और उसे अगर असफल होना है, तो उसकी मर्जी । और उसे अगर सफल होना है, तो उसकी मर्जी ।
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0 कर्म-योग की कसौटी व
मैं बाहर हो गया।
लेकिन ऐसे जो लोग हैं, जो कहते हैं, कर्तव्य पूरा करना है, ___ कर्म-योग का अर्थ है कि मैंने सब परमात्मा पर छोड़ दिया और इनका चेहरा उदास होगा, आनंद से भरा हुआ नहीं होगा। ये ढो रहे मैं केवल वाहन रह गया। अब मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। सब | हैं बोझ। इनके मन में भीतर तो कहीं चल रहा है कि ये पत्नी-बच्चे जिम्मेवारी उसकी है। मैं बाहर हूं। मैं एक साक्षी-मात्र हो गया। | सब समाप्त हो जाते, तो बड़ा अच्छा होता। हत्या का मन बहुत गहरे समभाव पैदा होगा। सफलता आएगी तो ठीक, असफलता आएगी में है। या यह भूल न की होती, तो बड़ा अच्छा होता। फंस गए, तो तो ठीक। और आपके भीतर रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ेगा। आप | अब ढोना है, तो ढो रहे हैं। कर्तव्य अपना पूरा कर रहे हैं। इसको वैसे ही रहेंगे सफलता में, वैसे ही असफलता में। ऐसी समबुद्धि लोग कहते हैं, कर्म-योग कर रहे हैं! पैदा हो रही हो, बढ़ रही हो, तो समझना कि कर्म-योग ठीक है; यह कर्म-योग नहीं है। यह तो एक तरह की नपुंसकता है। न तो आप धोखा नहीं दे रहे हैं।
| भाग सकते हैं और न रह सकते हैं। दोनों के बीच में अटके हैं। और तीसरी बात, जैसे ही कोई व्यक्ति सभी कुछ परमात्मा पर | संन्यासी होने की भी हिम्मत नहीं है कि छोड़ दें; कि ठीक है, जो छोड़ देता है, यह सारा जगत उसे स्वप्नवत दिखाई पड़ने लगता गलती हो गई. हो गई। अब माफ करो: अब जाते हैं। वह भी है, नाटक हो जाता है। तभी तक यह असली मालूम पड़ता है, जब | | हिम्मत नहीं है। यह भी हिम्मत नहीं है कि जो है, उसका पूरा आनंद तक लगता है कि मैं। और जब मैं सभी उस पर छोड़ देता हूं, तो | लें, उसको परमात्मा की कृपा समझें, अहोभाव मानें। यह भी सारी बात नाटक हो जाती है। आप दर्शक हो जाते हैं; आप कर्ता | | हिम्मत नहीं है। दोनों के बीच में त्रिशंकु की तरह अटके हैं। इसको नहीं रह जाते।
कहते हैं, कर्तव्य कर रहे हैं। ___ध्यान रहे, जब तक मैं कर्ता हूं, तब तक जगत और है। और जब | ___ ध्यान रहे, यह कर्तव्य शब्द बहुत गंदा है। इसका मतलब होता मैंने सब परमात्मा पर छोड़ दिया, तो कर्ता वह हो गया। अब आप | | है, बोझ ढो रहे हैं। कौन रहे? आप सिर्फ दर्शक हो गए। एक फिल्म में बैठे हुए हैं। दो तरह के लोग हैं। एक तो जो अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं, एक फिल्म देख रहे हैं। नाटक चल रहा है, आप सिर्फ देख रहे हैं। इसलिए नौकरी कर रहे हैं। वे नहीं कहेंगे कभी कि हम कर्तव्य कर आप सिर्फ देखने वाले रह गए हैं।
रहे हैं। वे कहेंगे, हमारी खुशी है। जिस स्त्री को चाहा है, उसके तो तीसरी बात, जैसे ही आप सब परमात्मा पर छोड़ देते हैं और | | लिए एक मकान बनाना है; एक गाड़ी लानी है। उसके लिए एक कर्म-योग में प्रवेश करते हैं, जगत स्वप्न हो जाता है, एक खेल हो । | बगीचा लगाना है। जिसको चाहा है, उसे सुंदरतम जगह देनी है। जाता है। आप सिर्फ देखने वाले रह जाते हैं।
इसलिए हम आनंदित हैं। और कर्तव्य शब्द उपयोग वे नहीं करेंगे। तो तीसरी बात, अगर आप में साक्षीभाव बढ़ रहा हो, शांति बढ़ बच्चे हमारे हैं। हम खुश हैं उनकी खुशी में। उनकी आंखों में रही हो, समभाव बढ़ रहा हो, साक्षीभाव बढ़ रहा हो, तो आप | आती हुई ताजगी और उनकी आंखों में आता उल्लास हमें आनंदित जानना कि ठीक रास्ते पर हैं; धोखे का कोई उपाय नहीं है। और करता है, इसलिए हम मेहनत कर रहे हैं। यह मेहनत हमारी खुशी अगर यह न बढ़ रहा हो, तो समझना कि आप धोखा दे रहे हैं। और | | है, कर्तव्य नहीं है। यह भी आदमी अच्छा है। कम से कम एक बात अगर यह न बढ़ रहा हो और आप बहुत चेष्टा कर रहे हों, फिर भी | | तो अच्छी है कि खुश है। . न बढ़ रहा हो, तो समझना कि यह आपके स्वभाव के अनुकूल नहीं | | एक दूसरा आदमी है, जो कहता है कि हमने सब परमात्मा पर है। चेष्टा करके देख लेना। अगर बढ़ने लगे गति इन तीन दिशाओं | छोड़ दिया है। इसलिए परमात्मा की आज्ञा है कि बच्चों को बड़ा में, तो समझना कि आपके अनुकूल है। अगर न बढ़े, तो किसी | करो, तो हम कर रहे हैं। खुश है, क्योंकि परमात्मा की आज्ञा पूरी और दिशा से चेष्टा करना।
कर रहा है। यह भी आनंदित है। यह भी कर्तव्य नहीं निभा रहा है। लेकिन लोग क्या समझते हैं कर्म-योग से? लोग समझते हैं, | यह परमात्मा की जो मर्जी, उसको पूरा कर रहा है। और अपने को अपने कर्तव्य को निभाना कर्म-योग है। पत्नी है, बच्चे हैं; ठीक | | परमात्मा पर छोड़ दिया है। एक पत्नी के प्रेम में आनंदित था; यह है। अब उलझ गए संसार में, तो नौकरी करनी है; धंधा करना है; परमात्मा के प्रेम में आनंदित है। लेकिन दोनों आनंदित हैं। इनमें कमाकर खिला-पिला देना है। अपना कर्तव्य पूरा करना है। कर्तव्य कुछ भी नहीं है।
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0 गीता दर्शन भाग-60
इन दोनों के बीच में एक तीसरा त्रिशंकु है। वह न परमात्मा का क्योंकि जो साधु आनंदित नहीं है, समझना कि भूल में पड़ गया उसे कुछ पता है और पत्नी का भी पता खो गया है। वह बीच में | है। साधु के आनंद का तो कोई अंत नहीं होना चाहिए! हम क्षुद्र चीजों अटका है। वह कहता है, कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। इसको वह में इतने आनंदित हैं और तुम परमात्मा के साथ भी इतने आनंदित नहीं कर्म-योग कहता है। यह कर्म-योग नहीं है। यह आदमी मुर्दा है। | हो! हम असार में इतने प्रसन्न हो रहे हैं, और तुम सार को पाकर भी इसमें हिम्मत ही नहीं है। इसको कुछ न कुछ तय करना चाहिए। | उदास बैठे हुए हो! हम कौड़ियों में नाच रहे हैं और तुम कहते हो,
लेकिन एक बात हमेशा खयाल रखिए, जब भी आप सही दिशा | | हमने हीरे पा लिए हैं; और तुम्हारी शक्ल से पता लगता है कि तुमने में चलेंगे, तो आपके भीतर आनंद बढ़ेगा। और जब आप गलत | | कौड़ियां भी गंवा दी हैं। हीरे वगैरह तुम्हें मिले नहीं हैं। . दिशा में चलेंगे, तो उदासी बढ़ेगी। अगर आपका कर्तव्य आपको जिंदगी की सहज सम्यक धारा आनंद की तरफ है। आनंद को उदास कर रहा है, तो कहीं न कहीं भूल हो रही है। या तो परमात्मा | कसौटी समझ लें। वह निकष है। उस पर हमेशा कस लें। जो चीज की तरफ बढ़ें। या पत्नी की तरफ भी बढ़ें, तो भी हर्जा नहीं, लेकिन | | आनंद न दे, समझना कि कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। कम से कम खुश हों। क्योंकि पत्नी की तरफ खुश हुआ आदमी, और आनंद से भयभीत मत होना। और कोई कितना ही कहे कि कभी परमात्मा की तरफ भी खुश हो सकता है। क्योंकि खुशी तो | आनंद गलत है, भूलकर उसकी बात में मत पड़ना। क्योंकि अगर उसे आती है। आनंद तो उसे आता है। कम से कम एक बात तो | आनंद गलत है, तो फिर इस जगत में कुछ भी सही नहीं हो सकता। आती है कि वह आनंदित होना जानता है।
कसना। और जो पत्नी तक की खुशी में इतना आनंदित हो जाता है, जिस ___ यह भी हो सकता है कि आनंद भूल भरा हो। जहां आप आनंद दिन उसे परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू होगी, उसकी खुशी का कोई | | पा रहे हों, वहां आनंद पाने योग्य कुछ न हो। यह हो सकता है। अंत न होगा। जो अपने बच्चे की आंखों में खुशी देखकर इतना | | लेकिन आप आनंद पा रहे हैं, यह सही है, चाहे वह स्थिति सही न खुश हो रहा था, जिस दिन उसे इस सारे जगत में परमात्मा की रही हो। तो आनंद पाने को बढ़ाए जाना। जिस दिन आप पाएंगे कि प्रतीति होने लगेगी, उस दिन उसकी खुशी का कोई अंत होगा! कोई आपका आनंद ज्यादा हो गया और स्थिति छोटी पड़ने लगी, उस सीमा होगी!
| दिन आप स्थिति के ऊपर उठने लगेंगे। लेकिन यह बीच वाला आदमी बहुत उपद्रव है। इस बीच वाले एक आदमी के हाथ में...एक छोटा बच्चा है। कंकड़-पत्थर आदमी से सावधान रहना। यह धोखे की बात है।
इकट्ठे कर लेता है। और खुश होता है। रंगीन पत्थर बच्चे इकट्ठे कर जहां-जहां आनंद चकने लगे. सखने लगे धारा. समझना कि लेते हैं. बडे प्रसन्न होते हैं। खीसों में भर लेते हैं. बोझिल हो जाते हैं। आप गलत जा रहे हैं। क्योंकि जीवन का सम्यक विकास आनंद की | मां-बाप कहते हैं, फेंको! कहां कचरा ढो रहे हो? लेकिन वे नहीं तरफ है। अगर आप उदास होने लगें...।
| फेंकना चाहते। रात अपने बिस्तर में लेकर सो जाते हैं। उनको आनंद इसलिए उदास साधु को मैं साधु नहीं मानता। वह बीमार है। आ रहा है। और अच्छा नहीं है वह बाप, जो कहता है, फेंको। उससे तो बेहतर वह गृहस्थ है, जो आनंदित है। कम से कम एक क्योंकि वह उनसे पत्थर ही नहीं छीन रहा है, उनका आनंद भी छीन बात तो ठीक है उसमें कि आनंदित है। लेकिन हम जिन साध-संतों रहा है। वह उसको पता नहीं है कि वह क्या गड़बड़ कर रहा है। को जानते हैं, आमतौर से सब लटके हुए चेहरे वाले लोग हैं। उनके | उसे तो ठीक है कि यह पत्थर है। उसकी समझ बढ़ गई है। पास जाओ, तो वे आपका भी चेहरा लटकाने की पूरी कोशिश | लेकिन बच्चे की समझ अभी उसकी समझ नहीं है। और जब वह करते हैं। अगर आप हंस रहे हो, प्रसन्न हो, तो जरूर पाप कर रहे बच्चे से पत्थर छीनकर फेंक देता है, तो उसे पता नहीं कि उसने एक हो। कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है!
| और अदृश्य चीज भी छीनकर फेंक दी, जो बहुत कीमती थी। पत्थर इन उदास लोगों से जरा बचना। ये बीमारियां हैं। और हमने और तो बेकार थे, लेकिन भीतर बच्चे का सुख भी उसने छीन लिया। तरह की बीमारियों से तो धीरे-धीरे छुटकारा पा लिया, और इस बच्चे को अभी समझ में आना मुश्किल है कि जो उससे एंटीबायोटिक्स खोज लिए। अभी इनसे छुटकारा नहीं हो सका। ये छीन लिया गया, वह व्यर्थ था। क्योंकि कैसे व्यर्थ था। बच्चा मन पर, छाती पर गहरी बीमारियां हैं, हैं। इनसे बचना। जानता है, उससे आनंद मिल रहा था।
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@ कर्म-योग की कसौटी -
कई बार समझदार लोग नासमझियां कर देते हैं। बच्चे से पत्थर दिशा से परमात्मा को खोजना शुरू करें। छीनने की जरूरत नहीं है। बच्चे को बुद्धि, समझ देने की जरूरत | | अब हम सूत्र को लें। है। जैसे-जैसे बच्चे की समझ बढ़ेगी, एक दिन आप अचानक और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन पाएंगे, पत्थर एक कोने में पड़े रह गए। अब वह उनकी तरफ ध्यान | वाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के फल का भी नहीं देता, क्योंकि उसने नए आनंद खोज लिए हैं। अब वह | मेरे लिए त्याग कर। पत्थरों पर ध्यान नहीं देता। आप उनको उठाकर फेंक दें, अब उसे - कृष्ण ने कहा, तू सब कर्म मैं कर रहा हूं, ऐसा समझ ले। लेकिन पता भी नहीं चलेगा। वह खुद ही एक दिन उनको फेंक देगा। अगर यह भी न हो सके! हो सकता है, यह भी तुझे कठिन हो कि
जैसे समझ बढ़ती है, वैसे आनंद के नए क्षेत्र खुलते हैं। सम्यक कैसे समझ लूं कि सब आप कर रहे हैं। कर तो मैं ही रहा हूं। धर्म आपसे आनंद नहीं छीनता, सिर्फ आपकी समझ बढ़ाता है। तो | निश्चित ही कठिन है। अगर कोई आपसे कहे कि सब परमात्मा जो व्यर्थ होते जाते हैं आनंद, वे छूटते जाते हैं।
कर रहा है, तो भी आप कहेंगे कि कैसे मान लूं कि सब परमात्मा निश्चित ही, इस संसार में जो आप आनंद ले रहे हैं, वह लेने | कर रहा है? जैसा नहीं है। उसमें कछ खास है नहीं मामला। बच्चों के हाथ में मैंने ऐसे लोग देखे हैं कि अगर उनको समझा दो कि सब रंगीन पत्थर जैसी बात है। लेकिन कोई हर्ज नहीं है। आप आनंद ले | परमात्मा कर रहा है, तो वे सब करना छोड़कर बैठ जाते हैं। वे रहे हैं, यह भी ठीक है। समझ बढ़ानी चाहिए।
| कहते हैं, जब परमात्मा ही कर रहा है, तो फिर हमको क्या करना इस फर्क को आप समझ लें।
| है। लेकिन यह बैठना वे कर रहे हैं। इतना वे बचा लेते हैं। इसको अगर आप उदास साधुओं के पास जाते हैं, तो वे आपसे वे यह नहीं कहते कि परमात्मा बिठा रहा है, तो ठीक। नहीं, वे आपका आनंद छीनते हैं। आपके कंकड़-पत्थर छीनते हैं। उनके कहते हैं, बैठ हम रहे हैं। हम क्या करें अब! जब परमात्मा ही सब साथ ही आपके भीतर का आनंद भी छिन जाता है। वे आपको कर रहा है, तो फिर हम कुछ न करेंगे। समझ नहीं दे रहे हैं, आपका आनंद छीन रहे हैं। आनंद छीनने से लेकिन हम कुछ न करेंगे, इसका मतलब इतना तो हम कर ही समझ नहीं बढ़ती।
| सकते हैं। इतना हमने अपने लिए बचा लिया। इसका मतलब यह ठीक धर्म आपकी समझ बढ़ाता है, आपकी अंडरस्टैंडिंग बढ़ाता भी हुआ कि जो भी वे कर रहे थे, वे मानते नहीं कि परमात्मा कर है। समझ बढ़ने से, जो व्यर्थ था, वह छूटता चला जाता है; और | रहा था। वे खुद कर रहे थे, इसलिए अब वे कहते हैं, हम रोक जो सार्थक है, उस पर हाथ बंधने लगते हैं। और धीरे-धीरे आप | लेंगे। अब देखें, परमात्मा कैसे करता है! पाते हैं कि संसार अपने आप ऐसे छूट गया, जैसे बच्चे के हाथ से कठिन है यह मानना कि परमात्मा कर रहा है, क्योंकि अहंकार कंकड़-पत्थर। और इसी संसार में उस सारभूत पर दृष्टि पहुंच | | मानने को राजी नहीं होता कि मैं नहीं कर रहा हूं। हां, अगर कुछ जाती है और उससे मिलन हो जाता है।
बरा हो जाए. तो मानने को राजी हो भी सकता है कि परमात्मा कर समझ बढ़नी चाहिए। और समझ बढ़ने के साथ आनंद बढ़ता रहा है। है, घटता नहीं। अगर आप आनंद छोड़ने लगे, तो आनंद भी घटता असफलता आ जाए, तो आदमी आसानी से छोड़ देता है कि है और आपकी समझ भी घटती है।
परमात्मा, भाग्य। सफलता आ जाए, तो वह कहता है, मैं। आप जो भी कर रहे हों, एक बात निरंतर कसते रहना कि उससे | सफलता को उस पर छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्यों? आपका आनंद बढ़ रहा है, तो आप निर्भय होकर बढ़ते जाना उसी | क्योंकि सफलता से अहंकार परिपुष्ट होता है। तो जिस चीज से दिशा में। अगर आनंद न भी होगा ठीक, तो भी कोई चिंता की बात | | अहंकार परिपुष्ट होता है, वह तो हम अपने लिए बचाना चाहते हैं। नहीं। दिशा ठीक है। आज नहीं कल, जो गलत है, वह छूट सुनी है मैंने एक कहानी। एक संन्यासी छोटा-सा आश्रम जाएगा; और जो सही है, वह आपकी आंखों में आ जाएगा। पर बनाकर रहता था। आश्रम मैंने बनाया, ऐसा लोगों से कहता था। अपने को साधक को कसते रहना चाहिए। और अगर आपको ज्ञान मैंने पाया, त्याग मैंने किया, ऐसा लोगों से कहता था। एक लगता हो, यह कुछ भी नहीं हो रहा, तो उचित है कि किसी और दिन एक गाय उसके आश्रम में घुस गई और फूल और बगिया को
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* गीता दर्शन भाग-60
चर गई। बगिया को चरते देखकर उसे बहुत क्रोध आया। लकड़ी | बिंदुओं पर होता है। उठाकर उसने गाय को मार दी। गाय मर गई।
तो फिर चीन में आठ सौ शरीर में बिंदु खोज लिए गए। तो फिर एक ब्राह्मण द्वार पर खड़ा था। उसने पूछा कि यह तुमने क्या गोली मारने की जरूरत नहीं है, उन पर जरा-सी भी चोट की किया! गाय को मार डाला! तो उस संन्यासी ने कहा कि सब जाए... । इसलिए अक्युपंक्चर में सुई चुभा देते हैं। आपके सिर में परमात्मा कर रहा है, मैं क्या! तो उसकी मर्जी! उसके बिना मारे | दर्द है, तो वे जानते हैं कि आपके शरीर में कुछ बिंदु हैं, जहां सुई गाय मर सकती है? उसके बिना हाथ उठाए, मेरा हाथ उठ सकता चुभा दो। सुई चुभाते ही से सिरदर्द नदारद हो जाएगा। है? उसकी बिना आज्ञा के पत्ता नहीं हिलता।
अक्युपंक्चर हजारों तरह की बीमारियां ठीक करता है बिना लेकिन आश्रम उसने बनाया है। ज्ञान उसने पैदा किया है। त्याग इलाज के, सिर्फ सुई चुभाकर। जरा-सी जगह पर, ठीक जगह पर उसने किया है। गाय भगवान ने मारी है!
सुई चुभाकर। वह आपके भीतर जो ऊर्जा है शरीर की...। ये हमारे मन की तरकीबें हैं। हम सब यही करते रहते हैं। जब __ अब जिस आदमी ने गोली मारी थी, उसने सोचा नहीं था कि आप हार जाते हैं जिंदगी में, तो कहते हैं, भाग्य। और जब जीत इसका सिर ठीक करना है। और उसने यह नहीं सोचा था कि उसके जाते हैं, तो कहते हैं, मैं। पर सभी कुछ परमात्मा पर छोड़ना गोली मारने से अक्युपंक्चर पैदा होगा! और सारी दुनिया मुश्किल है। असफलता तो छोड़ना बिलकुल आसान है, सफलता | में इसका ही सिर ठीक नहीं होगा-करोड़ों लोगों का सिर ठीक छोड़नी मुश्किल है। सब में दोनों आ जाते हैं।
होगा। और सिर ही ठीक नहीं होगा, लाखों बीमारियां ठीक होंगी। तो कष्ण कहते हैं. मश्किल होगा शायद तझे यह भी करना कि आप क्या करते हैं. वह तो सोच सकते हैं कि आप कर रहे हैं। कर्म तू मुझ पर छोड़ दे। क्योंकि खुद को छोड़ना पड़ेगा। और अति | लेकिन क्या होगा, वह आप तय नहीं कर सकते कि क्या होगा। होना कठिन है बात खुद को छोड़ने की। तो फिर तू एक काम कर। कर्म | आपके हाथ में नहीं है। आप किसी को जहर दें और हो सकता है कि न छोड़ सके, तो कम से कम कर्म का फल छोड़ दे।
। वह अमृत सिद्ध हो जाए। और कई बार आप जहर देकर देख भी यह थोडा आसान है पहले वाले से। क्योंकि फल हमारे हाथ में | | लिए हैं। और कई बार आप अमृत देते हैं और जहर हो जाता है। है भी नहीं। कर्म हम कर सकते हैं, लेकिन फल क्या आएगा, जरूरी नहीं है। क्योंकि फल आप पर निर्भर नहीं है। फल बहुत बड़ी इसको हम सुनिश्चित रूप से तय नहीं कर सकते हैं। | विराट व्यवस्था पर निर्भर है। फल क्या होगा, कहना मुश्किल है।
मैं एक पत्थर उठाकर मार सकता हूं। लेकिन आप उस पत्थर से | तो कृष्ण कहते हैं कि कर्म न छोड़ सके, क्योंकि कर्म तो तुझे मर ही जाएंगे, यह कहना मुश्किल है। यह भी हो सकता है कि लगता है कि तू करता है, लेकिन फल तो छोड़ ही सकता है। पत्थर आपको लगे और आपकी कोई बीमारी ठीक हो जाए। ऐसा क्योंकि फल तो पक्का नहीं है कि तू करता है। कर्म तू करता है; हुआ है। ऐसा अनेक बार हो जाता है कि आप किसी का नुकसान फल होता है। और फल निश्चित नहीं किया जा सकता। और त करने गए थे और उसको फायदा हो गया।
नियंता नहीं है फल का। इसलिए कम से कम फल ही छोड़ दे। ___चीन में ऐसा हुआ, उससे अक्युपंक्चर नाम की चिकित्सा पद्धति इतना भी कर ले। तो कर्म तू कर और फल मुझ पर छोड़ दे। जो भी पैदा हई। आज से कोई तीन हजार साल पहले एक यद्ध में एक | होगा, वह भगवान कर रहा है तू कर रहा है, ठीक। लेकिन परिणाम सैनिक को पैर में गोली लगी। उसको जिंदगीभर से सिर में दर्द था। भगवान ला रहा है। पैर में गोली लगी; गोली आर-पार हो गई। गोली के लगते ही दर्द __ सब कर्मों का फल त्याग कर दे, मेरे ऊपर छोड़ दे। क्योंकि मर्म एकदम गायब हो गया। वह जिंदगीभर का दर्द था। और चिकित्सक | को न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। हार गए थे, और वह दर्द अलग होता नहीं था।
बहुत-से लोग अभ्यास करते रहते हैं, मर्म को न जानते हुए। तो बड़ी हैरानी हुई कि पैर में गोली लगने से दर्द सिर का कैसे | | उन्हें पता नहीं है, क्यों कर रहे हैं। अभ्यास करते रहते हैं। बहुत चला गया! तो फिर खोजबीन की गई, तो पाया गया कि शरीर में | लोग हैं। रोज मुझे ऐसे लोग मिलने आ जाते हैं। वर्षों से कुछ कर जो नाड़ियों का संस्थान है और जो ऊर्जा का प्रवाह है, उसमें कुछ रहे हैं। उनको पता नहीं, क्यों कर रहे हैं। किसी ने बता दिया, बिंदु हैं। अगर उन पर चोट की जाए, तो उनका परिणाम दूसरे | इसलिए कर रहे हैं।
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एक सज्जन को मेरे पास लाया गया। उनका दिमाग खराब होने इसलिए रात अगर आप बिना तकिए के सोएं, तो नींद नहीं की हालत में आ गया, तब उनके परिचित लोग उन्हें ले आए। | आती। क्यों? क्योंकि वे जो महीन तंतु हैं, खून की धारा उनको किसी ने उनको बता दिया है कि दोनों कान को बंद करके दोनों छेड़ने लगती है, और आप रात सो नहीं सकते। तकिए पर सिर रख अंगूठों से, और भीतर बादलों की गड़गड़ाहट सुननी चाहिए। तो लेते हैं, खून की धारा कम हो जाती है सिर की तरफ, तो महीन तंतु उन्होंने सुनना शुरू कर दिया। तीन साल से वे सुन रहे हैं। शांति से सो पाते हैं।
अब गड़गड़ाहट इतनी ज्यादा सुनाई पड़ने लगी कि अब और | अब आप शीर्षासन कर रहे हैं। अब आपको पहले पक्का कर कुछ सुनाई ही नहीं पड़ता। अब अंगूठे न भी लगाएं, तो भी लेना चाहिए कि कितना खन आपके तंत सह सकेंगे. नहीं तो टट गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। दूसरा बात भी करे, तो उन्हें सुनाई नहीं | जाएंगे। पड़ता, क्योंकि उनकी गड़गड़ाहट भीतर चल रही है!
तो मैंने तो अभी तक शीर्षासन करने वालों को बहुत बुद्धिमान मैंने उनसे पूछा कि तुमने गड़गड़ाहट सुनने की कोशिश काहे के नहीं देखा। आप बता दें, एकाध शीर्षासन करने वाले ने कोई विज्ञान लिए की थी? उन्होंने कहा, मैं तो गया था कि कैसे शांति मिले! का आविष्कार किया हो! कि एकाध शीर्षासन करने वाले को उन्होंने कहा कि ऐसे शांति मिलेगी, तुम गड़गड़ाहट सुनो। नोबल प्राइज मिली हो!
तुम सोचते भी तो कि गड़गड़ाहट सुनने से शांति मिलेगी? कि इसका यह मतलब नहीं कि शीर्षासन का फायदा नहीं हो सकता। थोड़ी बहुत शांति होगी, वह और नष्ट हो जाएगी! है एक प्रयोग, वह | | लेकिन मर्म को समझे बिना! और फिर पढ़ लिया कि बड़ा लाभ होता भी ध्यान का एक प्रयोग है। लेकिन तुम समझ तो लेते मर्म उसका! है, तो घंटों खड़े हैं शीर्षासन में। सिर्फ खोपड़ी खराब हो जाएगी। कि तुम करने ही लगे! और अब सफल हो गए, तो परेशान हो रहे | फायदा हो सकता है, लेकिन बहुत बारीक मामले हैं। और ठीक हो? अब वे सफल हो गए हैं। अब गड़गड़ाहट से छुटकारा चाहिए! प्रशिक्षित व्यवस्था के भीतर ही हो सकता है। जब आपके पूरे
बहुत-से लोग हैं, न मालूम क्या-क्या करते रहते हैं। कोई | | मस्तिष्क की जांच हो गई हो और आपके रग-रग का पता हो कि शीर्षासन कर रहा है, बिना फिक्र किए कि वह क्या कर रहा है। | कितना खून कम है। वैसे ही तो कहीं ज्यादा नहीं जा रहा है! क्योंकि किसी ने कह दिया; कि पंडित नेहरू की आत्मकथा में पढ़ जो लोग रात को नहीं सो पाते, उनका कारण ही यह है कि खून लिया; कि फलां आदमी सिर के बल खड़ा था, तो बड़ा बुद्धिमान ज्यादा जा रहा है। और मस्तिष्क में खून ज्यादा जा रहा हो, तो नींद हो गया था। .
नहीं आ सकती; इन्सोमेनिया, अनिद्रा पैदा हो जाएगी। खून की ___ इतना आसान होता बुद्धिमान होना सिर के बल खड़े होने से, तो मात्रा मस्तिष्क में कम होनी ही चाहिए, तो ही नींद आ पाएगी, तो दनिया में बद्ध पाने मश्किल थे। क्योंकि बद्ध कम से कम सिर के ही विश्राम हो पाएगा। बल तो खड़े हो ही सकते हैं। इसमें कोई ऐसी अड़चन की बात कहां | जब आप सोचते रहते हैं, तब नींद नहीं आती। क्योंकि सोचने है? निश्चित ही, लाभ हो सकता है। लेकिन मर्म को जाने बिना! | की वजह से ज्यादा खून की जरूरत पड़ती है मस्तिष्क में; तंतुओं
मस्तिष्क में अगर ज्यादा खून चला जाए, तो नुकसान हो | को चलना पड़ता है। इसलिए नींद नहीं आती। तो नींद के लिए जाएगा। कितना खून जाना जरूरी है आपके मस्तिष्क में, न आपको | | जरूरी है; विश्राम के लिए जरूरी है। पता है, न जिनसे आप सीख के आ रहे हैं, उनको पता है। लेकिन अगर आपके मस्तिष्क में कम खून जा रहा हो, तो
आपको पता है कि आदमी में बुद्धि ही इसलिए पैदा हुई, क्योंकि | थोड़ी-सी खून की झलक तेजी से पहुंचा देना फायदा भी कर सकती वह सीधा खड़ा हो गया। और मस्तिष्क में खून कम जा रहा है, | है। तो जो तंतु मुरदा हो गए हैं, वे सजीव भी हो सकते हैं। उनको इसलिए बुद्धि पैदा हो सकी। जानवरों को बुद्धि पैदा नहीं हो सकी, | खून मिल जाए। लेकिन कितना? उस मर्म को बिना समझे जो किए क्योंकि खून मस्तिष्क में ज्यादा जा रहा है। खून जब ज्यादा जाता है, | चला जाता है, वह अक्सर लाभ की जगह हानि कर लेता है। तो पतले महीन तंतु पैदा नहीं हो पाते। आदमी सीधा खड़ा हो गया; | लोग बैठ जाते हैं, कुछ भी कर लेते हैं। अध्यात्म के जगत में मस्तिष्क में खून कम जा रहा है, तो महीन, बारीक तंतु, डेलिकेट तंतु | तो बहुत अंधापन है, क्योंकि मामला अंधेरे का है। और सब पैदा हो सके। उन्हीं तंतुओं की वजह से आप बुद्धिमान हैं। | टटोल-टटोलकर चलना पड़ता है। और कोई भी मिल जाता है!
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और गुरु बनने का मजा इतना है कि आपको भी कोई मिल जाए, | आपके छोटे-से मस्तिष्क में कोई सात करोड़ सेल हैं, सात करोड़ तो आप भी बिना बताए नहीं मानते कि ऐसा करो, तो सब ठीक हो जीवंत कोष्ठ हैं! उन सात करोड़ जीवंत कोष्ठ की व्यवस्था पर सब जाएगा। आपको खुद को अभी हुआ नहीं है!
| निर्भर है-आपका होना, आपकी चेतना, आपकी बुद्धि, सोच, मेरे पास रोज ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनके सैकड़ों शिष्य हैं! | विचार, भाव-सब। अब वे मुझसे पूछने आ जाते हैं कि ध्यान कैसे करना? __ आप उलटा सिर खड़े हो गए, आपको पता नहीं कि उन सात
तम इतने शिष्य कहां से इकट्रे कर लिए हो? तम्हें खद पता नहीं करोड कोष्ठों के साथ क्या हो रहा है। कि आपने प्राणायाम शरू है, तो तुम इन्हें क्या समझा रहे हो? तो वे कहते हैं, शास्त्रों को | कर दिया। आपको पता नहीं कि उन कोष्ठों के साथ क्या हो रहा पढ़कर!
है। आपको पता नहीं कि उन कोष्ठों को कितने आक्सीजन की कृष्ण कहते हैं, मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से तो परोक्ष | | जरूरत है। और जितनी आप दे रहे हैं, उतनी जरूरत है या नहीं है! ज्ञान श्रेष्ठ है।
| क्योंकि ज्यादा आक्सीजन हो जाए, तो भी मूर्छा आ जाएगी। कम ऐसे अभ्यास में मत पड़ जाना, जिसको तुम जानते नहीं हो, हो जाए, तो भी मूर्छा आ जाएगी। जीवन एक संतुलन है, और क्योंकि अभ्यास आग से खेलना है। अभ्यास का मतलब है, कुछ बहुत बारीक संतुलन है। होकर रहेगा अब। और अगर तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं कि बिना मर्म को जाने हुए अभ्यास में हो और क्या होकर रहेगा, तो तुम कहीं ऐसा न कर लो कि अपने | तो पड़ना मत, अर्जुन। उससे तो बेहतर परोक्ष ज्ञान है। को नुकसान पहुंचा लो।
परोक्ष ज्ञान का अर्थ है. शास्त्र ने जो कहा है। शास्त्र ने जो कहा और जिंदगी बहुत जटिल है। ऐसे ही जैसे आपकी घड़ी गिर गई। | है, वह बेहतर है, बजाय इसके कि तू अभ्यास अपना करके, बिना खोलकर बैठ गए ठीक करने! तो घड़ी तो कोई बहुत जटिल चीज | मर्म को समझे, कुछ उपद्रव में पड़ जाए। उससे तो शास्त्र ने जो नहीं है। लेकिन घड़ी भी आप और खराब कर लोगे। वह घड़ीसाज | कहा है...। शास्त्र का अर्थ होता है, जिन्होंने जाना, जिन्होंने के पास ही ले जानी चाहिए। वह रुपए, दो रुपए में ठीक कर देगा। | अनुभव किया, और अपने अनुभव को लिपिबद्ध किया, कि उनके आप सौ, दो सौ की चीज ऐसे ही खराब कर लोगे।
काम आ सके, जो जानते नहीं हैं। लेकिन जब घड़ी गिरती है, तो बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी का ___ इस बात को ठीक से समझ लें। मन खोलने का होता है। क्योंकि बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी जिन्होंने जाना, जिन्होंने अनुभव किया, प्रयोग किया, अभ्यास बचकाना है। वह बच्चा जो भीतर है, क्युरिआसिटी जो है, कि जरा | किया, प्रतीत किया, जो पहुंच गए, उनके वचन हैं। सिर्फ वचन खोलकर हम ही ठीक न कर लें. जरा हिलाकर। कहां जाना? तो नहीं हैं. उनके लिए. जो नहीं जानते हैं। इसमें फर्क है। क्योंकि वे जरा हिला लें!
बोल सकते हैं, जैसा उन्होंने जाना। लेकिन अगर आपका ध्यान न कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हिलाने से ठीक हो जाती है। रखा जाए, तो उनका ज्ञान आपके लिए खतरनाक हो जाएगा। वह मगर इससे आप यह मत समझ लेना कि आप कलाकार हो गए। | इस भांति बोला गया है शास्त्र। जो अज्ञानी को खयाल में रखकर और आपको पता चल गया कि...। तो दूसरों की घड़ी मत हिलाने | | बोला गया है कि वह इससे उपद्रव न कर सके। लगना, नहीं तो बंद भी हो सकती है। कभी-कभी संयोग सफल हो जीसस ने छोटी-छोटी कहानियां कही हैं। और सभी बातें जाते हैं। कभी आपकी घड़ी बंद है। आपने जरा हिलाई। और आप | कहानियों में कही हैं। बड़ी मजे की बात है। और कहानियां इतनी समझे कि अरे! चल गई! नाहक दो-चार रुपए खराब करने पड़ते। | सरल हैं कि कोई भी समझ ले। और इतनी कठिन भी हैं कि बहुत अब हम भी जानकार हो गए। अब जहां भी घड़ी बंद दिखे, उसे | मुश्किल है समझना। पर कहानियों में इस ढंग से कहा है कि जो हिला देना।
कहानी समझेगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि भीतर क्या छिपा है। संयोग कभी-कभी जीवन में भी सफल होते हैं। कभी-कभी | वह सिर्फ कहानी का मजा लेगा; बात खतम हो जाएगी। उसे कहानी उनसे लाभ भी हो जाता है। पर उनको विज्ञान नहीं कहा जा सकता। | कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाएगी। थोड़ी उसकी समझ बढ़ेगी।
पर जिंदगी तो बहुत जटिल है। घड़ी में तो कुछ भी नहीं है। लेकिन जो कहानी में उतर सकता है गहरा, जितना गहरा उतर
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सकता है, उतना ही अर्थ बदल जाएगा। जीसस की एक-एक | सारी दुनिया को नष्ट कर देंगे। और मेरा कोई वश नहीं रहा। कहानी में सात-सात अर्थ हैं। और सात मन की स्थितियां हैं। पहली | अभी वैज्ञानिक विचार करते हैं कि हमें अपना ज्ञान छिपाना स्थिति पर सिर्फ कहानी है। उसको बच्चा भी पढ़े तो आनंदित | चाहिए अब। वह राजनीतिज्ञों के हाथ में न पड़े, क्योंकि राजनीतिज्ञों होगा। एक कहानी का मजा आएगा। बात खतम हो जाएगी। से ज्यादा नासमझ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके हाथ में ज्ञान लेकिन दूसरी स्थिति में खड़ा हुआ आदमी दूसरा अर्थ लेगा। तीसरी पड़ने का मतलब है, अज्ञानियों के, नेताओं के हाथ में ज्ञान पड़ स्थिति में खड़ा हुआ आदमी तीसरा अर्थ लेगा।
| गया। वे खतरा कर देंगे। वे उपद्रव कर देंगे। अब आज सारी दुनिया शास्त्र का अर्थ है, जो अज्ञानियों को ध्यान में रखकर लिखे गए| के पास ताकत विज्ञान ने दे दी है। और चाबी भी दे दी है। हैं। और कुंजियां इस भांति छिपाई गई हैं कि गलत आदमियों के | | शास्त्र का अर्थ है, कभी एक बार ऐसा पहले भी हो चुका है। हाथ में न पड़ जाएं। और उसी वक्त कुंजी हाथ में पड़े, जब वह | | अध्यात्म के जगत में हमने इतने ही मूल्यवान सूत्र खोज लिए थे। आदमी उसका ठीक उपयोग कर सके। उसके पहले हाथ में न पड़े। लेकिन वे हर किसी को दे देना खतरनाक है। तो उन्हें शास्त्रों में इतनी सारी व्यवस्था जहां की गई हो, उसका नाम शास्त्र है। हर | प्रकट भी किया है और छिपाया भी है। किसी किताब का नाम शास्त्र नहीं है।
शास्त्र का अर्थ है, जो प्रकट भी करता है और छिपाता भी है। शास्त्र बहुत वैज्ञानिक आयोजन है। और हजारों साल बाद भी | प्रकट उतना करता है, जितना आप आत्मसात कर लो। और उतना उसी ढंग से शास्त्र कारगर है।
| छिपाए रखता है, जितना अभी आपके काम का नहीं है। और जब लेकिन बड़ा मुश्किल है। इसलिए शास्त्र तो आप पढ़ लेते हैं, | आप एक कड़ी आत्मसात कर लेंगे, तो दूसरी कड़ी आपको दिखाई उसका अर्थ आपको पता चलता है कि नहीं, यह कहना मुश्किल | पड़नी शुरू हो जाएगी। एक सीढ़ी से ज्यादा आपको कभी दिखाई है। आपको उतना ही पता चलता है, जितना आपको पता चल | नहीं पड़ पाती। जब दूसरी सीढ़ी आप आत्मसात कर लोगे, तब सकता है। बस, उससे ज्यादा पता नहीं चलता। इसलिए फिर | | तीसरी आपको दिखाई पड़ेगी। हर कुंजी जब आप उपयोग कर शास्त्रों पर टीकाओं और व्याख्याओं की जरूरत पड़ी। क्योंकि | लोगे, तो दूसरी कुंजी आपके हाथ में दे जाएगी और दूसरा ताला जिनको ज्यादा पता चल गया उन शास्त्रों में जितना आपको पता | खुलने लगेगा। चलता था, उससे ज्यादा पता चल गया तो उन्होंने टीकाएं लिखी शास्त्र एक वैज्ञानिक व्यवस्था है। इसलिए शास्त्र साधारण हैं। लेकिन उन टीकाओं में भी उन्हीं नियमों का उपयोग किया गया | किताब का नाम नहीं है। आज तो किताबें बहुत हैं। पांच हजार है कि गलत आदमी के हाथ ज्ञान न पड़ जाए।
किताबें प्रति सप्ताह छपती हैं। इन किताबों की भीड़ में शास्त्र खो गलत आदमी अज्ञान में बेहतर है, क्योंकि अज्ञान में ज्यादा | गया। अब शास्त्र का कुछ पता लगाना मुश्किल है कि कौन-सा खतरा नहीं किया जा सकता।
शास्त्र है! आपने आमतौर से सुना होगा कि अज्ञान में खतरा होता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि न मर्म को समझकर किया हुआ अज्ञान में ज्यादा खतरा नहीं होता। लेकिन अज्ञानी के हाथ में ज्ञान | अभ्यास, उससे तो परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। हो, तो फिर ज्यादा खतरा होता है। ऐसा जैसे कि बच्चे के हाथ में __परोक्ष ज्ञान का मतलब, दूसरों ने, लेकिन जिन्होंने जाना है, तलवार दे दी। और उन्होंने उठाकर पिता की ही गरदन काट दी। वे | उनका कहा हुआ ज्ञान। उसको ही स्वीकार कर लेना उचित है। सिर्फ देख रहे थे कि तलवार काम करती है कि नहीं करती है! परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है। असली है कि नकली है!
लेकिन परोक्ष ज्ञान उधार है। शास्त्र से कितना ही पता चल जाए, ___ आज विज्ञान में यही उपद्रव खड़ा हो गया है। आज विज्ञान ने | वह आपका स्वानुभव तो नहीं है। किसी को पता चला, पतंजलि फिर कुछ कुंजियां खोज लीं। आइंस्टीन मरने के पहले कहकर मरा | | को। किसी को पता चला, वशिष्ठ को। किसी को पता चला, शंकर है कि अगर मुझे दुबारा जन्म मिले, तो मैं वैज्ञानिक नहीं होना | | को, रामानुज को। आपने सुना, उन्हें पता चला है। आपने मान चाहता। मैं एक प्लंबर हो जाऊंगा, लेकिन अब वैज्ञानिक नहीं होना | | लिया। आपकी थोड़ी बुद्धि तो बढ़ी, लेकिन आप नहीं बढ़े। चाहता। क्योंकि जो मैंने दिया है, वह उनके हाथ में पड़ गया है, जो आपका संग्रह बढ़ा, जानकारी बढ़ी, लेकिन बोध नहीं बढ़ा। बोध
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तो बढ़ेगा स्वानुभव से।
प्यारी लगती हो, आकृति प्यारी लगती हो, बुद्ध की प्रतिमा प्यारी तो कृष्ण कहते हैं, परोक्ष ज्ञान से, शास्त्र ज्ञान से मुझ परमेश्वर | | लगती हो, तो बस, इस शांत अवस्था में सिर्फ बुद्ध की प्रतिमा का के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।
स्मरण करें। इस शून्य मन में सिर्फ बुद्धि की प्रतिमा बने। या तो बेहतर है कि तू सीधा न तो अभ्यास की उलझन में पड़, | | आपको अच्छा लगता हो ओम का उच्चार, तो सिर्फ ओम का क्योंकि मर्म को बिना समझे खतरा है। न शास्त्रों की समझ में पड़, | | उच्चार भीतर गूंजने दें। या आपको अच्छा लगता हो राम-राम तो क्योंकि कितना ही समझ ले, तो भी वह दूसरे का ज्ञान होगा। और | राम-राम का उच्चार भीतर गूंजने दें। कोई भी एक चीज पकड़ लें, सेकेंड हैंड होगा। तेरे लिए नया और ताजा नहीं होगा। अपना नहीं | | जो आपको प्यारी लगती हो और प्रभु का स्मरण दिलाती हो। है, वह ताजा भी नहीं है।
ऐसा हुआ है। मैंने सुना, एक सूफी फकीर हुआ। एक सम्राट और ज्ञान के संबंध में एक बात जान लेनी जरूरी है कि जो | उसकी सेवा में आता था। और उसने उसे कहा कि तू ईश्वर का अपना नहीं है, वह अपना है ही नहीं। वह कितना ही ठीक पकड़ में | स्मरण कर। उस सम्राट को एक हीरे से बहुत प्रेम था। वह हीरा आ जाए, तो भी वह दूसरे का है। और दूसरे के ज्ञान से आपकी | | उसने बड़ी मुश्किल, बड़े युद्धों के बाद पाया था। और वह चौबीस आंख काम नहीं कर सकती। दूसरे के पैर से आप चल नहीं सकते। घंटे उसको अपने पास रखता था। दूसरे की छाती से आप श्वास नहीं ले सकते। दूसरे की प्रज्ञा ___ जब वह परमात्मा के स्मरण को बैठा, तो परमात्मा का तो स्मरण आपकी प्रज्ञा नहीं बन सकती। आपकी प्रज्ञा तो तभी बनती है, जब | न आए, उसको उसी हीरे-हीरे का ही खयाल आए। और वह हीरा सीधा ध्यान परमात्मा की तरफ लगता है।
दिखाई पड़े। तो वह वापस फकीर के पास आया। उसने कहा कि परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है। बड़ी मुश्किल हो गई है। यह हीरा मुझे बाधा डालता है। मैं कैसे तो जितनी देर आप अभ्यास में लगाते हों, उससे बेहतर है, उतना | इसका त्याग करूं! समय आप शास्त्र में लगाएं। जितना आप शास्त्र में लगाते हों, उससे तो फकीर ने कहा, तू त्याग मत कर, क्योंकि त्याग से और ज्यादा भी बेहतर है कि उतना परमात्मा के ध्यान में लगाएं। बेहतर है, | | बाधा डालेगा। तू ऐसा कर कि परमात्मा को छोड़, तु हीरे की ही किताबें बंद कर दें, आंख बंद कर लें और परमात्मा का स्मरण करें। | याद कर। तू आंख बंद कर ले और हीरे को ही देख। और सिर्फ
क्या करेंगे परमात्मा के स्मरण में? कैसे होगा परमात्मा का | इतना ही खयाल कर कि यह हीरा परमात्मा का रूप है। ध्यान? क्या करना पड़ेगा? एक छोटा-सा खयाल समझ लें। वह सम्राट चकित हुआ। उसने सोचा, फकीर कहेगा, हीरे का
कुछ भी न करें। सिर्फ लेट जाएं या बैठ जाएं और बिलकुल त्याग कर। कहां की क्षुद्र चीज में उलझा है! ढीला छोड़ दें अपने को। कुछ भी न करें, श्वास भी न लें। अपने | लेकिन फकीर निश्चित समझदार रहा होगा। सम्राट ने हीरे पर आप जितनी चलती है, चलने दें। एक पांच मिनट तो सिर्फ इतना ध्यान करना शुरू कर दिया। जब हीरे पर ध्यान किया, तो हीरे ने ही ध्यान रखें कि मैं कुछ न करूं, सिर्फ पड़ा रहूं मुर्दे की भांति। | बाधा डालनी बंद कर दी, स्वभावतः। बाधा वह इसलिए डालता था
एक पांच मिनट में सिर्फ अपने को शांत कर लें। दस मिनट, कि कहां जा रहे हो? जब कहीं जाने की कोई बात न रही, तो हीरे पंद्रह मिनट, जितनी देर आपको लगे। सिर्फ शांत पड़ जाएं, जैसे ने बाधा डालनी बंद कर दी। और कुछ था नहीं उसका उलझाव; मर्दा हैं. आप हैं ही नहीं। सारी क्रिया को शिथिल छोड दिया. एक हीरा ही था। और हीरे में वह परमात्मा को अनुभव करने लगा। रिलैक्स कर दिया। और जब यह सब शिथिल और शांत हो जाए, | थोड़े ही दिनों में हीरा खो गया और परमात्मा ही शेष रह गया। सिर्फ श्वास ही सुनाई पड़े...। कभी-कभी कोई विचार मन में तैर तो जो भी आपका हीरा हो, आपकी पत्नी का चेहरा हो, आपके जाएगा। कभी कोई चींटी काटती है, तो पता चलेगा। कभी कोई | बेटे की आंख हो, आपके मित्र की छवि हो, कृष्ण का रूप हो, राम बाहर से आवाज आएगी, तो भनक पड़ेगी। मगर आप अपनी तरफ | का हो, जीसस का हो-आपका जहां सहज रुझान हो—कुछ भी से बिलकुल शांत पड़े हैं, जैसे हैं ही नहीं।
| हो। और कुछ भी न हो, तो अपनी ही फोटो। वह तो कम से कम ___ इस क्षण में सिर्फ एक ही भावना करें। आपके मन में जो भी इष्ट | | होगी। तो आईने में अपनी शक्ल देख ली। आंख बंद कर लिया हो, जिस परमात्मा का जैसा नाम आपको प्यारा लगता
और कहा कि यह परमात्मा का रूप है। उसी पर...। उससे भी
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पहुंच जाएंगे। कुछ घबड़ाना मत कि अपनी ही तस्वीर कैसे! | लेकिन आप अपने सिर पर भी रखकर बैठे रहें, तो भी ट्रेन पर __अपना ही नाम भी, अगर आपको वही प्यारा हो, तो फिर राम का ही बोझ पड़ रहा है। आप भी झेल रहे हैं, यह मुफ्त में। इसको नीचे नाम लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जो प्यारा ही नहीं है, उसको रखा जा सकता है। यह ट्रेन लिए जा रही है। लेकर कुछ फायदा नहीं होगा। प्रेम के बिना कुछ फायदा नहीं होगा। परमात्मा के ऊपर सब छोड़ते ही आप निर्बोझ हो जाते हैं। इसका __ आपको अगर अपना ही नाम जंचता हो...। सबको जंचता है।। यह अर्थ नहीं कि जो बोझ था, वह आप ढो रहे थे। आप अकारण
और दिल होता है कि कहां राम-राम कर रहे हैं! अपना ही नाम | ढो रहे थे। परमात्मा उसे ढो ही रहा है। दोहराएं। कोई हर्जा नहीं है, उसी को दोहराना। और समझना कि ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब कर्म को जो छोड़ देता मेरे ऊपर, यह परमात्मा का नाम है। और आप थोड़े ही दिन में पाओगे कि | वह श्रेष्ठतम है। उसे तो फिर ध्यान की भी जरूरत नहीं है। उसे तो आप खो गए और परमात्मा बच रहा।
फिर कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। एक ही बात कर ली कि सब परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है। ध्यान हो गया। एक करने से सब हो जाता है, कि वह परमात्मा पर छोड़ से भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग करना। देता है। त्याग से तत्काल परम शांति होती है। होगी ही।
क्योंकि ध्यान भी आपका कर्म है। आपको लगता है, मैं ध्यान कर लेकिन त्याग का मतलब आप यह मत समझ लेना कि घर छोड़ रहा हूं। इतनी अड़चन बनी रहती है। मैं ध्यानी हूं, और मैंने ध्यान | | दिया, मकान छोड़ दिया, कपड़े छोड़ दिए, भाग गए। वह त्याग का किया परमात्मा का। तो वह भीतर मैं की सक्षम रेखा बनी रहती है। मतलब नहीं है। उस त्याग में तो त्याग आपको पकड़े ही रहेगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, उससे भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का और आप जहां भी जाओगे, खबर करोगे कि मैं सब त्याग करके त्याग करना। और त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है। सब आ रहा हूं। वह मैं त्याग करके आ रहा हूं, साथ जाएगा। कर्मों के त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है।
नहीं; त्याग का गहन अर्थ है कि मैं कर नहीं रहा हूं; मैं कर भी जैसे ही कोई सब प्रभु पर छोड़ देता है, अशांत होने का सारा | | नहीं सकता हूं; जो करने वाला है, वह वही है। मैं नाहक ही बीच कारण ही खो जाता है। अगर अशांति चाहिए, तो सब अपने सिर में...। पर रखना। दूसरों का भी उतारकर अपने सिर पर रख लेना। सारी | मैंने सुना है कि रथ निकलता था पुरी में और एक छोटा कुत्ता रथ दुनिया में जो-जो तकलीफें हैं, उनको अपने सिर पर रख लेना। तो के आगे चलने लगा। और सब लोग नमस्कार कर रहे थे और रथ अशांति आपकी आप कुशलता से बढ़ा सकोगे।
| के सामने गिर-गिरकर साष्टांग दंडवत कर रहे थे। उस कुत्ते ने कहा __ और करीब-करीब इसी तरह लोग बढ़ाए हुए हैं। सारी दुनिया कि अरे! बेचारे! वह सबको मन ही मन आशीर्वाद देता रहा, खुश की तकलीफें, सारी दुनिया का बोझ, आप अकेले के सिर पर पड़ रहो। मगर क्यों इतने परेशान हो रहे हो! गया है। अगर यह बोझ कम करना हो और शांति चाहिए हो, तो उसकी अकड़ बढ़ती चली गई। उसे लगा कि मेरे लिए रथ यह परमात्मा पर छोड़ देना।
निकल रहा है। मेरे लिए सारे लोग दंडवत कर रहे हैं। गजब हो और आप नाहक ही परेशान हो रहे हो। बोझ आपके सिर पर है | गया। वैसे मैं जानता तो था पहले ही से कि मेरी हालत इतनी ऊंची नहीं। आपकी हालत उस देहाती आदमी जैसी है, जो पहली दफा है! लेकिन दुनिया स्वीकार नहीं करती थी। अब सब ने स्वीकार कर
ट्रेन में सवार हुआ था। तो उसने अपना सब बिस्तर-बोरिया अपने | लिया है। सिर पर रख लिया था। उसने सोचा कि टिकट तो मैंने केवल अपनी रात कुत्ता सो नहीं सका होगा। और हार्टफेल हो गया हो, तो ही दी है। और यह बिस्तर-बोरा ट्रेन में रखं, तो पता नहीं, कोई आ | | कुछ आश्चर्य नहीं। जाए और कहे कि कहां रखा है। इसे अपने सिर पर ही रखना ठीक | पर हम सब की हालत भी यही है। हम सब ऐसे ही चल रहे हैं है। और
ह भी सोचा कि इतने आदमियों का बोझ वैसे कि रथ हमारे लिए चल रहा है। यह सारा जगत हमारे लिए चल ही ट्रेन पर है, मैं भी चढ़ा हूं, और इस वजन का, इस बिस्तर का | रहा है! बड़े परेशान हो रहे हैं। नाहक ही परेशान हो रहे हैं। बिना बोझ भी और बढ़ जाए, तो कहीं ट्रेन रुक ही न जाए। तो अपने सिर | कारण परेशान हो रहे हैं। पर रख लें।
ईश्वर-समर्पण का अर्थ है कि ये परेशानियां मैं छोड़ता हूं। यह
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
सब मेरे लिए नहीं चल रहा है। यह सब मैं नहीं चला रहा हूं। मैं व्यर्थ ही परेशान हो रहा हूं। इसलिए धार्मिक आदमी परम शांत हो जाता है, क्योंकि सब परमात्मा कर रहा है। वह अपने को करने के भाव से मुक्त कर लेता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अकर्मण्य हो जाता है। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि वह छोड़ देता है उस पर। वह काम लेना चाहे, तो काम ले। कर्म लेना चाहे, तो कर्म ले। और अकर्मण्य करके बिठालना चाहे, तो अकर्मण्य करके बिठाल दे।
अपनी तरफ अब उसकी कोई भी स्वयं की चेष्टा नहीं है। अब वह बहता है नदी की धारा में, जहां नदी ले जाए। डुबा दे, तो वह डुबाना भी उसके लिए किनारा है।
पांच मिनट रुकें। कोई बीच से न उठे। दो-तीन बातें खयाल रखें। कुछ लोग आकर बीच में बैठ जाते हैं; फिर बीच से उठकर जाने की कोशिश करते हैं। बाहर बैठें; जाना हो तो किनारे पर बैठे।
और कीर्तन के समय कोई भी उठे न। पांच मिनट कीर्तन करने के बाद जाएं।
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अध्याय 12 सातवां प्रवचन
परमात्मा का प्रिय
कौन
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। हमें थोड़ा-थोड़ा पता है। नौ हिस्सा मन का भी हमें पता नहीं है। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ।। १३ ।। | मन भी अभी ज्ञात नहीं है। अभी सीमित को भी हम नहीं जान पाए
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । हैं, तो असीम को जानने में कठिनाई होगी। मय्यर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रियः ।। १४ ।। निराकार शब्द तो खयाल में आ जाता है, लेकिन अर्थ बिलकुल इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में | खयाल में नहीं आता। अगर कोई आपसे कहे, यह जो आकाश है, द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित | अनंत है, तो भी मन में ऐसा ही खयाल बना रहता है कि कहीं न दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और | कहीं जाकर समाप्त जरूर होता होगा। कितनी ही दूर हो वह सीमा,
सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात लेकिन कहीं समाप्त जरूर होता होगा। समाप्त होता ही नहीं है, यह अपराध करने वालों को भी अभय देने वाला है तथा जो बात मन को बिगूचन में डाल देती है; मन घबड़ा जाता है। मन योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ-हानि में संतुष्ट है विक्षिप्त होने लगता है, अगर कोई भी सीमा न हो। मन की तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे तकलीफ है। में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए | मन की व्यवस्था सीमा को समझने के लिए है। इसलिए निराकार मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। | को पकड़ना कठिन हो जाता है।
सुना है मैंने, एक सम्राट अपने एक प्रतिद्वंद्वी को, जिससे
प्रतिद्वंद्विता थी एक प्रेयसी के लिए, द्वंद्व में उतरने की स्वीकृति दे पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि निराकार | दिया। द्वंद्व का समय भी तय हो गया। कल सुबह छः बजे गांव के की साधना इतनी कठिन क्यों है?
बाहर एकांत निर्जन में वे अपनी-अपनी पिस्तौल लेकर पहुंच जाएंगे। और दो में से एक ही बचकर लौटेगा। तो प्रेयसी की कलह
और झगड़ा शेष न रहेगा। नराकार शब्द भी समझ में नहीं आता। निराकार शब्द सम्राट तो पहुंच गया ठीक समय पर; समय से पूर्व; लेकिन IUI भी हमारे मन में आकार का ही बोध देता है। असीम दूसरा प्रतिद्वंद्वी समय पर नहीं आया। छः बज गया। छः दस बज
___भी हम कहते हैं, तो ऐसा लगता है, उसकी भी सीमा | गए; छ: पंद्रह, छः बीस-बेचैनी से प्रतीक्षा रही। तब एक होगी-बहुत दूर, बहुत दूर-लेकिन कहीं उसकी भी सीमा होगी। | घुड़सवार दौड़ता हुआ आया प्रतिद्वंद्वी का एक टेलीग्राम, एक मन असीम का खयाल भी नहीं पकड़ सकता। मन का द्वार इतना | संदेश लेकर। छोटा है, सीमित है कि उससे अनंत आकाश नहीं पकड़ा जा थोड़े से वचन थे उस टेलीग्राम में; लिखा था, अन-एवायडेबली सकता। इसलिए निराकार की साधना कठिन है। क्योंकि निराकार डिलेड, बट इट विल बी ए सिन टु डिसएप्वाइंट यू, सो प्लीज डोंट की साधना का अर्थ हुआ, मन को अभी इसी क्षण छोड़ देना पड़ेगा, | | वेट फार मी, शूट। अनिवार्य कारणों से देरी हो गई। न पहुंचूंगा, तो तो ही निराकार की तरफ गति होगी।
आप निराश होंगे। इसलिए मेरी प्रतीक्षा मत करें, आप गोली चलाएं। मन से तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वह आकार होगा। और मन से | लेकिन गोली किस पर चलाएं? जो उस राजा की अवस्था हो जहां तक पहुंच होगी, वह सीमा और गुण की होगी। मन के तराजू | | गई होगी, वही निराकार के साधक की होती है। किस पर? किसकी पर निराकार को तौलने का कोई उपाय नहीं है। जो तौला जा सकता | | पूजा? किसकी अर्चना? किसके चरणों में सिर झकाएं ? किसको है, वह साकार है। और हम मन से भरे हैं। हम मन ही हैं। मन के पुकारें? किस पर ध्यान करें? किसका मनन? किसका चिंतन ? अतिरिक्त हमारे भीतर कुछ है, इसका हमें कोई पता नहीं। कहते हैं कोई भी नहीं है वहां! वह राजा भी बिना गोली चलाए वापस लौट आत्मा की बात सुनते हैं, लेकिन आपको उसका कुछ पता नहीं आया होगा! है। पता तो मन का है। उसका भी पूरा पता नहीं है।
निराकार का अर्थ है, वहां कोई भी नहीं है, जिससे आप संबंधित मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दस में से केवल एक हिस्सा मन का हो सकें। और मनुष्य का मन संबंध चाहता है। आप अकेले हैं!
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निराकार का अर्थ हुआ कि आप अकेले हैं; वहां कोई भी नहीं है। | को मान ही रखा है कि हम मन हैं। इसलिए मन को उतारकर रखना आपके सामने।
अपने को ही उतारकर रखना है। अपने से ही खाली हो जाना है। इसलिए अति कठिन है। कल्पना में भी दूसरा हो, तो हम | अपनी ही हत्या है। संबंधित हो पाते हैं। न भी हो वहां दूसरा, हमें सिर्फ खयाल हो कि इसलिए निराकार के साधकों ने, खोजियों ने कहा है कि जब तक दूसरा है, तो भी हम बात कर पाते हैं; तो भी हम रो पाते हैं; तो भी | | अमनी, नो-माइंड, अमन की स्थिति न हो जाए, तब तक निराकार हम नाच पाते हैं।
की बात का कोई अर्थ ही समझ में नहीं आएगा। यह मन, दूसरा हो, तो संबंधित हो जाता है, और गतिमान हो सगुण के साथ अड़चन मालूम पड़ती है, अहंकार के कारण। पाता है। दूसरा न हो, तो अवरुद्ध हो जाता है। कोई गति नहीं रह | साकार के साथ बुद्धि विवाद करती है। तो आदमी कहता है कि जाती है। इसलिए निराकार कठिन है।
नहीं, मेरे लिए तो निराकार है। यह साकार से बचने का उपाय है निराकार की कठिनाई निराकार की नहीं, आपके मन की | सिर्फ कि मेरे लिए तो निराकार है। कठिनाई है। अगर आप मन छोड़ने को राजी हों, तो निराकार फिर लेकिन पता है कि निराकार की पहली शर्त है कि अपने मन को कठिन नहीं है। फिर तो साकार कठिन है। अगर मन छोड़ने को | छोड़ें! उसी मन की मानकर तो साकार को छोड़ रहे हैं, और आप राजी हों, फिर साकार कठिन है। क्योंकि मन के बिना आकार | | निराकार की बात कर रहे हैं। और जब कोई आपको कहेगा कि नहीं बनता।
| निराकार का अर्थ हुआ कि अपने मन की आकार बनाने वाली इसका यह अर्थ हुआ कि सारा सवाल आपके मन का है। कीमिया को बंद करें, हटाएं इस मन को। तब आपको अड़चन शुरू इसलिए आप इसको ऐसा मत सोचें कि निराकार को चुनें कि हो जाएगी। आकार को चुनें। यह बात ही गलत है। आप तो यही सोचें कि मैं बहुत-से लोग हैं, जिन्होंने साकार को छोड़ दिया है निराकार के मन को छोड़ सकता हूं या नहीं छोड़ सकता हूं। अगर नहीं छोड़ पक्ष में; और निराकार में उतरने की उनकी कोई सुविधा नहीं बनती। सकता हूं, तो निराकार के धोखे में मत पड़ें। आपका निराकार झूठा जब भी कुछ छोड़ें, तो सोच लें कि जिस विपरीत के लिए छोड़ रहे होगा। फिर उचित है कि आप साकार से ही चलें। अगर आप मन हैं, उसमें उतर सकेंगे? अगर न उतर सकते हों, तो छोड़ने की जल्दी को छोड़ सकते हों, तो साकार की कोई भी जरूरत नहीं है। आप | | मत करें। निराकार में खड़े ही हो गए।
पर हम बहुत होशियार हैं। हमारी हालत ऐसी है, जैसे मैंने सुना साकार भी छूट जाता है, लेकिन क्रमशः। साकार की प्रक्रिया का | है कि एक शेखचिल्ली एक दुकान पर गया है। और उसने कहा कि अर्थ है कि धीरे-धीरे आपके मन को गलाएगा। और एक ऐसी घड़ी | यह मिठाई क्या भाव है? तो दुकानदार ने कहा, पांच रुपया सेर। तो आएगी कि मन पूरा गल जाएगा, और आप मन से छुटकारा पा उसने कहा, अच्छा, एक सेर दे दो। जाएंगे। जिस दिन मन छूटेगा, उसी दिन साकार भी छूट जाएगा। ___जब वह तौल चुका था और पुड़िया बांध चुका था और ग्राहक को जब तक मन है, तब तक साकार भी रहेगा।
दे रहा था, तब उसने कहा, अच्छा, इसे तो रहने दो। मेरा मन बदल तो साकार एक ग्रेजुअल प्रोसेस, एक क्रमिक विकास है। और गया। यह दूसरी मिठाई क्या भाव है? तो उसने कहा, यह ढाई रुपए निराकार छलांग है. सडेन. आकस्मिक। अगर आपकी तैयारी हो सेर है। तो उसने कहा. दो सेर. इसकी जगह वह तौल दो। आकस्मिक छलांग लगाने की, कि रख दिया मन और कूद गए, तो उसने दो सेर मिठाई तुलवा ली और चलने लगा। जब चलने निराकार कठिन नहीं है। पर रख सकेंगे मन? कपड़े जैसा नहीं है। | लगा, तो दुकानदार ने पूछा कि पैसे? तो उसने कहा कि मैंने तो यह कि उतारा और रख दिया। चमड़ी जैसा है; बड़ी तकलीफ होगी। | उस मिठाई के बदले में ली है; तो पैसे किस बात के? चमड़ी से भी ज्यादा तकलीफ होगी। अपनी चमड़ी निकालकर कोई | तो उस दुकानदार ने कहा, और उस मिठाई के पैसे? उसने कहा, रखता हो, उससे भी ज्यादा तकलीफ होती है, जब कोई अपने मन | जो मैंने ली ही नहीं, उसके पैसे मांगते हैं? को निकालकर रखता है। क्योंकि मन और भी चमड़ी से भी गहरा । साकार और निराकार के बीच में हम ऐसे ही गोते खाते रहते हैं। भीतर है। हड्डी-हड्डी, एक-एक कोष्ठ से जुड़ा है। और हमने अपने | जब निराकार का सवाल उठता है, तब हम कहते हैं कि नहीं, यह
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गीता दर्शन भाग-6
अपने बस की बात नहीं है। साकार ही ठीक होगा। और जब साकार की बात उठती है, तो हम कहते हैं कि कैसे मानें कि परमात्मा का कोई आकार हो सकता है। तब बुद्धि विचार उठाने लगती है । और कैसे मानें कि परमात्मा की कोई देह हो सकती है। और कैसे मानें कृष्ण को कैसे मानें बुद्ध को कि ये भगवान हैं !
नहीं, मन मानने का नहीं होता। हमारे जैसी ही हड्डी, मांस, मज्जा है । हमारे जैसा ही शरीर है। हम जैसे ही जीते हैं, मर जाते हैं, तो कैसे मानें कि ये भगवान हैं! नहीं, इनको नहीं मान सकते। भगवान तो निराकार है।
जब साकार में उतरने का सवाल उठे, तब बुद्धि से हम निराकार की बात करते हैं। और जब निराकार में उतरना हो, तब हिम्मत नहीं जुती; तब हम साकार का सोचने लगते हैं। इसको मैं बेईमानी कहता हूं। और जो व्यक्ति इसको ठीक से नहीं पहचान लेता, वह जिंदगीभर ऐसे ही व्यर्थ शक्ति और समय को गंवाता रहता है।
सोच लें ठीक से कि आपकी सामर्थ्य क्या है, और अपनी सामर्थ्य के अनुसार चलें । परमात्मा कैसा है, इसकी फिक्र छोड़ें। आपसे कौन पूछ रहा है कि परमात्मा कैसा है! और आपके तय करने के लिए परमात्मा रुका नहीं है। और आप क्या तय करेंगे, इससे परमात्मा में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप मानें निराकार, मानें साकार, इससे परमात्मा में क्या फर्क पड़ेगा! आपकी मान्यता आप में फर्क पड़ेगा।
तो अपनी तरफ सोचें कि मैं जैसा मानूंगा, वैसा मानने से मुझमें क्या फर्क पड़ेगा !
एक मित्र एक पंद्रह दिन हुए मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको भगवान नहीं मान सकता। मैंने कहा, बिलकुल अच्छी बात है। बात खतम हो गई। अब क्या इरादा है ? तो उन्होंने कहा, मैं तो ज्यादा से ज्यादा आपको मित्र मान सकता हूं। मैंने कहा, यह भी बड़ी कृपा है! ऐसा आदमी भी खोजना कहां आसान है, जो किसी को मित्र भी मान ले ! यह भी बात पूरी हो गई। तब वे मुझसे कहने लगे कि मेरी सहायता करिए। मुझे शांति चाहिए, आनंद चाहिए, और मुझे परमात्मा का दर्शन चाहिए। आपकी कृपा हो, तो सब हो सकता है।
तो मैंने उनको पूछा कि एक मित्र की कृपा से यह कुछ भी नहीं हो सकता। मित्र की तो कृपा ही क्या हो सकती है! आप मुझसे मांग तो ऐसी कर रहे हैं, जो भगवान से हो सके ! कि आपको शांति दे दूं, आनंद दे दूं, सत्य का ज्ञान दे दूं । मांग तो आप ऐसी कर रहे हैं,
जो भगवान से हो सके। लेकिन किसी को भगवान मानने की मर्जी भी नहीं है। तो मित्र से जितना हो सकता है, उतना मैं करूंगा । और जिस दिन उतना चाहिए हो जितना भगवान से हो सकता है, उस दिन तैयारी कर के आना कि मैं भगवान हूं। तभी मांगना ।
मैं भगवान हूं या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं अपनी जिंदगी में ? क्या रूपांतरण | चाहते हैं? उसको ध्यान में रखें। यहां मेरे पास बहुत-से प्रश्न हैं कि कृष्ण को हम भगवान नहीं मान सकते! बुद्ध को हम भगवान नहीं मान सकते!
तुमसे कह कौन रहा है? तुम नाहक परेशान हो रहे हो। न कृष्ण तुमसे कह रहे हैं; न बुद्ध तुमसे कह रहे हैं। और तुम्हारे कहने पर उनका होना कोई निर्भर भी नहीं है। यह कोई वोट का मामला थोड़े ही है, कि आपकी वोट मिलेगी, तो कृष्ण भगवान हो पाएंगे !.
आप अकारण परेशान हैं। आप अपना सोचें कि कृष्ण से कितना लाभ लेना है! अगर कृष्ण से भगवान जैसा लाभ लेना है, तो भगवान मान लें। और न लेना हो, तो बात खतम हो गई। यह आपका ही लाभ और आपकी ही हानि और आपकी ही जिंदगी का सवाल है। इससे कृष्ण का कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन लोग बड़े परेशान होते हैं। लोग दूसरों के लिए परेशान | हैं कि कौन क्या है ! इसकी बिलकुल चिंता नहीं है कि मैं अपनी फिक्र करूं, जिंदगी बहुत थोड़ी है।
एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आए। और वे कहने लगे, एक ही | बात आपसे पूछनी है। सच में आप भगवान हैं? आपने ही दुनिया बनाई है ?
तो मैंने उनको कहा कि आप जरा पास आ जाएं। क्योंकि यह मामला जरा गुप्त है। और मैं सिर्फ कान में ही कह सकता हूं। और एक ही शर्त पर कि आप किसी और को मत बताना।
वे बड़ी प्रसन्नता से पास हट आए। बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते हैं। बुद्धि नहीं बढ़ती। उन्होंने कान मेरे पास कर दिया। मैंने उनसे कहा, बनाई तो मैंने ही है यह दुनिया। लेकिन दुनिया की हालत देख रहे हैं कितनी खराब है ! कि किसी से कह नहीं सकता हूं कि मैंने बनाई है। और आप किसी को बताना मत। वह जिसने बनाई है, वही फंस जाएगा ! हालत इतनी खराब है।
तो आपसे भगवान इसीलिए छिपा फिरता है कि अगर कहीं भी किसी ने कहा कि मैं हूं, तो आप गर्दन पकड़ लेंगे कि तुम ही हो ? यह | दुनिया तुम्हीं ने बनाई है? तो कौन जुर्मी होगा इस दुनिया के लिए!
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तो तुमको बताए देता हूं, लेकिन किसी को कहना मत। अगर देश में प्रचार भी किया। किंतु इस सब के बावजूद भी कहा, तो मैं बदल जाऊंगा। लेकिन मैंने उन बूढ़े सज्जन से पूछा कि आज भक्ति-भाव से देश रिक्त दिखाई पड़ता है। क्या इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा कि किसने दुनिया बनाई, किसने नहीं | कारण है? बनाई ? और मैं कह दूं, हां और न। इससे तुम्हें होगा क्या? मौत करीब आ रही है, एक क्षण का कोई भरोसा नहीं है, तुम्हारे हाथ-पैर हिलने शुरू हो गए हैं। और तुम अभी बच्चों की बातों में पड़े हो? | | नरसी को, या रैदास को, या दादू को, या कबीर को कुछ फिक्र करो अपनी!
UI जो मिला है, वह उनके प्रचार से आपको नहीं मिल बुद्धिमान आदमी वह है, जो अपनी फिक्र कर रहा है। नासमझ | सकता। धर्म प्रचार से नहीं मिलता। धर्म कोई वह है, जो व्यर्थ की बातों में पड़ा है। और कई बार हम समझते हैं | | राजनीति नहीं है कि प्रचार से फैला दी जाए। कि व्यर्थ की बातें बड़ी कीमती हैं, बड़ी कीमती हैं। क्या कीमत है। कबीर प्रचार करते भी नहीं। कबीर तो केवल खबर दे रहे हैं कि इस बात की?
जो उन्हें मिला है, वह तुम्हें भी मिल सकता है। लेकिन कबीर के एक बात सदा ध्यान में रखें कि जो भी आप मानना चाहते हों, । | कहने से नहीं मिल जाएगा। कबीर ने जो किया है, वह तुम्हें भी जो भी करना चाहते हों, जो भी धारणा बनाना चाहते हों, उससे करना पड़ेगा, तो ही मिलेगा। आपको क्या होगा? क्या आप बदल सकेंगे? आपकी नई जिंदगी | | भक्ति दी नहीं जा सकती। ज्ञान हस्तांतरित नहीं होता। यह कोई शुरू होगी? आपका पुराना कचरा बहेगा, जल जाएगा? आपको | | दे नहीं सकता कि लो, ले जाओ; यह ज्ञान रहा। बाप मरे, तो बेटे कोई नई ज्योति मिलेगी? इसका खयाल करें।
| को दे दे। गुरु मरे, तो शिष्य को दे दे। ट्रांसफरेबल नहीं है। __ अगर निराकार से मिलती हो, तो निराकार की तरफ चल पड़ें। __ अनुभव तो कबीर के साथ कबीर का मर जाएगा। जिन्होंने कबीर
अगर साकार से मिलती हो, तो साकार की तरफ चल पड़ें। जहां से | की बात सुनकर कर ली होगी, उनके भीतर फिर पैदा हो जाएगा। मिलती हो आनंद की किरण, वहां चल पड़ें। चलने से यात्रा पूरी | लेकिन यह कबीर वाला ज्ञान नहीं है। यह इनका अपना ज्ञान है, जो होगी, बैठकर सोचने से यात्रा पूरी नहीं होगी।
पैदा होगा। कुछ लोग जिंदगीभर विचार ही करते रहते हैं कि साकार कि कबीर के दीए से अगर आप अपना दीया जला लें, तो ही! कबीर आकार कि निराकार; निर्गुण कि सगुण; कि कृष्ण, कि राम, कि के प्रचार से नहीं। कबीर के कहने से नहीं। कबीर की किताबों को क्राइस्ट!
सम्हालकर पढ़ लेने से नहीं। उससे कुछ भी न होगा। आप मूल कब तक सोचते रहेंगे? सोचने से कोई यात्रा नहीं होती। चलें। बात तो चूक ही रहे हैं। और मैं मानता हूं, गलत भी चल पड़ें, तो हर्जा नहीं है; क्योंकि - इस मुल्क में इस मुल्क में ही नहीं, सारी जमीन पर, सभी गलत से भी सीखने मिलेगा। और गलत चल पड़े, तो कम से कम मुल्कों में भक्त हुए, ज्ञानी हुए। उन्होंने जो पाया, वह कहा भी। जो चले तो। चलना तो कम से कम आ ही जाएगा, गलत रास्ते पर ही नहीं कहा जा सकता था, उसको भी कहा। जिसको कहना बिलकुल सही। वह चलना हाथ में होगा, तो कभी सही रास्ते पर भी चल असंभव था, उसको भी शब्दों में बांधने की अथक कोशिश की। सकते हैं। लेकिन साहस बिलकुल चलने का नहीं है। और हम सिर पटका आपके सामने। आपने सुना भी। पहले तो आपने कभी सिर्फ सिर में ही, खोपड़ी के भीतर ही चलते रहते हैं। उस चलने से भरोसा नहीं किया कि ये जो कहते हैं, वह ठीक होगा। कुछ भी न होगा।
कौन कबीर पर भरोसा करता है? मन में आपको ऐसा ही लगा रहता है कि पता नहीं, यह आदमी होश में है या बेहोश है? यह जो
कह रहा है, सच है कि झूठ है? यह जो कह रहा है, यह सपना है एक मित्र ने पूछा है, अनेक-अनेक दुर्लभ भक्त या अनुभव है? आपको यह शक तो बना ही रहता है। हुए-चैतन्य, मीरा, कबीर, रैदास, तुलसी, | आप हजार तरकीब से यह तो कोशिश करते ही रहते हैं कि कहीं नरसी-और उन्होंने व्यापक पैमाने पर भक्ति का सारे न कहीं कोई भूल-चूक कबीर से हो गई है। क्योंकि जो हमको नहीं
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हुआ, वह इसको कैसे हो सकता है? और हम जैसे बुद्धिमान को | जाएगी। आप उसको कहां सम्हालकर रखेंगे? वह तो आपका भी नहीं हुआ, तो ये कबीर जैसे गैर पढ़े-लिखे आदमी को हो गया! | | दीया जल जाए, आप में भी ज्योति जल जाए, तो!
काशी के पंडितों को बड़ा शक था कि यह कबीर को हो नहीं लेकिन हम संतों के आस-पास संप्रदाय बना लेते हैं। मंदिर खड़े सकता। कैसे हो
होगा? इतने शास्त्र हम जानते हैं और हम को नहीं कर लेते हैं. मस्जिद बना लेते हैं. गरुद्वारे खडे कर लेते हैं। और हुआ! किसी के पास धन है; वह सोचता है, इतना धन मेरे पास है | | संतों को उन्हीं में दफना देते हैं। बात खतम हो गई। उनसे छुटकारा
और मुझको नहीं हुआ और इसको हो गया! जरूर कहीं कोई हो गया! गड़बड़ है। यह जुलाहा या तो बहक गया, या दिमाग इसका खराब | संतों से छुटकारे के दो रास्ते हैं, या तो उनको सूली लगा दो, हो गया!
और या उनकी पूजा करने लगो। बस, दो ही उपाय हैं उनसे छुटकारे लेकिन कबीर जैसे लोग सुनते नहीं इस तरह के लोगों की। वे | के। सूली लगाने वाला भी कहता है, झंझट मिटी। पूजा करने वाला कहे ही चले जाते हैं, कहे ही चले जाते हैं। पहले लोग हंसते हैं, | भी कहता है कि चलो, फूल चढ़ा दिए दो, झंझट मिटी, तुमसे पहले लोग अविश्वास करते हैं। फिर नहीं मानते, तो कुछ न कुछ | छुटकारा हुआ। अब हम अपने काम पर जाएं! . मानने वाले भी मिल जाते हैं। और कबीर कहे ही चले जाते हैं, तो | जरूर इतने संत हुए हैं, लेकिन कहीं कोई प्रभाव दिखाई नहीं फिर कुछ लोग कहने लगते हैं कि हो ही गया होगा! इतने दिन तक पड़ता। इसका कारण यह नहीं है कि संतों को जो हुआ था, वह आदमी कहता है।
असत्य है। इसका कारण यह है कि हम असाध्य बीमारियां हैं। लेकिन कोई भी प्रयोग करने को राजी नहीं होता है कि यह जो कितने ही संत हों, हम अपनी बीमारी को इतने जोर से पंकड़े हुए हैं कह रहा है, वह हम भी करके देख लें। क्योंकि प्रयोग करके देखने कि हम उनको असफल करके ही रहते हैं। यह हमारी सफलता का का मतलब तो जीवन को बदलना है। वह कठोर बात है। वह परिणाम है, यह जो दिखाई पड़ रहा है! हम सफल हो रहे हैं। और श्रमसाध्य है। इसलिए हम सुन लेते हैं कबीर को और उनकी वाणी | हमारी संख्या बड़ी है, ताकत बड़ी है। को संगृहीत कर लेते हैं। और फिर विश्वविद्यालय में उस पर और मजा यह है कि अज्ञान में जीने के लिए कोई श्रम नहीं करना शोधकार्य और रिसर्च और डाक्टरेट बांटते रहते हैं। बस, इतना | पड़ता। इसलिए हम उसमें मजे से जी लेते हैं। ज्ञान में जीने के लिए उपयोग होता है!
श्रम करना पड़ता है। ज्ञान चढ़ाई है पर्वत के शिखर की तरफ। हम बड़े मजे की बात है कि जो पंडित कबीर को सुनने नहीं जा सकते समतल जमीन पर मजे से बैठे रहते हैं। समतल पर भी कहना ठीक थे. वे सब पंडित विश्वविद्यालयों में डाक्टरेट कबीर पर लेकर और नहीं है। हम तो खाई की तरफ लढकते रहते हैं। वहां कोई मेहनत बड़े-बड़े पदों पर बैठ जाते हैं। कबीर को कोई विश्वविद्यालय नहीं लगती। गड्ढे की तरफ गिरने में कोई मेहनत है?. डाक्टरेट देने को राजी नहीं हो सकता था। लेकिन कबीर पर सैकड़ों श्रम से हम बचते हैं। और अध्यात्म सबसे बड़ा श्रम है। इसलिए लोग शोध करके डाक्टर हो जाते हैं। और इन डाक्टरों में से एक | दुनिया में बुद्ध होते हैं, महावीर होते हैं, क्राइस्ट, मोहम्मद होते हैं, भी, कबीर अगर मौजूद हो, तो उसके पास जाने को तैयार नहीं हो खो जाते हैं। हम मजबूत हैं, वे हमें हिला भी नहीं पाते। हम अपनी सकता। क्योंकि ये पढ़े-लिखे सुसंस्कृत लोग, यह कबीर, गैर | जगह अडिग बने रहते हैं। पढ़ा-लिखा, जुलाहा, इसके पास...!
फिर अध्यात्म के साथ कुछ कारण हैं। पहला तो कारण यह है हमें लगता है, इतने संत हुए, फिर भी दुनिया संतत्व से खाली कि अध्यात्म कोई बाह्य संपत्ति नहीं है, जो संगृहीत हो सके। अगर क्यों है?
आपके पिता मरेंगे, तो जो मकान बनाएंगे, वह आपके पास छूट संत दुनिया को संतत्व से नहीं भर सकते। संत तो केवल खबर | जाएगा। जो धन इकट्ठा करेंगे, वह आपके नाम छूट जाएगा। कोई दे सकते हैं कि यह घटना भी संभव है। और संत अपने व्यक्तित्व क्रेडिट होगी बाजार में, उसको भी आप उपयोग कर लेंगे। लेकिन से यह प्रमाणित कर सकते हैं कि उनके जीवन में वह घट गया है, | अगर आपके पिता को कोई प्रार्थना का अनुभव हुआ, तो वह कहां जिसको परमात्मा कहते हैं। लेकिन वह तो संत के साथ तिरोहित | छूटेगा! अगर कोई ज्ञान की झलक मिली, तो वह कैसे छूटेगी! हो जाएगा। दीया टूटेगा कबीर का और लौ परमात्मा में लीन हो | उसकी कहीं कोई रेखा ही न बनेगी पदार्थ पर। वह तो पिता के साथ
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ही विलीन हो जाएगी। और पिता के जाने के बाद उस पर भरोसा | चाहे वह कितनी ही सुंदरी रही हो, आम्रपाली क्यों न रही हो, वह भी न आएगा कि वह थी।
कितनी ही सुंदरी रही हो जगत की, दो हजार साल पहले हुई हो और इसलिए हम सबको संदेह है कि बुद्ध कभी सच में हुए? क्राइस्ट | | मर गई, आप उससे शादी करने को राजी न होंगे। कि होंगे? आप सच में हुए या कहानी है? क्योंकि वह जो घटना है, वह इतनी दो हजार साल पहले की सुंदरतम स्त्री से शादी न करके आज मौजूद अनहोनी है कि दिखाई तो पड़ती नहीं कहीं। तो शक पैदा होता है।। | जिंदा स्त्री से, चाहे वह उतनी सुंदर न भी हो, उससे शादी करना तो लगता है कि कहानी ही होगी।
| पसंद करेंगे। क्यों? इसलिए जिंदा संत को मानने में हमें ज्यादा कठिनाई होती है, लेकिन अगर जिंदा गुरु हो, तो आप उसको नहीं मान सकते। दो बजाय मुर्दा संत को मानने के। क्योंकि मुर्दा संत को मानने में हजार साल पुराना मरा हुआ गुरु हो, उसको ही मान सकते हैं। कुछ अड़चन इसलिए नहीं होती कि हमारे पास कोई प्रमाण भी नहीं होता मामला गड़बड़ दिखता है। कि उसको हम कहें कि नहीं, यह नहीं हुआ।
असल में गुरु से आप बचना चाहते हैं। मरा हुआ गुरु अच्छा जिंदा संत को मानने में बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि हम है, वह आपका पीछा नहीं कर सकता। जिंदा गुरु आपको दिक्कत पच्चीस कारण निकाल सकते हैं कि इस कारण से शक होता है। में डालेगा। इसलिए मरा गुरु ठीक है। आप जो चाहें, मरे गुरु के इस कारण से शक होता है। तुमको भी भूख लगती है। तो फिर साथ कर सकते हैं। जिंदा गुरु के साथ आप जो चाहें, वह नहीं कर हममें तुममें फर्क क्या है? तुमको भी सर्दी लगती है; तुमको भी सकते। वह जो चाहता है आपके साथ, वही करेगा। इसलिए मुर्दा बुखार आ जाता है। फिर हममें तुममें फर्क क्या है ? फिर कुछ ज्ञान | गुरु के साथ दोस्ती बन जाती है। वगैरह नहीं हुआ। जैसे कि बुखार ज्ञान से डरता हो! जैसे कि मौत | __मुर्दा पत्नी कोई नहीं चाहता, मुर्दा पति कोई नहीं चाहता। मुर्दा ज्ञानी को घटित न होती हो!
गुरु सब चाहते हैं। क्योंकि गुरु से लोग बचना चाहते हैं, बचाव मौत भी ज्ञानी को घटित होती है। फर्क मौत में नहीं पड़ता, फर्क | कर रहे हैं। ज्ञानी में पड़ता है। आपको भी मौत आती है, ज्ञानी को भी मौत - नरसी हैं, कबीर हैं, इनकी क्या फिक्र करते हैं! आज भी लोग आती है। आपको जब मौत आती है, तो आप भयभीत होते हैं। | वैसे ही मौजूद हैं। लेकिन उनकी बात आप दो-तीन सौ साल बाद ज्ञानी को जब मौत आती है, तो भयभीत नहीं होता। फर्क मौत में | करेंगे, जब वे मर जाएंगे। नहीं पड़ता, फर्क ज्ञानी में पड़ता है।
उनको खोजिए, जो जिंदा हैं। आपके बीच अभी भी, जमीन कभी हां, अगर मौत न आए, तो हम मान लें कि यह आदमी हो गया | | भी खाली नहीं है। उसमें हमेशा एक अनुपात में उतने ही लोग सदा परम ज्ञान को उपलब्ध। लेकिन मौत तो आती है बुद्ध को भी। कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध होते हैं हर युग में। लेकिन आपकी आंखें अंधी भी मरते हैं। शरीर तो खोता है उसी तरह, जिस तरह हमारा खोता | हैं। उनको आप देख नहीं पाते। आप तो दो हजार साल जब प्रचार है। और शरीर से गहरी हमारी आंख नहीं जाती कि भीतर कुछ और चलता है किसी की कहानी का, तब उसे देख पाते हैं। आपके भी है।
मानते-मानते वह आदमी खो गया होता है, तब आप मान पाते हैं। तो बुद्ध मिट जाते हैं जमीन से, कहानी रह जाती है। और फिर और जब वह होता है, तब आप उसे मान नहीं पाते। कहानी पर धीरे-धीरे हमें शक भी आता है। लेकिन अब दो हजार | जीसस को जिन्होंने सूली दे दी, वे ही अब दो हजार साल बाद साल पुरानी कहानी से झगड़ा भी कौन करे!
| पूजा कर रहे हैं। इसलिए परिणाम नहीं हो पाता। ___ पर आपको खयाल है कि जिंदा गुरु का हमेशा विरोध होता है! जिंदा गुरु की तलाश करें। जिंदा भक्त को खोजें। और एक ही बुद्ध जिंदा होते हैं, तो विरोध होता है; बुद्ध मर जाते हैं, तो कोई बात ध्यान रखें कि आपको इसकी चिंता नहीं करनी है कि वह विरोध नहीं करता।
भक्त, है भक्त या नहीं। आपको यही चिंता करनी है कि उसके एक और मजे की बात है कि लोग मरे हुए गुरु को मानते हैं। सान्निध्य में मुझमें भक्ति उतरती है या नहीं। उतरे, तो समझना कि कोई मरी हुई पत्नी से विवाह नहीं करता! आप जिंदा पत्नी चाहेंगे, है। न उतरे, तो कोई और खोज लेना। लेकिन जिंदा दीए की तलाश अगर विवाह करना है। दो हजार साल पहले कोई औरत हुई हो, | करें, ताकि आपका बुझा दीया जल सके।
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और जिंदा दीया हमेशा उपलब्ध है। लेकिन आप हमेशा मरे हुए | मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे के साथ बगीचे में घूम दीयों के आस-पास मंडराते हैं। फिर आपका दीया नहीं जलता, तो रहा था। तो उसके बेटे ने पूछा कि पिताजी, सूरज किसने बनाया? आप पूछते हैं, नरसी हुए, मीरा हुई, कबीर हुए, दादू हुए, कुछ हुआ। मुल्ला ने एक क्षण तो सोचा। क्योंकि कोई भी बाप यह स्वीकार नहीं? वे अभी भी हैं। उनके नाम कुछ और होंगे। उन्हें खोजें। और करना मुश्किल अनुभव करता है कि मुझे पता नहीं है। लेकिन ऐसे उनकी बातें मत सुनें; उनसे जीवन की कला सीखें; अपने को | मुल्ला ईमानदार आदमी था। उसने कहा कि नहीं, मेरा मन तो उत्तर बदलने की कीमिया सीखें। और साहस करें थोड़ा बदलने का। | देने का होता है, लेकिन आज नहीं कल तू पता लगा ही लेगा।
थोड़ी-सी बदलाहट भी आपको जिंदगी में इतने रस से भर देगी | इसलिए मैं तुझसे साफ ही कह दूं। मुझे पता नहीं है। . फिर आप और बदलने के लिए राजी हो जाएंगे।
घूम रहे थे। फिर उस बच्चे ने पूछा कि ये वृक्ष कौन बड़े कर रहा अभी आपकी जिंदगी में सिवाय दुख और पीड़ा के कुछ भी नहीं | है? मुल्ला ने कहा कि मुझे पता नहीं है। फिर उस लड़के ने पूछा है। सिवाय उदासी और निराशा के कुछ भी नहीं है। सिवाय विषाद | कि रात को चांद निकलता है, तो उसका एक ही पहलू हमें हमेशा
और संताप के कुछ भी नहीं है। अभी आप एक जीते-जागते नरक | | दिखाई पड़ता है। दूसरा पहलू क्यों दिखाई नहीं पड़ता? मुल्ला ने हैं। इसमें कछ प्रकाश की किरण कहीं से भी मिलती हो. तो लाने कहा. मझे पता नहीं है। की कोशिश करें। और कहीं से भी कुछ फूल खिल सकते हों, तो बार-बार लड़के ने यह सुनकर कि मुझे पता नहीं, मुझे पता नहीं, खिलाएं।
लड़का उदास हो गया। उसके उदास चेहरे को देखकर मुल्ला ने लेकिन कहीं से भी आपको फूल की खबर आए, तो पहले तो | | पूछा, बेटा पूछ। दिल खोलकर पूछ। पूछेगा नहीं, तो सीखेगा कैसे? आप यह शक करते हैं कि फूल असली नहीं हो सकता। क्या कारण कुछ भी पता नहीं है, फिर भी पूछेगा नहीं तो सीखेगा कैसे! हम है? आप इतने नरक से भरे हैं कि आप मान ही नहीं सकते कि कहीं | | सब सिखा रहे हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि हमें पता है या नहीं है। स्वर्ग हो सकता है। स्वर्ग बहुत-से हृदयों में अभी भी है, लेकिन धार्मिक व्यक्ति इस बात से शुरुआत करता है कि मुझे पता नहीं आपके पास आंख, खुला मन, सीखने का भाव चाहिए। | है और अब मैं सीखने निकलता हूं। फिर वह विनम्र होगा, फिर वह
दुनिया में गुरु तो सदा उपलब्ध होते हैं, लेकिन शिष्य सदा | झुका हुआ होगा। फिर जहां से भी सीखने को मिल जाए, वह उपलब्ध नहीं होते। इससे गडबड होती है। ये नरसी और कबीर सीखेगा।
और दादू असफल जाते हैं, क्योंकि गुरु हो जाना तो उनके हाथ में सीखने वालों की कमी है, इसलिए कबीर, दादू असफल चले है; लेकिन शिष्य तो आपके हाथ में है।
जाते हैं। और जो हम उनसे सीखते हैं, वह शब्द हैं, ज्ञान नहीं तो दुनिया में गुरु भी हो, लेकिन उसे शिष्य न मिल पाएं, तो | सीखते; उनके शब्द सीख लेते हैं। मुसीबत हो जाती है। कोई सीखने को तैयार नहीं है। सब सिखाने कबीर के पद याद हो जाते हैं। तुलसी की चौपाइयां याद हो जाती को तैयार हैं। क्योंकि सीखने के लिए झुकना पड़ता है। आप भी हैं। लोग तोतों की तरह दोहराते रहते हैं। जब तक वह अनुभव सिखाने को तैयार हैं। आप भी लोगों को सिखाते रहते हैं बिना | आपको न हो जाए, जो उन पदों में छिपा है, तब तक वे पद तोते की इसकी फिक्र किए कि आप क्या सिखा रहे हैं।
तरह हैं। अच्छा है मत दोहराएं। क्योंकि तोता होना अच्छा नहीं है। __ अगर आपका बेटा आपसे पूछता है, ईश्वर है ? तो आप में इतनी | जब तक जान न लें, तब तक चुप रहें। और जो ताकत है, वह बोलने हिम्मत है कि आप कहें कि मुझे पता नहीं है? आप कहते हैं, है, | | में न लगाकर, खोजने में लगाएं। तो कबीर सफल हो सकते हैं। बिलकुल है। और अगर आप नास्तिक हैं, कम्युनिस्ट हैं, तो आप कहते हैं, नहीं है, बिलकुल नहीं है। लेकिन एक बात पक्की है कि आप जवाब मजबूती से देते हैं, बिना इस बात की फिक्र किए कि | एक मित्र ने पूछा है कि मनुष्य तो अपने भाग्य को आपको कुछ भी पता नहीं है। या तो हां कहते हैं, या न कहते हैं। लेकर जन्मता है, तो अगर खोज भाग्य में होगी लेकिन आप यह नहीं कहते कि नहीं, मुझे पता नहीं है। मैं सिखाने भगवान की, तो हो जाएगी। नहीं होगी, तो नहीं में असमर्थ हूं।
होगी!
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म ह बात मतलब की भी हो सकती है और खतरनाक | ने कहा कि और यह भी हो सकता है, यह न बचे। तो नसरुद्दीन ने 1 भी। मतलब की तो तब, जब जीवन के और हर पहलू कहा कि अगर तुम बचा सको तो, और तुम मार डालो तो, जो भी
पर भी यही दृष्टि हो। फिर सुख को भी मत खोजें। | खर्च होगा, वह तो मैं चुकाऊंगा ही।। मिलना होगा, मिल जाएगा। फिर दुख से भी मत बचें; क्योंकि फिर डाक्टर इलाज में लग गया। सात दिन बाद पत्नी मर गई। भोगना है, तो भोगना ही पड़ेगा। फिर जिंदगी में जो कुछ भी हो, | काफी खर्च हुआ। डाक्टर ने बिल भेजा। तो नसरुद्दीन ने कहा कि उसको स्वीकार कर लें; और जो न हो, उसको भी स्वीकार कर लें | ऐसा करें कि हम गांव के पुरोहित के पास चले चलें। डाक्टर ने कि वह नहीं होना है। तो फिर मैं आपको कहता हूं कि भगवान को कहा, क्या मतलब? नसरुद्दीन ने कहा, मैं गरीब आदमी हूं, यह भी मत खोजें। भगवान आपको खोजता हुआ आ जाएगा। लेकिन | बिल पुरोहित जैसा कह देगा, वैसा कर लेंगे। फिर भाग्य की इतनी गहरी निष्ठा चाहिए कि जो होगा, ठीक है। पुरोहित के पास नसरुद्दीन गया। पुरोहित के सामने नसरुद्दीन ने
सिर्फ भगवान के संबंध में यह बात और धन के संबंध में खोज | | कहा कि डाक्टर बोलो, हमारी क्या शर्त थी? तो डाक्टर ने कहा, जारी रखें, तो फिर बेईमानी है। धन के संबंध में खोज जारी रखें, | शर्त थी हमारी कि मैं बचाऊं या मारूं, दोनों हालत में तुम मूल्य और उसमें तो कहें कि पुरुषार्थ के बिना क्या होगा! और खोजेंगे ।
कि पुरुषाथ काबना क्या होगा! और खोजेंगे चुकाओगे। नहीं तो मिलेगा कैसे! और जो लोग खोज रहे हैं, उनको मिल रहा | | तो नसरुद्दीन ने कहा, तुमने मेरी पत्नी को बचाया? तो डाक्टर है। तो ऐसे हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे, तो गंवा देंगे। तो धन की तो |
| ने कहा कि नहीं। तो नसरुद्दीन ने कहा, तुमने मेरी पत्नी को मारा? खोज जारी रखें, क्योंकि धन पुरुषार्थ के बिना कैसे होगा! और जब | तो डाक्टर ने कहा कि नहीं। तो नसरुद्दीन ने कहा कि किस समझौते भगवान को खोजने का सवाल आए, तब कहें कि सब भाग्य की | | के बल पर ये पैसे मांग रहे हो? किस हिसाब से? न तुमने बचाया, बात है। होगा, तो हो जाएगा। नहीं होगा, तो नहीं होगा। तो फिर | न तुमने मारा। और मैंने कहा था, बचाओ या मारो, दोनों हालत में धोखा है, आत्मवंचना है।
पैसे चुका दूंगा। तो मैं मानता हूं कि अगर भाग्य को कोई पूरी तरह स्वीकार कर हम भी ऐसा रोज-रोज करते रहते हैं। कुछ कानूनी व्यवस्थाएं ले, तो उसे भगवान को खोजने की जरूरत नहीं है। भगवान ही उसे खोजते रहते हैं। खोजेगा। लेकिन भाग्य को पूरा स्वीकार करने का अर्थ समझ लेना। __यह खयाल आपको भगवान को खोजते वक्त ही आया, कि फिर कुछ भी मंत खोजना। फिर खोजना ही मत। फिर यह बात ही भाग्य, या पहले भी कभी आया? छोड़ देना कि मेरे हाथ में करने का कुछ भी है। फिर तो जो भी हो, __असल में जिसकी खोज से बचना है, उसको हम भाग्य पर छोड़ होने देना। जो भी हो, होने देना। अपनी तरफ से कुछ करना ही मत। देते हैं। और जिसे खोजना ही है, उसे हम अपने हाथ में रखते हैं। . अगर कोई व्यक्ति इतने भाग्य पर अपने को छोड़ दे, तो समर्पण | | मगर इसमें ऐसा भी लगता है कि हम तो खोजना चाहते हैं, लेकिन हो गया। उसे भगवान का पता न भी हो, तो भी भगवान उसे मिल भाग्य में ही न हो, तो क्या कर सकते हैं! ही गया, इसी क्षण मिल गया। कोई बाधा न रही।
एक तरफ राजी हो जाएं। और पूरी तरह राजी हो जाएं। और कोई लेकिन यह कानूनी बात न हो। यह कोई लीगल तरकीब न हो | तरकीबें न निकालें। तो परमात्मा को खोजना भी जरूरी नहीं है। हमारी। क्योंकि हम बड़े कानूनविद हैं। और हम ऐसी तरकीबें भाग्य परमात्मा को खोजने की गहरी व्यवस्था है। शायद आपने निकालते हैं, जिनका हिसाब नहीं है!
इस तरह न सोचा होगा। भाग्यवाद का भाग्य से कोई संबंध नहीं है। __ मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बीमार थी। मरने के | | भाग्यवाद का संबंध परमात्मा की खोज की एक विधि से है। इसलिए करीब थी। डाक्टर को नसरुद्दीन ने बुलाया। मरने के करीब थी| जो लोग कहते हैं कि सच में भाग्य है या नहीं, वे लोग समझ ही नहीं पत्नी, बीमारी खतरनाक थी, तो डाक्टर ने कहा कि इलाज जरा | | पा रहे हैं। यह तो एक डिवाइस है, यह तो एक उपाय है परमात्मा की महंगा है।
| खोज का। यह तो जगत में परम शांति पाने की एक विधि है। नसरुद्दीन ने कहा कि कितना ही महंगा हो, मैं सब चुकाऊंगा; जो व्यक्ति सब कुछ भाग्य पर छोड़ देता है, उसे आप अशांत अपना सब घर बेचकर चुकाऊंगा। लेकिन इसे बचाओ। तो डाक्टर नहीं कर सकते। भाग्य सच में है या नहीं, यह सवाल ही नहीं है।
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यह असंगत है बात। यह तो सिर्फ एक उपाय है कि जो व्यक्ति सब यह जो ज्योतिषी को हाथ दिखाने वाला आदमी है, यह कछ भाग्य पर छोड़ देता है. उसने सब कछ पा लिया। उससे कछ भाग्यवादी नहीं है। भाग्यवादी पंडितों के पास नहीं जाएगा. तांत्रिकों भी छीना नहीं जा सकता। उसकी शांति परम हो जाएगी। उसका | के पास नहीं जाएगा। क्योंकि भाग्यवादी यह कह रहा है कि जो होने आनंद अखंड हो जाएगा। और अगर भगवान है, तो भगवान उसे | | वाला है, वह होगा; उसमें बदलने का भी कोई उपाय नहीं है। मिल जाएगा। जो भी है, वह उसे उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि ___ एक तांत्रिक कह रहा है कि यह मंत्र पूरा कर लो, यह पूजा करवा
अनुपलब्धि की भाषा ही उसने छोड़ दी है। और अगर भगवान उसे | दो, यह पांच सौ रुपये खराब कर दो, ऐसा करो, तो-भाग्य बदल न भी मिले, तो भी उसे बेचैनी नहीं होगी। यह मजा है। उसे कोई जाएगा। जो बदल सकता है, वह भाग्य ही नहीं है। जो नहीं बदल बेचैनी ही नहीं है। वह कहेगा कि जो भाग्य में है, वह होगा। सकता...।
लेकिन यह बात बड़ी गहरी है। आप यह मत समझना कि आप और ध्यान रहे, जो नहीं बदल सकता, उसको जानने का कोई भाग्यवादी हैं, क्योंकि आप चौरस्ते पर बैठे हुए किसी ज्योतिषी | उपाय नहीं हो सकता। क्योंकि जानने से भी बदलाहट शुरू हो जाती को हाथ दिखाते हैं। इसलिए आप भाग्यवादी हैं, यह आप मत | | है। जानना भी एक बदलाहट है। सोचना। अगर भाग्यवादी ही होते, तो चौरस्ते के ज्योतिषी पर जो __ अगर आपको यह पता चल जाए कि कल सुबह आप मर चार आने लेकर आपका भाग्य देखता है, उस पर आपका भरोसा | जाएंगे, तो कल सुबह तक की जो जिंदगी बिना पता चलने में रहती, नहीं हो सकता।
वही नहीं हो सकती पता चलने के बाद। फर्क हो जाएगा। वह जो भाग्यवादी का हाथ तो परमात्मा देख रहा है। उसको बीच के बोध आपको आ गया कि मैं मर जाऊंगा कल सुबह, वह आपकी दलालों की जरूरत नहीं है। और चार आने में यह दलाल क्या | | पूरी रात को बदल देगा। यह रात वैसी ही नहीं हो सकती अब, जैसी बताएगा? कितना बताएगा? और आपको पता नहीं है कि यह भी | कि बिना पता चले आप सोए होते। अब आप सो नहीं सकते। बेचारा दूसरे ज्योतिषी को हाथ दिखाता है!
भाग्यवादी तो मानता है कि जो भी होगा, वह होगा। कुछ करने मैंने सुना है कि दो ज्योतिषी पास ही पास रहते थे। सुबह जब | का उपाय नहीं है। करने वाले की कोई सामर्थ्य नहीं है। विराट की अपने धंधे पर निकलते थे, तो एक-दूसरे से पूछते थे, मेरे बाबत | लीला है; मैं उसका एक अंग मात्र हूं। एक लहर हूं सागर पर। मेरा आज क्या खयाल है? आज कैसा धंधा रहेगा?
अपना कुछ होना नहीं है। एक ज्योतिषी एक बार मेरे पास आया। एक मित्र ले आए थे। ऐसी समझ एक विधि है, एक उपाय है। ऐसी समझ में जो गहरा ज्योतिषी बहुत कीमती था। और एक हजार एक रुपया लेकर ही | उतर जाता है, उसे फिर कुछ भी नहीं खोजना है। परमात्मा भी नहीं हाथ देखते था। मेरे मित्र पीछे पड़े थे कि हाथ दिखाना ही है। एक | खोजना है। परमात्मा खुद उसे खोजता हुआ उसके पास चला हजार एक रुपया वे दे देंगे। मैंने कहा कि अगर हाथ दिखाना है, तो | आता है। रुपये मैं दूंगा। तुम्हें नहीं देने दूंगा।
पर सोचकर! बाकी सब आप खोजें और परमात्मा आपको हाथ मैंने दिखाया। हाथ देखकर उन्होंने बहुत-सी बातें कहीं। खोजे, ऐसा नहीं होगा। बाकी सब खोजना है, तो परमात्मा भी फिर वे रुपए की राह देखने लगे। लेकिन मैंने उनसे कहा कि आप आपको ही खोजना पड़ेगा। कुछ भी नहीं खोजना है, तो वह इतना भी मेरे हाथ से न समझ सके कि यह आदमी रुपए नहीं देगा | आपको खोज लेगा। आप इतनी मेहनत कर रहे हैं! अपना हाथ देखकर घर से निकले __ अब हम सूत्र को लें। थे? सुबह खयाल कर लिया करें कि कितना मिलेगा कि नहीं | | इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव मिलेगा। ये तो नहीं मिलने वाले। ये आपके भाग्य में नहीं हैं। | से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी है और हेतुरहित दयालु है तथा
वह आदमी रोने-धोने लगा कि पांच सौ भी दे दें। फिर सौ पर | | ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और सुख-दुखों की प्राप्ति में भी राजी हो गया, कि मैं इतनी दूर आया हूं! मैंने कहा, भाग्य इतनी | सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने आसानी से नहीं बदला कि हजार से पांच सौ पर आ गया, सौ पर | | वाला है तथा जो योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ-हानि में आ गया! भाग्य में तेरे है ही नहीं!
| संतुष्ट है तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे
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परमात्मा का प्रिय कौन
में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला | प्रेम अनाक्रमक होगा ही। जबरदस्ती आपकी आंख भी खोली मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।
जा सकती है कि सूरज चोट करे और आपकी आंख खोल दे। क्या है परमात्मा को प्रिय? यह प्रश्न हजारों-हजारों साल में | | लेकिन इस जगत में अस्तित्व की कोई भी व्यवस्था आक्रामक नहीं हजारों बार पूछा गया है।
है। आपके लिए प्रतीक्षा करेगा। सूरज प्रतीक्षा करेगा कि खोलना क्या है परमात्मा को प्रिय? क्योंकि जो उसे प्रिय है, वही हमारे जब आंख, तब प्रकाश भर जाएगा। लिए मार्ग है। क्या है उसे प्यारा? काश! हमें यही पता चल जाए, परमात्मा के लिए प्रिय होने का यही अर्थ है कि कुछ ढंग है तो फिर हम उसके प्यारे हो सकते हैं। कैसा चाहता है वह हमें? कब व्यक्तित्व का, जब हम खुले होते हैं, रिसेप्टिव होते हैं, ग्राहक होते हमें चाह सकेगा? कब हमें समझेगा कि हम योग्य हुए उसके | हैं और परमात्मा भीतर प्रवेश कर पाता है। और कुछ ढंग है आलिंगन के? तो उसकी क्या रुझान है? उसका क्या लगाव है? व्यक्तित्व का, जब हम बंद होते हैं, और सब तरफ से द्वार, उसकी क्या पसंद है ? उसकी क्या रुचि है? वह अगर हमें पता चल दरवाजे, खिड़कियों पर ताले पड़े होते हैं, और परमात्मा जाए, तो मार्ग का पता चल गया।
बाहर-बाहर भटकता रहता है, हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। क्या है परमात्मा को प्रिय? इसमें बहुत बातें सोचने जैसी हैं। । कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वह कौन-सा ढंग है जो परमात्मा इसका यह मतलब नहीं है कि जो उसे प्रिय है, उसके साथ वह | | को प्रिय है। कैसे तुम हो जाओ कि वह तुम्हारे भीतर प्रवेश कर पक्षपात करेगा; जो उसे अप्रिय है, उसके साथ वह भेद-भाव | | जाएगा। समझें। करेगा। इसका यह मतलब नहीं है। नहीं तो हमें यह भी खयाल होता __ शांति को प्राप्त हुआ पुरुष! है कि जो उसका प्रिय है, उसके पाप भी माफ कर देगा, उसके गुनाह | | अशांत चित्त में क्या होता है? अशांत चित्त अपने में ग्रसित होता भी क्षमा हो जाएंगे। और जो उसे प्रिय नहीं है, वह पुण्य भी करे, | | है। आप रास्ते पर चलते लोगों को देखें। जितना अशांत आदमी तो पुरस्कार न पा सकेगा।
| होगा, उतना ही रास्ते पर बेहोश चलता हुआ दिखाई पड़ेगा। अनेक नहीं; ऐसा नहीं है। परमात्मा के प्रिय होने का अर्थ समझ लें। | लोग खुद से बातचीत करते हुए चलते जाते हैं। होंठ हिल रहे हैं; परमात्मा के प्रिय होने का अर्थ है, एक शाश्वत नियम, ऋत। हाथ हिला रहे हैं। किससे बात कर रहे हैं? कोई वहां है नहीं उनके जिसको लाओत्से ने ताओ कहा है। परमात्मा के प्रिय होने का इतना साथ। खुद से ही, भीतर परेशान हैं। भीतर परेशानी की तरंगें चल ही अर्थ है कि वह तो हमें हर क्षण उपलब्ध है, लेकिन जब हम एक| | रही हैं। खास ढंग में होते हैं, तब हम उसके लिए खुले होते हैं और वह ___ अगर आप भी दस मिनट बैठकर अपना लिख डालें, आपके हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है। और जब हम उस खास ढंग में नहीं | मन में क्या चलता है, तो आप खुद ही घबड़ा जाएंगे कि यह क्या होते हैं, तो वह हमारे पास ही खड़ा अटका रह जाता है, क्योंकि हम | मेरे भीतर चल रहा है! लगेगा, मैं पागल हं! आप, जो आपके अवरोध खड़ा करते हैं।
भीतर चलता है, किसी को भी नहीं बताते। जिसको आप प्रेम करते ऐसे ही जैसे सूरज निकला है और मैं अपनी आंख बंद किए हैं, उसको भी नहीं बताते जो आपके भीतर चलता है। खड़ा हूं। तो सूरज निकला रहे, मैं अंधेरे में खड़ा रहूंगा। और ठीक | तो मनसविद कहते हैं कि अगर कोई आदमी अपने भीतर जो मेरी पलकों पर सूरज की किरणें नाचती रहेंगी। और प्रकाश इतने | | चलता है, सब बता दे, तो फिर दुनिया में मित्र खोजना मुश्किल है। करीब था, एक पलक झपने की बात थी और मैं प्रकाश से भर | | आप सब दबाए हैं भीतर; बाहर तो कुछ-कुछ थोड़ी-सी झलक देते जाता। लेकिन मैं आंख बंद किए हूं, तो मैं अंधेरे में खड़ा हूं। हैं। वह भी काफी दुखदायी हो जाती है। सम्हाले रहते हैं।
सूरज को खुली आंखें प्रिय हैं, इसका मतलब समझ लेना। यह जो भीतर अशांति का तूफान चल रहा है, यह दीवाल है। इसका कुल मतलब इतना है कि खुली आंख हो, तो सूरज प्रवेश | इसके कारण आप परमात्मा से नहीं जुड़ पाते। आपके और कर पाता है। बंद आंख हो, तो सूरज प्रवेश नहीं कर पाता। और | | परमात्मा के बीच में एक तूफान है अशांति का, विचार का, सूरज आक्रामक नहीं है कि जबरदस्ती आपकी आंख खोल दे। विक्षिप्तता का, पागलपन का। यह हट जाए। अनाक्रमक है।
कृष्ण कहते हैं, शांति को प्राप्त हुआ!
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गीता दर्शन भाग-60
और शांति को वही प्राप्त होता है-या तो ध्यान से चले, | जाती है। जो इस विराट जगत को चारों तरफ देखता है-इसकी विचारशून्य हो जाए; या प्रेम से चले और भक्तिपूर्ण हो जाए। या | | पीड़ा को, इसके सुख को, इसके दुख को-उसे मौका भी नहीं रह तो सारे विचार समाप्त हो जाएं या सारे विचार प्रेम में डूबकर | जाता यह सोचने का कि मेरे पैर में कांटा है। स्वार्थ की जो बुद्धि प्रेममय हो जाएं और प्रेम ही रह जाए, विचार खो जाएं। या तो सब है, वह अशांति जन्माती है। विचार पिघलकर प्रेम बन जाए और या सब विचार भाप बन जाएं, इसलिए कुछ, जैसे जीसस ने सेवा पर बहुत जोर दिया। वह इसी और भीतर शून्य, शांत अवस्था रह जाए।
कारण दिया। इसलिए नहीं कि सेवा से दूसरे को लाभ होगा। वह जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित...।
तो होगा, पर वह गौण है। सेवा पर इसलिए जोर दिया कि उससे तू और जैसे ही कोई शांत होगा, द्वेष समाप्त हो जाता है। या उलटा अपना खयाल भूल सकेगा। और अगर खुद का खयाल भूलता भी समझ लें। जैसे ही द्वेष समाप्त होता है, शांत हो जाता है। जब चला जाए, तो वह समर्पण बन जाता है। तक आपका द्वेष है कहीं, तब तक आप शांत नहीं हो सकते। क्योंकि तो कृष्ण कहते हैं, स्वार्थरहित जो व्यक्ति हो, वह परमात्मा के जिस से द्वेष है, वही कारण बनेगा आपके भीतर अशांति का। | लिए खुला होता है। जो स्वार्थ से भरा हो, वह बंद होता है। स्वार्थरहित, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु...।
तो चौबीस घंटे में कुछ समय तो स्वार्थरहित होना सीखना क्या है हमारी अशांति? स्वार्थ। चौबीस घंटे सोचते हैं अपनी ही चाहिए। फिर धीरे-धीरे उसका आनंद आने लगेगा। कभी भाषा में।
स्वार्थरहित छोटा-मोटा कृत्य भी करके देखें। कभी किसी की तरफ सुना है मैंने, जिस दिन जीसस को सूली लगी, उस दिन उस गांव | यूं ही अकारण मुस्कुराकर देखें। में एक आदमी की दाढ़ में दर्द था। और जिस रास्ते से लोग जीसस अकारण कोई मुस्कुराता तक नहीं। हालांकि मुस्कुराहट में कुछ को ले जा रहे थे सूली चढ़ाने, उसी रास्ते पर उसका घर था। सारे | | खर्च नहीं होता। लेकिन आप तभी मुस्कुराते हैं, जब कोई मतलब गांव से वह परिचित था। लोग देखने जा रहे थे। सारे गांव में | | हो। और जब आप मुस्कुराते हैं, तो दूसरा भी सावधान हो जाता है तहलका था कि जीसस को आज सूली लग रही है। जो भी गांव का | कि जरूर कोई मतलब है। क्योंकि कोई गैर-मतलब के मुस्कुराता आदमी वहां से निकलता वह आदमी. आंख में उसके आंस थे। भी नहीं है। कोई गैर-मतलब के किसी से राम-राम भी नहीं करता। पीड़ा से कराह रहा था; क्योंकि उसकी दाढ़ में दर्द था।
गांव में लोग करते थे, अब तो धीरे-धीरे बात समाप्त वहां भी तो लोग उससे पूछते कि अरे, क्या तुम भी जीसस के प्रेमी हो? | होती जा रही है। गांव में कोई किसी से भी राम-राम कर लेता था वह कहता, भाड़ में जाए जीसस; मेरी दाढ़ में दर्द है। पूरा गांव वहां | अजनबी से भी। तो शहर का आदमी गांव जाए और कोई राम-राम से निकला। और हर आदमी ने पूछा कि अरे, कभी हमने सोचा नहीं | करे, तो वह बहुत डरता है। क्योंकि जिससे जान-पहचान नहीं, वह था कि तुम भी, जीसस से तुम्हारा कोई लगाव है! वह कहता, कैसा राम-राम क्यों कर रहा है! जरूर कोई मतलब होगा। मतलब के जीसस! कहां की बातें कर रहे हो! मेरी दाढ़ में दर्द है: रातभर से बिना तो हम राम-राम भी नहीं करते: किसी सो नहीं सका।
करते। करेंगे भी क्यों? जब कोई प्रयोजन होता है। जीसस को सूली लग रही है, वह जरा भी मूल्य नहीं है। उसकी | | मैं एक यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। मेरे जो वाइस-चांसलर थे, दाढ़ में दर्द है, वह मूल्यवान है!
| नए-नए आए थे। तो मैं उनसे मिलने गया। जैसे ही मैं उनसे मिलने वियतनाम में हजारों लोग मरते रहे हैं, वह सवाल नहीं है। आपके | पहुंचा, उन्होंने मुझसे कहा, कैसे आए? तो मैंने कहा, जाता हूं। पैर में जरा-सा कांटा लग जाए, वह मूल्यवान है। सारी जमीन पर क्योंकि किसी काम से नहीं आया। सिर्फ राम-राम करने आया। कुछ होता रहे, आपकी जेब कट जाए, सब गड़बड़ हो गया! । उन्होंने कहा, क्या मतलब! वे थोड़े हैरान हुए कि पढ़ा-लिखा
हम जीते हैं, एक स्वार्थ का केंद्र बनाकर। और जितना ही यह । लड़का, राम-राम करने! मैंने कहा, आप अजनबी आए हैं, स्वार्थ का केंद्र मजबूत होता है, उतनी ज्यादा अशांति होती है। अपने नए-नए आए हैं। मैं आपके पड़ोस में ही हूं। पड़ोसी हैं। सिर्फ संबंध में जो जितना ज्यादा सोचता है, उतना परेशान होगा। जो राम-राम करने आया। और अब कभी नहीं आऊंगा। क्योंकि मैंने अपने संबंध में जितना कम सोचता है, उतनी परेशानी क्षीण हो यह नहीं सोचा था कि आप पूछेगे, कैसे आए? इसका मतलब यह
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परमात्मा का प्रिय कौन
गया। उस दिन
है कि आपके पास जो लोग आते हैं, काम से ही आते हैं, कोई | में ऐसा लगता है कि लोग क्या सोचेंगे कि अरे, इतने कृपण! ऐसे गैर-काम नहीं आता। और आप भी जिनके पास जाते होंगे, काम कंजूस कि दो पैसे न दे सके? से ही जाते होंगे, गैर-काम नहीं जाते। तो आपकी जिंदगी फिजूल भिखमंगा भी देखता है; अकेले में आपको नहीं छेड़ता। अकेले है। सिर्फ काम ही काम है या कुछ और भी है उसमें! | में आपसे निकालना मुश्किल है। चार आदमी देख रहे हों, भीड़
मैं तो चला गया कहकर; वे नाराज भी हुए होंगे, परेशान भी हुए खड़ी हो, बाजार में हों, पकड़ लेता है पैर। आपको देना पड़ता है। होंगे, सोचते भी रहे होंगे। दूसरे दिन उन्होंने मुझे बुलवाया कि मैं | | भिखमंगे को नहीं, अपने अहंकार की वजह। हेतु है वहां, कि लोग रात सो नहीं सका। तुम्हारा क्या मतलब है? सच में मुझे ऐसा लगने | | देख लेंगे, तो समझेंगे कि चलो, दयावान है। देता है। या देते हैं लगा रात, उन्होंने मुझसे कहा, कि मैंने यह पूछकर ठीक नहीं किया | | कभी, तो उसके पीछे कोई पुण्य-अर्जन का खयाल होता है। देते हैं कि कैसे आए?
कभी, तो उसके पीछे किसी भविष्य में, स्वर्ग में पुरस्कार मिलेगा, __ मैंने भी कहा, कम से कम मुझे बैठ तो जाने देते। यह बात पीछे | उसका खयाल होता है। भी हो सकती थी। राम-राम तो पहले हो जाती। मुझे कुछ काम नहीं लेकिन बिना किसी कारण, हेतुरहित दया, दूसरा दुखी है है और कभी आपसे कोई काम पड़ने का काम भी नहीं है। कोई | | इसलिए! इसलिए नहीं कि आपको इससे कुछ मिलेगा। दूसरा दुखी प्रयोजन भी नहीं है। लेकिन हम सोच ही नहीं सकते....। | है इसलिए, दूसरा परेशान है इसलिए अगर दें, तो दान घटित होता
फिर तो उनसे मेरा काफी संबंध हो गया। लेकिन अब भी वे मुझे | है। अगर आप किसी कारण से दे रहे हैं, जिसमें आपका ही कोई कभी मिलते हैं, तो वे कहते हैं, वह मैं पहला दिन नहीं भूल पाता, | हित है...। जिस दिन मैंने तुम से पूछ लिया कि कैसे आए? और तुमने कहा | मैं गया था एक कुंभ के मेले में। तो कुंभ के मेले में पंडित और कि सिर्फरा
पजारी लोगों को समझाते हैं कि यहां दो. जितना दोगे. हजार गना से पहले मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि बेकाम कोई आएगा! | | वहां, भगवान के वहां मिलेगा। हजार गुने के लोभ में कई नासमझ
जिंदगी हमारी धंधे जैसी हो गई है। सब काम है। उसमें प्रेम. | | दे फंसते हैं। हजार गुने के लोभ में! कि यहां एक पैसा दो, वहां उसमें कुछ खेल, उसमें कुछ सहज-नहीं; कुछ भी नहीं है। । | हजार पैसा लो! यह तो धंधा साफ है। लेकिन देने के पीछे अगर
स्वार्थरहित का अर्थ है, जीवन के उत्सव में सम्मिलित, | लेने का कोई भी भाव हो, तो दान तो नष्ट हो गया; धंधा हो गया, अकारण। कोई कारण नहीं है; खुश हो रहे हैं। और सदा अपने को सौदा हो गया। केंद्र नहीं बनाए हुए हैं। सारी दुनिया को सदा अपने से नहीं सोच कृष्ण कहते हैं, हेतुरहित दयालु अगर कोई हो, तो परमात्मा रहे हैं, कि मेरे लिए क्या होगा! मुझे क्या लाभ होगा! मुझे क्या | | उसमें प्रवेश कर जाता है। वह परमात्मा को प्यारा है। हानि होगी! हर चीज के पीछे अपने को खड़ा नहीं कर रहे हैं। । सब का प्रेमी...।
चौबीस घंटे में अगर दो-चार घंटे भी ऐसे आपकी जिंदगी में आ | प्रेम हम भी करते हैं। किसी को करते हैं, किसी को नहीं करते जाएं, तो आप पाएंगे कि धर्म ने प्रवेश शुरू कर दिया। और आपकी हैं। तो जिसको हम प्रेम करते हैं, उतना ही द्वार परमात्मा के लिए जिंदगी में कहीं से परमात्मा आने लगा। कभी अकारण कुछ करें।। हमारी तरफ खुला है। वह बहुत संकीर्ण है। जितना बड़ा हमारा प्रेम और अपने को केंद्र बनाकर मत करें।
होता है, उतना बड़ा द्वार खुला है। अगर हम सबको प्रेम करते हैं, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु...।
तो सभी हमारे लिए द्वार हो गए, सभी से परमात्मा हममें प्रवेश कर दया तो हम करते हैं, लेकिन उसमें हेतु हो जाता है। और हेतु सकता है। बड़े छिपे हुए हैं।
लेकिन हम एक को भी प्रेम करते हैं, यह भी संदिग्ध है। सबको __ आप बाजार से निकलते हैं और एक भिखमंगा आपसे दो पैसे | | तो प्रेम करना दूर, एक को भी करते हैं, यह भी संदिग्ध है। उसमें मांगता है। अगर आप अकेले हों और कोई न देख रहा हो, तो आप | | भी हेतु है; उसमें भी प्रयोजन है। पत्नी पति को प्रेम कर रही है, उसकी तरफ ध्यान नहीं देते। लेकिन अगर चार साथी साथ में हों. क्योंकि वही सुरक्षा है, आर्थिक आधार है। पति पत्नी को प्रेम कर तो इज्जत का सवाल हो जाता है। अब दो पैसे के लिए मना करने रहा है, क्योंकि वही उसकी कामवासना की तृप्ति है। लेकिन यह
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O गीता दर्शन भाग-60
सब लेन-देन है। यह सब बाजार है। इसमें प्रेम कहीं है नहीं। है, आत्मा की श्वास है; वह जीवन है। जिस दिन आपको यह
जब आप प्रेम भी कर रहे हैं और प्रयोजन आपका ही है कुछ, | समझ में आने लगेगा, उस दिन आप प्रेम को स्वार्थ से हटा देंगे। तो वह प्रेम परमात्मा के लिए द्वार नहीं बन सकता। इसीलिए हम और प्रेम तब आपकी सहज चर्या बन जाएगी। कुछ को प्रेम करते हैं, जिनसे हमारा स्वार्थ होता है। जिनसे हमारा कृष्ण कहते हैं, प्रेमी सबका; ममता से रहित...। स्वार्थ नहीं होता, उनको हम प्रेम नहीं करते। जिनसे हमारे स्वार्थ में | | यह बडा उलटा लगेगा। क्योंकि हम तो समझते हैं. प्रेमी वही है. चोट पड़ती है, उनको हम घृणा करते हैं। मगर हमेशा केंद्र में मैं हूं। | जो ममता से भरा हो। ममता प्रेम नहीं है। ममता और प्रेम में ऐसा जिससे मेरा लाभ हो, उसे मैं प्रेम करता है जिससे हानि हो, उसको | ही फर्क है, जैसे कोई नदी बह रही हो, यह तो प्रेम है। और कोई घृणा करता हूं। जिससे कुछ भी न हो, उसके प्रति मैं तटस्थ हूं, | | नदी बंध जाए और डबरा बन जाए और बहना बंद हो जाए और उपेक्षा रखता हूं; उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
सड़ने लगे, तो ममता है। परमात्मा के लिए द्वार खोलने का अर्थ है, सब के प्रति। लेकिन | | जहां प्रेम एक बहता हुआ झरना है; किसी पर रुकता नहीं, बहता सब के प्रति कब होगा? वह तभी हो सकता है, जब मुझे प्रेम में ही | चला जाता है। कहीं रुकता नहीं; कोई रुकावट खड़ी नहीं करता। आनंद आने लगे, स्वार्थ में नहीं। इस बात को थोड़ा समझ लें। यह नहीं कहता कि तुम पर ही प्रेम करूंगा; तुम्हें ही प्रेम करूंगा।
जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे; प्रेम से क्या मिलता है, | अगर तुम नहीं हो, तो मैं मर जाऊंगा। अगर तुम नहीं हो, तो मेरी यह सवाल नहीं है। कोई पत्नी है, उससे मुझे कुछ मिलता है; कोई | | जिंदगी गई। तुम्हारे बिना सब असार है। बस, तुम ही मेरे सार हो। बेटा है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई मां है, उससे मुझे कुछ | | ऐसा जहां प्रेम डबरा बन जाता है, वहां प्रेम धारा न रही; वहां प्रेम मिलता है। कोई पिता है, कोई भाई है, कोई मित्र है, उनसे मुझे कुछ में सड़ांध पैदा हो गई। मिलता है। उन्हें मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि उनसे मुझे कुछ मिलता | सड़ा हुआ प्रेम ममता है, रुका हुआ प्रेम ममता है। ममता से है। अभी मुझे प्रेम का आनंद नहीं आया। अभी प्रेम भी एक साधन | | आदमी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। ममता से तो डबरा बन गया। है, और कुछ मिलता है, उसमें मेरा आनंद है।
नदी सागर तक कैसे पहुंचेगी? वह तो यहीं रुक गई। उसकी तो लेकिन प्रेम तो खुद ही अदभुत बात है। उससे कुछ मिलने का गति ही बंद हो गई। सवाल ही नहीं है। प्रेम अपने आप में काफी है। प्रेम इतना बड़ा | इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु, आनंद है कि उससे आगे कुछ चाहने की जरूरत नहीं है। ममता से रहित...।
जिस दिन मुझे यह समझ में आ जाए कि प्रेम ही आनंद है, और | प्रेम कहीं रुकता न हो; किसी पर न रुकता हो, बहता जाए; जो यह मेरा अनुभव बन जाए कि जब भी मैं प्रेम करता हूं, तभी आनंद | | भी करीब आए, उसको नहला दे और बहता जाए। कहीं रुकता न घटित हो जाता है; आगे-पीछे लेने का कोई सवाल नहीं है। तो फिर | | हो, कहीं आग्रह न बनाता हो। और कहीं यह न कहता हो कि बस, मैं काहे को कंजूसी करूंगा कि इसको करूं और उसको न करूं? यही मेरे प्रेम का आधार है। फिर तो मैं खुले हाथ, मुक्त-भाव से, जो भी मेरे निकट होगा, ऐसा जो करेगा, वह दुख में पड़ेगा और ऐसा प्रेम भी बाधा बन उसको ही प्रेम करूंगा। वृक्ष भी मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम | जाएगा। इसलिए ममता का विरोध किया है। वह प्रेम का विरोध करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना! एक | नहीं है। वह प्रेम बीमार हो गया, उस बीमार प्रेम का विरोध है। पत्थर मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी ___ ममता हटे और प्रेम बढ़े, तो आप परमात्मा की तरफ पहुंचेंगे। आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना!
| लेकिन हमें आसान है दो में से एक। अगर हम प्रेम करें, तो ममता जिस दिन आपको प्रेम में ही रस का पता चल जाएगा, उस दिन | में फंसते हैं। और अगर ममता से बचें, तो हम प्रेम से ही बच जाते आप जो भी है. जहां भी है. उसको ही प्रेम करेंगे। प्रेम आपकी हैं। ऐसी हमारी दिक्कत है। अगर किसी से कहो कि ममता मत श्वास बन जाएगी।
करो, तो फिर वह प्रेम ही नहीं करता किसी को। क्योंकि वह डरता आप श्वास इसलिए नहीं लेते हैं कि उससे कुछ मिलेगा। श्वास | है कि किया प्रेम, कि कहीं ममता न बन जाए: तो वह प्रेम से रुक जीवन है; उससे कुछ लेने का सवाल नहीं है। प्रेम और गहरी श्वास जाता है।
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परमात्मा का प्रिय कौन
ममता से बचते हैं, तो प्रेम रुक जाता है। तब भी दरवाजा बंद हो गया। अगर प्रेम करते हैं, तो फौरन ममता बन जाती है। तो भी दरवाजा बंद हो गया। प्रेम हो और ममता न हो। नदी तो बहे और कहीं सरोवर न बने। इसको खयाल में रखें।
बच्चे को प्रेम करें। आप अपने बेटे को प्रेम करें, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं है। शुभ है। लेकिन वह प्रेम आपके ही बेटे पर समाप्त क्यों हो? वह और थोड़ा बहे। और भी पड़ोसियों के बेटे हैं, उनको भी छु । क्यों रुके बेटे तक ? और सच में अगर आप असली बाप हैं और आपने बेटे का प्रेम जाना है, तो आप चाहेंगे कि जितने बेटे बढ़ जाएं, उतना अच्छा। क्योंकि उतना प्रेम आपको आनंद देगा।
एक बेटा इतना आनंद देता है, अगर सारी जमीन के बेटे आपके बेटे हों, तो कितना आनंद होगा! एक मित्र जब इतना आनंद देता है, तो फिर क्यों कंजूसी कर रहे हैं ! बढ़ने दें। सारी पृथ्वी मित्रता बन जाए, तो और गहरा आनंद होगा। अंतहीन आनंद होगा।
जब मनुष्यों को प्रेम करने से इतना आनंद मिलता, तो पशुओं को क्यों वंचित करना! फैलने दें। पौधों को क्यों वंचित करना ! फैलने दें। जब प्रेम इतना आनंद देता है, तो रोकते क्यों हैं? उसे बढ़ने दें, उसे फैलने दें। उसे सारी जमीन को, सारे अस्तित्व को घेर लेने दें। तो आप परमात्मा के लिए प्रिय हो जाएंगे। क्योंकि आप खुल जाएंगे सब तरफ से। आपका रंध्र- रंध्र खुल जाएगा। सब तरफ से प्रभु की किरणें प्रवेश कर सकती हैं।
अहंकार से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम, क्षमावान, अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला । अहंकार से रहित... । जितना गहन होता है प्रेम, उतना अहंकार अपने आप शांत और शून्य हो जाता है । जितना कम होता है प्रेम, उतना अहंकार होता है ज्यादा । अहंकार और प्रेम विरोधी हैं। अगर प्रेम बढ़ता है, तो अहंकार पिघल जाता है।
लेकिन बहुत लोग पूछते हैं, एक मित्र ने आज भी पूछा अहंकार से कैसे छुटकारा हो ?
अहंकार से सीधे छुटकारा न होगा। आप प्रेम को बढ़ाएं। जैसे-जैसे प्रेम बढ़ेगा, अहंकार विसर्जित होने लगेगा। क्योंकि जो शक्ति अहंकार बनती है, वही प्रेम बनती है। प्रेम और अहंकार में एक ही शक्ति काम करती है। इसलिए अगर आप बड़े अहंकारी हैं, तो निराश मत हों । आपके पास प्रेम की बड़ी क्षमता छिपी पड़ी है | दुखी मत हों; आपके पास बड़ा स्रोत है। यही ऊर्जा मुक्त हो तो प्रेम बन जाएगी।
जाए,
है कि
लेकिन सीधा अहंकार से मत लड़ें। आप जो कुछ भी करेंगे सीधा, उससे अहंकार नहीं मिटेगा । आप तो प्रेम की तरफ फैलाव शुरू कर दें। कहीं से भी प्रेम को फैलाना शुरू करें। जिस तरफ लगाव जाता हो, उसी तरफ प्रेम को बहाएं। एक ही खयाल रखें कि उसको रुकने मत दें। उसे बढ़ते जाने दें। उसकी सीमाएं जितनी विस्तीर्ण होने लगें, होने दें। यह विस्तीर्ण होती सीमा, एक दिन आप अचानक पाएंगे आपके अहंकार का घाव तिरोहित हो गया। आप प्रेम से भर गए हैं और मैं का कोई भाव नहीं रह गया है।
सुख - दुखों की प्राप्ति में सम... ।
सुख आता है, दुख भी आता है। लेकिन आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख के पीछे ही दुख छिपा होता है; उसका ही संगी-साथी है। और दोनों में तलाक का कोई भी उपाय नहीं है। दोनों सदा साथ हैं। उनका जोड़ा कभी छूटता नहीं। जब दुख आता है, तब उसके पीछे सुख छिपा रहता है। लेकिन हमारी आंखें संकीर्ण हैं। जो होता है, उसको ही हम देखते हैं। जो पीछे छिपा है, उसको नहीं देखते हैं।
जब आप खुश हो रहे हैं, तब अब की दफा ध्यान रखना, जब सुख आए, तब ध्यान रखना कि जरूर उसके पीछे उससे जुड़ा हुआ दुख आएगा। और आप घड़ी, दो घड़ी में ही पाएंगे कि दुख आ गया। और इस दुख की क्वालिटी वही होगी, जो आपने सुख भोगा था उसकी थी, वही गुणधर्म होगा ।
हर दुख के पीछे उसका सुख है। और हर सुख के पीछे उसका दुख है। रुपए में जैसे दो पहलू होते हैं, ऐसे वे दो पहलू हैं।
मगर हम कभी ध्यान नहीं करते। हमने कभी निरीक्षण नहीं किया। नहीं तो आप यह पहचान जाएंगे कि हर सुख का अनिवार्य | दुख है | हर दुख का अनिवार्य सुख है। और दोनों मिलते हैं, एक नहीं मिलता। अगर आप अपना दुख कम करना चाहते हैं, तो | आपको अपना सुख कम करना पड़ेगा। अगर आप अपना सुख बढ़ाना चाहते हैं, आपको अपना दुख बढ़ाना पड़ेगा।
इसलिए एक बड़ी अदभुत घटना घटी है इस जमीन पर । अब हमें खयाल में आती है। जमीन पर जितना सुख बढ़ता जाता है, उतना दुख भी बढ़ता जाता है। यह बड़े मजे की बात है।
विज्ञान ने सुख के बहुत उपाय किए हैं। और सुख निश्चित ही | आदमी का बढ़ गया है। लेकिन आदमी जितना आज दुखी है, इतना कभी भी नहीं था। लोगों को लगता है, इसमें बड़ा कंट्राडिक्शन है, इसमें बड़ा विरोधाभास है। विज्ञान ने इतना सुख बढ़ा दिया, तो
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आदमी इतना दुखी क्यों है?
बात है। लेकिन आपने सोचा कि क्रोध आपके भीतर भी पड़ा है। इसीलिए। इसमें विरोध नहीं है। जितना सुख बढ़ेगा, उसके ही | कोई चोरी करता है, तो आप कहते हैं, पाप! बड़ा शोरगुल मचाते अनुपात में दुख भी बढ़ेगा। वे साथ ही बढ़ेंगे।
हैं। लेकिन आपने सोचा कि चोर आपके भीतर भी मौजूद है! हो ___ एक गांव का आदमी कम दुखी है, क्योंकि कम सुखी भी है। सकता है, इतना कुशल चोर हो कि आप भी नहीं पकड़ पाते। एक आदिवासी कम दुखी है। यह तो हमको भी दिखाई पड़ता है कि | पुलिस वाले तो पकड़ ही नहीं पाते, आप भी नहीं पकड़ पाते। कम दुखी है। लेकिन दूसरी बात भी आप ध्यान रखना, वह कम लेकिन क्या चोरी की वृत्ति भीतर मौजूद नहीं है? सुखी भी है। एक धनपति ज्यादा सुखी है, ज्यादा दुखी भी है। एक हत्या कोई करता है। आप नाराज होते हैं। लेकिन क्या आपने भिखमंगा कम सुखी है, कम दुखी भी है।
कई बार हत्या नहीं करनी चाही? यह दूसरी बात है कि नहीं की। जिस मात्रा में सुख बढ़ता है, उसी मात्रा में दुख बढ़ता है। वह | हजार कारण हो सकते हैं। सुविधा न रही हो, साहस न रहा हो, उसी के साथ-साथ है। वह उसी की छाया है। आप उससे भाग नहीं अनुकूल समय न रहा हो। लेकिन हत्या आपने करनी चाही है। सकते। उससे आप बच नहीं सकते।
चोरी आपने करनी चाही है। जिस दिन व्यक्ति को यह दिखाई पड़ जाता है कि सुख-दुख ऐसा कौन-सा पाप है जो आपने नहीं करना चाहा है? किया हो, दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं, उस दिन वह समभावी हो जाता न किया हो, यह गौण बात है। और अगर जितने पाप जमीन पर हो है। उस दिन वह कहता है कि अब इसमें सुख को चाहने और दुख रहे हैं, सब आप भी करना चाहे हैं, कर सकते थे, करने की से बचने की बात मूढ़तापूर्ण है।
संभावना है, तो इतना क्रोधित क्यों हो रहे हैं दूसरे पर?' यह तो ऐसे हुआ, जैसे मैं अपने प्रेमी को चाहता हूं और नहीं मनोवैज्ञानिक कहते हैं बड़ी उलटी बात। वे कहते हैं कि अगर चाहता कि उसकी छाया उसके साथ मेरे पास आए। और छाया को | कोई आदमी चोरी का बहुत ही विरोध करता हो, तो समझ लेना कि देखकर मैं दुखी होता हूं। और मैं कहता हूं, छाया नहीं आनी | उसके भीतर काफी बड़ा चोर छिपा है। अगर कोई आदमी चाहिए, सिर्फ प्रेमी आना चाहिए। वह प्रेमी के साथ उसकी छाया | कामवासना का बहुत ही पागल की तरह विरोध करता हो, तो समझ भी आती है। वह आएगी ही। अगर मैं छाया नहीं चाहता हूं, तो मुझे | लेना, उसके भीतर कामवासना छिपी है। क्यों? क्योंकि वह उस प्रेमी की चाह कम कर देनी पड़ेगी। और अगर मैं प्रेमी को चाहता चीज का विरोध करके अपने को भी दबाने की कोशिश कर रहा है। हूं, तो मुझे छाया को भी चाहना शुरू कर देना पड़ेगा। बस, ये दो चिल्लाता है दूसरे पर, नाराज होता है, तो उसको अपने को भी उपाय हैं।
दबाने में सुविधा मिलती है। दोनों ही अर्थों में बुद्धि सम हो जाती है। या तो सुख को भी मत। जिस चीज का आप विरोध करते हैं बहुत, गौर से खयाल करना, चाहें, अगर दुख से बचना है। और अगर सुख को चाहना ही है, तो कहीं आपके भीतर अचेतन में वह दबी पड़ी है। इसीलिए इतना जोर फिर दुख को भी उसी आधार पर चाह लें। और जिस दिन आप दोनों से विरोध कर रहे हैं। की चाह-अचाह में बराबर हो जाते हैं, उस दिन सम हो जाते हैं। लेकिन जो व्यक्ति जितना आत्म-निरीक्षण करेगा, उतना ही
कृष्ण कहते हैं, जो सम है सुख-दुख की प्राप्ति में, वह प्रभु के | क्षमावान हो जाएगा। क्योंकि वह पाएगा, ऐसा कोई पाप नहीं, जिसे लिए उपलब्ध हो जाता है।
| मैं करने में समर्थ नहीं हूं। और ऐसी कोई भूल नहीं है, जो मुझसे क्षमावान, अपराध करने वाले को भी जो अभय देने वाला है। न हो सके। तो दूसरे पर इतना नाराज होने की क्या बात है! दूसरा क्षमा बड़ी कठिन है। क्यों इतनी कठिन है? किसी को भी आप | भी मेरे जैसा ही है। वह भी मेरा ही एक रूप है। जो मेरे भीतर छिपा क्षमा नहीं कर पाते हैं। क्या कारण है ? क्योंकि आप अपने को नहीं है, वही उसके भीतर छिपा है। जानते हैं, इसलिए क्षमा नहीं कर पाते।
तो क्षमा का भाव पैदा होता है। क्षमा का मतलब यह नहीं है कि कभी आप खयाल करें अब, जिन-जिन चीजों पर आप दूसरों आप बड़े महान हैं, इसलिए दूसरे को क्षमा कर दें। वह क्षमा थोथी पर नाराज होते हैं, विचार किया आपने कि वे सब चीजें आपके है। वह तो अहंकार का ही हिस्सा है। भीतर भी छिपी पड़ी हैं। कोई क्रोध करता है, तो आप कहते हैं, बुरी ठीक क्षमा का अर्थ है कि आप पाते हैं कि सारी मनुष्यता आप
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ॐ परमात्मा का प्रिय कौन
जाती है। दोनों देखें।
में है। और मनुष्य जो करने में समर्थ है, वह आप भी समर्थ हैं। जीवन कहें या धार्मिक जीवन कहें। लेकिन ठीक जीवन का क्या मनुष्य जिस नरक तक जा सकता है, आप भी जा सकते हैं। एक अर्थ है? बात। इससे क्षमा आती है।
ये जो गुण कृष्ण ने बताए, ये हैं ठीक जीवन। अहंकारशून्यता, और दूसरी बात, कि आप जिस ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं, सहज सबके प्रति प्रेम अकारण, क्षमा, एकाग्र चित्त-ये घटनाएं दूसरा मनुष्य भी उसी ऊंचाई तक पहुंच सकता है। दूसरी बात। अगर बिना ईश्वर के भी घट जाएं...। निकृष्टतम भी आपके भीतर छिपा है, यह बोध; और श्रेष्ठतम भी घटी हैं। महावीर ईश्वर को नहीं मानते हैं। बुद्ध तो आत्मा तक दूसरे के भीतर छिपा है, यह बोध; आपके जीवन में क्षमा का जन्म | को नहीं मानते हैं। लेकिन महावीर भगवत्ता को उपलब्ध हो गए। हो जाएगा।
जो भगवान को नहीं मानते हैं, उनको लोगों ने भगवान कहा। बुद्ध अभी हम उलटा कर रहे हैं। अभी श्रेष्ठतम हम मानते हैं हमारे | आत्मा-परमात्मा को कुछ भी नहीं मानते। और बुद्ध जैसा पवित्र, भीतर है, और निकृष्टतम सदा दूसरे के भीतर है। दूसरे का जो बुरा | और बुद्ध जैसा खिला हुआ फूल पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है। पहलू है, वह देखते हैं। और खुद का जो भला पहलू है, वह देखते ठीक जीवन पर्याप्त है। लेकिन ठीक जीवन का अर्थ यही है। हैं। इससे बड़ी तकलीफ होती है। इससे बड़ी अस्तव्यस्तता फैल | ठीक जीवन ही तो प्रभु के लिए खुलना है। ठीक जीवन के प्रति ही
तो उसका प्रेम है। गैर-ठीक जीवन में हम पीठ किए खड़े होते हैं। ___ और जिस नरक में आप दूसरे को देख रहे हैं, उसमें आप भी | ठीक जीवन में हमारा मुंह ईश्वर की तरफ उन्मुख हो जाता है।
खड़े हैं कहीं। और जिस स्वर्ग में आप सोचते हैं कि आप हो सकते | उन्मुख हो जाना उसकी तरफ ठीक जीवन है। या ठीक जीवन हो हैं, या हैं, उसमें दूसरा भी हो सकता है। तब आपके जीवन में क्षमा | जाए, तो उन्मुखता आ जाती है। अभी हम जैसे हैं, वह विमुखता है। का भाव आ जाएगा। और यह क्षमा सहज होगी। इससे कोई | पांच मिनट रुकें। कोई बीच से उठे न। कीर्तन पूरा करके जाएं। अहंकार निर्मित नहीं होगा कि मैंने क्षमा किया।
तथा जो योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ-हानि में संतुष्ट, मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। .
परमात्मा को जो प्रिय है, वही उस तक पहुंचने का द्वार है। ये गुण विकसित करें, अगर उसे खोजना है। इन गुणों में गहरे उतरें, अगर चाहना है कि कभी उससे मिलन हो जाए। सीधे परमात्मा की भी फिक्र न की, तो भी हल हो जाएगा। अगर इतने गुण आ गए, तो परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा।
एक मित्र ने पूछा है कि अगर हम ठीक जीवन ही जीए चले जाएं, तो क्या परमात्मा से मिलना न होगा?
बिलकुल हो जाएगा। लेकिन ठीक जीवन! ठीक जीवन का अर्थ ही धर्म है। और ये जितनी विधियां बताई जा रही हैं, ये ठीक जीवन के लिए ही हैं।
उन मित्र ने पूछा है कि धर्म की क्या जरूरत है, अगर हम ठीक जीवन जीएं?
ठीक जीवन बिना धर्म के होता ही नहीं। ठीक जीवन का अर्थ ही धार्मिक जीवन है। शब्दों का ही फासला है। कोई हर्ज नहीं, ठीक
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अध्याय 12 आठवां प्रवचन
उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
यस्मानोद्धिजते लोको लोकानोद्विजते च यः।
और परमात्मा तो दूर का लाभ है; चोरी का लाभ अभी और यहीं हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।। दिखाई पड़ता है। और परमात्मा है भी या नहीं, यह भी संदेह बना
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । रहता है। चोरी में जो लाभ खो जाएगा, वह प्रत्यक्ष मालूम पड़ता सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।। १६ ।। है; और परमात्मा में जो आनंद मिलेगा, वह बहुत दूर की कल्पना तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और | मालूम पड़ती है, सपना मालूम पड़ता है।
जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तो चोरी छोड़नी कठिन हो जाती है, हिंसा छोड़नी कठिन हो जाती तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिकों से रहित है, वह है, क्रोध छोड़ना कठिन हो जाता है। परमात्मा के कारण ये भक्त मेरे को प्रिय है।
कठिनाइयां नहीं हैं। ये कठिनाइयां हमारे कारण हैं। और जो पुरुष आकांक्षा से रहित तथा बाहर-भीतर से शुद्ध अगर आप सरल हो जाएं, तो रास्ता ही नहीं बचता। इतनी भी और दक्ष है अर्थात जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कठिनाई नहीं रह जाती कि रास्ते को पार करना हो। अगर आप कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है, | सरल हो जाएं, तो आप पाते हैं कि परमात्मा सदा से आपके पास वह सर्व आरंभों का त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।। | ही मौजूद था; आपकी कठिनाई के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।
रास्ता होगा, तो थोड़ा तो कठिन होगा ही। चलना पड़ेगा। लेकिन
इतना भी फासला नहीं है मनुष्य में और परमात्मा में कि चलने की पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, भगवान को जरूरत हो। लेकिन हम बड़े जटिल हैं, बड़े उलझे हुए हैं। पाने के लिए इतना कठिन, लंबा और कष्टमय मार्ग
| मैंने सना है कि एक आदमी भागा हआ चला जा रहा था एक क्यों है? उसे पाने के लिए सुगम, सरल और राजधानी के पास। राह के किनारे बैठे एक आदमी से उसने पूछा आनंदमय मार्ग क्यों नहीं है?
कि मैं राजधानी जाना चाहता हूं, कितनी दूर होगी? तो उस आदमी ने कहा, इसके पहले कि मैं जवाब दूं, दो सवाल तुमसे पूछने जरूरी
हैं। पहला तो यह कि तुम जिस तरफ जा रहे हो, अगर इसी तरफ मार्ग कष्टमय जरा भी नहीं है। और न ही कठिन है। मार्ग | | तुम्हें राजधानी तक पहुंचना है, तो जितनी जमीन की परिधि है, 11 तो अति सुगम है, सरल है, और आनंदपूर्ण है। उतनी ही दूर होगी, क्योंकि राजधानी पीछे छूट गई है। अगर तुम
लेकिन हम जैसे हैं, उसके कारण कठिनाई पैदा होती | इसी तरफ खोजने का इरादा रखते हो, तो पूरी जमीन घूमकर जब है। कठिनाई मार्ग के कारण पैदा नहीं होती। कठिनाई हमारे कारण | | तुम लौटोगे, तो राजधानी आ पाएगी। अगर तुम लौटने को तैयार पैदा होती है। और अगर प्रभु का रास्ता लगता है कि अति कष्टों । हो, तो राजधानी बिलकुल तुम्हारे पीछे है। से भरा है, तो रास्ता कष्टों से भरा है इसलिए नहीं, हम जिन | ___ तो एक तो यह पूछना चाहता हूं कि किस तरफ जाकर राजधानी बीमारियों से भरे हैं, उनको छोड़ने में कष्ट होता है। खोजनी है? और दूसरा यह पूछना चाहता हूं कि किस चाल से ___ अड़चन हमारी है। जटिलता हमारी है। रास्ता तो बिलकुल सुगम | | खोजनी है? क्योंकि दूरी चाल पर निर्भर करेगी। अगर चींटी की है। आप अगर सरल हो जाएं, तो रास्ता बिलकुल सरल है। आप | चाल चलना हो, तो पीछे की राजधानी भी बहुत दूर है। तो तुम्हारी अगर जटिल हैं, तो रास्ता बिलकुल जटिल है। क्योंकि आप ही हैं चाल और तुम्हारी दिशा, इस पर राजधानी की दूरी निर्भर करेगी। रास्ता। आपको अपने से ही गुजरकर पहुंचना है। और आपको | परमात्मा कितना दूर है, यह आप पर निर्भर करेगा कि आप किस पहुंचना है, इसलिए आपको बदलना भी होगा।
दिशा में खोज रहे हैं, और इस पर निर्भर करेगा कि आपकी गति अब जैसे एक आदमी चोर है, तो चोरी छोड़े बिना एक इंच भी | क्या है। अगर आप गलत दिशा में खोज रहे हैं, तो बहुत कठिन वह प्रार्थना के मार्ग पर न बढ़ सकेगा। लेकिन चोरी में रस है। चोरी | है। और हम सब गलत दिशा में खोज रहे हैं। का अभ्यास है। चोरी का लाभ दिखाई पड़ता है, तो छोड़ना | मजा तो यह है कि यहां नास्तिक भी परमात्मा को ही खोज रहा मुश्किल मालूम होता है।
है। परमात्मा का अर्थ है परम आनंद को, अंतिम जीवन के अर्थ
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को, प्रयोजन को, सार्थकता को, क्या है अभिप्राय जीवन का, | | बात बताओ कि जैसा मैं हूं, वैसा ही परमात्मा से मिलन हो जाए; इसको नास्तिक भी खोज रहा है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, | | मुझे कुछ भी न करना पड़े। सरल का मतलब है, परमात्मा मुफ्त में जो परमात्मा को न खोज रहा हो।
| मिल जाए। मुझे कुछ भी छोड़ना, तोड़ना, बदलना न पड़े। मैं जैसा हां, कोई गलत रास्ते पर खोज रहा हो, गलत दिशा में खोज रहा हूं, ऐसे को ही मिल जाए, यह आपकी आकांक्षा है भीतरी। हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा को खोज ही न रहा हो, यह यह कभी भी नहीं होगा। अगर यह होने वाला होता, तो बहत नहीं हो सकता। हो सकता है, अपनी खोज को वह परमात्मा का | पहले हो गया होता। आप बहुत जन्मों से यह कर रहे हैं। यह कोई नाम भी न देता हो। लेकिन सभी खोज उसी के लिए है। आनंद की आपकी नई तलाश नहीं है। काफी, लाखों साल की तलाश है। और खोज, अभिप्राय की खोज, अर्थ की खोज, उसकी ही खोज है। भूल उसमें वही है कि आप सरल रास्ता खोजते हैं, सरल व्यक्तित्व अपनी खोज उसकी ही खोज है। अस्तित्व की खोज उसकी ही खोज नहीं खोजते। आप सरल हो जाएं, रास्ता सरल है। और इसकी है। नाम हम क्या देते हैं, यह हम पर निर्भर है।
फिक्र में लगें कि मैं कैसे सरल हो जाऊं। लेकिन आप सूरज को खोजने चल सकते हैं और सूरज की तरफ और जीवन-क्रांति की कोई भी प्रक्रिया शार्टकट नहीं होती। पीठ करके चल सकते हैं। तो आप हजारों मील चलते रहेंगे और | क्योंकि जो हमने अपने को उलटा करने के लिए किया है, उतना तो सूरज दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक मजे की बात है कि आप हजारों | करना ही पड़ेगा सीधा होने के लिए। इसलिए वह बात ही छोड़ दें मील चल चुके हों, और आप पीठ फेर लें, उलटे खड़े हो जाएं, तो | सरल की, और ध्यान करें अपनी जटिलता पर। सूरज अभी आपको दिखाई पड़ जाएगा।
आपकी जटिलता को समझने की कोशिश करें और आपकी इससे एक बात खयाल में ले लें। अगर सूरज की तरफ पीठ करके | जटिलता कैसे खुलेगी, एक-एक गांठ, उसको खोलने की कोशिश आप हजार मील चले गए हैं, तो आप यह मत समझना कि जब सूरज करें। जैसे-जैसे आप खुलते जाएंगे, आप पाएंगे कि परमात्मा की तरफ मुंह करके आप हजार मील चलेंगे, तब सूरज दिखाई आपके लिए खुलता जा रहा है। इधर भीतर आप खुलते हैं, उधर पड़ेगा। सूरज तो इसी वक्त मुंह फेरते ही दिखाई पड़ जाएगा। बाहर परमात्मा खुलने लगता है। जिस दिन आप भीतर बिलकुल
तो परमात्मा से आप कितने दूर चले गए हैं, इससे कोई फर्क खुल गए होते हैं, परमात्मा सामने होता है। नहीं पड़ता। आप पीठ फेरने को राजी हों, तो इसी वक्त परमात्मा | बुद्ध ने कहा है...। जब उन्हें ज्ञान हुआ, और किसी ने पूछा कि दिखाई पड़ जाएगा। उसके बीच और आपके बीच दूरी वास्तविक आपको क्या मिला है? तो बुद्ध ने कहा, मुझे मिला कुछ भी नहीं नहीं है, केवल आपके पीठ के फेरने की है, सिर्फ दिशा की है। वह है। सिर्फ उसको ही जान लिया है, जो सदा से मिला हुआ था। कोई
आपके साथ ही खड़ा है। वह आपके भीतर ही छिपा है। नई चीज मुझे नहीं मिल गई है। मगर जो मेरे पास ही थी और मुझे .. तो पहली तो बात यह समझ लें कि कठिनाई रास्ते की नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती थी, उसका ही दर्शन हो गया है। इसलिए सरल रास्ते की खोज मत करें। सरल होने की खोज करें। तो बुद्ध ने कहा है कि यह मत पूछो कि मुझे क्या मिला। ज्यादा
बहुत-से लोग सरल रास्ते की खोज में होते हैं। वे कहते हैं, कोई | | अच्छा हो कि मुझसे पूछो कि क्या खोया। क्योंकि मैंने खोया जरूर शार्टकट? उसमें वे बहुत धोखे में पड़ते हैं, क्योंकि परमात्मा तक है कुछ, पाया कुछ भी नहीं है। खोया है मैंने अपना अज्ञान। खोई पहुंचने का कोई शार्टकट रास्ता नहीं है। क्योंकि पीठ ही फेरनी है, है मैंने अपनी नासमझी, खोई है मैंने गलत चलने की दिशा और अब इसमें और क्या शार्टकट होगा? अगर सिर्फ पीठ फेरनी है और गलत ढंग। खोया है मैंने गलत जीवन। पाया है, कहना ठीक नहीं, परमात्मा सामने आ जाएगा, तो इससे संक्षिप्त अब और क्या क्योंकि जो पाया है, वह था ही। अब जानकर मैं कहता हूं कि यह करिएगा? इससे और संक्षिप्त नहीं हो सकता।
तो सदा से मेरे पास था। सिर्फ मैं गलत था, इसलिए इससे मेरी लेकिन हम खोज में रहते हैं संक्षिप्त रास्ते की। वह क्यों? वह । | पहचान नहीं हो पाती थी। जो मेरे भीतर ही छिपा था, उस तक भी हम इसलिए खोज में रहते हैं कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए, जो मैं नहीं पहुंच पाता था, क्योंकि मैं कहीं और उसे खोज रहा था। सरल हो। उसका मतलब क्या? उसका मतलब, जो मुझे न बदले। सूफी फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा कि जब हम पूछते हैं सरल रास्ता, तो हम यह पूछते हैं कि कुछ ऐसी | वह रास्ते पर सांझ के अंधेरे में कुछ खोजती है। तो लोगों ने पूछा,
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क्या खोजती है? तो उसने कहा, मेरी सुई खो गई है। तो दूसरे लोग क्या है। नहीं तो आनंद नहीं है, यह कैसे कहते हैं आप? दुख है, भी खोजने में लग गए कि बूढ़ी की सुई मिल जाए। तब एक आदमी । | यह कैसे कहते हैं? क्योंकि जिसने कभी अंधेरा न देखा हो, वह को खयाल आया कि सूरज ढलता जाता है, अंधेरा होता जाता है। | प्रकाश को भी नहीं जान सकता। और जिसने कभी प्रकाश न देखा तो उस आदमी ने कहा कि तेरी सुई बड़ी छोटी चीज है और रास्ता | हो, वह यह भी नहीं पहचान सकता कि यह अंधेरा है। अंधेरे की बड़ा है। आखिर खोई कहां है? ठीक जगह कहां गिरी है, तो हम | पहचान के लिए प्रकाश का अनुभव चाहिए। खोज भी लें; नहीं तो सूरज ढल रहा है।
अगर आपको लगता है, यह दुख है, तो आपको कुछ न कुछ तो राबिया ने कहा, यह सवाल ही मत उठाओ, क्योंकि सुई तो | | आनंद की खबर है। तभी तो आप सोच पाते हैं कि यह वैसा नहीं मेरे घर में गिरी है, घर के भीतर गिरी है। तो वे सारे लोग खड़े हो | है, जैसा होना चाहिए। आनंद नहीं है, पीड़ा है, दुख है। गए। उन्होंने कहा, पागल औरत, अगर घर के भीतर सुई गिरी है, सभी को दुख का अनुभव होता है। इससे अध्यात्म की एक तो यहां बाहर क्यों खोजती है? तो उसने कहा, घर में प्रकाश नहीं | मौलिक धारणा पैदा होती है और वह यह कि सभी को है, बाहर प्रकाश है। और बिना प्रकाश के खोजू कैसे? इसलिए | जाने-अनजाने आनंद का अनुभव है। शायद आपको भी पता नहीं यहां खोजती हूं।
है, लेकिन आपके प्राणों की गहराई में आनंद की कोई प्रतीति है आप भी खोज रहे हैं, लेकिन आपको इसका भी खयाल नहीं है | | अभी भी। उसी से आप तौलते हैं, और पाते हैं कि नहीं, अनुकूल कि खोया कहां है। और जब तक इसका ठीक पता न हो कि नहीं है, और उसी को आप खोज रहे हैं। परमात्मा को खोया कहां है; खोया भी है या नहीं; या खोया है, तो जो आपकी गहराइयों में छिपा है, उसको ही आप खोज रहे हैं। भीतर या बाहर; तब तक खोज आपकी भटकन ही होगी। । | लेकिन खोज रहे हैं बाहर। जहां वह छिपा है, वहां नहीं खोज रहे
लेकिन आप भी राबिया की तरह हैं। राबिया भी उन लोगों से | | हैं। लेकिन बाहर खोजने का कारण वही है, जो राबिया का था। मजाक कर रही थी। और जब वे सब हंसने लगे और कहने लगे, | | वह कारण यही है कि आंखें बाहर खुलती हैं। इसलिए रोशनी पागल औरत, जब घर के भीतर सुई खोई है, तो वहीं खोज। और बाहर है। हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं; सारी इंद्रियां
नहीं है, तो प्रकाश वहां ले जा, बजाय इसके कि बाहर खुलती हैं। इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है, इसलिए हम प्रकाश में खोज। क्योंकि जब उसे खोया ही नहीं, तो प्रकाश पैदा बाहर खोज रहे हैं। तो नहीं कर देगा! प्रकाश तो केवल बता सकता है, जो मौजूद हो। __हम भीतर हैं और इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। इसलिए तो तू प्रकाश भीतर ले जा।
| इंद्रियों के द्वारा जो भी खोज है, वह आपको कहीं भी न ले जाएगी। तो राबिया ने कहा कि तुम सब मुझ पर हंसते हो, लेकिन मैं तो इंद्रियां बाहर की तरफ जाती हैं और आप भीतर की तरफ हैं। आप दुनिया की रीत से चल रही थी। मैंने सभी लोगों को बाहर खोजते इंद्रियों के पीछे छिपे हैं। आपकी संपदा पीछे छिपी है, और इंद्रियां देखा है। और बाहर खोया किसी ने भी नहीं है। मैंने सोचा कि यही | | बाहर जाती हैं। इंद्रियों का उपयोग यही है। इंद्रियां संसार से जुड़ने उचित है, दुनिया की रीत से ही चलना।
का मार्ग हैं। इसलिए बाहर की तरफ जाती हैं। आप कहां खोज रहे हैं? आनंद कहां खोज रहे हैं आप? कोई भीतर तो आंखों की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भीतर तो बिना धन में खोज रहा है; कोई मित्र में, कोई प्रेम में, कोई यश में, कोई आंखों के देखा जा सकता है। भीतर कान की कोई जरूरत नहीं है, प्रतिष्ठा में। वह सारी खोज बाहर है। लेकिन आपको पक्का है कि क्योंकि बिना कान के भीतर सना जा सकता है। भीतर हाथों की आपने आनंद कभी बाहर खोया है? और आप आनंद क्यों खोज | | कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि बिना हाथों के भीतर स्पर्श हो जाता रहे हैं, अगर आपको आनंद का पहले कोई पता ही नहीं है तो? है। इसलिए इंद्रियों की भीतर की तरफ कोई जरूरत नहीं है। भीतर
यह जरा सोचने जैसी बात है। उस चीज की खोज नहीं हो का सब अनुभव अतींद्रिय है, इंद्रिय के बिना हो जाता है। सकती, जिसका हमें कोई पूर्व-अनुभव न हो। खोजेंगे कैसे? इंद्रियों की जरूरत संसार के लिए है। वे इंस्ट्रमेंट्स हैं, साधन हैं,
सबको लगता है कि आनंद नहीं है। इससे एक बात तो साफ है, संसार से जुड़ने के। तो जितना संसार से जुड़ना हो, उतनी सबल आपको किसी न किसी गहराई के तल पर यह पता है कि आनंद इंद्रिय चाहिए।
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वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की सारी खोज इंद्रियों को सबल सरल है बहुत, क्योंकि परमात्मा आपके इतने निकट है कि उसे बनाने से ज्यादा नहीं है। आपकी आंख देख सकती है थोड़ी दूर | निकट कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि निकटता में भी थोड़ी-सी तक। दूरबीन है, वह मीलों तक देख सकती है। फिर और बड़ी | | दूरी होती है। परमात्मा आपकी श्वास-श्वास में है, रोएं-रोएं में है। दूरबीनें हैं, वे आकाश के तारों को देख सकती हैं। लेकिन आप कर | ठीक से समझें तो आप परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्या रहे हैं? जो तारा खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, वह दूरबीन से दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि दूरबीन बड़ा सबल यंत्र है।। | एक मित्र ने और पूछा है। उन्होंने पूछा है कि अगर हम दूर तक उसका सेतु बन जाता है। दूर तक उसका संबंध बन जाता |
| परमात्मा ही हैं. तो फिर जानने की क्या जरूरत है? है। खाली आंख से उतना संबंध नहीं बनता।
कान से आप सुनते हैं। रेडियो भी सुनता है, लेकिन वह काफी अगर सच में ही पता चल गया है कि आप परमात्मा हैं, तब तो दूर की बात पकड़ लेता है। आंख से आप देखते हैं। टेलीविजन भी | जानने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर खतरनाक है। पूछते हैं कि देखता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। सारी अगर हम परमात्मा ही हैं...। वह अगर ही मिटाने के लिए खोज वैज्ञानिक खोजें इंद्रियों का परिष्कार हैं। विज्ञान का जगत इंद्रियों का | की जरूरत है। वह जो यदि लगा हुआ है, वही तो उपद्रव है। जगत है। सारा संसार इंद्रियों से जुड़ा हुआ है।
लेकिन इससे एक उपद्रव पैदा होता है कि आप परमात्मा को भी उन मित्र ने यह भी पूछा है कि परमात्मा को पा लेने खोजने इन्हीं इंद्रियों के रास्ते से चले जाते हैं। यह गलती वैसे ही है, से ही क्या होगा, जब वह मिला ही हुआ है? जैसे कोई आदमी आंखों से संगीत सुनने की कोशिश करने लगे। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। और कितनी ही सबल | कुछ भी नहीं होगा, सिर्फ खोज मिट जाएगी। और खोज मिटते आंख हो, तो भी नहीं सुन सकती। सुनने का काम आंख से नहीं हो ही पीड़ा मिट जाती है, दौड़ मिट जाती है। और जब तक उसे नहीं सकता। सुनने का काम कान से होगा। और कान अगर देखने की पा लिया है, खोज जारी रहेगी। कोशिश करने लगे, तो फिर मुसीबत होगी, पागलपन पैदा होगा।
इंद्रियां बाहर का मार्ग हैं, उनसे भीतर की खोज नहीं हो सकती। एक और मित्र ने पूछा है कि अगर आदमी ही इंद्रियां पदार्थ से जोड़ देती हैं, उनका परमात्मा से जुड़ना नहीं हो परमात्मा है, अगर उसके भीतर ही वह छिपा है, तो सकता। यह उनकी सीमा है। जैसे आंख देखती है, यह उसकी | मिल क्यों नहीं जाता? अड़चन क्यों है? सीमा है। इसमें कोई कसूर नहीं है। .. इंद्रियां बाह्य ज्ञान के साधन हैं। और वह जो छिपा है, वह जो अड़चन इसलिए है कि यह भी चेतना की सामर्थ्य है कि वह चाहे आप हैं, वह भीतर है। उसे खोजना हो, तो इंद्रियों के द्वार बंद करके तो अपने को विस्मरण कर दे। और यह भी चेतना की सामर्थ्य है भीतर डूब जाना होगा। इंद्रियों के सेतु छोड़ देने होंगे। इंद्रियों के कि वह चाहे तो अपने को स्मरण कर ले। जरा जटिल है। चेतना रास्तों से लौटकर अपने भीतर ही खड़े हो जाना होगा।
का अर्थ ही होता है कि जिसे स्मरण और विस्मरण की शक्ति हो। इस भीतर खड़े हो जाने का नाम अध्यात्म है। और भीतर जो और दोनों शक्तियां साथ होती हैं। खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि जिसे मैंने कभी न खोया था, उसे __ अगर कोई आदमी कहता है कि मुझे सिर्फ स्मरण की शक्ति है, मैं खोज रहा था। जिससे मेरा कभी बिछुड़ना न हुआ था, उसके | विस्मरण की नहीं है, तो आप भरोसा मत करना। क्योंकि जो भूल मिलन के लिए मैं परेशान हो रहा था। जो सदा ही पास था, उसे मैं | नहीं सकता, वह याद भी नहीं कर सकता। भूलना और याद करना दूर-दूर तलाश रहा था। और दूर-दूर तलाशने की वजह से उसे नहीं साथ-साथ है। वही याद कर सकता है, जो भूल भी सकता है। जो पा रहा था। नहीं पा रहा था, तो और परेशान हो रहा था। और | भूल सकता है, वही याद भी कर सकता है। परेशान हो रहा था, तो और दूर खोज रहा था। ऐसे खोज एक | तो आप सोचते हैं कि आपके भीतर जो स्मृति की शक्ति है, विशियस सर्किल, एक दुष्टचक्र बन जाती है।
| मेमोरी की, वह विस्मरण पर खड़ी है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि
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अगर कोई आदमी भूलना बंद कर दे, तो फिर याद करना उसी दिन | | यह कोई परमात्मा आपको खेल खिला रहा है, ऐसा नहीं है। आप बंद हो जाएगा।
ही खेल रहे हैं। यह हमारी धारणा में ऐसा बैठा हुआ है कि कोई ऊपर थोड़ा सोचें, दिनभर में जितनी घटनाएं घटती हैं, अगर वे सब परमात्मा बैठा है, और वह आपको खिला रहा है। ऐसा अगर कोई आपको याद रह जाएं, कुछ भी आप भूलें न। आपको पता है, परमात्मा हो, जो आपको यह खेल खिला रहा है, तो उसकी हालत कितनी घटती हैं? हिसाब मनोवैज्ञानिक लगाते हैं, तो कम से कम शैतान से भी बदतर होगी। आपको नाहक सता रहा है! एक आदमी की इंद्रियों पर दस लाख संघात होते हैं चौबीस घंटे में, यह तो ऐसा हुआ, जैसा कि छोटे बच्चे मेंढक को सता रहे हैं; कम से कम। यह भी उस आदमी के, जो कुछ ज्यादा न कर रहा पत्थर मार रहे हैं। क्योंकि वे खेल खेल रहे हैं और मेंढक की जान हो। ज्यादा करने वाले को तो और ज्यादा होंगे।
जा रही है। आप नाहक परेशान हो रहे हैं, कोई परमात्मा ऊपर बैठा ___ दस लाख स्मृतियां बनती हैं। अगर वे सब आपको याद रह हुआ खेल खेल रहा है! वह भी अब तक ऊब गया होता। इतना जाएं, तो दूसरे दिन आपका पता भी न चलेगा कि कहां आप चले खेल हो चुका और सार तो कुछ इस खेल में से दिखाई पड़ता नहीं। गए। आप पागल हो जाएंगे। अगर दस लाख याद रह जाएं, तो नहीं: यह धारणा ही गलत है कि कोई परमात्मा ऊपर बैठकर आपको यह भी याद न रहेगा कि आप कौन हैं! आपकी पत्नी कौन आपको खेल खिला रहा है। आप, परमात्मा खेल खेल रहे हैं। यह है! आपका घर कहां है! पता-ठिकाना क्या है! यह सब गड़बड़ आपकी मौज है। इसे ठीक से समझ लें और गहरे उतर जाने दें। यह हो जाएगा।
आपका ही निर्णय है कि आप अज्ञानी रहना चाहते हैं। इसे मैं गौर उस दस लाख में से दस भी याद नहीं रह जाती हैं। सब भूल | | से कहता हूं, जोर देकर कहता हूं, क्योंकि इसके परिणाम हैं। जाते हैं। इसलिए आपकी स्मृति काम कर पाती है। इसलिए आपको अगर यह किसी और का निर्णय है कि आप अज्ञानी हैं, तो फिर पता रहता है कि आप कौन हैं। घर-ठिकाना कहां है। सांझ दफ्तर आप अपने निर्णय से ज्ञानी न हो सकेंगे। अगर कोई परमात्मा से ठीक अपने ही घर पहुंच जाते हैं। फिर नहीं पहुंच सकेंगे घर, जो | आपको अज्ञानी रखे हुए है, तो फिर उसकी ही मर्जी होगी, तब आप भी दिनभर में घटा है, वह सब याद रह जाए तो।
| ज्ञानी हो जाएंगे। अगर कोई जाल आपको फंसाए चला रहा है, तो वह जो विस्मरण है, उसके कारण स्मृति काम करती है। यह जो| | फिर आप बम
फिर आप बस के बाहर हैं। आप क्या करें? . विरोध है अस्तित्व का, इसे समझ लें।
यह आपका ही निर्णय है कि आप यह खेल खेल रहे हैं। अस्तित्व ध्रुवीयता से, पोलेरिटी से चलता है। यहां अगर धन | छोटे बच्चों को आपने खेल खेलते देखा है? लुकने-छिपने का विद्युत चाहिए, तो ऋण विद्युत के बिना नहीं हो सकती। यहां अगर | | खेल खेलते हैं। खुद की ही आंखें बंद करके बच्चा खड़ा हो जाता पुरुष चाहिए, तो स्त्री के बिना नहीं हो सकता। यहां स्त्री चाहिए, है, ताकि दूसरे छिप जाएं और फिर वह उन्हें खोज सके। तो पुरुष के बिना नहीं हो सकती। यहां दिन चाहिए, तो रात होगी। आप खुद ही अपने से छिप रहे हैं और खोज रहे हैं। यह आपकी
और जन्म चाहिए, तो मौत होगी। यहां विपरीत मौजूद रहेगा। और मौज है। और जिस दिन आप इससे ऊब जाएंगे, खेल खतम करना विपरीत से ही सारी व्यवस्था है।
आपके हाथ में है। जब तक आप कहते हैं कि मैं खतम तो करना चेतना स्मरण कर सकती है, क्योंकि विस्मरण कर सकती है। चाहता हूं, लेकिन खतम होता नहीं है, तब तक समझना कि आप यह चेतना का गुण है। वह आपकी चेतना चाहे तो स्मरण कर बेईमानी की बात कह रहे हैं। सकती है कि कौन है। जिस दिन स्मरण करेगी, उस दिन परमात्मा आज तक ऐसा कभी हुआ नहीं कि किसी ने खतम करना चाहा हो जाएगी। और चाहे तो विस्मरण कर सकती है। जब विस्मरण | हो और खेल चला हो। जो खतम करना चाहता है, उसी वक्त खतम कर दे, तो संसार का एक साधारण हिस्सा हो जाएगी। केवल बात हो जाता है। क्योंकि आपका ही निर्णय खेल का आधार है। इतनी है कि आपको कैसे पुनर्मरण आ जाए।
लेकिन आपकी तरकीब ऐसी है कि आप खेलना भी चाहते हैं,
और खतम करने का मजा भी लेना चाहते हैं। खेलने का भी मजा, लेकिन, पूछा है एक और मित्र ने कि आखिर इस | खतम करने का भी मजा। संसार का भी सुख, और परमात्मा का खेल की परमात्मा को जरूरत क्या है?
भी आनंद। संसार का भी धन, और निर्वाण का भी सुख! सब साथ
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लेना चाहते हैं। इसलिए आप उलझन में हैं।
है। उनकी मनोदशा ऐसी है कि वे चाहते हैं, अगर शांति मिल जाए, आप अगर सच में ही समझ गए हैं कि यह जीवन दुख है, पीड़ा | तो शांति से ये सब मनोवासनाएं पूरी कर लें। है, संताप है, नरक है, तो आप भीतर की तरफ लौटना शुरू हो ही | यह कंट्राडिक्शन है। यह नहीं हो सकता। जाएंगे। कोई आपको रोक न सकेगा।
एक युवक मेरे पास आया। विश्वविद्यालय की किसी बड़ी बुद्ध घर से गए। उनका सारथि उन्हें छोड़ने गया था। सारथि बड़ा | परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है। उसने मुझे कहा कि मन बड़ा दुखी हो रहा था कि बुद्ध भी कैसा नासमझ है! कैसा नासमझ | अशांत है। और इसीलिए आपके पास आया हूं। धर्म की, ज्ञान की लड़का हुआ शुद्धोदन को। लोग जन्मों तक तड़पते हैं, तब कहीं | | मुझे कोई जरूरत नहीं है। मुझे तो सिर्फ, अभी परीक्षा पास है, और ऐसे सम्राट के घर में जीवन मिलता है। ऐसे सुंदर महल, ऐसी सुंदर | जीवन दांव पर लगा है; मुझे प्रथम आना है। प्रथम श्रेणी में प्रथम पत्नी, ऐसा सारा साज-सामान, सारा वैभव छोड़कर यह नासमझ | आना है। आप कोई ऐसी तरकीब बता दें कि मेरा मन शांत हो जाए। लड़का भागा जा रहा है!
मैंने कहा, शांति तू किसलिए चाहता है? उसने कहा कि आखिरी. जब बद्ध उतरने लगे और उन्होंने कहा कि अब रथ को | इसीलिए। अगर शांत हो जाऊं, तो यह प्रथम आने का काम पूरा तू वापस ले जा। तो उस बूढ़े सारथि ने कहा कि माना कि तुम | | हो जाए। अशांति में तो यह न हो सकेगा। मालिक हो और मैं नौकर, लेकिन यह क्षण ऐसा है कि चाहे उसकी बात तर्कयुक्त है। इतना मन अशांत है, तो कैसे श्रम करूं
अशिष्टता भले हो जाए, मुझे कुछ कहना चाहिए। तुम यह क्या कर प्रथम आने का! यह अशांति ही शक्ति खा रही है। इसलिए शांति रहे हो? महलों को छोड़कर जा रहे हो? सारी दुनिया महलों की की तलाश में है। लेकिन उसे पता नहीं कि अशांत क्यों है वह? तरफ आ रही है। सब की आकांक्षा यही है कि कैसे महल में पहुंच अशांति इसीलिए है कि प्रथम आना चाहता है। वह जो महत्वाकांक्षा जाएं। और तम महल छोड़कर जा रहे हो? क्या नासमझी कर रहे है, वही अशांति ला रही है। हो? मुझ बूढ़े की बात पर ध्यान दो!
__ अब बड़ी उपद्रव की बात है। वह चाहता है शांति, ताकि तो बुद्ध ने कहा कि जहां तुझे महल दिखाई पड़ते हैं, वहां मुझे | महत्वाकांक्षा पूरी हो सके। और महत्वाकांक्षा से ही अशांति पैदा हो आग की लपटों के सिवाय और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तो | रही है। अन्यथा अशांति का कोई कारण नहीं है। जिनको महल दिखाई पड़ रहे हैं, वे उस तरफ जा रहे हैं। मैं महलों __ क्या किया जाए इस युवक के लिए? कोई भी शांति का रास्ता में रहकर लपटें देखकर उस तरफ से हट रहा हूं। अगर महल होते, कारगर नहीं होगा। क्योंकि अशांति के बीज तो भीतर गहरे में हैं, तो मैं भी रुक जाता। लेकिन महल वहां हैं नहीं।
उन्हीं से अशांति पैदा हो रही है। ___ वह बूढ़ा छन्ना रोने लगा; वह सारथि रोने लगा। उसकी आंख ___ उससे मैंने कहा कि शांति की तू फिक्र छोड़। तू पहले मुझे यह से आंसू झरने लगे। उसने कहा कि तुम यह क्या कह रहे हो? मेरी बता कि अशांति क्यों हो रही है? क्योंकि अशांति का कारण हट समझ में नहीं आता। तुम किसी भूल में तो नहीं पड़ गए हो? तुम जाए, तो तू शांत हो जाएगा। किसी भ्रम में तो नहीं हो?
उसने कहा, वह भी मेरी समझ में आता है। आपकी बात भी मेरी बुद्ध ने कहा कि भ्रम में वे लोग हैं, जो महल की तरफ जा रहे | | समझ में आती है कि अशांति का कारण यही है कि मैं प्रथम आना हैं। मैं उस जीवन की खोज के लिए निकला हूं अब, जिसमें आग | चाहता हूं। यही उपद्रव है मेरे मन में कि अगर प्रथम न आया, तो की लपटें नहीं हैं। मैं उस शीतल जीवन की खोज में जा रहा हूं, जहां | क्या होगा! उसी से पीड़ित हो रहा हूं। अगर मैं यही वासना छोड़ दूं कोई लपट नहीं है।
प्रथम आने की, तो अशांति का और कोई कारण नहीं है। मगर हम भी चाहते हैं कि ऐसा शीतल जीवन हो। मेरे पास लोग तो फिर मैंने कहा, तू ठीक से तय कर ले। अगर महत्वाकांक्षा आते हैं, वे कहते हैं, शांत हो मन! लेकिन उनकी सब आकांक्षाएं चाहिए, तो अशांत होने की हिम्मत चाहिए। मैं नहीं कहता कि तू अशांति की हैं। उनकी सब आकांक्षाएं, जिनको वे तृप्त करना महत्वाकांक्षा छोड़। फिर अशांति को स्वीकार कर। वह उसका चाहते हैं, अशांति की हैं। और शांति भी चाहते हैं। और जिन | | हिस्सा है। और अगर शांति चाहिए, तो महत्वाकांक्षा को छोड़। आकांक्षाओं को परिपोषित करते हैं, उन सब से अशांति पैदा होती | फिर वह साहस कर। वह शांति का अनिवार्य हिस्सा है।
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गीता दर्शन भाग-6
हमारी दुविधा यह है कि हम संसार और परमात्मा में दोनों में जो मिलता हो, दोनों चाहते हैं । अज्ञान में जो फायदा हो, वह भी चाहते हैं; और ज्ञान में जो फायदा हो, वह भी चाहते हैं। वे दोनों फायदे विपरीत हैं। एक होगा, तो दूसरा डूब जाएगा। दूसरा होगा, तो पहला डूब जाएगा। दोनों साथ नहीं हो सकते हैं।
हम पूरब-पश्चिम दोनों तरफ साथ-साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हम कहीं भी नहीं चल पाते। हम बीच में फंस गए हैं। एक टांग पूरब चली गई है; एक टांग पश्चिम चली गई है। हम बीच में अटके हैं और परेशान हो रहे हैं। और हम एक टांग न पूरब से वापस खींचते हैं, न पश्चिम से वापस खींचते हैं। और हमारा इरादा यह है कि इन दोनों नाव पर सवार होकर हम पहुंच जाएंगे दोनों किनारे पर ।
डूबेंगे बुरी तरह। यह दो नावों पर सवार आदमी डूबेगा ही। और इसका डूबना बड़ा नारकीय होगा। मगर आपको दिखाई नहीं पड़ता कि आप कैसे दो नावों पर सवार हैं। इधर धन की दौड़ लगी हुई है, उधर शांति की भी तलाश है।
एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, धन पर पकड़ छोड़ दो। धन पर पकड़ अगर छोड़ दें, तो फिर क्या होगा ? अगर धन की पकड़ छोड़ दें, तो संसार में कैसे चलेगा?
मैं
ने कहा कि धन की पकड़ छोड़ दो। वे कहते हैं कि धन के बिना कैसे चलेगा? मैंने नहीं कहा कि धन के बिना चलाओ।
धन की जरूरत एक बात है; धन की पकड़ दूसरी बात है। धन की जरूरत तो पूरी हो जाती है; धन की पकड़ कभी पूरी नहीं होती। धन को जितना पकड़ो, उतनी पकड़ बढ़ती जाती है। धन की जरूरत तो पूरी हो सकती है। जरूरतें सब पूरी हो सकती हैं, पागलपन कोई भी पूरा नहीं हो सकता।
अमेरिका का अरबपति एंडू कारनेगी मरा। उसके पास दस अरब रुपए थे। मरते वक्त भी वह यह कहकर मरा है कि मैं असंतुष्ट मर रहा हूं, क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपए छोड़ने के थे । दस अरब केवल! जैसे दस नए पैसे, ऐसे दस अरब केवल!
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दस अरब रुपए भी पास में हों, तो भी पकड़ पूरी नहीं होती। एंडू कारनेगी करेगा क्या दस अरब रुपए का ? कोई उपयोग नहीं है। उपयोग का समय तो बहुत पहले समाप्त हो गया। जो भी मिल सकता था रुपए से, वह बहुत पहले मिल चुका । अब दस अरब रुपए से कुछ भी नहीं पाया जा सकता। लेकिन अभी भी दौड़ पूरी नहीं हुई, पकड़ पूरी नहीं हुई ।
धन की जरूरत एक बात है; धन की पकड़ दूसरी बात है। धन की पकड़ है पागलपन ।
फिर मैं नहीं कहता कि आप धन की पकड़ छोड़ दें। मैं तो तभी | कहता हूं, जब आप कहते हैं, शांति चाहिए, आनंद चाहिए, | परमात्मा चाहिए – तभी कहता हूं। नहीं तो मैं नहीं कहता। मैं कहता हूं, खूब जोर से पकड़िए। आपकी मौज है। कौन आपसे छीन रहा है! और आप दुख चाहते हैं, तो मैं कौन हूं कि आपसे कहूं कि दुख मत चाहिए! मजे से चाहिए। आपको वही पसंद है, वही करिए । लेकिन फिर दूसरी बात मत पूछिए ।
लेकिन हम बड़े उलटे हैं। यह उलझन ही हमारी जटिलता है। और इसलिए रास्ता सब गड़बड़ हो जाता है।
आप धन में आनंद पाते हैं, मजे से पकड़ते चले जाइए। अगर दुख पाते हैं, तो पकड़ छोड़िए । और ये दोहरी बातें एक साथ पूरी | करने की कोशिश मत करिए, कि एक हाथ में धन को भी पकड़े रखेंगे और दूसरे हाथ में परमात्मा को भी पकड़ लेंगे ! ये दोनों बातें आपसे नहीं हो सकेंगी, क्योंकि ये कभी किसी से नहीं हो सकी हैं। इसका यह मतलब है कि आप घर-द्वार छोड़कर भाग जाइए। धन की जरूरत है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि धन | की जरूरत भी वही आदमी पूरा कर पाता है, जिस की धन पर पकड़ नहीं होती। नहीं तो आप सैकड़ों अमीर आदमियों को देखिए, उनसे गरीब आदमी खोजने मुश्किल हैं। धन पर उनकी इतनी पकड़ है कि | वे खर्च ही नहीं कर पाते ! धन का जो उपयोग है, वह भी नहीं कर पाते। कंजूस आपको दिखाई पड़ते हैं कि नहीं ?
मैं एक कंजूस को जानता हूं। वे बीमार थे; मेरे घर के सामने रहते थे; रिटायर्ड डाक्टर थे। अकेले थे, न पत्नी, न बच्चा। शादी उन्होंने | कभी की नहीं। कंजूस को शादी करनी नहीं चाहिए ! वह महंगा खर्चा है। औरतें खर्चीली हैं। शादी उन्होंने की नहीं, उन्होंने मुझसे कहा कि शादी मैंने इसीलिए नहीं की कि औरतें फिजूलखर्ची हैं। किराया आता था; दो बड़े बंगले थे। रिटायर हुए थे मिलिटरी से, डाक्टर थे, तो काफी पैसा इकट्ठा था ।
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एक दिन अचानक उनका पड़ोसी मेरे पास आया और उसने कहा एक और मित्र ने पूछा है कि यदि मनुष्य को अपनी कि डाक्टर बहुत बीमार हैं, आप जरा चलें। मैं गया तो उनका सारी इच्छाएं ही छोड़नी हैं, तो फिर जीवन का लक्ष्य जबड़ा बंद था। वे बेहोश हालत में थे। मैंने पूछा कि क्या गड़बड़ क्या है? है? फोन करके मैं डाक्टर को बुला लूं?
तो पता है आपको, उस मरते हुए डाक्टर ने मुझे क्या कहा? उसने हाथ से इशारा किया कि रुपए ? रुपए मेरे पास नहीं हैं। रुपए 1 यद उनका खयाल हो कि इच्छाओं को पूरा करना ही कौन देगा? मुंह बंद हो गया था। आंखें खुली थीं। लेकिन हाथ से शा जीवन का लक्ष्य है! इच्छाएं तो पूरी होती नहीं। कोई इशारा किया कि रुपए कौन देगा? मैंने कहा, रुपए का कोई इंतजाम इच्छा पूरी नहीं होती। एक इच्छा पूरी होती है, तो दस करेंगे। तुम फिक्र न करो।
को पैदा कर जाती है। अब तक किसी ने भी नहीं कहा है कि कोई डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने कहा कि तत्क्षण अस्पताल ले | इच्छा पूरी हो गई। पूरे होने के पहले ही नई संतति पैदा हो जाती है जाना पड़ेगा। यह यहां ठीक होने वाला मामला नहीं है। तो उस मरते | और शृंखला शुरू हो जाती है। हुए डाक्टर ने मुझसे कहा कि पहले ताले में चाबी लगाकर मकान __जीवन का लक्ष्य इच्छाओं को पूरा करना नहीं है। जीवन का की चाबी मुझे दो। जब चाबी उसको दे दी, तब वह एंबुलेंस में | | लक्ष्य इच्छाओं के बीच से इच्छारहितता को उपलब्ध हो जाना है। सवार हुआ।
जीवन का लक्ष्य इच्छाओं से गुजरकर इच्छाओं के पार उठ जाना है। एंबुलेंस में बिठाकर अस्पताल पहुंचाया गया। दो घंटे बाद वे | क्योंकि जैसे ही कोई व्यक्ति सभी इच्छाओं के पार उठ जाता है, मर गए। मरने के बाद उसके कुर्ते के भीतर पांच हजार रुपए | | वैसे ही उसे पता चलता है कि जीवन की परम धन्यता इच्छाओं में निकले। वह अपने पास ही रखे हुए था। और डाक्टर की पांच रुपए | | नहीं थी। इच्छाओं से तो तनाव पैदा होता था, खिंचाव पैदा होता फीस देने के लिए उसने कहा कि...।
था। इच्छाओं से तो मन दौड़ता था, थकता था, गिरता था, परेशान इसको कहता हूं पकड़। अक्सर अमीर आदमी गरीब मर जाते | | होता था। हैं। अमीर होना जरा कठिन है। अमीर होना धन से संबंधित कम इच्छाशून्यता से प्राणों का मिलन अस्तित्व से हो जाता है। है। धन की पकड़ न हो, तो आदमी अमीर होता है।
क्योंकि कोई दौड नहीं रह जाती. कोई भाग-दौड नहीं रह जाती। दो तरह के गरीब हैं दुनिया में। एक, जिनके पास धन नहीं है। | जैसे झील शांत हो जाए और कोई लहरें न हों। तो उस शांत झील एक, जिनके पास धन की पकड़ है। ये दो तरह के गरीब लोग हैं | | में जैसे चांद का प्रतिबिंब बन जाए, ऐसा ही जब इच्छाओं की कोई दुनिया में। अमीर आदमी बहुत मुश्किल है पाना।
लहर नहीं होती और हृदय शांत झील हो जाता है, तो जीवन का जो धन का उपयोग भी आप तभी कर पाते हैं, जब पकड़ न हो। | | परम रहस्य है, उसका प्रतिबिंब बनने लगता है। आप दर्पण हो जाते
तो मैं नहीं कहता कि आप धन का उपयोग न करें। पकड़ मत | | हैं। और जीवन का रहस्य आपके सामने खुल जाता है। रखें। धन साधन हो, साध्य न बन जाए। और आप धन के | __इच्छाओं के माध्यम से इच्छाशून्यता को उपलब्ध करना जीवन नौकर-चाकर न रह जाएं, कि उसी की हिफाजत कर रहे हैं, पहरा | का लक्ष्य है। दे रहे हैं, इकट्ठा कर रहे हैं और मर जाएं। और मर रहे हैं। इसके लेकिन मैं कह रहा हूं इच्छाओं के माध्यम से, तो आप जल्दबाजी सिवा आपका काम क्या है?
| भी मत करना। परिपक्वता जरूरी है। इच्छाओं को पकने देना। और लेकिन एक बात खयाल रख लें कि जिस दिशा में चलें, उस इच्छाओं से पूरे हृदयपूर्वक गुजरना, ताकि इच्छाओं का रहस्य दिशा की तकलीफों को भी स्वीकार करें। हर दिशा की तकलीफ | | समझ में आ जाए; उनकी व्यर्थता भी समझ में आ जाए; इच्छाओं है। हर दिशा का आनंद है। दोनों आपको स्वीकार करने होंगे। इनमें की मूढ़ता भी समझ में आ जाए। से आप चाहें कि एक को बचा लें और दूसरे को छोड़ दें, तो आप | लेकिन एक बड़ी कठिनाई हो गई है। हम सब अधकचरे हो गए जीवन के विज्ञान को नहीं समझते हैं।
| हैं। अधकचरे हो जाने का कारण यह है कि इसके पहले कि हमें किसी चीज का खुद अनुभव हो, दूसरों के अनुभव और दूसरे के
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गीता दर्शन भाग-60
वचन हमें कंठस्थ हो जाते हैं।
| की तरफ। और जब कामवासना की तरफ जाने लगते हैं, तब सब सुन लिया हमने कि इच्छाओं से मुक्त होना है। और हमने मान | | ब्रह्मचारियों की शिक्षाएं याद आती हैं। तब मन में लगता है, यह क्या भी लिया कि इच्छाओं से मुक्त होना है। और अभी इच्छाओं की | पाप कर रहा हूं? इस लगने के कारण कि क्या पाप कर रहा हूं, पाप पीड़ा हमने अनुभव नहीं की।
भी ठीक से नहीं कर पाते। पाप का अनुभव भी नहीं हो पाता। तो हम इच्छाओं में पूरे उतर भी नहीं सकते, क्योंकि यह शिक्षा अधकचरा रह जाता है सब। पीछे से खींचती है कि कहां जा रहे हो पाप में! इच्छाओं से तो बचना | __ पाप में जाते भी हैं, कर भी नहीं पाते। कोई पीछे खींचता रहता है। है। और यह शिक्षा कारगर भी नहीं होती, क्योंकि इच्छाओं से बचने पीछे खिंच भी नहीं सकते परे, क्योंकि पाप का जब तक परिपक्व का अनुभव हमारा अभी पैदा नहीं हुआ। बुद्ध को हुआ होगा। अनुभव न हो जाए, तब तक आप खिंच भी नहीं सकते, हट भी नहीं महावीर को हुआ होगा। हमको नहीं हुआ। उनका अनुभव हमारे | सकते। स्वानुभव के अतिरिक्त कोई जीवन-क्रांति नहीं है। क्या काम आएगा?
ठीक कहा होगा, जिन्होंने ब्रह्मचर्य को जाना है। ठीक कहा होगा। मझे अनभव होना चाहिए कि आग जलाती है। आप कहते हैं. और जिस दिन आप जानेंगे. आप भी कहेंगे कि ब्रह्मचर्य अमत है। आग जलाती है। मुझे कोई अनुभव नहीं है। तो मेरा हाथ खिंचता है | और आप भी लोगों को समझाएंगे कि कहां उलझ रहे हो। आग की तरफ, क्योंकि मुझे लगता है, कितने प्यारे फूल खिल रहे | स्वभावतः, जब बाप अपने बेटे को देखता है आग की तरफ हैं आग में, इन्हें पकड़ लूं। इन फूलों को सम्हाल लूं। इन फूलों को | जाते, तो कहता है, ठहर! आग मत छू लेना। जल जाएगा। वह अपनी तिजोड़ी में बंद कर दूं। ये प्यारे फूल मुझे लग रहे हैं। मैंने | | ठीक ही कहता है। गलत तो कहता नहीं। लेकिन इस बेटे को दूर से इनको देखा है।
अनुभव होने दे। अगर बाप समझदार हो, तो बेटे को पकड़ेगा, लेकिन जब मैं हाथ बढ़ाने लगता हूं, तो आपकी शिक्षा याद | आग के पास ले जाएगा, और कहेगा, थोड़ा हाथ बढ़ा, आग में आती है कि हाथ मत बढ़ाना। जल जाओगे। हाथ जल जाएगा। डाल। फिर इस बेटे को किसी शास्त्र की जरूरत न रहेगी। फिर यह आग जलाती है। यह शिक्षा मेरे हाथ को वहां तक भी नहीं पहुंचने | | बेटा खुद ही उचककर खड़ा हो जाएगा, और बाप से कहेगा, यह देती, जहां मैं जल जाऊं। और यह शिक्षा मेरा अनुभव भी नहीं क्या करते हो? हाथ जला दिया। अब यह बेटा कभी आग के पास बनती। इसलिए हाथ बढ़ता ही रहता है और आग तक पहुंचता भी न जाएगा। नहीं। बढ़ता भी है, पहुंचता भी नहीं है। ऐसे हम बीच में अटक ___ जो होशियार बाप है, वह अपने ज्ञान को बेटे को नहीं देता; जाते हैं। आपके सब अनुभव झूठे हो जाते हैं।
अपने ज्ञान के आधार पर बेटे को अनुभव का मौका देता है। इसे ___ मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें पता है कि क्रोध बुरा | ठीक से समझ लें। इसमें फर्क है। है, फिर भी क्रोध होता है।
जो सदगुरु है, वह आपको ज्ञान नहीं देता। वह आपको अनुभव यह हो नहीं सकता। अगर पता हो जाए कि क्रोध बुरा है, तो | | की सुविधा जुटाता है, सिर्फ सुविधा जुटाता है। ज्ञान तो आपको क्रोध हो नहीं सकता। आपको पता ही नहीं। सुना है। लोग कहते अपना ही होगा। वह केवल अनुभव की सुविधा जुटाता है, जहां हैं, क्रोध बुरा है। लोग कहते हैं, वह आपने सुन लिया है। उनका आपको अनुभव हो जाए। कहना आपका ज्ञान नहीं है।
गुरजिएफ के पास लोग जाते थे—पश्चिम का एक बहुत कीमती आपको ही ज्ञान करना पड़ेगा।
गुरु-तो गुरजिएफ उनको कहता था, तुम अभी शांति की फिक्र तो मैं तो कहता हूं, ठीक से क्रोध करो, ताकि जल जाओ। और छोड़ो; तुम ठीक से क्रोध कर लो। अधूरा क्रोध तुम्हें कभी शांत न एक दफा ठीक से जल जाओ, तो दुबारा उस तरफ हाथ नहीं जाएगा। | होने देगा। तो वह कहता था, तुम जितना क्रोध कर सकते हो, पहले
लेकिन आप ठीक से क्रोध भी नहीं करते हैं। और जो आदमी | | कर लो। तो वह कहता कि तीन महीने तुम्हें क्रोध की साधना के ठीक से क्रोध नहीं किया है, वह ठीक से शांत नहीं हो सकता। | | लिए। इस वक्त तुम्हें जो भी मौका मिले, तुम चूकना मत। और जो उसकी शांति में भी क्रोध की वासना छिपी रहेगी।
भी मौका मिले, तलाश में रहना। और जितना क्रोध कर सको, आग लोग कहते हैं, ब्रह्मचर्य। और आपका मन खिंचता है कामवासना | जितनी निकाल सको, जहर जितना फेंक सको, फेंकना।
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तीन महीने भी बहुत हो जाते। तीन सप्ताह में भी साधक आकर कहता कि मैं थक गया बुरी तरह। और क्या मूढ़ता आप मुझसे करवा रहे हैं!
क्योंकि आपको पता है, अगर जानकर आप क्रोध करेंगे, तो बहुत जल्दी पता चलने लगेगा कि यह मूढ़ता है। लेकिन गुरजिएफ कहता, अभी जल्दी है। अभी तुम कच्चे हो। अभी तीन ही सप्ताह हुए। लोग जन्मों-जन्मों से क्रोध कर रहे हैं, अभी तक नहीं पके । तुम जरा रुको। तुम तीन महीने चलने ही दो और गुरजिएफ दिए जाता धक्का। धीरे-धीरे साधक को मौका ही न मिलता। एक महीने अगर आपने तलाश की, तो आपको मौके मिलने कठिन हो जाएंगे कि अब कहां क्रोध करें। और जब खुद आप कर रहे हों, तो आपको खुद ही लगता है कि फिर अब यह मूर्खता करने जा रहे हैं! और इसमें कुछ सार नहीं है सिवाय दुख के, पीड़ा के, परेशानी के । जहर फैलता है। खुद की हानि होती है, किसी को कोई लाभ होता नहीं।
तो फिर गुरजिएफ इंतजाम करता। किसी को कहता कि इस आदमी का अच्छी तरह अपमान करो। ऐसे मौके पर अपमान करो कि यह भूल ही जाए और आ जाए क्रोध में वह इस तरह की डिवाइस रचता, इस तरह के उपाय करता, जिनमें आदमियों को परेशान करवाता।
अगर फिर भी वह आदमी न परेशान होता, दो महीने बीत गए, अब उपाय भी काम नहीं करते, तो गुरजिएफ शराब पिलाता, कि शायद शराब पीकर नशे में दबा हुआ कुछ निकल आए। शराब पिलाता, रात आधी रात तक शराब पिलाए चला जाता, और फिर उपद्रव खड़े करवाता।
जब तक सब उपाय से क्रोध को पूरा अनुभव न करवा देता, तब तक वह शांति का उपाय न बताता। और फिर शांति का उपाय बड़ा सरल है। क्योंकि जिसका क्रोध से उपद्रव छूट गया, उसको शांत होने के लिए उपाय नहीं करना पड़ता, वह शांत हो जाता है।
जीवन के अनुभव से बचिए मत, उतरिए । और जल्दी भी मत कर; कोई जल्दी है भी नहीं। बहुत समय है जीवन के पास ।
एक ही नुकसान है समय का, अधकचरे अनुभव आपको कहीं भी न ले जाएंगे। अगर मोक्ष चाहिए, तो संसार का परिपक्व अनुभव जरूरी है। और जल्दबाजी परमात्मा बिलकुल पसंद नहीं करता। और आधे पके फल उसके राज्य में स्वीकृत नहीं हैं। वहां पूरा पका फल होना चाहिए।
आखिरी प्रश्न । एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने को सब भांति परमात्मा में छोड़ दे, लीन कर दे, स्वीकार कर ले उसे, तो उसे परमात्मा मिल जाता है। क्या इसी तरह संसार की चीजें भी मिल सकती हैं?
भू
लकर ऐसा मत करना; कुछ न मिलेगा ! संसार की चीजों को पाने के लिए उपाय करना जरूरी है, श्रम करना जरूरी है, चेष्टा करनी जरूरी है, अशांत होना जरूरी है, पागल होना जरूरी है। तो जो जितना पागल है, संसार में उतना सफल होता है।
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अभी एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने एक वक्तव्य दिया है। और उसने कहा है कि दुनिया के जितने बड़े राजनेता हैं, इन सबका मानसिक अगर परीक्षण किया जाए, तो ये विक्षिप्त पाए जाएंगे, क्योंकि इनकी सफलता हो ही नहीं सकती, अगर ये बिलकुल पागल न हों।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि इंग्लैंड के बड़े राजनीतिज्ञ विंसटन चर्चिल की सफलता का कारण यह था कि विंसटन चर्चिल | को किसी ज्योतिषी ने बचपन में बता दिया और फिर उसे यह वहम | बैठ गया कि वह पैंतालीस साल से ज्यादा नहीं जीएगा। जिस दिन से उसको यह खयाल आ गया कि पैंतालीस साल में मेरी मौत है, | उस दिन से वह पागल की तरह कांपिटीशन में उतर गया, प्रतिस्पर्धा में। दूसरे लोग, जिनको सत्तर-अस्सी साल कम से कम खयाल था | जीने का, वे धीरे-धीरे चल रहे थे। विंसटन चर्चिल को तो तीस | साल कम थे, उसको जल्दी चलना जरूरी था। वह बिलकुल पागल की तरह चलने लगा।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि विंसटन चर्चिल की सफलता का कुल कारण इतना था कि उसको यह खयाल आ गया था कि मेरे पास तीस साल कम हैं। इसलिए मुझे बिलकुल पूरी ताकत लगाकर पागल हो जाना चाहिए।
अभी हिटलर, विंस्टन चर्चिल, स्टैलिन, इनके मनों के अध्ययन जो प्रकाशित हो रहे हैं, उनसे पता चलता है कि ये सब विक्षिप्त थे। लेकिन ये ही विक्षिप्त थे, ऐसा नहीं; दुनिया के सभी राजनीतिज्ञ सफल अगर हो सकते हैं, तो उनको विक्षिप्त होना जरूरी है। विक्षिप्त का मतलब है कि उन्हें, वह जो कर रहे हैं, उसके
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@ गीता दर्शन भाग-60
पीछे बिलकुल पागल होना जरूरी है। उसमें समझदारी की जरूरत | तब मिलती है। नहीं है। उसमें अंधी दौड़ की जरूरत है।
इसलिए जो बहुत सफल हो जाते हैं बाहर की दुनिया में, भीतर जो लोग बहुत धन इकट्ठा कर लेते हैं, उनको भी पागल होना | बिलकुल खाली हो जाते हैं। भीतर उनके कुछ भी नहीं बचता। जरूरी है। वहां रिलैक्सेशन से न चलेगा।
| हिटलर के पास आत्मा जैसी कोई चीज नहीं बचती। बच नहीं मित्र ने पूछा है कि क्या शांति से उपलब्धि हो जाएगी? | सकती। अगर आत्मा बचानी हो, तो हिटलर जो कर रहा है, वह
अगर शांति से संसार की उपलब्धि होती, तो फिर कोई अशांत | नहीं हो सकता। होता ही नहीं। यह सारा संसार अशांत है इसलिए कि यहां की सब धन का ढेर लगा लेना हो, तो फिर भीतर दरिद्र होना जरूरी हैं। उपलब्धि अशांति से होती है। अशांति कीमत है, संसार की भीतर की दरिद्रता आवश्यक है। क्योंकि उसी की कीमत पर मिलता उपलब्धि करनी हो तो।
है यह। इसलिए बुद्धिमान आदमी मैं उसको कहता हूं कि अगर उसको संसार में तो श्रम, विश्राम नहीं। संसार में तो अशांति, शांति संसार की उपलब्धि करनी है, तो अशांत होने के लिए तैयार है। नहीं। संसार में तो पुरुषार्थ, भाग्य नहीं। फिर वह यह नहीं कहता कि मुझे शांति चाहिए।
लेकिन परमात्मा को पाने का रास्ता बिलकुल उलटा है। होगा ही। एक मेरे मित्र हैं। कभी-कभी मिनिस्टर हो जाते हैं; कभी-कभी क्योंकि परमात्मा की दिशा उलटी है। संसार में जाते हैं बाहर की नहीं रह जाते। जब वे नहीं रह जाते, तब वे मेरे पास आते हैं। | तरफ; परमात्मा में जाते हैं भीतर की तरफ। उलटा हो जाएगा सब। साधु-संतों के पास जाते ही तब मिनिस्टर हैं, जब वे मिनिस्टर नहीं तो जिन-जिन कामों से संसार में सफलता मिलती है, उन्हीं-उन्हीं रह जाते। भूतपूर्व मिनिस्टरों से ही मिलना होता है साधु-संतों का।। | कामों से परमात्मा में असफलता मिलती है। इसे ठीक गणित की जो होते हैं, उनसे नहीं होता। और भूतपूर्व इतने हैं मुल्क में कि कोई | तरह समझ लें। और जिन कामों से परमात्मा में सहायता मिलती है, कमी नहीं है।
उन्हीं कामों से संसार में असफलता मिलती है। और दोनों में वे जब नहीं रह जाते, तो मेरे पास आते हैं। और कहते हैं, कोई | साथ-साथ सफलता नहीं मिलती है। नहीं मिल सकती है। नहीं शांति का उपाय? मैं उनको कहता हूं, लेकिन शांति की तुम्हें जरूरत मिलनी चाहिए। कहां है? और अगर तुम शांत हो गए, तो फिर तुम दुबारा मिनिस्टर अगर आप परमात्मा को पाने के लिए अशांत हो रहे हैं, तो फिर न हो सकोगे!
| आपको परमात्मा न मिलेगा। आप परमात्मा को भी संसार की एक वे कहते हैं कि नहीं, कुछ ऐसा बताएं कि शांत भी हो जाऊं, और | वस्तु की भांति समझ रहे हैं। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, उसे पाना अभी तो चीफ मिनिस्टर होने की कोशिश है। अशांति नहीं चाहता; | हो, तो प्रयत्न भी छोड़ देना पड़ता है। उसे पाना हो, तो उसके पाने चीफ मिनिस्टरशिप चाहता हूं।
की वासना भी छोड़ देनी पड़ती है। उसे पाना हो, तो उसको भी भूल तो मैं उनको कहता हूं, आप किसी और के पास जाएं, जो | | जाना पड़ता है। क्योंकि फिर उसकी भी खटक बनी रहे कि अभी तक आपको धोखा दे सकता हो। मैं धोखा नहीं दे सकता। मैं तो आपको नहीं मिला, अभी तक नहीं मिला, तो उससे भी बेचैनी होती है। यही कह सकता हूं, अगर चीफ मिनिस्टर होना है, तो कुशलता से बुद्ध के पास एक युवक आया, सारिपुत्र, फिर बाद में तो अशांत हों, और अशांति को स्वीकार करें। वह हिस्सा है। रास्ते पर | | महाज्ञानी हुआ। सारिपुत्र जिस दिन आया, उसने बुद्ध से कहा कि चलता है आदमी, धूल पड़ती है। वह पड़ेगी। उतनी धूल जरूरी है। | मुझे भी तुम जैसा होना है। तो बुद्ध ने कहा, यह खयाल छोड़, तो चीफ मिनिस्टर होना है, तो थोड़े ज्यादा अशांत हों, क्योंकि अभी हो सकता है। अगर यह खयाल पकड़ लिया, तो मुसीबत है। तो आप सिर्फ मिनिस्टर थे।
क्योंकि जब मैं हुआ मेरे जैसा, तो मुझे यह बिलकुल खयाल नहीं ___ संसार में तो जो भी पाना हो, उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। स्वयं | था, इसलिए हो पाया। तू यह खयाल छोड़ दे कि तुझे बुद्ध जैसा
को बेचना पड़ेगा। स्वयं को नष्ट करना पड़ेगा। एक पैसा भी मुफ्त | होना है। नहीं मिलता है। उतनी ही आत्मा खोती है, तब मिलता है। एक सारिपुत्र अनेक वर्ष मेहनत किया, लेकिन वह खयाल नहीं सफलता भी मुफ्त नहीं मिलती है, उतना ही अस्तित्व नष्ट होता है, | | छूटता था कि मुझे भी बुद्ध जैसा होना है। तो बुद्ध ने उसे एक दिन
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• उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त
बुलाकर कहा कि सारिपुत्र, तू सब कर रहा है, सिर्फ एक चीज बाधा | ___ परमात्मा की उपलब्धि होती है बहने में। संसार की उपलब्धि डाल रही है। यह वासना, कि तुझे मुझ जैसा होना है, यही तुझे मुझ होती है तैरने में। जैसा नहीं होने दे रही है। तू यह वासना छोड़ दे।
अब हम सूत्र को लें। और जिस दिन सारिपुत्र यह वासना भी छोड़ पाया, उसी दिन तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो बुद्ध जैसा हो गया।
स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष तो परमात्मा को पाने के लिए, ज्ञानी कहते हैं, प्रयत्न भी...। और अमर्ष, भय व उद्वेगों से रहित है, वह भक्त मेरे को प्रिय है। शुरू में तो प्रयत्न करना होता है, क्योंकि हमारी आदतें खराब हैं। | और जो पुरुष आकांक्षा से रहित है तथा बाहर-भीतर से शुद्ध है, बिना प्रयत्न के हम कुछ समझ ही नहीं सकते। लेकिन उसे भी छोड़ | दक्ष है और जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कर चुका है देना होता है। उसका लक्ष्य भी छोड़ देना होता है। वह न मिले, तो | | एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है, वह सर्व आरंभों भी इतना ही प्रसन्न होना होता है, जितना कि वह मिल जाए तो। यह का त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। महत्वाकांक्षा भी छोड़ देनी होती है कि मैं ईश्वर को खोजकर रहंगा। कृष्ण और भी लक्षण बताते हैं उसके, जो परमात्मा को प्रिय है
और जिस दिन कोई महत्वाकांक्षा नहीं होती, कोई प्रयत्न नहीं | अर्थात जो परमात्मा के निकट होता चला जाता है, समीप होता होता, और चित्त बिलकुल शांत और शिथिल होता है...। | चला जाता है। ये गुण समीप लाने वाले गुण हैं। ये गुण परमात्मा महत्वाकांक्षा नहीं है, तो अशांति होगी कैसे? कोई तनाव नहीं होता, की तरफ उन्मुख करने वाले गुण हैं। कोई दौड़ नहीं होती। कहीं पहुंचना नहीं है, ऐसी स्वीकृति विश्राम जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है...। है। ऐसी स्वीकृति में वह उपलब्ध हो जाता है।
यह जरा जटिल है। जिसके कारण किसी को कोई अशांति पैदा संसार को पाना है, दौड़िए खूब, पागल होकर दौड़िए, शराब नहीं होती। पर इसे समझना पड़ेगा। क्योंकि ऐसे लोग मिल जाएंगे, पीकर दौडिए। परमात्मा को पाना है, तो दौड़िए ही मत। और सब जो कहेंगे, हमें कृष्ण के कारण अशांति हो रही है। ऐसे लोग मिल तरह के नशे, सब तरह की महत्वाकांक्षाएं छोड़ दीजिए। जाएंगे, जो कहेंगे कि हमें बुद्ध के कारण अशांति हो रही है। ___ अगर संसार पाना है, तो जैसे नदी में कोई तैरता है उलटी धारा | | ऐसे लोग थे। बुद्ध की हत्या करना चाहते थे। अब जो बुद्ध की
की तरफ, वैसे तैरिए। बड़ी ताकत लगानी पड़ेगी। तब भी जरूरी | | हत्या करना चाहता होगा, निश्चित ही उसे अशांति उपलब्ध हो रही नहीं कि पहुंच जाएं, क्योंकि आप अकेले नहीं तैर रहे हैं। और | | है। जिन्होंने जीसस को सूली पर लगाया, उनको परेशानी हो रही लोग भी तैर रहे हैं। और लोग भी तैर ही नहीं रहे हैं, आप न पहुंच | | थी, तभी। तो क्या जीसस ईश्वर के प्यारे नहीं थे? तब तो कृष्ण भी जाएं, इसमें भी बाधा डाल रहे हैं। और खुद पहुंच जाएं, इसका | दिक्कत में पड़ जाएंगे, क्योंकि कृष्ण से भी लोगों को अशांति हो उपाय कर रहे हैं। .
| रही है। वे भी कृष्ण को नष्ट करने के लिए पूरी कोशिश में लगे हैं। आप अकेले नहीं हैं संसार में। और भी उपद्रव आस-पास चल ___ पर यह सूत्र कहता है, तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त रहा है बड़ा। अगर साढ़े तीन, चार अरब आदमी हैं, तो हर एक नहीं होता है। इसका मतलब समझ लें।
आदमी के खिलाफ चार अरब आदमी काम कर रहे हैं। यहां जरूरी नहीं है कि बुद्ध से आप उद्वेग को प्राप्त न हों। बुद्ध के पहुंचना इतना आसान भी नहीं है। इसमें जो बिलकुल पागल होगा, | कारण ही जरूरी नहीं है; आपके कारण भी आप उद्वेग को प्राप्त हो जिद्दी होगा, हठी होगा, जो सुनेगा ही नहीं, देखेगा ही नहीं, अंधे | | सकते हैं। शर्त इतनी है कि बुद्ध अपनी तरफ से आपको उद्विग्न नहीं की तरह दौड़ा चला जाएगा, वह ही शायद पहुंच पाए। करते हैं। मगर आप हो सकते हैं। आप अगर अपने ही कारण हो
लेकिन अगर परमात्मा में जाना है, तो तैरने जैसा नहीं है, बहने रहे हैं, तो बुद्ध का कोई जिम्मा नहीं है। लेकिन बुद्ध आपको उद्विग्न जैसा है। नदी की धार में अपने को छोड़ दिया। तैरते भी नहीं; हाथ | | करने की न तो कोई चेष्टा करते हैं, न उनका कोई रस है। न वे भी नहीं चलाते; नदी ले चली। श्वास-श्वास शांत हो गई, क्योंकि कारण बनते हैं अपनी तरफ से। अब कुछ भी करना नहीं है आपको। नदी सब कर रही है; आप आप कारण न बनें किसी के उद्विग्न होने के, यह ध्यान रखना अपने को छोड़ दिए हैं।
जरूरी है। फिर भी कोई उद्विग्न हो सकता है। क्योंकि उद्विग्न होने
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गीता दर्शन भाग-6
में आप अकेले ही भागीदार नहीं होते, होने वाला भी उतना ही भागीदार होता है।
रे एक परिचित हैं। अपने बेटे से वे हमेशा परेशान रहते हैं। तो मैंने उनके बेटे को कहा कि तेरे पिता जैसा चाहते हैं, तू वैसा ही कर। और कोई खास बात नहीं चाहते हैं, कर दे। इससे कोई तुझे नुकसान होने वाला नहीं है। उनको शांति होगी।
उनके बेटे ने मुझे कहा कि आपको पता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं क्या करता हूं। वे जो कहते हैं, वह भी करूं, उससे भी उद्विग्न होते हैं।
मैंने कहा, उदाहरण | तो उसने कहा कि जैसे अगर मैं काफी साफ-सुथरे कपड़े पहनूं, जो मुझे पसंद हैं, तो वे चार लोगों के सामने कहेंगे कि देखो, मैंने तो हड्डी तोड़-तोड़कर पैसा कमाया। शाहजादे को देखो ! मुफ्त का है। मजा करो। कर लो मजा । जिस दिन मर जाऊंगा, उस दिन भूखे मरोगे ।
अगर ऐसा न करो, साफ-सुथरे कपड़े न पहनो, तो भी वे खड़े होकर लोगों के सामने कहते हैं कि अच्छा! तो क्या मैं मर गया ? जब मर जाऊं, तब इस हालत में घूमना। अभी तो मजा कर लो। यह हालत आएगी, ज्यादा देर नहीं है। लेकिन अभी से तो मत यह शक्ल लेकर घूमो। मेरे सामने यह शक्ल लेकर मत आओ।
तो उनके बेटे ने मुझे कहा कि बड़ी मुसीबत यह है। जो कहते हैं, अगर उसको भी मानो, तो भी उद्विग्नता में कोई फर्क नहीं पड़ता । मतलब यह हुआ कि कोई आदमी उद्विग्न होना ही चाहता है, तो कोई भी बहाना खोज सकता है। आप भी खयाल करना कि जब आप उद्विग्न होते हैं, तो जरूरी नहीं है कि दूसरे ने कारण मौजूद ही किया हो; आप अपने से भी हो सकते हैं।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र उससे कह रहा था कि अच्छी मुसीबत में फंस गया मैं। ऐसी औरत मिल गई कि एक शब्द बोलो कि फंसे। कि फिर वह इस तरह की बातें शुरू कर देती है उस शब्द में से कि उनका कोई अंत ही नहीं आता !
मुल्ला ने कहा, यह कुछ भी । माइन इज़ ए सेल्फ स्टार्टर । तुम्हें तो शब्द बोलना भी पड़ता है। एक मेरी औरत है! बोलने की जरूरत ही नहीं है । और वह शुरू कर देती है । चुप रहना भी खतरनाक है। क्यों चुप हो ? जरूर कोई मतलब है !
खयाल करना, जरूरी नहीं है कि दूसरा कारण उपस्थित कर रहा हो। सौ में निन्यानबे मौके पर तो आप कारण की तलाश कर रहे होते हैं। उसके भी कारण हैं।
दफ्तर में हैं; मालिक ने कुछ कह दिया। वहां प्रकट नहीं कर सकते | मालिक को जवाब देना मुश्किल है। वहां जरा महंगा सौदा है। नौकरी पर आ सकती है। मगर पी गए। वह पीया हुआ कहां जाएगा? उसको कहीं निकालना पड़ेगा।
आप घर पहुंचकर रास्ता खोज रहे हैं कि पत्नी रोटी जलाकर ले आए; कि चाय थोड़ी ठंडी ले आए। आपको पता भी नहीं है कि आप यह रास्ता देख रहे हैं। ऐसा नहीं कि आप यह सोच रहे हैं। यह अचेतन में है। लेकिन क्रोध की एक मात्रा आपके भीतर खड़ी है । वह रास्ता खोज रही है। मालिक की तरफ न बह सकी, क्योंकि वह जरा पहाड़ी की तरफ चढ़ाई थी। इधर पत्नी की तरफ बह सकती है, यह जरा खाई की तरफ उतार है।
आप किसी की तलाश में हैं, जिसकी तरफ आप बह सकें। आप कोई न कोई बहाना खोज लेंगे। और तब पत्नी चौंकेगी। क्योंकि इसी तरह की रोटी उसने कल भी खिलाई थी । और कल आप नाराज न हुए थे। और यही चाय वह सदा जिंदगी से पिला रही है। आज ! उसकी समझ के बाहर है।
इसलिए कभी भी कोई किसी का क्रोध नहीं समझ पाता। क्योंकि क्रोध समझ के बाहर है। जरूरी नहीं है कि वह कारण हो । कारण कहीं और हो। न मालूम कहां हो। हजार कारण दूसरे रहे हों। सब का इकट्ठा मिलकर निकल रहा हो।
उसकी समझ के बाहर है। लेकिन पति परमात्मा है, ऐसा पतियों ने समझाया हुआ है। पतियों ने पत्नियों को समझाया है हजारों साल से कि पति परमात्मा है । यह बेचारे की उसकी अपनी सुरक्षा है। क्योंकि दुनियाभर में पिटकर आता है, अगर घर में भी परमात्मा न हो, तो जीवन अकारण जा रहा है। कहीं कोई उपाय होना चाहिए, जहां वह भी अकड़कर खड़ा हो जाए कि मैं परमात्मा हूं। कई लोग उस पर अकड़ते हैं।
तो पत्नी जो है, वह एक रिलीज है, वह एक सुविधा है। मगर औरतें उपद्रव खड़ा कर रही हैं अब दुनियाभर में। वे कहती हैं, यह हम न मानेंगे अब । इस मुल्क में तो अभी चलता है।
तो पत्नी भी इकट्ठा कर लेती है। पति पर प्रकट नहीं कर सकती। | वह बेटे का रास्ता देखेगी, स्कूल से लौट आए। और बेटे को कुछ पता नहीं है। वे अपने मजे से चले आ रहे हैं, खेलते-कूदते । उन्हें पता नहीं है कि घर में क्या उपद्रव तैयार है।
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घर में घुसते ही से मां टूट पड़ेगी। कोई भी बहाना खोज लेगी। बहाना ऐसा नहीं कि कोई जानकर खोज रही है। सब अचेतन है,
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6 उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त -
अनकांशस है। यह कपड़ा कहां फट गया? यह स्लेट कैसे टूट। जिस व्यक्ति के भीतर से दूसरों को उद्विग्न करने के कारण गई? यह किताब कैसे फट गई?
| समाप्त हो जाते हैं, वह प्रतिक्रिया से, रिएक्शन से मुक्त हो जाता वह लड़के की समझ में ही नहीं आएगा, क्योंकि यह तो रोज ही है। वही लक्षण है। इसी तरह टूटती है और फटती है। पर उसकी समझ के बाहर है कि । । जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी यह क्या हो रहा है। और वह बिलकुल अनुभव करता है कि || किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है...।
अन्याययुक्त है। लेकिन अन्याय की घोषणा और अन्याय के दूसरी घटना तभी घटेगी, जब पहली घट गई हो। अगर आप खिलाफ बगावत कहां करने जाए? एक ही रास्ता है कि मां उसको किसी के कारण नहीं बनते हैं, तो दूसरा आपका कारण बनना भी डांटे-पीटे, तो वह किताब को और फाड़ डाले, स्लेट को और तोड़ चाहे, तो भी बन नहीं सकता है। और अगर दूसरा कारण बनने में डाले, या कमरे में जाकर अपनी गुड़िया की टांग तोड़ दे और | समर्थ है अभी, तो आप समझना कि अभी पहली बात घटी नहीं चीर-फाड़कर रख दे।
है। दूसरा उसका सहज परिणाम है। वह जो दफ्तर में पैदा हुआ था, गुड़िया फंसी उसमें। अब गुड़िया जब आप किसी का कारण नहीं हैं दुख देने का, तो कोई आपको का क्या लेना-देना था आपके दफ्तर में बॉस ने क्या कहा था, | दुख देना भी चाहे तो दे नहीं सकता। उससे? लेकिन यह हो रहा है चौबीस घंटे।
जीसस को सूली पर लटकाया गया, तो भी जीसस ने प्रार्थना की इस सूत्र का अर्थ यह नहीं है कि आप शांत हो जाएंगे, तो आपके परमात्मा से कि इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते ये कारण कोई अशांत न होगा। इस सूत्र का अर्थ है कि आप कारण क्या कर रहे हैं। ये होश में नहीं हैं। ये बेहोश हैं। इसलिए इनको मत बनना। इसका होश रखना कि मैं कारण न बनूं।
पापी मत समझना और इन्हें क्षमा कर देना। और एक बड़े मजे की घटना घटती है। अगर आप कारण न बनें, यह वही आदमी ऐसी प्रार्थना कर सकता है, जिसको अब कोई तो जब दूसरा आपको जबरदस्ती कारण बना लेता है, तो आप क्रुद्ध फांसी भी दे, तो भी क्रोध का कारण नहीं पैदा कर सकता। ऐसी नहीं होते, क्योंकि आप जानते हैं कि बेचारा निकाल रहा है। इस | घटना घट जाए, तो आप प्रभु के समीप होने लगते हैं। बात को, फर्क को समझ लें।
कृष्ण कहते हैं, यह मुझे प्रिय है। और जो हर्ष और अमर्ष, भय जब आप कारण नहीं बनते किसी की उद्विग्नता का, आप | व उद्वेगों से रहित है, वह भक्त मुझे प्रिय है। सचेतन रूप से कारण नहीं हैं उद्विग्नता का, और फिर कोई उद्विग्न __ हर्ष और अमर्ष, भय और उद्वेग से रहित है...। होता हो, तो आप हंस सकते हैं। और अगर आपको उसमें क्रोध | इसे थोड़ा समझें। थोड़ा बारीक, थोड़ा सूक्ष्म है।
आ जाए, तो आप समझना कि आप कहीं न कहीं कारण थे। यही कोई दुखी होता है, तो आप दुखी होते हैं। किसी के घर कोई मर जांच है, और कोई जांच नहीं है।
| गया, तो आपको भी आंसू आ जाते हैं। किसी का घर जल गया, __ अगर आप घर लौटें और पत्नी आप पर टट पडे: तो सच में ही तो आप सांत्वना, संवेदना प्रकट करने जाते हैं। लेकिन क्या कभी
आप जरा भी उद्विग्नता का कारण नहीं हैं तो आप हंस सकेंगे। आप | आपने सोचा कि यह दुख सच्चा है या झूठा है? रिएक्ट नहीं करेंगे; आप प्रतिक्रिया नहीं करेंगे कि आप और जोर से ___ अगर यह सच्चा है, तो इसकी कसौटी एक ही है कि जब किसी उछलने-कूदने लगें और सामान तोड़ने लगें। अगर आप वह करते | का मकान बड़ा हो रहा हो, तब आप खुश हों। तो ही जलने पर हैं, तो आप कितना ही कहें कि मैं कारण नहीं हूं, आप कारण हैं। आपको दुख हो सकता है। और जब कोई जीत रहा हो, तो आप
अगर आप कारण नहीं हैं, तो आप बाहर खड़े रह जाएंगे और | | प्रसन्न हों। तो ही उसकी हार से आपको पीड़ा हो सकती है। हंसेंगे कि यह पत्नी कैसी पागल की तरह काम कर रही है; होश में __कोई गरीब से धनी हो रहा हो, तो आपको हर्ष होता है? पीड़ा नहीं है! आपके मन में दया का भाव पैदा होगा, क्रोध का भाव पैदा होती है। तो फिर दूसरी बात संदिग्ध है कि कोई अमीर से गरीब हो नहीं होगा; कि बेचारी, कुछ अड़चन है, किसी ने सताया है, या | गया हो, तो आपको दुख हो। वह संदिग्ध है; वह नहीं हो सकता। दिनभर का फिजूल काम-बरतन साफ करना, रोटी बनाना-रोज | | क्योंकि जीवन का तो गणित है। और उसकी सीधी साफ लकीरें हैं। की बोरियत, उससे ऊब गई है। लेकिन आपको क्रोध नहीं आएगा। उस हिसाब में कहीं भूल-चूक नहीं है।
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इसलिए मनसविद कहते हैं कि आप जब दूसरे के दुख में दुख बताते हैं, तो भीतर आपको सुख होता है। यह बड़ी जटिल है बात और हमें लगता है कि उलटी मालूम पड़ती है। हमको लगता है, यह बात ठीक नहीं है। क्योंकि जब किसी का घर जल जाता है, हम सच में ही दुखी होते हैं, ऐसा हमें लगता है।
लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, आपके गहरे में थोड़ा-सा सुख होता है। और वह सुख कि अपना घर नहीं जला, एक। इसका जल गया। और जलना ही था, पाप की कमाई थी। यह सब भीतर है। और काफी इतरा रहे थे, रास्ते पर आ गए। देर है उसके न्याय में, अंधेर नहीं है। यह सब भीतर चल रहा है। और ऊपर से सहानुभूति बता रहे हैं। और उस सहानुभूति में भी एक तरह का सुख है कि आज इस हालत में आ गए कि सहानुभूति हम दिखा रहे हैं। भगवान न करे कि कभी हम इस हालत में हों कि कोई हमें सहानुभूति दिखाए।
आपको पता है, जब कोई आपको सहानुभूति दिखाने आता है, तो अच्छा नहीं लगता। खटकता है कि अच्छा, कोई बात नहीं । किस्मत की बात है! कभी मौका आएगा, तो हम भी सहानुभूति बताने आएंगे। ऐसा सदा हमारे यहां थोड़ा ही होता रहेगा ! सब के घर होगा ।
लेकिन जब आपको कोई सहानुभूति बताता है, तो सच में आपको अच्छा लगता है? अगर आपको अच्छा नहीं लगता, तो निश्चित ही जो बता रहा है, उसको अच्छा लग रहा होगा। उसके अच्छे लगने की वजह से ही आपको भी अच्छा नहीं लग रहा है। और आपको अच्छा न लगने की वजह से उसको भी अच्छा लग रहा है। सब जुड़ा है।
दूसरे की खुशी में आप खुश नहीं होते। दूसरे के दुख में भी आपका दुख झूठा है। तभी आपका दुख सच्चा हो सकता है दूसरे के दुख में, जब दूसरे की खुशी में आपकी खुशी सच्ची हो । और दूसरे की खुशी में आपको खुशी तभी हो सकती है, जब आप इतने मिट गए हों कि दूसरा दूसरा मालूम न पड़े। नहीं तो नहीं मालूम हो | सकती। जब तक मैं हूं, तब तक दूसरे की खुशी में मुझे कैसे खुशी मालूम होगी? उसको मिल गई और मुझे नहीं मिली !
राजनीति में भी दो आदमी चुनाव लड़ते हैं, तो हारा हुआ जाता है जीते वाले को धन्यवाद देने, शुभकामना करने। लेकिन उस शुभकामना में कितना अर्थ होगा ! और शुभकामना में कितनी पीड़ा होगी! लेकिन खेल के नियम हैं, वे भी पूरे करने पड़ते हैं। इससे ऊपर-ऊपर सब व्यवस्था बनी रहती है। भीतर-भीतर जहर चलता
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रहता है, ऊपर-ऊपर व्यवस्था बनी रहती है। ऊपर-ऊपर मुस्कुराहटें लगी रहती हैं, भीतर-भीतर कांटे सरकते रहते हैं और छुरी चलती रहती है।
दूसरा जब तक दूसरा है, तब तक आप उसके दुख में दुखी नहीं हो सकते। दूसरा जब तक दूसरा है, उसके सुख में सुखी नहीं हो सकते। और दूसरा जब दूसरा ही नहीं होगा...। कब नहीं होगा? जब आप नहीं होंगे भीतर, वह भीतर की अस्मिता, अहंकार नहीं होगा।
लेकिन बड़ी जटिलता है। जब अहंकार ही नहीं होता, तो अपने सुख में भी सुख नहीं होता, अपने दुख में भी दुख नहीं होता। और जो व्यक्ति अहंकारशून्य हो जाता है, वह हर्ष - विषाद के परे हो जाता है— न अपना, न दूसरे का ।
लेकिन यह थोड़ा सोचने जैसा है कि बुद्ध जैसा व्यक्ति भी तो दूसरों का दुख दूर करने की कोशिश करता है!.
जापान में एक फकीर हुआ नान-इन । उससे किसी ने पूछा कि बुद्ध सब दुखों के पार हो गए, लेकिन क्या उन्हें दूसरे का दुख अभी भी छूता है? यह बड़ा विचारणीय है। क्योंकि वे दूसरे के दुख को दूर करने की कोशिश में तो लगे हैं।
तो नान-इन ने कहा है, दूसरे का दुख नहीं छूता । दूसरे का दुखस्वप्न दिखाई पड़ता है, नाइटमेयर ।
जैसे कि मैं जाग जाऊं रात । अपना सपना समाप्त हो गया, मैं जाग गया। और आपको मैं देखता हूं पड़ोस में ही, आपके मुंह से फसूकर गिर रहा है, और छाती जोर से धड़क रही है, और आप कंप रहे हैं, और आंख से आंसू बह रहे हैं, और लगता है कि कोई | आपकी छाती पर चढ़ा है, कोई आपको सता रहा है। इससे मैं दुखी नहीं होता। मैं हंस सकता क्योंकि यह सपना है। लेकिन यह सपना मुझे है । आपको असलियत है अभी। और आप पूरी तकलीफ पा रहे हैं। और मैं आपको जगाने की कोशिश भी कर सकता हूं।
इस जगाने का मतलब यह नहीं है कि मैं आपके दुख से दुखी हो रहा हूं। इस जगाने का कुल मतलब इतना ही है कि मैं जानता हूं कि तुम नाहक ही परेशान हो रहे हो, और तुम्हारी परेशानी झूठी है। लेकिन तुम्हारे लिए अभी सच्ची है। क्योंकि तुम सो रहे हो। और तुम जाग जाओ, तो तुम्हारे लिए भी झूठी हो जाएगी।
तो बुद्ध की जो चेष्टा है, या कृष्ण की जो चेष्टा है, वह आपका दुख दूर करने की नहीं है। दुखी तो आप हैं नहीं। लेकिन दुखस्वप्न दूर करने का है।
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ॐ उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त -
आप सपना देख रहे हैं बड़े दुख का, और बड़े परेशान हो रहे | | जीवन का पता भी नहीं चलता। झलक भी मिलती है, तो वह झलक हैं, और बड़ी करवटें ले रहे हैं। यह जो आपकी दशा है, इससे बुद्ध भी ऐसी लगती है कि शायद सिर्फ मौत को प्रकट करने के लिए दुखी नहीं हो रहे हैं। इससे बुद्ध सिर्फ इतना अनुभव कर रहे हैं कि | आती है। सिर्फ मौत का पता चल जाए, इसलिए जीवन की लकीर अकारण तुम दुखी हो रहे हो और इस दुख के बाहर आ सकते हो। कहीं-कहीं झलक में आती है। बाकी चारों तरफ मौत है। और जिस भांति वे बाहर आ गए हैं, वह रास्ता कह रहे हैं कि इस ___ पदार्थ का अर्थ है, मृत्यु। और इंद्रियों से पदार्थ के अतिरिक्त भांति तुम भी बाहर आ जाओगे।
किसी चीज का पता नहीं चलता। इसलिए भय पकड़ता है। वह जो कृष्ण का सूत्र कहता है, तथा जो हर्ष और अमर्ष, भय और भीतर अमृत है, जो कभी नहीं मरता, वह भी भयभीत होता है मौत उद्वेगों से रहित है...।
को चारों तरफ देखकर। चारों तरफ घटती मौत, आपको भी वहम जिसे न अब कोई हर्ष होता, न जिसे अब कोई अमर्ष होता। न | पैदा होता है कि मैं भी मरूंगा। जिसे अब कोई चीज भयभीत करती है। मौत भी नहीं। क्योंकि मौत | जो व्यक्ति इंद्रियों के पार भीतर उतरता है और देखता है, उसे भी स्वप्न है। कोई कभी मरता नहीं है, प्रतीत होता है कि हम मरते | पता चलता है कि यहां जो बैठा है, वह मरता ही नहीं। वह कभी हैं। जिसकी अंतर-दशा में ऐसा अनुभव होने लगे कि मौत भी | मरा नहीं, वह मर नहीं सकता। यह जो अमृत का बोध न होना शुरू घटित नहीं होती मुझे, मौत भी मेरे आस-पास आती है और गुजर हो जाए, तो आदमी भयभीत रहेगा। फर्क को समझ लें। जाती है, और मैं अछूता, अस्पर्शित रह जाता हूं, ऐसा व्यक्ति मुझे __ जिनको आप कहते हैं निर्भय, उनसे प्रयोजन नहीं है यहां। हम प्रिय है।
दो तरह के लोगों को जानते हैं। भयभीत, भीरु, कायर; निर्भय, महावीर ने तो अभय को पहला लक्षण कहा है, कि वही आत्मा | बहादुर। अभय तीसरी बात है। जिसको हम निर्भय कहते हैं, वह को उपलब्ध हो सकेगा, जो अभय को उपलब्ध हो जाए। भी भयभीत तो होता है, लेकिन भागता नहीं। भयभीत तो वह भी कृष्ण कहते हैं, जिसका भय नहीं रहा कोई, वह प्रभु को प्रिय है। होता है, लेकिन भागता नहीं। जिसको हम कायर कहते हैं, वह भी
लेकिन भय क्या है? एक ही भय है; सब भय की जड़ में एक भयभीत होता है, लेकिन भागता है। कायर और बहादुर में इतना ही ही भय है कि मैं मिट न जाऊं, कहीं मैं मिट न जाऊं; मौत कहीं मुझे फर्क है कि कायर भी भयभीत होता है, बहादुर भी भयभीत होता समाप्त न कर दे। बस, यही भय है सारे भय के पीछे। फिर बीमारी है; लेकिन कायर भयभीत होकर भाग खड़ा होता है, बहादुर डटा का हो, दुख का हो, सब के गहरे में मौत है।
रहता है। बाकी भयभीत दोनों होते हैं। और जब तक कोई व्यक्ति अहंकार के पार नहीं झांकता, और अभय का अर्थ है, जो भयभीत नहीं होता। उसको बहादुर नहीं इंद्रियों के पीछे नहीं देखता, तब तक मौत दिखाई पड़ती ही रहेगी। कह सकते आप, क्योंकि बहादुरी का भी कोई सवाल नहीं रहा। क्योंकि इंद्रियों के बाहर जो जगत है, वहां मौत है। जिस संसार को जब भय ही नहीं, तो बहादुरी क्या? जिसको भय ही नहीं लगता, आप आंख से देख रहे हैं, वहां मौत है। वहां वास्तविकता है मौत उसकी बहादुरी का क्या मूल्य है ? इसलिए महावीर को बहादुर नहीं की। वहां मौत ही ज्यादा वास्तविक है; जीवन तो वहां क्षणभंगुर है। कह सकते हैं। __ फूल खिला नहीं कि मुरझाना शुरू हो जाता है। बच्चा पैदा नहीं | __ अभय! अभय का अर्थ है, अब न बहादुरी रही, न कायरता हुआ कि मरना शुरू हो जाता है। वहां सब परिवर्तित हो रहा है। रही। वे दोनों खो गईं। अब इस आदमी को यह पता है कि मृत्यु परिवर्तन का अर्थ है कि प्रतिपल मौत घटित हो रही है। इंद्रियों का जहां घटती ही नहीं। अनुभव है, उस अनुभव के जगत में मृत्यु प्रतिपल घटित हो रही है। तो कृष्ण कहते हैं, वह भक्त मुझे प्रिय है, जिसे अमृत की थोड़ी वहां जीवन आश्चर्य है। मृत्यु तथ्य है। वहां जीवन संदिग्ध है। झलक मिलने लगी, जो भय के पार होने लगा।
इसीलिए तो नास्तिक कहते हैं कि जीवन है ही नहीं; सभी पदार्थ और जो पुरुष आकांक्षा से रहित है तथा बाहर-भीतर से शुद्ध है। क्योंकि मौत इतनी घटित हो रही है कि तुम कहां जीवन की बातें है, दक्ष है अर्थात जिस काम के लिए आया था, उसको पूरा कर लगा रहे हो! यहां जीवन सिर्फ सपना है तुम्हारा। यहां सब मौत है। चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है, वह सर्व
एक लिहाज से उनके कहने में सचाई है। बाहर के जगत में आरंभों का त्यागी भक्त मुझे प्रिय है।
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0 गीता दर्शन भाग-60
आकांक्षा से रहित है...।
पर जानें लोग अटकाए हुए हैं, अपनी जाने लगाए हुए हैं। और जो जिसने वासनाओं की व्यर्थता को समझ लिया और अब जो मांग है, वह विस्मृत हो जाता है। नहीं करता कि मुझे यह चाहिए। जो मिल जाता है, कहता है, बस ___ आकांक्षा का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी खोज। आकांक्षा-मुक्ति यही मेरी चाह है। जो नहीं मिलता, उसकी चिंता नहीं है, आकांक्षा | का अर्थ है, जो है, उसमें तृप्ति। भी नहीं है।
बाहर-भीतर से जो शुद्ध है। हमें तो जो नहीं मिलता, उसका ही खयाल है। जो मिल जाता है, शुद्ध कौन है बाहर-भीतर से? शुद्ध वही है, जो बाहर-भीतर उसको हम भूल जाते हैं। आपको खयाल है! जो मिल जाता है, उसको | । एक-सा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है, वह अशुद्ध है। आप भूल जाते हैं। जो नहीं मिलता है, उसका खयाल बना रहता है। शुद्ध का क्या अर्थ होता है? आप कब कहते हैं, पानी शुद्ध है? और जब तक नहीं मिलता है, तभी तक खयाल बना रहता है। | जब पानी में पानी के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है, तब आप
जिस कार को आप खरीदना चाहते हैं और जब तक नहीं खरीदा उसे कहते हैं, पानी शुद्ध है। कब आप कहते हैं, दूध शुद्ध है ? जब है, तभी तक वह आपके पास है। जिस दिन आप खरीद लेंगे, उसमें दूध में सिर्फ दूध होता है और कुछ नहीं होता। शुद्ध पानी और शुद्ध बैठ जाएंगे, वह आपके पास नहीं रही; भूल गई। अब दूसरी कारें | दूध को भी मिलाएं, तो दोनों अशुद्ध हो जाते हैं। आपको दिखाई पड़ने लगेंगी, जो दूसरों के पास हैं।
यह बड़े मजे की बात है। दोनों शुद्ध थे, तो डबल शुद्ध हो जाने जिस मकान में आप हैं, वह आपको नहीं दिखाई पड़ता। वह भी | | चाहिए। लेकिन शुद्ध पानी शुद्ध दूध में मिलाओ; दोनों अशुद्ध हो दूसरों को दिखाई पड़ता है, जो फुटपाथ पर बैठे हैं। उनको दिखाई | गए। न पानी शुद्ध रहा, न दूध शुद्ध रहा। बात क्या हो गई? फारेन पड़ता है कि गजब का मकान है। काश! इसके भीतर होते, तो पता | एलिमेंट, जो विजातीय है, वह अशुद्धि पैदा करता है। जब दूध दूध नहीं कैसा आनंद मिलता! और वे भी कभी नहीं देखते कि भीतर | था; सिर्फ दूध था एकरस; सिर्फ दूध ही दूध था, बाहर-भीतर जो रह रहा है, उसकी गति भी तो देखो। उसे कोई आनंद-वानंद | एक-सा ही था, तब शुद्ध था। जब पानी एक-सा ही था, तब वह नहीं मिल रहा है। वह अलग परेशान है। इस मकान में वह रहना | | भी शुद्ध था। अब न पानी पानी रह गया, न दूध दूध रह गया। दो ही नहीं चाहता। वह किसी और मकान की खोज कर रहा है। | पैदा हो गए, द्वंद्व खड़ा हो गया।
जो नहीं है. उसका हमें खयाल है। जो है. उसे हम भल जाते हैं। जब आप भीतर-बाहर एक-से होते हैं. पानी-पानी. दध-दध। जो नहीं है, उससे दुख पाते हैं। जो है, उससे कोई सुख नहीं जो भी हैं, जैसे भी हैं-बुरे हैं, भले हैं, यह सवाल नहीं है-जैसे मिलता।
भी हैं, बाहर-भीतर एक-से होते हैं, तो आप शुद्ध होते हैं। और मैंने सुना है, एक आदमी शाक-सब्जी वाले की दुकान पर केले जब बाहर-भीतर आप दो तरह के होते हैं, जब आपके भीतर दो खरीद रहा था। और केले वाले से उसने पूछा कि कितनी कीमत आदमी होते हैं, तब वे दोनों ही अशुद्ध हो जाते हैं। बाहर-भीतर की है? तो उसने कहा, एक रुपया दर्जन। तो उस आदमी ने कहा, | समरसता, एक-सा पन शुद्धि है।
की लट कर रहे हो। सामने की दुकान पर आठ आने दर्जन कृष्ण कहते हैं, जो बाहर-भीतर शद्ध है, एक जैसा है, वह मझे मिल रहे हैं ये ही केले। तो उस दुकानदार ने कहा, बड़ी खुशी से | प्रिय है। वहीं से खरीद लें। तो उस आदमी ने कहा, लेकिन आज उसके केले | क्योंकि जो बाहर-भीतर एक-सा हो जाता है, उसके भीतर द्वंद्व खतम हो गए हैं। तो उस दुकानदार ने कहा कि जब मेरे खतम हो | | मिट गया। और जिसके भीतर द्वंद्व मिट गया, वह तैयार हो गया जाते हैं, तब तो मैं चार आने दर्जन बेचता हूं! जब मेरे भी खतम हो | | निर्द्वद्व, अद्वंद्व को अपने भीतर पहुंचाने के लिए। क्योंकि जैसे हम जाते हैं, तो मैं भी चार आने दर्जन, मैं तो चार ही आने दर्जन पर हैं, उससे ही हमारा मिलन हो सकता है। अगर हम द्वंद्व में हैं, तो बेच देता हूं फिर। वह लूट रहा है। आठ आने दर्जन बता रहा है; | अद्वैत से हमारा मिलन नहीं हो सकता है। समान से मिलता है लूट रहा है।
समान। इसलिए भीतर और बाहर एक-सां पन! __ मगर इस दुनिया में जो नहीं है, उसका भी काफी मोल-भाव चल | अगर चोर हैं, तो कोई फिक्र न करें। चोर भी परमात्मा को पा रहा है। जो नहीं है, उस पर भी हिसाब लग रहा है। जो नहीं है, उस | सकता है, लेकिन बाहर-भीतर एक-सा! यही कठिनाई है कि चोर
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ॐ उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त
बाहर-भीतर एक-सा नहीं हो सकता। नहीं तो चोरी नहीं चलेगी। के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है। और अगर यही काम आप नहीं कर अगर वह घोषणा कर दे कि मैं चोर हूं, तो चोरी तत्क्षण समाप्त हो | पा रहे हैं, यह अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, तो आप दक्ष नहीं हैं। और जाएगी।
जो भी दक्ष हो जाता है, वह परमात्मा के लिए प्रिय है। मैंने सुना है, एक सम्राट अपने कारागृह में गया। उसका पक्षपात से रहित, सब दुखों से छूटा हुआ, सर्व आरंभों का जन्मदिन था. और कैदियों को कछ मिठाई बांटने गया था। और हर त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है। कैदी ने कहा कि मैं बिलकुल निर्दोष हूं महाराज! जालसाजी है, मुझे आरंभ का अर्थ है, जहां से वासना शुरू होती है। अगर वासना फंसा दिया गया। यह अपराध झूठा था, गवाह झूठे थे। यह सब | छोड़नी है, तो बीच में नहीं छोड़ी जा सकती; अंत में नहीं छोड़ी जा अन्याय हो गया है। मुझे मुक्त करो। हर कैदी ने यही कहा। सकती; प्रारंभ में ही छोड़ी जा सकती है।
आखिरी कैदी के पास सम्राट पहुंचा और कहा कि तेरा क्या __ आप रास्ते से गुजरे और एक मकान आपको लगा, बहुत सुंदर खयाल है? तू भी शुद्ध है? तू भी निर्दोष है क्या?
है। अभी आपको खयाल भी नहीं है कि वासना का कोई जन्म हो उस आदमी ने कहा कि नहीं महाराज, मैं चोर हूं, और मैंने चोरी | रहा है। आप शायद सोच रहे हों कि आप बड़े सौंदर्य के पारखी हैं, की थी। और ठीक न्याययुक्त ढंग से मेरा मुकदमा चला। और बड़ा एस्थेटिक आपका बोध है, इसलिए मकान आपको सुंदर लग जिन्होंने गवाही दी, उन्होंने ठीक ही गवाही दी। और अदालत ने जो रहा है। लेकिन यह आरंभ है। जो मकान सुंदर लगा, उसके पीछे फैसला किया, वह उचित है। जितना मेरा पाप था, उसके अनुकूल थोड़ी ही देर में दूसरी बात भी लगेगी कि कब मेरा हो जाए। मझे दंड मिला है।
आरंभ हमेशा छिपा हुआ है; पता नहीं चलता। आप कहते हैं, सम्राट ने अपने आदमियों को कहा कि इस शैतान को फौरन | एक स्त्री जा रही है, कितनी सुंदर है! और आप सोचते होंगे कि जेलखाने के बाहर करो। थ्रो दिस क्रुक आउट आफ दि जेल। | चूंकि आप बड़े चित्रकार हैं, बड़े कलाकार हैं, इसलिए। लेकिन
सारे कैदी चिल्लाने लगे कि यह क्या अन्याय हो रहा है? यह | जैसे ही आपने कहा, कितनी सुंदर है, थोड़ी खोज करना, भीतर आदमी अपने मुंह से कह रहा है कि मैं चोर हूं और मुझे ठीक ही | | छिपी है दूसरी वासना, कैसे मुझे उपलब्ध हो जाए! हुआ कि दंड मिला, और हम चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि यह आरंभ है। अगर इस आरंभ में ही नहीं चेत गए, तो वासना हम निर्दोष हैं, और इस दोषी को जिसने खुद स्वीकार किया, उसको पकड़ लेगी। इसलिए सर्व आरंभ का त्यागी। जहां-जहां से उपद्रव आप बाहर करते हैं!
शुरू होता हो, उस उपद्रव को ही पहचान लेने वाला, और वहीं तो उस सम्राट ने कहा, उसका कारण है। अगर इस शैतान को त्याग कर देने वाला। अगर वहां त्याग नहीं हुआ, तो मध्य में त्याग हम बाहर नहीं करते, तो तुम सब निर्दोष आत्माओं को यह खराब नहीं हो सकता। मध्य से नहीं लौटा जा सकता। कर देगा।
कुछ चीजें हैं, हाथ से तीर की तरह छूट जाती हैं, फिर उनको जब कोई चोर भी इतना खुला हो जाता है, और सहज कह देता लौटाना मुश्किल है। जब तक तीर नहीं छूटा है और प्रत्यंचा पर है भीतर-बाहर एक, तो परमात्मा आप निर्दोष आत्माओं को बचाने सवार है, तब तक चाहें तो आप लौटा ले सकते हैं। के लिए उसको तत्काल अलग कर देता है। नहीं तो वह आपको आरंभ का अर्थ है, जहां से तीर छूटता है। खराब कर दे। ऐसे शैतान को यहां नहीं बचने दिया जाता। सब आरंभ का त्यागी परमात्मा को प्रिय है। __आप क्या हैं, यह सवाल नहीं है। अगर आप एकरस अभिव्यक्त पांच मिनट रुकेंगे। कोई बीच से उठे न। कीर्तन करें और फिर हो जाते हैं, जैसे हैं, तो इस जगत में आपके लिए फिर कोई जगह | जाएं। नहीं है। फिर परमात्मा के हृदय में ही आपके लिए जगह है।
दक्ष, जिस काम के लिए आया था, उसे पूरा कर चुका...।
वह जो मैं कह रहा था, उसी काम के लिए प्रत्येक व्यक्ति आया है कि वासनाओं में उतरकर जान ले कि व्यर्थ हैं। आकांक्षा करके देख ले कि जहर है। संसार में उतरकर देख ले कि आग है। इसी काम
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अध्याय 12 जौवां प्रवचन
भक्ति और स्त्रैण गुण
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0 गीता दर्शन भाग-60
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति । आप स्त्री और पुरुष दोनों हैं एक साथ। फिर अंतर क्या है? शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।। १७ ।। अंतर केवल अनुपात का है। जो पुरुष है, वह साठ प्रतिशत पुरुष समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। जो स्त्री है, वह साठ प्रतिशत स्त्री है, शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।।१८।। चालीस प्रतिशत पुरुष है। यह अनुपात का भेद होगा। लेकिन आप और जो न कभी हर्षित होता है,न द्वेष करता है, न सोच पुरुष हैं, तो आपके भीतर छिपी हुई स्त्री है। और आप स्त्री हैं, तो करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ आपके भीतर छिपा हुआ पुरुष है। संपूर्ण कमों के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष इस सदी के बहुत बड़े विचारक, बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव मेरे को प्रिय है।
जुंग ने पश्चिम में इस विचार को पहली दफा स्थापित किया। पूरब और जो पुरुष शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम तथा | में तो यह विचार बहुत पुराना है। हमने अर्धनारीश्वर की मूर्ति बनाई, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब जिसमें शंकर आधे स्त्री हैं और आधे पुरुष हैं। वह हजारों साल संसार में आसक्ति से रहित है, वह मेरे को प्रिय है। पुरानी हमारी धारणा है। और वह धारणा सच है। लेकिन जुंग ने
पहली दफा पश्चिम में इस सदी में इस विचार को बल दिया कि
कोई परुष परुष नहीं. कोई स्त्री स्त्री नहीं. दोनों दोनों हैं। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, परमात्मा के इसके बहुत गहरे अर्थ हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप प्रेमी भक्त के जो बहुत-से गुण और लक्षण इस पुरुष हैं, तो आपको स्त्री के प्रति जो आकर्षण मालूम होता है, वह अध्याय में कहे गए हैं, वे सब के सब स्त्रैण गुण वाले आकर्षण आपके भीतर छिपी हुई स्त्री के लिए है। और इसलिए इस हैं। इसका क्या कारण है? और समझाएं कि केवल दुनिया में किसी भी स्त्री से आप तृप्त न हो पाएंगे। क्योंकि जब तक स्त्रैण गुणों पर जोर देने में क्या जीवन का असंतुलन आपको अपने भीतर की स्त्री से मिलना न हो जाए, तब तक कोई निहित नहीं है? जीवन के विराट संतुलन में स्त्रैण व तृप्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। पौरुष गुणों के सम्यक योगदान का महत्व भक्ति-योग __ और स्त्री हैं अगर आप, तो पुरुष का जो आकर्षण है, और पुरुष के संदर्भ में क्या है?
की जो तलाश है, वह कोई भी पुरुष आपको संतुष्ट न कर पाएगा। सभी पुरुष असफल हो जाएंगे। क्योंकि जब तक आपके भीतर छिपे
पुरुष से आपका मिलन न हो जाए, तब तक वह खोज जारी रहेगी। 97 क्ति का मार्ग स्त्री का मार्ग है। लेकिन इसका यह अर्थ | असल में हर आदमी अपने भीतर छिपी हुई स्त्री या पुरुष को 01 नहीं कि पुरुष उस मार्ग पर नहीं जा सकते हैं। लेकिन बाहर खोज रहा है। कभी-कभी किसी-किसी में उसकी झलक
पुरुष को भी जाना हो, तो उसके मन में परमात्मा के प्रति | | मिलती है, तो आप प्रेम में पड़ जाते हैं। प्रेम का एक ही अर्थ है कि प्रेयसी वाली भावदशा चाहिए। भक्ति के मार्ग पर पुरुष भी स्त्री आपके भीतर जो स्त्री छिपी है, उसकी झलक अगर आपको किसी होकर ही प्रवेश करता है। इसे थोड़ा गहराई में समझ लेना जरूरी है। स्त्री में मिल जाती है, तो आप प्रेम में पड़ जाते हैं।
पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि न तो कोई स्त्री पूरी इसलिए जब आप प्रेम में पड़ते हैं, तो न तो कोई तर्क होता है, स्त्री है और न कोई पुरुष पूरा पुरुष। दोनों दोनों में मौजूद हैं। होंगे | न कोई कारण होता है। आप कहते हैं, बस, मैं प्रेम में पड़ गया। ही। उसके कारण हैं। क्योंकि चाहे आप परुष हों और चाहे स्त्री. | आप कहते हैं. मेरे वश में नहीं है यह बात। आपके भीतर की स्त्री आपकी बनावट स्त्री और पुरुष दोनों से हुई है। आप अकेले नहीं | से जब भी बाहर की किसी स्त्री का कोई भी तालमेल हो जाता है। हो सकते हैं। न तो पुरुष के बिना आप हो सकते हैं और न स्त्री के |
| लेकिन यह तालमेल ज्यादा देर नहीं चल सकता। क्योंकि यह बिना आप हो सकते हैं। दोनों का दान है आप में। आप दोनों का तालमेल पूरा कभी भी नहीं हो सकता। आपके भीतर जैसी स्त्री मिलन हैं। दोनों आपके भीतर मौजूद हैं। आपकी मां भी मौजूद है, | | पृथ्वी पर कहीं है ही नहीं। वह आपके भीतर ही छिपी है। आपके आपके पिता भी।
भीतर जैसा पुरुष पृथ्वी पर कहीं है नहीं। किसी में भनक मिल
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ॐ भक्ति और स्त्रैण गुण व
सकती है थोड़ी। लेकिन जैसे ही आप निकट आएंगे, भनक टूटने | पुरुष बिना उपयोग किया हुआ पड़ा है। और जब ऊपर की स्त्री लगेगी। जितना निकट आएंगे, उतना ही डिसइलूजनमेंट, उतना ही | | कमजोर हो जाती है, तो भीतर का पुरुष धक्के मारने लगता है और भ्रम टूट जाएगा।
प्रकट होने लगता है। इसलिए धन्यभागी वे प्रेमी हैं, जो अपनी प्रेयसियों से कभी नहीं | पुरुष चुक जाता है पचास साल में अपने पौरुष से। और भीतर मिल पाते हैं, क्योंकि उनका भ्रम बना रहता है। अभागे वे प्रेमी हैं, की स्त्री अनचुकी, ताजी बनी रहती है। वह प्रकट होनी शुरू हो जिनको उनकी प्रेयसियां मिल जाती हैं, क्योंकि भ्रम टूट जाता है। जाती है। मिली हुई प्रेयसी ज्यादा देर तक प्रिय नहीं रह जाती। मिला हुआ प्रेमी यह जो पचास साल की उम्र के बाद अंतर पड़ता है, यह बड़ा ज्यादा देर तक प्रिय नहीं रह जाता। क्योंकि भ्रम टूटेगा ही। तालमेल | जटिल है। और इसके कारण हजारों कठिनाइयां पैदा होती हैं। थोड़ा-बहुत हो सकता है। वह भी आभास है।
क्योंकि जिंदगीभर आप पुरुष रहे, तो आपने पुरुष के गुणों की तरह जुंग कहता है कि जब तक भीतर आपकी स्त्री और आपके पुरुष | अपने को सजाया, संवारा, सुशिक्षित किया। और अचानक आपके का अंतर-मिलन न हो जाए, तब तक आप अतृप्त रहेंगे और तब | | भीतर फर्क होता है, नई दुनिया शुरू होती है। उसकी कोई ट्रेनिंग तक कामवासना आपको पकड़े रहेगी।
नहीं, उसका कोई प्रशिक्षण नहीं। इसको हमने युगनद्ध कहा है। तंत्र की भाषा में भीतर जब स्त्री | | जुंग ने सलाह दी है कि पैंतालीस साल के स्त्री-पुरुषों को हमें और पुरुष का मिलन हो जाता है, उसे हमने युगनद्ध कहा है। वह | | फिर से स्कूल भेजना चाहिए, क्योंकि उनके भीतर एक क्रांतिकारी जो मिलन है, उस मिलन के साथ ही आप अद्वैत हो जाते हैं; एक फर्क हो रहा है, जिसकी उनके पास कोई तैयारी नहीं है। और हो जाते हैं; दो नहीं रह जाते। और वह जो एक की घटना भीतर | जिसकी उनके पास तैयारी है, वह व्यर्थ हो रहा है और एक नई घटती है, वही परमात्मा का मिलन है।
घटना घट रही है। और जब तक हम इस बात को पूरा न कर पाएं, अभी आप दो हैं। इसका मनोवैज्ञानिक यह पहलू भी समझ लेना | जुंग कहता है, लोग ज्यादा मात्रा में विक्षिप्त होते रहेंगे। जरूरी है कि जो आप ऊपर होते हैं, उससे विपरीत आप भीतर होते | ___ पैंतालीस साल की उम्र खतरनाक उम्र है। उसके बाद सारी हैं। ऊपर पुरुष, तो भीतर स्त्री। ऊपर स्त्री, तो भीतर पुरुष।। | मानसिक बीमारियां शुरू होती हैं। लेकिन पैंतालीस साल की उम्र ___एक और मजेदार घटना मनोवैज्ञानिकों के खयाल में आती है ही धार्मिक होने की उम्र भी है।
और वह यह किं जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, आप में विपरीत लक्षण __ और जुंग ने कहा है कि मेरे पास जितने मरीज आते हैं मन के, प्रकट होने लगते हैं। जैसे स्त्रियां पचास के करीब पहुंच-पहुंचकर उनमें अधिक की उम्र पैंतालीस के ऊपर है या पैंतालीस के करीब पुरुष जैसी होने लगती हैं। अनेक स्त्रियों को मूंछ के बाल, दाढ़ी के | | है। और उनमें अधिक की बीमारी यही है कि उनके जीवन में धर्म बाल उगने शुरू हो जाते हैं। उनकी आवाज पुरुषों जैसी भर्राई हुई | नहीं है। अगर धर्म होता, तो वे पागल न होते। हो जाती है। उनके गुण पुरुषों जैसे हो जाते हैं। उनका शरीर भी। यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, भक्ति का जो मार्ग, इसमें धीरे-धीरे पुरुषों के करीब पहुंचने लगता है।
वे स्त्रैण गुणों की चर्चा कर रहे हैं। और अर्जुन जैसा पुरुष खोजना पचास के बाद पुरुषों में स्त्रैणता आनी शुरू हो जाती है। उनमें | | मुश्किल है। यह विरोधाभासी लगता है। अर्जुन है क्षत्रिय; पुरुषों गुण स्त्रियों जैसे होने शुरू हो जाते हैं।
में पुरुष। हजारों-हजारों साल में वैसा पुरुष होता है। उससे यह मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इसका अर्थ यह है कि जो आपके | स्त्रैण गुणों की बात! निश्चित ही प्रश्न उठाती है। ऊपर-ऊपर था, जिंदगीभर आपने उसका उपयोग करके चुका | | लेकिन अगर मेरी बात आपके खयाल में आ गई, तो उसका लिया। और जो भीतर दबा था, वह बिना चुका रह गया। इसलिए | मतलब यह है कि अर्जुन का पुरुष तो चुक ही जाने को है। और आप ऊपर से कमजोर हो गए हैं और भीतर की बात प्रकट होनी | | जीवन के अंतिम हिस्से में जब अर्जुन का पुरुष चुक जाएगा, तब शुरू हो गई है।
उसकी स्त्री प्रकट होनी शुरू होगी। वह जो विपरीत दबा पड़ा है, वह एक स्त्री पचास साल तक स्त्री के तल पर चुक जाती है, समाप्त बाहर आएगा। और उस विपरीत से ही धर्म का मार्ग बनेगा। एक। हो जाती है। उसने उपयोग कर लिया स्त्री-ऊर्जा का और भीतर का दूसरी बात यह भी खयाल में ले लेनी जरूरी है कि स्त्रैण होने
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का आध्यात्मिक अर्थ होता है, ग्राहक होना, रिसेप्टिव होना। पुरुष होकर ही साधना करनी है। है आक्रामक, एग्रेसिव, हमलावर। बायोलाजिकली भी, जैविक तो रामकृष्ण छः महीने तक स्त्री के कपड़े ही पहनते थे। स्त्री जैसे व्यवस्था में भी पुरुष हमलावर है। स्त्री ग्राहक है। स्त्री गर्भ है। वह ही उठते-बैठते थे। स्त्रैण भाव से ही जीते थे। और एक ही धारणा स्वीकार करती है, समा लेती है, आत्मसात कर लेती है। हमला | मन में थी कि मैं प्रेयसी हूं और परमात्मा प्रेमी है। नहीं करती है।
बड़ी हैरानी की घटना घटी, जो हजारों लोगों ने देखी है। वह भक्ति का मार्ग ग्राहक, स्वीकार करने का मार्ग है। वह स्त्रैण है। यह कि रामकृष्ण की चाल थोड़े दिन में बदल गई। वे स्त्रियों जैसे वहां परमात्मा को अपने भीतर स्वीकार करना है। श्रद्धापूर्वक, नत | चलने लगे। होकर, सिर को झुकाकर उसे अपने भीतर झेल लेना है। भगवान बहुत कठिन है चलना स्त्रियों जैसा। क्योंकि स्त्री के शरीर का के लिए गर्भ बन जाता है भक्त। वह पुरुष है या स्त्री, इससे कोई । ढांचा अलग है, पुरुष के शरीर का ढांचा अलग है। चूंकि स्त्री के सवाल नहीं। लेकिन जो गर्भ नहीं बन सकता भगवान के लिए, वह शरीर में गर्भ है, इसलिए बड़ी खाली जगह है। उस खाली जगह भक्त नहीं बन सकता।
| की वजह से उसके पैर और ढंग से घूमते हैं। पुरुष के पैर उस ढंग . आपको शायद सुनकर हैरानी हो या कभी आपको पता भी हो, से नहीं घूम सकते। एक ऐसा भी भक्तों का संप्रदाय हआ है, जिनमें पुरुष भी स्त्रियों के लेकिन रामकृष्ण ऐसे चलने लगे, जैसे स्त्रियां चलती हैं। यह भी कपड़े ही पहनते थे। अब भी बंगाल में उसकी थोड़ी-सी धारा शेष कुछ बड़ी बात न थी। इससे भी बड़ी घटना घटी कि दो महीने के है। वे स्त्री जैसे ही रहते हैं भक्त। और परमात्मा को अपना पति | बाद रामकृष्ण के स्तन बढ़ने लगे। यह भी कोई बहुत बड़ी बात नहीं स्वीकार करते हैं। रात सोते भी हैं, तो परमात्मा की मूर्ति साथ लेकर थी, क्योंकि एक उम्र में पुरुषों के थोड़े स्तन तो बढ़ ही जाते हैं। जो सोते हैं, जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी को साथ लेकर सो रही हो। सबसे बड़ी चमत्कारी घटना घटी, वह यह कि चार महीने के बाद
यह बात हमें बड़ी अजीब-सी लगेगी, क्योंकि हमें इसके भीतर | रामकृष्ण को मासिक-धर्म शुरू हो गया। यह मनुष्य जाति के के रहस्य का कोई पता नहीं है। और जिस बात के भीतर के रहस्य | इतिहास में घटी थोड़ी-सी मूल्यवान घटनाओं में से एक है, कि का हमें कोई पता न हो, बड़ी अड़चन होती है।
भाव का इतना परिणाम शरीर पर हो सकता है! .. राहुल सांकृत्यायन ने, एक बड़े पंडित ने बड़ा विरोध किया है| ।। इतने अंतःकरणपूर्वक उन्होंने मान लिया कि मैं तुम्हारी प्रेयसी हूं इस बात का, कि यह क्या पागलपन है। ये पुरुष स्त्रियां बन जाएं, | और तुम मेरे प्रेमी हो, यह भावना इतनी गहरी हो गई कि शरीर के यह कैसी बेहूदगी है! यह कैसा नाटक है! और कोई भी ऊपर से रोएं-रोएं ने इसको स्वीकार कर लिया और शरीर स्त्रैण हो गया। देखेगा, तो ऐसा ही लगेगा।
साधना के छः महीने के बाद भी रामकृष्ण को छः महीने लग गए लेकिन राहुल सांकृत्यायन को कुछ भी पता नहीं है कि भीतर, | वापस ठीक से पुरुष होने में। ये सारे लक्षण विदा होने में फिर छ: भक्त के भीतर क्या घटित हो रहा है। यह जो उसका स्त्रैण रूप है महीने और लगे। ऊपर से, यह तो उसके भीतर की घटना की अभिव्यक्ति मात्र है। वह भक्त का अर्थ है, प्रेयसी का भाव। इसलिए कृष्ण जो भी गुण, भीतर से भी स्त्रैण हो रहा है। और आप जानकर हैरान होंगे, लक्षण बता रहे हैं, वे सब स्त्रैण हैं। कभी-कभी भक्त इस जगह पहुंच गए हैं, जब कि उनकी भाव की क्या आपने कभी खयाल किया कि दुनिया के सभी धर्मों ने, चाहे स्त्रैणता इतनी गहरी हो गई कि उनके शरीर के अंग तक स्त्रैण हो गए। वे भक्त-संप्रदाय हों या न हों, जिन गुणों को मूल्य दिया है, वे स्त्रैण
रामकृष्ण के जीवन में ऐसी घटना घटी। वह अनूठी है। क्योंकि हैं। चाहे महावीर उसको अहिंसा कहते हों। चाहे बुद्ध उसको करुणा रामकृष्ण एक बड़ा मूल्यवान प्रयोग किए। वह प्रयोग था कि उन्होंने कहते हों। चाहे जीसस उसको प्रेम कहते हों। ये सब स्त्रैण गण हैं। एक मार्ग से तो परमात्मा को जाना। जानने के बाद दूसरे मार्गों से स्त्री अगर पूरी तरह प्रकट हो, तो ये गुण उसमें होंगे। चलकर भी जानने की कोशिश की, कि दूसरे मार्गों से भी वहीं | । इसलिए इस विचार के कारण जर्मनी के गहन विचारक फ्रेडरिक पहुंचा जा सकता है या नहीं! तो उन्होंने आठ-दस मार्गों का प्रयोग नीत्शे ने तो बुद्ध, क्राइस्ट, इन सबको स्त्रैण कहा है। और कहा है किया। उसमें एक यह भक्ति-मार्गियों का पंथ भी था, जिसमें स्त्री कि इन्हीं लोगों ने सारी दुनिया को बर्बाद कर दिया। क्योंकि ये जो
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ॐ भक्ति और स्त्रैण गुण ®
बातें सिखा रहे हैं, वे लोगों को स्त्रैण बनाने वाली हैं। के वीर्यकण होते हैं। एक वीर्यकण होता है, जिसमें चौबीस सेल
नीत्शे ने तो विरोध में यह बात कही है कि मनुष्य जाति को स्त्रैण | | होते हैं, चौबीस कोष्ठ होते हैं। और एक वीर्यकण होता है, जिसमें बना दिया, बुद्ध, क्राइस्ट, इस तरह के लोगों ने। क्योंकि जो तेईस कोष्ठ होते हैं। स्त्री के जो रजकण होते हैं, उन सबमें चौबीस शिक्षाएं दीं, उसमें पुरुष के गुणों का कोई मूल्य नहीं है। पौरुष का, कोष्ठ होते हैं। उनमें तेईस कोष्ठ वाला कोई रजकण नहीं होता। तेज का, बल का, आक्रमण का, हिंसा का, संघर्ष का, युद्ध का | | उनमें सबमें चौबीस कोष्ठ वाले रजकण होते हैं। कोई भाव नहीं है। तो इन्होंने स्त्रैण बना दिया जगत को।
जब स्त्री का चौबीस कोष्ठ वाला रजकण, पुरुष के चौबीस उसकी बात में थोड़ी दूर तक सच्चाई है। लेकिन वे लोग सच | कोष्ठ वाले वीर्यकण से मिलता है, तो स्त्री का जन्म होता है, में ही स्त्रैण बनाने में सफल नहीं हो पाए। नहीं तो पृथ्वी स्वर्ग हो | चौबीस-चौबीस। और जब स्त्री का चौबीस कोष्ठ वाला रजकण, जाती है।
पुरुष के तेईस कोष्ठ वाले वीर्यकण से मिलता है, तब पुरुष का जीवन में जो भी मूल्यवान है, वह कहीं न कहीं मां से जुड़ा हुआ | जन्म होता है, चौबीस-तेईस। है। जीवन में जो भी मूल्यवान है, कीमती है, कोमल है, फूल की | जीवशास्त्री कहते हैं कि स्त्री संतुलित है, उसके दोनों पलड़े तरह है, वह कहीं न कहीं स्त्री से संबंधित है।
| बराबर हैं, चौबीस-चौबीस। और पुरुष में एक बेचैनी है, उसका और पुरुष तो एक बेचैनी है। स्त्री एक समता है। जरूरी नहीं; | एक पलड़ा थोड़ा नीचे झुका है, एक थोड़ा ऊपर उठा है। कि स्त्रियां ऐसा न सोच लें कि वे ऐसी हैं। यह तो स्त्री के परम अर्थ इसलिए अगर आप, छोटी बच्ची भी हो और छोटा लड़का हो, की बात है। परम लक्ष्य पर स्त्री अगर हो, तो ऐसा होगा। अभी तो | दोनों को देखें, तो लड़के में आपको बेचैनी दिखाई पड़ेगी। लड़की अधिक स्त्रियां भी पुरुष जैसी हैं और वे पूरी कोशिश कर रही हैं कि | शांत दिखाई पड़ेगी। लड़का पैदा होते से ही थोड़ा उपद्रव शुरू पुरुष जैसी कैसे हो जाएं। पश्चिम में वे बड़ी लड़ाई लड़ रही हैं कि | करेगा। उपद्रव न करे, तो लोग कहेंगे कि लड़का थोड़ा स्त्रैण है, पुरुष के जैसी कैसे हो जाएं। कपड़े भी पुरुष जैसे पहनने हैं; काम | | लड़कियों जैसा है। वह जो बेचैनी है, वह जो असंतुलन है, वह भी पुरुष जैसा करना है; अधिकार भी पुरुष जैसे चाहिए। सब जो काम शुरू कर देगा। पुरुष कर रहे हैं!
इस बेचैनी की तकलीफें हैं, इसके फायदे भी हैं। समता का लाभ __ अगर पुरुष सिगरेट पी रहे हैं, तो स्त्रियां भी उसी तरह सिगरेट | | भी है, नुकसान भी है। दुनिया में कोई लाभ नहीं होता, जिसका पीना चाहती हैं। क्योंकि यह असमानता खलती है, अखरती है। | नुकसान न हो। कोई नुकसान नहीं होता, जिसका लाभ न हो।
तो जो पुरुष कर रहा है, अगर वह गलत भी कर रहा है, तो स्त्री | पुरुष में जो बेचैनी है, उसी के कारण उसने इतने बड़े साम्राज्य को भी वह करना ही चाहिए! सारी दुनिया में एक दौड़ है कि स्त्रियां | बनाए। पुरुष में जो बेचैनी है, उसी के कारण उसने विज्ञान निर्मित भी पुरुष जैसी कैसे हो जाएं।
किया, इतनी खोजें की। पुरुष में बेचैनी है, इसलिए वह एवरेस्ट पर इसलिए स्त्रियां यह न सोचें कि जो मैं कह रहा हूं, वह उनके चढ़ा और चांद पर पहुंचा। बाबत लागू है। वे सिर्फ यह सोचें कि अगर उनकी स्त्रैणता पूरे रूप स्त्री में वह बेचैनी नहीं है, इसलिए स्त्रियों ने कोई खोज नहीं की, में प्रकट हो, तो जो मैं कह रहा हूं, वह सही होगा।
कोई आविष्कार नहीं किया। वह तृप्त है। वह अपने होने से पर्याप्त स्त्री अगर पूरे रूप में प्रकट हो....। और स्त्री पूरे रूप में प्रकट है। उसको कहीं कुछ जाना नहीं है। उसकी समझ के बाहर है कि हो सकती है। और जब पुरुष भी पूरे रूप में प्रकट होता है, तो स्त्री | एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या है! जैसा हो जाता है। इसके कारण बहुत हैं।
हिलेरी से, जो आदमी एवरेस्ट पर पहली दफा चढ़ा, उससे पहले तो बायोलाजिकली समझने की कोशिश करें। उसकी पत्नी ने पूछा कि आखिर एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या
जीवशास्त्री कहते हैं कि स्त्री में संतुलन है, पुरुष में संतुलन नहीं है? बिलकुल समझ के बाहर है बात कि नाहक, सुख-शांति से घर है, शरीर के तल पर भी। जिन वीर्यकणों से मिलकर जीवन का जन्म में रह रहे हो, परेशान हो जाओ; मौत का खतरा लो। जरूरी नहीं होता है, रज और वीर्य के मिलन से जो व्यक्तित्व का निर्माण होता कि पहुंचो। अनेक लोग मर चुके हैं। और पहुंचकर भी मिलेगा है, उसमें एक बात समझने जैसी है। पुरुष के वीर्यकण में दो तरह क्या? अगर पहुंच भी गए, तो फायदा क्या है? आखिर एवरेस्ट पर
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0 गीता दर्शन भाग-60
चढ़ने की जरूरत क्या है?
है, तो आपके भीतर छिपी जो स्त्री है, उसके गुणों को आपको तो पता है, हिलेरी ने क्या कहा? हिलेरी ने कहा, जब तक | विकसित करना होगा। और अगर स्त्रियों को भी बाहर की तरफ एवरेस्ट है, तब तक आदमी बेचैन रहेगा; चढ़ना ही पड़ेगा। यह जाना है, तो उनके भीतर छिपा हुआ जो पुरुष है, उनको उसे कोई कारण नहीं है और। लेकिन एवरेस्ट का होना, कि अनचढ़ा | विकसित करना होगा। एक पर्वत है, आदमी के लिए चुनौती है। क्योंकि एवरेस्ट है, | | बहिर्यात्रा पुरुष के सहारे हो सकती है, अंतर्यात्रा स्त्री के सहारे। इसलिए चढ़ना पड़ेगा। कोई और कारण नहीं है। | इसलिए कृष्ण ने स्त्रैण गुणों को इतनी गहराई से कहा है।
पुरुष में एक बेचैनी है। इसलिए पुरुष युद्ध के लिए आतुर है; संघर्ष के लिए आतुर है। नए संघर्ष खोजता है; नए उपद्रव मोल लेता है। नई चुनौतियां स्वीकार करता है।
एक मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा कि क्रोध ___चांद पर जाने की कोई जरूरत नहीं है। अभी तो कोई भी जरूरत | | को पूरा जानने के लिए क्रोध का पूरा अनुभव जरूरी नहीं थी। लेकिन चांद है, तो रुकना बहुत मुश्किल है। जिस है। तो कामवासना को पूरा कैसे जाना जाए? क्योंकि
वैज्ञानिक ने पहली दफा चांद की यात्रा का खयाल दिया, उसने अनुभवियों ने कहा है कि कामवासना की तृप्ति कभी लिखा है कि अब हमारे पास चांद तक पहुंचने के साधन हैं, तो हमें भी नहीं हो पाती; जितनी भोगेंगे, उतनी ही बढ़ती पहुंचना ही है। अब कोई और वजह की जरूरत नहीं है। अब हम जाएगी। तो कामवासना को कैसे पार किया जाए? पहुंच सकते हैं, तो हम पहुंचेंगे।
तो फायदा है। फायदा है, संसार के तल पर पुरुष के गुणों का फायदा है। इसलिए स्त्रियां पिछड़ जाती हैं। संसार की दौड़ में वे | 1 हले तो अनुभवियों से थोड़ा बचना, खुद के अनुभव कहीं भी टिक नहीं पातीं। लेकिन नुकसान भी उसका है! तो बेचैनी, | प का भरोसा करना। अशांति, विक्षिप्तता, पागलपन, वह सब पुरुष का हिस्सा है। इसका यह मतलब नहीं है कि अनुभवियों ने जो कहा स्त्रियां शांत हैं।
है, वह गलत कहा है। इसका कुल मतलब इतना है कि दूसरे के इसे आप ऐसा समझें कि अगर बाहर के जगत में खोज करनी अनुभव को मानकर चलने से आप अनुभव से वंचित रह जाएंगे। हो, तो पुरुष के गुण उपयोगी हैं। पुरुष बहिर्गामी है। अगर भीतर | और अगर अनुभव से वंचित रह गए, तो अनुभवियों ने जो कहा के जगत में जाना हो, तो स्त्री के गुण उपयोगी हैं। स्त्री अंतर्गामी है। है, वह आपको कभी सत्य न हो पाएगा।
स्त्री और पुरुष जब प्रेम भी करते हैं, तो पुरुष आंख खोलकर प्रेम अनुभवियों ने जो कहा है, वह अनुभव से कहा है। दूसरे करना पसंद करता है, स्त्री आंख बंद करके। पुरुष चाहता है कि अनुभवियों को सुनकर नहीं कहा है। यह फर्क खयाल में रखना। प्रकाश जला रहे, जब वह प्रेम करे। स्त्रियां चाहती हैं, बिलकुल उन्होंने यह नहीं कहा है कि अनुभवियों ने कहा है, इसलिए हम अंधेरा हो। पुरुष चाहता है कि वह देखे भी कि स्त्री के चेहरे पर क्या | कहते हैं। उन्होंने कहा है कि हम अपने अनुभव से कहते हैं। तुम भाव आ रहे हैं, जब वह प्रेम कर रहा है। स्त्री बिलकुल आंख बंद | | भी अगर सच में ही मुक्त होना चाहो, तो अपने अनुभव से ही। कर लेती है। वह पुरुष को भूल जाना चाहती है। वह अपने भीतर | | और यह बात गलत है कि अनुभव से कामवासना बढ़ती है। डूबना चाहती है। प्रेम के गहरे क्षण में भी वह पुरुष को भूलकर अपने | | कोई वासना दुनिया में अनुभव से नहीं बढ़ती। और अगर अनुभव भीतर डूबना चाहती है। उसका जो रस है, वह भीतरी है। | से कामवासना बढ़ती है, तो फिर इस दुनिया में कोई भी आदमी ___पुरुष देखना चाहता है कि स्त्री प्रसन्न हो रही है, आनंदित हो रही उससे मुक्त नहीं हो सकता। है, तो वह प्रसन्न होता है। वह देखता है कि स्त्री दुखी हो रही है, अनुभव से सभी चीजें क्षीण होती हैं। अनुभव से सभी चीजों में परेशान हो रही है या उसके मन में कोई भाव नहीं उठ रहा है, तो | ऊब आ जाती है। एक ही भोजन कितना ही स्वादिष्ट हो, रोज-रोज उसका सारा सुख खो जाता है। पुरुष बहिर्दृष्टि है। | करें, कितने दिन कर पाएंगे? थोड़े दिन में स्वाद खो जाएगा। फिर
इसका मतलब यह हुआ कि अगर आपको भीतर की तरफ जाना | थोड़े दिन बाद बेस्वाद हो जाएगा। फिर कुछ दिन बाद आप भाग
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जाना चाहेंगे कि आत्महत्या कर लूंगा, अगर यही भोजन वापस | | और बिना गुजरे कोई किसी की बात भी नहीं मान सकता है। मिला तो।
अनुभव के अतिरिक्त इस जगत में कोई अनुभूति नहीं है। अनुभव __ अनुभव से ऊब आती है। चित्त रस खो देता है। और अगर
ना होगा। अनुभव से ऊब नह
| फिर घबडाहट भी क्या है इतनी? इतना पार होने की जल्दी भी नहीं ले रहे हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना।
| क्या है ? अगर परमात्मा एक अवसर देता है, उसका उपयोग क्यों और अनुभव आप ठीक से ले नहीं सकते, क्योंकि अनुभवियों | | न किया जाए? और उस उपयोग को पूरा क्यों न समझा जाए? ने जो कहा है, वह आपकी परेशानी किए दे रहा है। अनुभव के | जरूर निहित कोई प्रयोजन होगा। परमात्मा आपसे ज्यादा समझदार पहले आप छूटना चाहते हैं।
| है। और अगर उसने आपमें कामवासना रची है, तो उसका कोई यह मित्र पूछते हैं कि कामवासना से कैसे पार जाया जाए? | | निहित प्रयोजन होगा। पहले कामवासना में तो चले जाओ, तो पार भी चले जाना। पार महात्मा कितना ही कहते हों कि कामवासना बुरी है, लेकिन जाने की जल्दी इतनी है कि उसमें भीतर जा ही नहीं पाते, उतर ही परमात्मा नहीं कहता कि कामवासना बुरी है। नहीं तो रचता नहीं। नहीं पाते।
| नहीं तो उसके होने की कोई जरूरत न थी। परमात्मा तो रचे जाता एक काम का गहन अनुभव भी पार ले जा सकता है। लेकिन | है, महात्माओं की वह सुनता नहीं! वह कभी गहन हो नहीं पाता। यह पीछे से जान अटकी ही रहती है। जरूर कोई निहित प्रयोजन है। और वह निहित प्रयोजन यह है कि पार कब, कैसे हो जाएं। न पार हो पाते हैं, न अनुभव हो पाता कि ये महात्मा भी पैदा नहीं हो सकते थे, अगर कामवासना न होती। है। और बीच में अटके रह जाते हैं।
ये महात्मा भी उसी अनुभव से गुजरकर पार गए हैं। इन्होंने भी उसमें जब मैं आपसे कहता हूं कि अनुभव ही मुक्ति है, तो उसका अर्थ | | पड़कर जाना है कि व्यर्थ है। वह व्यर्थता का बोध बड़ा कीमती है। ठीक से समझ लें। क्योंकि जो चीज व्यर्थ है, वह अनुभव से दिखाई | वह होगा ही तब, जब आपको अनुभव में आ जाए। पड़ेगी कि व्यर्थ है। और किसी तरह दिखाई नहीं पड़ सकती। | तो जल्दी मत करना। उधार अनुभव का भरोसा मत करना।
जब तक आपको अनुभव नहीं है, आप भला सोचें कि व्यर्थ है, | | इसका यह मतलब नहीं है कि आप अनुभवियों को कहो कि तुम लेकिन सोचने से क्या होगा! रस तो कायम है भीतर। और कितने | | गलत हो। आपको इतना ही कहना चाहिए कि हमें अभी पता नहीं ही अनुभवी कहते हों कि व्यर्थ है, उनके कहने से क्या व्यर्थ हो | | है। और हम उतरना चाहते हैं, और हम जानना चाहते हैं कि क्या जाएगा। और अगर उनके कहने से होता होता. तो अब तक सारी है यह कामवासना। और हम इसे पुरा जान लेंगे। तो अगर यह दुनिया की कामवासना तिरोहित हो गई होती।
गलत होगी, तो वह जानना मुक्ति ले आएगा। और अगर यह सही बाप कितना नहीं समझाता है बेटे को। बेटा सुनता है? लेकिन होगी, तो मुक्त होने की कोई जरूरत नहीं है। बाप कहे चला जाता है। और बाप इसकी बिलकुल फिक्र नहीं | एक बात निश्चित है कि अब तक जिन्होंने भी ठीक से जान करता कि वह भी बेटा था, और उसके बाप ने भी यही कहा था, लिया, वे मुक्त हो गए हैं। और दूसरी बात भी निश्चित है कि और उसने भी नहीं सुना था। अगर वह ही सुन लेता, तो यह बेटा | | जिन्होंने नहीं जाना, वे कितना ही सिर पीटें और अनुभवियों की बातें कहां से आता! और वह घबड़ाए न। यह बेटा भी बड़ा होकर अपने मानते रहें, वे कभी मुक्त नहीं हुए हैं, न हो सकते हैं। बेटे को यही शिक्षा देगा। इसमें कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। । इतनी घबड़ाहट क्या है? इतना डर क्या है? भीतर जो छिपा है,
किसी का अनुभव काम नहीं पड़ता। बाप का अनुभव आपके उसे पहचानना होगा। उपयोगी है कि उससे आप गुजरें। काम नहीं पड़ सकता है। आपका अनुभव ही काम पड़ेगा। ___ मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने बेटे को एक फकीर के पास
बाप गलत कहता है, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। बाप अपने शिक्षा के लिए भेजा। हर माह खबर आती रही कि शिक्षा ठीक चल अनुभव से कह रहा है कि यह सब पागलपन से वह गुजरा है। रही है। साल पूरा हो गया। और वह दिन भी आ गया, जिस दिन लेकिन पागलपन से गुजरकर कह रहा है वह। और बिना गुजरे वह फकीर युवक को लेकर राजदरबार आएगा। और सम्राट बड़ा प्रसन्न भी नहीं कह सकता था। बिना गुजरे कोई भी नहीं कह सकता है। था। उसने अपने सारे दरबारियों को बुलाया था कि आज मेरा बेटा
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गीता दर्शन भाग-60
उस महान फकीर के पास शिक्षित होकर वापस लौट रहा है। लेकिन आपकी हालत ऐसी है कि कचरे से भरा सोना हैं आप,
लेकिन जब फकीर लड़के को लेकर दरवाजे पर राजमहल के | | और आग से गुजरकर जो उस तरफ चले गए हैं अनुभवी, उनकी हंचा, तो राजा की छाती बैठ गई। देखा कि फकीर ने अपना बातें सन रहे हैं। और वे कहते हैं कि यह आग है, इससे बचना। बोरिया-बिस्तर सब राजकुमार के सिर पर रखा हुआ है। और कपड़े लेकिन इसी आग से गुजरकर वे शुद्ध हुए हैं। और अगर उनकी उसे ऐसे पहना दिए हैं, जैसे कि कोई कुली कपड़े पहने हो। | बात मानकर तुम इसी तरफ रुक गए, और तुमने कहा, यह आग
सम्राट तो बहुत क्रोध से भर गया। और उसने कहा कि मैंने | हम बचेंगे. तो ध्यान रखना कि वह कचरा भी बच जाएगा शिक्षा देने भेजा था, मेरे लड़के का इस तरह अपमान करने नहीं! | जो आग में जलता है। फकीर ने कहा कि अभी आखिरी सबक बाकी है। अभी बीच में आग से गजरना। उन अनभवियों से पछना कि तम यह कुछ मत बोलो। और अभी साल पूरा नहीं हुआ है, सूरज ढलने को | | गुजरकर कह रहे हो कि बिना गुजरे! और अगर यह तुम गुजरकर शेष है। अभी लड़का मेरे जिम्मे है। तब उस फकीर ने अपने सामान | | कह रहे हो और मैंने बिना गुजरे यह बात मान ली, तो मैं डूब गया में से एक कोड़ा निकाला। सब सामान लड़के से नीचे रखवाकर | तुम्हारे साथ। उचित है; तुम्हारी बात मैं खयाल रखूगा। लेकिन मुझे उसे सात कोड़े लगाए दरबार में।
| भी अनुभव से गुजर जाने दो। मेरे भी कचरे को जल जाने दो। राजा तो चीख पड़ा, लेकिन अपने वचन से बंधा था कि एक | ___ कामवासना आग है, लेकिन उसमें बहुत-सा कचरा जल जाता साल के लिए दिया था। और सूरज अभी नहीं डूबा था। लेकिन | | है। अगर आप बोधपूर्वक, समझपूर्वक, होशपूर्वक कामवासना में उसने कहा कि कोई हर्ज नहीं, सूरज डूबेगा; और न तुझे फांसी | | उतर पाएं, तो आपका सब कचरा जल जाता है, आप सोना बन लगवा दी—उस फकीर से कहा-सूरज डूबेगा; तू घबड़ा मत। | जाते हैं। और वह जो सोना है, वही क्रांति है। वह जो सोने की कोई फिक्र नहीं त कर ले। एक साल का वायदा है। | उपलब्धि है, वही क्रांति है।
लेकिन और दरबारियों में बूढ़े समझदार लोग भी थे। उन्होंने तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, जो आपके अनुभव से आए, उसे राजा से कहा कि थोड़ा पूछो भी तो उससे कि वह क्या कर रहा है! | आने देना। और जल्दी मत करना। उधार अनुभव मत ले लेना। आखिर उसका प्रयोजन क्या है?
उनसे ज्ञान तो बढ़ जाएगा, आत्मा नहीं बढ़ेगी। उनसे बुद्धि में तो किसी ने पूछा, तो फकीर ने कहा, मेरा प्रयोजन है। यह कल | | विचार तो बहुत बढ़ जाएंगे, लेकिन आप वही के वही रह जाएंगे। राजा बनेगा। और अनेक लोगों को कोड़े लगवाएगा। इसे कोड़े का | आग से गुजरे बिना कोई उपाय नहीं है। सस्ते में कुछ भी मिलता अनुभव होना चाहिए। इसे पता होना चाहिए कि कोड़े का मतलब | नहीं है। क्या है। कल यह राजा बनेगा और न मालूम कितने लोग इसका | कामवासना एक पीड़ा है। उसमें सुख तो ऊपर-ऊपर है, भीतर सामान ढोने में जिंदगी व्यतीत कर देंगे। इसको पता होना चाहिए | | दुख ही दुख है। बाहर-बाहर झलक तो बड़ी रंगीन है, बड़ी इंद्रधनुष कि जो आदमी सड़क पर सामान ढोकर आ रहा है, उसके भीतर | जैसी है। लेकिन भीतर हाथ कुछ भी नहीं आता। सिर्फ उदासी, की गति कैसी है। इसे राजा होने के पहले उन सब अनुभवों से गुजर | सिर्फ विषाद, सिर्फ आंसू हाथ लगते हैं। लेकिन वे आंसू बाहर से जाना चाहिए, जो कि राजा होने के बाद इसको कभी न मिल सकेंगे। बहुत चमकते हैं और मोती मालूम पड़ते हैं। लेकिन पास जाकर ही लेकिन अगर यह उनसे नहीं गुजरता है, तो यह हमेशा अप्रौढ़ रह | पता चलता है कि मोती झूठे हैं और आंसू हैं, और पीछे सिर्फ विषाद जाएगा। तो मैंने सालभर में इसकी एक ही शिक्षा पूरी की है पूरे | रह जाता है। लेकिन इससे गुजरना होगा। साल में, कि जो इसको राजा होने के बाद कभी भी न होगा. उस | इससे जो बच जाता है. आप बच भी नहीं पाते। बचने का सब से मैंने इसे गुजार दिया है।
मतलब केवल इतना है कि आप पास ही नहीं जा पाते मोती के पूरे यह संसार एक विद्यापीठ है। और परमात्मा आपको बहुत-से | | कि पता चल जाए कि वह आंसू की बूंद है, मोती नहीं है। आप अनुभव से गुजार रहा है। बहुत तरह की आगों में जला रहा है। वह जाते भी हैं, क्योंकि भीतर वासना का धक्का है। परमात्मा कह रहा जरूरी है। उससे निखरकर आप असली कुंदन, असली सोना | है कि जाओ, क्योंकि अनुभव से गुजरोगे, तो ही निखरोगे। जाओ। बनेंगे। सब कचरा जल जाएगा।
परमात्मा बहुत निःशंक भेज रहा है। एक-एक बच्चे को भेज रहा
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है। इधर हम सुधार-सुधारकर जिंदगीभर परेशान हो जाते हैं। बूढ़े | | हैं। न तो अनुभव होता है, और न लौटना होता है। अधकचरे, बीच जब तक सुधर पाते हैं, उनको वह हटा लेता है। और फिर बच्चे में लटके रह जाते हैं। पैदा कर देता है। वे फिर बिगड़े के बिगड़े। फिर वही उपद्रव शुरू। इस जमीन पर जो लोग बीच में लटके हैं, उनकी पीड़ा का अंत फिर वही करेंगे जो अनुभवी कह गए हैं कि मत करना। नहीं है। इधर पीछे से महात्मा खींचते हैं कि वापस लौट आओ।
यह परमात्मा बच्चे क्यों बनाता है? बढ़े क्यों नहीं बनाता? | | और उधर भीतर से परमात्मा धक्के देता है कि जाओ, अनुभव से आखिर बूढ़े भी पैदा कर सकता था सीधे के सीधे। कोई | गुजरो। इन दोनों की रस्साकसी में आपकी जान निकल जाती है। झगड़ा-झंझट नहीं होती। अनुभवी पैदा हो जाते। लेकिन बूढ़े भी __ मैं कहता हूं कि मत सुनो। निसर्ग की सुनो; स्वभाव की सुनो; अगर वह पैदा कर दे, तो बच्चे ही होंगे। क्योंकि अनुभव के बिना | | वह जो कह रहा है, जाओ। एक ही बात ध्यान रखो कि होशपूर्वक कोई वार्धक्य, कोई बोध पैदा नहीं होता।
जाओ, समझपूर्वक जाओ। समझते हुए जाओ, क्या है? कामवासना __वह बच्चे पैदा करता है। उसकी हिम्मत बड़ी अनूठी है। वह | क्या है, इसको किताब से पढ़ने की क्या जरूरत है? इसको उतरकर नासमझ पैदा करता है, समझदारों को हटाता है। हम तो मानते ही ही देख लो। और जब उतरो, तो पूरे ध्यानपूर्वक उतरो।। ऐसा हैं कि जिसकी समझ पूरी हो जाए, फिर उसका जन्म नहीं लेकिन मैं जानता हूं लोगों को, वे मेरे पास आते हैं। वे मुझसे होता। उसका मतलब, समझदारों को फौरन हटाता है और कहते हैं, कामवासना से कैसे छूटें? मैं उनसे पूछता हूं, जब तुम नासमझों को भेजता चला जाता है।
कामकृत्य में उतरते हो, तब तुम्हारे दिमाग में कोई और खयाल तो विद्यालय में नासमझ ही भेजे जाते हैं। जब बात पूरी हो जाती है, | | नहीं होता? वे कहते हैं, हजार खयाल होते हैं। कभी दुकान की विद्यालय के बाहर हो जाते हैं। लेकिन जो बच्चा स्कूल में जा रहा | | सोचते हैं, कभी बाजार की सोचते हैं, कभी कुछ और सोचते हैं। है, वह स्कूल से रिटायर होते हुए प्रोफेसर की बात सुनकर बाहर | कभी यह सोचते हैं कि कैसा पाप कर रहे हैं! इसका क्या ही रुक जाए, तो क्या गति होगी?
प्रायश्चित्त होगा? एक बच्चा अभी स्कूल में प्रवेश कर रहा है। आज पहला दिन तो तुम कामवासना में भी जब उतर रहे हो, तब भी तुम्हारी है उसके स्कूल में प्रवेश का। उसी दिन कोई बूढ़ा प्रोफेसर रिटायर खोपड़ी कहीं और है, तो तुम जान कैसे पाओगे कि यह क्या है! हो रहा है। वह प्रोफेसर कहता है, कुछ भी नहीं है यहां। जिंदगी | ध्यान बना लो। हटा दो सब विचारों को। जब काम में उतर रहे हो, हमने ऐसे ही गंवाई। सब बेकार गया। तू अंदर मत जा। तू वापस | तो पूरे उतर जाओ, पूरे मनपूर्वक, पूरे प्राण से, पूरा बोध लेकर। लौट चल।
दुबारा उतरने की जरूरत न रहेगी। बस, यह आपकी हालत है। रिटायर होते लोगों से जरा सावधान। एक बार भी अगर यह हो जाए कि कामवासना का और ध्यान उनकी बात तो सच है। बिलकुल ठीक कह रहे हैं, अनुभव से कह का मिलन हो जाए, तो वहीं पहला बोध, पहला होश उपलब्ध हो रहे हैं। पर आपको भी उस अनुभव से गुजरना ही होगा। आप भी | जाता है। सब चीज व्यर्थ दिखाई पड़ती है, बचकानी हो जाती है। एक दिन वही कहोगे। लेकिन थोड़ा समय पकने के लिए जरूरी है। दुबारा जाना भी चाहो, तो नहीं जा सकते। बात ही व्यर्थ हो गई। आग में गुजरना जरूरी है, तो परिपक्वता आती है।
जब तक यह न हो जाए, तब तक जाना ही पड़ेगा। और प्रकृति इसलिए डरें मत। परमात्मा ने जो भी जीवन की नैसर्गिक | कोई अपवाद नहीं मानती। प्रकृति तो उन्हीं को पार करती है, जो वासनाएं दी हैं, उनमें सहज भाव से उतरें। घबड़ाएं मत। घबड़ाना | | पूरी तरह पक जाते हैं। कच्चे लोगों को नहीं निकलने देती। अगर क्या है ? जब परमात्मा नहीं घबड़ाता, तो आप क्यों घबड़ा रहे हैं? | | आप कच्चे हैं, तो फिर जन्म देगी। फिर धक्के देगी। जब वह नहीं डरा हुआ है, तो आप क्यों इतने डरे हुए हैं ? उतरें। । | अगर आप कच्चे ही बने रहते हैं, तो अनंत-अनंत जन्मों तक
बस, उतरने में एक ही खयाल रखें कि पूरी तरह उतरें। ये कचरे | | भटकना पड़ेगा। पक्का अगर होना है, तो भय छोड़ें। और निसर्ग खयाल दिमाग में न पड़े रहें कि गलत है। क्योंकि गलत है, तो उतर को बोधपूर्वक अनुभव करें। मुक्ति वहां है। ही नहीं पाते, अधूरे ही रह जाते हैं। हाथ भी बढ़ता है और आग तक पहुंच भी नहीं पाता, रुक जाता है बीच में। तो दोहरे नुकसान होते
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गीता दर्शन भाग-6
एक मित्र ने पूछा कृष्ण कहते हैं, सर्व आरंभों को छोड़ने वाला भक्त मुझे प्रिय है। तो क्या परमात्मा की खोज का आरंभ भी छोड़ देना चाहिए?
अ
गर आरंभ कर दिया हो, तो छोड़ देना चाहिए। मगर अगर आरंभ ही न किया हो, तो छोड़िएगा क्या खाक ? है क्या छोड़ने को आपके पास ? आरंभ कर दिया हो, तो छोड़ना ही पड़ेगा। लेकिन आरंभ कहां किया है, जिसको आप छोड़ दें!
हमारी तकलीफ यह है कि हमें यही पता नहीं है कि हमारे पास क्या है ! और अक्सर हम वह छोड़ते हैं, जो हमारे पास नहीं है। और उसको पकड़ते हैं, जो है ।
आपने परमात्मा की खोज शुरू की है? आरंभ हुआ ? अगर हो गया है, तो कृष्ण कहते हैं, उसे भी छोड़ दो। इसी वक्त उपलब्ध हो जाओगे। लेकिन अगर वह हुआ ही नहीं है तो छोड़िएगा कैसे!
आदमी अपने को इस इस तरह से धोखे देता है कि उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है! बहुत मुश्किल है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आप कहते हैं, प्रयत्न छोड़ना पड़ेगा ! तो मैं उनसे पूछता हूं, प्रयत्न कर रहे हो ? कर लिया है प्रयत्न, तो छोड़ना पड़ेगा। अभी प्रयत्न ही नहीं किया है, छोड़िएगा क्या?
लोग कहते हैं कि मूर्ति से बंधना ठीक नहीं है, मूर्ति तो छोड़नी है। वे ठीक कहते हैं। लेकिन बंध गए हो, कि छोड़ सको ?
आपकी हालत ऐसी है, मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शादी के दफ्तर में पहुंच गया और उसने जाकर सब पूछताछ की कि तलाक के नियम क्या हैं। सारी बातचीत समझकर वह चलने को हुआ, तो रजिस्ट्रार ने उससे पूछा कि कब तलाक के लिए आना चाहते हो? उसने कहा, अभी शादी कहां की है? अभी तो मैं पक्का कर रहा हूं कि अगर शादी कर लूं, तो तलाक की सुविधा है या नहीं ! कोई झंझट में तो नहीं पड़ जाऊंगा!
आप भी तलाक की चिंता में पड़ जाते हैं, इसकी बिना फिक्र किए कि अभी शादी भी हुई या नहीं। आरंभ किया है आपने परमात्मा की खोज का? एक इंच भी चले हैं उस तरफ ? एक कदम भी उठाया है? एक आंख भी उस तरफ की है ? कभी नहीं की है।
अगर वह आरंभ हो गया है, तो कृष्ण कहते हैं, उसे छोड़ना होगा।
सभी आरंभ छोड़ने होते हैं, तभी तो अंत उपलब्ध होता है। सभी आरंभ छोड़ने होते हैं, तभी तो लक्ष्य उपलब्ध होता है। आरंभ भी एक वासना है। परमात्मा को पाना भी एक वासना है। और कठिनाई यही है कि परमात्मा को पाने के लिए सभी वासनाओं से मन रिक्त होना चाहिए। परमात्मा को पाने की वासना भी बाधा है।
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मगर वह आखिरी वासना है, जो जाएगी। अभी मत छोड़ देना; अभी तो वह की ही नहीं है। अभी तो करें। अभी तो मैं कहता हूं, परमात्मा को पाने की जितनी वासना कर सकें, करें। इतनी वासना करें कि सभी वासनाएं उसी में लीन हो जाएं। एक ही वासना रह जाए सभी वासनाओं की मिलकर, एक ही धारा बन जाए, कि परमात्मा को पाना है। धन पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। प्रेम पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। यश पाना था, वह भी इसी में डूब जाए। सारी वासनाएं डूब जाएं; एक ही वासना रह जाए कि परमात्मा को पाना है। ताकि आपके जीवन की सभी ऊर्जा एक तरफ दौड़ने लगे।
और जिस दिन यह एकता आपके भीतर घटित हो जाए, उस दिन वह वासना भी छोड़ देना कि परमात्मा को पाना है। उसी वक्त | परमात्मा मिल जाता है। क्योंकि परमात्मा कहीं दूर नहीं है कि उसे खोजने जाना पड़े; वह यहीं है। जो दूर हो, उसे पाने के लिए चलना पड़ता है। जो पास हो, उसे पाने के लिए रुकना पड़ता है। जिसे खोया हो, उसे खोजना पड़ता है। जिसे खोया ही न हो, उसके लिए सिर्फ शांत होकर देखना पड़ता है।
तो वह जो परमात्मा को पाने की वासना है आखिरी, वह सिर्फ | उपाय है सारी वासनाओं को छोड़ देने का। जब सब छूट जाएं, तो उसे भी छोड़ देना है उसी तरह, जैसे पैर में कांटा लग जाए, तो हम एक और कांटा निकाल लाते हैं वृक्ष से, पैर के कांटे को निकालने के लिए।
लेकिन फिर आप जब पैर का कांटा निकालकर फेंक देते हैं, तो दूसरे कांटे का क्या करते हैं जिसने आपकी सहायता की ? क्या उसको घाव में रख लेते हैं? कि सम्हालकर रखें, यह कांटा बड़ा परोपकारी है। कि इस कांटे ने कितनी कृपा की कि पुराने कांटे को निकाल दिया। तो अब इसको सम्हालकर रख लें इसी घाव में; कभी जरूरत पड़े।
तो फिर आप मूढ़ता कर रहे हैं। तो कांटा निकालना व्यर्थ गया, क्योंकि दूसरा कांटा भी उतना ही कांटा है। और हो सकता है, दूसरा | कांटा पहले कांटे से भी मजबूत हो, तभी तो निकाल पाया।
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भक्ति और स्त्रैण गुण .
खतरनाक है। यह कांटा जान ले लेगा।
महावीर के शिष्य ठीक उनके विपरीत हैं। कृष्ण के परमात्मा का विचार, उसका ध्यान, इस जगत के सारे कांटों को शिष्यों में भी कोई कृष्ण नहीं है। क्या फिर भी आप निकाल देने के लिए है। लेकिन वह भी कांटा है।
गुरु-शिष्य प्रणाली पर विश्वास करते हैं? पर जल्दी मत करना यह सोचकर कि अगर कांटा है. तो फिर हमको क्या मतलब है! हम तो वैसे ही कांटों से परेशान हैं, और एक कांटा क्या करेंगे? इतनी जल्दी मत करना। वह कांटा इन सारे 11 हली तो बात यह कि आपकी जानकारी बहुत कम है। कांटों को निकालने के काम आ जाता है। और जिस दिन आपका 4 बुद्ध के शिष्यों में हजारों लोग बुद्ध बने। गौतम बुद्ध कांटा निकल गया, उस दिन दोनों कांटों को साथ-साथ फेंक देना नहीं बने। गौतम बुद्ध कोई भी नहीं बन सकता है पड़ता है। फिर उस कांटे को रखना नहीं पड़ता।
दूसरा। बुद्ध बने, बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। जैसे सब वासनाएं खो जाती हैं, अंत में परमात्मा को पाने की | गौतम बुद्ध, वह जो शुद्धोदन का पुत्र सिद्धार्थ है, उसका जो । वासना भी छोड़ देनी पड़ती है। वह आखिरी वासना है। उसके व्यक्तित्व है, उसका जो ढंग है, वैसा तो किसी का कभी नहीं होने छूटते ही आपको पता चलता है कि वह मिला ही हुआ है। | वाला। वैसा तो वह अकेला ही है इस जगत में।
हमारी भाषा में अड़चन है। ऐसा लगता है कि परमात्मा कहीं है, __आप भी अकेले हैं, अद्वितीय हैं, बेजोड़ हैं। आप जैसा आदमी जिसको खोजना है। दूर कहीं छिपा है, जिसका पता लगाना है। न कभी हुआ और न कभी होगा। कोई उपाय नहीं है आप जैसा कहीं दूर है, जिसका रास्ता होगा, यात्रा होगी।
आदमी होने का। अनरिपीटेबल! आपको पुनरुक्त नहीं किया जा यह भ्रांति है। परमात्मा आपका अस्तित्व है। आपके होने का | | सकता। डिट्टो, आपका कोई आदमी खड़ा नहीं किया जा सकता। नाम ही परमात्मा है। आप हैं इसलिए कि वह है। उसी की श्वास आप बिलकुल बेजोड़ हैं। है, उसी की धड़कन है। यह आपकी भ्रांति है कि श्वास मेरी है और यह अस्तित्व एक-एक चीज को बेजोड़ बनाता है। परमात्मा धड़कन मेरी है। बस, यह भ्रांति भर टूट जाए, तो वह प्रकट है। | बड़ा अदभुत कलाकार है। वह नकल नहीं करता। बड़े से बड़ा वह कभी छिपा हुआ नहीं है।
कलाकार भी नकल में उतर जाता है। ___ और यह भ्रांति तब तक बनी रहेगी, जब तक आप सोचते हैं कि एक दफा पिकासो के पास एक चित्र लाया गया। पिकासो के मुझे कुछ पाना हैं-परमात्मा पाना है तो आप बने हैं। आपकी चित्रों की कीमत है बड़ी। उस चित्र की कीमत कोई पांच लाख रुपए वासना के कारण आप बने हुए हैं। और जब तक वासना है, तब थी। और जिस आदमी ने खरीदा था, वह पक्का करने आया था कि तक आप भी भीतर रहेंगे। नहीं तो वासना कौन करेगा! यह चित्र ओरिजिनल है? आपका ही बनाया हुआ है? किसी ने ..और जब वासनाएं सभी खो जाती हैं, आखिरी वासना भी खो नकल तो नहीं की है? तो पिकासो ने चित्र देखकर कहा कि यह जाती है, तो आप भी खो जाते हैं। क्योंकि जब वासना नहीं, तो नकल है; ओरिजिनल नहीं है। वासना करने वाला भी नहीं बचता है। वह जब मिट जाता है. वह आदमी तो बडी मश्किल में पड़ गया। उसने कहा. लेकिन तत्क्षण दृष्टि बदल जाती है। जैसे अचानक अंधेरे में प्रकाश हो | जिससे मैंने खरीदा है, उसने कहा है कि उसकी आंख के सामने जाए। और जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता था, वहां सब कुछ आपने यह चित्र बनाया है! दिखाई पड़ने लगे। वासना के खोते ही अंधेरा खो जाता है और तो वह आदमी लाया गया। और उस आदमी ने कहा कि हद कर प्रकाश हो जाता है।
रहे हो; क्या भूल गए? यह चित्त तो मैं मौजूद था तुम्हारे सामने, जब तुमने इसे बनाया। यह तुम्हारा ही बनाया हुआ है। पिकासो ने
कहा, मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया! लेकिन यह भी नकल है, आखिरी सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि बुद्ध के | क्योंकि पहले मैं ऐसा एक चित्र और बना चुका हूं। उसकी नकल शिष्यों में कोई भी उनकी श्रेणी का नहीं हुआ। क्राइस्ट | है। मैं भी चुक जाता हूं बना-बनाकर, तो फिर रिपीट करने लगता के शिष्यों में भी कोई दूसरा क्राइस्ट नहीं बन सका।। हूं खुद ही को। इसलिए इसको मैं ओरिजिनल नहीं कहता। इससे
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- गीता दर्शन भाग-60
क्या फर्क पड़ता है कि नकल मैंने की अपने ही चित्र की या किसी उस पर नजरें हैं। और ने की! नकल तो नकल ही है।
फिर बुद्ध शिक्षक हैं। सभी शिक्षक नहीं होते। जरूरी भी नहीं है। लेकिन परमात्मा ने आज तक नकल नहीं की। एक आदमी बस | शिक्षक होना अलग कला है, अलग गुण है। तो बुद्ध समझा सके, एक ही जैसा है। वैसा दूसरा आदमी फिर दुबारा नहीं होता। इससे | कह सके, ढंग से कह सके। इसलिए हमें इतिहास में उनका उल्लेख मनुष्य बड़ी अदभुत कृति है। मनुष्य को ही क्यों हम कहें, एक बड़े | रह जाता है। इतिहास सभी बुद्धों की खबर नहीं रखता, कुछ बुद्धों वृक्ष पर एक पत्ते जैसा दूसरा पत्ता भी नहीं खोज सकते आप। इस की खबर रखता है, जो इतिहास पर स्पष्ट लकीरें छोड़ जाते हैं। जमीन पर एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी नहीं खोज सकते। क्राइस्ट को प्रेम करने वाले लोगों में भी लोग उपलब्ध हो गए प्रत्येक चीज मौलिक है, ओरिजिनल है।
हैं। लेकिन आपको पता है, क्राइस्ट को प्रेम करने वाले जो उनके तो गौतम बुद्ध जैसा तो कोई भी नहीं हो सकता। इसका यह बारह शिष्य थे, वे बड़े दीन-हीन थे, बड़े गरीब थे। कोई मछुआ मतलब नहीं है कि और लोग बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुए। बुद्ध | था; कोई लकड़हारा था; कोई बढ़ई था; कोई चमार था। वे सब के शिष्यों में सैकड़ों लोग उपलब्ध हुए।
दीन-हीन गरीब लोग थे, पढ़े-लिखे नहीं थे। फिर भी उपलब्ध हुए; एक बार तो बद्ध से भी किसी ने जाकर पछा हो सकता है यही और उन्होंने वह जाना, जो जीसस ने जाना। मित्र रहे हों-बुद्ध से जाकर किसी ने पूछा कि आप जैसे आप लेकिन जीसस को सूली लग गई, यही एक फायदा रहा। सूली अकेले ही दिखाई पड़ते हैं। आपके पास दस हजार शिष्य हैं, इनमें लगने की वजह से आपको याद रहे। जीसस की वजह से से कितने लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं? बुद्ध ने कहा, इनमें क्रिश्चियनिटी पैदा नहीं हुई, क्रास की वजह से पैदा हुई। अगर सूली से सैकड़ों लोग बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं।
न लगती, तो जीसस कभी के भूल गए होते। वह सूली याददाश्त __तो उस आदमी ने पूछा, लेकिन इनका कोई पता नहीं चलता! तो बन गई। जीसस का सूली पर लटकना एक घटना हो गई; वह बुद्ध ने कहा, मैं बोलता हूं; ये चुप हैं। और ये इसलिए चुप हैं कि घटना इतिहास पर छा गई। इतिहास के अपने ढंग हैं। जब मैं बोलता हूं, तो इनको परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन इस खयाल में मत रहें कि महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, या
और तुम्हें मैं नहीं दिखाई पड़ता; मैं जो बोलता हूं, वह सुनाई पड़ता | बुद्ध के शिष्यों में कोई उनको उपलब्ध नहीं हुआ। हुआ; अपने ढंग है। मैं भी चुप हो जाऊं, तो तुम मेरे प्रति भी अंधे हो जाओगे। ये से हुआ। ठीक उसी जगह पहुंच गया, जहां वे पहुंचे थे। लेकिन भी जब बोलेंगे, तब तुम्हें दिखाई पड़ेंगे। ये चुप हैं, क्योंकि मैं बोल अपने ही ढंग से पहुंचा। कोई नाचता हुआ पहुंचा; कोई चुप होकर रहा हूं; कोई जरूरत नहीं है।
पहुंचा; कोई बोलकर पहुंचा। अपने-अपने ढंग थे। उन ढंगों में और जो भी उपलब्ध हो जाते हैं, जरूरी नहीं कि बोलें। बोलना | | फर्क हैं। लेकिन बुद्ध जैसे व्यक्तित्व के पास जो भी समर्पित होने अलग बात है। बहुत-से सदगुरु नहीं बोले, चुप रहे हैं। बहुत-से | | की सामर्थ्य रखता है, वह जरूर पहुंच जाएगा। सदगरु बोले नहीं. नाचे, गाए। उसी से उन्होंने कहा। बहुत-से | समर्पण कला है, सीखने की। और बुद्ध जैसे व्यक्तित्व के पास सदगुरुओं ने चित्र बनाए, पेंटिंग की। उसी से उन्होंने कहा। जब जाएं, तो वहां तो पूरी तरह झुककर सीखने की सामर्थ्य होनी बहुत-से सदगुरुओं ने गीत गाए, कविताएं लिखीं। उसी से उन्होंने चाहिए। हम झुकने की कला ही भूल गए हैं। इसलिए दुनिया से कहा। बहुत-से सदगुरुओं ने उठा लिया एक वाद्य और चल पड़े, धर्म कम होता जाता है।
और गाते रहे गांव-गांव। और उसी से उन्होंने कहा। जो जैसा कह एक मित्र मेरे पास आए थे। समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं, दर्शन सकता था. उसने उस तरह कहा। जो मौन ही रह सकता था. वह का चिंतन करते हैं, विचार करते हैं। बड़े अच्छे सवाल उन्होंने पूछे मौन ही रह गया। उसने अपने मौन से ही कहा।
| थे, बड़े गहरे। लेकिन सब सवालों पर पानी फेर दिया जाते वक्त। फिर और भी बहुत कारण हैं। गौतम बुद्ध सम्राट के लड़के थे। | जाते वक्त उन्होंने कहा कि एक बात और; आप ऊपर क्यों बैठे हैं, सारा देश उनको जानता था। और जब वे ज्ञान को उपलब्ध हुए, तो मैं नीचे क्यों बैठा हूं, यह और पूछना है! सारे देश की नजरें उन पर थीं। फिर कोई गरीब का लड़का भी सीखने आए हैं, लेकिन नीचे भी नहीं बैठ सकते। तो मैंने कहा, बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ होगा। न उसे कोई जानता है, न सबकी पहले ही कहना था। मैं और ऊपर बिठा देता। इसमें कोई अड़चन
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न थी। लेकिन तब मैं आपसे सीखता। तो जिस दिन आपको मुझे | और सागर में खो जाएगी। कुछ सिखाने का भाव आ जाए; जरूर आ जाना। और आपको | तो बाहर की नदी जो है, वह तो बहती भी रहेगी। उधर हिमालय काफी ऊंचाई पर बिठा दूंगा और मैं नीचे बैठकर सीखूगा। लेकिन पर पानी बरसता ही रहेगा हर साल और नदी बहती रहेगी। ये बुद्ध सीखने आए हों, तो नीचे बैठना तो बात मूल्य की नहीं है, लेकिन | | या कृष्ण या क्राइस्ट की जो नदियां हैं, ये कोई हमेशा नहीं बहती झुकने का भाव मूल्य का है।
| रहेंगी। कभी प्रकट होती हैं; कभी बहती हैं। फिर सागर में खो जाती वह उनको अखरता रहा होगा। बातें तो बड़ी ऊंची कर रहे | | हैं। फिर हजारों साल लग जाते हैं। नदी का पाट खो जाता है। कहीं थे-परमात्मा की, आत्मा की लेकिन पूरे वक्त जो बात खली पता नहीं चलता कि नदी कहां खो गई। ये नदियां सरस्वती जैसी हैं; रही होगी, वही आखिरी में निकली, कि नीचे बैठा हूं! बैठ तो गए | गंगा और यमुना जैसी नहीं। ये तिरोहित हो जाती हैं।
थे, इतना साहस भी नहीं था कि पहले ही कह देते कि मैं खड़ा। तो जब तक मौका हो, तब तक झुक जाना। मगर लोग ऐसे रहूंगा, बैलूंगा नहीं। या कुछ ऊंची कुर्सी बुलाएं, उस पर बैलूंगा; नासमझ हैं कि जब नदी खो जाती है और सिर्फ रेत का पाट रह जाता नीचे नहीं बैठ सकता। कह देते तो कोई अड़चन न थी। ज्यादा है, तब वे लाखों साल तक झुकते रहते हैं। ईमानदारी की बात होती; ज्यादा सच्चे साबित होते। वह तो भीतर | बुद्ध की नदी पर अभी भी झुक रहे हैं! और जब बुद्ध मौजूद थे, छिपाए रखे।
| तब वे अकड़कर खड़े रहे। अब झुक रहे हैं। अब वहां रेत है। और तो उनका परमात्मा का प्रश्न और आत्मा का सब झूठा हो गया। | वह नदी कभी की खो गई है। वहां नदी थी कभी; अब वहां सिर्फ क्योंकि भीतर असली प्रश्न यही था, जो चलते वक्त उन्होंने पूछा, रेत है। कि अब एक बात और पूछ लूं आखिरी कि आप ऊपर क्यों बैठे हैं, लेकिन अभी और नदियां बह रही हैं। लेकिन वहां आप मत मैं नीचे क्यों बैठा हूं!
| झुकना, क्योंकि वहां झुके तो प्यास भी बुझ सकती है। बचाना वहां झुकने की वृत्ति खो गई है। गुरु और शिष्य के संबंध का और | अपने को। यह नदी वाली स्थिति है गुरु की। और शिष्य जब तक कोई मतलब नहीं है। इतना ही मतलब है कि आप जिसके पास | | शिष्य न हो जाए, झुकना न सीख ले, तब तक कुछ भी नहीं सीख सीखने गए हैं, वहां झुकने की तैयारी से जाना। नहीं तो मत जाना। पाता है। कौन कह रहा है! अगर झुकने की तैयारी न हो, तो मत जाना। अब हम सूत्र लें। ___ हालत हमारी ऐसी है कि नदी में खड़े हैं, लेकिन झुक नहीं सकते | | और जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच-चिंता
और प्यासे हैं। और झुकें न, तो बर्तन में पानी कैसे भरे! मगर | करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों अकड़े खड़े हैं। प्यासे मर जाएंगे। लेकिन झुकें कैसे? क्योंकि | | के फल का त्यागी है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। और झुकना, और नदी के सामने!
| जो पुरुष शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है तथा मत झुकें। नदी बहती रहेगी। नदी को आपके झुकने से कुछ मजा | सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिक द्वंद्वों में सम है और सब संसार में नहीं आने वाला है। नदी आपके झुकने के लिए नहीं बह रही है। न | | आसक्ति से रहित है, वह मुझको प्रिय है। झुकाने में कोई रस है। अगर प्यास हो, तो झुक जाना। अगर प्यास | जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है; न सोच करता है, न न हो, तो खड़े रहना।
| कामना करता है; जो शुभ-अशुभ संपूर्ण कर्मों के फल का त्यागी लेकिन हमारा मन ऐसा है कि हम अकड़े खड़े रहें, नदी आए। | है, वह भक्तियुक्त पुरुष मेरे को प्रिय है। हमारे बर्तन में, झुके और भर दे बर्तन को। और फिर धन्यवाद दे क्या है इसका अर्थ? आप सोचकर थोड़े हैरान होंगे कि जो न कि बड़ी कृपा तुम्हारी कि तुम प्यासे हुए, नहीं तो मेरा नदी होना | कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है। क्या प्रसन्न होना भी बाधा है? अकारथ हो जाता!
क्या हर्षित होना भी बाधा है? कृष्ण के वचन से लगता है। थोड़ा गुरु-शिष्य का इतना ही अर्थ है कि गुरु है, जिसने पा लिया है, इसके मनोविज्ञान में प्रवेश करना पड़े। जो अब बह रहा है परमात्मा की तरफ। जिसकी नदी बही जा रही आप हंसते क्यों हैं? कभी आपने सोचा? क्या आप इसलिए है। और ज्यादा देर नहीं बहेगी। थोड़े दिन में तिरोहित हो जाएगी हंसते हैं कि आप प्रसन्न हैं? या आप इसलिए हंसते हैं कि आप
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दुखी हैं?
हुए हैं। वे उसमें प्रकट होते हैं। उलटा लगेगा, लेकिन आप हंसते इसलिए हैं, क्योंकि आप __ कृष्ण का हंसना एक सहज आनंद का भाव है। उसे हम ऐसा दुखी हैं। दुख के कारण आप हंसते हैं। हंसना आपका दुख भुलाने | | समझें कि सुबह जब सूरज नहीं निकला होता है, रात चली गई होती का उपाय है। हंसना एंटीडोट है, उससे दुख विस्मृत होता है। आप | है और सूरज अभी नहीं निकला होता है, तो जो प्रकाश होता है। दूसरे पहलू पर घूम जाते हैं। आपके भीतर बड़ा तनाव है। हंस लेते आलोक, सुबह के भोर का आलोक। ठंडा, कोई तेजी नहीं है। अंधेरे हैं, वह तनाव बिखर जाता है और निकल जाता है।
के विपरीत भी नहीं है, अभी प्रकाश भी नहीं है। अभी बीच में संध्या इसलिए आप यह मत समझना कि बहुत हंसने वाले लोग, बहुत | में है। कृष्ण जैसे लोग, बुद्ध जैसे लोगों की प्रसन्नता आलोक जैसी प्रसन्न लोग हैं। संभावना उलटी है। संभावना यह है कि वे भीतर है। दुख नहीं है; सुख नहीं है; दोनों के बीच में संध्या है। बहुत दुखी हैं।
तो कृष्ण कहते हैं, जो न कभी हर्षित होता है...। नीत्शे ने कहा है कि मैं हंसता रहता हूं। लोग मुझसे पूछते हैं कि कभी! कभी तो वही हर्षित होगा, जो बीच-बीच में दुखी हो, क्यों हंसते रहते हो, तो मैं छिपा जाता हूं। क्योंकि बात बड़ी उलटी नहीं तो कभी का कोई मतलब नहीं है। है। मैं इसलिए हंसता रहता है कि कहीं रोने न लगं। अगर न हंसं. जो न कभी हर्षित होता है. न देष करता है. तो रोने लगूंगा। वे आंसू न दिख जाएं किसी को, वह दीनता न क्योंकि सब दुखों का कारण द्वेष है। और जो द्वेष करता है, वह प्रकट हो जाए, तो मैं हंसता रहता हूं। मेरी हंसी एक आवरण है,। दुखी होगा। जिसमें मैं दुख को छिपाए हुए हूं।
आपको पता है, आपके दुख का कारण आपके दुख कम और दुखी लोग अक्सर हंसते रहते हैं। कुछ भी मजाक खोज लेंगे, | | दूसरों के सुख ज्यादा हैं! आपका मकान हो सकता है काफी हो कुछ बात खोज लेंगे और हंस लेंगे। हंसने से थोड़ा हलकापन आ आपके लिए, लेकिन पड़ोस में एक बड़ा मकान बन गया, अब दुख जाता है। लेकिन अगर कोई आदमी भीतर से बिलकुल दुखी न रहा शुरू हो गया। हो, तो फिर हर्षित होने की यह व्यवस्था तो टूट जाएगी। जब भीतर | । एक मित्र के घर मैं रुकता था। बड़े प्रसन्न थे वे। और जब जाता से दुख ही चला गया हो, तो यह जो हंसी थी, यह जो हर्षित होना था, तो अपना घर दिखाते थे। स्विमिंग पूल दिखाते थे; बगीचा था, यह तो समाप्त हो जाएगा, यह तो नहीं बचेगा।
दिखाते थे। बहुत अच्छा, प्यारा घर था। बड़ा बगीचा था। सब का यह मतलब नहीं है कि वह अप्रसन्न रहेगा। पर उसकी शानदार था। खब संगमरमर लगाया था। जब मैं उनके घर जाता प्रसन्नता का गुण और होगा। उसकी प्रसन्नता किसी दुख का विरोध था, तो घर में रहना मुश्किल था; घर की बातें ही सुननी पड़ती थीं, न होगी। उसकी प्रसन्नता किसी दुख में आधारित न होगी। उसकी | |घर के बाबत ही, कि यह बनाया, यह बनाया। मुझे सुबह से वही प्रसन्नता सहज होगी, अकारण होगी।
देखना पड़ता था। जब भी गया, यही था। वे कुछ न कुछ बनाए आपकी प्रसन्नता सकारण होती है। भीतर तो दुख रहता है, फिर जाते थे।
यत हो जाता है, तो आप थोड़ा हंस लेते हैं। फिर एक बार गया। उन्होंने घर की बात न चलाई। तो मैं थोड़ा लेकिन उसकी प्रसन्नता अकारण होगी। वह हंसेगा नहीं। अगर इसे | परेशान हुआ। क्योंकि वे बिलकुल पागल थे। वे घर के पीछे दीवाने हम ऐसा कहें कि वह हंसता हुआ ही रहेगा, तो शायद बात समझ | थे। जैसे घर बनाने को ही जमीन पर आए थे। उसके सिवाय उनके में आ जाए। वह हंसेगा नहीं, वह हंसता हआ ही रहेगा। उसे पता सपने में भी कुछ नहीं था। ही नहीं चलेगा कि वह कब हर्षित हो रहा है। क्योंकि वह कभी दुखी | | उनकी पत्नी भी परेशान थी। वह भी मुझसे बोली थी कि हम तो नहीं होता। इसलिए भेद उसे पता भी नहीं रहेगा।
सोचे थे कि यह घर मेरे लिए बना रहे हैं, घरवाली के लिए बना रहे कृष्ण का चेहरा ऐसा नहीं लगता कि वे उदास हों। उनकी बांसुरी | हैं। अब तो ऐसा लगता है कि घरवाली को घर के लिए लाए हैं! बजती ही रहती है। लेकिन हमारे जैसा हर्ष नहीं है। हमारा हर्ष रुग्ण | कि घर खाली-खाली न लगे, इसलिए शादी की है, ऐसा मालूम है। हम हंसते भी हैं, तो वह रोग से भरा हुआ है, पैथालाजिकल पड़ता है। पहले तो मैं यह सोचती थी, उनकी पत्नी ने मुझे कहा, है। उसके भीतर दुख छिपा हुआ है, हिंसा छिपी हुई है, तनाव छिपे कि मुझसे शादी की, इसलिए घर बना रहे हैं। अब लगता है, यह
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खयाल मेरा गलत था।
यहीं है परमात्मा, इसलिए आपका मिलन नहीं हो पाता। लेकिन जब मैंने पाया कि अब वे चुप हैं, घर के बाबत कुछ नहीं | | कृष्ण कहते हैं, न जो चिंता करता है, न कामना करता है, और कहते, तो मैंने उनसे दोपहर पूछा कि बात क्या है? बड़ी बेचैनी-सी | | शुभ-अशुभ कर्मों के फल का त्यागी है। और जिसने सब लगती है घर में। आप घर के संबंध में चुप क्यों हैं? उन्होंने कहा, शुभ-अशुभ कर्म परमात्मा पर छोड़ दिए कि तू करवाता है। वह देखते नहीं कि पड़ोस में एक बड़ा घर बन गया है! अब क्या खाक भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है। बात करें इसकी! अब रुको। दो-चार साल बाद करेंगे। जब तक जो पुरुष शत्रु और मित्र में, मान-अपमान में सम है, सर्दी-गर्मी इससे ऊंचा न कर लूं...।
| में, सुख-दुख में सम है, आसक्ति से रहित है, वह पुरुष मुझे प्रिय है। दखी हैं. उदास हैं। घर उनका वही का वही है। लेकिन पड़ोस में ___ जो सम है, जो डोलता नहीं है एक से दूसरे पर। हम निरंतर डोलते एक बडा घर बन गया है। बडी लकीर खींच दी किसी ने। उनकी | हैं। जिसको आप प्रेम करते हैं, उसी को घृणा भी करते हैं। सुबह प्रेम लकीर छोटी हो गई है!
करते हैं, सांझ घृणा करते हैं। जिसको आप सुंदर मानते हैं, उसी को आपके अधिक दुख आपके दुख नहीं हैं, आपके अधिक दुख | कुरूप भी मानते हैं। सांझ सुंदर मानते हैं, सुबह कुरूप मान लेते हैं। दूसरों के सुख हैं। और इससे उलटी बात भी आप समझ लेना। जो अच्छा लगता है, वही आपको बुरा भी लगता है। और चौबीस आपके अधिक सुख भी आपके सुख नहीं हैं, दूसरे लोगों के दुख हैं। घंटे आप इसी में डोलते रहते हैं द्वंद्व में, घड़ी के पेंडुलम की तरह,
जब आप किसी का मकान छोटा कर लेते हैं, तब सुखी होते हैं। बाएं से दाएं, दाएं से बाएं। यह जो डोलता हुआ मन है, विषम, यह आपको अपने मकान से सुख नहीं मिलता। और जब कोई आपका मन उपलब्ध नहीं हो पाता अस्तित्व की गहराई को। मकान छोटा कर देता है, तो दुखी होते हैं। आपको अपने मकान से कृष्ण कहते हैं, जो सम है। सुख आ जाए, तो भी विचलित नहीं न दुख मिलता है, न सुख। दूसरों के मकान! द्वेष, ईर्ष्या...। होता। दुख आ जाए, तो भी विचलित नहीं होता।
कृष्ण कहते हैं, न जो द्वेष करता है, न हर्षित होता है, न चिंता | । आप सब हालत में विचलित होते हैं। दुख में तो विचलित होते करता है...।
ही हैं, लाटरी मिल जाए, तो भी हार्ट अटैक होता है। तो भी गए! चिंता क्या है? क्या है चिंता हमारे भीतर? जो हो चुका है, | __मैंने सुना है कि चर्च का एक पादरी बड़ी मुश्किल में पड़ गया उसको जुगाली करते रहते हैं। आदमी की खोपड़ी को खोलें, तो वह | | था। एक आदमी को लाटरी मिली लाख रुपए की। उसकी पत्नी को जुगाली कर रहा है। सालों पुरानी बातें जुगाली कर रहा है, कि कभी खबर आई। पति तो बाहर गया था। पत्नी घबड़ा गई। घबड़ा गई ऐसा हुआ; कभी वैसा हुआ।
यह सोचकर कि जैसे ही पति को पता लगेगा कि लाख रुपए की जो अब नहीं है, उसको आप क्यों ढो रहे हैं? या भविष्य की | | लाटरी मिली है, उनके हृदय के बचने का उपाय नहीं है। वह जानती फिक्र कर रहा है, जो अभी है नहीं। या तो अतीत की फिक्र कर रहा | थी अपने पति को कि एक रुपया मिल जाए, तो वे दीवाने हो जाते है, जो जा चुका। या भविष्य की फिक्र कर रहा है, जो अभी आया | हैं। लाख रुपया! पागल हो जाएंगे या मर जाएंगे। नहीं। और जो अभी, यहीं है, वर्तमान, उसे खो रहा है इस चिंता तो उसने सोचा कि कुछ जल्दी उपाय करना चाहिए, इसके पहले में। और परमात्मा अभी है, यहां। और आप या तो अतीत में हैं या | | कि वे घर आएं। तो उसे खयाल आया कि पड़ोस में चर्च का पादरी भविष्य में। यह चिंता प्राण ले लेती है। यही चुका देती है। है; होशियार, बुद्धिमान पुरोहित है। उसको जाकर कहे कि कुछ कर
तो कृष्ण कहते हैं, जो चिंता नहीं करता...। चिंता का मतलब | | दो। कुछ ऐसा इंतजाम जमाओ। यह कि जो शांत है; यहीं है; न अतीत में उलझा है, न भविष्य में।। | तो चर्च के पादरी को उसने जाकर बताया कि लाख रुपए की वर्तमान के क्षण में जो है, निश्चित, चिंतनशून्य, विचारमुक्त। लाटरी मिल गई है मेरे पति के नाम। और अब वे आते ही होंगे
वर्तमान में कोई विचार नहीं है। सब विचार अतीत के हैं या | बाजार से। आप घर चलें मेरे। और जरा इस ढंग से उनको भविष्य के हैं। और भविष्य कुछ भी नहीं है, अतीत का ही प्रक्षेपण | | समझाएं, इस ढंग से बात को प्रकट करें कि उनको कोई सदमा न है। और हम इसी में डूबे हुए हैं। या तो आप पीछे की तरफ चले पहुंच जाए सुख का। और वे बच जाएं; कोई नुकसान न हो। गए हैं या आगे की तरफ। यहां! यहां आप बिलकुल नहीं हैं। और तो पादरी ने पूछा कि तू मुझे क्या देगी? तो उसने कहा, पांच
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हजार आप ले लेना। पादरी ने कहा, क्या कहा? पांच हजार! | अपने अहंकार को पूरा प्रोजेक्ट कर दें। फूल में डुबा दें अपने उसको हार्ट अटैक हो गया। वह वहीं गिर पड़ा। सच, पांच हजार! अहंकार को। वह पहली दुर्घटना चर्च के पादरी के साथ हो गई।
जैसे-जैसे आपका अहंकार फूल में प्रवेश करने लगेगा, आपको __ आदमी, सुख हो या दुख, जब भी कुछ तीव्र होता है, तो फूल भारी मालूम पड़ने लगेगा। अगर आपने ठीक से प्रयोग किया, विचलित हो जाता है। सम का अर्थ है, जो विचलित नहीं होता। जो तो आपको फूल का भारीपन स्पष्ट अनुभव होगा। न केवल फूल भी आता है, उसे ले लेता है; कि ठीक है, आया, चला जाएगा। | भारी होने लगेगा, जैसे-जैसे आपका अहंकार प्रवेश करेगा, फूल सुबह आई, सांझ आई, अंधेरा आया, प्रकाश आया, सुख-दुख कुम्हलाने और मुरझाने लगेगा। आया, मित्र-शत्रु-ले लेता है चुपचाप और अलिप्त दूर खड़ा ___ पूरे प्राणों से अपने को उंडेल दें, कि सारा अहंकार मेरा इस फूल देखता रहता है।
में समा जाए। यह भावना करते और सब विचार छोड़कर...। कोई ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, मुझे प्रिय है।
विचार बीच में आ जाए, जैसे ही खयाल आए, छोड़कर वापस इसी दो-तीन बातें कल के संबंध में। कल वे ही मित्र यहां आएं, जो विचार में लग जाएं कि यह फूल मेरा अहंकार है। आप अगर सच में ही भक्ति के इस भाव में उतरना चाहते हों. क्योंकि कल अपने अहंकार को इस फल में समाविष्ट । प्रयोग का दिन होगा। गीता का एक सूत्र बचा है, वह मैं परसों परिणाम हो सकेगा। लूंगा। कल कोई गीता का सूत्र नहीं लूंगा। कल बात नहीं होगी, आपको फूल लाकर यहां चुपचाप बैठ जाना है। और कल आप कुछ कृत्य होगा।
| यहां आकर बिलकुल बातचीत न करें। बिलकुल जबान बंद कर इतने दिन जिन्होंने सुना है, अगर उन्हें लगता हो कि कुछ करने | लें। क्योंकि आपकी बातचीत आपके प्रयोग में बाधा बनेगी। जैसे जैसा भी है, सिर्फ सुनने जैसा नहीं है, केवल वे ही लोग आएं। | ही प्रवेश करें ग्राउंड पर, चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ जाएं। जिनको सुनना है, वे परसों आएं, कल उनके लिए छुट्टी है। जिन्हें | फूल को दोनों हाथों के बीच में ले लें और एक ही भाव करते रहें कुछ करना है, कल वे ही लोग आएं।
| आंख बंद करके, कि इस फूल में मेरा सारा अहंकार प्रवेश कर रहा इसे जरा ईमानदारी से खयाल रख लेना, क्योंकि यहां कोई | है। जब तक मैं न आ जाऊं, आपको यह प्रयोग करते रहना है। फिर रुकावट नहीं लगाई जा सकती। अगर आपको नहीं करना है, तो आने के बाद मैं आपको कहंगा कि अब क्या आगे करें। भी आप आ गए, तो कोई रुकावट नहीं लग सकती। लेकिन वह | एक घंटे का हम प्रयोग करेंगे। यह प्रयोग सामूहिक शक्तिपात आपकी बेईमानी होगी। आप मत आएं। आते हों, तो करने का तय | का प्रयोग है। अगर आप अपने अहंकार को छोड़ने को राजी हो करके आएं कि यहां कुछ प्रयोग होगा, उसमें सम्मिलित होना है। | गए, अगर आपने अपने अहंकार को फूल में समाविष्ट कर लिया, पहली बात।
| तो मैं आऊंगा और कहूंगा कि इस फूल को अब फेंक दें। मैं जब दूसरी बात, जो लोग यहां आने वाले हैं, वे एक फूल अपने तक न कहूं, तब तक आपको रखे बैठे रहना है। उस फूल के गिराते साथ, कोई भी फूल ले आएं। और पूरे रास्ते एक ही बात मन में | ही आपको लगेगा कि जैसे सिर से पूरा बोझ, एक भार, एक पहाड़ पुनरुक्त करते रहें बार-बार जप की तरह, कि यह फूल मेरा | हट गया। और उसके हटने के बाद एक काम हो सकेगा। अहंकार है, यह फूल मेरी अस्मिता है, यही मेरी ईगो है। उस फूल बीस मिनट तक पहले चरण में, यहां कुछ संगीत चलता रहेगा में अपने सारे अहंकार को समाविष्ट कर दें।
और मैं आपकी तरफ देखता रहूंगा। उन बीस मिनट में आपको एक ही भाव आंख खोलकर भी करें, फूल को देखें; आंख बंद | एकटक मेरी ओर देखते रहना है। चाहे पलक से आंस बहने लगें, करके भी करें। फूल को सूंघे और समझें कि यह मेरा अहंकार है, | आपको पलक नहीं झपनी है। बीस मिनट आपको एकटक मेरी जिसको मैं सूंघ रहा हूं। छुएं, और समझें कि यह मेरा अहंकार है, ओर देखना है। सारी दुनिया मिट गई; मैं हूं और आप हैं। बस, हम जिसको मैं छू रहा हूं। देखें, और समझें कि यह मेरा अहंकार है, दो बचे हैं। जिसको मैं देख रहा हूं।
अगर आपको यह खयाल में आ गया कि हम दो बचे हैं-मैं घर से आते वक्त, पूरे रास्ते फूल में ही अपने ध्यान को रखें और और आप-तो मैं आप पर काम करना शुरू कर दूंगा। और जो
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आप वर्षों में अकेले नहीं कर सकते, वह क्षणों में हो सकता है। | भीतर प्रवेश कर सकता हूं। और आपके भीतर से बहुत कुछ बदला
लेकिन हिम्मत की जरूरत है कि आप बीस मिनट आंख एकटक जा सकता है। मेरी ओर देखते रहें। और आपको किसी को भी नहीं देखना है। - और यह प्रयोग इसलिए है कि आपको एक झलक मिल जाए। यहां इतने लोग हैं, आपको मतलब नहीं। आपको मुझे देखना है। क्योंकि हम उसकी खोज भी कैसे करें, जिसकी हमें झलक ही न आपके पड़ोस में कोई चीखने-चिल्लाने लगे, रोने लगे, कुछ करने हो? जिस परमात्मा का हमें जरा-सा भी स्वाद नहीं है, हम उसकी लगे, आपको आंख नहीं फेरनी है। आपको मेरी तरफ देखना है। | खोज पर भी कैसे निकलें? थोड़ी-सी झलक हो, थोड़ा-सा उसका
यह प्रयोग गुरु-गंभीर है। और इसको अगर आप थोड़ी | स्वर सुनाई पड़ जाए, थोड़े-से उसके आनंद का झरना फूट पड़े, समझपूर्वक करेंगे, तो बड़े अनुभव को उतर जाएंगे। थोड़ा-सा उसका प्रकाश दिखाई पड़ जाए, तो फिर हम भी दौड़
बीस मिनट आपको मेरी तरफ देखते रहना है। और जो कुछ पड़ेंगे। फिर हमारे पैरों का सारा आलस्य मिट जाएगा। और फिर आपके भीतर हो, उसे होने देना है। कोई चीखने लगेगा, कोई हमारे प्राणों की सारी सुस्ती दूर हो जाएगी। लेकिन एक झलक मिल चिल्लाने लगेगा, कोई रोने लगेगा। किसी ने रोना रोक रखा है | जाए। जरा-सी झलक! फिर हम उसकी खोज कर लेंगे जन्मों-जन्मों सालों से, जन्मों से; घाव भरे हैं, वे बहने लगेंगे। कोई खिलखिला | में। फिर वह हमसे बच नहीं सकता। फिर वह कहीं भी हो, हम कर हंसने लगेगा। कोई पागल जैसा व्यवहार करने लगेगा। उसकी उसका पता लगा लेंगे। फिक्र न करें। और आपके भीतर भी कुछ होना चाहे, तो उसे रोकें मैंने सुना है कि एक गांव से जिप्सियों का एक समूह निकलता मत। यह साहस हो, तो ही आना।
था। और गांव के एक बच्चे को, जो चर्च के पादरी का बच्चा था, पागल होने की हिम्मत हो, तो ही आना। अपने को रोक लिया, | | उन्होंने चुरा लिया। उसे उन्होंने अपनी बैलगाड़ी में अंदर बंद करके तो आपका आना व्यर्थ हुआ और आपके कारण आस-पास की | डाल दिया है और उनका समूह आगे बढ़ने लगा। हवा भी व्यर्थ होगी। आप मत आना। आपकी कोई जरूरत नहीं है। जिप्सी अक्सर बच्चे चुरा लेते हैं। वह छोटा बच्चा था। उसकी
बीस मिनट आपकी सारी बीमारी, सारी विक्षिप्तता को मैं खींचने कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या हो रहा है। लेकिन गाड़ी में की कोशिश करूंगा आपकी आंखों के जरिए। अगर आपने मेरे पड़े हुए उसका ध्यान तो अपने गांव की तरफ लगा था, कि गांव साथ सहयोग किया, तो आपके न मालूम कितने मानसिक तनाव, दूर होता जा रहा है! बीमारी, चिंता गिर जाएगी। आप एकदम हलके हो जाएंगे। सांझ का वक्त था और चर्च की घंटियां बज रही थीं। वह घंटी
फिर बीस मिनट मौन रहेगा। उस मौन में फिर पत्थर की तरह को सुनता रहा। जैसे-जैसे गाड़ी दूर होती गई, घंटी की आवाज होकर बैठ जाना है। आंख बंद और शरीर मुर्दे की तरह छोड़ देना है। | धीमी होती गई। लेकिन वह और गौर से सुनता रहा। क्योंकि
फिर बीस मिनट; आखिरी चरण में, आपको अभिव्यक्ति का | | शायद यह आखिरी बार होगा। अब दोबारा यह मौका आए न मौका होगा कि इस बीस मिनट के मौन में आपको जो आनंद | आए। वह अपने गांव की आवाज सुन सकेगा या नहीं! और इस उपलब्ध हुआ हो-और गहन आनंद उपलब्ध होगा—और जो | | गांव की एक ही याददाश्त, यह बजती हुई घंटी का धीमा होते जाना, शांति आपने जानी हो, अपरिचित, कभी न जानी, वह आपके भीतर | धीमा होते जाना...। झरने की तरह बहने लगेगी, उसको अभिव्यक्ति देने के लिए बीस और वह इतने गौर से सुनने लगा कि राह पर चलती हुई गाड़ियों मिनट होंगे।
की आवाज, घोड़ों की आवाज, जिप्सियों की बातचीत, सब उसे कोई खुशी से नाचेगा, कोई गीत गाएगा, कोई कीर्तन करेगा। भूल गई। सिर्फ उसे घंटी की आवाज सुनाई पड़ती रही। बड़े दूर लेकिन आपको दूसरे पर ध्यान नहीं देना है। आपको अपने भीतर तक सन्नाटे में वह सुनता रहा। का ही भाव देखना है, कि अगर मुझे नाचना है, तो नाच लूं: शांत फिर वर्षों बीत गए। बड़ा हो गया। उसके गांव की उसे सिर्फ एक बैठना है, शांत बैठा रहूं; गाना है, तो गा लूं। और किसी की चिंता ही याद रह गई, वह घंटी की आवाज। अपने बाप का नाम उसे याद न करूं।
| न रहा; अपने गांव का नाम याद न रहा; अपने गांव की शक्ल याद एक घंटे अगर आप मेरे साथ सहयोग करते हैं, तो मैं आपके न रही। उसका चर्च, उसका घर, कैसा था, वह सब विस्मृत हो
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गीता दर्शन भाग-6
गया। वह बहुत छोटा बच्चा था। लेकिन एक बात चित्त में कहीं गहरे उतर गई, वह घंटी की आवाज ।
अब घंटी की आवाज से क्या होगा? कैसे वापस खोजे ? जवान होकर वह भाग खड़ा हुआ। जिप्सियों को उसने छोड़ दिया । और वह हर गांव के आस-पास सांझ को जाकर खड़ा हो जाता था, जिस भी गांव के पास होता, और घंटी की आवाज सुनता था ।
कहते हैं कि पांच साल की निरंतर खोज के बाद आखिर एक दिन एक गांव के पास उसे चर्च की घंटी पहचान में आ गई। यह वही घंटी थी। फिर चर्च से दूर जाकर भी उसने देख लिया। जैसे-जैसे दूर गया, घंटी वैसी ही धीमी होती गई, जैसी पहली बार हुई थी।
फिर वह भागा हुआ चर्च में पहुंच गया। एक स्वर मिल गया। वह चर्च भी पहचान गया। वह पिता के चरणों में गिर पड़ा। पिता बूढ़ा था और मरने के करीब था । और पिता नहीं पहचान पाया। और उसने अपने बेटे से पूछा कि तूने कैसे पहचाना? तू कैसे पहचाना? तू कैसे वापस आया? मैं तक तुझे भूल गया हूं! तो उसने कहा, एक आवाज, इस चर्च घंटी की आवाज मेरे साथ थी ।
कल के इस प्रयोग में अगर आपको थोड़ी-सी भी आवाज परमात्मा की सुनाई पड़ जाए, तो वह आपके साथ रहेगी। और जन्मों-जन्मों में कहीं भी वह आवाज सुनाई पड़ जाए, आप समझेंगे कि परमात्मा का मंदिर निकट है, खोज हो सकती है।
लेकिन कल केवल वे ही लोग आएं, जो प्रयोग करने की तैयारी रखते हों। बाकी – ईमानदारी से कोई व्यक्ति न आए।
अब हम कीर्तन करें। पांच मिनट बैठे रहें अपनी जगह पर उठें | कीर्तन के बाद जाएं।
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अध्याय 12 दसवां प्रवचन
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0 गीता दर्शन भाग-60
'वन उतना ही नहीं है, जितना आप उसे जानते हैं। का आना और डूब जाना, और पत्थरों का गिरना और मौत घटित UII आपको जीवन की सतह का भी पूरा पता नहीं है, होना, और जूझते-जूझते जन्मना और जूझते-जूझते मर जाना, यही
उसकी गहराइयों का, अनंत गहराइयों का तो आपको | | उनके सारे पुराण थे। स्वप्न भी नहीं आया है। लेकिन आपने मान रखा है कि आप जैसे | लेकिन एक बार एक भटकता हुआ यात्री उस पहाड़ी गांव में हैं, वह होने का अंत है।
| पहुंच गया। और उसने कहा कि तुम नासमझ हो। तुम्हारी अगर ऐसा आपने मान रखा है कि आप जैसे हैं, वही होने का समस्याओं को हल करने का यह कोई उपाय नहीं है। तुम थोड़े अंत है, तो फिर आपके जीवन में आनंद की कोई संभावना नहीं है। | अपने मकान ऊंचाइयों पर बनाओ। इस खाई-खंदक को छोड़ो। फिर आप नरक में ही जीएंगे और नरक में ही समाप्त होंगे। । और इतने सुंदर पहाड़ तुम्हारे चारों तरफ हैं, इनके उतार पर अपने
जीवन बहुत ज्यादा है। लेकिन उस ज्यादा जीवन को जानने के | मकान बनाओ। लिए ज्यादा खला हृदय चाहिए। जीवन अनंत है। पर उस अनंत को ___ गांव के लोगों ने पूछा, क्या उससे हमारी समस्याएं हल हो देखने के लिए बंद आंखें काम न देंगी। जीवन विराट है और अभी | जाएंगी? क्योंकि ऊंचे मकान बनाने से समस्याओं का क्या हल .
और यहीं जीवन की गहराई मौजूद है। लेकिन आप अपने द्वार बंद | | होगा! वर्षा तो आएगी, तूफान तो होंगे, नदियां तो बहेंगी। ये तो किए बैठे हैं। और अगर कोई आपके द्वार भी खटखटाए, तो आप| | नहीं रुक जाएंगी! भयभीत हो जाते हैं। और भी मजबूती से द्वार बंद कर लेते हैं। । उनका सवाल ठीक था। लेकिन उस यात्री ने हंसकर कहा कि
मैंने आज आपको बुलाया है। मैं आपके द्वार नहीं खटखटाऊंगा, तुम घबड़ाओ मत। तुम्हारी समस्याएं बदल जाएंगी, क्योंकि तुम बल्कि आपके द्वार तोड़ ही डालूंगा। पर आपकी तैयारी चाहिए। आप | ऊंचाई पर चले जाओगे। तुम नीचाई पर हो, इसलिए समस्याएं हैं। अगर भयभीत रहे, तो आप वंचित रह जाएंगे। भय से अगर आपने | | और यहीं, नीचाई पर रहकर अगर तुम समस्याओं को हल करना आंखें बंद रखीं, तो सूरज निकलेगा भी, तो भी आपके लिए नहीं | चाहते हो, तो तुम कभी हल न कर पाओगे। निकलेगा। आप अंधेरे में ही रह जाएंगे।
___ गांव के लोग हिम्मतवर रहे होंगे। बड़ी हिम्मत की जरूरत है यह प्रयोग तो साहस का प्रयोग है। और केवल उन लोगों के परानी आदतों को बदलने के लिए। उन्होंने ऊंचाइयों पर मकाने लिए है, जो अपने से ऊब चुके हैं भलीभांति। और जो अपने से बनाने शुरू कर दिए। और तब उस गांव के लोगों ने एक उत्सव अच्छी तरह परेशान हो चुके हैं। और जिन्होंने यह भलीभांति समझ मनाया और उन्होंने कहा, हमें आश्चर्य है कि हमें यह खयाल पहले लिया है कि जैसे वे हैं, वैसे ही रहने से कोई भी मार्ग नहीं है। तो | क्यों न आया! नदियां अब भी बहेंगी, लेकिन हमारा कोई नुकसान बदलाहट हो सकती है। तो क्रांति आ सकती है।
न कर पाएंगी। पत्थर अब भी गिरेंगे, लेकिन अब हम खाई-खंदक सुना है मैंने कि दूर पहाड़ियों में बसा हुआ एक गांव था। खाई | | में नहीं हैं। में बसा हुआ था, नीचाई पर था। वर्षा आती, नदियों में बाढ़ आती, | | आप जहां जी रहे हैं, वह एक खाई है, जहां सारी मुसीबतें गिरती गांव के घर बह जाते, खेती-बाड़ी नष्ट हो जाती, जानवर बह जाते, | | हैं और आप परेशान होते हैं। यह प्रयोग आपको उस खाई से बाहर बच्चे डूब जाते। झंझावात आते, आंधियां आतीं, पहाड़ से पत्थर | निकालकर ऊंचाइयों की तरफ ले चलने का है। लेकिन मुश्किल है गिरते, लोग दब जाते और मर जाते।
| पुरानी आदतों को छोड़ना; चाहे वे आदतें कितनी ही तकलीफ क्यों उस गांव की जिंदगी बड़े कष्ट में थी। जिंदगी थी ही नहीं, बस | न देती हों। मौत से लड़ने का नाम ही जिंदगी था। कभी वर्षा सताती, कभी | क्रोध किसको तकलीफ नहीं देता? ईर्ष्या किसको नहीं जलाती? तूफान सताते। और जीना दूभर था।
| दुश्मनी से किसको आनंद मिला है? लेकिन हम आदी हैं। और लेकिन उस पहाड़ी गांव के लोग मानते थे कि यही ढंग है एक अगर कोई कहे कि लाओ मैं तुम्हारा क्रोध ले लूं, तो भी हम संकोच जीने का, क्योंकि बचपन से वे इसी ढंग से परिचित थे। उनके करेंगे और कंजूसी दिखाएंगे। बाप-दादे भी ऐसे ही जीए थे। और उनके बाप-दादों के बाप-दादे यह प्रयोग इसीलिए है कि मैं आपसे आपकी सारी बीमारियां भी ऐसे ही जीए थे। यही मुसीबत उनकी कथाओं में थी। यही बाढ़ों मांगता हूं। और आपको रास्ता भी बताता हूं कि आप कैसे वे
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सामूहिक शक्तिपात ध्यान
बीमारियां मुझे दे सकते हैं। वे बीमारियां आपसे छूट सकती हैं, उसका स्पर्श आह्लादकारी होगा। मैं एक विद्युत प्रवाह की तरह क्योंकि आप बीमारियां नहीं हैं, बीमारियां केवल आपकी आदत हैं। आपके भीतर आ सकता हूं, उसमें बहुत-सा कचरा जल जाएगा आदतें बदली जा सकती हैं। उन्हें आपने बनाया है, आप उन्हें मिटा | | और सोना निखर उठेगा। लेकिन एक साहस आपको करना जरूरी सकते हैं।
है कि आप अपनी बुद्धिमानी नहीं बरतेंगे। आपकी बिलकुल लेकिन हमारे पास बीमारियों की राशि है। जन्मों-जन्मों से हमने |
। जन्मा-जन्मा से हमने जरूरत नहीं है। न मालूम कितना उपद्रव भीतर इकट्ठा कर रखा है। कितने आंसू हैं। | वह जो फूल मैंने आपसे लाने को कहा है और कहा है कि ध्यान भीतर, जो बहना चाहते थे और नहीं बह सके। कितनी चीख-पुकार करते आना कि यह मेरा अहंकार है, वह इसीलिए कहा है। अगर है भीतर, जो प्रकट होना चाहती थी, और प्रकट नहीं हो पाई। पूरा भाव आपने किया है कि यह फूल मेरा अहंकार है, तो थोड़ी कितना क्रोध है, कितनी आग है, जो भीतर जल रही है। और उस देर बाद जब मैं आपको कहूंगा कि अपने दोनों हाथ उठाकर पूरे मन आग, घृणा, क्रोध, विक्षिप्तता के कारण आपका जीवन सदा एक से भाव करके कि यह फूल मेरा अहंकार है, उसे छोड़ दें। तो उस ज्वालामुखी के ऊपर है। जिसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है। फूल के गिरते ही आपके भीतर का न मालूम कितना बोझ उसके
मनसविद कहते हैं कि हर आदमी पागल होने के किनारे ही खड़ा | | साथ गिर जाएगा। आप हलके हो जाएंगे। है। और कभी भी पागल हो सकता है। और वे ठीक कहते हैं। ___आपका अहंकार बाधा है। वह हट जाए, तो मैं एक तूफान की पागलपन करीब-करीब सामान्य हालत है। लेकिन मैं आपको एक | तरह यहां बह सकता हूं। और जो मैं कह रहा हूं, वह कोई प्रतीक रास्ता बताता हूं कि आपके भीतर जो भी दबा हो, उसे आप खुले | की भाषा नहीं है। मैं कोई साहित्य की बात नहीं कह रहा हूं। मैं कोई आकाश में छोड़ दें।
मेटाफर में नहीं बोल रहा हूं। वस्तुतः एक तूफान की तरह मैं आपके किसी के ऊपर क्रोध करने की जरूरत नहीं है, क्रोध खुले आस-पास घूमूंगा। और जैसे कोई तूफान एक वृक्ष को पकड़ ले आकाश में भी छोड़ा जा सकता है। भीतर जो पागलपन है, उससे | और उसे हिलाने लगे, और उसके सारे सूखे पत्ते गिर जाएं, और किसी को नुकसान पहुंचाने की जरूरत नहीं है। पागलपन को हवा उसकी सारी धूल झड़ जाए, वैसा मैं आपको पकड़ लूंगा। और में एवोपरेट, वाष्पीभूत किया जा सकता है।
आप एक वृक्ष की तरह ही कंपने लगेंगे और आपका रो-रोआं और जैसे ही आप अपने इस उपद्रव को फेंकने लगेंगे. वैसे ही। | स्पंदित हो उठेगा। आपकी प्राण-ऊर्जा जागने लगेगी और आपके आप पाएंगे, आपके सिर का बोझ हलका हुआ जा रहा है। और | भीतर शक्ति का एक प्रवाह शुरू हो जाएगा। आपके आस-पास की दीवाल टूटती जा रही है। और आप आकाश | जैसे ही आप अपने को छोड़ेंगे, मैं काम करना शुरू कर दूंगा। के लिए खुल रहे हैं। और परमात्मा के लिए रास्ता बन रहा है। | आपका छोड़ना पहली शर्त है। और उसके बाद आपको कुछ भी ... यह प्रयोग समर्पण का प्रयोग है। इसमें आप अपने को छोड़ेंगे, नहीं करना है। चीजें होनी शुरू हो जाएंगी। आपको एक ही काम तो ही कुछ हो पाएगा। आपकी बुद्धिमत्ता की इसमें जरूरत नहीं है। करना है कि आप कुछ मत करना। आप सिर्फ छोड़ देना और आप अपनी बुद्धिमत्ता से तो जी ही रहे हैं। परिणाम आपके सामने | प्रतीक्षा करना। है। आप जो हैं, वह आपकी बुद्धिमत्ता का परिणाम है। उसे | | जैसे ही मेरी शक्ति आपकी शक्ति से मिलेगी, आपकी श्वास में बुद्धिमत्ता कहें या बुद्धिहीनता कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन | परिवर्तन शुरू होगा। वह पहला लक्षण होगा कि आप मुझसे मिल जो भी आप हैं, आपकी बुद्धिमानी का परिणाम है। | गए हैं। ठीक रास्ते पर हैं। आपने मेरी तरफ छोड़ दिया है अपने
यह प्रयोग आपकी बुद्धिमानी का नहीं है। आपको अपनी आपको। जैसे ही आप छोड़ेंगे, आपकी श्वास बदलने लगेगी। बुद्धिमानी छोड़ देनी है। उससे आप जीकर काफी देख लिए। एक | आपकी श्वास तेज और गहरी होने लगेगी। जब यह श्वास तेज घंटेभर के लिए मुझे मौका दें कि मैं आपके भीतर प्रवेश कर सकें | और गहरी होने लगे, तो समझना कि पहला लक्षण है। और उसे और आपको बदल सकूँ।
रोकना मत। उसे और गहरा हो जाने देना। उसे और सहयोग दे अगर आप राजी हुए, और थोड़ा-सा भी झरोखा आपने खोला, | देना, ताकि वह पूरी तरह आपको कंपाने लगे, और आपके भीतर तो मैं एक ताजी हवा की तरह आपके भीतर प्रवेश कर सकता हूं। । चलने लगे, जैसे कि लोहार की धौंकनी चलती है।
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गीता दर्शन भाग-6
वह श्वास आपके भीतर बहुत कुछ लाएगी और आपके भीतर से बहुत कुछ बाहर ले जाएगी। वह श्वास मुझे आपके भीतर लाएगी और आपके सारे कचड़े, कूड़ा-करकट को बाहर फेंकेगी। वह श्वास आपके भीतर विराट का संस्पर्श बनने लगेगी और आपकी क्षुद्रता को बाहर फेंकने लगेगी। आती श्वास में मैं आऊंगा और जाती श्वास में आपसे कुछ ले जाऊंगा। इसलिए जितनी तेज श्वास हो सके, उतना लाभ होगा, क्योंकि उतनी ही तेजी से आप उलीचेंगे। तो जब आपकी श्वास तेज होने लगे, तो साथ देना और
बाधा मत डालना।
दूसरा अनुभव, जैसे ही श्वास तेज होगी, आपको तत्काल लगेगा कि आपके शरीर में एक नई विद्युत, एक इलेक्ट्रिसिटी, एक जीवन ऊर्जा दौड़ने लगी। रोआं रोआं कंपना चाहेगा, नाचना चाहेगा। शरीर में बहुत-सी प्रक्रियाएं शुरू हो जाएंगी। मुद्राएं बनने लगेंगी। कोई एकदम से खड़ा होना चाहेगा। किसी का सिर घूमने लगेगा। किसी के हाथ ऊपर उठ जाएंगे। कुछ भी हो सकता है। और जो भी हो, उसे आपको रोकना नहीं है, होने देना है। आप जैसे बह रहे हैं एक नदी में। आपको तैरना जरा भी नहीं है। नदी की धार जहां ले जाए।
आपको पता नहीं है कि क्या हो रहा है, रोकना मत। लेकिन मुझे पता है कि क्या हो रहा है। इसलिए आपसे कहता हूं, रोकना मत। अगर आप बहुत क्रोधी हैं, तो आपके दोनों हाथों की अंगुलियों में, मुट्ठियों में क्रोध समाविष्ट है। और जब मैं आपको पकडूंगा, तो वह क्रोध आपकी मुट्ठियों से निकलना शुरू होगा; आपके हाथ कंपने लगेंगे। अगर आप बहुत चिंता से भरे हुए व्यक्ति हैं, तो आपका मस्तिष्क बहुत बोझिल है। आपका सिर कंपने लगेगा और उस सिर से चिंताएं गिरनी शुरू हो जाएंगी। अगर आप बहुत कामुक व्यक्ति हैं, तो आपके काम-केंद्र पर बहुत जोर से ऊर्जा का प्रवाह शुरू होगा। आप घबड़ाना मत। वह प्रवाह ऊपर की तरफ उठेगा, क्योंकि मैं उसे ऊपर की तरफ खींच रहा हूं। वही कुंडलिनी बन जाती है।
आपकी पूरी रीढ़ कंपने लगेगी। उसके साथ-साथ आपका पूरा शरीर कंपने लगेगा । लगेगा कि कोई आपको आकाश की तरफ खींच रहा है। निश्चित ही, मैं आपको आकाश की तरफ खींचूंगा। और अगर आपने बाधा न दी, तो आप इस पूरे प्रयोग में पाएंगे कि आप वेटलेस हो गए; आपका कोई वजन न रहा। जमीन का ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश कम हो गई। लेकिन आपको
छोड़ना पड़ेगा।
श्वास बढ़ेगी, फिर आपकी प्राण ऊर्जा बढ़ेगी। और तीसरा, जब संपर्क और गहरा होगा... ।
(रोने-चिल्लाने की आवाजें । )
अभी रुकें; पहले पूरी बात समझ लें। और जब संस्पर्श पूरा गहरा होगा...।
(चिल्लाने की आवाजें । )
उन्हें थोड़ा सम्हाल दें। अभी रुकें। तो आपके भीतर से आवाजें | निकलनी शुरू हो जाएंगी । चीत्कार, हुंकार, या कोई मंत्र का उदघोष, या रोना, चिल्लाना, हंसना, या स्क्रीम, सिर्फ चिल्लाहट, चीख, उसको रोकना मत। उसे हो जाने देना। उसके साथ ही. आपके भीतर के न मालूम कितने रोग बाहर हो जाएंगे। आप हलके हो जाएंगे - एक बच्चे की तरह कोमल, और हलके, और निर्दोष ।
यह पहला चरण है। बीस मिनट तक यह प्रयोग चलेगा। यहां | संगीत चलता रहेगा। आपको एकटक मेरी तरफ देखना है, ताकि मैं आपकी आंखों से प्रवेश कर सकूं। छोड़ना है अपने को और मेरी तरफ देखना है । फिर शेष काम मैं कर लूंगा।
बीस मिनट के बाद संगीत बंद हो जाएगा। और तब आप जिस अवस्था में होंगे, वैसे ही रुक जाना है। कोई अगर खड़ा हो गया हो, तो वह वैसा ही रुक जाएगा। किसी का हाथ अगर आकाश की तरफ उठा हो, तो हाथ को वहीं छोड़ देना है। किसी की गरदन झुक गई है, तो वैसे ही रह जाना है। फिर जो भी अवस्था आपकी हो । बीस मिनट की प्रक्रिया के बाद, मृत जैसे आप अचानक पत्थर हो गए, वैसे ही रह जाना है। जैसे ही मैं आवाज दूंगा कि रुक जाएं, वैसे ही रुक जाना है। आंख बंद कर लेनी है।
दूसरे चरण में बीस मिनट आंख बंद करके पत्थर की मूर्ति की तरह हो जाना है। कितना ही मन हो कि जरा पैर हिलाऊं, कि जरा आंख खोलूं, कि जरा हाथ बदल लूं, कि जरा करवट बदल लूं, इस मन को रोकना । यह मन बेईमान है। वह जो भीतर शक्ति जगी है, उससे डिस्ट्रैक्ट कर रहा है, उससे हटा रहा है। बिलकुल बीस मिनट पत्थर की तरह रह जाना। और आप रह सकेंगे। अगर पहले बीस मिनट आपने शरीर को पूरे प्रवाह में बहने दिया, तो दूसरे बीस | मिनट में आपको कोई बाधा नहीं आएगी। आप मूर्तिवत हो जाएंगे।
ये दूसरे बीस मिनट में आपके मौन से मैं काम करूंगा। और आपसे मौन में मिलूंगा। शब्दों से मैंने बहुत-सी बातें आपसे कही हैं। लेकिन जो भी महत्वपूर्ण है, वह शब्दों से कहा नहीं जा सकता।
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• सामूहिक शक्तिपात ध्यान
और जो भी गहरा है, वह कभी शब्दों से कहा नहीं गया है। उसके यहां-वहां मत देखना। लिए तो मौन में ही संवाद हो सकता है। अगर आप प्रयोग में ठीक | और बीस मिनट, शुरू के बीस मिनट आपको एकटक देखना से उतरे, तो मौन में आपसे कुछ कह सकूँगा, और मौन में कुछ कर | है, पलक झुकानी नहीं है। आंख से आंसू बहने लगें, फिक्र मत भी सकूँगा।
करना। कोई आंखें खराब नहीं हो जाने वाली हैं। सिर्फ ताजी हो दूसरे चरण में इस बीस मिनट की गहरी शांति में आपको अपूर्व जाएंगी। थोड़ी धूल बह जाएगी, स्वच्छ हो जाएंगी। आप देखते ही अनुभव होंगे। आनंद से हृदय भर जाएगा। जैसा आनंद आपने रहना। इतना थोड़ा-सा बल रखना कि मेरी तरफ देखते ही रहें, कभी भी न जाना होगा। और ऐसा सन्नाटा और ऐसा शून्य और क्योंकि आंख के द्वारा ही मैं सरलता से प्रवेश कर सकूँगा। शांति भीतर उतर आएगी, जो बिलकुल अपरिचित है। आप अपने | ये तीन चरण खयाल में रखने हैं। ही भीतर एक ऊंचाई पाएंगे, जिससे आप कभी भी संबंधित नहीं | अब हम शुरू करेंगे। आप जो फूल अपने साथ ले आए हैं, उसे थे। आप खाई से ऊपर हट गए हैं पहाड़ की चोटियों की तरफ। | दोनों हाथों के बीच में ले लें। दि फ्लावर दैट यू हैव ब्राट हियर, पुट और वहां आपको नए प्रकाश का अनुभव होगा। और परमात्मा की इट बिट्वीन योर टू पाम्स एंड क्लोज दि पाम्स। दोनों हथेलियों के असीम उपस्थिति प्रतीत होगी।
| बीच में फूल को ले लें और हथेलियों को बंद कर लें। और एक तीसरे बीस मिनट में अब आपको अपने आनंद को प्रकट करने बार और पूरे मन से भाव करें कि मेरा अहंकार इस फूल में केंद्रित का अवसर होगा। तब जो भी आपकी मौज में, अहोभाव में पैदा | | है। नाउ वन्स मोर प्रोजेक्ट योर ईगो इन दिस फ्लावर एंड फील दिस हो जाए-आप नाचना चाहें, गाना चाहें, हंसना चाहें या मौन रहना फ्लावर इज योर ईगो। चाहें—जो भी होना चाहे, बीस मिनट आप परमात्मा के अनुग्रह में नाउ रेज योर बोथ हैंड्स अपवर्ड्स। दोनों हाथ ऊपर उठा लें फूल डूब जाएंगे।
के साथ। फूल को ऊपर ले लें। दोनों हाथ ऊपर ले लें। आखिरी पहले बीस मिनट में आपकी बीमारियों से आपको मुक्त करना | | भाव करें कि यह फूल मेरा अहंकार है और मैं इस अहंकार को है। दूसरे बीस मिनट में आपके मौन में आपके आनंद को जन्म देना | | छोड़ता हूं। और फूल को दोनों हाथों से जमीन की तरफ छोड़ दें। है। तीसरे बीस मिनट में आपके अहोभाव, कृतज्ञता के बोध को | नाउ ड्राप दि फ्लावर एंड विद दिस ड्रापिंग आफ दि फ्लावर योर विकसित करना है। ये तीन चरण हैं। और आपको सिर्फ इतना ईगो ड्राप्स। करना है कि आप बाधा मत डालना; आप सहयोगी रहना। अब मेरी ओर देखें। नाउ स्टेयर एट मी फार ट्वेन्टी मिनट्स।
कुछ साधारण सूचनाएं। बहुत कुछ होना शुरू होगा, आप दूसरे डोंट क्रिएट एनी बैरियर। सरेंडर टुवर्ड्स मी एंड अलाउ मी टु वर्क। पर ध्यान मत देना। नहीं तो आप चूक जाएंगे। बच्चों जैसा मत | | (चीखना, चिल्लाना, रोना आदि की तीव्र आवाजें। ... बीस करना। आप छोटे बच्चे नहीं हैं। बगल में अगर कोई चीखने लगे, | | मिनट तक प्रयोग जारी रहा।) तो आपको देखने की जरूरत नहीं है; चीखने देना। कोई बगल में | रुक जाएं! नाउ स्टाप कंप्लीटली! रुक जाएं जैसे हैं। आंख बंद नाचने लगे, तो आपको लौटकर देखने की जरूरत नहीं है। नहीं तो कर लें। क्लोज योर आइज एंड स्टाप कंप्लीटली, नो मूवमेंट, नो आप चूक जाएंगे। उतनी-सी बाधा और आपसे मेरा संबंध टूट | न्वाइज। जरा भी आवाज नहीं, शरीर को भी बिलकुल रोक लें। जाएगा। आप मेरी तरफ ही देखते रहना। आस-पास कुछ भी हो। शक्ति जाग गई, अब उसे भीतर मौन में काम करने दें। आंख बंद
यह पूरा स्थान एक तूफान, एक विक्षिप्तता की स्थिति में हो कर लें, कोई भी आंख खुली न रह जाए। आंख बंद करें। क्लोज जाएगा। आप एक ही याद रखना कि आपका मुझसे संबंध है और | योर आइज एंड अलाउ दि इनर्जी टु वर्क विदिन। बिलकुल चुप, यहां कोई भी नहीं है। कितना ही मन हो कि जरा यहां देखें, वहां | जरा भी आवाज नहीं, ताकि मैं आपके मौन में काम कर सकूँ। देखें, इस फिजूल बात को रोकना। क्योंकि जिंदगीभर से यहां-वहां बीस मिनट के लिए ऐसे हो जाएं जैसे यहां मरघट है। सिर्फ देख रहे हैं, उससे कुछ हो नहीं गया है। और आपके देखने से कुछ | लाशें रह गईं। फार ट्वेन्टी मिनट्स नाउ बी टोटली साइलेंट, एज होगा भी नहीं। आप चूक जाएंगे, समय व्यर्थ हो जाएगा। एक | इफ यू हैव गान डेड। कोई यहां-वहां न हिले, कोई चले-फिरे नहीं। अवसर जरा-सी बचकानी बात से खोया जा सकता है। तो | जो जहां है, बिलकुल मुर्दे की भांति हो जाए। जो लोग देखने आ
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( गीता दर्शन भाग-60
गए हों, वे भी कृपा करके आंख बंद कर लें और कम से कम बीस | बस ठीक है। बैठ जाएं, किसी भी तरह थोड़ी सी जगह बना लें मिनट के लिए शांत हो जाएं। हिलें नहीं।
और बैठ जाएं। देखिए, न बैठ सकें, तो खड़े रहें, अब बातचीत मुझे एक मौका दें कि आपकी शांति में प्रवेश कर सकू, और बंद कर दें। आपके हृदय में आनंद का फूल खिला सकू। नाउ अलाउ मी टु वर्क जिन मित्रों ने प्रयोग किया, वे पुरस्कृत हुए। लेकिन नासमझों की इन योर साइलेंस।
| कोई कमी नहीं है। और आप में बहुत हैं जो नासमझ हैं। कुछ बातें (दूसरे बीस मिनट तक सब ओर गहन सन्नाटा रहा।) | हैं, जो देखने से दिखाई नहीं पड़ती। और मनुष्य के भीतर क्या
एक गहरी शांति में उतर गए हैं। एक गहरे आनंद का अनुभव। | घटित होता है, जब तक आपके भीतर घटित न हो, आपको पता यू हैव एंटर्ड ए न्यू डायमेंशन आफ साइलेंस। दूसरा चरण पूरा नहीं चल सकता। अगर आप बाहर से देख रहे हैं, तो यह भी हो हुआ। दि सेकेंड स्टेप इज़ ओवर, नाउ यू कैन एंटर्ड दि थर्ड। अब | सकता है कि आपको लगे कि दूसरा आदमी पागलपन कर रहा है। तीसरे में प्रवेश करें।
लेकिन आखिरी हिसाब में आप पागल सिद्ध होंगे। __ जो आनंद का अनुभव हुआ है, उसे प्रकट कर सकते हैं। जैसे | | कुछ चीजें हैं, जो केवल भीतर ही देखी जा सकती हैं। और जब .
भी प्रकट करने का भाव आ जाए। नाउ यू कैन एक्सप्रेस योर | तक आप न उतर जाएं उसी अनुभव में, तब तक उसके संबंध में ब्लिस, योर साइलेंस दि वे यू चूज। यू कैन सिंग, यू कैन डांस, यू | आप कुछ भी नहीं जान सकते। कोई प्रेम में है...। . कैन लाफ, व्हाटसोएवर यू फील लाइक डूइंग। एंड डोंट बी शाय, | (एक आदमी शोर मचा रहा है। भगवान श्री समझाते हैं, चुप हो सेलिब्रेट इट। संकोच न करें और आनंद को प्रकट होने दें। जितना | जाएं। खड़े रहने दो, उनको खड़े रहना है तो। लेकिन चुप रहें।) प्रकट करेंगे, उतना बढ़ेगा। जितना प्रकट करेंगे, उतना बढ़ेगा। डरें ___ कोई प्रेम में है, तो बाहर से आप कुछ भी नहीं जान सकते कि मत, आनंद चाहते हैं, तो आनंद को प्रकट होने दें। एक्सप्रेस इट, । | उसे क्या हो रहा है। कोई आनंद में है, तो भी बाहर से नहीं जान दि मोर यू एक्सप्रेस दि मोर इट ग्रोज।
सकते कि क्या हो रहा है। कोई दुख में है, तो भी बाहर से नहीं जान (तीसरे बीस मिनट में संगीत बजता रहा। लोग नाचते, गाते रहे। | सकते कि भीतर क्या हो रहा है। भीतर तो आप वही जान सकते हैं, उत्सव चलता रहा। फिर भगवान श्री ने समापन के कुछ शब्द कहे।) जो आपके भीतर हो रहा हो।
बस रुक जाए। रुक जाए, शात हो जाए, शात हो जाए। शात । इसलिए भक्त अक्सर पागल मालूम पड़े हैं। और लगा है कि हो जाएं और अपनी जगह पर बैठ जाएं। शांत हो जाएं और अपनी | उनके मस्तिष्क खराब हो गए हैं। लेकिन एक बार मस्तिष्क खराब जगह पर बैठ जाएं। मौन चुपचाप अपनी जगह पर बैठ जाएं। मुझे करके भी देखना चाहिए। वह स्वाद ही और है। और अनुभव का कुछ बातें कहनी हैं, उनको कह दूं, फिर आप जाएं। शांत बैठ जाएं, | रस एक बार आ जाए, तो आप दुनियाभर की समझदारी उसके लिए आवाज न करें, भीड़ न करें यहां पास, शांत बैठ जाएं। वहां जगह छोड़ने को राजी हो जाएंगे। न हो, तो बाहर निकल जाएं, किनारे पर बैठ जाएं।
लेकिन कुछ छोटी-सी बातें बाधा बन जाती हैं। एक तो यही देखें, बीच में बाहर से आप लोग आ गए हैं, तो बाहर वापस बात बाधा बन जाती है कि जो हमें नहीं हो रहा है, वह दूसरे को लौट जाएं, किनारे पर बैठ जाएं। शांत हो जाएं। देखें, बात न करें, भी कैसे होगा। अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। जगह न हो, तो बाहर निकल जाएं, __ आप मापदंड नहीं हैं और न कसौटी हैं। बहुत कुछ है, जो दूसरे किनारे पर बैठ जाएं।
को हो सकता है, जो आपको नहीं हो रहा। और ध्यान रखना, जो बाहर निकलिए वहां से। समय खराब मत करें, बाहर निकल | दूसरे को हो रहा है, वह आपको भी हो सकता है, थोड़े साहस की जाएं। वहां बीच में जगह न हो, तो बाहर हो जाएं। जैसे भीतर आ जरूरत है। और दुनिया में बड़े से बड़ा साहस एक है और वह गए हैं, वैसे बाहर हो जाएं। बातचीत बंद करें। थोड़ा आगे हट | साहस है इस बात का कि लोग चाहे हंसें, तो भी नए के प्रयोग करने आएं, वहां पीछे बैठने की जगह हो जाएगी। बैठ जाएं, अगर आगे | का साहस। जगह न हो, तो थोड़ा आगे हट आएं। आप लोग थोड़ा आगे हट | __ बड़ा डर हमें होता है कि कोई क्या कहेगा! हम मरते वक्त तक आएं, तो पीछे जगह हो जाए।
लोगों का ही हिसाब रखते हैं कि कोई क्या कहेगा। इसी में हम
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0 सामूहिक शक्तिपात ध्यान के
जीवन को गंवा देते हैं। पड़ोसी क्या कहेंगे! कोई आपको नाचते | से बंद था, कोई चालीस वर्ष से, कोई पचास वर्ष से भी बंद था।
और गाते और आनंदित होते देख लेगा, तो क्या कहेगा! पत्नी क्या | | उनके हाथों और पैरों की जंजीरें सदा के लिए डाली गई थीं। जब वे कहेगी; पति क्या कहेगा; बच्चे आपके क्या कहेंगे! तो आप दूसरों मरेंगे, तभी उनकी जंजीरें निकलेंगी। के मंतव्य इकट्ठे करते रहना और जीवन की धार आपके पास से | - क्रांतिकारियों ने उनकी जंजीरें तोड़ दीं; उन्हें मुक्त कर दिया। और बही जा रही है।
सोचा कि वे बड़े आनंदित होंगे। लेकिन आपको पता है क्या हुआ! आपके पास से बुद्ध भी गुजरे हैं, और आप उनसे भी चूक गए। आधे कैदी सांझ होते तक वापस लौट आए और उन्होंने कहा, बाहर और आपके पास से कृष्ण भी गुजरे हैं, और उनसे भी आप चूक हमें अच्छा नहीं लगता है। और उन्होंने कहा कि बिना जंजीरों के गए। और क्राइस्ट भी आपके पास से निकले हैं, लेकिन आपको हम सो भी न सकेंगे। तीस साल, चालीस साल से जंजीरों के साथ उनकी कोई सगंध न लगी। क्योंकि आप हमेशा यह खयाल कर रहे सो रहे थे। अब हमें नींद भी न आएगी। और जंजीरें अब जंजीरें नहीं हैं कि कोई क्या कहेगा! आप नाहक ही वंचित हो जाते हैं। हैं, हमारे शरीर का हिस्सा हो गई हैं। हमारी जंजीरें वापस लौटा दो।
फिर एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि धर्म तो एक प्रयोग है। और हमारी जो काली कोठरियां हैं, वे ठीक हैं, क्योंकि सूरज की और जब तक आप प्रयोग करके न देखें, तब तक आप कुछ भी | रोशनी आंख को बहुत खलती है। और फिर इस बाहर की दुनिया नहीं कह सकते कि क्या हो सकता है। नए के प्रयोग को करके, | में जाकर हम करें भी क्या? हमारे सारे संबंध टूट चुके हैं। हमें कोई देखकर ही निर्णय लेना चाहिए।
पहचानता नहीं। हमारा कोई नाता-रिश्ता नहीं है। यह कारागृह ही यहां दो तरह के लोग हैं। एक जिन्होंने प्रयोग किया है; और एक हमारा अब घर है। और हम यहीं मरना चाहते हैं। जो बिना प्रयोग यहां खड़े रहे। और मजे की बात यह है कि जिन्होंने क्रांतिकारियों ने कभी सोचा भी नहीं था कि कारागह के कैदी भी प्रयोग किया है, वे शायद किसी से कुछ भी न कहें। लेकिन जिन्होंने वापस लौट आएंगे। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि स्वतंत्रता को कोई प्रयोग नहीं किया है, वे तैयार हैं। उनका मन अब बिलकुल तैयार ठुकराकर वापस लौट आएगा। लेकिन कारागृह से भी मोह हो है कि वे जाकर लोगों को कहें कि वहां क्या हुआ।
जाता है और जंजीरों से भी प्रेम बन जाता है। अगर आपने प्रयोग न किया हो, तो किसी से मत कहना कि वहां | हम इसी तरह के लोग हैं। हमारा दुख भी हम से छोड़ते नहीं क्या हुआ। क्योंकि जो भी आप बोलोगे, वह झूठ होगा। वह बनता। अगर आप रोना भी चाहते हैं, तो भी रोकते हैं। हंसना भी आपका अनुभव नहीं है। आपने अनुभव किया हो, तो ही लोगों को | चाहते हैं, तो भी रोकते हैं। आप कुछ भी छोड़ नहीं सकते। आपकी कहना कि क्या हुआ, क्योंकि उस बात में कोई सच्चाई है। लेकिन जंजीरें बड़ी प्रीतिकर हो गई हैं। वे आभूषण मालूम होती हैं। और हम ईमानदारी से जैसे जरा भी संबंधित नहीं रहे हैं। और हमारा सारा | | जब तक आप इन जंजीरों से भरे रहेंगे, परमात्मा का, स्वतंत्रता का व्यक्तित्व झूठा हो गया है।
आकाश आपको उपलब्ध नहीं हो सकेगा। आपको जंजीरें तोड़नी इधर मैं देखता हूं। इधर मैंने देखा, सैकड़ों लोग थे जो हिल रहे ही पड़ेंगी। आपको कटघरे तोड़ने ही पड़ेंगे। आपको फेंकना ही थे, लेकिन रोक भी रहे थे। कहीं सच में ही कोई चीज कंपा न जाए! पड़ेगा बोझ, जो आप सिर पर लिए हैं। क्योंकि परमात्मा की यात्रा
क्या रोक रहे हैं? आपके पास बचाने को भी क्या है? बड़ा मजा केवल उनके लिए है, जो निर्बोझ हैं, जो हलके हैं। भारी लोगों के तो यह है कि बचाने को भी कुछ होता, तो भी कोई बात थी। बचाने लिए वह यात्रा नहीं है। को कुछ भी नहीं है। आप खो क्या देंगे? आपके पास है क्या, जो एक छोटा-सा प्रयोग था, आप न भी कर पाए हों हिम्मत, तो नष्ट हो जाएगा? जो भी आपके पास है, वह नष्ट होने योग्य है। कुछ खो नहीं दिया। घर जाकर अकेले में हिम्मत करने की कोशिश लेकिन उसी को बचा रहे हैं!
करना। यहां दूसरों का डर रहा होगा। घर चले जाना। द्वार बंद कर सुना है मैंने कि फ्रांस में क्रांति हुई, तो बेस्टिले के किले में, जहां लेना। मैं वहां भी आपके साथ काम कर सकता हूं। जैसा प्रयोग कि आजन्म अपराधियों को रखा जाता था, क्रांतिकारियों ने दीवालें | यहां किया है, एक फूल को रख लेना। उसमें भाव करना, अहंकार तोड़ दी, और वहां के हजारों कैदियों की जंजीरें तोड़ दी, और उन्हें | को छोड़ देना। और ठीक तीन चरणों में इस प्रयोग को घर पर होने मुक्त कर दिया। लेकिन वे कैदी आजन्म कैदी थे। कोई बीस वर्ष देना। मैं वहां भी आ सकता हूं।
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कि गीता दर्शन भाग-60
और एक बार आपको झलक मिल जाए, तो आप दूसरे आदमी | बड़ी तैयारियां और बड़ी सजावट करते हैं। और हम परमात्मा को हो जाएंगे। आपका नया जन्म हो जाएगा। और जब तक आपका बुलाते हैं बिना किसी तैयारी के। वहां हमारी कोई सजावट नहीं है। नया जन्म न हो, तब तक आपका आज का जीवन और जन्म | और ध्यान रहे, वह अतिथि आने को तैयार है, लेकिन मेजबान बिलकुल व्यर्थ है।
| तैयार नहीं है। इस मुल्क में हम उस आदमी को पूजते रहे हैं, जिसको हम द्विज | __ थोड़ा इसे तैयार करें। जैसा शरीर को धोते हैं, ऐसा रोज मन को कहते हैं, ट्वाइस बॉर्न। द्विज हम उसे कहते हैं...। एक जन्म तो | | भी धोते रहें। धुलते-धुलते मन दर्पण बन जाता है और उस दर्पण वह है, जो मां-बाप से मिलता है। वह असली जन्म नहीं है। एक में परमात्मा की छवि उतरनी शरू हो जाती है। जन्म वह है, जो आप और परमात्मा के बीच संपर्क से मिलता है। परमात्मा कोई सिद्धांत नहीं है। दर्शनशास्त्र से उसका कोई संबंध वही असली जन्म है। क्योंकि उसके बाद ही आप जीवन को | नहीं है। परमात्मा एक अनुभव है। और सारे शास्त्र भी आपके पास उपलब्ध होते हैं।
हों, तो व्यर्थ हैं, जब तक परमात्मा की अपनी निजी एकाध प्रतीति मां-बाप से जो जन्म मिलता है, वह तो मृत्यु में ले जाता है और न हो। और एक छोटी-सी प्रतीति और दुनिया दूसरी हो जाती है। कहीं नहीं ले जाता। उसको जीवन कहना व्यर्थ है। एक और जीवन | फिर इस दुनिया में कोई दुख नहीं है, और कोई चिंता नहीं है, और है, जो कभी नष्ट नहीं होता। और जब तक उसकी सुगंध, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। सुवास, आपको उसका संस्पर्श न हो जाए, तब तक आप जानना अमृत की तरफ एक इशारा हमने यहां किया है। एक प्रयोग कि आप व्यर्थ ही भटक रहे हैं। और जहां हीरे कमाए जा सकते थे, छोटा-सा किया है। जिन्होंने हिम्मत की, वे उसे दोहराएं। जिन्होंने वहां आप कंकड़ इकट्ठे करने में समय को नष्ट कर रहे हैं। हिम्मत नहीं की, वे भी घर जाकर एकांत में हिम्मत करने की
घर जाकर इस प्रयोग को कर लेना। और ऐसा नहीं है कि एक | कोशिश करें। अगर आपने ठीक श्रम किया, तो एक बात पक्की दफे प्रयोग कर लिया, तो काम पूरा हो गया। इसे आप रोज सुबह | है, परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता
र ले सकते हैं। अगर एक तीन महीने आपने इसको नियमित रूप है। कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। और छोटा-सा भी प्रयास से किया. आप दसरे आदमी हो जाएंगे. द्विज हो जाएंगे। और आप परस्कत होता है। अनुभव करेंगे कि पहली बार खुले आकाश में, खुली हवाओं में, हमारी बैठक पूरी हुई। खुले सूरज में, आपकी यात्रा शुरू हुई। और आप पहली दफा अनुभव करेंगे कि पृथ्वी पर होना धन्यभाग है; और यह जीवन एक सौभाग्य है, अभिशाप नहीं है। और परमात्मा ने इसे एक शिक्षण के लिए दिया है।
जिन मित्रों ने प्रयोग किया है, उनमें से बहुत-से मित्र गहरी झलक लिए हैं। वे इस प्रयोग को घर जारी रखेंगे, तो उनकी गहराई तो बहुत बढ़ जाएगी।
एक बात ध्यान रखें, ध्यान को स्नान जैसा बना लें, रोज का कृत्य। जैसे शरीर को रोज धो लेना पड़ता है, तभी वह ताजा और साफ होता है। ऐसे ही मन को भी रोज धो लें, तभी वह ताजा और साफ होता है। और जिनके मन ताजे और साफ नहीं हैं, वे भगवान का आवास नहीं बन सकते हैं।
उसे हम बुलाते हैं, लेकिन हम तैयार नहीं हैं। उसे हम चाहते हैं। कि वह मेहमान बने, लेकिन हमारे भीतर गंदगी और कचरे के सिवाय कुछ भी नहीं है। साधारण अतिथि घर में आता है, तो हम
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अध्याय 12 ग्यारहवां प्रवचन
आधुनिक मनुष्य की
साधना
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तुल्यनिन्दास्तुतिमांनी संतुष्टो येन केनचित्।। | थक जाएगा और शांत होकर बैठ जाएगा। वह शांति अलग होगी; अनिकेतः स्थिरमतिभक्तिमान्मे प्रियो नरः ।। १९ ।। ऊपर से दबाकर आ गई शांति अलग होगी। ये तु धामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
आज मनोविज्ञान इस बात को बड़ी गहराई से स्वीकार करता है श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।। २० ।। कि आदमी के भीतर जो भी मनोवेग हैं, उनका रिप्रेशन, उनका दमन
तथा जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला और खतरनाक है। उनकी अभिव्यक्ति योग्य है। मननशील है एवं जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह | लेकिन अभिव्यक्ति का मतलब किसी पर क्रोध करना नहीं है, होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से | किसी पर हिंसा करना नहीं है। अभिव्यक्ति का अर्थ है, बिना किसी रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान पुरुष के संदर्भ में मनोवेग को आकाश में समर्पित कर देना। और जब __ मेरे को प्रिय है।
मनोवेग समर्पित हो जाता है और भीतर की दबी हुई शक्ति छूट और जो मेरे को परायण हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस अपर कहे जाती है, मुक्त हो जाती है, तो एक शांति भीतर फलित होती है। हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे | उस शांति में ध्यान की तरफ जाना आसान है। भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।
। यह उछल-कद ध्यान नहीं है। लेकिन उछल-कद से आपके भीतर की उछल-कूद थोड़ी देर को फिक जाती है, बाहर हट जाती
है। उस मौन के क्षण में, जब बंदर थक गया है, भीतर उतरना पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, क्या बंदरों की | आसान है। तरह उछल-कूद से ध्यान उपलब्ध हो सकेगा? जो लोग आधुनिक मनोविज्ञान से परिचित हैं, वे इस बात को
बहुत ठीक से समझ सकेंगे। पश्चिम में अभी एक नई थैरेपी, एक
नया मनोचिकित्सा का ढंग विकसित हुआ है। उस थैरेपी का नाम कि आप बंदर हैं, इसलिए बिना उछल-कूद के । | है, स्क्रीम थैरेपी। और पश्चिम के बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक उसके आपके भीतर के बंदर से छुटकारा नहीं है। यह | परिणामों से आश्चर्यचकित रह गए हैं। इस थैरेपी, इस चिकित्सा
ध्यान के कारण उछल-कूद की जरूरत नहीं है, की मूल खोज यह है कि बचपन से ही प्रत्येक व्यक्ति अपने रोने के आपके बंदरपन के कारण है।
भाव को दबा रहा है। रोने का उसे मौका नहीं मिला है। पैदा होने जो आपके भीतर छिपा है, उसे जन्मों-जन्मों तक दबाए रहें, तो के बाद पहला काम बच्चा करता है, रोने का। आपको पता है, भी उससे छुटकारा नहीं है। उसे झाड़ ही देना होगा, उसे बाहर फेंक | अगर आप उसको भी दबा दें, तो बच्चा मर ही जाएगा। ही देना होगा। कचरे को दबा लेने से कोई मुक्ति नहीं होती। उसे ___ पहला काम बच्चा करता है रोने का, क्योंकि रोने की प्रक्रिया में झाड़-बुहारकर बाहर कर देना जरूरी है।
ही उसकी श्वास चलनी शुरू होती है। अगर हम उसे वहीं रोक दें शांत करने के दो रास्ते हैं, एक रास्ता है कि किरो मत, तो वह मरा हआ ही रहेगा, वह जिंदा ही नहीं हो पाएगा। जोर-जबरदस्ती से उसे बिठा दो, डंडे के डर से कि हिलना मत, इसलिए बच्चा पैदा हो और अगर न रोए, तो मां-बाप चिंतित हो डुलना मत, नाचना मत, कूदना मत। ऊपर से बंदर अपने को जाएंगे, डाक्टर परेशान हो जाएगा। रुलाने की कोशिश की जाएगी सम्हाल लेगा, लेकिन भीतर के बंदर का क्या होगा? ऊपर से बंदर कि वह रो ले, क्योंकि रोने से उसकी जीवन प्रक्रिया शुरू होगी। अपने को रोक लेगा, लेकिन भीतर और शक्ति इकट्ठी हो जाएगी। लेकिन बच्चे को तो हम रोकते भी नहीं। और अगर इस तरह बंदर को दबाया. तो बंदर पागल हो जाएगा। | लेकिन जैसे-जैसे बच्चा बढ़ने लगता है, हम उसके रोने की बहुत लोग इसी तरह पागल हुए हैं। पागलखाने उनसे भरे पड़े हैं। प्रक्रिया को रोकने लगते हैं। हमें इस बात का पता नहीं है कि इस क्योंकि भीतर जो शक्ति थी, उसने उसको जबरदस्ती दबा लिया, | जगत में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जिसका जीवन के लिए कोई वह शक्ति विस्फोटक हो गई है।
| उपयोग न हो। अगर उपयोग न होता, तो वह होती ही न। एक रास्ता यह है कि बंदर को नचाओ, कुदाओ, दौड़ाओ। बंदर मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के रोने की जो कला है, वह
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o आधुनिक मनुष्य की साधना *
उसके तनाव से मुक्त होने की व्यवस्था है। और बच्चे पर बहुत जाए। आप भूल ही जाएं कि आप चीत्कार से अलग हैं; आप एक तनाव हैं। बच्चे को भूख लगी है और मां दूर है या मां काम में | चीत्कार ही हो जाएं। उलझी है। बच्चे को भी क्रोध आता है। और अगर बच्चा रो ले, तो | | तो कोई तीन महीने लगते हैं मनोवैज्ञानिकों को, आपको रुलाना उसका क्रोध बह जाता है और बच्चा हलका हो जाता है। लेकिन | | सिखाने के लिए। तीन महीने निरंतर प्रयोग करके आपको गहरा मां उसे रोने नहीं देगी।
किया जाता है। मनसविद कहते हैं कि उसे रोने देना. उसे प्रेम देना, लेकिन करते क्या हैं इस थैरेपी वाले लोग? आपको छाती के बल लिटा उसके रोने को रोकने की कोशिश मत करना। हम क्या करेंगे? | | देते हैं जमीन पर। और आपसे कहते हैं कि जमीन पर लेटे रहें और बच्चे को खिलौना पकड़ा देंगे कि मत रोओ। बच्चे का मन डाइवर्ट | | जो भी दुख मन में आता हो, उसे रोकें मत, उसे निकालें। रोने का हो जाएगा। वह खिलौना पकड़ लेगा। लेकिन रोने की जो प्रक्रिया | | मन हो, रोएं; चिल्लाने का मन हो, चिल्लाएं। भीतर चल रही थी, वह रुक गई। और जो आंसू बहने चाहिए थे, तीन महीने तक ऐसा बच्चे की भांति आदमी लेटा रहता है जमीन वे अटक गए। और जो हृदय हलका हो जाता बोझ से, वह हलका | | पर रोज घंटे, दो घंटे। एक दिन, किसी दिन वह घड़ी आ जाती है नहीं हो पाया। वह खिलौने से खेल लेगा, लेकिन यह जो रोना रुक | कि उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं विद्युत के प्रवाह से। वह आदमी गया, इसका क्या होगा? यह विष इकट्ठा हो रहा है। | आंख बंद कर लेता है, वह आदमी जैसे होश में नहीं रह जाता, और
मनसविद कहते हैं कि बच्चा इतना विष इकट्ठा कर लेता है, वही | एक भयंकर चीत्कार उठनी शुरू होती है। कभी-कभी घंटों वह उसकी जिंदगी में दुख का कारण है। और वह उदास रहेगा। आप | | चीत्कार चलती है। आदमी बिलकुल पागल मालूम पड़ता है। इतने उदास दिख रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह उदासी हो सकता | | लेकिन उस चीत्कार के बाद उसकी जो-जो मानसिक तकलीफें थीं, था न होती; अगर आप हृदयपूर्वक जीवन में रोए होते, तो ये आंसू वे सब तिरोहित हो जाती हैं। आपकी पूरी जिंदगी पर न छाते; ये निकल गए होते। और सब तरह । यह जो ध्यान का प्रयोग मैं आपको कहा हूं, ये आपके जब तक का रोना थैराप्यूटिक है। हृदय हलका हो जाता है। रोने में सिर्फ मनोवेग-रोने के, हंसने के, नाचने के, चिल्लाने के, चीखने के, आंसू ही नहीं बहते, भीतर का शोक, भीतर का क्रोध, भीतर का | | पागल होने के—इनका निरसन न हो जाए, तब तक आप ध्यान में हर्ष, भीतर के मनोवेग भी आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाते हैं। जा नहीं सकते। यही तो बाधाएं हैं। और भीतर कुछ इकट्ठा नहीं होता है।
आप शांत होने की कोशिश कर रहे हैं और आपके भीतर वेग तो स्क्रीम थैरेपी के लोग कहते हैं कि जब भी कोई आदमी भरे हुए हैं, जो बाहर निकलना चाहते हैं। आपकी हालत ऐसी है, मानसिक रूप से बीमार हो, तो उसे इतने गहरे में रोने की जैसे केतली चढ़ी है चाय की। ढक्कन बंद है। ढक्कन पर पत्थर आवश्यकता है कि उसका रो-रोआं, उसके हृदय का रखे हैं। केतली का मुंह भी बंद किया हुआ है और नीचे से आग कण-कण, श्वास, धड़कन-धड़कन रोने में सम्मिलित हो जाए। | भी जल रही है। वह जो भाप इकट्ठी हो रही है, वह फोड़ देगी केतली एक ऐसे चीत्कार की जरूरत है, जो उसके पूरे प्राणों से निकले, | को। विस्फोट होगा। दस-पांच लोगों की हत्या भी हो सकती है। जिसमें वह चीत्कार ही बन जाए।
इस भाप को निकल जाने दें। इस भाप के निकलते ही आप नए हजारों मानसिक रोगी ठीक हुए हैं चीत्कार से। और एक चीत्कार | हो जाएंगे और तब ध्यान की तरफ प्रयोग शुरू हो सकता है। भी उनके न मालूम कितने रोगों से उन्हें मुक्त कर जाती है। लेकिन उस चीत्कार को पैदा करवाना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आप इतना दबाए हैं कि आप अगर रोते भी हैं, तो रोना भी आपका झूठा | | उन मित्र ने यह भी पूछा है कि बुद्ध ने, महावीर ने होता है। उसमें आपके पूरे प्राण सम्मिलित नहीं होते। आपका रोना | | और लाओत्से ने भी क्या ऐसी ही बात सिखाई है? भी बनावटी होता है। ऊपर-ऊपर रो लेते हैं। आंख से ही आंसू बह जाते हैं, हृदय से नहीं आते। लेकिन चीत्कार ऐसी चाहिए, जो आपकी नाभि से उठे और आपका पूरा शरीर उसमें समाविष्ट हो
| न ही; लाओत्से, और बुद्ध, और महावीर ने ऐसी बात
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नहीं सिखाई, क्योंकि वे आपको नहीं सिखा रहे थे; वे दूसरे तरह स्वाभाविक हो, तो सभ्यता का यह जाल खड़ा नहीं हो सकता। और के लोगों को सिखा रहे थे। आप मौजूद होते, तो उनको भी यही | सभ्यता का जाल खड़ा करना हो, तो आपके भीतर जितना उपद्रव सिखाना पड़ता।
है, उसके निकलने के सब द्वार बंद करने जरूरी हैं; सब द्वार बंद बुद्ध और महावीर जिन लोगों से बात कर रहे थे, वे ग्रामीण लोग करके उसे एक ही द्वार से निकलने देना जरूरी है। थे-सीधे, शांत, सरल, निर्दोष, स्वाभाविक। उन्होंने कुछ दमन इसलिए हमारी शिक्षा की सारी प्रक्रिया आपकी समस्त तरह की नहीं किया हुआ था। उन्होंने कुछ रोका नहीं था। जितना आदमी सभ्य | वासनाओं को इकट्ठा करके महत्वाकांक्षा में लगाने की प्रक्रिया है, होता है. उतना दमित होता है। सभ्यता दमन का एक प्रयोग है। सारी वासनाओं को इकट्ठा करके अहंकार की पूर्ति की दिशा में
फ्रायड ने तो यह स्वीकार किया है कि सभ्यता हो ही नहीं सकती, | दौड़ाने की प्रक्रिया है। अगर दमन न हो।
इसलिए फ्रायड ने यह भी कहा है कि अगर हम आदमी को सरल इसलिए आप देखें, एक मजे की घटना। आदिवासी सरल हैं, | बनाने में सफल हो जाएं, तो वह पुनः असभ्य हो जाएगा। अब यह लेकिन सभ्य नहीं हो पाते। दुनिया में छोटे-छोटे कबीले हैं जंगली बड़ी कठिनाई है। अगर सभ्यता चाहिए, तो आदमी जटिल होगा, . लोगों के। बड़े अच्छे लोग हैं, प्यारे लोग हैं, सरल हैं, आनंदित हैं, | | रुग्ण होगा, विक्षिप्त होगा। अगर शांति चाहिए, आनंद चाहिए, लेकिन सभ्य नहीं हो पाते। आप समझते हैं, क्या कारण है? स्वाभाविकता चाहिए, तो सभ्यता खो जाएगी। आदमी गरीब होगा,
आखिर जितनी भी अच्छी कौमें हैं, अच्छी जातियां हैं, जंगलों प्रसन्न होगा, समृद्ध नहीं हो सकता। में छिपी हुई, निर्दोष हैं, वे सभ्य क्यों नहीं हो पातीं? न्यूयार्क और तो फ्रायड ने तो यह कहा है कि आदमी एक असंभव बीमारी बंबई जैसे नगर वे क्यों नहीं बसा पातीं? आकाश में हवाई जहाज है। या तो यह गरीब होगा. सभ्यता के सख इसे नहीं मिल सकेंगे. क्यों नहीं उड़ा पातीं? चांद पर क्यों नहीं पहुंच पातीं? एटम और सभ्यता की समृद्धि इसे नहीं मिल सकेगी। और अगर यह समृद्ध हाइड्रोजन बम क्यों नहीं खोज पातीं? रेडियो और टेलीविजन क्यों होगा, तो यह पागल हो जाएगा, विक्षिप्त हो जाएगा, शांत नहीं नहीं बना पाती?
रह जाएगा। ये अच्छे लोग, शांत लोग नाचते तो हैं, लेकिन चांद पर नहीं | । बुद्ध और महावीर जिनको समझा रहे थे, वे बड़े सरल लोग थे। पहुंच पाते। गीत तो गाते हैं, लेकिन एटम बम नहीं बना पाते। खाने | उनका कुछ दबा हुआ नहीं था। इसलिए उन्हें ध्यान में सीधे ले जाया को भी मुश्किल से जुटा पाते हैं; कपड़ा भी न के बराबर, अर्धनग्न। जा सकता था। आप सीधे ध्यान में नहीं ले जाए जा सकते। आप आधे भूखे, लेकिन हैं निर्दोष। चोरी नहीं करते हैं, झूठ नहीं बोलते बहुत जटिल हैं। आप उलझन हैं एक। हैं। वचन दें, तो प्राण भी चले जाएं, तो भी पूरा करते हैं। लेकिन पहले तो आपकी उलझन को सुलझाना पड़े, और आपकी ये लोग सभ्य क्यों नहीं हो पाते? समृद्ध क्यों नहीं हो पाते? जटिलता कम करनी पड़े, और आपके रोगों से थोड़ा छुटकारा
तो फ्रायड का कहना है, और ठीक कहना है, कि ये लोग इतने करना पड़े। टेम्परेरी ही सही, चाहे अस्थायी ही हो, लेकिन थोड़ी आनंदित हैं और इतने सरल हैं कि इनके भीतर भाप इकट्ठी नहीं हो | | देर के लिए आपकी भाप को अलग कर देना जरूरी है, जो आपको पाती, जिससे सभ्यता का इंजन चलता है। इनका क्रोध इकट्ठा नहीं | उलझाए हुए है। तो आप ध्यान की तरफ मुड़ सकते हैं, अन्यथा हो पाता, घृणा इकट्ठी नहीं हो पाती, कामवासना इकट्ठी नहीं हो | आप नहीं मुड़ सकते। पाती। वही इकट्ठी हो जाए, तो उसी स्टीम, उसी भाप को फिर दूसरी | इसलिए दुनिया की सारी पुरानी पद्धतियां ध्यान की, आपके तरफ मोड़ा जा सकता है। तो फिर उससे ही मकान जमीन से उठना कारण व्यर्थ हो गई हैं। आज उनसे कोई काम नहीं हो रहा है। आपमें शुरू होता है, आकाश तक पहुंच जाता है। वह आपके दमित वेगों सौ में से कभी एकाध आदमी मुश्किल से होता है, जिस पर पुरानी की भाप है। नहीं तो झोपड़े से आप आकाश छूने वाले मकान तक पद्धति पुराने ही ढंग में काम कर पाए। निन्यानबे आदमियों के लिए नहीं जा सकते।
कोई पुरानी पद्धति काम नहीं कर पाती। यह सारी की सारी सभ्यता डाइवर्शन है आपकी शक्तियों का। ___ उसका कारण यह नहीं है कि पुरानी पद्धतियां गलत हैं। उसका इसलिए परिणाम साफ है कि कोई आदमी सरल हो, शांत हो, कुल कारण इतना है कि आदमी नया है और पद्धतियां जिन
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® आधुनिक मनुष्य की साधना @
आदमियों के लिए विकसित की गई थीं, वे पृथ्वी से खो गए हैं।। | यह बड़ी नई घटना है। और इस नई घटना को सोचकर ध्यान की आदमी दूसरा है। यह जो इलाज है, यह आपके लिए विकसित नहीं | सारी पद्धतियों में रेचन, कैथार्सिस का प्रयोग जोड़ना अनिवार्य हो हुआ था। आपने इस बीच नई बीमारियां इकट्ठी कर ली हैं। गया है। इसके पहले कि आप ध्यान में उतरें, आपका रेचन हो जाना
तीन हजार, चार हजार, पांच हजार साल पहले ध्यान के जो जरूरी है। आपकी धूल हट जानी जरूरी है। प्रयोग विकसित हुए थे, वे उस आदमी के लिए थे, जो मौजूद था। वह आदमी अब नहीं है। उस आदमी का जमीन पर कहीं कोई निशान नहीं रह गया है। अगर कहीं दूर जंगलों में थोड़े से लोग लेकिन वे मित्र समझदार हैं। और उन्होंने लिखा है मिल जाते हैं, तो हम उनको जल्दी से शिक्षित करके सभ्य बनाने कि आप हमें धोखा न दे पाएंगे। इस उछल-कूद से की पूरी कोशिश में लगे हैं। और हम सोचते हैं, हम बड़ी कृपा कर कोई भी लाभ होने वाला नहीं है। रहे हैं, उनकी सेवा कर रहे हैं।
अभी एक महिला मेरे पास आई थी। अपना जीवन लगा दिया है आदिवासियों को शिक्षित करने में। वह मेरे पास आई थी कि कुछ 5 क बात तो पक्की है कि उन्होंने उछल-कूद नहीं की। रास्ते बताइए कि हम आदिवासियों को कैसे सभ्य बनाएं! मैंने ५ और वही उछल-कूद जो बच गई है, उनके इस प्रश्न उससे पूछा कि पहले तू मुझे यह बता कि जो सभ्य हो गए हैं, ज्यादा में निकली है। वे कर लेते, तो हलके हो जाते। और से ज्यादा आदिवासी भी सभ्य होकर यही हो पाएंगे, और क्या | बंदर उनके पास निश्चित है और गहरा है। चैन नहीं पड़ी उनको रात होगा! तो तुझे क्या परेशानी हो रही है? और ये जो सभ्य लोग जाकर। वे बेचैन रहे होंगे रातभर; शायद सोए भी न हों; क्योंकि दिखाई पड़ रहे हैं, क्या इनसे तुझे तृप्ति है कि थोड़े आदिवासियों बड़े क्रोध से प्रश्न लिखा है। प्रश्न कम है, गाली-गलौज ज्यादा है। को इन्हीं जैसा बना देने से कोई दुनिया का गौरव और कोई इससे तो बेहतर था कि यहां निकाल ली होती, तो रात हलके सो सुख-शांति बढ़ जाएगी?
गए होते और प्रश्न में गाली-गलौज न होती। तो वह बहुत घबड़ा गई। उसने कहा, मैंने अपने जीवन के तीस और मैं आपको धोखा दे रहा हूं! क्या प्रयोजन हो सकता है? साल इसी में लगा दिए, लेकिन मुझे कभी किसी ने यह कहा नहीं। | और आपके नाचने से मुझे क्या लाभ होगा? और आप बंदर की यह मैं सोचती है, तब तो घबड़ाहट होती है कि शिक्षित होकर तरह उछल-कूद कर लेंगे, तो किसका हित सधने वाला है? ज्यादा से ज्यादा यही होगा। मगर जो शिक्षित हो गए हैं, उनको | लिखा है कि आप हमें धोखा न दे पाएंगे। क्या लाभ है!
पर तुम्हें धोखा देने की जरूरत भी क्या है? प्रयोजन भी क्या है? .. मगर उस महिला की भी अपनी मजबूरी है। अपनी कामवासना | पर वे यह कह रहे हैं कि हम धोखे में न आएंगे। वे असल में यह को दबा लिया है। विवाह नहीं किया है; किसी से कभी प्रेम नहीं कह रहे हैं कि हम धोखे में न आएंगे। वे यह कह रहे हैं कि हम जैसे किया; ब्रह्मचर्य को मानने वाली है। क्रोध नहीं करती है; अक्रोध हैं, हम ऐसे ही रहेंगे। हम किसी को बदलने का कोई मौका न देंगे। का व्रत लिया है। झूठ नहीं बोलती है; सच बोलने की कसम खाई मत दें। आपकी मर्जी है। आप अपने से प्रसन्न हों, तो यहां मझे है। इस तरह सब भांति अपने को रोक रखा है। अब वह जो भाप सनने आने की भी क्या जरूरत है। आप जैसे हैं भले हैं। आपको इकट्ठी हो गई है, उसका क्या करना? वह जो जीवन ऊर्जा इकट्ठी | यहां परेशान होने की भी क्या जरूरत है! आपको ध्यान में आने हो गई है, उसका क्या करना?
की भी क्या जरूरत है! लेकिन अगर आने की कोई जरूरत है, तो वह पागल की तरह आदिवासियों की सेवा में लगी है, बिना अगर चिकित्सक के पास आप जाते हैं, तो बीमार हैं, इस बात की इसकी फिक्र किए कि सेवा का परिणाम क्या होगा! तुम्हारी भाप तो खबर देते हैं। निकली जा रही है, लेकिन जिन पर निकल रही है, उनका परिणाम ___ मैं एक चिकित्सक हूं, इससे ज्यादा नहीं। अगर आप मेरे पास क्या है? क्या फायदा होगा?
| आते हैं, तो आप बीमार होने की खबर देते हैं। और आपकी बीमारी आदमी जैसा आज है, ऐसा आदमी जमीन पर कभी भी नहीं था। को अगर अलग करने के लिए मैं कोई दवा बताऊं, तो आप कहते
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हैं, आप हमें धोखा न दे पाओगे। तो आने की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने घर मजे में हैं। किसी दिन मुझे जरूरत होगी, मैं आपके घर आ जाऊंगा।
लेकिन आप मत आएं। आप अपने को बचाएं। आप जितना अपने को बचाएंगे, उतना ही लाभ होगा ! क्योंकि उतने ही आप परेशान होंगे, पीड़ित होंगे, पागल होंगे। और जिस दिन बात सीमा के बाहर चली जाए, उस दिन कहीं बिजली के शॉक आपको लगाने पड़ेंगे।
मैं कहता हूं, अभी कूद लें, ताकि बिजली के शॉक न लगाने पड़ें। और अभी कूद लें, ताकि पागलखाने में न बिठालना पड़े। अपने पागलपन को अपने ही हाथ से बाहर फेंक दें, ताकि किसी और को आपके पागलपन को फेंकने के लिए कोई उपाय और कोई सर्जरी न करनी पड़े। लेकिन आप नहीं सोचते ।
इसे हम कई तरह से समझने की कोशिश करें।
सिर्फ इंगलैंड एक मुल्क है, जहां के स्कूल के बच्चे पत्थर नहीं फेंक रहे हैं; सारी दुनिया में फेंके जा रहे हैं। सिर्फ इंगलैंड अकेला मुल्क है, जहां के बच्चे स्कूल में शिक्षकों को पत्थर नहीं मार रहे हैं, गाली नहीं दे रहे हैं, परेशान नहीं कर रहे हैं। तो सारी दुनिया के विचारशील लोग परेशान हैं कि इंगलैंड में यह क्यों नहीं हो रहा है ! सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर हो रहा है। तो एक बात खोजी गई और वह यह कि इंगलैंड के हर स्कूल में बच्चों को कम से कम दो घंटे खेल खेलना पड़ रहा है। वही कारण है, और कोई कारण नहीं है।
जो बच्चा दो घंटे तक हाकी की चोट मार रहा है, वह पत्थर फेंकने में उत्सुक नहीं रह जाता। उसने फेंकने का काम पूरा कर लिया। जो बच्चा फुटबाल को लात मार रहा है दो घंटे तक, उसकी इच्छा नहीं रह जाती अब किसी को लात मारने की। लात मारने की वासना निकल गई।
इंगलैंड के मनोवैज्ञानिकों का सुझाव है कि सारी दुनिया में अगर बच्चों के उपद्रव रोकने हैं, तो उनको खेलने की गहन प्रक्रियाएं देनी होंगी, जिनमें उनकी हिंसा निकल जाए। और बच्चों में बड़ी हिंसा है, क्योंकि बच्चों में बड़ी ताकत है।
हमारे स्कूल में बच्चा क्या कर रहा है? पांच-छः घंटे आप उसको बिठा रखते हैं। कोई बच्चा प्रकृति से पांच-छः घंटे एक क्लास के रूम में बैठने को पैदा नहीं हुआ है। प्रकृति ने कोई इंतजाम नहीं किया है, कोई बिल्ट-इन व्यवस्था नहीं है भीतर कि छः घंटे बच्चे को बिठाया जा सके। छः घंटे बच्चे को बिठाने का
मतलब है कि छः घंटे जो शक्ति प्रकट होनी चाहती थी, वह रुक रही है, वह रुक रही है।
जरा स्कूल से बच्चे जब छूटते हैं, उनको देखें। जैसे ही छुट्टी होती है, लगता है, वे नरक से छूटे। उछाल रहे हैं बस्ते को, फेंक रहे हैं किताबों को, और इतने आनंदित हो रहे हैं कि जैसे जीवन मिल गया! आपने जरूर उनके साथ कोई अपराध किया है पांच-छः घंटे नहीं तो इतनी खुशी स्कूल से छूटकर न मिलती।'
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और यह अपराध जारी रहेगा। यह बीस साल की उम्र, पच्चीस | साल की उम्र तक जारी रहेगा। धीरे-धीरे वे इसी दबी हुई व्यवस्था के लिए राजी हो जाएंगे। फिर उनका सारा जीवन गड़बड़ हो | जाएगा। क्योंकि ऊर्जा जो दब गई और प्रकट होने का जिसे मार्ग न . मिला, वह क्रोध बन जाती है, हिंसा बन जाती है, फिर नए-नए मार्गों से मार्ग खोजती है। फिर वे सब तरह के उपद्रव करेंगे। फिर
कोई छोटी भी बात का बहाना ले लेंगे और उनकी हिंसा बाहर होने लगेगी।
हम सब हिंसा से भरे हुए लोग हैं। लेकिन अगर समझपूर्वक समझा जाए और जीवन को बदलने की ठीक व्यवस्था का खयाल रखा जाए, तो हिंसा भी सृजनात्मक हो सकती है। हिंसा भी क्रिएटिव हो सकती है। और क्रोध से भी फूल खिल सकते हैं, अगर अकल हो ।
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यह जो मैं आपसे कह रहा हूं ध्यान का प्रयोग, यह आपकी हिंसा, आपके क्रोध, आपकी कामवासना, आपकी घृणा, इनको सृजनात्मक रूप से रूपांतरित करने का प्रयोग है। यह एक क्रिएटिव ट्रांसफार्मेशन है। क्योंकि आपका लक्ष्य ध्यान है।
अगर आप चीख भी रहे हैं, तो आपका लक्ष्य ध्यान है। आपके चीखने की ऊर्जा भी ध्यान की तरफ प्रवाहित हो रही है। अगर आप अपने क्रोध को भी फेंक रहे हैं, नाराजगी को भी फेंक रहे हैं, रोने और दुख को भी फेंक रहे हैं, तो भी आपका लक्ष्य ध्यान है। यह ऊर्जा ध्यान की तरफ प्रवाहित हो रही है।
अगर आप थोड़े दिन तैयार हो जाएं मुझसे धोखा खाने को... आप अपने से तो धोखा खा ही रहे हैं बहुत दिन से ! यह भी प्रयोग कर लेने जैसा है। तीन महीने में आपसे मैं कुछ छीन न लूंगा, क्योंकि आपके पास कुछ है भी नहीं, जो छीना जा सके।
मेरी दृष्टि में तो आपके पास ऐसी कोई मूल्यवान चीज नहीं है, जो छीनी जा सके। आपके पास हो, तो उसे सम्हालकर आप रखें, मेरे जैसे लोगों के पास न आएं, क्योंकि ऐसे लोग आपको बदलने
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की कोशिश में ही लगे हुए हैं।
है। उसके लिए जो आनंदपूर्ण होता है, वह करता है। जैसे-जैसे बड़ा तीन महीने इस प्रयोग को करके देखें। तीन दिन के बाद आपको | | होता है, खुद के आनंद की फिक्र छोड़ देता है, दूसरे क्या कहेंगे, फर्क दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे। और ऐसा नहीं कि इन एक मित्र | इसका चिंतन करने लगता है। बस, यही बच्चे की विकृति है। ने ही पत्र लिखा है। पांच-सात उन मित्रों के भी पत्र हैं, जिनको | आप फिर बच्चे हो गए और आपने सारी फिक्र छोड़ दी। आप कल, पहली दफे ही परिणाम दिखाई पड़ना शुरू हुआ। पुनः अकेले हो गए, समाज से मुक्त हो गए। जैसे ही आपने चिंता
वे बुद्धिमान लोग हैं। हालांकि इन मित्र ने लिखा है कि हम | छोड़ी कि कोई क्या कहेगा, यह जो हलकापन भीतर आया, इस बुद्धिमानों को आप धोखा न दे पाएंगे। मगर बुद्धिमान वह है, जो हलकेपन में आनंद की झलक बिलकुल आसान है। और बच्चे की प्रयोग करके कुछ कहता है। बुद्धिहीन वह है, जो बिना प्रयोग तरह जो फिर से हो जाए, वह परमात्मा को यहीं अनुभव करने लगेगा किए कुछ कहता है। बिना प्रयोग किए आपकी बात का कोई मूल्य अपने चारों ओर। लेकिन बुद्धिमान, अतिशय बुद्धिमान...।। ही नहीं है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन को एक लाटरी मिल गई थी। पांच-सात मित्रों ने लिखा है। एक मित्र ने लिखा है कि मुझे | | पांच लाख रुपये जीत लिए थे। सारा गांव चकित था। सारे गांव के इतनी शांति कभी अनुभव नहीं हुई। लेकिन बीस मिनट तक मुझसे | | लोग इकट्ठे हो गए। और लोग मुल्ला से पूछने लगे कि तुमने यही आवाजें निकलती रहीं, जिनका मुझे ही भरोसा नहीं कि मेरे भीतर नंबर कैसे चुना! गांव का.जो बुद्धिमान था, सबने कहा कि हमारी कहां से आईं! क्योंकि इस तरह की आवाजें मैंने कभी नहीं की हैं। तरफ से तुम ही पूछ लो। तो गांव का जो बुद्धिमान आदमी था उसने
आपने न की हों, लेकिन आप करना चाहते हैं। आपके भीतर वे सबकी तरफ से मुल्ला से पूछा कि पूरा गांव एक ही जिज्ञासा से दबी पड़ी हैं। और आप कहीं भी कर नहीं सकते थे। कहीं भी करते, भरा है कि तुमने यह उनहत्तर, सिक्सटी नाइन नंबर तुमने कैसे तो आप पागल समझे जाते। यहां आप कर रहे थे, तो आपको चुना? किस तरकीब से? खयाल था कि आप ध्यान में जा रहे हैं, तो आपने अपने को खुला | | तो मुल्ला ने कहा, अब तुम पूछते हो, तो मैं तुम्हें बता देता हूं। छोड़ दिया। इस खुले भाव से जो भीतर दबा था, वह निकल गया। | एक स्वप्न में मुझे यह नंबर प्रकट हुआ। एक स्वप्न मैंने देखा रात जैसे मवाद निकल गई हो घाव से। और भीतर घाव हलका और में कि मैं एक नाटक देख रहा हूं। और वहां मंच पर सात कतारें भरने के लिए तैयार हो गया हो। तो उन मित्र ने लिखा है कि ऐसी | नर्तकियों की खड़ी हैं और हर कतार में सात नर्तकियां हैं। वे सब शांति मुझे जीवन में कभी भी नहीं मिली।
नाच रही हैं। तो सात सतैयां उनहत्तर, ऐसा मैंने सोचा और सुबह एक मित्र ने लिखा है कि आश्चर्यचकित हूं कि इस भांति | | मैंने उनहत्तर नंबर की टिकट खरीद ली। नाचने-कूदने से आनंद का कैसे भाव आया!
पर, उस आदमी ने कहा, अरे, पागल. सात सतैयां उनहत्तर होते . जब आप नाचते-कूदते हैं हृदयपूर्वक-नकली नाचते-कूदते ही नहीं। सात सतैयां तो होते हैं उनचास, फोर्टी नाइन! हों तो कोई बहुत फर्क नहीं होगा, कवायद होगी, थोड़ा व्यायाम हो तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ओ.के., सो यू बी दि मैथमेटीशियन। जाएगा–लेकिन अगर हृदयपूर्वक नाचते हों, तो आप पुनः बच्चे तो तुम गणितज्ञ हो जाओ, लेकिन लाटरी मैंने जीती है। हो गए। आप फिर बचपन में लौट गए। आप फिर छोटे बच्चे की - वह जो नाच रहा है, कूद रहा है, वह आपसे कहेगा, सो यू बी दि तरह सरल हो गए। और बच्चे जिस आनंद की झलक को देख पाते | | वाइज मैन, यू बी दि मैथमेटीशियन। वह आपकी फिक्र नहीं करेगा। हैं, उसको आप भी देख पा रहे हैं।
न मीरा ने आपकी फिक्र की है, न चैतन्य ने आपकी फिक्र की है। वे संतों ने कहा है कि बुढ़ापे में जो पुनः बच्चों की भांति हो जाएं, नाच लिए हैं और वे आपसे कहते हैं, आप हो जाओ बुद्धिमान, हमें वे ही संत हैं। आप छोटे बच्चे की भांति हो गए। इतने लोगों के रहने दो पागल। क्योंकि हमें पागलपन में जो मिल रहा है, वह हमें सामने छोटा बच्चा भी शर्माएगा नाचने में। और आप नाचे-कूदे। नहीं दिखता कि तुम्हारी बुद्धिमानी में भी तुम्हें मिल रहा है। तो आपने भय छोड़ दिया। दूसरों के मंतव्य का भय छोड़ दिया। । और एक ही सबूत है बुद्धिमानी का, क्या मिल रहा है? दूसरे क्या कहेंगे, यह भय छोड़ दिया।
बुद्धिमान कौन है ? बुद्धिमानी का एक ही सबूत है कि क्या मिल रहा बच्चे में यह भय नहीं होता। दूसरे क्या कहेंगे, उसे प्रयोजन नहीं है जीवन में कितना आनंद, कितना रस, कितना सौंदर्य, कितना
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सत्य,
कितना परमात्मा और कोई सबूत बुद्धिमानी का नहीं है। मैं तो आपसे कहूंगा, जिनको बुद्धिमान रहना हो, मजे से बुद्धिमान रहें। लेकिन जिनको जीवन का रस जानना हो, उन्हें सस्ती बुद्धिमानी से बचना जरूरी है।
हां, मैं यह नहीं कहता कि आप मेरी बात मानकर नाचते-कूदते रहें । वह बुद्धिमानी नहीं है। मैं आपसे यह कहता हूं कि मैं जो कह रहा हूं, उसे करके देख लें; और अगर लगता हो कि कुछ है, तो आगे बढ़ जाएं। और लगता हो, कुछ नहीं है, तो छोड़ दें। कौन रोकता है आपको छोड़ने से ?
लेकिन छोड़ने के पहले परख लेना जरूरी है। और किसी भी चीज में कुछ नहीं है, ऐसी धारणा बनाने के पहले प्रवेश करना जरूरी है। अनुभव के पहले जो निर्णय लेता है, वह अंधा है।
एक मित्र ने पूछा है कि प्रभु को पा लेने बाद मान लिया कि मन को शांति मिल जाएगी और मान लिया कि आनंद भी मिल जाएगा, लेकिन फिर हम करेंगे क्या ?
दमी की भी चिंताएं बड़ी अदभुत हैं। वैसे यह चिंता
आ विचारणीय है। निश्चित ही, करने को आपके लिए
कुछ भी न बचेगा। मगर यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई बीमार पूछे कि मान लिया कि टी. बी. ठीक हो जाएगी, कैंसर ठीक हो जाएगा, सब बीमारियां चली जाएंगी, फिर हम करेंगे क्या? क्योंकि बीमारी के लिए कुछ काम में लगे हैं। दवा लाते हैं; चिकित्सक के पास जाते हैं; अस्पताल में भर्ती होते हैं। और सब ठीक हो गया, तो फिर ? फिर हम करेंगे क्या ?
लेकिन करना क्या जरूरी है? और करने से मिलता क्या है ? न करने की अवस्था ही तो परम लक्ष्य है। ऐसी अवस्था पा लेना, जहां करने को कुछ भी न बचे, वही तो परम तृप्ति है। तृप्ति का अर्थ ही है कि उसके बाद करने को कुछ भी न बचे । अतृप्ति में करना बाकी रहता है, क्योंकि अतृप्ति धक्का देती है कि करो, ताकि मैं तृप्त हो सकूं। लेकिन जब कोई सच में ही तृप्त हो जाता है, तो करने को कुछ भी नहीं बचता।
अगर आप डरते कि करने को कुछ भी न बचेगा और बिना
किए रहने वाले आप नहीं हैं, तो परमात्मा को मत खोजें। तब तो परमात्मा से बचें। और कहीं अगर मिल भी जाए अपने आप, भाग खड़े हों; लौटकर मत देखें।
लेकिन करने से क्या पा रहे हैं? और इसका यह अर्थ नहीं है कि जब बीमारियां नहीं रह जातीं, तो स्वास्थ्य कोई अभाव है। स्वास्थ्य की अपनी भाव - दशा है। लेकिन करने की प्रक्रिया बदल जाती है। बीमार आदमी कुछ पाने के लिए करता है। स्वस्थ आदमी कुछ है उसके भीतर, उस आनंद, अहोभाव में करता है।
एक बच्चे को कुछ भी पाना नहीं है, लेकिन नाच रहा है सूरज की रोशनी में। यह भी कृत्य है। लेकिन इस कृत्य में और एक नर्तक के जो कि स्टेज पर नाच रहा है, फर्क है। नर्तक नाच रहा है कि कुछ मिलेगा नाचने के बाद, पुरस्कार । बच्चा नाच रहा है, क्योंकि भीतर ऊर्जा है। ऊर्जा प्रकट होना चाहती है। बच्चा नाच रहा है आनंद से, कुछ पाने के लिए नहीं । नाचना अपने आप में पर्याप्त है।
जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा के निकट पहुंचने लगता है, फल की आकांक्षा से कृत्य समाप्त हो जाते हैं। लेकिन कृत्य समाप्त नहीं हो जाते। क्योंकि बुद्ध भी चलते दिखाई पड़ते हैं, परमात्मा को पाने के बाद | बोलते दिखाई पड़ते हैं, उठते हैं, बैठते हैं। बहुत कुछ करते दिखाई पड़ते हैं। हालांकि करने का बुखार चला गया। फीवरिश नहीं है अब कोई करना। जिस दिन बुद्ध मरते हैं, उस दिन वे छाती नहीं पीटते कि अब मैं मर जाऊंगा, तो मेरा किया हुआ अधूरा रह गया। कुछ अधूरा नहीं है। क्योंकि जो भी आनंद से हो | रहा था, वह हो रहा था। नहीं हो रहा, तो नहीं हो रहा।
कोई कृष्ण भी चुप नहीं बैठ जाते । कोई महावीर चुप नहीं बैठ जाते। कोई जीसस चुप नहीं बैठ जाते। परमात्मा को पा लेने के बाद भी कृत्य जारी रहता है। कृत्य आपका नहीं रह जाता; परमात्मा का हो जाता है। इसलिए दुख आपका नहीं रह जाता, चिंता आपकी नहीं रह जाती; जैसे सब उसने सम्हाल लिया।
इसे ऐसा समझें कि हम उस तरह के लोग हैं...। नदी में दो तरह | की नाव चल सकती है। एक नाव तो, जिसको हाथ की पतवार से चलाना पड़ता है। तो फिर पतवार हमें हाथ में पकड़कर श्रम उठाना पड़ता है। थकेंगे और लड़ेंगे नदी से ।
रामकृष्ण ने कहा है कि एक और तरह की नाव भी है, वह है पाल वाली नाव। उसमें पतवार नहीं चलानी पड़ती, हवा का रुख | देखकर नाव छोड़ देनी पड़ती है। फिर हवा उसे ले जाने लगती है। सांसारिक आदमी पतवार वाली नाव जैसा है। आध्यात्मिक
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व्यक्ति पाल वाली नाव जैसा है। उसने परमात्मा की हवाओं पर छोड़ दिया, अब वह ले जाता है। अब उसको पतवार नहीं चलानी पड़ती। हालांकि पतवार चलाने का जो पागलपन किसी को सवार हो, वह जरूर पूछेगा कि अगर पाल लगा लें नाव में और हवाएं ले जाने लगें, तो हम क्या करेंगे? क्योंकि हम तो यह खेते हैं पतवार से । यही तो हमारा जीवन है।
लेकिन उसे पता ही नहीं कि पाल वाली नाव का नाविक किस शांति से सो रहा है, या बांसुरी बजा रहा है, या खुले आकाश को देख रहा है, या सूरज के साथ एक मौन चर्चा में संलग्न है।
काम का बोझ हट गया, अब जीवन का आनंद सरल है। काम के बोझ से ही तो हम मरे जा रहे हैं, लेकिन मित्र पूछते हैं कि फिर हम क्या करेंगे?
एक और बात ध्यान रखनी जरूरी है कि जब परमात्मा मिलेगा, तो आप होंगे ही नहीं । आप उसके पहले ही विदा हो गए होंगे। इसलिए इस चिंता में मत पड़ें कि आप क्या करेंगे। जब तक आप हैं, तब तक तो वह मिलेगा भी नहीं ।
पर इससे भी उनके चित्त को राहत नहीं मिलती। इससे उनको और कष्ट होता है।
आगे उन्होंने पूछा है, और फिर आप कहते हैं कि आदमी मिट जाएगा, तब परमात्मा मिलेगा! तो जब हमें मिलना ही नहीं है वह, तो मेहनत क्यों करें ?
से कहते हैं नकारात्मक चिंतन की प्रक्रिया । अगर कोई
इ कहे ऐसी मिल जाएगी कि कुछ
को न बचेगा, तो तृप्ति की फिक्र नहीं होती। आपको यह लगता है, फिर करने को नहीं बचेगा, तो हम क्या करेंगे?
अगर कोई कहता है कि आप मिट जाओगे, तब परमात्मा मिलेगा, तो परमात्मा की भी फिक्र छूट गई। फिर तो हमें लगता है, जब हम ही मिट जाएंगे, तो फिर सार भी क्या है ऐसे परमात्मा से मिलने में !
लेकिन आपके होने में क्या सार है? और आपने होकर क्या पाया है? अभी भी, जो कभी भी आपके जीवन में कोई थोड़ी-बहुत आनंद की किरण मिली हो, वह भी तभी मिली है, जब आप मिट
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गए हैं। किसी के प्रेम में, किसी की मित्रता में, या सुबह खिलते हुए फूल के सौंदर्य को देखकर, या कभी रात आकाश तारों से भरा हो और उसमें लीन होकर अगर आपको कभी थोड़ी-सी झलक मिली है सुख की, तो वह भी इसीलिए मिली है कि आप उस क्षण में खो गए थे। आप नहीं थे।
जीवन में जो भी उतरता है महान, वह तभी उतरता है, जब आप नहीं होते। पर इसका यह मतलब नहीं है कि आप सच में ही नहीं होंगे।
अध्यात्म की भाषा समझने में कई बार तकलीफ होती है, क्योंकि वह भाषा शब्दों का बड़ा मौलिक प्रयोग करती है। जब कहा जाता है कि आप नहीं होंगे, तो उसका मतलब है कि केवल आपका जो | मिथ्या व्यक्तित्व है, जो फाल्स सेल्फ है, जो झूठा आवरण है, वह नहीं होगा। आपका जो गहरा केंद्र है, वह तो होगा ही, क्योंकि वह तो परमात्मा ही है।
यह ऐसा ही समझें। मैंने सुना है कि ऐसा हुआ, एक जर्मन | जासूस को इंगलैंड भेजा गया दूसरे महायुद्ध के पहले। पांच वर्ष पहले भेज दिया गया, ताकि पांच वर्ष में वह इंगलैंड में रम जाए। | ठीक अंग्रेजों जैसा जीने लगे, उठने लगे, बैठने लगे। अंग्रेजी ऐसी बोलने लगे जैसे कि मातृभाषा हो । जर्मन प्रभाव बिलकुल समाप्त हो जाए - आवाज में, ध्वनि में, आंखों में, चलने में। क्योंकि जर्मन और ढंग से चलता है, अंग्रेज और ढंग से चलता है। हर जाति का अपना व्यक्तित्व है।
तो पांच साल पहले उसे भेज दिया गया। और पांच साल उसने सब तरह के प्रयोग किए और अपने को बिलकुल स्वाभाविक अंग्रेज बना लिया। फिर युद्ध समाप्त हो गया और पूरे दस साल | इंगलैंड में रहने के बाद वह जर्मनी वापस लौटा।
पैदा जर्मन हुआ था, लेकिन दस साल में अभ्यास से अंग्रेज हो गया। जब घर लौटा, तो बड़ी अड़चन शुरू हुई। क्योंकि यह जो अंग्रेजियत उसने सीख ली थी, अब यह वापस अपने जर्मन परिवार में बाधा बनने लगी। घर के लोग उससे कहते कि नकली को छोड़ | क्यों नहीं देता ? है तो तू जर्मन । तो फिर से बोल अपनी मातृभाषा, जैसी तू बोलता था । और वैसे ही उठ, वैसे ही बैठ, वैसा ही व्यवहार कर, जैसा तू करता था। जैसा हमने तुझे बचपन में जाना, उसकी मां कहती। उसकी पत्नी कहती कि जैसा मैं तुम्हें जानती थी | जाने के पहले, ठीक वैसा ।
पर वह आदमी कहता कि जरा ठहरो । दस साल अभ्यास करके यह नकली भी स्वाभाविक हो गया है। इसे हटाऊंगा, मिटाऊंगा,
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पर थोड़ा वक्त लगेगा।
आप जिसको अपना व्यक्तित्व समझ रहे हैं, आप समझ रहे हैं जिसको मेरा होना, वह आपका होना नहीं है। वह केवल सिखावन है, आपका स्वभाव नहीं है।
आप एक घर में पैदा हुए। जब आप पैदा होते हैं, तो न तो आप हिंदू होते हैं, न मुसलमान होते हैं, न ईसाई होते हैं, न जैन होते हैं। आप सिर्फ होते हैं। अगर आपको मुसलमान घर में बड़ा किया जाए, आप मुसलमान हो जाएंगे। और अगर हिंदू घर में बड़ा किया जाए, हिंदू हो जाएंगे। हिंदू का अलग व्यक्तित्व है, मुसलमान का अलग व्यक्तित्व है। अगर जैन घर में बड़ा किया जाए, तो आप जैन हो जाएंगे। उसका अलग व्यक्तित्व है।
लेकिन जब आप पैदा हुए थे, तो आप बिना व्यक्तित्व के पैदा थे। हिंदू, मुसलमान, ईसाइयत, ऊपर से सीखी गई बातें हैं । हुए फिर आप हिंदी सीखें, मराठी सीखें, अंग्रेजी सीखें। जो भाषा आप सीखेंगे, वह आपकी भाषा हो जाएगी। लेकिन जब आप पैदा हुए थे, तो मौन पैदा हुए थे। आपकी कोई भाषा न थी।
फिर आप सीखते चले जाएंगे। और आप जब पचास साल के होंगे, तो आपके चारों तरफ एक ढांचा निर्मित हो जाएगा। भाषा का, व्यवहार का, व्यक्तित्व का, राष्ट्र का, जाति का, आचरण का, धर्म का एक ढांचा खड़ा हो जाएगा। और इसी ढांचे को आप समझेंगे, मैं हूं।
यही ढांचा टूटता है परमात्मा को पाने में, आप नहीं टूटते । वह जो आप लेकर पैदा हुए थे, वह नहीं टूटता। वह तो आप रहेंगे सदा । उसे तो छीनने का कोई उपाय नहीं है। उसे तो परमात्मा भी नहीं छीनेगा ।
सच तो यह है कि आप जिसको अभी समझ रहे हैं मेरा होना, इसी ने आपसे आपका असली व्यक्तित्व छीन लिया है। इस नकली को उतारने की प्रक्रिया है धर्म । जब यह उतर जाता है और जो स्वभाव है सहज, जो जन्म के पहले भी आपके पास था और आप मर जाएंगे तब भी आपके पास होगा, वह जब शुद्धतम आपके पास रह जाता है, तो आप परमात्मा से मिलते हैं।
जीसस ने कहा है, जो बचाएगा, वह खो देगा; और जो खोने को राजी है, वही बचाएगा, उसका ही बच रहेगा।
यह जो झूठा है, इसके खोने की बात है। आपके खोने की तो कोई बात ही नहीं है। लेकिन उस आपका आपको ही कोई पता नहीं है, जो नहीं खोएगा। इसलिए घबड़ाहट होती है। इससे डर लगता
| है। इससे भय होता है।
यह तो हालत हमारी ऐसी है कि जैसे एक अंधा आदमी आए और वह कहे कि मैं अपनी आंखें तो ठीक करवा लूं, लेकिन तब जिस लकड़ी को मैं टेककर चलता हूं, उसका क्या होगा? और मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, तो चिकित्सक कहता है कि यह टेकने वाली | लकड़ी तुझे छोड़ देनी पड़ेगी। तो इसको मैं कैसे छोड़ सकता हूं! यही लकड़ी तो मेरा प्राण है। इसी के सहारे तो मैं चलता हूं, जीता हूं, उठता हूं, रास्ता खोजता हूं!
तो उस अंधे आदमी को पता नहीं कि जब आंखें ही मिल जाएं, तो लकड़ी को टेकने की जरूरत ही नहीं रह जाती, और न लकड़ी से खोजने की जरूरत रह जाती है।
जिस दिन आपको परमात्मा मिल जाए, उस दिन आपके अंधेपन जो व्यक्तित्व काम देता था, उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। घबड़ाएं मत। आपसे वही छीना जा सकता है, जो आपका नहीं है। | जो आपका है, उसे छीना ही नहीं जा सकता।
इस सूत्र को, इस महासूत्र को स्मरण रखें सदा, कि आप वही खो सकते हैं, जो आपका है ही नहीं। आपका है, उसको छीनने का कोई उपाय नहीं है । स्वभाव का यही अर्थ होता है, जो आपसे छीना न जा सके। जो छीना जा सकता है, उसको आप चाहे पकड़े भी रहें, तो भी वह आपका नहीं है।
एक आदमी धन को पकड़े हुए है; सोचता है, धन छिन जाएगा। लेकिन धन छिनेगा ही, क्योंकि वह आप हैं। ज्ञानी इसीलिए शरीर को भी नहीं पकड़ते, क्योंकि वे कहते हैं, मौत उसे छीन लेगी। ज्ञानी मन को भी नहीं पकड़ते, क्योंकि ज्ञानी कहते हैं, ध्यान उसे भी छीन लेगा । ज्ञानी तो केवल उसको ही पकड़ते हैं, जो छीना नहीं जा | सकता। न ध्यान छीन सकता है, न मृत्यु छीन सकती है, न समाधि छीन सकती है। वह कौन है आपके भीतर, जो कभी भी छीना नहीं जा सकता ? वही आप हैं।
इसलिए भयभीत न हों। जो व्यर्थ है, ऊपर-ऊपर है, उसे छोड़ने की तैयारी रखें, ताकि भीतर जो है उसे पाया जा सके।
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एक प्रश्न और। एक मित्र बार- बार पूछते हैं- आखिरी दिन के लिए उनका सवाल मैं टालता रहा - - पूछते हैं बार-बार कि एक मित्र, श्री सूर्योदय गौड़, आपके खिलाफ पर्चे छापते हैं। आप जवाब
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ॐ आधुनिक मनुष्य की साधना
क्यों नहीं देते? और उनके खिलाफ कुछ किया क्यों कर दूं। वह थोड़ा और जटिल है। उन्होंने मुझे आकर नहीं जाता?
पूछा कि श्रीमती निर्मला देवी श्रीवास्तव के पास गया था, तो वह आपके खिलाफ बड़ी बातें कहती हैं। और
वे तो आपके पास आती थीं, आपकी शिष्या थीं और 1 हली बात, कि वे मेरा ही काम कर रहे हैं, इसलिए | आपके खिलाफ इतनी बातें कहती हैं! 4 उनके खिलाफ कुछ किया नहीं जाना चाहिए। काम के
बड़े अनूठे ढंग हैं। और कई दफा मैं सोचता था कि | तो मैं अब तक इस संबंध में चुप रहा हूं, क्योंकि वह बड़ा काम अगर कोई मेरा विरोध न करता हो, तो अपने ही किसी मित्र को | कर रही हैं। वह दूसरे ढंग का काम है। कहूं कि तू विरोध कर। क्योंकि बहुत-से लोगों को मैं अपने पास | जैसा मैंने कहा कि कुछ ऐसे लोग हैं, जो मेरे विरोध के कारण नहीं ला सकता हूं। बहुत-से लोग मेरे विरोध के जरिए ही मेरे पास | | मेरे पास आते हैं। कुछ ऐसे गलत लोग मेरे पास आ जाते हैं, आ सकते हैं।
जिनको दूर हटाने की भी जरूरत पड़ती है। कुछ अपात्र भी मेरे पास कुछ लोग हैं, जो विरोध से ही पास आ सकते हैं। विरोध के | आ जाते हैं, जो समय खराब करेंगे और बहुत काम के इस जन्म में कारण ही उनको उत्सुकता पैदा होती है। कोई विरोध करता है, तो ही | | तो नहीं हो सकते। उनको भी दूर करने की जरूरत पड़ती है। उनको उनको लगता है कि जाकर देखें, मामला क्या है! कई दफा वे देखने | | मैं श्रीमती निर्मला देवी श्रीवास्तव के पास भेजता हूं। वह मुझे उनसे आते हैं और रुक जाते हैं और उनका जीवन भी बदल जाता है। | | छुटकारा दिलाती रहती हैं। उनको पता नहीं है कि वह मेरा काम कर
तो बहुत बार मैं सोचता था, किसी मित्र को कहूं कि मेरे खिलाफ | | रही हैं। और अगर उनको यह पता चल जाएगा जो मैं कह रहा हूं, कुछ लिखो, कुछ चर्चा चलाओ, ताकि वे जो सीधे-सीधे नहीं तो वह और जोर से मेरे विरोध में लग जाएंगी। वह मेरा काम है। आते, जिनकी आंखें तिरछी हैं, वे विरोध के जरिए आ जाएं। फिर उन्हें लग जाना चाहिए। अचानक सूर्योदय गौड़ ने वह काम करना शुरू कर दिया, तो मैं | | मेरी प्रक्रिया में दो बातें हैं। जो भी लोग जीवन-क्रांति के लिए भीतर बड़ा प्रसन्न हुआ। मैंने कहा कि नाहक मैं किसी को कहता, | उत्सुक हैं, मैं चाहता हूं कि मेरे पास आएं, किसी भी बहाने, किसी तो मेरा मित्र कोई कितनी ही कोशिश भी करता, तो भी विरोध में | भी कारण से। लेकिन जो लोग मेरे पास आ जाते हैं, उनमें अनेक वह जान न रहती। बेजान रहता, भीतर से झूठा-झूठा रहता। अब लोग गलत कारणों से मेरे पास आ जाते हैं। उनको भी पता नहीं है। ठीक आदमी अपने आप हाजिर हो गया है। यह जगत कुछ ऐसा है और फिर वे मेरा समय भी व्यर्थ करते हैं, मेरी शक्ति भी खराब कि यहां जो भी चाहो, वह हाजिर हो जाता है। चाहने की देर है कि करते हैं। उनको मैं अपने से दूर भी करना चाहता हूं। उनको मैं लोग मिल जाते हैं। .
अनेक तरह से दूर करता हूं। कभी किसी तरकीब से, कभी किसी अब उन पर नाराज होने का कोई कारण नहीं। मैं प्रसन्न हूं। तरकीब से उनको दूर कर देता हूं। दिनभर मेहनत करते हैं। गरीब आदमी मालूम पड़ते हैं। अपना मेरे पास जैनियों का एक जत्था इकट्ठा हो गया था। तो उससे मैं धंधा, काम छोड़कर इसी काम में लग गए हैं। उनका जीवन मेरे | परेशान हो गया। परेशान इसलिए हो गया कि उन्हें कुछ भी करना लिए ही समर्पित हो गया है। तो इसलिए उनका कोई विरोध नहीं | | नहीं है, सिर्फ बातें करनी हैं। तो मैंने कोई एक वक्तव्य दे दिया, करता हूं। और उनके विरोध से कुछ हानि नहीं होती है। उससे वे लोग छंटकर गिर गए।
सत्य की कोई हानि नहीं है। विरोध से और निखरता है, साफ - फिर मेरे पास गांधीवादियों का एक जत्था इकट्ठा हो गया। उनको होता है। और अगर सत्य को भय हो विरोध का, तो जानना चाहिए| | सेवा करनी है, साधना नहीं करनी है। मुझे सेवा में उत्सुकता नहीं कि वह सत्य ही नहीं है।
है। क्योंकि मैं मानता हूं कि साधना में जो जाए, वही सेवक हो
| सकता है। और जो साधना में न जाए, उसकी सेवा सब झूठी है एक मित्र और दो-तीन दिन पहले आए थे। उनका और व्यर्थ है। तो मुझे गांधी की आलोचना कर देनी पड़ी। आलोचना भी प्रश्न ऐसा ही है। इसी संदर्भ में उनकी भी बात करते से ही वे भाग गए। जमीन साफ कर दी; मेरे पास नई जगह बन
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@ गीता दर्शन भाग-60
गई; स्पेस पैदा हो गई। उसमें मैं नए लोगों को बुला पाया। | संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर बुद्धि
फिर मेरे बोलने का जो ढंग है, उससे बड़ी गड़बड़ हो जाती है। | वाला भक्तिमान पुरुष मेरे को प्रिय है। और जो मेरे परायण हुए मेरे बोलने के ढंग से लोगों को ऐसा लगता है कि मैं तार्किक हूं। | श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव बोलने के ढंग से ऐसा लगता है कि मैं बुद्धिवादी हूं, रेशनलिस्ट हूं। से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं। इसलिए कुछ तार्किक और बुद्धिवादी मेरे पास आ जाते हैं। निंदा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है...। ___ मेरे बोलने का ढंग तार्किक है; लेकिन जो मैं कहना चाह रहा हूं, निंदा-स्तुति को समान कब समझा जा सकता है? निंदा दुख वह तर्क के बिलकुल बाहर है। मेरी पहुंच का ढंग बुद्धिवादी है, | क्यों देती है? स्तुति सुख क्यों देती है? जब कोई आपकी प्रशंसा लेकिन मुझसे ज्यादा अबुद्धिवादी खोजना मुश्किल है।
करता है, तो भीतर फूल क्यों खिल जाते हैं? और जब कोई निंदा तो उन लोगों को हटाने की जरूरत पड़ी, क्योंकि ये सिर्फ समय करता है, तो भीतर सब उदास, मृत्यु जैसा क्यों हो जाता है? कारण खराब करते हैं, चर्चा, चर्चा, चर्चा! इन्हें करना कुछ भी नहीं खोजना जरूरी है, तो ही हम निंदा-स्तुति के पार हो सकें। है-शब्द, शब्द, शब्द। तो मैंने कहा, चलो, कीर्तन शुरू कर दो। जब कोई स्तुति करता है, तो आपके अहंकार को तृप्ति होती है। कीर्तन होते से ही वे भाग गए। वे अब मेरे पास नहीं आते। | जब कोई स्तुति करता है, तो असल में वह यह कह रहा है कि जैसा
ऐसा मुझे गलत लोगों से छुटकारा भी पाना पड़ता है, ठीक लोगों | मैं अपने को समझता था, वैसा ही यह आदमी भी समझता है। आप को बुलाना भी पड़ता है।
समझते हैं कि आप बहुत सुंदर हैं। और जब कोई कह देता है कि ___एक बात तय है कि सत्य जब भी कहीं हो, तो सभी चीजें उसका | धन्य हैं; कि आपके दर्शन से हृदय प्रफुल्लित हुआ; ऐसा सौंदर्य सहयोग करती हैं। आप कुछ भी करें-विरोध करें, इनकार करें, | कभी देखा नहीं! तो आप प्रसन्न होते हैं। क्यों? क्योंकि दर्पण के खिलाफ बोलें-आप कुछ भी करें, आपका हर करना सत्य के पक्ष सामने खड़े होकर यही आपने अपने से कई बार कहा है। यह पहली में ही पड़ता है, तभी वह सत्य है। सत्य हर चीज का उपयोग कर दफा कोई दूसरा भी आपसे कह रहा है। लेता है, विपरीत का भी, विरोधी का भी।
और अपनी बात का भरोसा आपको नहीं होता। अपनी बात का इसलिए इन सब बातों में पड़ने की, इस सबमें समय खराब आपको भरोसा आपको क्या होगा, अपने पर ही भरोसा नहीं है। करवाने की, इन सब का उत्तर देने की कोई भी जरूरत नहीं है। चीजें जब कोई दूसरा कहता है, तो भरोसा होता है कि ठीक है, बात सच अपने आप रास्ता बनाती चली जाती हैं।
है। वह जो दर्पण के सामने मुझे लगता था, बिलकुल सही है। यह एक ही बात का ध्यान होना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, अगर | आदमी भी कह रहा है। और यह क्यों कहेगा! अहंकार को तृप्ति वह सत्य है, तो सत्य सभी का उपयोग कर लेगा। और अंतिम क्षण | | मिलती है। और आपकी सेल्फ इमेज, वह जो प्रतिमा है अपने मन में, मैंने आपको जो लाभ पहुंचाया, वह अकेला मेरा ही लाभ नहीं में, वह परिपुष्ट होती है। होगा, उसमें उन विरोधियों का भी उतना ही हाथ होगा, जिन्होंने जब कोई निंदा करता है और कह देता है कि क्या शक्ल पाई है! विरोध किया। और अंतिम क्षण में सभी चीजें संयुक्त हो जाती हैं, | भगवान कहीं और देख रहा था, जब आपको बनाया? कि सामान अगर सत्य है तो। लक्ष्य पर पहुंचकर सभी चीजें सत्य हो जाती हैं। चुक गया था? कि देखकर ही विरक्ति पैदा होती है, संसार से तब आप मुझे ही धन्यवाद नहीं देंगे, सूर्योदय गौड़ को भी देंगे, | भागने का मन होता है! तब आपको चोट पड़ती है। क्यों चोट पड़ती निर्मला देवी श्रीवास्तव को भी देंगे।
| है? अहंकार को ठेस लगती है। जिस दिन आपको सत्य का अनुभव होगा. उस दिन आप दोनों ऐसा कौन है, जो अपने को सुंदर नहीं मानता? करूप से करूप को धन्यवाद देंगे। क्योंकि उन्होंने भी काम किया, उन्होंने भी व्यक्ति भी अपने को सुंदर मानता है। लेकिन अपनी मान्यता के मेहनत ली।
लिए भी दूसरों का सहारा चाहिए। क्योंकि हमारी अपनी कोई अब हम सूत्र को लें।
आत्म-स्थिति तो नहीं है। सुंदर भी हम मानते हैं दूसरों के सहारे, तथा जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है और अगर दूसरे कुरूप कहने लगे, तो फिर सुंदर मानना मुश्किल एवं जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही हो जाता है।
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इसलिए चोट लगती है। वे ईंटें खिसका रहे हैं। अगर हर कोई के हाथों से निर्मित हुआ है। अहंकार समाज का दान है। आत्मा कहने लगे कि तम करूप हो, तो फिर हमारी प्रतिमा डगमगाने परमात्मा की देन है। लगती है और आत्म-विश्वास हिलने लगता है। और फिर हम आत्मा को समाज नहीं छीन सकता। लेकिन अहंकार को समाज दर्पण के सामने भी खड़े होकर हिम्मत से नहीं कह सकते कि नहीं, छीन सकता है। जिसको आज कहता है, तुम महापुरुष हो; कल मैं सुंदर हूं। क्योंकि यह भी तो दूसरों के मंतव्य पर निर्भर है। तो पापी कह सकता है। और ऐसे महापुरुष हैं, जो कल पूजे जा रहे थे जब दूसरे कुछ कहने लगते हैं, जो विपरीत पड़ता है, तो आपको | और दूसरे दिन उन पर जूते फेंके जा रहे हैं। वही समाज, वही लोग! अपनी प्रतिमा डगमगाती मालूम पड़ती है। घबड़ाहट पैदा होती है, जरूरी नहीं है कि समाज पहले सही था, या अब सही है। बात इतनी बेचैनी पैदा होती है।
| है केवल कि समाज दोनों काम कर सकता है। प्रशंसा में अच्छा लगता है, क्योंकि आपके अहंकार को इसलिए जो आदमी अहंकार के साथ जीता है, आत्मा के साथ फुसलाया जा रहा है। इसलिए प्रशंसा वही करता है, जो आपसे नहीं, वह हमेशा चिंतित रहेगा, कौन क्या कह रहा है! निंदा कौन कुछ पाना चाहता है। वह पाने का रूप कुछ भी हो। प्रशंसा वही कर रहा है? स्तुति कौन कर रहा है? क्योंकि उसका सारा व्यक्तित्व करता है, जो आपसे कुछ खींचना चाहता है। क्योंकि प्रशंसा | इसी पर निर्भर है, दूसरों पर। दूसरे क्या कह रहे हैं? पाकर आप बेहोश हो जाते हैं अहंकार में और आपसे कुछ __लेकिन जो व्यक्ति भक्त है, साधक है, प्रभु की खोज में लगा करवाया जा सकता है।
है, आत्मा की तरफ चल रहा है, उसके तो पहले कदम पर ही वह मूढ़ से मूढ़ आदमी को बुद्धिमान कहो, तो वह भी राजी हो जाता | | इसकी फिक्र छोड़ देता है कि दूसरे क्या कह रहे हैं। वह इसकी फिक्र है! अपनी प्रशंसा को इनकार करना बड़ा मुश्किल है। और जब करता है कि मैं क्या हूं, वह इसकी फिक्र नहीं करता कि लोग क्या अपनी प्रशंसा को इनकार करना बड़ा मुश्किल है, तो अपनी निंदा |
कह रहे हैं। को स्वीकार करना बड़ा मुश्किल है।
लोग कुछ भी कह रहे हों, मैं क्या हूं, यह उसकी चिंता है। यह तो जरूरी नहीं है कि जो निंदक कह रहा हो, वह गलत ही हो; उसकी खोज है कि मैं खोज लूं, आविष्कृत कर लूं कि मैं कौन हूं। वह सही भी हो सकता है। और सच तो यह है कि जितना सही होता दूसरों के कहने से क्या होगा? क्या मूल्य है दूसरों के कहने का? है, उतना ज्यादा खलता है। अगर वह बिलकुल गलत हो, तो ज्यादा | कृष्ण कहते हैं, निंदा-स्तुति को समान जो समझता है...। परेशानी नहीं होती। अगर कोई आदमी, आपकी आंखें हैं और वह | | वही समान समझ सकता है, जो दूसरों के मंतव्य से अपने को कहता है अंधा है, तो आप ज्यादा परेशान नहीं होते। क्योंकि कौन दूर हटा रहा है। और जो इस बात की खोज में लगा है कि मैं कौन सुनेगा इसकी! आंखें आपके पास हैं। लेकिन आप अंधे हैं, और हूं। लोगों की धारणा नहीं, मेरा अस्तित्व क्या है। वह सम हो वह आदमी कहता है अंधा है, तो फिर ज्यादा चोट पड़ती है। क्योंकि | जाएगा। वह अपने आप सम हो जाएगा। उसके लिए लोगों की आपको भी लगता तो है कि वह ठीक ही कहता है। और मन भी | स्तुति भी व्यर्थ है; उसके लिए उनकी निंदा भी व्यर्थ है। वह तो नहीं होता मानने का कि यह बात ठीक है। .
| बल्कि चकित होगा कि लोग मुझमें इतने क्यों उत्सुक हैं! इतनी तो जितने सच्चाई के करीब होती है निंदा, उतना दुख देती है। | उत्सुकता वे अपने में लें, तो उनके जीवन में कुछ घटित हो जाए, और स्तुति जितनी झूठ के करीब होती है, उतना सुख देती है। जितने | जितनी उत्सुकता वे मुझमें ले रहे हैं! असत्य के करीब होती है स्तुति, उतना सुख देती है। और निंदा ___ आपको खयाल है कि आप दूसरों में कितनी उत्सुकता लेते हैं! जितने सत्य के करीब होती है, उतना दुख देती है। पर इन सब दोनों इतनी उत्सुकता काश आपने अपने में ली होती, तो आज आप कहीं का केंद्र क्या है?
होते। आप कुछ होते। आपके जीवन में कोई नया द्वार खल गया इन दोनों का केंद्र यह है कि दूसरे क्या कहते हैं, वह मूल्यवान | | होता। इतनी ही उत्सुकता से तो आप प्रभु को पा सकते थे। है। क्यों मूल्यवान है ? क्योंकि आपका जो अहंकार है, वह दूसरों लेकिन आपकी उत्सुकता दूसरों में लगी है! सुबह उठकर गीता के हाथ से निर्मित हुआ है, आपकी आत्मा नहीं। आपकी आत्मा तो | पर पहले ध्यान नहीं जाता; पहला ध्यान अखबार पर जाता है। परमात्मा के हाथ से निर्मित हुई है। लेकिन आपका अहंकार दूसरों दूसरों की फिक्र है। वे क्या कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं! पड़ोसी
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गीता दर्शन भाग-6
आपके बाबत क्या कह रहे हैं!
कौन क्या कह रहा है आपके बाबत, इसको इकट्ठा करके क्या होगा ? मरते वक्त सब हिसाब भी कर लिया और किताब में सब लिख भी डाला कि कौन ने क्या कहा, फिर क्या होगा ? मौत आपको जांचेगी, आपके हिसाब-किताब को नहीं ।
सुना है मैंने, एक यहूदी फकीर हिलेल मर रहा था। किसी ने हिलेल से कहा कि हिलेल, क्या सोच हो मरते क्षण में ? तो हिलेल ने एक बड़ी कीमती बात कही। क्योंकि यहूदी मूसा को मानते हैं; हिलेल ने कहा कि जिंदगीभर मैं मूसा की फिक्र करता रहा कि मूसा ने क्या कहा है, क्या समझाया है; उसके वचन का क्या
है और मैं मूसा जैसा कैसे हो जाऊं - यही मेरी चिंता, यही मेरी जीवनभर की धारा थी। मरते वक्त मुझे यह खयाल आ रहा है कि हिलेल, परमात्मा मुझसे यह नहीं पूछेगा कि तू मूसा क्यों नहीं हुआ। परमात्मा मुझसे पूछेगा, तू हिलेल होने से क्यों चूक गया? मूसा के संबंध में मुझसे पूछेगा ही नहीं वह । वह पूछेगा मेरे संबंध में, और मैं नाहक मूसा के संबंध में परेशान रहा।
और परमात्मा यह भी नहीं पूछेगा कि लोग मेरे संबंध में क्या मानते थे। परमात्मा तो सीधा ही देख लेगा मेरी आत्मा में। वह कोई सर्टिफिकेट तो नहीं मांगेगा, कि प्रमाणपत्र लाए हो चरित्र के ? अच्छा आदमी मानते थे लोग कि बुरा आदमी मानते थे तुम्हें? कुछ प्रमाणपत्र ले आए हो जमीन से, वह नहीं पूछेगा। क्योंकि प्रमाणपत्र तो अंधों के काम आते हैं। उसकी आंखें तो मेरी आत्मा में सीधा प्रवेश कर जाएंगी, और वे जान ही लेंगी कि मैं कौन हूं।
तो मैंने नाहक ही अपना जीवन गंवाया। अब जितने भी थोड़े क्षण मेरे पास बचे हैं, अब तुम हट जाओ यहां से, हिलेल ने लोगों से कहा, तुम जिंदगीभर मुझे घेरे रहे। हट जाओ। और मैं शांत होकर उसको देख लेना चाहता हूं, जो मैं हूं; और मौन होकर उसमें उतर जाना चाहता हूं, जो मेरा अस्तित्व है, जो मेरा व्यक्तित्व है। परमात्मा के सामने जब मैं खड़ा होऊं और वह मुझे सीधा देखे, तो मैं खड़ा हो सकूं शांति से। तुम हट जाओ, हिलेल ने कहा, मेरे पास
भीड़ हट जाए; अब मुझे अकेला हो जाने दो। जिंदगीभर मैं भीड़ से घिरा रहा, दूसरों से ।
निंदा और स्तुति से वह व्यक्ति मुक्त हो सकेगा, जो दूसरों की चिंता छोड़ देता है। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरों के प्रति लापरवाह हो जाता है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि स्वार्थी हो जाता है। सच तो यह है कि जो दूसरों के विचार की बहुत चिंता
करता है, वह दूसरों की चिंता जरा भी नहीं करता। वह तो उनके विचार की चिंता करता है कि वे मेरे बाबत क्या कह रहे हैं। वह अहंकारी है। उसका दूसरों से कोई लेना-देना नहीं। वह दूसरों के विचार की अपने अहंकार के लिए फिक्र करता है।
लेकिन जो आदमी दूसरों की चिंता छोड़ देता है, उसका अहंकार गिर जाता है । अहंकार दूसरों के सहारे के बिना खड़ा नहीं हो सकता; उसके लिए दूसरों का सहारा चाहिए। वह एक झूठ है, जो दूसरों के सहारे खड़ा होता है । सब झूठ दूसरों के सहारे खड़े होते हैं; सत्य अपने सहारे खड़े होते हैं।
इसलिए धर्म अकेले भी हो सकता है, राजनीति अकेले नहीं हो सकती। राजनीति बड़ा से बड़ा झूठ है। उसको दूसरों के सहारे की जरूरत है। दूसरे का वोट, दूसरे का मत, दूसरे पर सारा खेल खड़ा है। राजनीति का बड़ा से बड़ा नेता भी दूसरों के सहारे खड़ा है। दूसरों की अंगुलियां उसको बड़ा किए हुए हैं। वे हाथ हटा लें, वह नीचे जमीन पर गिर जाएगा और उठने का उसे कोई मौका नहीं रहेगा।
लेकिन धार्मिक व्यक्तित्व किसी के सहारे खड़ा नहीं होता, अपने ही कारण खड़ा होता है। उसे कोई गिरा नहीं सकता, क्योंकि किसी | ने उसे सम्हाला ही नहीं है।
कृष्ण कहते हैं कि जो निंदा स्तुति को समान समझने लगा है, मननशील है एवं जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट है। और परमात्मा जैसा रखे, वैसा ही होने को राजी है। और परमात्मा जैसा रखे, उसमें भी विधायक खोज लेता है। मननशील का अर्थ है, विधायक को खोज लेने वाला ।
हम नकारात्मक को खोज लेने वाले लोग हैं। हमें कांटा दिखाई पड़ता है, फूल दिखाई नहीं पड़ता। अगर एक आदमी के बाबत मैं कहूं कि वह गजब का कलाकार है, उसकी बांसुरी जैसी बांसुरी कोई नहीं बजा सकता। तो आप फौरन कहेंगे, छोड़िए भी, वह क्या बांसुरी बजाएगा ! चरित्रहीन है।
यह नकारात्मक चिंतन की प्रक्रिया है। विधायक चिंतन की प्रक्रिया होगी कि मैं आपसे कहूं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, उससे बचना। और आप कहें कि क्या वह चरित्रहीन कैसे हो सकता है? उसकी बांसुरी में ऐसे प्राण हैं; वह बांसुरी इतनी अदभुत बजाता है; चरित्रहीन होगा कैसे? नहीं; मैं नहीं मान सकता हूं कि वह चरित्रहीन है।
तो आप देख रहे हैं उसको, जो फूल है । और जो फूलों को | देखता है, उसे और ज्यादा फूल दिखाई पड़ने लगते हैं। और जो
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o आधुनिक मनुष्य की साधना -
कांटों को देखता है, उसे और ज्यादा कांटे दिखाई पड़ने लगते हैं। | लाया था। जैसे आप किसी के घर कोई मर जाता है, सब तैयार
जो आप खोजते हैं, वह आपको मिल जाता है। हर आदमी की। करके जाते हैं कि क्या कहेंगे। बड़ा मुश्किल का मामला होता है! योग्यता के अनुकूल उसे सब कुछ मिल जाता है। जो आदमी | | किसी के घर अगर कोई मर जाए, तो क्या कहना, कैसे कहना, बड़ा नकारात्मक को खोज रहा है, चारों तरफ उसके नरक खड़ा हो जाता | परेशानी का काम होता है। है। सब जगह उसे गलत दिखाई पड़ने लगता है।
सम्राट बिलकुल तैयार करके लाया था कि ये-ये बातें कहूंगा; कृष्ण कहते हैं, जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने | | इस तरह संवेदना प्रकट करूंगा। आंख में आंसू भर लूंगा। संत में सदा संतुष्ट है। कैसा भी परमात्मा रखे, वह उसमें भी...।। | को सांत्वना देकर लौट आऊंगा। लेकिन वह संत बंड़ा उलटा
सुना है मैंने कि बायजीद एक कोठरी में सोता था। उसमें बड़ी | निकला। वह खंजड़ी बजा रहा था और गीत गा रहा था। तो अब चींटियां थीं। सूफी फकीर हआ बायजीद। तो उसके शिष्यों ने कहा शोक-संवेदना प्रकट करने का उपाय न रहा। लेकिन राजा को कि तुम परमात्मा के इतने प्यारे हो और वह इतना भी नहीं कर | लगा बुरा। क्योंकि वह जिस काम से आया था, वह असफल सकता कि इन चींटियों को हटा ले। और तुम्हें हमेशा काटती हैं और | हुआ। कहने यही आया था कि दुखी मत होओ, ऐसा तो होता ही परेशान करती हैं और तुम उघाड़े यहां पड़े रहते हो!
रहता है। लेकिन इस आदमी से क्या कहो! यह दुखी हो ही नहीं तो बायजीद ने कहा कि तुम्हें मेरे परमात्मा का कुछ पता नहीं। रहा है, बल्कि प्रसन्न हो रहा है! वह चींटियों से मुझे कटवाता है, ताकि मैं उसकी याद रख सकें। ___ अपेक्षा पूरी न हो...। आपको पता है, दुखद अपेक्षाएं भी पूरी भलं न। और जब भी चींटी मझे काटती है. मैं कहता हूँ. हे न हों तो भी दख होता है। अगर आप सोच रहे हों कि बडी बीमारी परमात्मा। याद है: मत कटवा, याद है। चींटी से कटवाता है. ताकि | है और डाक्टर के पास जाएं। और वह कहे, कुछ नहीं, तो मन में मैं उसकी याद कर सकं, विस्मरण न हो जाए। और कभी-कभी मैं | | बड़ी उदासी होती है कि बेकार आना हुआ! कुछ नहीं? आपको भूल जाता है, तो ठीक ऐन वक्त पर चींटी काट देती है। उसकी बड़ी | |शक होता है, कहीं डाक्टर की ऐसा तो नहीं कि भूल हो रही है। कृपा है। उसकी बड़ी कृपा है। इन चींटियों को हटा मत देना। जरा और बड़े डाक्टर को दिखा लें।
यह जो भाव-दृष्टि है कि वह जैसा रखे! जरूर उसका कोई इसलिए जो चालाक डाक्टर हैं, वे बड़े गंभीर हो जाते हैं आपको प्रयोजन होगा। अगर वह आग में डालता है, तो तपाता होगा। अगर देखकर। और आपकी बीमारी को इस तरह से लेते हैं जैसे कि बस, वह कांटों में चलाता है, तो परखता होगा। कोई परीक्षा होगी। कोई ऐसी बड़ी बीमारी किसी को भी कभी नहीं हुई। तब आपका दिल बात होगी उसकी। उस पर छोड़कर जीने वाला जो संतुष्ट व्यक्ति राजी होता है कि ठीक है। आप जैसे बड़े आदमी को छोटी बीमारी है, वही मननशील भी है।
हो सकती है! बड़ी ही होनी चाहिए। यह आदमी समझा। अब जरा . और रहने के स्थान में ममता से रहित है...।
बात काम की है। और जहां रखे, लेकिन कोई ममता खड़ी नहीं करता। जिस ___ वह सम्राट दुखी हो गया। उसने कहा कि यह क्या कर रहे हो! स्थिति में, जिस स्थान में, फिर यह नहीं कहता कि यहीं रहूंगा। वह | मुझे कहना नहीं चाहिए। और मैं उपदेश देने वाला कौन हं! लेकिन जहां हटा दे। वह जहां पहुंचा दे। वह जैसा करे। सभी स्थान उसी झूठ छिपाया भी नहीं जाता। सच कहना ही चाहिए। यह देखकर के हैं। और सभी स्थितियां उसकी हैं। और सभी द्वारों से वह आदमी मुझे दुख होता है। इतना ही काफी था कि तुम दुख न मनाते। लेकिन पर काम कर रहा है। इस भाव दशा में जो व्यक्ति है. वह ममता गीत गाना. खंजडी बजाना. यह जरा जरूरत से ज्यादा है। नहीं बांधेगा। वह ममता नहीं बांधेगा।
लेकिन च्वांगत्सू ने कहा, क्या कह रहे हो! मेरी पत्नी मर गई च्वांगत्सू की पत्नी मर गई, तो वह गीत गा रहा था अपनी खंजड़ी | और मैं सुख भी न मनाऊं! राजा ने कहा, मतलब? तुम बड़ा उलटा बजाकर। सम्राट संवेदना प्रकट करने आया था, क्योंकि च्वांगत्सू वचन बोल रहे हो! तो च्वांगत्सू ने कहा कि परमात्मा ने उसे मेरे जाहिर संत था। तो खुद सम्राट आया कि पत्नी मर गई है, तो मैं पास भेजा, संसार को जानने को। और परमात्मा ने उसे मुझसे छीन जाऊं। लेकिन सम्राट ने देखा कि वह गीत गा रहा है खंजड़ी बजाकर! लिया, मोक्ष पहचानने को। वह मेरा संसार थी; उसके साथ मेरा
तो सम्राट बड़ा मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वह बेचारा तैयार करके संसार भी खो गया। परमात्मा की बड़ी कृपा है। उसने संसार
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0 गीता दर्शन भाग-60
दिखाया भी, उसने संसार छीन भी लिया। हम हर हालत में राजी मुझ में ये-ये गुण हैं, अब मिल जाओ! हैं। अनेक मुझसे कहते थे, पत्नी को छोड़कर भाग जाओ। छोड़ दो तो कृष्ण आखिरी शर्त बड़ी गहरी जोड़ देते हैं। और वह यह कि संसार। मैंने कहा, वह परमात्मा जब छुड़ाना चाहेगा, छुड़ा लेगा। | ये सारे लक्षण निष्काम भाव से हों। यह परमात्मा को पाने की दृष्टि हम राजी हैं। हम ऐसे ही राजी हैं। आखिर मेरी बात सही निकली। से नहीं, बल्कि इन प्रत्येक लक्षण का अपना ही आनंद है. इसी दष्टि परमात्मा ने उसे उठा लिया।
| से। इनसे परमात्मा मिलेगा जरूर, लेकिन मिलने की वासना अगर और फिर जिस पत्नी ने मुझे जीवनभर अनेक-अनेक तरह के | रही, तो बाधा पड़ जाएगी। अनुभव दिए सुख के और दुख के, उसके लिए क्या इतना भी | | एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे कहा कि ब्रह्मचर्य मुझे अनुग्रह न मानूं कि विदाई के क्षण में गीत गाकर विदा न दे सकूँ! | | उपलब्ध करना है। कामवासना से छूटना है। इससे छुटकारा जिसने अपना पूरा जीवन मेरे सुख-दुख में लगाया, उसके लिए दिलाइए। इस शत्रु का कैसे नाश हो? इस जहर से कैसे बचूं? इतना धन्यवाद तो मन में होना ही चाहिए।
तो मैंने उनसे कहा, आप गलत आदमी के पास आ गए। तो मैं उसके धन्यवाद के लिए गा रहा हूं और परमात्मा के | जिन्होंने जहर कहा है, आप उन्हीं के पास जाइए। मैं इसको जहर धन्यवाद के लिए गा रहा हूं कि मैं थोड़ा रुक गया, तेरी राह देखी, | कहता नहीं। मैं तो इसे एक शक्ति कहता हूं। तो मैं आपको कहता तो तूने खुद ही पत्नी छीन ली। हम छोड़कर भागते, तो यह मजा न | | हूं कि इसे ठीक से जानिए, पहचानिए, इसके अनुभव में उतरिए, होता-उसने बड़ी अदभुत बात कही-कि हम छोड़कर भागते, आप मुक्त हो जाएंगे। लेकिन मुक्त होना परिणाम होगा, फल नहीं। तो यह मजा न होता! अधूरी रहती, कच्ची रहती। हमारा ही छोड़ना | उन्होंने कहा, अच्छी बात है। होता न। हमारी समझ कितनी है? लेकिन तूने उठा लिया। अब सब वे तीन महीने बाद मेरे पास आए और कहने लगे, अभी तक कोरा आकाश हो गया। पत्नी के साथ पूरी गृहस्थी विलीन हो गई | मुक्त नहीं हुआ! है। यह तेरी अनुकंपा है।
तो मैंने उनसे कहा, मुक्ति का खयाल अगर साथ में रखकर ही कृष्ण कहते हैं, जिस हालत में, जिस स्थान में, जिस स्थिति में चल रहे हैं, तो अनुभव पूरा नहीं हो पाएगा। क्योंकि आप पूरे वक्त कोई ममता नहीं; विपरीत हो जाए, तो भी विपरीत में प्रवेश करने सोच रहे हैं, कैसे मुक्त हो जाऊं, कैसे भाग जाऊं, कैसे अलग हो का उतना ही सहज भाव बिना किसी आसक्ति के पीछे, ऐसा स्थिर जाऊं, कैसे ऊपर उठ जाऊं। तो आप गहरे कैसे उतरिएगा? अगर बद्धि वाला भक्तिमान परुष मझे प्रिय है। और जो मेरे परायण हए छटने की बात पहले ही तय कर रखी है और छटने के लिए ही गहरे श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव | | उतरने का प्रयोग कर रहे हैं, तो गहरा उतरना ही नहीं हो पाएगा। से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।
और गहरा उतरना नहीं होगा, तो छूटना भी नहीं होगा। आखिरी बात बहुत समझने जैसी है कि यह जो आनंद की | तो मैंने कहा, छूटने की बात तो आप भूल जाइए। आप तो सिर्फ प्रक्रिया है, यह जो प्रभु-प्रेम का मार्ग है, इसको भी कृष्ण कहते हैं, | गहरे उतरिए, छूटना घटित होगा। आपको उसकी चिंता करने की इस अमृत को भी जो निष्काम भाव से सेवन करते हैं।
जरूरत नहीं है। ऐसा मत करना कि आप सोचें कि अच्छा! यह-यह करने से परमात्मा पाया जाता है, लेकिन परमात्मा कोई सौदा नहीं है, कि परमात्मा के प्रिय हो जाएंगे, तो हम भी यह-यह करें। तो आपसे | हम कहें कि ये-ये लक्षण मेरे पास हैं, अभी तक नहीं मिले! अब भूल हो जाएगी। तब तो आप परमात्मा पाने के लिए ऐसा कर रहे | मिलो। मैं सब तरह से तैयार हूं। हैं। तो यह जो करना है, कामवासना से भरा है। इसमें वासना है, तो आप कभी भी न पा सकेंगे, क्योंकि यह तो अहंकार का ही इसम फल का इच्छा है। इसमे आप परमात्मा को पाने के लिए आधार हुआ। परमात्मा पाया जाता है तब, जब आप अपने को उत्सुक हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं। आप परमात्मा को पाने के लिए | इतना भूल गए होते हैं इन लक्षणों में, इतने लीन हो गए होते हैं कि कारण निर्मित कर रहे हैं।
| आपको खयाल ही नहीं होता कि अभी परमात्मा भी पाने को शेष इसका यह मतलब हुआ कि आप परमात्मा को पाने के लिए है। जिस क्षण आप इतने शांत और निष्काम होते हैं, सिर्फ होते हैं, ठीक सौदा करने की स्थिति में आ रहे हैं कि कह सकें कि हां, अब । इतनी भी वासना मन में नहीं रहती, इतनी भी लहर नहीं होती कि
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आधुनिक मनुष्य की साधना
परमात्मा को पाना है, उसी क्षण अचानक आप पाते हैं कि परमात्मा पा लिया गया है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये सब बातें भी निष्काम! इनमें पीछे कोई कामवासना न हो। धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।
भक्ति - योग नामक बारहवां अध्याय समाप्त । भक्ति-योग की चर्चा समाप्त। उससे आप यह मत समझना कि आपका अध्याय समाप्त। किताब का अध्याय समाप्त। आपका सिर्फ शुरू भी हो तो बहुत। प्रारंभ भी हो जाए, तो बहुत। यह किताब का अध्याय समाप्त हुआ। आपके जीवन में भक्ति का अध्याय शुरू हो, तो काफी
जाए,
तीन बातें अंत में आपको स्मरण करने को कह दूं।
एक, भक्ति का अर्थ है, सत्य को बुद्धि से नहीं, हृदय से पाया जा सकता है। विचार से नहीं, भाव से पाया जा सकता है। चिंतन से नहीं, प्रेम से पाया जा सकता है। पहली बात ।
दूसरी बात, भक्ति को पाना हो, तो आक्रामक चित्त बाधा है। ग्राहकं चित्त ! पुरुष का चित्त बाधा है। स्त्रैण चित्त ! एक प्रेयसी की तरह प्रभु को पाया जा सकता है।
तीसरी बात, प्रभु को पाना हो, तो प्रभु को पाने की त्वरा, ज्वर, फीवर, बुखार नहीं चाहिए । प्रभु को पाना हो तो अत्यंत शांत, निष्काम भाव दशा चाहिए। उसको पाने के लिए उसको भी भूल जाना जरूरी है। खूब याद करें उसे, लेकिन अंतिम क्षण में उसे भी भूल जाना जरूरी है, ताकि वह आ जाए। और जब हम बिलकुल विस्मृत हो गए होते हैं; यह भी न अपना पता रहता, न उसका पता रहता; न यह खयाल रहता कि कौन खोज रहा है, और न यह खयाल रहता कि किसको खोज रहा है, बस उसी क्षण, उसी क्षण घटना घट जाती है, और उस अमृत की उपलब्धि हो जाती है।
पांच मिनट रुकेंगे। संन्यासी कीर्तन करेंगे। आपसे आशा है, आप भी अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर ताली बजाएं, ताकि मैं खयाल ले सकूं कि किन-किन के मन भक्ति के मार्ग पर जाने के लिए तैयार हैं। झूठा कोई हाथ न उठाए। हाथ ऊपर उठा लें, साथ में तालियां बजाएं। कीर्तन में सम्मिलित हों।
बैठे रहें। उठें न, एक पांच मिनट बीच से कोई उठे न ! कीर्तन में सम्मिलित हों। अभी कीर्तन शुरू होगा, आप भी ताली बजाएं और कीर्तन में साथ दें।
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अध्याय 13 पहला प्रवचन
दुख से मुक्ति का
मार्ग: तादात्म्य का विसर्जन
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
श्रीमद्भगवद्गीता
जब तक मैं भ्रांत कारण खोजता रहूं, तब तक कारण तो मुझे मिल अथ त्रयोदशोऽध्यायः
सकते हैं, लेकिन समाधान, दुख से मुक्ति, दुख से छुटकारा नहीं
हो सकता। श्रीभगवानुवाच
| और आश्चर्य की बात है कि सभी लोग सख की खोज करते हैं। इदं शरीर कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
और शायद ही कोई कभी सुख को उपलब्ध हो पाता है। इतने लोग एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्धिदः ।।१।। खोज करते हैं, इतने लोग श्रम करते हैं, जीवन दांव पर लगाते हैं और
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । परिणाम में दुख के अतिरिक्त हाथ में कुछ भी नहीं आता। जीवन के क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोजानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।२।। बीत जाने पर सिर्फ आशाओं की राख ही हाथ में मिलती है। सपने, तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । टूटे हुए; इंद्रधनुष, कुचले हुए; असफलता, विफलता, विषाद! सच यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु।।३।। मौत के पहले ही आदमी दुखों से मर जाता है। मौत को मारने उसके उपरांत श्रीकृष्ण भगवान बोल्ने, हे अर्जुन, यह शरीर की जरूरत नहीं पड़ती; आप बहुत पहले ही मर चुके होते हैं; क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको | जिंदगी ही काफी मार देती है। जीवन आनंद का उत्सव तो नहीं बन क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। पाता, दुख का एक तांडव नृत्य जरूर बन जाता है। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज भी मेरे को ही जान। और तब स्वाभाविक है कि यह संदेह मन में उठने लगे कि इस
और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और | दुख से भरे जीवन को क्या परमात्मा ने बनाया होगा? और अगर पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। | परमात्मा इस दुख से भरे जीवन को बनाता है, तो परमात्मा कम इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला | और शैतान ज्यादा मालूम होता है। और अगर इतना दुख जीवन का है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है | फल है, तो परमात्मा सैडिस्ट, दुखवादी मालूम होता है। लोगों को और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन । | सताने में जैसे उसे कुछ रस आता हो! तो फिर स्वाभाविक ही है कि
अधिक लोग दुख के कारण परमात्मा को अस्वीकार कर दें।
जितना ही मैं इस संबंध में लोगों के मनों की छानबीन करता हूं, 1 बह से सांझ तक न मालूम कितने प्रकार के दुखी लोगों | तो मुझे लगता है कि नास्तिक कोई भी तर्क के कारण नहीं होता। रा से मेरा मिलना होता है। एक बात की मैं तलाश करता नास्तिक लोग दुख के कारण हो जाते हैं। तर्क तो पीछे आदमी इकट्ठे
रहा हूं कि कोई ऐसा दुखी आदमी मिल जाए, जिसके कर लेता है। दुख का कारण कोई और हो। अब तक वैसा आदमी खोज नहीं | लेकिन जीवन में इतनी पीड़ा है कि आस्तिक होना मुश्किल है। पाया। दुख चाहे कोई भी हो, दुख के कारण में आदमी खुद स्वयं इतनी पीड़ा को देखते हए आस्तिक हो जाना असंभव है। या फिर ही होता है। दुख के रूप अलग हैं, लेकिन दुख की जिम्मेवारी सदा | ऐसी आस्तिकता झूठी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, रंग-रोगन की गई ही स्वयं की है।
होगी। ऐसी आस्तिकता का हृदय नहीं हो सकता। आस्तिकता तो दुख कहीं से भी आता हुआ मालूम होता हो, दुख स्वयं के ही सच्ची सिर्फ आनंद की घटना में ही हो सकती है। जब जीवन एक भीतर से आता है। चाहे कोई किसी परिस्थिति पर थोपना चाहे, चाहे | आनंद का उत्सव दिखाई पड़े, अनुभव में आए, तो ही कोई आस्तिक किन्हीं व्यक्तियों पर, संबंधों पर, संसार पर, लेकिन दुख के सभी हो सकता है। कारण झूठे हैं। जब तक कि असली कारण का पता न चल जाए। | आस्तिक शब्द का अर्थ है, समग्र जीवन को हां कहने की
और वह असली कारण व्यक्ति स्वयं ही है। पर जब तक यह दिखाई भावना। लेकिन दुख को कोई कैसे हां कह सके? आनंद को ही न पड़े कि मेरे दुख का कारण मैं हूं, तब तक दुख से छुटकारे का | कोई हां कह सकता है। दुख के साथ तो संदेह बना ही रहता है।
है। क्योंकि ठीक कारण का ही पता न हो, ठीक | शायद आपने कभी सोचा हो या न सोचा हो, कोई भी नहीं पछता निदान ही न हो सके, तो इलाज के होने का कोई उपाय नहीं है। और कि आनंद क्यों है? लेकिन दुख होता है, तो आदमी पूछता है, दुख
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0 दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
क्यों है? दुख के साथ प्रश्न उठते हैं। आनंद तो निष्प्रश्न स्वीकार | | अन्यथा मैं अपने ही सामने अतळ मालूम होऊंगा। मुझे खुद को हो जाता है। अगर आपके जीवन में आनंद ही आनंद हो, तो आप | | ही समझाना पड़ेगा कि मैं नास्तिक क्यों हूं। तो एक ही उपाय है कि यह न पूछेगे कि आनंद क्यों है? आप आस्तिक होंगे। क्यों का ईश्वर नहीं है, इसलिए मैं नास्तिक हूं। सवाल ही न उठेगा।
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर आप नास्तिक हैं, लेकिन जहां जीवन में दुख ही दुख है, वहां आस्तिक होना थोथा तो इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप दुखी मालूम होता है। वहां तो नास्तिक ही ठीक मालूम पड़ता है। क्योंकि | | हैं। आपकी नास्तिकता आपके दुख से निकलती है। और अगर वह पूछता है कि दुख क्यों है? और दुख क्यों है, यही सवाल गहरे | | आप कहते हैं कि मैं दुखी हूं और फिर भी आस्तिक हूं, तो मैं आपसे में उतरकर सवाल बन जाता है कि इतने दुख की मौजूदगी में | कहता हूं, आपकी आस्तिकता झूठी और ऊपरी होगी। दुख से परमात्मा का होना असंभव है। इस दुख को बनाने वाला परमात्मा सच्ची आस्तिकता का जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि दुख के लिए हो सके, यह मानना कठिन है। और ऐसा परमात्मा अगर हो भी, कैसे स्वीकार किया जा सकता है! दुख के प्रति तो गहन अस्वीकार तो उसे मानना उचित भी नहीं है।
बना ही रहता है। और तब फिर एक उपद्रव की घटना घटती है। जीवन में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतनी नास्तिकता बढ़ती __टाल्सटाय ने लिखा है कि हे ईश्वर, मैं तुझे तो स्वीकार करता जाती है। नास्तिकता को मैं मानसिक, मनोवैज्ञानिक घटना मानता हूं, लेकिन तेरे संसार को बिलकुल नहीं। लेकिन बाद में उसे भी हूं, तार्किक, बौद्धिक नहीं। कोई तर्क के कारण नास्तिक नहीं होता। खयाल आया कि अगर मैं ईश्वर को सच में ही स्वीकार करता हूं, यद्यपि जब कोई नास्तिक हो जाता है, तो तर्क खोजता है। तो उसके संसार को अस्वीकार कैसे कर सकता हूं? और अगर मैं
सिमॉन वेल ने, एक फ्रेंच विचारक महिला ने लिखा है अपने | | उसके संसार को अस्वीकार करता हूं, तो मेरे ईश्वर को स्वीकार आत्म-कथ्य में, कि तीस वर्ष की उम्र तक सतत मेरे सिर में दर्द करने की बात में कहीं न कहीं धोखा है। बना रहा, मेरा शरीर अस्वस्थ था। और तब मेरे मन में ईश्वर के जब कोई ईश्वर को स्वीकार करता है, तो उसकी समग्रता में ही प्रति बड़े संदेह उठे। और यह खयाल मुझे कभी भी न आया कि मेरे | | स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कह सकता कि तेरे संसार को मैं शरीर का अस्वास्थ्य ही ईश्वर के संबंध में उठने वाले प्रश्नों का | अस्वीकार करता हूं। यह आधा काटा नहीं जा सकता है ईश्वर को। कारण है। और फिर मैं स्वस्थ हो गई और शरीर ठीक हुआ और क्योंकि ईश्वर का संसार ईश्वर ही है। और जो उसने बनाया है, उसमें सिर का दर्द खो गया, तो मुझे पता न चला कि मेरे प्रश्न जो ईश्वर | वह मौजूद है। और वह जो हमें दिखाई पड़ता है, उसमें वह छिपा है। के संबंध में उठते थे संदेह के, वे कब गिर गए। और बहुत बाद में जो आदमी दखी है, उसकी आस्तिकता झठी होगी: वह छिपे में ही मुझे होश आया कि मैं किसी क्षण में आस्तिक हो गई हूं। नास्तिक ही होगा। और जो आदमी आनंदित है, अगर वह यह भी . वह जो जीवन में स्वास्थ्य की धार बहने लगी, वह जो जीवन में कहता हो कि मैं नास्तिक हूं, तो उसकी नास्तिकता झूठी होगी; वह थोड़े से रस की झलक आने लगी, वह जो जीवन में थोड़ा अर्थ और | छिपे में आस्तिक ही होगा। अभिप्राय दिखाई पड़ने लगा, फूल, आकाश के तारे और हवाओं । बुद्ध ने इनकार किया है ईश्वर से। महावीर ने कहा है कि कोई के झोंकों में आनंद की थोड़ी-सी खबर आने लगी, तो सिमॉन वेल | ईश्वर नहीं है। लेकिन फिर भी महावीर और बुद्ध से बड़े आस्तिक का मन नास्तिकता से आस्तिकता की तरफ झुक गया। और तब खोजना मुश्किल है। और आप कहते हैं कि ईश्वर है, लेकिन आप उसे खयाल आया कि जब वह नास्तिक थी, तो नास्तिकता के पक्ष जैसे नास्तिक खोजना मुश्किल है। बुद्ध ईश्वर को इनकार करके भी में तर्क जुटा लिए थे उसने। और अब जब वह आस्तिक हो गई, तो आस्तिक ही होंगे, क्योंकि वह जो आनंद, वह जो नृत्य, वह जो उसने आस्तिकता के पक्ष में तर्क जटा लिए।
भीतर का संगीत गूंज रहा है, वही आस्तिकता है। तर्क आप पीछे जुटाते हैं, पहले आप आस्तिक हो जाते हैं या सुना है मैंने, यहूदी एक कथा है कि परमात्मा ने अपने एक दूत नास्तिक हो जाते हैं। तर्क तो सिर्फ बौद्धिक उपाय है, अपने को को भेजा इजराइल। यहूदियों के बड़े मंदिर के निकट, और मंदिर समझाने का। क्योंकि मैं जो भी हो जाता हूं, उसके लिए का जो बड़ा पुजारी था, उसके पास वह दूत आया और उसने कहा रेशनलाइजेशन, उसके लिए तर्कयुक्त करना जरूरी हो जाता है। कि मैं परमात्मा का दूत हूं और यहां की खबर लेने आया हूं।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
तो उस पुजारी ने पूछा कि यहां की मैं तुम्हें सिर्फ एक ही खबर जिम्मेवार ठहराने से। आप हिम्मत न करते हों खोज की, और पहले दे सकता हूं कि यहां जो आस्तिक हैं, उनकी आस्तिकता में मुझे ही रुक जाते हों, यह बात अलग है। लेकिन अगर आप अपने शक है। और इस गांव में दो नास्तिक हैं, उनकी नास्तिकता में भी | | भीतर खोज करेंगे, तो आप आखिर में पाएंगे कि आपकी शिकायत मुझे शक है। गांव में दो नास्तिक हैं, उन्हें हमने कभी दुखी नहीं | की अंगुली ईश्वर की तरफ उठी हुई है। देखा। और गांव में इतने आस्तिक हैं, जो मंदिर में रोज प्रार्थना और | सुना है मैंने, एक अरबी कहावत है कि जब परमात्मा ने दुनिया पूजा करने आते हैं, वे सिवाय दुख की कथा के मंदिर में कुछ भी | बनाई, तो सबसे पहले वह भी जमीन पर अपना मकान बनाना नहीं लाते: सिवाय शिकायतों के उनकी प्रार्थना में और कुछ भी नहीं चाहता था। लेकिन फिर उसके सलाहकारों ने सलाह दी कि यह है। परमात्मा से अगर वे कछ मांगते भी हैं, तो दुखों से छटकारा |भल मत करना। तम्हारे मकान की एक खिड़की साबित न बचेगी. मांगते हैं।
और तुम भी जिंदा लौट आओ, यह संदिग्ध है। लोग पत्थर मारकर लेकिन दुख से भरा हुआ हृदय परमात्मा के पास आए कैसे! वह | | तुम्हारे घर को तोड़ डालेंगे। और तुम एक क्षण को सो भी न दुख में ही इतना डूबा है, उसकी दृष्टि ही इतने अंधेरे से भरी है! इस पाओगे, क्योंकि लोग इतनी शिकायतें ले आएंगे! रहने की भूल . जगत में एक तो अंधेरा है, जिसे हम प्रकाश जलाकर मिटा सकते | | जमीन पर मत करना। तुम वहां से सही-साबित लौट न सकोगे। हैं। और एक भीतर का अंधेरा है, उस अंधेरे का नाम दुख है। और | कभी अपने मन में आपने सोचा है कि अगर परमात्मा आपको जब तक हम भीतर आनंद का चिराग न जला लें, तब तक हम भीतर | मिल जाए, तो आप क्या निवेदन करेंगे? आप क्या कहेंगे? अपने के अंधेरे को नहीं मिटा सकते।
हृदय में आप खोजेंगे, तो आप पाएंगे कि आप उसको जिम्मेवार तो उस पुजारी ने पूछा कि हे ईश्वर के राजदूत, मैं तुमसे यह | ठहराएंगे आपके सारे दुखों के लिए। पछता है कि इस गांव में कौन लोग परमात्मा के राज्य में प्रवेश | धार्मिक व्यक्ति का जन्म ही इस विचार से होता है. इस करेंगे? तो उस राजदूत ने कहा कि तुम्हें धक्का तो लगेगा, लेकिन | | आत्म-अनुसंधान से कि दुख के लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, वे जो दो नास्तिक हैं इस गांव में, वे ही परमात्मा के राज्य में प्रवेश | | दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं। और जैसे ही यह दृष्टि साफ होने करेंगे। उन्होंने कभी प्रार्थना नहीं की है, पूजा नहीं की है, वे मंदिर लगती है कि दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं, वैसे ही दुख से मुक्त में कभी नहीं आए हैं, लेकिन उनका हृदय एक आनंद-उल्लास से हुआ जा सकता है। और मुक्त होने का कोई मार्ग भी नहीं है। भरा है, एक उत्सव से भरा है; जीवन के प्रति उनकी कोई शिकायत | अगर मैं ही जिम्मेवार हूं, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। नहीं है। और इस जीवन के प्रति जिसकी शिकायत नहीं है, यही अगर कोई और मुझे दुख दे रहा है, तो मैं दुख से कैसे छूट सकता आस्तिकता है।
हूं? क्योंकि जिम्मेवारी दूसरे के हाथ में है। ताकत किसी और के मनुष्य दुखी है, और दुख उसे परमात्मा से तोड़े हुए है। और जब हाथ में है। मालिक कोई और है। मैं तो केवल झेल रहा हूं। और मनुष्य दुखी है, तो उसके सारे मन की एक ही चेष्टा होती है कि | जब तक यह सारी दुनिया न बदल जाए जो मुझे दुख दे रही है, तब दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराए। और जब तक आप दुख तक मैं सुखी नहीं हो सकता। के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराते हैं, तब तक यह मानना इसीलिए कम्युनिज्म और नास्तिकता में एक तालमेल है। और मुश्किल है कि आप अंतिम रूप से दुख के लिए परमात्मा को | मार्क्स की इस अंतर्दृष्टि में अर्थ है कि मार्क्स मानता है कि जब तक जिम्मेवार नहीं ठहराएंगे। अंततः वही जिम्मेवार होगा। धर्म जमीन पर प्रभावी है, तब तक साम्यवाद प्रभावी न हो सकेगा।
जब तक मैं कहता हूं कि मैं अपनी पत्नी के कारण दुखी हूं, कि | | इसलिए धर्म की जड़ें काट देनी जरूरी हैं, तो ही साम्यवाद प्रभावी अपने बेटे के कारण दुखी हूं, कि गांव के कारण दुखी हूं, पड़ोसी | | हो सकता है। उसकी बात में मूल्य है, उसकी बात में गहरी दृष्टि है। के कारण दुखी हूं-जब तक मैं कहता हूं, मैं किसी के कारण दुखी | ___ क्योंकि धर्म और साम्यवाद का बुनियादी भेद यही है कि हूं-तब तक मुझे खोज करूं तो पता चल जाएगा कि अंततः मैं यह | साम्यवाद कहता है कि दुख के लिए कोई और जिम्मेवार है। और भी कहूंगा कि मैं परमात्मा के कारण दुखी हूं।
धर्म कहता है कि दुख के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार है। यह दूसरे पर जिम्मा ठहराने वाला बच नहीं सकता परमात्मा को | बुनियादी विवाद है। यह जड़ है विरोध की।
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दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
साम्यवाद कहता है, समाज बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे; परिस्थिति बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे; व्यवस्था बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे। व्यक्ति के बदलने की कोई बात साम्यवाद नहीं उठाता। कुछ और बदल जाए, मुझे छोड़कर मैं सुखी हो जाऊंगा।
सब बदल जाए,
लेकिन धर्म का सारा अनुसंधान यह है कि दूसरा मेरे दुख का कारण है, यही समझ दुख है। दूसरा मुझे दुख दे सकता है, इसलिए
दुख पाता हूं, इस खयाल से, इस विचार से। और तब मैं अनंत काल तक दुख पा सकता हूं, दूसरा बदल जाए तो भी। क्योंकि मेरी जो दृष्टि है दुख पाने की, वह कायम रहेगी।
समाज बदल जाए...समाज बहुत बार बदल गया । आर्थिक व्यवस्था बहुत बार बदल गई। कितनी क्रांतियां नहीं हो चुकी हैं! और फिर भी कोई क्रांति नहीं हुई। आदमी वैसा का वैसा दुखी है। सब कुछ बदल गया। अगर आज से दस हजार साल पीछे लौटें, तो क्या बचा है? सब बदल गया है। एक ही चीज बची है, दुख वैसा का वैसा बचा है, शायद और भी ज्यादा बढ़ गया है।
गीता के इस अध्याय में दुख के इस कारण की खोज है। और दुख के इस कारण को मिटाने का उपाय है। और यह अध्याय गहन साधना की तरफ आपको ले जा सकता है। लेकिन इस बुनियादी बात को पहले ही खयाल में ले लें, तो इस अध्याय में प्रवेश बहुत आसान हो जाएगा।
बहुत कठिन मालूम होता है अपने आप को जिम्मेवार ठहराना । क्योंकि तब बचाव नहीं रह जाता कोई। जब मैं यह सोचता हूं कि मैं ही कारण हूं अपने दुखों का, तो फिर शिकायत भी नहीं बचती । किससे शिकायत करूं ! किस पर दोष डालूं ! और जब मैं ही जिम्मेवार हूं, तो फिर यह भी कहना उचित नहीं मालूम होता कि मैं दुखी क्यों हूं? क्योंकि मैं अपने को दुखी बना रहा हूं, इसलिए। और मैं न बनाऊं, तो दुनिया की कोई ताकत मुझे दुखी नहीं बना सकती।
बहुत कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि तब मैं अकेला खड़ा हो जाता हूं और पलायन का, छिपने का अपने को धोखा देने का, प्रवंचना का कोई रास्ता नहीं बचता। जैसे ही यह खयाल में आ जाता है कि मैं जिम्मेवार हूं, वैसे ही क्रांति शुरू हो जाती है।
ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान का पहला सूत्र है कि जो कुछ भी मेरे जीवन में घटित हो रहा है, उसे कोई परमात्मा घटित नहीं कर रहा है; उसे कोई समाज घटित नहीं कर रहा है; उसे मैं घटित कर रहा हूं, चाहे मैं जानूं और चाहे मैं न जानूं ।
मैं जिस कारागृह में कैद हो जाता हूं, वह ही बनाया हुआ है। और जिन जंजीरों में मैं अपने को पाता हूं, वे मैंने ही ढाली हैं। और जिन कांटों पर मैं पाता हूं कि मैं पड़ा हूं, वे मेरे ही निर्मित किए हुए हैं। जो गड्ढे मुझे उलझा लेते हैं, वे मेरे ही खोदे हुए हैं। जो भी मैं काट रहा हूं, वह मेरा बोया हुआ है, मुझे दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो ।
अगर यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो दुख विसर्जन शुरू हो जाता है। और यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद की किरण भी फूटनी शुरू हो जाती है। और आनंद की किरण के साथ ही तत्व का बोध, तत्व का ज्ञान; वह जो सत्य है, उसकी प्रतीति के निकट मैं पहुंचता हूं।
अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
उसके उपरांत कृष्ण बोले, अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा | जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व | को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, | ऐसा मेरा मत है। इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो | है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन ।
आपका मन उदास है, दुखी है, पीड़ित है। सुबह आप उठे हैं; मन प्रफुल्लित है, शांत है; जीवन भला मालूम होता है। या कि | बीमार पड़े हैं और जीवन व्यर्थ मालूम होता है; लगता है, कोई सार | नहीं है। जवान हैं और जीवन में गति मालूम पड़ती है; बहुत कुछ करने जैसा लगता है; कोई अभिप्राय दिखाई पड़ता है। फिर बूढ़े हो गए हैं, थक गए हैं, शक्ति टूट गई है; और सब ऐसा लगता है कि | जैसे कोई एक दुखस्वप्न था । न कोई उपलब्धि हुई है, न कहीं पहुंचे हैं, और मौत करीब मालूम होती है।
कोई भी अवस्था हो मन की, एक बात - बच्चे में, जवान में, बूढ़े में, सुख का आभास हो, दुख का आभास हो - उसमें एक बात समान है कि मन पर जो भी अवस्था आती है, आप अपने को | उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं।
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अगर भूख लगती है, तो आप ऐसा नहीं कहते कि मुझे पता चल रहा है कि शरीर को भूख लग रही है। आप कहते हैं, मुझे भूख लग रही है। यह केवल भाषा का ही भेद नहीं है। यह हमारी भीतर की प्रतीति है। सिर में दर्द है, तो आप ऐसा नहीं कहते, न ऐसा सोचते,
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0 गीता दर्शन भाग-60
न ऐसी प्रतीति करते कि सिर में दर्द हो रहा है, ऐसा मुझे पता चल तो कृष्ण इस सूत्र में इन दोनों के भेद के संबंध में प्राथमिक रहा है। आप कहते हैं, मेरे सिर में दर्द है।
| प्रस्तावना कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जो भी प्रतीति होती है, आप उसके साथ एक हो जाते हैं। वह जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व जो जानने वाला है, उसको आप अलग नहीं बचा पाते। वह जो को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। जानने वाला है, वह खो जाता है। ज्ञेय में खो जाता है ज्ञाता। दृश्य आप शरीर के साथ अपने को जब तक एक कर रहे हैं, तब तक में खो जाता है द्रष्टा। भोग में खो जाता है भोक्ता। कर्म में खो जाता | दुख से कोई छुटकारा नहीं है। है कर्ता। वह जो भीतर जानने वाला है, वह दूर नहीं रह पाता और ___ अब यह बहुत मजे की और बहुत चमत्कारिक घटना है। शरीर एक हो जाता है उससे जिसे जानता है। पैर में दर्द है, और आप दर्द को कोई दुख नहीं हो सकता। शरीर में दुख होते हैं, लेकिन शरीर के साथ एक हो जाते हैं।
| को कोई दुख नहीं हो सकता। क्योंकि शरीर को कोई बोध नहीं है। यही एकमात्र दुर्घटना है। अगर कोई भी मौलिक पतन है, जैसा इसलिए आप मुर्दा आदमी को दुख नहीं दे सकते। इसीलिए तो ईसाइयत कहती है, कोई ओरिजिनल, कोई मूल पाप, अगर कोई | डाक्टर इसके पहले कि आपका आपरेशन करे, आपको बेहोश कर . एक पतन खोजा जाए, तो एक ही है पतन और वह है तादात्म्य। देता है। बेहोश होते से ही शरीर को कोई दुख नहीं होता। लेकिन जानने वाला एक हो जाए उसके साथ, जिसे जा जान रहा है। । | सब दुख शरीर में होते हैं। और वह जो जानने वाला है, उसमें कोई दर्द आप नहीं हैं। आप दर्द को जानते हैं। दर्द आप हो भी नहीं |
आप हा भा नहीं दुख नहीं होता। सकते। क्योंकि अगर आप दर्द ही हो जाएं, तो फिर दर्द को जानने | __इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। वाला कोई भी न बचेगा।
दुख शरीर में घटते हैं; और जाने जाते हैं उसमें, जो शरीर नहीं सुबह होती है, सूरज निकलता है, तो आप देखते हैं कि सूरज है। जानने वाला अलग है, और जहां दुख घटते हैं, वह जगह निकला, प्रकाश हो गया। फिर सांझ आती है, सरज ढल जाता है, अलग है। और जहां दख घटते हैं, वहां जानने की कोई संभावना अंधेरा आ जाता है। तो आप देखते हैं, रात आ गई। लेकिन वह जो | नहीं है। और जो जानने वाला है, वहां दुख के घटने की कोई देखने वाला है, न तो सुबह है और न सांझ। वह जो देखने वाला है,। | संभावना नहीं है। न तो सूरज की किरण है, रात का अंधेरा भी नहीं है। वह जो देखने | | जब कोई मेरे पैर को काटता है, तो पैर के काटने की घटना तो वाला है, वह तो अलग खड़ा है। वह सुबह को भी देखता है उगते, शरीर में घटती है; और अगर जानने वाला मौजूद न हो, तो कोई दुख
सांझ को भी देखता है। फिर रात का अंधेरा भी देखता है, दिन घटित नहीं होगा। लेकिन जानने की घटना मुझमें घटती है। कटता का प्रकाश भी देखता है। वह जो देखने वाला है, वह अलग है। । | है शरीर, जानता हूं मैं। यह जानना और शरीर में घटना का घटना
लेकिन जीवन में हम उसे अलग नहीं रख पाते हैं। वह तत्क्षण | | इतना निकट है कि दोनों इकट्ठे हो जाते हैं; हम फासला नहीं कर पाते; एक हो जाता है। कोई आपको गाली दे देता है, खट से चोट पहुंच दोनों के बीच में जगह नहीं बना पाते। हम एक ही हो जाते हैं। जाती ऐसा नहीं कर पाते कि देख पाएं कि कोई गाली दे जब शरीर पर कटना शुरू होता है, तो मुझे लगता है, में कट रहा है, और देख पाएं कि मन में चोट पहुंच रही है। | रहा है। और यह प्रतीति कि मैं कट रहा है, दुख बन जाती है। हमारे
दोनों बातें आप देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि गाली दी सारे दुख शरीर से उधार लिए गए हैं। शरीर में कितने ही दुख घटें, गई, और आप यह भी देख सकते हैं कि मन में थोड़ी चोट और अगर आपको पता न चले, तो दुख घटते नहीं। और शरीर में पीड़ा पहुंची। और आप दोनों से दूर खड़े रह सकते हैं। | बिलकुल दुख न घटें, अगर आपको पता चल जाए, तो भी दुख
यह जो दूर खड़े रहने की कला है, सारा धर्म उस कला का ही घट जाते हैं। दूसरी बात भी खयाल में ले लें। शरीर में कोई दुख न नाम है। वह जो जानने वाला है, वह जानी जाने वाली चीज से दूर घटे, लेकिन आपको प्रतीति करवा दी जाए कि दुख घट रहा है, तो खड़ा रह जाए; वह जो अनुभोक्ता है, अनुभव के पार खड़ा रह दुख घट जाएगा। जाए। सब अनुभव का नाम क्षेत्र है। और वह जो जानने वाला है, सम्मोहन में सम्मोहित व्यक्ति को कह दिया जाए कि तेरे पैर उसका नाम क्षेत्रज्ञ है।
| में आग लगी है, तो पीड़ा शुरू हो जाती है। वह आदमी
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चीखने-चिल्लाने लगता है। वह रोने लगता है। प्रतीति शुरू हो गई कि पैर में आग लगी है।
सम्मोहित आदमी को कुछ भी कह दिया जाए, वह स्वीकार कर लेता है। उसे वैसा दुख होना शुरू हो जाएगा। कोई दुख शरीर में घट नहीं रहा है, लेकिन अगर जानने वाला मान ले कि घट रहा है, तो घटना शुरू हो जाता है।
आपको शायद खयाल न हो, जमीन पर जितने सांप होते हैं, उनमें केवल तीन प्रतिशत सांपों में जहर होता है। बाकी सत्तानबे प्रतिशत तो बिना जहर के होते हैं। लेकिन बिना जहर के सांप के लोग भी मरते हैं।
अब यह बड़ी अजीब घटना है। क्योंकि जिस सांप में जहर ही नहीं है, उससे काटा हुआ आदमी मर कैसे जाता है! और इसीलिए तो सांप को झाड़ने वाला भी सफल हो जाता है। क्योंकि सत्तानबे प्रतिशत मौके पर तो कोई जहर होता नहीं, सिर्फ जहर के खयाल से आदमी मर रहा होता है। इसलिए झाड़ने वाला अगर खयाल दिला दे कि झाड़ दिया, तो बात खतम हो गई।
इसलिए मंत्र सरलता से काम कर जाता है। झाड़ने वाला सफल हो जाता है। सिर्फ भरोसा दिलाने की बात है, क्योंकि उस सांप ने भी भरोसा दिलाया है कि मुझमें जहर है। उसमें जहर तो था नहीं। भरोसे आदमी मर रहा है, तो भरोसे से आदमी बच भी सकता है। लेकिन दूसरी घटना भी संभव है। असली जहर वाले सांप का काटा हुआ आदमी भी मंत्रोपचार से बच सकता है। अगर नकली जहर से मर सकता है, तो असली जहर से भी बचने की संभावना है। अगर यह भ्रांति कि सांप ने मुझे काट लिया है इसलिए मरना ज़रूरी है मौत बन सकती है, तो यह खयाल कि सांप ने भला मुझे काटा है, लेकिन मंत्र ने मुझे मुक्त कर दिया, असली जहर से भी छुटकारा दिला सकता है।
अभी पश्चिम में मनसविद बहुत प्रयोग करते हैं और बहुत हैरान हुए हैं। दुनिया में हजारों तरह की दवाइयां चलती हैं। सभी तरह की दवाइयां काम करती हैं। होमियोपैथी भी बचाती है, एलोपैथी भी बचाती है, आयुर्वेद भी बचाता है। और भी, यूनानी हकीम भी बचाता है; नेचरोपैथ भी बचा लेता है। मंत्र से बच जाता है आदमी। किसी की कृपा से भी बच जाता है। डिवाइन हीलिंग, प्रभु - चिकित्सा से भी बच जाता है।
तो सवाल यह है कि आदमी इतने ढंगों से बचता है, तो विचारणीय है कि इसमें कोई वैज्ञानिक कारण है बचने का कि सिर्फ
आदमी का भरोसा बचा लेता है!
आपको शायद पता न हो, जब भी कोई नई दवा निकलती है, तो मरीजों पर ज्यादा काम करती है। लेकिन साल दो साल में फीकी पड़ जाती है, फिर काम नहीं करती। जब नई दवा निकलती है, तो मरीजों पर क्यों काम करती है? नई दवा से ऐसा लगता है कि बस, अब सब ठीक हो गया। लेकिन साल, छः महीने में कुछ मरीज फायदा उठा लेते हैं। बाकी इसके बाद फिर फायदा नहीं उठा पाते।
एक बहुत विचारशील डाक्टर ने कहा है कि जब भी नई दवा निकले, तब फायदा पूरा उठा लेना चाहिए, क्योंकि थोड़े ही दिन में | दवा काम नहीं करेगी।
नई दवा काम क्यों करती है? थोड़े दिन पुरानी पड़ जाने के बाद | दवा का रहस्य और चमत्कार क्यों चला जाता है? तो उस पर बहुत | अध्ययन किया गया और पाया गया कि जब दवा निकलती है, तो उसके विरोध में कुछ भी नहीं होता। उसकी असफलता की कोई खबर न मरीज को होती है, न डाक्टर को होती है। डाक्टर भी भरोसे से भरा होता है कि दवा नई है, चमत्कार है ।
विज्ञापन, अखबार सब खबरें देते हैं कि चमत्कार की दवा खोज ली गई है। डाक्टर भरोसे से भरा होता है। मरीज को दवा देता है | और वह कहता है, बिलकुल घबड़ाओ मत। अब तक तो इस बीमारी का मरीज बच नहीं सकता था। लेकिन अब वह दवा हाथ में आ गई है कि अब इस मरीज को मरने की कोई जरूरत नहीं है। अब तुम बच जाओगे।
वह जो डाक्टर का भरोसा है, वह मंत्र का काम कर रहा है। उसे पता नहीं कि वह पुरोहित का काम कर रहा है इस क्षण में। उसकी आंखों में जो रौनक है, वह जो भरोसे की बात है, वह जो मरीज से | कहना है कि बेफिक्र रह, मरीज को भी यह उत्साह पकड़ जाता है। मरीज बच जाता है।
लेकिन साल, छः महीने में ही अनुसंधान करने वाले दवा में खोज करते हैं कि सच में इसमें ऐसा कुछ है या नहीं है। मेडिकल जरनल्स में खबरें आनी शुरू हो जाती हैं कि इस दवा में ऐसा कोई तत्व नहीं है कि जिस पर इतना भरोसा किया जा सके। खोजबीन शुरू हो जाती है। डाक्टर का भरोसा कम होने लगता है। अब भी वह दवा डाक्टर देता है, लेकिन वह कहता है, शायद काम कर सके, शायद न भी करे। वह जो शायद है, वह मंत्र की हत्या कर | देता है। डाक्टर का भरोसा गया; मरीज का भी भरोसा गया।
मैं एक घटना पढ़ रहा था कि एक मरीज पर एक दवा का प्रयोग
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किया गया। डाक्टर भरोसे से भरा था कि दवा काम करेगी। दवा | कि मैं शरीर हूं। बूढ़ा मानता है कि मैं शरीर हूं। तो बूढ़ा दुखी होता काम कर गई। वह मरीज सालभर तक ठीक रहा। बीमारी तिरोहित | है, क्योंकि उसको लगता है, उसकी आत्मा भी बूढ़ी हो गई है। शरीर हो गई। लेकिन सालभर बाद अनुसंधानकर्ताओं ने पता लगाया कि || बूढ़ा हो गया है। आत्मा तो कुछ बूढ़ी होती नहीं। लेकिन बूढ़े शरीर उस दवा से इस बीमारी के ठीक होने का कोई संबंध ही नहीं है। | | के साथ तादात्म्य बंधा हुआ है। तो जिसने माना था कि जवान शरीर
उसके डाक्टर ने मरीज को खबर की कि चमत्कार की बात है | मैं हूं, मानना मजबूरी है अब उसकी, उसे मानना पड़ेगा कि अब मैं कि तुम तो ठीक हो गए, लेकिन अभी खबर आई है, रिसर्च काम | बूढ़ा हो गया हूं। और जिसने माना था शरीर की जिंदगी को अपनी कर रही है कि इस दवा में उस बीमारी के ठीक होने का कोई कारण | जिंदगी, जब मौत आएगी तो उसे मानना पड़ेगा, अब मैं मर रहा हूं। ही नहीं है। वह मरीज उसी दिन पुनः बीमार हो गया। वह सालभर | लेकिन बचपन से ही हम शरीर के साथ अपने को एक मानकर बिलकुल ठीक रह चुका था।
| बड़े होते हैं। शरीर के सुख, शरीर के दुख, हम एक मानते हैं। शरीर और कहानी यहीं खतम नहीं होती। छः महीने बाद फिर इस पर की भूख, शरीर की प्यास, हम अपनी मानते हैं। खोजबीन चली, किसी दूसरे रिसर्च करने वाले ने कुछ और पता । यह कृष्ण का सूत्र कह रहा है, शरीर क्षेत्र है, जहां घटनाएं घटती लगाया। उसने कहा कि नहीं, यह दवा काम कर सकती है। और | हैं। और तुम क्षेत्रज्ञ हो, जो घटनाओं को जानता है। वह मरीज फिर ठीक हो गया।
__ अगर यह एक सूत्र जीवन में फलित हो जाए, तो धर्म की फिर तो अभी डाक्टरों को शक पैदा हो गया है कि दवाएं काम करती | और कुछ जानकारी करने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुरान, हैं या भरोसे काम करते हैं!
बाइबिल, गीता, सब फेंक दिए जा सकते हैं। एक छोटा-सा सूत्र, सभी चिकित्सा में जादू काम करता है, मंत्र काम करते हैं। अगर | कि जो भी शरीर में घट रहा है, वह शरीर में घट रहा है, और मुझमें एलोपैथी ज्यादा काम करती है, तो उसका कारण यह नहीं है कि | नहीं घट रहा है; मैं देख रहा हूं, मैं जान रहा हूं, मैं एक द्रष्टा हूं, एलोपैथी में ज्यादा जान है। उसका कारण यह है कि एलोपैथी के | यह सूत्र समस्त धर्म का सार है। इसे थोड़ा-थोड़ा प्रयोग करना शुरू पास ज्यादा प्रचार का साधन है; ज्यादा मेडिकल कालेज हैं, करें, तो ही खयाल में आएगा। युनिवर्सिटी हैं, ज्यादा सरकारें हैं, अथारिटी, प्रमाण उसके पास हैं; एक तो रास्ता यह है कि गीता हम समझते रहते हैं। गीता लोग वह काम करती है।
| समझाते रहते हैं। वे कहते रहते हैं. क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग __ अनेक चिकित्सकों ने प्रयोग किए हैं, उसे वे प्लेस्बो कहते हैं। दस है। और हम सुन लेते हैं, और मान लेते हैं कि होगा। लेकिन जब मरीजों को, उसी बीमारी के दस मरीजों को दवा दी जाती है; उसी | | तक यह अनुभव न बन जाए, तब तक इसका कोई अर्थ नहीं है। बीमारी के दस मरीजों को सिर्फ पानी दिया जाता है। बड़ी हैरानी की | | यह कोई सिद्धांत नहीं है; यह तो प्रयोगजन्य अनुभूति है। इसे थोड़ा बात यह है कि अगर सात दवा से ठीक होते हैं, तो सात पानी से भी | प्रयोग करें। ठीक हो जाते हैं। वे सात पानी से भी ठीक होते हैं, लेकिन बात इतनी ___ जब भोजन कर रहे हों, तो समझें कि भोजन शरीर में डाल रहे जरूरी है कि कहा जाए कि उनको भी दवा दी जा रही है। | हैं और आप भोजन करने वाले नहीं हैं, देखने वाले हैं। जब रास्ते
आदमी का मन, बीमारी न हो, तो बीमारी पैदा कर सकता है। | पर चल रहे हों, तो समझें कि आप चल नहीं रहे हैं; शरीर चल रहा और आदमी का मन, बीमारी हो, तो बीमारी से अपने को तोड़ भी | | है। आप तो सिर्फ देखने वाले हैं। जब पैर में कांटा गड़ जाए, तो सकता है। मन की यह स्वतंत्रता ठीक से समझ लेनी जरूरी है। ।। | बैठ जाएं, दो क्षण ध्यान करें। बाद में कांटा निकालें, जल्दी नहीं
आप अपने शरीर से अलग होकर भी शरीर को देख सकते हैं, है। दो क्षण ध्यान करें और समझें कि कांटा गड़ रहा है, दर्द हो रहा और आप अपने शरीर के साथ एक होकर भी अपने को देख सकते | है। यह शरीर में घट रहा है, मैं जान रहा है। हैं। हम सब अपने को एक होकर ही देख रहे हैं। हमारे दुखों की | | जो भी मौका मिले क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को अलग करने का, उसे सारी मूल जड़ वहां है।
चूकें मत, उसका उपयोग कर लें। शरीर में दुख घटित होते हैं और हम अपने को मानते हैं कि शरीर जब शरीर बीमार पड़ा हो, तब भी; जब शरीर स्वस्थ हो, तब के साथ एक हैं। बच्चा मानता है कि मैं शरीर हूं। जवान मानता है | भी। जब सफलता हाथ लगे, तब भी; और जब असफलता हाथ
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लगे, तब भी। जब कोई गले में फूलमालाएं डालने लगे, तब भी स्मरण रखें कि फूलमालाएं शरीर पर डाली जा रही हैं, मैं सिर्फ देख रहा हूं। और जब कोई जूता फेंक दे, अपमान करे, तब भी जानें कि शरीर पर जूता फेंका गया है, और मैं देख रहा हूं। इसके लिए कोई हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। आप जहां हैं, जो हैं, जैसे हैं, वहीं ज्ञाता को और ज्ञेय को अलग कर लेने की सुविधा है।
न कोई मंदिर का सवाल है, न कोई मस्जिद का, आपकी जिंदगी ही मंदिर है और मस्जिद है। वहां छोटा-छोटा प्रयोग करते रहें । और ध्यान रखें, एक-एक ईंट रखने से महल खड़े हो जाते हैं; छोटे-छोटे प्रयोग करने से परम अनुभूतियां हाथ आ जाती हैं। एक-एक बूंद इकट्ठा होकर सागर निर्मित हो जाता है। और छोटा-छोटा अनुभव इकट्ठा होता चला जाए, तो परम साक्षात्कार तक आदमी पहुंच जाता है। एक छोटे-छोटे कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
तो यह मत सोचें कि छोटे-छोटे अनुभव से क्या होगा। सभी अनुभव जुड़ते जाते हैं, उनका सार इकट्ठा हो जाता है। और धीरे-धीरे आपके भीतर वह इंटीग्रेशन, आपके भीतर वह केंद्र पैदा हो जाता है, जहां से आप फिर बिना प्रयास के निरंतर देख हैं कि आप अलग हैं और शरीर अलग है।
बहुत लोग इसको मंत्र की तरह रटते हैं कि मैं अलग हूं, शरीर अलग है। मंत्र की तरह रटने से कोई फायदा नहीं। इसे तो प्रयोग - भूमि बनाना जरूरी है। बहुत लोग बैठकर रोज सुबह अपनी प्रार्थना - पूजा में कह लेते हैं कि मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं। इस कहने से कुछ लाभ न होगा । और रोज-रोज दोहराने से यह जड़ हो जाएगी बात। इसका कोई मन पर असर भी न होगा। आप इसको मशीन की तरह दोहरा लेंगे। इसका अर्थ भी धीरे-धीरे खो जाएगा।
आमतौर से मेरा अनुभव है कि धार्मिक लोग महत्वपूर्ण शब्दों को दोहरा दोहराकर उनका अर्थ भी नष्ट कर देते हैं। फिर मशीन की तरह दोहराते रहते हैं । पुनरुक्ति करते रहते हैं। तोतों की रटंत हो जाती है। उसका कोई अर्थ नहीं होता।
इसे मंत्र की तरह नहीं, प्रयोग की तरह ! इसे चौबीस घंटे में दस, बीस, पच्चीस बार, जितनी बार संभव हो सके, किसी सिचुएशन में, किसी परिस्थिति में तत्क्षण अपने को तोड़कर अलग देखने का प्रयोग करें। स्नान कर रहे हैं और खयाल करें कि स्नान की घटना शरीर में घट रही है और मैं जान रहा हूं। कुछ भी कर रहे हैं! यहां सुन रहे हैं, तो सुनने की घटना आपके शरीर में घट रही है; और
सुनने की घटना घट रही है, आप जान रहे हैं।
वह जानने वाले को धीरे-धीरे निखारकर अलग करते जाएं। जैसे कोई मूर्तिकार छेनी से काटता है पत्थर को, ऐसे ही जानने वाले को अलग काटते जाएं; और जो जाना जाता है, उसे अलग काटते जाएं। अनुभव को अलग करते जाएं, अनुभोक्ता को अलग करते | जाएं। जरूर एक दिन वह फासला पैदा हो जाएगा, वह दूरी खड़ी हो जाएगी, जहां से चीजें देखी जा सकती हैं।
हे अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं।
यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि पूरब के मुल्कों में और विशेषकर भारत में हमारा जोर विचार पर नहीं है, हमारा जोर ज्ञान पर है। हमारा जोर उस बात पर नहीं है कि हम किन्हीं सिद्धांतों को प्रतिपादित करें। हमारा जोर इस बात पर है कि हम जीवन के अनुभव से कुछ सार निचोड़ें। ये दोनों अलग बातें हैं।
इसको आप सिद्धांत की तरह भी प्रतिपादित कर सकते हैं कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है; जानने वाला अलग है, जो जाना जाता है, वह अलग है। इसको आप एक फिलासफी, एक तत्व - विचार की तरह खड़ा कर सकते हैं। और बड़े तर्क उसके पक्ष और विपक्ष में भी जुटा सकते हैं; बड़े शास्त्र भी निर्मित कर सकते हैं।
लेकिन भारत की मनीषा का आग्रह सिद्धांतों पर जरा भी नहीं है। | जोर इस बात पर है कि जो आप ऐसा मानते हों, तो ऐसा मानते हैं | या जानते हैं ? ऐसी आपकी अपनी अनुभूति है या ऐसा आपका विचार है ?
विचार धोखा दे सकता है। अनुभूति भर धोखा नहीं देती। विचार में डर है। विचार में अक्सर हम उस बात को मान लेते हैं, जो हम मानना चाहते हैं। इसे थोड़ा समझ लें। विचार में एक तरह का विश फुलफिलमेंट, एक तरह की कामनाओं की तृप्ति होती है।
समझें, एक आदमी मौत से डरता है। सभी डरते हैं। तो जो मृत्यु से डरता है, उसे मानने का मन होता है कि आत्मा अमर हो । यह उसकी भीतरी आकांक्षा होती है कि आत्मा न मरे। जब वह गीता में पढ़ता है कि शरीर अलग और आत्मा अलग, और आत्मा नहीं मरती, वह तत्क्षण मान लेता है। मानने का कारण यह नहीं है कि गीता सही है। मानने का कारण यह भी नहीं है कि उसको अनुभव | हुआ है। मानने का कारण कुल इतना है कि वह मौत से डरा हुआ
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है, मृत्यु से भयभीत है। इसलिए कोई भी आसरा देता हो कि आत्मा | उसके पीछे कुछ कारण होना चाहिए। और कारण मेरी समझ में यह अमर है, तो वह कहेगा कि बिलकुल ठीक। जब वह बिलकुल है कि हमारा आत्मवाद अनुभव नहीं है। हमारा आत्मवाद मृत्यु के ठीक कह रहा है, तो सिर्फ मृत्यु के भय के कारण। वह चाहता है भय से पैदा होता है। अधिक लोग मरने से डरते हैं, इसलिए मानते कि आत्मा अमर हो।
हैं कि आत्मा अमर है। __ लेकिन आपकी चाह से सत्य पैदा नहीं होते। आप क्या चाहते अब यह बड़ी उलटी बात है। मरने से जो डरता है, उसे तो हैं, इससे सत्य का कोई संबंध नहीं है। और आप जब तक चाहते आत्मा की अमरता कभी पता नहीं चलेगी। क्योंकि मृत्यु की घटना रहेंगे, तब तक आप सत्य को जान भी न पाएंगे। सत्य को जानना घटती है शरीर में, और जो डर रहा है मृत्यु से, वह शरीर को अपने पड़ेगा आपको चाह को छोड़कर।
साथ एक मान रहा है। इसलिए वह कितना ही मानता रहे ___ तो विचार अक्सर ही स्वयं की छिपी हुई वासनाओं की पूर्ति होते | आत्मवाद, कि आत्मा सत्य है, आत्मा शाश्वत सत्य है; और वह हैं। और हम अपने को समझा लेते हैं। इसलिए अक्सर मेरा अनुभव | | कितना ही दोहराता रहे मन में कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूं, यह है कि जो भी मौत से डरे हुए लोग हैं, वे आत्मवादी हो जाते | लेकिन इन सब के पीछे अनुभव नहीं, इन सब के पीछे एक हैं। इसलिए इस मुल्क में दिखाई पड़ेगा।
सिद्धांत, एक विचार है; और विचार के पीछे छिपी एक वासना है। यह मुल्क इतने दिन तक गुलाम रहा। कोई भी आया और इस | विचार वासना से मुक्त नहीं हो पाता। विचार वासना का ही मुल्क को गुलाम बनाने में बड़ी आसानी रही। जितनी कम से कम बुद्धिगत रूप है। तकलीफ हमने दी गुलाम बनाने वालों को, दुनिया में कोई नहीं | भारत का जोर है अनुभव पर, विचार पर नहीं। भारत कहता है, देता। और बड़े आश्चर्य की बात है कि हम आत्मवादी लोग हैं! | | इसकी फिक्र छोड़ो कि वस्तुतः शरीर और आत्मा अलग हैं या नहीं। हम मानते हैं, आत्मा अमर है। लेकिन मरने से हम इतने डरते हैं | तुम तो यह प्रयोग करके देखो कि जब तुम्हारे शरीर में कोई घटना कि हमें कभी भी गुलाम बनाया जा सका। मौत का डर पैदा हुआ घटती है, तो वह घटना शरीर में घटती है या तुममें घटती है? तुम कि हम गुलाम हो गए। अगर हमें कोई डरा दे कि मौत करीब है, | उसे जानते हो? फासले से खड़े होकर देखते हो? या उस घटना के तो हम कुछ भी करने को राजी हो गए!
| साथ एक हो जाते हो? यह बड़ा असंगत मालूम पड़ता है। यह होना नहीं चाहिए। कोई भी व्यक्ति थोड़ी-सी सजगता का प्रयोग करे, तो उसे आत्मवादी मुल्क को तो गुलाम कोई बना ही नहीं सकता। क्योंकि प्रतीति होनी शुरू हो जाएगी कि मैं अलग हूं। और तब दोहराना न जिसको यही पता है कि आत्मा नहीं मरती, उसे आप डरा नहीं पड़ेगा कि मैं शरीर से अलग है। यह हमारा अनुभव होगा। सकते। और जिसको डरा नहीं सकते, उसे गुलाम कैसे बनाइएगा? | | कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा जानता है-स्वयं को क्षेत्रज्ञ, शरीर को
गुलामी का सूत्र तो भय है। जिसको भयभीत किया जा सके, | क्षेत्र—उस तत्व को जानने वाले को ज्ञानी कहते हैं। और हे अर्जुन, उसको गुलाम बनाया जा सकता है। और जिसको भयभीत न किया तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जा सके, उसे कैसे गुलाम बनाइएगा? और आत्मवादी को कैसे | अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्व से जानना भयभीत किया जा सकता है?
है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। जो जानता है कि आत्मा मरती ही नहीं, अब उसे भयभीत करने दूसरी प्रस्तावना। पहली तो बात, विचार से यह प्रतीति कभी न का कोई भी उपाय नहीं है। आप उसका शरीर काट डालें, तो वह | हो पाएगी, अनुभव से प्रतीति होगी। और जिस दिन यह प्रतीति हंसता रहेगा। और वह कहेगा कि व्यर्थ मेहनत कर रहे हो, क्योंकि | होगी कि मैं शरीर नहीं हूं, आत्मा है, उस दिन यह भी प्रतीति होगी जिसे तुम काट रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और मैं तुम्हारे काटने से | कि वह आत्मा सभी के भीतर एक है। कटूंगा नहीं। इसलिए काटने पर भरोसा मत करो। तुम काटने से | | ऐसा समझें कि बहुत-से घड़े रखे हों पानी भरे, नदी में ही रख मुझे डरा न सकोगे। तुम काटकर मेरे शरीर को मिटा दोगे, लेकिन दिए हों। हर घड़े में नदी का पानी भर गया हो। घड़े के बाहर भी तुम मुझे गुलाम न बना सकोगे।
नदी हो, भीतर भी नदी हो। लेकिन जो घड़ा अपने को समझता हो लेकिन आत्मवादी मुल्क इतनी आसानी से गुलाम बनता रहा है। | कि यह मिट्टी की देह ही मैं हूं, उसे पड़ोस में रखा हुआ घड़ा दूसरा
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मालूम पड़ेगा। लेकिन जो घड़ा इस अनुभव को उपलब्ध हो जाए कि भीतर भरा हुआ जल मैं हूं, तत्क्षण पड़ोसी भी मिट जाएगा। उसकी मिट्टी की देह भी व्यर्थ हो जाएगी। उसके भीतर का जल ही सार्थक हो जाएगा। जल तो दोनों के भीतर एक है।
चैतन्य तो सबके भीतर एक है। दीए अलग-अलग हैं मिट्टी के, उनके भीतर ज्योति तो एक है, उनके भीतर सूरज का प्रकाश तो एक हैं।
सब दीयों के भीतर एक ही सूरज जलता है, बड़े से बड़े दीए के भीतर और छोटे से छोटे दीए के भीतर। जो सूरज में है, वही रात जुगनू में भी चमकता है। जुगनू कितनी ही छोटी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सूरज कितना ही बड़ा हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। बड़े-छोटे से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह जो प्रकाश की घटना है, वह जो प्रकाश का तत्व है, वह एक है ।
जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर से थोड़ा पीछे हटता है, अपने भीतर ही खड़े होकर देखता है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही दूसरी बात भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, दूसरा द्वार भी खुल जाता है। तब सभी के भीतर वह जो जानने वाला है, वह एक है ।
तो कृष्ण कहते हैं, वह जो सभी के भीतर क्षेत्रज्ञ है, वह तू मुझे ही जान। सबके भीतर से मैं ही जान रहा हूं।
यह एक बहुत नया आयाम है। परमात्मा जगत को बनाने वाला नहीं है; परमात्मा सब तरफ से जगत को जानने वाला है, सबके भीतर से ।
एक कबूतर बैठकर देख रहा है; एक छोटा बच्चा देख रहा है; अब तो वे कहते हैं कि फूल भी खिलता है, उसके पास भी बड़ी सूक्ष्म आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वे कहते हैं, वृक्षों के पास भी आंखें हैं, वह भी देख रहा है। अब तो वैज्ञानिक भी कहते हैं कि सभी चीजें देख रही हैं। सभी चीजें अनुभव कर रही हैं। सभी भीतर अनुभोक्ता बैठा है।
वह जो सबके भीतर से जान रहा है, कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं। परमात्मा कहीं दूर नहीं है। कहीं फासले पर नहीं है। निकट से भी निकट है।
एक ईसाई फकीर संत लयोला ने एक छोटे-से ध्यान के प्रयोग की बात कही है। वह ध्यान का प्रयोग कीमती है और चाहें तो आप कर सकते हैं और अनूठा है। जिस किसी व्यक्ति को आप बहुत प्रेम करते हों, उसके सामने बैठ जाएं। स्नान कर लें, जैसे मंदिर में प्रवेश करने जा रहे हों । द्वार- दरवाजे बंद कर लें, ताकि कोई
| आपको बाधा न दे। और एकटक दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की आंख में झांकना शुरू कर दें। सिर्फ एक-दूसरे की आंख में झांकें, और सब भूल जाएं। सब तरफ से ध्यान हटा लें और एक-दूसरे की आंख में अपने को उंडेलना शुरू कर दें। चाहे आपका छोटा बच्चा ही हो; जिससे भी आपका लगाव हो ।
लगाव हो तो अच्छा, क्योंकि जरा आसानी से आप भीतर प्रवेश कर सकेंगे। क्योंकि जिससे आपका लगाव न हो, उससे हटने का मन होता है। जिससे आपका लगाव हो, उसमें प्रवेश करने का मन होता है। हमारा प्रेम एक-दूसरे में प्रवेश करने की आकांक्षा ही है।
तो जिससे थोड़ा प्रेम हो, उसकी आंखों में झांकें, एकटक, और उससे भी कहें कि वह भी आंखों में झांके । और पूरी यह कोशिश करें कि सारी दुनिया मिट जाए। बस, वे दो आंखें रह जाएं और आप उसमें यात्रा पर निकल जाएं।
एक दो-चार दिन के ही प्रयोग से, एक आधा घंटा रोज करने से | आप चकित हो जाएंगे। आपके सारे विचार खो जाएंगे। जो विचार आप लाख कोशिश करके बंद नहीं कर सके थे, वे बंद हो जाएंगे। | और एक अनूठा अनुभव होगा। जैसे कि आप दूसरे व्यक्ति में सरक रहे हैं, आंखों के द्वारा उतर रहे हैं। आंखें जैसे रास्ता बन गईं।
अगर इस प्रयोग को आप जारी रखें, तो एक महीने, पंद्रह दिन के भीतर एक अनूठी प्रतीति किसी दिन होगी । और वह प्रतीति यह होगी कि आपको यह समझ में न आएगा कि वह जो दूसरे के भीतर बैठा है, वह आप हैं; या जो आपके भीतर बैठा है, वह आप हैं। शरीर भूल जाएंगे और दो चेतनाएं, घड़े हट जाएंगे और दो जल की धाराएं मिल जाएंगी।
और एक बार आपको यह खयाल में आ जाए कि दूसरे के भी भीतर जो बैठा है, वह ठीक मेरे ही जैसा चैतन्य है, मैं ही बैठा हूं, तब फिर आप हर दरवाजे पर झांक सकते हैं और हर दरवाजे के भीतर आप उसको ही छिपा हुआ पाएंगे।
आपने वह चित्र देखा होगा, जिसमें कृष्ण सब में छिपे हैं, गाय में भी, वृक्ष में भी, पत्ते में भी, सखियों में भी। वह किसी कवि की कल्पना नहीं है, और वह किसी चित्रकार की सूझ नहीं है। वह | किन्हीं अनुभवियों का अनुभव है। एक बार आपको अपनी प्रतीति हो जाए शरीर से अलग, तो आपको पता लगेगा कि यही चैतन्य सभी तरफ बैठा हुआ है। इस चैतन्य की मौजूदगी ही परमात्मा की मौजूदगी का अनुभव है।
जिस क्षण आप शरीर से हटते हैं, यह पहला कदम । दूसरे ही
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FO गीता दर्शन भाग-60
क्षण आप अपने से भी हट जाते हैं, वह दूसरा कदम। शरीर के साथ | हम कोई शब्द न देंगे। क्योंकि सभी शब्द सीमित हैं और बांध लेते मैं एक हूं, इससे अहंकार निर्मित होता है। शरीर के साथ मैं एक हैं। और वह असीम है, जो घटेगा। नहीं हूं, अहंकार टूट जाता है।
इसलिए बुद्ध ने कहा कि शरीर के साथ तादात्म्य के छूटते ही ऐसा समझें कि शरीर और आपके बीच जो सेतु है, वह अहंकार आत्मा भी मिट जाती है। जो बच रहता है, उसे कृष्ण परमात्मा कहते है। शरीर और आपके बीच जो तादात्म्य का भाव है, वही मैं हूं। | हैं, बुद्ध अनात्मा कहते हैं। वे कहते हैं, इतना पक्का है कि तुम नहीं जैसे ही शरीर से मैं अलग हआ, मैं भी गिर जाता है। फिर जो बच बचते। बाकी जो बचता है, उसके लिए कुछ भी कहना उचित नहीं रह जाता है, वही कृष्ण-तत्व है। उसे कोई राम-तत्व कहे, कोई है। उस संबंध में चुप रह जाना उचित है। क्राइस्ट-तत्व कहे, जो भी नाम देना चाहे, नाम दे। नाम न देना क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का, विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से चाहे, तो भी कोई हर्जा नहीं।
भेद जानता है...। लेकिन शरीर के साथ हटते ही आप भी मिट जाते हैं. आपका एक तो आपके भीतर संयोग घटित हो रहा है प्रतिपल, आप एक मैं होना मिट जाता है। और यह जो न-मैं होने का अनुभव है, कृष्ण संगम हैं। आप एक मिलन हैं दो तत्वों का। एक तो प्रकृति है, जो कहते हैं, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान।
दृश्य है। विज्ञान जिसकी खोज करता है, पदार्थ, जो पकड़ में आ सब की आंखों से मैं ही झांकता हूं। सभी के हाथों से मैं ही स्पर्श | जाता है इंद्रियों के, यंत्रों के और जिसकी खोजबीन की जा सकती है। करता हूं। सभी के पैरों से मैं ही चलता हूं। सभी की श्वास भी मैं और एक आपके भीतर तत्व है, जो इंद्रियों से पकड़ में नहीं आता हूं और सभी के भीतर मैं ही जीता और मैं ही विदा होता हूं। जन्म और फिर भी है। और अगर आपको काटें-पीटें, तो तिरोहित हो में भी मैं प्रवेश करता हूं और मृत्यु में भी मैं विदा होता हूं। जाता है। जो हाथ में आता है, वह पदार्थ रह जाता है। लेकिन
व्यक्ति का बोध ही शरीर और चेतना के जोड़ से पैदा होता है। आपके भीतर एक तत्व है, जो पदार्थ को जानता है। सिर्फ तादात्म्य का खयाल अस्मिता और अहंकार को जन्म देता है। वह जो जानने की प्रक्रिया है—मेरे हाथ में दर्द हो रहा है, तो मैं शरीर से अलग होने का खयाल, और अस्मिता खो जाती है, | जानता हूं-यह जानना क्या है मेरे भीतर? कितना ही मेरे शरीर को अहंकार खो जाता है।
काटा जाए, उस जानने वाले तत्व को नहीं पकड़ा जा सकता। इसलिए बुद्ध ने तो यहां तक कहा कि जैसे ही यह पता चल जाता शायद काटने-पीटने की प्रक्रिया में वह खो जाता है। शायद उसकी है कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे ही यह भी पता चल जाता है कि कोई मौजूदगी को अनुभव करने का कोई और उपाय है। विज्ञान का आत्मा नहीं है।
उपाय उसका उपाय नहीं है। यह बड़ा कठिन वक्तव्य है। और बहुत जटिल है, और समझने | धर्म उसकी ही खोज है। विज्ञान है ज्ञेय की खोज, क्षेत्र की। और में बड़ी कठिनाई है। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि जैसे ही यह खयाल | धर्म है ज्ञाता की खोज, क्षेत्रज्ञ की। मिट गया कि शरीर मैं हूं, वैसे ही आत्मा भी नहीं होती है। लेकिन याद आता है मुझे, आइंस्टीन ने मरने के कुछ दिन पहले कहा बुद्ध नकारात्मक ढंग से उसी बात को कह रहे हैं, जिसे कृष्ण | कि सब मैंने जानने की कोशिश की। दूर से दूर जो तारा है, उसे विधायक ढंग से कह रहे हैं।
| जानने की कोशिश की। पदार्थ के भीतर दर से दर छिपी हई जो अण कृष्ण कहते हैं, तुम नहीं होते, मैं होता हूं। कृष्ण कह रहे हैं, शक्ति है, उसे जानने की मैंने कोशिश की। लेकिन इधर बाद के तुम्हारा मिटना हो जाता है और कृष्ण का रहना हो जाता है। बुद्ध | दिनों में मैं इस रहस्य से अभिभूत होता चला जा रहा हूं कि यह जो कहते हैं, मैं मिट जाता हूं। और उसकी कोई बात नहीं करते, जो | जानने की कोशिश करने वाला मेरे भीतर था, यह कौन था? यह बचता है। क्योंकि वे कहते हैं, बचने की बात करनी व्यर्थ है। उसे | कौन था, जो अणु को तोड़ रहा था और खोज रहा था? यह कौन तो अनुभव ही करना चाहिए। वहां तक कहना ठीक है, जहां तक | था, जो दूर के तारे की तलाश में था? यह खोज कौन कर रहा था? इलाज है। स्वास्थ्य की हम कोई चर्चा न करेंगे। उसका तुम खुद ही | । आइंस्टीन की पत्नी से निरंतर लोग पूछते थे कि आपके पति ने अनुभव कर लेना। निदान हम कर देते हैं, चिकित्सा हम कर देते | जो बहुत कठिन और जटिल सिद्धांत प्रस्तावित किया है थिअरी हैं। चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य का कैसा स्वाद होगा, उसके लिए आफ रिलेटिविटी का, सापेक्षता का, उसके संबंध में आप भी कुछ
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दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
लेना है, जो शुद्ध है।
महावीर ने उसे केवल - ज्ञान कहा है। जहां ज्ञाता का भी खयाल नहीं रह जाता, सिर्फ जानने की शुद्धतम घटना रह जाती है। जहां मैं सिर्फ जानता हूं, और कुछ भी नहीं करता ।
एक घड़ीभर के लिए रोज चौबीस घड़ी में से, इस भीतर की | खोज के लिए निकाल लें। तेईस घंटे दे दें शरीर के लिए और एक घंटा बचा लें अपने लिए।
समझती हैं या नहीं?
स्वभावतः आइंस्टीन की पत्नी को लोग पूछ लेते थे कि आप भी यह सापेक्षता के जटिल सिद्धांत को समझती हैं या नहीं ? तो आइंस्टीन की पत्नी निरंतर कहा करती थी कि मुझे इस सिद्धांत का तो कोई पता नहीं। डाक्टर आइंस्टीन ने जो सिद्धांत को जन्म दिया है, उसे तो मैं बिलकुल नहीं समझती, लेकिन डाक्टर आइंस्टीन को मैं भलीभांति समझती हूं।
आइंस्टीन ने यह बात एक दफा किसी से कहते हुए पत्नी को सुन लिया। तो उस पर वह बहुत सोचता रहा। एक तो आइंस्टीन ने जो खोज की है, वह और एक पत्नी की भी खोज है। वह कहती है कि मैं डाक्टर आइंस्टीन को समझती हूं। उन्होंने क्या खोजा है, उसका मुझे कुछ पता नहीं। उनके सिद्धांत मेरी समझ के बाहर हैं, लेकिन मैं डाक्टर आइंस्टीन को, खोज करने वाला वह जो छिपा है भीतर, उसको मैं थोड़ा समझती हूं।
तो आइंस्टीन तो विज्ञान के रास्ते से खोज कर रहा है; पत्नी प्रेम के रास्ते से खोज कर रही है। आइंस्टीन तो पदार्थ को तोड़कर खोज कर रहा है। पत्नी किन्हीं अदृश्य रास्तों से बिना तोड़े प्रवेश कर रही है और खोज कर रही है। आइंस्टीन तो इंद्रियों के माध्यम से कुछ विश्लेषण में लगा है। पत्नी किसी अतींद्रिय मार्ग से प्रवेश कर रही है।
प्रेम हो, कि प्रार्थना हो, कि ध्यान हो, सभी उस अदृश्य की खोज हैं, जो सभी दृश्य के भीतर छिपा हुआ है। और जब तक व्यक्ति उसे खोजने नहीं चल पड़ा है, तब तक वह क्षेत्र के जगत में कितना ही इकट्ठा कर ले, दरिद्र ही रहेगा। और कितने ही बड़े महल बना ले, और कितनी ही बड़ी सख्त दीवालें सुरक्षा की तैयार कर ले, असुरक्षित ही रहेगा। और कुछ भी पा ले, आखिर में मरेगा, तब वह पाएगा कि गरीब, दीन, दुखी, भिखारी मर रहा है। क्योंकि असली संपदा का स्रोत क्षेत्र में नहीं है। असली संपदा का स्रोत उसमें है, जो इस क्षेत्र के भीतर छिपा है और जानता है।
ज्ञान मनुष्य की गरिमा है । और ज्ञान का जो तत्व है, वह इस बात में, इस विश्लेषण में, इस भेद-विज्ञान में है कि मैं अपने को पृथक करके देख लूं उससे, जिसमें मैं हूं ।
जैसे फूल की सुगंध उड़ जाती है दूर, ऐसे ही व्यक्ति को सीखना पड़ता है अपने शरीर से दूर उड़ने की कला। जैसे सुगंध अदृश्य में खो जाती है और दृश्य फूल खड़ा रह जाता है, ऐसे ही स्वयं के ज्ञान के में निचोड़ करना है और धीरे-धीरे उस ज्ञान को ही बच्चा फूल
वह आदमी व्यर्थ जी रहा है, जिसके पास एक घंटा भी अपने लिए नहीं है। वह आदमी जी ही नहीं रहा, जो एक घंटा भी अपनी इस भीतर की खोज के लिए नहीं लगा रहा है। क्योंकि आखिर में जब सारा हिसाब होता है, तो जो भी हमने शरीर के तल पर कमाया है, वह तो मौत छीन लेती है; और जो हमने भीतर के तल पर कमाया है, वही केवल मौत नहीं छीन पाती। वही हमारे साथ होता है।
इसे खयाल रखें कि मौत आपसे कुछ छीनेगी, उस समय आपके | पास बचाने योग्य है, कुछ भी ? अगर नहीं है, तो जल्दी करें। और एक घंटा कम से कम रोज क्षेत्रज्ञ की तलाश में लगा दें।
इतना ही करें, बैठ जाएं घंटेभर । कुछ भी न करें, एक बहुत छोटा-सा प्रयोग करें। इतना ही करें कि तादात्म्य न करूंगा घंटेभर, आइडेंटिफिकेशन न करूंगा घंटेभर। घंटेभर बैठ जाएं। पैर में चींटी काटेगी, तो मैं ऐसा अनुभव करूंगा कि चींटी काटती है, ऐसा मुझे पता चल रहा है। मुझे चींटी काट रही है, ऐसा नहीं ।
इसका यह मतलब नहीं कि चींटी काटती रहे और आप अकड़कर बैठे रहें। आप चींटी को हटा दें, लेकिन यह ध्यान रखें कि मैं जान रहा हूं कि शरीर चींटी को हटा रहा है। चींटी काट रही है, यह भी मैं जान रहा हूं। शरीर चींटी को हटा रहा है, यह भी मैं जान रहा हूं। सिर्फ मैं जान रहा हूं।
पैर में दर्द शुरू हो गया बैठे-बैठे, तो मैं जान रहा हूं कि पैर में दर्द आ गया। फिर पैर को फैला लें। कोई जरूरत नहीं है कि उसको | अकड़ाकर बैठे रहें और परेशान हों। पैर को फैला लें। लेकिन जानते रहें कि पैर फैल रहा है कष्ट के कारण, मैं जान रहा हूं।
भीतर एक घंटा एक ही काम करें कि किसी भी कृत्य से अपने को न जोड़ें, और किसी भी घटना से अपने को न जोड़ें। आप एक तीन महीने के भीतर ही गीता के इस सूत्र को अनुभव करने लगेंगे, जो कि आप तीस जन्मों तक भी गीता पढ़ते रहें, तो अनुभव नहीं होगा।
एक घंटा, मैं सिर्फ ज्ञाता हूं, इसमें डूबे रहें। कुछ भी हो, पत्नी जोर से बर्तन पटक दे...। क्योंकि पति जब ध्यान करे, तो पत्नी
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
बर्तन पटकेगी। या पत्नी ध्यान करे, तो पति रेडिओ जोर से चला | | जिंदगी में भूलता नहीं। सब चीजें भूल जाती हैं, लेकिन दो चीजें, देगा, अखबार पढ़ने लगेगा; बच्चे उपद्रव मचाने लगेंगे। | तैरना और साइकिल चलाना नहीं भूलती हैं। सब चीजें भूल जाती
जब बर्तन जोर से गिरे. तो आप यही जानना कि बर्तन गिर रहा हैं। जो भी आपने सीखी हैं. भल जाएंगी। फिर से सीखना पडेंगी। है, आवाज हो रही है, मैं जान रहा है। अगर आपके भीतर धक्का हालांकि दुबारा आप जल्दी सीख लेंगे, लेकिन सीखना पड़ेंगी। भी लग जाए, शॉक भी लग जाए, तो भी आप यह जानना कि मेरे | लेकिन साइकिल चलाना और तैरना, दो चीजें हैं, जो आपने पचास भीतर धक्का लगा, शॉक लगा। मेरा मन विक्षुब्ध हुआ, यह मैं जान साल तक भी न की हों, आप एकदम से बैठ जाएं साइकिल रहा हूं। आप अपना संबंध जानने वाले से ही जोड़े रखना और | पर-चलेगी! किसी चीज से मत जुड़ने देना।
___ उसका कारण? तैरना और साइकिल चलाना एक ही तरह की इससे बड़े ध्यान की कोई प्रक्रिया नहीं है। कोई जरूरत नहीं है | घटना है, संतुलन। और वह संतुलन बौद्धिक नहीं है। वह संतुलन प्रार्थना की, ध्यान की; फिर कोई जरूरत नहीं है। बस, एक घंटा बौद्धिक नहीं है, इसलिए आप बता भी नहीं सकते कि आप कैसे इतना खयाल कर लें। थोड़े ही दिन में यह कला आपको सध करते हैं। आप करके बता सकते हैं, कि मैं साइकिल चलाकर बताए जाएगी। और बताना कठिन है कि कला कैसे सधती है। आप करें, देता हूं, लेकिन क्या करता हूं, यह मुझे भी पता नहीं है। कुछ करते सध जाए, तो ही आपको समझ में आएगा।
आप जरूर हैं. लेकिन वह करना इतना ससंगठित है. इतना करीब-करीब ऐसा, जैसे किसी बच्चे को साइकिल चलाना आप | | इंटिग्रेटेड है, आपका पूरा शरीर, मन सब इतना समाविष्ट है उसमें। सिखाएं। तो बच्चा यह पूछे कि साइकिल चलाना कैसे आता है, तो | | और वह आपने सिद्धांत की तरह नहीं सीखा है; वह आपने आप भला चलाते हों जिंदगीभर से, तो भी नहीं बता सकते कि कैसे साइकिल पर गिरकर, चलाकर, उठकर सीखा है। वह आप सीख आता है। और बच्चा आपसे पूछे कि कोई तरकीब सरल में बता दें, गए हैं। वह आपकी कला बन गई है। जिससे कि मैं पैर रखू पैडिल पर, साइकिल पर बैलूं और चल पडूं।। कला और विज्ञान में यही फर्क है। विज्ञान शास्त्र से भी सीखा तो भी आप कहेंगे कि नहीं, वह तरकीब सरल में नहीं बताई जा | | जा सकता है। कला सिर्फ अनुभव से सीखी जा सकती है। विज्ञान सकती। दस-पांच दफा तू गिरेगा ही। उस गिरने में ही वह तरकीब किताब में लिखकर दिया जा सकता है। कला लिखकर नहीं दी जा निखरती है। क्योंकि वह एक बैलेंस है, जो बताया नहीं जा सकता। सकती है।
आखिर साइकिल दो चाक पर चल रही है: एक संतलन है। परे। इसलिए धर्म में गरु का इतना स्थान है। उसका स्थान इसीलिए वक्त शरीर संतुलित हो रहा है। जरा इधर साइकिल झुकती है, तो | | है कि वह कुछ जानता है, जिसको वह भी आपको कह नहीं सकता, शरीर दूसरी तरफ झुक जाता है। और संतुलन गति के साथ ही बन वह भी आपको करवा सकता है। आप भी गिरेंगे, उठेंगे, और एक सकता है। अगर गति बहुत धीमी हो जाए, तो संतुलन बिगड़ दिन सीख जाएंगे। उसकी छाया में आप भयभीत न होंगे; गिरेंगे तो जाएगा। अगर गति बहुत ज्यादा हो जाए, तो भी संतुलन बिगड़ | भी डरेंगे नहीं। उसके भरोसे में, उसकी आस्था में आप आशा जाएगा।
बनाए रखेंगे, कि आज गिर रहा हूं, तो कल चलने लगूंगा। उसकी तो दो तरह के संतुलन हैं। एक तो गति की एक सीमा, और छत्र-छाया में आपको आसानी होगी कला सीख लेने की। शरीर के साथ संतुलन, कि बाएं-दाएं कहीं ज्यादा न झुक जाए। ध्यान एक कला है, गहनतम कला है और करने से ही आती है। आप भी नहीं बता सकते; साइकिल आप चलाते हैं, आप भी नहीं आप इस छोटे-से प्रयोग को करें, एक घड़ी; चाहे कुछ भी हो बता सकते कि आप कैसे करते हैं यह संतुलन। आपको पता भी | जाए। बहुत मुश्किल पड़ेगी, क्योंकि बार-बार मन तादात्म्य कर नहीं चलता; यह कला आपको आ जाती है। दो-चार बार आप लेगा। पैर में चींटी काटेगी और आप तत्क्षण समझेंगे कि मुझे चींटी गिरते हैं, दो-चार बार गिरकर आपको बीच-बीच में ऐसा लगता | | ने काट लिया। और आपको पता भी नहीं चलेगा, आपका हाथ है कि नहीं गिरे। थोड़ी दूर साइकिल चल भी गई। आपको भीतर | चींटी को फेंक देगा और आप समझेंगे कि मैंने चींटी को हटा दिया। संतुलन का अनुभव होना शुरू हो जाता है।
मगर थोड़े दिन कोशिश करने पर-साइकिल जैसा चलाने पर फिर एक दफा आदमी साइकिल चलाना सीख ले, तो फिर आदमी गिरेगा, उठेगा-बहुत बार तादात्म्य हो जाएगा, उसका
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( दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
मतलब आप गिर गए। कभी-कभी तादात्म्य छूटेगा, उसका एक चीज से बचेंगे और दूसरी चीज में तादात्म्य हो जाएगा। लेकिन मतलब, दो कदम साइकिल चल गई। लेकिन जब पहली दफा दो | जारी रखें। किसी चीज से जुड़े मत। और एक ही खयाल रखें कि कदम भी साइकिल चलती है, तो जो आनंद का अनुभव होता है! | मैं जानने वाला, मैं जानने वाला, मैं जानने वाला। आप मुक्त हो गए; एक कला आ गई; एक नया अनुभव! आप | मैं ऐसा कह रहा हूं, इसका मतलब यह नहीं कि आप भीतर हवा में तैरने लगे।
दोहराते रहें कि मैं जानने वाला, मैं जानने वाला। अगर आप यह जब पहली दफा कोई दो हाथ मारता है, और तैर लेता है, और | | दोहरा रहे हैं, तो आप भूल में पड़ गए, क्योंकि यह दोहराने वाला पानी की ताकत से मुक्त हो जाता है, और पानी अब डुबा नहीं | | शरीर ही है। यह अगर आप दोहरा रहे हैं, तो इसको भी जानने वाला सकता. आप मालिक हो गए. तो वह जो आनंद अनभव होता है मैं हं। जो जान रहा है कि यह बात दोहराई जा रही है. कि मैं जानने तैरने वाले को, वह जिन्होंने तैरा नहीं है, उन्हें कभी अनुभव नहीं हो | वाला, मैं जानने वाला। इसको भीतर बारीक काटते जाना है और सकता। पानी पर विजय मिल गई!
एक ही जगह खड़े होने की कला सीखनी है कि मैं सिर्फ ज्ञान हूं। जब आप ध्यान में तैरना सीख जाते हैं, तो शरीर पर विजय मिल शब्द मैं नहीं हूं। ऐसा दोहराना नहीं है भीतर। ऐसा भीतर जानना है जाती है। और वह गहनतम कला है। मगर आप करें, तो ही यह हो | कि मैं ज्ञान हूं। और तोड़ना है सब तादात्म्य से। तो आपको पता सकता है।
चलेगा कि शरीर क्षेत्र है, शरीर के भीतर छिपे आप क्षेत्रज्ञ हैं। और यह सूत्र बड़ा कीमती है। यह साधारण मेथड और विधियों और यह जो क्षेत्रज्ञ है, यह कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं। इस भेद को जैसा नहीं है, कि कोई किसी को मंत्र दे देता है, कि मंत्र बैठकर जो जान लेता है, वही ज्ञानी है। घोंटते रहो। कोई कुछ और कर देता है। यह बहुत सीधा, सरल, | इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है साफ है, लेकिन ज्यादा समय लेगा।
और जिस कारण से हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस मंत्र इत्यादि का जप करने से जल्दी कुछ घटनाएं घटनी शुरू हो प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन। जाती हैं। लेकिन उन घटनाओं का बहुत मूल्य नहीं है। मंत्र की यात्रा - कृष्ण कहते हैं, अब मैं तुझसे कहूंगा संक्षेप में वह सब, कि यह से जाने वाले व्यक्ति को भी आखिर में इस सूत्र का उपयोग करना | | शरीर कैसे हुआ है, यह क्षेत्र क्या है, इसका गुणधर्म क्या है। और पड़ता है और उसे भीतर यह अनुभव करना पड़ता है कि जो मंत्र | | इसके भीतर जो जानने वाला है, वह क्या है, उसका गुणधर्म क्या है। बोल रहा है, वह मैं नहीं हूं। और वह जो मंत्र का जपन चल रहा लेकिन कृष्ण से इसे सुना जा सकता है, लेकिन कृष्ण से सुनकर है, वह मैं नहीं हूं। उसे अंत में यह भी अनुभव करना पड़ता है कि इसे जाना नहीं जा सकता। वह जो ओम का भीतर पाठ हो रहा है, वह भी मैं देख रहा है. सन । एक बात सदा के लिए खयाल में रख लें, और उसे कभी न रहा हूं, मैं नहीं हूं।
भूलें, कि ज्ञान कोई भी आपको दे नहीं सकता। यह जितनी गहराई इस सूत्र का उपयोग तो करना ही पड़ता है। किसी भी विधि का से भीतर बैठ जाए, उतना अच्छा है। ज्ञान कोई भी आपको दे नहीं कोई उपयोग करे, अगर इस सूत्र का बिना उपयोग किए कोई किसी | | सकता। मार्ग बताया जा सकता है, लेकिन चलना आपको ही विधि का प्रयोग करता हो, तो वह आज नहीं कल, आत्म-मूर्छा | | पड़ेगा। और मंजिल मार्ग बताने से नहीं मिलती; मार्ग जान लिया में पड़ जाएगा। यह सूत्र बुनियादी है। और सभी विधियों के प्रारंभ | | इससे भी नहीं मिलती; मार्ग चलने से ही मिलती है। में, मध्य में, या अंत में कहीं न कहीं यह सूत्र मौजूद रहेगा। और आपके लिए कोई दूसरा चल भी नहीं सकता। नहीं तो बुद्ध
इससे उचित है कि विधियों की फिक्र ही छोड़ दें। सीधे इस सूत्र और कृष्ण की करुणा बहुत है। क्राइस्ट और मोहम्मद की करुणा पर ही काम करें। एक घंटा निकाल लें, और चाहे कितनी ही बहुत है। अगर वे चल सकते होते आपके लिए, तो वे चल लिए अड़चन मालूम पड़े...।
| होते। और अगर ज्ञान दिया जा सकता होता, तो एक कृष्ण काफी बड़ी अड़चन मालूम होगी। भीतर सब पसीना-पसीना हो थे; सारा जगत ज्ञान से भर जाता, क्योंकि ज्ञान दिया जा सकता। जाएगा-शरीर नहीं, भीतर-बहुत पसीना-पसीना हो जाएंगे। लेकिन कितने ज्ञानी हो जाते हैं और अज्ञान जरा भी कटता नहीं बड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी। हर मिनट पर चूक हो जाएगी। हर बार दिखाई पड़ता!
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गीता दर्शन भाग-60
मेरे पास लोग आते हैं। वे पूछते हैं, कृष्ण हुए, महावीर हुए, बुद्ध वासनाओं को पूरा करने वाली हैं, कई अभीप्साओं को पूरा करने हए, क्या फायदा? आदमी तो वैसा का वैसा है। तो क्या सार हुआ? वाली हैं। यह कौन नहीं चाहता कि शरीर से छुट
उनका कहना थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि वे सोचते हैं कि एक युवती मेरे पास आई इटली से। शरीर उसका भारी है, बहुत अगर एक आइंस्टीन हो जाता है, तो वह जो भी ज्ञान है, फिर सदा मोटा, बहुत वजनी। कुरूप हो गया है। मांस ही मांस हो गया है के लिए आदमी को मिल जाता है। एक आदमी ने खोज ली कि | शरीर पर। चरबी ही चरबी है। उसने मुझे एक बड़े मजे की बात बिजली क्या है, तो फिर हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है। कही। उसने यहां कोई तीन महीने ध्यान किया मेरे पास। और एक आप घर में जब बटन दबाते हैं, तो आपको कोई बिजली का ज्ञाता | | दिन आकर उसने मुझे कहा कि आज मुझे ध्यान में बड़ा आनंद होने की जरूरत नहीं है, कि आपको पक्का पता हो कि बिजली क्या आया। मैंने पूछा, क्या हुआ तुझे? तो उसने कहा, आज मुझे ध्यान है और कैसे काम करती है। आप बटन दबाते हैं, खतम हुई बात। | में अनुभव हुआ कि मैं शरीर नहीं हूं। और इस शरीर से मुझे बड़ी अब दुनिया में किसी को जानने की जरूरत नहीं है। बाकी लोग पीड़ा है; कोई मुझे प्रेम नहीं करता है। और एक युवक मेरे प्रेम में उपयोग कर लेंगे।
भी गिर गया था, तो उसने मुझसे कहा कि मैं तेरी सिर्फ आत्मा को विज्ञान का जो ज्ञान है, वह हस्तांतरणीय है। वह एक दूसरे को | प्रेम करता है, तेरे शरीर को नहीं। दे सकता है। वह उधार हो सकता है। क्योंकि बाहर की चीज है, ___ अब किसी स्त्री से आप यह कहिए कि मैं तेरी सिर्फ आत्मा को दी जा सकती है।
प्रेम करता हूं, तेरे शरीर को नहीं! तो उस युवक ने कहा कि मैं तेरे आपके पिता जब मरेंगे, तो उनकी जो बाह्य संपत्ति है, उसके | शरीर को प्रेम नहीं कर सकता। बिलकुल असंभव है। मैं तेरी आत्मा आप अधिकारी हो जाएंगे। उनका मकान आपको मिल जाएगा। को प्रेम करता हूं। लेकिन इससे कोई तृप्ति तो हो नहीं सकती। उनकी किताबें आपको मिल जाएंगी। उनकी तिजोड़ी आपको मिल उसने कहा, आज मुझे ध्यान में बड़ा आनंद आया, क्योंकि मुझे जाएगी। लेकिन उन्होंने जो जाना था अपने अंतरतम में, वह आपको | ऐसा अनुभव हुआ कि मैं शरीर नहीं हूं। तो मेरी जो एक ग्लानि है नहीं मिलेगा। उसको देने का कोई उपाय नहीं है। बाप भी बेटे को मेरे शरीर के प्रति, उससे मुझे छुटकारा हुआ। नहीं दे सकता। उसे दिया ही नहीं जा सकता, जब तक कि आप ही | तो मैंने उससे पूछा कि यह तुझे ध्यान के कारण हुआ या तेरे मन उसे न पा लें।
में सदा से यह भाव है कि किसी तरह यह खयाल में आ जाए कि ज्ञान पाया जा सकता है, दिया नहीं जा सकता। उपलब्ध है; आप | मैं शरीर नहीं हूं, तो इस शरीर को दुबला करने की झंझट, इस शरीर पाना चाहें तो पा सकते हैं। लेकिन कोई भी आपको दे नहीं सकता। | को रास्ते पर लाने की झंझट मिट जाए?
तो कृष्ण कहेंगे जरूर, लेकिन अर्जुन को खुद ही पाना पड़ेगा। तो उसने कहा कि यह भाव तो मेरे मन में पड़ा है। असल में मैं खतरा यह है कि अर्जन सनकर कहीं मान ले. कि ठीक. मैंने भी तो। | ध्यान करने आपके पास आई ही इसलिए हूं कि मुझे यह पता चल जान लिया।
जाए कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं आत्मा हूं। तो शरीर के कारण जो मुझे शब्दों के साथ यह उपद्रव है। ज्ञान तो नहीं दिया जा सकता, पीड़ा मालूम होती है, और शरीर के कारण जो प्रत्येक व्यक्ति को लेकिन शब्द दिए जा सकते हैं। शब्द तो उधार मिल जाते हैं। और | मेरे प्रति विकर्षण होता है, उससे जो मुझे दंश और चोट लगती है, आप शब्दों को इकट्ठा कर ले सकते हैं। और शब्दों के कारण आप उस चोट से मेरा छुटकारा हो जाए। सोच सकते हैं, मैंने भी जान लिया।
तो मैंने उससे कहा कि पहले तो तू यह फिक्र छोड़ और यह भाव आखिर अगर आप गीता को कंठस्थ कर लें, तो आपके पास मन से हटा, नहीं तो तू कल्पना ही कर लेगी ध्यान में कि मैं शरीर भी वे ही शब्द आ गए, जो कृष्ण के पास थे। और कृष्ण ने जो कहा | नहीं हूं। कल्पना आसान है। सिद्धांत मन में बैठ जाएं, हमारी था, वह आप भी कह सकते हैं। लेकिन आपका कहा हुआ यांत्रिक | | वासनाओं की पूर्ति करते हों, हम कल्पना कर लेते हैं। होगा, कृष्ण का कहा हुआ अनुभवजन्य था।
। शरीर से कौन दुखी नहीं है? ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, अर्जुन के लिए खतरा यही है कि कृष्ण की बातें अच्छी लगें...। | जो शरीर से दुखी न हो। कोई न कोई दुख शरीर में है ही। किसी के और लगेंगी अच्छी, प्रीतिकर लगेंगी, क्योंकि मन की कई| पास कुरूप शरीर है। किसी के पास बहुत मोटा शरीर है। किसी के
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दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
पास बहुत दुबला शरीर है। किसी के पास कोई रुग्ण शरीर है। किसी का कोई अंग ठीक नहीं है। किसी की आंखें जा चुकी हैं। किसी के कान ठीक नहीं हैं। किसी को कुछ है, किसी को कुछ है। शरीर तो हजार तरह की बीमारियों का घर है।
शरीर से तृप्त तो कोई भी नहीं है। इसलिए कोई भी मन में वासना रख सकता है कि अच्छा है, पता चल जाए कि मैं शरीर नहीं हूं। मगर यह वासना खतरनाक हो सकती है। सिद्धांत की आड़ में यह वासना छिप जाए, तो आप कल्पना भी कर ले सकते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। लेकिन उससे कोई सार न होगा, कोई हल न होगा। आप कहीं पहुंचेंगे नहीं। कोई मुक्ति हाथ नहीं लगेगी।
अनुभव - वासनारहित, कल्पनारहित और स्वयं का - उधार
नहीं ।
ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह सुनने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह समझने योग्य है। ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह करने योग्य है। लेकिन ज्ञानीजन क्या कहते हैं, यह मानने योग्य बिलकुल नहीं है। मानना तो तभी, जब करने से अनुभव में आ जाए।
ज्ञानीजन क्या कहते हैं, उसे सुनना, हृदयपूर्वक सुनना। श्रद्धा से भीतर ले जाना। पूरा उसे आत्मसात कर लेना। उस खोज में भी लग जाना। वे क्या करने को कहते हैं, उसे साहसपूर्वक कर भी लेना । लेकिन मानना तब तक मत, जब तक अपना अनुभव न हो जाए। तब तक समझना कि मैं अज्ञानी हूं, और सिद्धांतों से अपने अज्ञान को मत ढांक लेना। और तब तक समझना कि मुझे कुछ पता नहीं है। ऐसा कृष्ण कहते हैं। कृष्ण से प्रेम है, इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। लेकिन ठीक ही है, ऐसा तब तक मैं कैसे। हूं, तब तक मैं ना लूं।
इसका यह अर्थ नहीं है कि उन पर अश्रद्धा करना । अश्रद्धा की कोई भी जरूरत नहीं है। पूरी श्रद्धा करना । लेकिन मान मत लेना। मेरी बात का फर्क आपको खयाल में आ रहा है?
मानने का एक खतरा है कि आदमी चलना ही बंद कर देता है। वह कहता है, ठीक है। अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग जल्दी मान लेते हैं, लोग हैं, जो चलना नहीं चाहते; जिनकी सस्ती श्रद्धा हो जाती है। वे असल में यह कह रहे हैं कि ठीक है। कोई हमें अड़चन नहीं है। ठीक ही है। कहीं चलने की कोई जरूरत
भी नहीं है। हम मानते ही हैं कि बिलकुल ठीक है।
आदमी इनकार करके भी बच सकता है, हां करके भी बच सकता है।
मेरे पास लोग आते हैं, तो मैं अनुभव करता हूं। उनको मैं कहता हूं कि ध्यान करो। वे कहते हैं, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । लेकिन जब वे कह रहे हैं कि बिलकुल ठीक कहते हैं, तो वे यह | कहते हैं कि अब कोई करने की जरूरत नहीं है। हमें तो मालूम ही है। आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।
दूसरा आदमी आता है, वह कहता है कि नहीं, हमें आपकी बात | बिलकुल नहीं जंचती। वह भी यह कह रहा है कि बात जंचती ही नहीं, तो करें कैसे ?
बड़े मजे की बात है। आदमी किस तरह की तरकीबें निकालता है! एक आदमी कहता है कि बिलकुल नहीं जंचती। मगर वह | जितनी तेजी से कहता है, उससे लगता है कि वह डरा हुआ है कि कहीं जंच न जाए, नहीं तो करना पड़े। भयभीत है। वह एक रुकावट खड़ी कर रहा है कि हमें जंचती ही नहीं, इसलिए करने का | कोई सवाल नहीं। एक दूसरा आदमी है, वह कहता है, हमें बिलकुल जंचती है। आपकी बात बिलकुल सौ टका ठीक है। लेकिन यह दूसरा आदमी भी यह कह रहा है कि सौ टका ठीक है। करने की कोई जरूरत ही नहीं, हमें मालूम ही है कि ठीक है। जो बात मालूम ही है, उसको और मालूम करके क्या करना है !
आदमी आस्तिक होकर भी धोखा दे सकता है खुद को, नास्तिक | होकर भी धोखा दे सकता है। दोनों धोखे से बचने का एक ही उपाय है, प्रयोग करना, अनुभव करना।
और जो भी इस रास्ते पर चलते हैं, वे खाली हाथ नहीं लौटते
|
हैं | और जो भी इस रास्ते पर जाते हैं, वे जरूर मंजिल तक पहुंच | जाते हैं। क्योंकि यह रास्ता खुद के ही भीतर ले जाने वाला है। और यह मंजिल कहीं दूर नहीं, खुद के भीतर ही छिपी है।
पांच मिनट बैठेंगे; कोई बीच से उठे न। पांच मिनट कीर्तन में लीन होकर सुनें, और फिर जाएं। कोई भी व्यक्ति बीच में उठे न । और जो मित्र बैठे हैं, वे भी बैठकर कीर्तन में साथ दें।
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अध्याय 13 दूसरा प्रवचन
क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार
चैतन्य
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधः पृथक् । सुंदर प्रतीत नहीं होता। एक आनंदित व्यक्ति सब ओर आनंद ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमभिर्विनिश्चितैः।। ४ ।। देखता है और उसे कांटों में भी फूल जैसा सौंदर्य दिखाई पड़ सकता
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । | है। देखने वाले पर निर्भर करता है कि क्या दिखाई पड़ेगा। इन्द्रियाणि दर्शकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।। ५।। __ जो हम देखते हैं, वह हमारी व्याख्या है। इसे थोड़ा ठीक से
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः। समझ लें, क्योंकि धर्म की सारी खोज इस बुनियादी बात को ठीक
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ।। ६ ।। से समझे बिना नहीं हो सकती। आमतौर से जो हम देखते हैं, हम यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से सोचते हैं, वैसा तथ्य है जो हम देख रहे हैं। लेकिन समझेंगे, कहा गया है और नाना प्रकार के छंदों से विभागपूर्वक कहा खोजेंगे, विचारेंगे, तो पाएंगे, तथ्य कोई भी नहीं हम देख पाते, सभी गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किए हुए युक्ति-युक्त हमारी व्याख्या है। जो हम देखते हैं, वह हमारा इंटरप्रिटेशन है।
ब्रह्मसूत्रों के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है। दो-चार तरफ से सोचें। और हे अर्जुन, वहीं में तेरे लिए कहता हूं कि पांच महाभूत, कोई चेहरा आपको सुंदर मालूम पड़ता है। और आपके मित्र . अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया भी को, हो सकता है, वही चेहरा कुरूप मालूम पड़े। तो सौंदर्य चेहरे तथा दस इंद्रियां, एक मन और पांच इंद्रियों के विषय अर्थात में है या आपके देखने के ढंग में? सौंदर्य आपकी व्याख्या है या शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध।
चेहरे का तथ्य? अगर सौंदर्य चेहरे का तथ्य है, तो उसी चेहरे में तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख और स्थूल देह का पिंड एवं सभी को सौंदर्य दिखाई पड़ना चाहिए। पर किसी को सौंदर्य दिखाई चेतनता और धृति, इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित पड़ता है, किसी को नहीं दिखाई पड़ता है। और किसी को कुरूपता संक्षेप से कहा गया है।
| भी दिखाई पड़ सकती है उसी चेहरे में।
तो चेहरे को जब आप कुछ भी कहते हैं, उसमें आपकी व्याख्या
सम्मिलित हो जाती है। तथ्य खो जाता है और आप आरोपित कर सूत्र के पहले थोड़े-से प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, लेते हैं कुछ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, शरीर या आत्मा, प्रकृति और पुरुष, कोई चीज आपको स्वादिष्ट मालूम पड़ सकती है, और किसी ऐसे दो भेदों की चर्चा की गई; फिर भी कृष्ण ने कहा दूसरे को बेस्वाद मालूम पड़ सकती है। तो स्वाद किसी वस्तु में है कि सभी कुछ वे ही हैं। तो समझाएं कि सभी कुछ | होता है या आपकी व्याख्या में? स्वाद वस्तु में होता है या आप में अगर एक ही है, तो यह भेद, विकार और बिलगाव | होता है? ऐसा हमें पूछना चाहिए। अगर वस्तु में स्वाद होता हो, क्यों है?
तो फिर सभी को स्वादिष्ट मालूम पड़नी चाहिए।
स्वाद आप में होता है, वस्तु को स्वाद आप देते हैं। वह आपका
दान है। और जो आप अनुभव करते हैं, वह आपका ही खयाल है। म ह भेद दिखाई पड़ता है, है नहीं। यह भेद प्रतीत होता । तो ऐसा भी हो सकता है कि जो व्यक्ति आज सुंदर मालूम पड़ता प है, है नहीं। जो भी प्रतीत होता है, जरूरी नहीं है कि है, कल असुंदर मालूम पड़ने लगे। और जो व्यक्ति आज मित्र
___ हो। और जो भी है, जरूरी नहीं है कि प्रतीत हो। बहुत | जैसा मालूम पड़ता है, कल शत्रु जैसा मालूम पड़ने लगे। और जो कुछ दिखाई पड़ता है। उस दिखाई पड़ने में सत्य कम होता है, देखने | | बात आज बड़ी सुखद लगती थी, कल दुखद हो जाए। क्योंकि कल वाले की दृष्टि ज्यादा होती है।
| तक आप बदल जाएंगे, आपकी व्याख्या बदल जाएगी। जो आप देखते हैं, उस देखने में आप समाविष्ट हो जाते हैं। और | जो हम अनुभव करते हैं, वह सत्य नहीं है, वह हमारी व्याख्या जिस भांति आप देखते हैं, जिस ढंग से आप देखते हैं, वह आपके | है। और सत्य का अनुभव तो तभी होता है, जब हम सारी व्याख्या दर्शन का हिस्सा बन जाता है। एक दुखी आदमी अपने चारों तरफ
इसलिए सत्य के दुख देखता है। अगर आकाश में चांद भी निकला हो, तो वह भी करीब शून्य-चित्त हुए बिना कोई भी नहीं पहुंच सकता है।
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क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का, आत्मा और शरीर का, संसार का और मोक्ष का, पदार्थ का और परमात्मा का भेद भी हमारी ही व्याख्या है। और अंतिम क्षण में जब सभी व्याख्याएं गिर जाती हैं, तो कोई भेद नहीं रह जाता। लेकिन सारी व्याख्याएं गिर जाएं, तब अभेद का अनुभव होता है।
यह जो अभेद की प्रतीति है और भेद का हमारा अनुभव है, इसे इस भांति खोज करेंगे तो आसानी होगी, जहां-जहां आपको भेद दिखाई पड़ता है, वस्तुतः वहां भेद है ?
अंधेरे में और प्रकाश में हमें भेद दिखाई पड़ता है। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। अंधेरे को अगर विज्ञान की भाषा में कहें, तो उसका अर्थ होगा, थोड़ा कम प्रकाश। इससे उलटा भी कह सकते हैं। अगर अंधेरा प्रकाश का एक रूप है, तो हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश भी अंधेरे का एक रूप है। और प्रकाश की व्याख्या में हम कह सकते हैं, थोड़ा अंधेरा ।
आइंस्टीन ने रिलेटिविटी को जन्म दिया, सापेक्षता को जन्म दिया । और आइंस्टीन ने कहा कि हमारा यह कहना कि यह अंधेरा है और यह प्रकाश है, नासमझी है। क्योंकि प्रकाश और अंधेरा सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। अंधेरा थोड़ा कम प्रकाश है, प्रकाश थोड़ा कम अंधेरा है। हमसे बेहतर आंखें हों, तो अंधेरे में भी देख लेंगी और वहां भी प्रकाश पता चलेगा। और हमसे कमजोर आंखें हों, तो प्रकाश में भी नहीं देख पातीं, वहां भी अंधेरा दिखाई पड़ता है। आइंस्टीन कहता है, अगर आंख की ताकत बढ़ती जाए, तो अंधेरा प्रकाश होता चला जाएगा। और आंख की ताकत कम होती जाए, तो प्रकाश अंधेरा होता चला जाएगा। फिर दोनों में कोई फासला नहीं है; दोनों में कोई भेद नहीं है।
और इसे ऐसा समझें, अगर आंख हो ही न, तो प्रकाश और अंधेरे में क्या फर्क होगा? एक अंधे आदमी को प्रकाश और अंधेरे में क्या फर्क है? शायद आप सोचते होंगे, अंधे को तो सदा अंधेरे में रहना पड़ता होगा, तो आप गलती में हैं। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। अंधे को अंधेरा दिखाई नहीं पड़ सकता । अंधा भी अंधेरा नहीं देख सकता; क्योंकि देखने के लिए तो आंख चाहिए। कुछ भी देखना हो, अंधेरा देखना हो तो भी।
इसलिए आप सोचते हों कि अंधा जो है, अंधेरे में रहता है, तो आप बिलकुल गलती में हैं। अंधे को अंधेरे का कोई पता ही नहीं है। ध्यान रहे, जो अंधेरे को देख सकता है, वह तो फिर प्रकाश को
भी देख लेगा, क्योंकि अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है।
अंधे को न अंधेरे का पता है और न प्रकाश का। आप आंख बंद करते हैं, तो आपको अंधेरा दिखाई पड़ता है, इससे आप यह मत सोचना कि अंधे को अंधेरा दिखाई पड़ता है। बंद आंख भी आंख है, इसलिए अंधेरा दिखाई पड़ता है। अंधे के लिए अंधेरे और प्रकाश में क्या फर्क है ? कोई भी फर्क नहीं है। अंधे के लिए न तो | अंधेरा है और न प्रकाश है।
इसे हम दूसरी तरह से भी सोचें। अगर परमात्मा के पास आंख हो, तो उसका अर्थ होगा, जैसे अंधा बिलकुल नहीं देख सकता है, हम थोड़ा देख सकते हैं, परमात्मा पूरा देख सकता हो ।
अगर परमात्मा के पास एब्सोल्यूट आइज हों, परिपूर्ण आंखें हों, तो उसे भी अंधेरे और प्रकाश में कोई अंतर नहीं दिखाई पड़ेगा। क्योंकि अंधेरे में भी वह उतना ही देखेगा, जितना प्रकाश में देखेगा। उसकी आंख सापेक्ष नहीं है। इसलिए अगर परमात्मा देखता होगा, तो उसको भी अंधेरे और प्रकाश का कोई पता नहीं हो सकता । उसकी हालत अंधे जैसी होगी, दूसरे छोर पर ।
अगर पूरी आंख हो, तो भी फर्क पता नहीं चलेगा। फर्क पता तो तभी चल सकता है, जब थोड़ा हम देखते हों और थोड़ा हम न देखते हों।
|
इसे ऐसा समझें कि आप कहते हैं कि गरम है पानी, या आप कहते हैं कि बर्फ बहुत ठंडी है। तो ठंडक और गरमी, लगता है बड़ी विपरीत चीजें हैं। और हमारे अनुभव में हैं। जब गरमी तप रही हो चारों ओर, तब ठंडे पानी का एक गिलास तृप्ति देता है। कितना ही कृष्ण कहें कि सब अद्वैत है, हम यह मानने को राजी न होंगे कि गरम पानी का गिलास भी इतनी ही तृप्ति देगा । और कितना ही आइंस्टीन कहे कि गरमी भी ठंडक का एक रूप है, और ठंडक भी गरमी का एक रूप है, फिर भी हम जानते हैं, ठंडक ठंडक है, गरमी गरमी है। और आइंस्टीन भी जब गरमी पड़ेगी, तो छाया में सरकेगा। और जब ठंड लगेगी, तो कमरे में हीटर लगाएगा । हालांकि वह भी कहता है कि दोनों एक ही चीज के रूप हैं।
परम सत्य तो यही है कि दोनों एक चीज के रूप हैं। लेकिन परम सत्य को जानने के लिए परम प्रज्ञा चाहिए। हमारे पास जो बुद्धि है, वह तो सापेक्ष है। उस सापेक्ष बुद्धि में गरमी गरमी है ठंड ठंड है। और दोनों में बड़ा भेद है; विपरीतता है। लेकिन हमें विपरीतता प्रतीत होती है, वह हमारी सापेक्ष बुद्धि के कारण।
एक छोटा-सा प्रयोग करें। पानी रख लें एक बालटी में। एक
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गीता दर्शन भाग-60
हाथ को बर्फ पर रखकर ठंडा कर लें। और एक हाथ को लालटेन | | हो जाती है। भेद की जब बात करते हैं, तो हमारी समझ में आती है। के पास रखकर गरम कर लें और फिर दोनों हाथों को उस पानी की | | क्योंकि भेद हम भी कर सकते हैं। भेद तो हम करते ही हैं। भेद करना बालटी में डुबा दें। आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। क्योंकि एक | तो हमें पता है, वह कला हमें ज्ञात है। लेकिन अभेद की कला हमें हाथ कहेगा पानी ठंडा है, और एक हाथ कहेगा पानी गरम है। और | ज्ञात नहीं है। अभेद की कला कठिन भी है, क्योंकि अभेद की कला पानी तो बालटी में एक ही जैसा है। लेकिन एक हाथ खबर देगा | का अर्थ हुआ कि हमें मिटना पड़ेगा। वह जो भेद करने वाला हमारे गरम की, एक हाथ खबर देगा ठंडक की, क्योंकि दोनों हाथों का भीतर है, उसके समाप्त हुए बिना अभेद का कोई पता नहीं चलेगा। सापेक्ष अनुभव है। जो हाथ गरम है, उसे पानी ठंडा मालूम पड़ेगा। | चारों तरफ हम देखते हैं; सब चीजों की परिभाषा मालूम पड़ती जो हाथ ठंडा है, उसे पानी गरम मालूम पड़ेगा।
है, सभी चीजों की सीमा मालूम पड़ती है। लेकिन अस्तित्व असीम तो इस बालटी के भीतर जो पानी है, उसको आप क्या कहिएगा | | है, और कहीं भी समाप्त नहीं होता। कहीं कोई सीमा आती नहीं है ठंडा या गरम? अगर बाएं हाथ की मानिए, तो वह कहता है ठंडा; अस्तित्व की। दाएं हाथ की मानिए, तो वह कहता है गरम। और दोनों हाथ आपके । आपको लगता है. एक वक्ष खडा है. तो दिखाई पड़ता है. वक्ष हैं। आप क्या करिएगा? तब आपको पता चलेगा कि गरमी और | की सीमा है। आप नाप सकते हैं, कितना ऊंचा है, कितना चौड़ा ठंडक सापेक्ष हैं। गरमी और ठंडक दो तथ्य नहीं हैं, हमारी | | है। पत्ती भी नाप सकते हैं। वजन भी नाप सकते हैं। लेकिन क्या व्याख्याएं हैं। हम अपनी तुलना में किसी चीज को गरम कहते हैं, | | सच में वृक्ष की कोई सीमा है? क्या वृक्ष पृथ्वी के बिना हो सकता और अपनी तुलना में किसी चीज को ठंडी कहते हैं। | है? अगर पृथ्वी के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, तो पृथ्वी वृक्ष का
इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक हमारे पास तुलना करने वाली | हिस्सा है। बुद्धि है और जब तक हमारे पास तौलने का तराजू विचार है, तब | जिसके बिना हम नहीं हो सकते, उससे हमें अलग करना उचित तक हमें भेद दिखाई पड़ते रहेंगे।
नहीं है। पृथ्वी के बिना वृक्ष नहीं हो सकता। उसकी जड़ें पृथ्वी की संसार में भेद हैं, क्योंकि संसार है हमारी व्याख्याओं का नाम। छाती में फैली हुई हैं; उन्हीं से वह रस पाता है, उन्हीं से जीवन पाता और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, क्योंकि परमात्मा का अर्थ है, | है; उसके बिना नहीं हो सकता। तो पृथ्वी वृक्ष का हिस्सा है। पृथ्वी उसं जगह प्रवेश, जहां हम अपनी व्याख्याएं छोड़कर ही पहुंचते हैं। | बहुत बड़ी है। वृक्ष नहीं था, तब भी थी। वृक्ष नहीं हो जाएगा, तब ___ इसे हम ऐसा समझें, एक नदी बहती है, तो उसके पास किनारे | | भी होगी। और अभी भी जब वृक्ष है, तो वृक्ष के भीतर पृथ्वी दौड़ होते हैं। बाएं तरफ किनारा होता है, दाएं तरफ किनारा होता है। | रही है, वृक्ष के भीतर पृथ्वी बह रही है।
और फिर नदी सागर में गिर जाती है। सागर में गिरते ही किनारे खो| । लेकिन क्या पृथ्वी ही वृक्ष का हिस्सा है? हवा के बिना वृक्ष न जाते हैं। जो नदी सागर में गिर गई है, अगर वह दूसरी नदियों से | | हो सकेगा। वृक्ष भी श्वास ले रहा है। वह भी आंदोलित है, उसका मिल सके, तो उन नदियों से कहेगी कि किनारे हमारे अस्तित्व का | प्राण भी वायु से चल रहा है। वायु के बिना अगर वृक्ष न हो सके, हिस्सा नहीं हैं। किनारे संयोगवश हैं। किनारा होना जरूरी नहीं है | | तो फिर वायु से वृक्ष को अलग करना उचित नहीं है; नासमझी है। नदी होने के लिए, क्योंकि सागर में पहुंचकर कोई किनारा नहीं रह | तो वायुमंडल वृक्ष का हिस्सा है। जाता; नदी रह जाती है।
लेकिन क्या सूरज के उगे बिना वृक्ष हो सकेगा? अगर कल लेकिन किनारे से बंधी नदियां कहेंगी कि यह बात समझ में नहीं सुबह सूरज न उगेगा, तो वृक्ष मर जाएगा। दस करोड़ मील दूर आती। बिना किनारे के नदी हो कैसे सकती है? किनारे तो हमारे | सूरज है, लेकिन उसकी किरणों से वृक्ष जीवित है। तो वृक्ष का अस्तित्व के हिस्से हैं।
जीवन कहां समाप्त होता है? .. कृष्ण जब हमसे बोलते हैं, तो वही तकलीफ है। कृष्ण उस जगह यह तो मैंने स्पेस में, आकाश में उसका फैलाव बताया। समय से बोलते हैं, जहां नदी सागर में गिर गई। हम उस जगह से सुनते | में भी वृक्ष इसी तरह फैला हुआ है। यह वृक्ष कल नहीं था। एक हैं, जहां नदी किनारों से बंधी है।
| बीज था इस वृक्ष की जगह, किसी और वृक्ष पर लगा था। उस वृक्ष तो कृष्ण जब अभेद की बात करते हैं, तो हमारी पकड़ के बाहर के बिना यह वृक्ष न हो सकेगा। वह बीज अगर पैदा न होता, तो
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यह वृक्ष कभी भी न होता। वह बीज आज भी इस वृक्ष में प्रकट हो। | सब मिट जाए, लेकिन मैं वही जानना चाहूंगा जो है। और इस खोज रहा है।
में अपने को भी खोना पड़ता है। और अगर हम इसके पीछे की तरफ यात्रा करें, तो न मालूम निश्चित ही, कृष्ण की बात समझ में नहीं आती; कि अगर सभी कितने वृक्ष इसके पीछे हुए, इसलिए यह वृक्ष हो सका है। अनंत तक | एक है, तो फिर भेद कैसा? पीछे फैला हुआ है; अनंत तक आगे फैला हुआ है। अनंत तक चारों | सभी तो एक है, भेद इसलिए है कि हमारे पास जो बुद्धि है तरफ फैला हुआ है। समय और क्षेत्र दोनों में वृक्ष का फैलाव है। । | छोटी-सी, वह भेद बिना किए काम नहीं कर सकती।
अगर एक वृक्ष को हम ठीक से, ईमानदारी से सीमा तय करने | इसे ऐसा समझें कि एक आदमी अपने मकान के भीतर बंद है। चलें, तो पूरे विश्व की सीमा में हमें वृक्ष मिलेगा। एक छोटे-से वह जब भी आकाश को देखता है, तो अपनी खिड़की से देखता व्यक्ति को अगर हम खोजने चलें, तो हमें उसके भीतर पूरा विराट | है। तो खिड़की का जो चौखटा है, वह आकाश पर आरोपित हो ब्रह्मांड मिल जाएगा।
जाता है। उसने कभी बाहर आकर नहीं देखा। उसने सदा अपने तो कहां आप समाप्त होते हैं? कहां शुरू होते हैं? न कोई | | मकान के भीतर से देखा है। तो खिड़की का चौखटा आकाश पर शुरुआत है और न कोई अंत है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा | | कस जाता है। और जिस आदमी ने खुला आकाश नहीं देखा, वह अनादि और अनंत है। आप भी अनादि और अनंत हैं। वृक्ष भी | | यही समझेगा कि यह जो खिड़की का आकार है, यही आकाश का अनादि और अनंत है। पत्थर का एक टुकड़ा भी अनादि और अनंत | | आकार है। खिड़की का आकार आकाश का आकार मालूम पड़ेगा। है। अस्तित्व में जो भी है, वह अनादि और अनंत है।
आकाश निराकार है। लेकिन कहां से आप देख रहे हैं? आपकी लेकिन हम सीमाएं बनाना जानते हैं। और सीमाएं बनाना जरूरी | खिड़की कितनी बड़ी है? हो सकता है, आप एक दीवाल के छेद भी है; हमारे काम के लिए उपयोगी भी है। अगर मैं आपका पता | | से देख रहे हों, तो आकाश उतना ही बड़ा दिखाई पड़ेगा जितना न पूछं, आपका घर खोजता हुआ आऊं और कहूं कि वे कहां रहते दीवाल का छेद है। हैं, जो अनादि और अनंत हैं! जिनका न कोई अंत है, न कोई प्रारंभ | | जब कोई व्यक्ति अपने मकान के बाहर आकर आकाश को है! जो न कभी जन्मे और न कभी मरेंगे; जो निर्गुण, निराकार | | देखता है, तब उसे पता चलता है कि यह तो निराकार है। जो हैं-वे कहां रहते हैं? तो मुझे लोग पागल समझेंगे। वे कहेंगे, आप | आकार दिखाई पड़े थे, वे मेरे देखने की जगह से पैदा हुए थे। नाम बोलिए। आप सीमा बताइए। आप परिभाषा करिए। आप | इंद्रियां खिड़कियां हैं। और हम अस्तित्व को इंद्रियों के द्वारा ठीक-ठीक पता बताइए। क्या नाम है? क्या धाम है? यह अनंत | | देखते हैं, इसलिए अस्तित्व बंटा हुआ दिखाई पड़ता है, टूटा हुआ और निराकार, इससे कुछ पता न चलेगा।
दिखाई पड़ता है। • आपका मुझे पता लगाना हो, तो एक सीमा चाहिए। एक ___ आंख निराकार को नहीं देख सकती, क्योंकि आंख जिस चीज छोटे-से कार्ड पर आपका नाम, आपका टेलीफोन नंबर, आपका | | को भी देखेगी उसी पर आंख का आकार आरोपित हो जाएगा। कान पता-ठिकाना, उससे मैं आपको खोज पाऊंगा। और वह सब झूठ | | निराकार को नहीं सुन सकते, निःशब्द को नहीं सुन सकते। कान तो है, जिससे मैं आपको खोजूंगा। और जो सत्य है, अगर उससे | | जिसको भी सुनेंगे, उसको शब्द बना लेंगे और सीमा बांध देंगे। खोजने चलं, तो आपको मैं कभी न खोज पाऊंगा।
हाथ निराकार को नहीं छू सकते, क्योंकि हाथ आकार वाले हैं; जिंदगी सापेक्ष है, वहां सभी चीजें कामचलाऊ हैं, उपयोगी हैं। | जिसको भी छुएंगे, वहीं आकार का अनुभव होगा। लेकिन जो उपयोगी है, उसे सत्य मत मान लेना। जो उपयोगी है, __ आप उपकरण से देखते हैं, इसलिए सभी चीजें विभिन्न हो जाती अक्सर ही झूठ होता है।
| हैं। जब कोई व्यक्ति इंद्रियों को छोड़कर, द्वार-दरवाजे खिड़कियों असल में झूठ की बड़ी उपयोगिता है। सत्य बड़ा खतरनाक है। से पार आकर खुले आकाश को देखता है, तब उसे पता चलता है और जो सत्य में उतरने जाता है, उसे उपयोगिता छोड़नी पड़ती है। कि जो भी मैंने अब तक देखा था, वे मेरे खयाल थे। अब जो मैं
संन्यास का यही अर्थ है, वह व्यक्ति जिसने उपयोगिता के जगत देख रहा हूं, वह सत्य है। की फिक्र छोड़ दी। और जो कहता है, चाहे नुकसान उठा लूं, चाहे मकान के बाहर आकर देखने का नाम ही ध्यान है। इंद्रियों से
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गीता दर्शन भाग-60
हटकर, अलग होकर देखने का नाम ही ध्यान है। आंख से मत | कृष्ण पहले सिखा रहे हैं कि तुम जानो कि तुम शरीर नहीं हो। देखें। आंख बंद करके देखने का नाम ध्यान है। कान से मत सुनें। | भेद सिखा रहे हैं। पैराडाक्सिकल है, विरोधाभासी है। कृष्ण कह कान बंद करके सुनने का नाम ध्यान है। शरीर से मत स्पर्श करें। | रहे हैं, तुम जानो कि तुम क्षेत्र नहीं हो, शरीर नहीं हो, इंद्रियां नहीं शरीर के स्पर्श से ऊपर उठकर स्पर्श करने का नाम ध्यान है। | हो। यह तो भेद सिखाना हो गया। लेकिन कृष्ण यह भेद इसीलिए
और जब सारी इंद्रियों को छोड़कर कोई जरा-सा भी अनुभव कर सिखा रहे हैं, क्योंकि इसी भेद के द्वारा तुम्हें अभेद का दर्शन हो लेता है, तो उसे कृष्ण की बात की सचाई का पता चल जाएगा। तब | सकेगा। शरीर से तुम हटोगे, तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा, शरीर भी खो उसे कहीं भी सीमा न दिखाई पड़ेगी। तब उसे जन्म और मृत्यु एक गया, आत्मा भी खो गई; और वही रह गया, जो दोनों के बीच है, मालूम होंगे; तब उसे सृष्टि और स्रष्टा एक मालूम होंगे। एक जो दोनों में छिपा है। कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक में यह बात छिपी ही हुई है कि इसे ऐसा समझें कि आप अपने मकान को जोर से पकड़े हुए हैं। शायद पहले दो थे, अब एक मालूम होते हैं।
और मैं आपसे कहता हूं कि यह खिड़की छोड़ो, तो तुम्हें खुला __इसलिए हमने अपने मुल्क में एक शब्द का प्रयोग नहीं किया। आकाश दिखाई पड़ सके। इस खिड़की से थोड़ा दूर हटो। तुम हमने जो शब्द प्रयोग किया है, वह है अद्वैत। ज्ञानी को ऐसा पता खिड़की नहीं हो। तुम मकान नहीं हो। तुम चाहो तो मकान के बाहर नहीं चलेगा कि सब एक है। ज्ञानी को ऐसा पता चलेगा कि दो नहीं आ सकते हो। तो में भेद सिखा रहा हूं। में कह रहा हूं, तुम मकान हैं। इन दोनों में फर्क है। शब्द तो एक ही हैं।
नहीं हो। बाहर हटो। लेकिन बाहर आकर तुम्हें यह भी पता चल __ अद्वैत का मतलब ही होता है एक, एक का मतलब भी होता है जाएगा कि मकान के भीतर जो था, वह भी यही आकाश था, जो अद्वैत। लेकिन सोचकर हमने कहा अद्वैत, एक नहीं। क्योंकि एक मकान के बाहर है। से विधायक रूप से मालूम पड़ता है, एक। एक की सीमा बन जाती लेकिन मकान के बाहर आकर दोनों बातें पता चलेंगी, कि जो है। और जहां एक हो सकता है, वहां दो भी हो सकते हैं। क्योंकि आकाश मैं भीतर से देखता था, वह सीमित था। सीमा मेरी दी हई एक संख्या है। अकेली संख्या का कोई मूल्य नहीं होता। दो होना | | थी। आकार मैंने दिया था; निराकार को मैंने आकार की तरह देखा चाहिए, तीन होना चाहिए, चार होना चाहिए, तो एक का कोई मूल्य था। वह मेरी भूल थी, मेरी भ्रांति थी। लेकिन बाहर आकर...इसका है। और अगर कोई दो नहीं, कोई तीन नहीं, कोई चार नहीं, तो एक यह अर्थ नहीं है कि मकान के भीतर जो आकाश था, वह आकाश निर्मूल्य हो गया। गणित का अंक व्यर्थ हो गया। उसमें फिर कोई |
|| नहीं है। बाहर आकर तो आपको यह भी दिखाई पड़ जाएगा कि अर्थ नहीं है।
मकान के भीतर जो था, वह भी आकाश था। मकान की खिड़की से इसलिए भारतीय रहस्यवादियों ने एक शब्द का उपयोग न करके | | जो दिखाई पड़ता था, वह भी आकाश था। खिड़की भी आकाश का कहा, अद्वैत-नान डुअल। इतना ही कहा कि हम इतना कह हिस्सा थी। खिड़की भी आज नहीं कल खो जाएगी और आकाश में सकते हैं कि वहां दो नहीं हैं। निषेध विराट होता है, विधेय में सीमा लीन हो जाएगी। आ जाती है। इनकार करने में कोई सीमा नहीं आती। दो नहीं हैं। जिस दिन आकाश के तत्व की पूरी प्रतीति हो जाएगी, उस दिन कुछ कहा नहीं, सिर्फ इतना ही कहा कि भेद नहीं है वहां। दो किए | मकान, खिड़की सभी आकाश हो जाएंगे। लेकिन एक बार मकान जा सकें, इतना भी भेद नहीं है।
के बाहर आना जरूरी है। यह जो निषेध है, दो नहीं, यह कोई गीता समझने से, ब्रह्मसूत्र भेद निर्मित किया जा रहा है, ताकि आप अभेद को जान सकें। समझने से खयाल में नहीं आ जाएगा। यह दो नहीं तभी खयाल में | यह बात उलटी मालूम पड़ती है और जटिल मालूम पड़ती है। हम आएगा, जब इंद्रियों से हटकर देखने की थोड़ी-सी क्षमता आ | चाहेंगे कि भेद की बात ही न की जाए। अगर अभेद ही है, तो भेद जाएगी। यह सारा अध्याय इंद्रियों से हटने की कला पर ही निर्भर की बात ही न की जाए। है। सारी कोशिश यही है कि आप शरीर से हटकर देखने में सफल | लेकिन बात की जाए या न की जाए, हमें अभेद दिखाई नहीं हो जाएं। इसलिए प्राथमिक रूप से फासला करना पड़ रहा है। यह | पड़ता। हमें भेद ही दिखाई पड़ता है। हम चाहें तो भेद के भीतर भी बड़ी उलझी हुई जटिल बात है।
अपने मन को समझा-बुझाकर अभेद की मान्यता स्थापित कर
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सकते हैं। लेकिन वह काम न आएगी। गहरे में तो हमें भेद मालूम | और अब हम जानते हैं कि इस पृथ्वी को हम किसी भी क्षण नष्ट पड़ता ही रहेगा।
कर सकते हैं। कोई कितना कहे कि मित्र और शत्रु दोनों एक हैं। हम अपने को ___ पर अणु आंख से दिखाई नहीं पड़ता। आंख की तो बात दूर है, समझा भी लें कि दोनों एक हैं। तब भी हमें मित्र मित्र दिखाई पड़ता अब तक हमारे पास कोई भी यंत्र नहीं है, जिनके द्वारा अणु दिखाई रहेगा और शत्रु शत्रु दिखाई पड़ता रहेगा। और मित्र को हम चाहते | | पड़ता हो। अब तक किसी ने अणु देखा नहीं है। वैज्ञानिक भी अणु रहेंगे और शत्र को न चाहते रहेंगे।
का अनुमान करते हैं। सोचते हैं कि अणु है। सोचना उनका सही हम जहां खड़े हैं, वहां से भेद अनिवार्य है। और हम जब तक | | भी है, क्योंकि अणु को उन्होंने तोड़ भी लिया है। बिना देखे यह न बदल जाएं, तब तक अभेद का कोई अनुभव नहीं हो सकता। | घटना घटी है। और इस अदृश्य अणु में, जो इतना छोटा है कि हमारी बदलाहट का पहला चरण है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद | | दिखाई नहीं पड़ता, इससे इतनी विराट ऊर्जा का जन्म हुआ। विज्ञान हमारे स्मरण में आ जाए।
| शिखर पर पहुंच गया, परमाणु के विभाजन से। अब हम सूत्र को लें।
धर्म ने भी एक तरह का विभाजन किया था। यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा उसी विभाजन की कीमिया है। धर्म ने मनुष्य की चेतना का विभाजन गया है। और नाना प्रकार के छंदों से विभागपूर्वक कहा गया है। | किया था। विज्ञान ने पदार्थ के अणु का विभाजन किया है; धर्म ने तथा अच्छी प्रकार निश्चय किए हुए युक्ति-युक्त ब्रह्मसूत्र के पदों | चेतना के परमाणु का विभाजन किया था। और उस परमाणु को दो द्वारा भी वैसा ही कहा गया है।
हिस्सों में तोड़ दिया था। दो उसके संघटक हैं, शरीर और आत्मा, सच तो यह है कि धर्म के समस्त सूत्र क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ही | | क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। दोनों को तोड़ने से वहां भी बड़ी विराट ऊर्जा का बात कहते हैं। उनके कहने में, ढंग में, शब्दों में भेद है। पर वे जिस | अनुभव हुआ था। तरफ इशारा करते हैं, वह एक ही बात है।
और जो परमाणु में जितनी अनुभव हो रही है ऊर्जा, वह उस कृष्ण कहते हैं, वेद या उपनिषद या ब्रह्मसूत्र या जो परम ज्ञानी | | ऊर्जा के सम्मुख कुछ भी नहीं है। क्योंकि परमाणु जड़ है। चैतन्य ऋषि हुए हैं, उन सब ने भी अनेक-अनेक रूपों में, अनेक-अनेक का कण जब टूटा, जब कोई ऋषि सफल हो गया अपने भीतर के प्रकार से यही बात कही है।
चैतन्य के अणु को तोड़ने में, शरीर से पृथक करने में, तो इन दोनों यह छोटी-सी बात है, लेकिन बहुत बड़ी है। सुनने में बहुत | के पृथक होते ही जो विराट ऊर्जा जन्मी, वह ऊर्जा का अनुभव ही छोटी, और अनुभव में आ जाए, तो इससे बड़ा कुछ भी नहीं है। परमात्मा का अनुभव है।
अभी वैज्ञानिकों ने अणु का विस्फोट किया, अणु को तोड़ डाला। __ और फर्क है दोनों में। अणु टूटता है, तो उससे जो ऊर्जा पैदा तो उसके जो संघटक थे अणु के...अणु क्षुद्रतम चीज है। उससे होती है, उससे मृत्यु घटित होगी। और जब चेतना का अणु टूटता छोटी और कोई चीज नहीं। और जब अणु को भी विभाजित किया, है, तो उससे जो ऊर्जा प्रकट होती है, उससे अमृत घटित होता है। उसके जो संघटक थे, जो सदस्य थे अणु को बनाने वाले, जब उनको | क्योंकि जीवन की ऊर्जा में जब प्रवेश होता है, तो परम जीवन का तोड़कर अलग कर दिया, तो विराट ऊर्जा का जन्म हुआ। अनुभव होता है।
आज से पचास साल पहले कोई बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी यह | यह सूत्र आइंस्टीन के सूत्र जैसा है। इस सूत्र का इतना ही अर्थ नहीं सोच सकता था कि अणु जैसी क्षुद्र चीज में इतनी विराट शक्ति है कि तुम्हारे भीतर तुम्हारे व्यक्तित्व को संगठित करने वाले दो तत्व छिपी होगी। और जब लार्ड रदरफोर्ड ने पहली दफा अणु के हैं, एक तो पदार्थ से आ रहा है और एक चेतना से आ रहा है। विस्फोट की कल्पना की, तो रदरफोर्ड ने स्वयं कहा है कि मुझे खुद चेतना और पदार्थ दोनों के मिलन पर तुम निर्मित हुए हो। तुम्हारा ही विश्वास नहीं आता था कि इतनी क्षुद्रतम वस्तु में इतनी विराट जो अणु है, वह आधा चैतन्यं से और आधा पदार्थ से संयुक्त है। ऊर्जा छिपी है।
तुम्हारे दो किनारे हैं। तुम्हारी नदी चेतना और पदार्थ, दो के बीच लेकिन हमने हिरोशिमा और नागासाकी में देखा कि अणु के एक बह रही है। और यह जो पदार्थ है, इसने तुम्हें बाहर से घेरा हुआ छोटे-से विस्फोट में लाखों लोग क्षणभर में जलकर राख हो गए। है, चारों तरफ तुम्हारी दीवाल बनाई हुई है। कहना चाहिए, तुम्हारी
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चेतना के अणु की जो दीवाल है, जो घेरा है, वह पदार्थ का है। और जाती। वह तो उसी पहली चिंता का ही हिस्सा है। जो सेंटर है, जो केंद्र है, वह चेतना का है।
। दूसरे को गलत करना, खुद को सही सिद्ध करना, दोनों साथ ही काश, यह संभव हो जाए कि तुम इन दोनों को अलग कर लो, जुड़े हैं। और जो आदमी इस उपद्रव में पड़ जाता है, वह रास्ते पर तो जीवन का जो श्रेष्ठतम अनुभव है, वह घटित हो जाए। चलना ही भूल जाता है; वह रास्ते के संबंध में विवाद करता रहता
सारे धर्मों ने...कृष्ण ने तो बात की है वेद की, ब्रह्मसूत्र की। । है। पंडित-हिंदुओं के, मुसलमानों के, जैनों के–इसी काम में लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि कृष्ण कोई बाइबिल या कुरान लगे हैं। पंडितों से भटके हुए आदमी खोजना कठिन है। उनका के खिलाफ हैं। कृष्ण के वक्त में अगर बाइबिल और कुरान होते, सारा जीवन इसमें लगा हुआ है कि कौन गलत है, कौन सही है। तो उन्होंने उनकी भी बात की होती। वे नहीं थे। नहीं थे, इसलिए | और वे यह भूल ही गए कि जो सही है, वह चलने के लिए है। बात नहीं की है। आप यह मत सोचना कि इसलिए बात नहीं की है लेकिन चलने की सुविधा कहां! फुरसत कहां! समय कहां! कि कुरान और बाइबिल में वह बात नहीं है। बात तो वही है। और अगर कोई भी चले, तो पहाड़ पर पहुंचकर यह दिखाई पड़
चाहे जरथुस्त्र के वचन हों, चाहे लाओत्से के, चाहे क्राइस्ट के जाता है कि बहुत-से रास्ते इसी चोटी की तरफ आते हैं। लेकिन या मोहम्मद के, धर्म का सूत्र तो एक ही है कि भीतर चेतना और । यह चोटी पर से ही दिखाई पड़ सकता है; नीचे से नहीं दिखाई पड़ पदार्थ को हम कैसे अलग कर लें। इसके उपाय भिन्न-भिन्न हैं। सकता। नीचे से तो अपना ही रास्ता दिखाई पड़ता है। चोटी से सभी हजारों उपाय हैं। लेकिन उपायों का मूल्य नहीं है। निष्कर्ष एक है।। । रास्ते दिखाई पड़ सकते हैं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया | | यह जो कृष्ण कह रहे हैं, चोटी पर खड़े हुए व्यक्ति की वाणी
है। वे कह रहे हैं कि सभी वेद, सभी ऋषि, सभी ज्ञानी इस एक ही दुनिया में इतने धर्मों के खड़े होने का कारण सत्यों का विरोध | | तत्व की बात कर रहे हैं। नहीं है, प्रकारों का भेद है। और नासमझ है आदमी कि प्रकार के बहुत प्रकार से उन्होंने कहा है। उनके कहने के प्रकार में मत भेद को परम अनुभव का भेद समझ लेता है।
उलझ जाना। कभी-कभी तो उनके कहने के प्रकार इतने विपरीत जैसे किसी एक पहाड़ पर जाने के लिए बहुत रास्ते हों और हर | | होते हैं कि बड़ी कठिनाई हो जाती है। रास्ते वाला दावा करता हो कि मेरे रास्ते के अतिरिक्त कोई पहाड़ ___ अगर महावीर और बुद्ध दोनों को आप सुन लें, तो बड़ी मुश्किल पर नहीं पहुंच सकता। न केवल दावा करता हो, बल्कि दो रास्ते में पड़ जाएंगे। और दोनों एक साथ हुए हैं। और दोनों एक ही समय वाले लड़ते भी हों। न केवल लड़ते हों, बल्कि लड़ाई इतनी में थे और एक ही छोटे-से इलाके, बिहार में थे। लेकिन महावीर मूल्यवान हो जाती हो कि पहाड़ पर चढ़ना भूल ही जाते हों और | और बुद्ध के कहने के ढंग इतने विपरीत हैं कि अगर आप दोनों को लड़ाई में ही जीवन व्यतीत करते हों। ऐसी करीब-करीब हमारी | | सुन लें, तो आप बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। और तब आपको हालत है।
यह मानना ही पड़ेगा कि दोनों में से एक ही ठीक हो सकता है; दोनों कोई पहाड पर चढता नहीं। न मसलमान को फिक्र है पहाड पर ठीक नहीं हो सकते। य यह तो हो भी सकता है कि दोनों गलत हों. चढ़ने की, न हिंदू को फिक्र है। न जैन को फिक्र है, न बौद्ध को लेकिन दोनों ठीक नहीं हो सकते. क्योंकि दोनों इतनी विपरीत बातें फिक्र है। सबको फिक्र यह है कि रास्ता हमारा ठीक है, तुम्हारा | रास्ता गलत है। और तुम्हारा रास्ता गलत है, इसको सिद्ध करने में | | महावीर कहते हैं, आत्मा को जानना परम ज्ञान है। और बुद्ध लोग अपना जीवन समाप्त कर देते हैं। और हमारा रास्ता सही है, | | कहते हैं, आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं। अगर ये दोनों बातें इसको सिद्ध करने में अपनी सारी जीवन ऊर्जा लगा देते हैं। लेकिन | | आपके कान में पड़ जाएं, तो आप समझेंगे, या तो दोनों गलत हैं एक इंचभर भी उस रास्ते पर नहीं चलते, जो सही है। | या कम से कम एक तो गलत होना ही चाहिए। दोनों कैसे सही
काश, दूसरे के रास्ते को गलत करने की चिंता कम हो जाए। होंगे? बुद्ध कहते हैं, आत्मा को मानना अज्ञान है। और महावीर और जैसे ही दूसरे के रास्ते को गलत करने की चिंता कम हो, वैसे कहते हैं, आत्मा को जानना परम ज्ञान है। ही अपने रास्ते को सही सिद्ध करने की भी कोई जरूरत नहीं रह मगर जो शिखर पर खडे होकर देख सकता है. वह हंसेगा और
कहते हैं।
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वह कहेगा कि दोनों एक ही बात कह रहे हैं। उनके कहने का ढंग अगर आप महावीर के रास्ते से चले, तो भी आप उसी शिखर अलग है। ढंग अलग होगा ही। महावीर महावीर हैं; बुद्ध बुद्ध हैं। | पर पहुंच जाएंगे, जहां कृष्ण, और बुद्ध, और मोहम्मद का रास्ता उनके पास व्यक्तित्व अलग है। उनके सोचने की प्रक्रिया अलग | पहुंचता है। अगर आप मोहम्मद के रास्ते से चले, तो भी वहीं पहुंच है। उनके चोट करने का उपाय अलग है। आपसे बात करने की | जाएंगे, जहां कृष्ण और राम का रास्ता पहुंचता है। चलने से पहुंच विधि अलग है। आपको कैसे बदलें, उसका विधान अलग है। जाएंगे, किसी भी रास्ते से चलें। सभी रास्ते उस तरफ ले जाते हैं।
महावीर कहते हैं, आत्मा को जानना हो तो अहंकार को छोड़ना ___ मेरी तो अपनी समझ यह है कि ठीक रास्ते पर खड़े होकर विवाद पड़ेगा, तो परम ज्ञान होगा। और बुद्ध कहते हैं, आत्मा यानी | करने की बजाय तो गलत रास्ते पर चलना भी बेहतर है। क्योंकि अहंकार। तुमने आत्मा को माना कि तुम किसी न किसी रूप में | गलत रास्ते पर चलने वाला भी कम से कम एक अनुभव को तो अपने अहंकार को बचा लोगे। इसलिए आत्मा को मानना ही मत, | | उपलब्ध हो जाता है कि यह रास्ता गलत है, चलने योग्य नहीं है। ताकि अहंकार को बचने की कोई जगह न रह जाए।
वह ठीक रास्ते पर खड़ा आदमी यह भी अनुभव नहीं कर पाता। बुद्ध जहां भी आत्मा शब्द का उपयोग करते हैं, उनका अर्थ गलत को भी गलत की तरह पहचान लेना, सत्य की तरफ बड़ी अहंकार होता है। मगर यह तो पहाड़ पर खड़े हों, तो आपको सफलता है। दिखाई पड़े। और तब आप कह सकते हैं कि बुद्ध भी वहीं लाते हैं, सुना है मैंने कि एडीसन बूढ़ा हो गया था। और एक प्रयोग वह जहां महावीर लाते हैं।
कर रहा था, जिसको सात सौ बार करके असफल हो गया था। लेकिन नीचे रास्तों पर खड़ा हुआ आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ उसके सब सहयोगी घबड़ा चुके थे। तीन साल! सब ऊब गए थे। जाता है। और काफी विवाद चलता है। बौद्ध और जैन अभी तक | | उसके नीचे शोध करने वाले विद्यार्थी पक्का मान लिए थे कि अब विवाद कर रहे हैं। बुद्ध और महावीर को गए पच्चीस सौ साल हो | | उनकी रिसर्च कभी पूरी होने वाली नहीं है। और यह बूढ़ा है कि गए, पर उनके भीतर कलह अब भी जारी है। वे एक-दूसरे के | बदलता भी नहीं कि दूसरा कुछ काम हाथ में ले। उसी काम को खंडन में लगे रहते हैं।
किए जाता है! यह तो जैन मान ही नहीं सकता कि बुद्ध को ज्ञान हुआ होगा। और एक दिन सुबह एडीसन हंसता हुआ आया, तो उसके क्योंकि अगर ज्ञान हुआ होता, तो ऐसी अज्ञान की बात कहते? | साथी, सहयोगियों व विद्यार्थियों ने समझा कि मालूम होता है कि बौद्ध भी नहीं मान सकता कि महावीर को ज्ञान हुआ होगा। अगर उसको कोई कुंजी हाथ लग गई। तो वे सब घेरकर खड़े हो गए और ज्ञान हुआ होता, तो ऐसी अज्ञान की बात कहते कि आत्मा परम ज्ञान उन्होंने कहा कि आप इतने प्रसन्न हैं, मालूम होता है, आपका प्रयोग है! नीचे बड़ी कलह है।
| सफल हो गया, कुंजी हाथ लग गई। कृष्ण जैसे व्यक्तियों की सारी चेष्टा होती है कि आपकी शक्ति तो उसने कहा कि नहीं, एक बार और मैं असफल हो गया। कलह में व्यय न हो। आप लड़ने में समय और अवसर को न | | लेकिन एक असफलता और कम हो गई। सफलता करीब आती जा गंवाएं। आप कुछ करें।
रही है। आखिर असफलता की सीमा है। मैंने सात सौ दरवाजे टटोल इसलिए उचित है, एक बार मन में यह बात साफ समझ लेनी | | लिए, तो सात सौ दरवाजे पर भटकने की अब कोई जरूरत न रही। उचित है कि ज्ञानियों के शब्द में चाहे कितना ही फासला हो, जिस दिन मैंने पहली दफा शुरू किया था, अगर सात सौ एक दरवाजे ज्ञानियों के अनुभव में फासला नहीं हो सकता। ज्ञानियों के कहने हों, तो उस दिन सात सौ एक दरवाजे थे, अब केवल एक बचा। के ढंग कितने ही भिन्न हों, लेकिन उन्होंने जो जाना है, वह एक ही सात सौ कम हो गए। इसलिए मैं खुश हूं। रोज एक दरवाजा कम चीज हो सकती है। अज्ञानी बहुत-सी बातें जान सकते हैं। ज्ञानी तो होता जा रहा है। असली दरवाजा ज्यादा दूर नहीं है अब। एक को ही जानते हैं।
जवान साथी उदास होकर बैठ गए। उनकी समझ में यह बात न तो चाहे हमारी समझ में आता हो या न आता हो, मगर व्यर्थ | | आई। लेकिन जो इतने उत्साह से भरा हुआ आदमी है, उसके कलह और विवाद में मत पड़ना। और जिसकी बात आपको ठीक | | उत्साह का कारण केवल इतना है कि असफलता भी सफलता की लगती हो, उस रास्ते पर चलना शुरू कर देना।
सीढी है।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
गलत रास्ते पर भी अगर कोई चल रहा है, तो सही पर पहुंच क्यों हैं? जाएगा। और मैं आपसे कहता हूं, सही रास्ते पर भी खड़ा होकर यह संदेह उठना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐसी परंपराएं भी रही कोई विवाद कर रहा है, तो गलत पर पहुंच जाएगा।
हैं, जो तर्कहीन हैं। जैसे जापान में झेन है। वह कोई तर्कयुक्त खड़े होने से रास्ता चूक जाता है। चलने से रास्ता मिलता है। वक्तव्य नहीं देता। उनका ऋषि तर्कहीन वक्तव्य देता है। आप क्या असल में चलना ही रास्ता है। जो खड़ा है, वह रास्ते पर है ही नहीं, पूछते हैं, उसके उत्तर का उससे कोई संबंध भी नहीं होता है। क्योंकि क्योंकि खड़े होने का रास्ते से कोई संबंध नहीं है। चलने से रास्ता वह कहता है, तर्क को तोड़ना है। निर्मित होता है।
अगर आप जाकर एक झेन फकीर से पूछे कि सत्य का स्वरूप गलत पर भी कोई चले, लेकिन चले। और हठपूर्वक, जिदपूर्वक, | क्या है? तो हो सकता है, वह आपसे कहे कि बैठो, एक कप चाय संकल्पपूर्वक लगा रहे, तो गलत रास्ता भी ज्यादा देर तक उसे पकड़े पी लो। इसका कोई लेना-देना नहीं है सत्य से। आप पूछे कि नहीं रख सकता। जो चलता ही चला जाता है, वह ठीक पर पहुंच परमात्मा है या नहीं? तो हो सकता है, वह आपसे कहे कि जाओ, ही जाएगा। और जो खड़ा है, वह कहीं भी खड़ा हो, वह गलत पर और जरा हाथ-मुंह धोकर वापस आओ। गिर जाएगा।
| आप कहेंगे कि किसी पागल से बात कर रहे हैं। मैं पछ रहा है लेकिन हम खड़े होकर मजे से विवाद कर रहे हैं, क्या ठीक है, | कि परमात्मा है या नहीं; हाथ-मुंह धोने से क्या संबंध है! लेकिन क्या गलत है।
झेन फकीर का कहना यह है कि परमात्मा से तर्क का कोई संबंध कृष्ण, अर्जुन के मन में यह सवाल न उठे कि और ऋषियों ने नहीं है, इसलिए मैं तर्क को तोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। और क्या कहा है, इसलिए कहते हैं, सभी तत्व के जानने वालों ने बहुत अगर तुम अतर्य में उतरने को राजी नहीं हो, तो लौट जाओ। यह प्रकार से इसी को कहा है। नाना प्रकार के छंदों में, नाना प्रकार की दरवाजा तुम्हारे लिए नहीं है। व्याख्याओं में, अच्छी तरह निश्चित किए हुए युक्ति-युक्त ब्रह्मसूत्र पश्चिम के विचारकों को यह समझ में आता है कि अगर तर्क के पदों में भी वैसा ही कहा गया है।
से मिल सकता हो, तो तर्क की बात करनी चाहिए। अगर तर्क से इधर एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि धर्मशास्त्र भी युक्ति | मिल न सकता हो, तो तर्क की बात ही नहीं करनी चाहिए। ये दोनों का और तर्क का उपयोग करते हैं, लेकिन वे तार्किक नहीं हैं। बातें समझ में आती हैं। तर्कशास्त्री भी तर्क का उपयोग करते हैं, धर्म के रहस्य-अनुभवी लेकिन भारतीय शास्त्र दोनों से भिन्न हैं। भारतीय शास्त्र कहते भी तर्क का उपयोग करते हैं, लेकिन दोनों के तर्क में बुनियादी फर्क | हैं, तर्क से वह मिल नहीं सकता। लेकिन शंकर या नागार्जुन जैसे है। तर्कशास्त्री तर्क के द्वारा सोचता है कि सत्य को पा ले। धर्म की | तार्किक खोजने मुश्किल हैं। बहुत तर्क की बात करते हैं। क्या यात्रा में चलने वाला व्यक्ति पहले सत्य को पा लेता है और फिर कारण है? तर्क के द्वारा प्रस्तावित करता है। इन दोनों में फर्क है।
भारतीय अनुभूति ऐसी है कि तर्क सत्य को जन्म नहीं देता, धर्म मानता है कि सत्य को तर्क से पाया नहीं जा सकता, लेकिन लेकिन सत्य को अभिव्यक्त कर सकता है: सत्य की तरफ ले जा तर्क से कहा जा सकता है। धर्म की प्रतीति तर्क से मिलती नहीं, नहीं सकता, लेकिन असत्य से हटा सकता है। सत्य आपको दे नहीं लेकिन तर्क के द्वारा संवादित की जा सकती है।
सकता, लेकिन आपके समझने में सुगमता पैदा कर सकता है। और इसलिए पश्चिम में जब पहली दफे ब्रह्मसूत्रों का अनुवाद हआ, अगर समझ सुगम हो जाए, तो आप उस यात्रा पर निकल सकते तो ड्यूसन को और दूसरे विचारकों को एक पीड़ा मालूम होने | हैं। इसलिए भारतीय शास्त्र अत्यंत तर्कयुक्त हैं; गहन रूप से लगी। और वह यह कि भारतीय मनीषी निरंतर कहते हैं कि तर्क से तर्कयुक्त हैं। और इसलिए कई बार बड़ी कठिनाई होती है। सत्य को पाया नहीं जा सकता, लेकिन भारतीय मनीषी जब भी कुछ | | शंकर जैसा तार्किक जमीन पर कभी-कभी पैदा होता है। लिखते हैं, तो बड़ा तर्कपूर्ण लिखते हैं। अगर तर्क से पाया नहीं जा | | एक-एक शब्द तर्क है। और वही शंकर, मंदिर में गीत भी गा रहा सकता, तो इतना तर्कपूर्ण होने की क्या जरूरत है? जब तर्क से | । है, नाच भी रहा है। तो सोचेगा जो आदमी, उसको कठिन लगेगा सत्य का कोई संबंध नहीं है, तो ब्रह्मसूत्र जैसे ग्रंथ इतने तर्कबद्ध कि क्या बात है! एक तरफ तर्क की इतनी प्रगाढ़ योजना, इतनी तर्क
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की धार; और दूसरी तरफ यह आदमी काली के सामने या मां के न करते हों, चाहे हम वैसा आचरण न करते हों, लेकिन हम भी सामने गीत गाकर, भजन गाकर नाच रहा है!
भलीभांति जानते हैं कि हम इंद्रियों से भिन्न हैं। हमारी समझ में नहीं पड़ती बात। भजन गाकर, गीत गाकर, | अगर आपका हाथ कट जाए, तो आप ऐसा नहीं कहेंगे कि मैं नाचकर यह आदमी अनुभव में उतर रहा है। वह अनुभव तर्क से | कट गया। अगर आपका हाथ कट जाए, तो भी आप जरा भी नहीं संबंधित नहीं है। वह अनुभव रस से संबंधित है, आनंद से संबंधित कटेंगे। और आपके व्यक्तित्व का जो आभास था, वह पूरा का पूरा है, हृदय से संबंधित है, बुद्धि का उससे कोई लेना-देना नहीं है। | बना रहेगा। ऐसा नहीं कि आपको लगे कि आपके व्यक्तित्व का
लेकिन जब वह अनुभव इसे उपलब्ध हो जाएगा और यह किसी | | एक हिस्सा भी भीतर कट गया और आपकी आत्मा भी कुछ छोटी व्यक्ति को कहने जाएगा, तो कहना बुद्धि से संबंधित है। हृदय हो गई। आप उतने ही रहेंगे; लंगड़े होकर भी उतने ही रहेंगे: अंधे
और हृदय की क्या बात होगी? बात तो बुद्धि की होती है। और होकर भी आप उतने ही रहेंगे; बीमार होकर भी, बूढ़े होकर भी आप जब वह आपसे बात कर रहा है, तो बुद्धि का उपयोग करेगा। और उतने ही रहेंगे। आपके होने के बोध में कोई अंतर नहीं पड़ता। आपकी बुद्धि को अगर राजी कर ले, तो शायद आपकी बुद्धि से तो हम भी अनुभव करते हैं कि इंद्रियों से हम भिन्न हैं। शब्द, आपको हृदय तक उतारने के लिए भी राजी कर लेगा। स्पर्श, रूप, रस, गंध, उनसे भी हम भिन्न हैं, क्योंकि वे अनुभव
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मसूत्र ने अत्यंत युक्ति-युक्त रूप | | इंद्रियों के हैं। और जब हम इंद्रियों से भिन्न हैं, तो इंद्रियों के अनुभव से यही बात कही है।
से भी भिन्न हैं। कृष्ण जिसे बड़े गीतबद्ध रूप में कह रहे हैं, वही ब्रह्मसूत्र ने । स्थूल देह, पिंड, इन सबसे हम भिन्न हैं। लेकिन बड़ी क्रांति की युक्ति और तर्क के माध्यम से कही है।
बात है और वह है, चेतनता और धृति, यह भी कृष्ण ने कहा, ये और हे अर्जुन, वही मैं तेरे लिए कहता हूं कि पांच महाभूत, | | भी क्षेत्र हैं और इनसे भी हम भिन्न हैं। कांशसनेस और अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया भी तथा | कनसनट्रेशन-चेतनता और धृति। दस इंद्रियां, एक मन और पांच इंद्रियों के विषय-शब्द, स्पर्श, । यह थोड़ा-सा गहन और सूक्ष्म है। और इसे अगर समझ लें, तो रूप, रस और गंध तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुख और स्थूल देह का | | कुछ और समझने को बाकी नहीं रह जाता। पिंड एवं चेतनता और धृति, इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित | ___ पश्चिम के मनसविद मानते हैं कि आप चेतन हो ही तब तक संक्षेप में कहा गया है।
सकते हैं, जब तक चेतन होने को कुछ हो, कांशसनेस मीन्स टु बी इसमें बड़ी कठिनाई मालूम पड़ेगी। इसमें कुछ बड़ी ही कांशस आफ समथिंग। जब भी आप चेतन होते हैं, तो हो ही तब क्रांतिकारी बातें कही गई हैं। इस बात को मानने को हम राजी हो | | तक सकते हैं, जब तक किसी चीज के प्रति चेतन हों। अगर कोई सकते हैं कि पदार्थ पंच महाभूत क्षेत्र है, जो जाना जाता है वह। विषय न हो, तो चेतना भी नहीं हो सकती, ऐसा पश्चिम का
यह थोड़ा सूक्ष्म है और थोड़ा ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश मनोविज्ञान प्रस्तावित करता है। और उनकी बात में बड़ा बल है। करना।
उनकी बात में बड़ा बल है। यह हम मान सकते हैं कि पंच महाभूत पदार्थ है, क्षेत्र है, ज्ञेय ___ इसलिए वे कहते हैं कि अगर सभी विषय हट जाएं, तो आप है। उसे हम जान सकते हैं। हम उससे भिन्न हैं। इंद्रियां, निश्चित ही | | बेहोश हो जाएंगे, आप होश खो देंगे। क्योंकि होश तो किसी चीज हम उन्हें जान सकते हैं। आंख में आपके दर्द होता है, तो आप का ही होता है, होश बिना चीज के हो नहीं सकता। जानते हैं
हो रहा है। कान नहीं सुनता, तो आपको समझ में आपको मैं देख रहा हं. तो मझे होश होता है कि मैं आपको देख आ जाता है भीतर, कि कान सुन नहीं रहा है, मैं बहरा हो गया हूं। | रहा हूं। लेकिन आप नहीं हैं, मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा, तो मुझे निश्चित ही आप, जो भीतर बैठे हैं, जो जानता है कि कान बहरा यह भी नहीं होश हो सकता कि मैं देख रहा हूं। हां, अगर मुझे कुछ हो गया है, मैं सुन नहीं पा रहा हूं, या आंख अंधी हो गई, मुझे | | भी नहीं दिखाई पड़ रहा, तो फिर यह एक आब्जेक्ट, विषय बन दिखाई नहीं पड़ता, भिन्न है।
जाएगा मेरा कि मुझे कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। इसलिए मुझे इंद्रियों से हम अपने को भिन्न जानते हैं। चाहे हम वैसा व्यवहार पता चलेगा कि मैं हूं, क्योंकि मुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।
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गीता दर्शन भाग-6
लेकिन मेरे होने के लिए मुझे किसी चीज का अनुभव होना चाहिए, नहीं तो अपने होने का अनुभव नहीं होगा।
आप ऐसा समझें कि अगर आपको ऐसी जगह में रख दिया , जहां कोई शब्द, ध्वनि पैदा न होती हो, तो क्या आपको अपने कान का पता चलेगा? कैसे पता चलेगा? अगर कोई ध्वनि न होती हो, कोई शब्द न होता हो, तो आपको अपने कान का पता नहीं चलेगा। आपके पास कान हो तो भी आपको कभी पता नहीं चलेगा कि कान है।
अगर कोई चीज छूने को न हो, कोई चीज स्पर्श करने को न हो, तो आपको कभी पता नहीं चलेगा कि आपके पास स्पर्श की इंद्रिय है। अगर कोई चीज स्वाद लेने को न हो, तो आपको कभी पता न चलेगा कि आपके पास स्वाद के अनुभव की क्षमता है।
मनसविद कहते हैं, इसी भांति अगर कोई भी चीज चेतन होने को न हो, तो आपको अपनी चेतना का भी पता नहीं चलेगा। चेतना भी इसलिए पता चलती है कि संसार है, चारों तरफ चेतन होने के लिए वस्तुएं हैं।
इस विचार को मानने वाली जो धारा है, वह कहती है कि ध्यान अगर सच में – जैसा कि पूरब के मनीषी कहते हैं - घट जाए, तो आप बेहोश हो जाएंगे। क्योंकि जब जानने को कुछ भी शेष न रह जाएगा, तो जानने वाला नहीं बचेगा, सो जाएगा, खो जाएगा। जानने वाला तभी तक बच सकता है, जब तक जानने को कोई चीज हो। नहीं तो आप जानने वाले कैसे बचेंगे!
तो पश्चिम के मनसविद कहते हैं कि अगर ध्यान ठीक है, जैसा कि कृष्ण ने, पतंजलि ने, बुद्ध ने प्रस्तावित किया है, तो ध्यान में आदमी मूच्छित हो जाएगा, होश नहीं रह जाएगा। जब कोई आब्जेक्ट न होगा, जानने को कोई चीज न होगी, तो जानने वाला सो जाएगा।
इसे हम थोड़ा-बहुत अपने अनुभव से भी समझ सकते हैं। अगर रात आपको नींद न आती हो, तो उसका कारण आपको पता है क्या होता है? आपके मन में कुछ विषय होते हैं, जिनकी वजह से नींद नहीं आती; कोई विचार होता है, जिसकी वजह से नींद नहीं आती। आप अपने मन को निर्विचार कर लें, विषय से खाली कर लें, तत्क्षण नींद में खो जाएंगे ।
नींद आ जाएगी उसी वक्त, जब कोई चीज जगाने को न रहेगी। और जब तक कोई चीज जगाने को होती है, कोई एक्साइटमेंट होता है, कोई उत्तेजना होती है, तब तक नींद नहीं आती। अगर कोई भी
विषय मौजूद न हो, सभी उत्तेजना समाप्त हो जाए, तो आपके भीतर - मनसविद कहते हैं— जो चेतना है, वह खो जाएगी।
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कृष्ण भी उसी चेतना के लिए कह रहे हैं कि वह भी क्षेत्र है। कृष्ण भी राजी हैं इस मनोविज्ञान से। वे कहते हैं, यह जो चेतना है, जो पदार्थों के संबंध में आपके भीतर पैदा होती है, यह जो चेतना है, जो विषयों के संदर्भ में पैदा होती है; यह जो चेतना है, जो विषयों से जुड़ी है और विषयों के साथ ही खो जाती है, यह भी क्षेत्र है। तुम इस चेतना को भी अपनी आत्मा मत मानना। यह बड़ी गहन और आखिरी अंतर्खोज की बात है।
इस चेतना को भी तुम अपनी चेतना मत समझना। यह चेतना भी बाह्य - निर्भर है। यह चेतना भी पदार्थजन्य है। और जब इस चेतना के भी तुम ऊपर उठ जाओगे, तो ही तुम्हें पता चलेगा उस वास्तविक ब्रह्मतत्व का, जो किसी पर निर्भर नहीं है; तभी तुम्हें पता चलेगा क्षेत्रज्ञ का।
तो अब इसका अर्थ यह हुआ कि हम तीन हिस्से कर | कल हमने दो हिस्से किए थे। अब हम और गहरे जा सकते हैं। हमने दो हिस्से किए थे, ज्ञेय - आब्जेक्ट, जाने जाने वाली चीज । ज्ञाता - जानने वाला, नोअर, सब्जेक्ट । ये दो हमने विभाजन किए थे। अब कृष्ण कहते हैं, यह जो सब्जेक्ट है, यह जो नोअर है, जानने वाला है, यह भी तो जो जानी जाने वाली चीजें हैं, उनसे जुड़ा है। इन दोनों के ऊपर भी दोनों को जानने वाला एक तीसरा तत्व है, जो पदार्थ को भी जानता है और पदार्थ को जानने वाले को भी जानता है। यह तीसरा तत्व, यह तीसरी ऊर्जा तुम हो। और इस तीसरी ऊर्जा को नहीं
जाना जा सकता।
इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि जिस चीज को भी तुम जान लोगे, वही तुमसे अलग हो जाएगी। इसे ऐसा समझें। मेरे पास लोग आते हैं। कोई व्यक्ति आता है, वह कहता है, मैं बहुत अशांत हूं, मुझे कोई रास्ता बताएं। कोई ध्यान, कोई विधि, जिससे मैं शांत हो जाऊं। फिर वह प्रयोग करता है । अगर प्रयोग करता है, सच में निष्ठा से, तो | शांत भी होने लगता है। तब वह आकर मुझे कहता है कि अब मैं शांत हो गया हूं।
उससे मैं कहता हूं, अशांति से छूट गया, अब तू शांति से भी छूटने की कोशिश कर। क्योंकि यह तेरी शांति अशांति से ही जुड़ी ; यह उसका ही एक हिस्सा है। तू अशांति से छूट गया; बड़ी बात तूने कर ली। अब तू इस शांति से भी छूट, जो कि अशांति के विपरीत तूने पैदा की है, और तभी तू परम शांत हो सकेगा। लेकिन उस परम
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शांति में तुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं शांत हूं। जब तक आपको पता चलता है कि मैं शांत हूं, तब तक अशांत होने की क्षमता कायम है। जब तक आपको पता चलता है कि बड़े आनंद में हूं, तब तक आप किसी भी क्षण दुख में गिर सकते हैं। जब तक आपको पता चलता है, मैंने ईश्वर को जान लिया, ईश्वर से आप छूट सकते हैं। जिस चीज का भी बोध है, उसका अबोध हो सकता है।
आखिरी शांति तो उस क्षण घटित होती है, जब आपको यह भी पता नहीं चलता कि मैं शांत हूं। यह पता चलता ही नहीं कि मैं । अशांत हूं, यह भी पता नहीं चलता कि मैं शांत हूं।
असली ज्ञान तो उस समय घटित होता है, जब आपको यह तो खयाल मिट ही जाता है कि मैं अज्ञान हूं, यह भी खयाल मिट जाता है कि मैं ज्ञान हूं।
सुना है मैंने, ईसाइयत में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ, संत फ्रांसिस । बड़ी मीठी कथा है कि संत फ्रांसिस जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ, जब उसे परम बोध हुआ, तो पक्षी इतने निर्भय हो गए कि पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे, उसके सिर पर आकर बैठने लगे। नदी के किनारे से निकलता, तो मछलियां छलांग लगाकर उसका दर्शन करने लगतीं। वृक्षों के पास बैठ जाता, तो जंगली जानवर आकर उसके निकट खड़े हो जाते, उसको चूमने लगते।
यह बात बड़ी मीठी है। और निश्चित ही, जब कोई बहुत शांत हो जाए, , और बहुत आनंद से भर जाए, तो उसके प्रति दूसरे का जो भय है, वह कम हो जाएगा। यह घट सकता है।
लेकिन इधर मैं पढ़ रहा था, एक जापान में फकीर महिला हुई, उसका जीवन | उसके जीवन की कथा के अंत में एक बात कही गई है, जो बड़ी हैरान करने वाली है, पर बड़ी मूल्यवान है और कृष्ण की बात को समझने में सहयोगी होगी।
उस फकीर महिला के संबंध में कहा गया है कि जब वह अज्ञानी थी, तब कोई. पक्षी उसके पास नहीं आते थे। जब वह ज्ञानी हो गई, तो पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे। सांप भी उसके पास गोदी में आ जाता। जंगली जानवर उसके आस-पास उसे घेर लेते। लेकिन जब वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गई, तो फिर पक्षियों ने आना बंद कर दिया। सांप उसके पास न आते, जानवर उसके पास न आते। जब वह अज्ञानी थी, तब भी नहीं आते थे; जब ज्ञानी हो गई, तब आने लगे; और जब परम ज्ञानी हो गई, तब फिर बंद हो गए।
तो लोगों ने उससे पूछा कि क्या हुआ ? क्या तेरा पतन हो गया ?
बीच में तो तेरे पास इतने पक्षी आते थे। अब नहीं आते ? वह हंसने लगी। उसने तो कोई उत्तर न दिया। लेकिन उसके निकट उसको जानने वाले जो लोग थे, उन्होंने कहा कि जब तक उसे ज्ञान का बोध था, तब तक पक्षियों को भी पता चलता था कि वह ज्ञानी है। अब उसका वह भी बोध खो गया। अब उसे खुद ही पता नहीं है कि वह है भी या नहीं। तो पक्षियों को क्या पता चलेगा! जब उसे खुद ही पता नहीं चल रहा है।
तो झेन में कहावत है कि जब आदमी अज्ञानी होता है और जब आदमी परम ज्ञानी हो जाता है, तब बहुत-सी बातें एक-सी हो जाती हैं, बहुत-सी बातें एक-सी हो जाती हैं। क्योंकि अज्ञान में ज्ञान नहीं था। और परम ज्ञान में ज्ञान है, इसका पता नहीं होता। बीच में ज्ञान की एक घड़ी आती है।
वह ज्ञान की घड़ी यही है। तीन अवस्थाएं - एक तो हम पदार्थ के साथ अपना तादात्म्य किए हैं, शरीर के साथ जुड़े हैं कि मैं शरीर हूं, मैं इंद्रियां हूं। यह एक जगत अज्ञान का। फिर एक बोध का जगत, कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं इंद्रियां नहीं हूं। मगर यह भी शरीर बंधा है।
यह मैं शरीर नहीं हूं, यह भी शरीर से ही जुड़ा है। यह मैं इंद्रियां नहीं हूं, यह भी तो इंद्रियों के साथ ही जुड़ा हुआ संबंध है। कल जानते थे कि मैं इंद्रियां हूं, अब जानते हैं कि मैं इंद्रियां नहीं हूं, लेकिन दोनों के केंद्र में इंद्रियां हैं। कल तक समझते थे कि मैं शरीर हूं, अब समझते हैं कि शरीर नहीं हूं। लेकिन दोनों के बीच में शरीर है। ये दोनों ही बोध शरीर से बंधे हैं।
फिर एक तीसरी घटना घटती है, जब यह भी पता नहीं रह जाता कि मैं शरीर हूं या शरीर नहीं हूं। जब कुछ भी पता नहीं रह जाता। शरीर की मूर्च्छा तो छूट ही जाती है, वह जो मध्य में आई हुई चेतना | का ज्वार था, वह भी खो जाता है। शरीर से पैदा होने वाले दुख से तो छुटकारा हो जाता है, लेकिन फिर शरीर से छूटकर जो सुख | मिलते थे, उनसे भी छुटकारा हो जाता है। और एक परम शांत, परम मौन, न जहां ज्ञान है, न जहां ज्ञाता है, न जहां ज्ञेय है, ऐसी
शून्य अवस्था आ जाती है। इस शून्य अवस्था में ही क्षेत्रज्ञ, वह जो अंतिम छिपा है, वह प्रकट होता है।
न तो मैं चेतनता, न धृति। ध्यान भी नहीं । धृति का अर्थ है, ध्यान, धारणा ।
यह थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है, क्योंकि बहुत बार हम सीढ़ियों से जकड़ जाते हैं। बहुत बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
ले जाता है मंजिल तक, उसको हम पकड़ लेते हैं। लेकिन तब वही | जाए तो बड़ा खतरनाक हो गया काम। रुग्ण हो गई बात। अब ये मंजिल में बाधा बन जाता है।
और कहीं पहुंच ही नहीं सकते; सिर्फ नाव को ही ढोते रहेंगे। अब तो परम ध्यानियों ने कहा है कि तुम्हारा ध्यान उस दिन पूरा होगा, | | यह उस तरफ जाना भी बेकार हो गया। उससे तो अच्छा था कि जिस दिन ध्यान भी छूट जाएगा। जब तक ध्यान को पकड़े हो, तब पहले ही किनारे पर रहते। कम से कम मुक्त तो थे। यह सिर पर तक समझना कि अभी पहुंचे नहीं।
बंधी हुई नाव तो न थी। अब ये सदा के लिए गुलाम हो गए। प्रार्थना तो उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन प्रार्थना करना भी व्यर्थ __ अधार्मिक आदमी उस तरफ है किनारे पर। और तथाकथित हो जाएगा। जब तक प्रार्थना करना जरूरी है, तब तक फासला धार्मिक, जो पकड़ लेते हैं धर्मों की नावों को पागलपन से, वे भी मौजूद है। जब कोई नाव में बैठता है और नदी पार कर लेता है, तो | कहीं नहीं पहुंचते। आखिरी पड़ाव पर तो सभी कुछ छोड़ देना फिर नाव को भी छोड़कर आगे बढ़ जाता है। धर्म भी जब छूट जाता | पड़ता है। है, तभी परम धर्म में प्रवेश होता है।
तो कृष्ण कहते हैं, चेतनता भी क्षेत्र, और धृति, ध्यान, धारणा तो अगर कोई आखिरी समय तक भी हिंदू बना है, तो अभी भी। तुम उसे भी छोड़ देना। समझना कि अभी पहुंचा नहीं। अगर आखिरी समय तक भी जैन | | जब हम ध्यान करते हैं, तो उसका अर्थ ही होता है कि हम किसी बना है, तो समझना कि अभी पहुंचा नहीं। क्योंकि जैन, हिंदू, | | चीज का ध्यान कर रहे हैं। जब हम ध्यान करते हैं, तो उसका अर्थ मुसलमान, ईसाई, नावें हैं। नदी से पार ले जाने वाली हैं। लेकिन ही होता है कि हम कुछ कर रहे हैं। जब हम ध्यान करते हैं, तो परमात्मा में प्रवेश के पहले नावें छोड़ देनी पड़ती हैं। मंजिल जब | | उसका अर्थ ही होता है कि हम अभी उस भीतर के मंदिर में नहीं आ गई, तो साधनों की क्या जरूरत रही? '
पहुंचे; अभी हम बाहर संघर्ष कर रहे हैं, सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। लेकिन अगर हम आखिर तक भी नाव को पकड़े रहें और हो | । जिस दिन कोई भीतर के मंदिर में पहुंचता है, ध्यान करने की भी सकता है हमारा मन हमसे कहे, और बात ठीक भी लगे, कि जिस कोई जरूरत नहीं रह जाती। क्या आवश्यकता है ध्यान की? जब नाव ने इतने कठिन भवसागर को पार करवाया, उसको कैसे बीमारी छूट गई, तो औषधि को रखकर कौन चलता है ? और अगर छोड़ें तो फिर हम नाव में ही बैठे रह जाएंगे, तो नाव की भी कोई औषधि को रखकर चलता हो. तो समझना कि बीमारी भला मेहनत व्यर्थ गई। हमें इस पार तो ले आई, लेकिन हम किनारे उतर | | छूट गई, अब औषधि बीमारी हो गई। अब ये औषधि को ढो रहे नहीं सकते, नाव को पकड़े हुए हैं।
हैं। पहले ये बीमारी से परेशान थे, अब ये औषधि से परेशान हैं। बुद्ध कहते थे कि एक बार कुछ नासमझ, या समझें बड़े मैं एक संत के आश्रम में मेहमान था। उनके भक्त कहते थे कि समझदार, नदी पार किए। तो जिस नाव में उन्होंने नदी पार की, वे परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। जब भक्त कहते थे, तो मैंने उतरकर किनारे पर उन सब ने सोचा कि इस नाव की बड़ी कृपा है। कहा कि जरूर हो गए होंगे। अच्छा ही है। कोई परम ज्ञान को
और इस नाव को हम कैसे छोड़ सकते हैं! तो दो ही उपाय हैं, या | | उपलब्ध हो जाए, इससे अच्छा कुछ भी नहीं है। तो हम नाव में ही बैठे रहें, और या फिर नाव को हम अपने कंधों | | लेकिन सुबह मैंने देखा, पूजा-पाठ में वे लगे हैं। तो दोपहर मैंने पर ले लें, अपने सिर पर रख लें और यात्रा आगे चले। तो उन्होंने | उनसे पूछा कि अगर आप पूजा-पाठ छोड़ दें, तो कुछ हर्ज है? तो नाव को अपने सिर पर उठा लिया।
उन्होंने कहा, आप भी कैसी नास्तिकता की बात कर रहे हैं! फिर जब वे गांव से निकलते थे, गांव के लोग बहुत हैरान हुए। पूजा-पाठ, और मैं छोड़ दूं! अगर पूजा-पाठ छोड़ दूं, तो सब नष्ट उन्होंने पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? हमने कभी नाव को लोगों ही हो जाएगा। के सिर पर नहीं देखा! तो उन्होंने कहा कि तुम अकृतज्ञ लोग हो। | तो पूजा-पाठ छोड़ने से अगर सब नष्ट हो जाएगा, तो फिर कुछ तुम्हें पता नहीं, इस नाव की कितनी अनुकंपा है। इसने ही हमें नदी मिला नहीं है। तब तो यह पूजा-पाठ पर ही निर्भर है सब कुछ। तब पार करवाई। अब कुछ भी हो जाएं, हम इस नाव को नहीं छोड़ | कोई ऐसी संपदा नहीं मिली, जो छीनी न जा सके। पूजा-पाठ बंद सकते। अब हम इसको सिर पर लेकर चलेंगे।
होने से छिन जाएगी, अगर यह भय है, तो अभी कुछ मिला नहीं जिस नाव ने नदी पार करवाई, वह नाव अगर सिर पर सवार हो । है। अगर नाव छिनने से डर लगता हो, तो आप अभी उस किनारे
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पर नहीं पहुंचे। अगर उस किनारे पर पहुंच गए हों, तो आप कहेंगे | जो अपने विपरीत के बिना नहीं हो सकता, वह विकारग्रस्त है। कि ठीक है। अब नाव की क्या जरूरत है! कोई भी ले जाए। क्योंकि जो विपरीत के बिना नहीं हो सकता, उसमें विपरीत मौजूद
अगर आप दवा की बोतल जोर से पकड़ते हों और कहते हों, मैं | स्वस्थ तो हो गया, लेकिन अगर द्रवा मुझसे छीनी गई, तो मैं फिर समझिए, आप किसी को प्रेम करते हैं। आपके प्रेम में, जिसको बीमार हो जाऊंगा, तो समझना चाहिए कि अभी आप बीमार ही हैं। | आप प्रेम करते हैं, उसके प्रति घृणा भी है या नहीं, इसकी जरा खोज और बीमारी ने सिर्फ एक नया रूप ले लिया। अब बीमारी का नाम | करें। अगर घृणा है, तो यह प्रेम विकारग्रस्त है। और अगर घृणा औषधि है।
नहीं है, तो यह प्रेम विकार के बाहर हो जाएगा। कई लोग बीमारी से छूट जाते हैं, डाक्टरों से जकड़ जाते हैं। कई लेकिन फ्रायड कहता है, हमारे सभी प्रेम में घृणा है। जिसको लोग संसार छोड़ते हैं, संन्यास से जकड़ जाते हैं। कई लोग पत्नी हम प्रेम करते हैं, उसी को घृणा भी करते हैं। इसलिए ऐसा प्रेमी को छोड़ते हैं, पति को छोड़ते हैं, फिर गुरु से पकड़ जाते हैं। लेकिन | खोजना कठिन है जो कभी अपनी प्रेयसी के मरने की बात न सोचता पकड़ नहीं जाती। कहीं न कहीं पकड़ जारी रहती है। | हो। ऐसी प्रेयसी खोजनी कठिन है जो कभी सपना न देखती हो कि
जब सभी पकड़ चली जाती है, तभी परमात्मा उपलब्ध होता है। | उसका प्रेमी मर गया, मार डाला गया। हालांकि सपना देखकर जब तक हम कुछ भी पकड़ते हैं, तब तक हम अपने और उसके | सुबह बहुत रोती है कि बहुत बुरा सपना देखा। लेकिन सपना बीच फासला पैदा किए हुए हैं।
आपका ही है, किसी और का नहीं है। देखा, तो उसका मतलब है तो कृष्ण कहते हैं, न तो चेतनता, न धृति। तुम्हारी धृति भी क्षेत्र | कि भीतर चाह है। है। तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी धारणा, तुम्हारा योग, सभी क्षेत्र है। __ आप जिसको प्रेम करते हैं, अगर थोड़ी समझ का उपयोग करेंगे,
बड़ी क्रांतिकारी बात है। लेकिन हम गीता पढ़ते रहते हैं, हमें | तो पाएंगे, आपके मन में उसी के प्रति घृणा भी है। इसीलिए तो कभी खयाल नहीं आता कि कोई क्रांति छिपी होगी यहां। हम पढ़ | सुबह प्रेम करते हैं, दोपहर लड़ते हैं। सांझ प्रेम करते हैं, सुबह फिर जाते हैं मुर्दे की तरह। हमें खयाल में भी नहीं आता कि कृष्ण क्या कलह करते हैं। कह रहे हैं।
ऐसे प्रेमी खोजना कठिन हैं जो कलह न करते हों। ऐसे ___ अगर पश्चिम का मनोविज्ञान भारतीय पढ़ते हैं, तो उनको लगता पति-पत्नी खोजने कठिन हैं जिनमें झगड़ा न होता हो। और अगर है कि वे गलत बात कह रहे हैं। चेतना कैसे वस्तुओं से बंध सकती पति-पत्नी में झगड़ा न होता हो, तो पति-पत्नी दोनों को शक हो है? अगर चेतना वस्तुओं से बंधी है, तो फिर ध्यान कैसे होगा? जाएगा कि लगता है, प्रेम विदा हो गया। लेकिन कृष्ण खुद कह रहे हैं कि चेतनता भी शरीर का ही हिस्सा भारत के गांव में तो स्त्रियां यह मानती ही हैं कि जिस दिन पति है। इसके पार एक और ही तरह का चैतन्य है, जो किसी पर निर्भर मार-पीट बंद कर देता है, वे समझ लेती हैं, वह किसी और स्त्री में नहीं है; अनकंडीशनल, बेशर्त, अकारण। लेकिन उसे पाने के लिए | उत्सुक हो गया है। साफ ही है, जाहिर ही यह बात है कि अब इस चेतनता को भी छोड़ देना पड़ता है।
उसका कोई रस नहीं रहा। इतना भी रस नहीं रहा कि झगड़ा करे। परम गुरु के पास पहुंचना हो, तो गुरु को भी छोड़ देना पड़ता | इतनी उदासीनता हो गई है। है। जहां सब साधन छूट जाते हैं, वहीं साध्य है।
पति-पत्नी जब तक झगड़ते रहते हैं, तभी तक आप समझना कि ये सभी पंच महाभूत, यह शरीर, अहंकार, मन, इंद्रियां, इंद्रियों प्रेम है। जिस दिन झगड़ा बंद, तो आप यह मत समझना कि प्रेम के विषय, रस, रूप, चेतनता, धृति, ये सभी विकार सहित। | इतनी ऊंचाई पर पहुंच गया है। इतनी ऊंचाई पर नहीं पहुंचता। बात
इन सब में विकार है। ये सभी दूषित हैं। इनमें कुछ भी कुंवारा | ही खतम हो गई। अब झगड़ा करने में भी कोई रस नहीं है। अब नहीं है। क्यों? विकार का एक ही अर्थ है गहन अध्यात्म में, जो ठीक है, एक-दूसरे को सह लेते हैं। अब ठीक है, एक-दूसरे से अपने विपरीत के बिना नहीं हो सकता, वह विकारग्रस्त है। इस बचकर निकल जाते हैं। अब इतना भी मूल्य नहीं है एक-दूसरे का परिभाषा को ठीक से खयाल में ले लें। क्योंकि बहुत बार आगे कि लड़ें। जब तक झगड़ा जारी रहता है, तब तक वह दूसरा पहलू काम पड़ेगी।
| भी जारी रहता है। लड़ लेते हैं, फिर प्रेम कर लेते हैं।
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सच तो यह है कि अगर हम ठीक से समझें, तो हमारा प्रेम वैसा । । इसलिए, आपको खयाल में है, अगर आप एक दस दिन के ही है, जैसे श्वास है। आप श्वास लेते ही चले जाएं और छोड़ें न, लिए काश्मीर चले जाते हैं, तो आपको अच्छा लगता है। क्यों? तो मर जाएंगे। छोड़नी भी पड़ेगी श्वास, तभी आप ले सकेंगे। । | क्योंकि काश्मीर में सब नया है और आपको ज्यादा चेतन होना
खाना और भूख! भूख लगेगी, तो भोजन करेंगे। भूख नहीं | | पड़ता है। बंबई में जिस रास्ते से आप रोज निकलते हैं, वहां लगेगी, तो भोजन कैसे करेंगे? तो भूख जरूरी है भोजन के लिए। | जिंदगीभर से निकल रहे हैं, वहां आपको चेतन होने की जरूरत ही फिर भोजन जरूरी है कि अगले दिन की भूख लग सके, इसके | नहीं है। वहां से आप मूर्छित, सोए हुए निकल जाते हैं। वृक्ष होगा, लायक आप बच सकें। नहीं तो बचेंगे कै
होगा। वह आप देखते नहीं। पास से लोग निकल रहे हैं, वह आप बड़े मजे की बात है, भोजन करना हो तो भूख जरूरी है। और | | देखते नहीं। भूख लगानी हो तो भोजन जरूरी है। ठीक वैसे ही अगर प्रेम करना | लेकिन आप दस दिन के लिए छुट्टी पर काश्मीर जाते हैं। सब हो तो बीच-बीच में घृणा का वक्त चाहिए, तब भूख लगती है। फिर | नया है। नए पदार्थ, नए आब्जेक्ट, नए विषय, आपको चेतन होना प्रेम कर लेते हैं। श्वास बाहर निकल गई, फिर भीतर ले लेते हैं। | पड़ता है; जरा रीढ़ सीधी करके, आंख खोलकर गौर से देखना.
हमारी सब चीजें विपरीत से जुड़ी हैं। हमारे प्राण में भी मौत छिपी पड़ता है। लेकिन एक-दो दिन बाद फिर आप वैसे ही ढीले पड़ है। हमारे भोजन में भी भूख छिपी है। हमारे प्रेम में घृणा है। हमारे | | जाएंगे। क्योंकि वे ही चीजें फिर बार-बार क्या देखनी! . जन्म में मृत्यु जुड़ी है।
तो काश्मीर में जो आदमी रह रहा है. डल झील में जो आपकी जहां विपरीत के बिना कोई अस्तित्व नहीं होता, वहां विकार है।। नाव को चलाएगा, वह उतना ही ऊबा हुआ है डल झील से, जितना और उस अस्तित्व को हम विकाररहित कहते हैं, जहां विपरीत की | | आप बंबई से ऊबे हुए हैं। वह भी बड़ी योजनाएं बना रहा है कि कोई भी जरूरत नहीं है; जहां कोई चीज अपने में ही हो सकती है, कब मौका हाथ लगे और बंबई जाकर छुट्टियों में घूम आए। उसको विपरीत की कोई आवश्यकता नहीं है। बिना विपरीत के जहां कुछ भी बंबई में इतना ही मजा आएगा, जितना आपको डल झील पर होता है, वहां कुंवारापन, वहां पवित्रता, वहां निर्दोष घटना घटती है। आ रहा है। और दस दिन आप भी डल झील पर रह गए, तो आप
इसलिए हम क्राइस्ट के प्रेम को, कृष्ण के प्रेम को पवित्र कह | | वैसे ही डल हो जाएंगे जैसे बंबई में थे। कोई फर्क नहीं रहेगा। सकते हैं। क्योंकि उसमें घृणा नहीं है; उसमें घृणा का कोई तत्व नहीं चेतनता खो जाएगी।
इसलिए चेतना के लिए हमें रोज नई चीजों की जरूरत पड़ती है; लेकिन अगर आपको कृष्ण प्रेम करने को मिल जाएं, तो आपको | | नई चीजों की रोज जरूरत पड़ती है। वही भोजन रोज करने पर उनके प्रेम में मजा नहीं आएगा। क्योंकि आपको लगेगा ही नहीं, | चेतना खो जाती है, बेहोशी आ जाती है, मूर्छा हो जाती है। पक्का पता ही नहीं चलेगा कि यह आदमी प्रेम करता भी है कि वही पत्नी रोज-रोज देखकर मूर्छा आने लगती है; तो फिल्म नहीं। क्योंकि वह घृणा वाला हिस्सा मौजूद नहीं है। वह विपरीत | जाकर एक फिल्म स्टार को देख आते हैं। रास्ते पर स्त्रियों को मौजूद नहीं है। तो आपको पता भी नहीं चलेगा।
झांककर देख लेते हैं। लोग नंगी तस्वीरें देखते रहते हैं बैठकर एकांत __ अगर बुद्ध आपको प्रेम करें, तो आपको कोई रस नहीं आएगा | | में। उन पर ध्यान करते रहते हैं। उससे थोड़ी चेतनता आ जाती है, ज्यादा। क्योंकि बुद्ध का प्रेम बहुत ठंडा मालूम पड़ेगा; उसमें कोई | | थोड़ा एक्साइटमेंट आता है। लौटकर घर की पत्नी भी थोड़ी-सी नई गरमी नहीं दिखाई पड़ेगी। वह गरमी तो घृणा से आती है। गरमी | | मालूम पड़ती है, थोड़ी आंख की धूल गिर गई होती है। विपरीत से आती है। गरमी कलह से आती है। गरमी संघर्षण से | नया विषय चाहिए। अगर आपको सभी विषय पुराने मिल जाएं, आती है। वह संघर्षण वहां नहीं है।
| और वहां कुछ भी नया न घटित होता हो, तो आप बेहोश हो ___ इस बात को खयाल में ले लेंगे कि विपरीत की मौजूदगी जिसके | | जाएंगे, आप मूर्छित हो जाएंगे। लिए जरूरी है, वह विकार है। इसलिए कृष्ण चेतनता को भी विकार | इस पर पश्चिम में बहुत प्रयोग होते हैं। इस प्रयोग को वे सेंस कहते हैं। क्योंकि उसके लिए कोई चाहिए दूसरा, उसके बिना डिप्राइवेशन कहते हैं। एक आदमी को एक ऐसी जगह बंद कर देते चेतना नहीं हो सकती।
हैं, जहां कोई भी घटना न घटती हो। स्वर-शून्य, साउंड-प्रूफ,
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गहन अंधकार, आंखों पर पट्टियां, हाथ पर सब इस तरह के कपड़े कि वह अपने को भी न छू सके। सब हाथ-पैर बंधे हुए। भोजन भी इंजेक्शन से पहुंच जाएगा। उसको भोजन भी नहीं करना है।
छत्तीस घंटे में ही आदमी बेहोश हो जाता है, वह भी बहुत सजग आदमी। नहीं तो छः घंटे में आदमी बेहोश हो जाता है। छः घंटे कोई संवेदना नहीं, कोई सेंसेशन नहीं, तो आदमी बेहोश होने लगता है। क्या करेगा? होश खोने लगता है।
बहुत होश रखने वाला आदमी, छत्तीस घंटे में वह भी बेहोश हो जाता है। क्योंकि करोगे क्या! होश रखने को कुछ भी तो नहीं है। न कोई आवाज होती, न कोई ट्रैफिक का शोरगुल होता, न कोई रेडियो बजता, न कोई घटना घटती। कुछ भी नहीं हो रहा है। तो आप धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस न होने की अवस्था में बेहोश हो जाएंगे।
कृष्ण कहते हैं, ऐसी चेतना भी, जो किसी चीज पर निर्भर है, वह भी विकारग्रस्त है। ऐसा ध्यान भी, जो किसी पर निर्भर है, वैसा ध्यान भी विकारग्रस्त है। और जब इस सारे क्षेत्र के पार कोई हो जाता है, तो क्षेत्रज्ञ का अनुभव होता है।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई भी उठे नहीं। कोई भी एक व्यक्ति बीच से उठता है, तो अड़चन होती है। पांच मिनट कीर्तन में भाग लें। कीर्तन के पूरे होने पर जाएं।
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अध्याय 13 तीसरा प्रवचन
रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
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गीता दर्शन भाग-600
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
मकान में आग लगी हो, तो आप बहुत चेतन हो जाएंगे, अगर आचायोपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।७।। | नींद भी आ रही हो, तो खो जाएगी। आपको ऐसी एकाग्रता कभी
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। न मिली होगी, जैसी मकान में आग लग जाए, तो तब मिलेगी। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।८।। आपने लाखों बार कोशिश की होगी कि सारी दुनिया को भूलकर और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण | कभी क्षणभर को परमात्मा का ध्यान कर लें। लेकिन जब भी ध्यान
का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, | के लिए बैठे होंगे, हजार बातें उठ आई होंगी, हजार विचार आए क्षमाभाव, मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु होंगे। एक परमात्मा के विचार को छोड़कर सभी चीजों ने मन को की सेवा-उपासना, बाहर-भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की घेर लिया होगा। लेकिन मकान में आग लग गई हो, तो सब भूल स्थिरता, मन और इंडियों सहित शरीर का निग्रह तथा इस | जाएगा। सारा संसार जैसे मिट गया। मकान में लगी आग पर ही लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव | चित्त एकाग्र हो जाएगा। और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग यह भी चेतना है। लेकिन यह चेतना बाहर से पैदा हुई है; यह आदि में दोषों का बारंबार दर्शन करना, ये सब ज्ञान के | बाहर की चोट में पैदा हुई है; यह बाहर पर निर्भर है। तो कृष्ण ने
कहा कि ऐसी चेतना भी शरीर का ही हिस्सा है। वह भी क्षेत्र है।
फिर क्या ऐसी भी कोई चेतना हो सकती है, जो किसी चीज पर
| निर्भर न हो, जो किसी के द्वारा पैदा न होती हो, जो हमारा स्वभाव पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि चेतना के | हो? स्वभाव का अर्थ है कि किसी कारण से पैदा नहीं होगी; हम खो जाने पर प्राप्त समाधि क्या मूर्छा की अवस्था है? | हैं, इसलिए है; हमारे होने में ही निहित है। रामकृष्ण परमहंस कई दिनों तक मृतप्राय अवस्था में जब कोई आवाज करता है और आपका ध्यान उस तरफ जाता लेटे रहते थे!
| है, तो यह ध्यान का जाना आपके होने में निहित नहीं है। यह
आवाज के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, यह बाई-प्रोडक्ट है; यह
आपका स्वभाव नहीं है। तना के खो जाने पर बहुत बार बाहर से मूर्छा जैसी ऐसा सोचें कि बाहर से कोई भी संवेदना नहीं मिलती, बाहर कोई प प्रतीति होती है। रामकृष्ण अनेक बार, हमारे लिए | घटना नहीं घटती, और फिर भी आपका होश बना रहता है। इस
बाहर से देखने पर, अनेक दिनों के लिए मूर्छित हो | चेतना को हम आत्मा कहते हैं। और बाहर से पैदा हुई जो चेतना है, जाते थे। शरीर ऐसे पड़ा रहता था, जैसे बेहोश आदमी का हो। पानी | | वह धारणा है, ध्यान है। कृष्ण ने उसे भी शरीर का हिस्सा माना है। और दूध भी प्रयासपूर्वक, जबरदस्ती ही देना पड़ता था।
रामकृष्ण जब बेहोश हो जाते थे, तो उनकी धृति खो गई, उनका जहां तक बाहर का संबंध है, वे मूछित थे; और जहां तक भीतर ध्यान खो गया, उनकी धारणा खो गई। अब बाहर कोई कितनी भी का संबंध है, वे जरा भी मूर्छित नहीं थे। भीतर तो होश पूरा था। आवाज करे, तो उनकी चेतना बाहर न आएगी। लेकिन अपने लेकिन यह होश, यह चेतना हमारी चेतना नहीं है।
स्वरूप में वे लीन हो गए हैं; अपने स्वरूप में वे परिपूर्ण चैतन्य हैं। कल कृष्ण के सूत्र में हमने समझा कि चेतना दो तरह की हो | | जब उनकी समाधि टूटती थी, तो वे रोते थे और वे चिल्ला-चिल्ला सकती है। एक तो चेतना जो किसी वस्तु के प्रति हो और किसी | कर कहते थे कि मां मुझे वापस वहीं ले चल। यहां कहां तूने मुझे वस्तु के द्वारा पैदा हुई हो। चेतना, जो कि किसी वस्तु का प्रत्युत्तर | | दुख में वापस भेज दिया! उसी आनंद में मुझे वापस लौटा ले। हो। आप बैठे हैं, कोई जोर से आवाज करता है; आपकी चेतना | जिसको हम मूर्छा समझेंगे, वह उनके लिए परम आनंद था। उस तरफ खिंच जाती है, ध्यान आकर्षित होता है। आप बैठे हैं, | बाहर से सब इंद्रियां भीतर लौट गई हैं। बाहर जो ध्यान जाता था, मकान में आग लग जाए, तो सारा जगत भूल जाता है। आपकी | | वह सब वापस लौट गया। जैसे गंगा गंगोत्री में वापस लौट गई। चेतना मकान में आग लगी है, उसी तरफ खिंच जाती है। वह जो चेतना बाहर आती थी दरवाजे तक, अब नहीं आती; अपने
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में लीन और थिर हो गई।
हम चिकित्सक के पास जाएंगे, तो वह भी कहेगा, यह भी हमारे लिए तो रामकृष्ण मूछित ही हो गए। और अगर पश्चिम हिस्टीरिया का एक प्रकार है। लेकिन भीतर से बड़ा फर्क है। क्योंकि के मनोवैज्ञानिकों से पूछे, तो वे कहेंगे, हिस्टीरिकल है; यह घटना हिस्टीरिया का मरीज जब वापस लौटता है अपनी मूर्छा से, तो वही हिस्टीरिया की है। क्योंकि पश्चिम के मनोविज्ञान को अभी भी उस | का वही होता है जो मूर्छा के पहले था। रामकृष्ण जब अपनी मूर्छा दूसरी चेतना का कोई पता नहीं है।
से वापस लौटते हैं, तो वही नहीं होते जो मूर्छा के पहले थे। वह अगर रामकृष्ण पश्चिम में पैदा होते, तो उन्हें पागलखाने ले आदमी खो गया। जाया गया होता। और जरूर मनसविदों ने उनकी चिकित्सा की अगर वह आदमी क्रोधी था, तो अब यह आदमी क्रोधी नहीं है। होती और जबरदस्ती होश में लाने के प्रयास किए जाते। अगर वह आदमी अशांत था, तो अब यह आदमी अशांत नहीं है। एक्टीवायजर दिए जाते, जिनसे कि वे ज्यादा सक्रिय हो जाएं। अगर वह आदमी दुखी था, तो अब यह आदमी दुखी नहीं है। अब इंजेक्शन लगाए जाते, शरीर में हजार तरह की कोशिश की जाती, यह परम आनंदित है। ताकि चेतना वापस लौट आए। क्योंकि पश्चिम का मनोविज्ञान हिस्टीरिया का मरीज तो हिस्टीरिया की बेहोशी के बाद वैसा का बाहर की चेतना को ही चेतना समझता है। बाहर की चेतना खो गई, । | वैसा ही होता है, जैसा पहले था। शायद और भी विकृत हो जाता तो आदमी मूर्छित है, मरने के करीब है।
| है। बीमारी उसे और भी तोड़ देती है। लेकिन समाधि में गया व्यक्ति रोमां रोला ने लिखा है कि सौभाग्य की बात है कि रामकृष्ण पूरब | नया होकर वापस लौटता है; पुनरुज्जीवित हो जाता है। उसके में पैदा हुए, अगर पश्चिम में पैदा होते, तो हम उनका इलाज करके जीवन में नई हवा और नई सुगंध और नया आनंद फैल जाता है। उनको ठीक कर लेते। ठीक कर लेने का मतलब कि उन्हें हम । पश्चिम में वे लक्षण से सोचते हैं: हम परिणाम से सोचते हैं। साधारण आदमी बना लेते, जैसे आदमी सब तरफ हैं। और वह जो | हम कहते हैं कि समाधि के बाद जो घटित होता है, वही तय करने परम अनुभूति थी, उसको पश्चिम में कोई भी पहचान न पाता। | वाली बात है कि समाधि समाधि थी या मूर्छा थी।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक और मनोवैज्ञानिक है, रामकृष्ण सोने के होकर वापस आते। और जिस मुर्छा से आर.डी.लैंग। आर.डी.लैंग का कहना है कि पश्चिम में जितने कचरा जल जाता हो और सोना निखर आता हो, उसको मूर्छा लोग आज पागल हैं, वे सभी पागल नहीं हैं; उनमें कुछ तो ऐसे हैं, कहना उचित नहीं है। वह जो रामकृष्ण का वासनाग्रस्त व्यक्तित्व जो किसी पुराने जमाने में संत हो सकते थे। लेकिन वे पागलखानों था, वह समाप्त हो जाता है; और एक अभूतपूर्व, एक परम में पड़े हैं। क्योंकि पश्चिम की समझ भीतर की चेतना को स्वीकार ज्योतिर्मय व्यक्तित्व का जन्म होता है। तो जिसमा से ज्योतिर्मय नहीं करती। तो बाहर की चेतना खो गई, कि आदमी विक्षिप्त मान व्यक्तित्व का जन्म होता हो, उसको हम बीमारी न कहेंगे; उसको लिया जाता है। .
हम परम सौभाग्य कहेंगे। परिणाम से निर्भर होगा। ___ हम रामकृष्ण को विमुक्त मानते हैं। फर्क क्या है? हिस्टीरिया रामकृष्ण की बेहोशी बेहोशी नहीं थी। क्योंकि अगर वह बेहोशी
और रामकृष्ण की मूर्छा में फर्क क्या है? जहां तक बाहरी लक्षणों | होती, तो रामकृष्ण का वह जो दिव्य रूप प्रकट हुआ, वह प्रकट का संबंध है, एक से हैं। रामकृष्ण के मुंह से भी फसूकर गिरने | नहीं हो सकता था। बेहोशी से दिव्यता पैदा नहीं होती। दिव्यता तो लगता था; हाथ-पैर लकड़ी की तरह जकड़ जाते थे; मुर्दे की भांति | | परम चैतन्य से ही पैदा होती है; परम होश से ही पैदा होती है। पर वे पड़ जाते थे। हाथ-पैर में पहले कंपन आता था, जैसे हिस्टीरिया हमारे लिए देखने पर तो रामकृष्ण बेहोश हैं। लेकिन भीतर वे परम के मरीज को आता है। और इसके बाद वे जड़वत हो जाते थे। सारा होश में हैं। होश खो जाता था। अगर उस समय हम उनके पैर को भी काट दें, | ऐसा समझें कि द्वार-दरवाजे सब बंद हो गए, जहां से किरणें तो उनको पता नहीं चलेगा। यही तो हिस्टीरिया के मरीज को भी बाहर आती थीं होश की। इंद्रियां सब शांत हो गईं और भीतर का घटित होता है। कोमा में पड़ जाता है, बेहोशी में पड़ जाता है। | दीया भीतर ही जल रहा है; उसकी कोई किरण बाहर नहीं आती। लेकिन फर्क क्या है?
| इसलिए हम पहचान नहीं पाते। लेकिन यह बेहोशी बेहोशी नहीं है। इस घटना में ऊपर से देखने में तो कोई फर्क नहीं है। और अगर | अगर फिर भी कोई जिद्द करना चाहे कि यह बेहोशी ही है, तो
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- गीता दर्शन भाग-600
यह बड़ी आध्यात्मिक बेहोशी है। और यह शब्द उचित नहीं है। हम | |बाकी किताब बिलकुल ठीक है। मैं आपकी सब किताबें पढ़ता रहा तो इसे परम होश कहते हैं। और पश्चिम के मनोविज्ञान को आज | हूं। सभी किताबें ठीक हैं। पर एक बात इसमें आपने बिलकुल नहीं कल यह भेद स्वीकार करना पड़ेगा। इस संबंध में खोजबीन | गलत लिखी है। शुरू हो गई है।
रसेल ने बड़ी जिज्ञासा, उत्सुकता से पूछा कि कौन-सी बात अभी तक तो फ्रायड के प्रभाव में उन्होंने संतों को और पागलों | गलत लिखी है? तो उसने कहा कि आपने किताब में लिखा है कि को एक ही साथ रख दिया था। जीसस के संबंध में ऐसी किताबें जूलियस सीजर मर गया है। यह गलत है! लिखी हैं पश्चिम में मनोवैज्ञानिकों ने, जिनमें सिद्ध करने की जूलियस सीजर को मरे सैकड़ों साल हो गए हैं। रसेल बहुत कोशिश की है कि जीसस भी न्यूरोटिक थे, विक्षिप्त थे। चौंका कि उसने गलती भी क्या खोजी है कि जूलियस सीजर मर
स्वभावतः, कोई आदमी जो कहता है, मैं ईश्वर का पुत्र हूं, हमें गया है, यह आपने लिखा है, यह बिलकुल गलत है। तो रसेल ने पागल ही मालूम पड़ेगा। कोई आदमी जो यह दावा करता है कि मैं | पूछा, आपके पास प्रमाण? उसने कहा कि प्रमाण की क्या जरूरत ईश्वर का पुत्र हूं, हमें पागल मालूम पड़ेगा। या तो हम समझेंगे कि | | है! मैं जूलियस सीजर हूं। धूर्त है या हम समझेंगे पाखंडी है या हम समझेंगे पागल है। कौन | मनोविज्ञान कहेगा, यह आदमी पागल है। लेकिन मंसूर कहता आदमी अपने होश में दावा करेगा कि मैं ईश्वर का पुत्र हूं! जीसस | | है, मैं ब्रह्म हूं। उपनिषद के ऋषि कहते हैं, हम स्वयं परमात्मा हैं। के वक्तव्य पागल के वक्तव्य मालूम होते हैं।
रामतीर्थ ने कहा है कि यह सृष्टि मैंने ही बनाई है; ये चांद-तारे मैंने लेकिन जो व्यक्ति भी भीतर की चेतना को अनुभव करता है, | ही चलाए हैं। रामतीर्थ से कोई पूछने आया कि सृष्टि किसने ईश्वर का पुत्र तो छोटा वक्तव्य है, वह ईश्वर ही है। मंसूर या बनाई? तो रामतीर्थ ने कहा, क्या पूछते हो! मैंने ही बनाई है। उपनिषद के ऋषि जब कहते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, हम ब्रह्म हैं, तो | निश्चित ही, यह स्वर भी पागलपन का मालूम पड़ता है। और पश्चिम का मनोवैज्ञानिक समझेगा कि बात कुछ गड़बड़ हो गई; | ऊपर से देखने पर, जो आदमी कहता है, मैं जूलियस सीजर हूं, वह दिमाग कुछ खराब हो गया।
कम पागल मालूम पड़ता है बजाय रामतीर्थ के, जो कहते हैं, ये उनका सोचना भी ठीक है, क्योंकि ऐसे पागल भी हैं। आज | चांद-तारे? ये मैंने ही इन्हीं अंगुलियों से चलाए हैं। यह सृष्टि मैंने पागलखानों में अगर खोजने जाएं, तो बहुत-से पागल हैं। कोई | | ही बनाई है। पागल कहता है, मैं अडोल्फ हिटलर हूं। कोई पागल कहता है कि ये वक्तव्य बिलकुल एक से हैं ऊपर से और भीतर से बिलकुल मैं बैनिटो मुसोलिनी हूं। कोई पागल कहता है कि मैं स्टैलिन हूं। | भिन्न हैं। और भिन्नता का प्रमाण क्या होगा? भिन्नता का प्रमाण यह कोई पागल कहता है, मैं नेपोलियन हूं।
| होगा कि यह जूलियस सीजर जो अपने को कह रहा है, यह दुखी बर्टेड रसेल ने लिखा है कि एक आदमी ने बर्टेड रसेल को पत्र है. पीडित है. परेशान है। इसे नींद नहीं है. चैन नहीं है. बेचैन है। लिखा। बर्टेड रसेल की एक किताब प्रकाशित हुई, उसमें उसने और यह जो रामतीर्थ कह रहे हैं कि जगत मैंने ही बनाया, ये परम कुछ जूलियस सीजर के संबंध में कोई बात कही थी। एक आदमी आनंद और परम शांति में हैं। ने पत्र लिखा कि आपकी किताब बिलकुल ठीक है, सिर्फ एक ये क्या कह रहे हैं, इस पर निर्भर नहीं करता। ये क्या हैं, उसमें वक्तव्य गलत है।
खोजना पड़ेगा। और आप भला नहीं कहते कि जूलियस सीजर हैं रसेल को आश्चर्य हुआ। क्योंकि किताब में बहुत-सी क्रांतिकारी | या महात्मा गांधी हैं या जवाहरलाल नेहरू हैं, ऐसा आप कोई दावा बातें थीं, जो लोगों को पसंद नहीं पड़ेंगी। यह कौन आदमी है, जो | नहीं करते, तो भी आप ठीक होश में नहीं हैं, तो भी आप विक्षिप्त कहता है कि सब ठीक है, सिर्फ एक बात गलत है! तो रसेल ने हैं। और रामतीर्थ यह दावा करके भी विक्षिप्त नहीं हैं कि जगत मैंने उसे निमंत्रण दिया कि तुम भोजन पर मेरे घर आओ। मैं भी जानना ही बनाया है। रामतीर्थ का यह वक्तव्य किसी बड़ी गहरी अनुभूति चाहंगा कि जिस आदमी को मेरी सारी बातें ठीक लगी हैं. उसे| | की बात है। कौन-सी बात गलत लगी! वह मेरे लिए भी विचारणीय है। | रामतीर्थ यह कह रहे हैं कि इस जगत की जो परम चेतना है, वह रसेल ने प्रतीक्षा की। सांझ को वह आदमी आया। उसने कहा, मेरे भीतर है। जिस दिन उसने इस जगत को बनाया, मैं भी उसमें
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ॐ रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
सम्मिलित था। मेरे बिना यह जगत भी नहीं बन सकता, क्योंकि मैं | असाधारण हैं; दोनों साधारण नहीं हैं। और पश्चिम की यह मूलभूत इस जगत का हिस्सा हूं। और परमात्मा ने जब यह जगत बनाया, | भ्रांत धारणा है कि साधारण स्वस्थ है। इसलिए साधारण से जो भी तो मैं उसके भीतर मौजूद था। मेरी मौजूदगी अनिवार्य है; क्योंकि हट जाता है, वह अस्वस्थ है। मैं मौजूद हूं।
तो रामकृष्ण अस्वस्थ हैं, बीमार हैं, पैथालाजिकल हैं। उनका इस जगत में कुछ भी मिटता नहीं। विनाश असंभव है। एक रेत | | इलाज होना चाहिए। हमने जिनकी पूजा की है, पश्चिम उनका के कण को भी नष्ट नहीं किया जा सकता। वह रहेगा ही। आप | इलाज करना चाहेगा। कुछ भी करो, मिटाओ, तोड़ो, फोड़ो, कुछ भी करो, वह रहेगा; । लेकिन पश्चिम में भी विरोध के स्वर पैदा होने शुरू हो गए हैं। उसके अस्तित्व को मिटाया नहीं जा सकता। जो चीज अस्तित्व में और पश्चिम में भी नए मनोवैज्ञानिकों की एक कतार खड़ी होती जा है, वह शून्य में नहीं जा सकती।
| रही है, जो कह रही है कि हमारी समझ में भ्रांति है। और हम बहुत-से तो चेतना कैसे शून्य में जा सकती है। मैं , इसका अर्थ है कि | लोगों को इसलिए पागल करार देते हैं कि हमें पता ही नहीं कि हम मैं था और इसका अर्थ है कि मैं रहूंगा। कोई भी हो रूप, कोई भी| | क्या कर रहे हैं। उनमें बहुत-से लोग असाधारण प्रतिभा के हैं। हो आकार, लेकिन मेरा विनाश असंभव है। विनाश घटता ही नहीं। एक बहुत मजे की बात है कि असाधारण प्रतिभा के लोग जगत में केवल परिवर्तन होता है, विनाश होता ही नहीं। न तो कोई अक्सर पागल हो जाते हैं। इसलिए पागलपन में और असाधारण चीज निर्मित होती है और न कोई चीज विनष्ट होती है। केवल चीजें | प्रतिभा में कोई संबंध मालूम पड़ता है। अगर पिछले पचास वर्षों बदलती हैं, रूपांतरित होती हैं, नए आकार लेती हैं, पुराने आकार | के सभी असाधारण व्यक्तियों की आप खोजबीन करें, तो उनमें से छोड़ देती हैं। लेकिन विनाश असंभव है।
पचास प्रतिशत कभी न कभी पागल हो गए। पचास प्रतिशत! और विज्ञान भी स्वीकार करता है कि विनाश संभव नहीं है। धर्म और | | जो उनमें श्रेष्ठतम है, वह जरूर एक बार पागलखाने हो आता है। विज्ञान एक बात में राजी हैं, विनाश असंभव है।
निजिस्की या वानगाग या मायकोवस्की, नोबल प्राइज पाने वाले तो रामतीर्थ अगर यह कहते हैं कि मैंने ही बनाया था, तो यह | बहुत-से लोग जिंदगी में कभी न कभी पागल होने के करीब पहुंच वक्तव्य बड़ा अर्थपूर्ण है। यह किसी पागल का वक्तव्य नहीं है। | जाते हैं या पागल हो जाते हैं। क्या कारण होगा? कहीं ऐसा तो नहीं सच तो यह है कि उस आदमी का वक्तव्य है, जो पागलपन के पार | है कि हमारे पागलपन की व्याख्या में कुछ भूल है? चला गया है। और जो अब यह देख सकता है, अनंत श्रृंखला | असाधारण प्रतिभा का आदमी ऐसी चीजें देखने लगता है. जो जीवन की; और जो अब अपने को अलग नहीं मानता है, उस साधारण आदमी को दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए साधारण अनंत श्रृंखला का एक हिस्सा मानता है।
आदमियों से उसका संबंध टूट जाता है। असाधारण प्रतिभा का • बाहर से देखने पर बहुत बार पागलों के वक्तव्य और संतों के आदमी ऐसे अनुभव से गुजरने लगता है, जो सबका अनुभव नहीं वक्तव्य एक से मालूम पड़ते हैं; भीतर से खोजने पर उनसे ज्यादा है। वह अकेला पड़ जाता है। अगर वह आपसे कहे, तो आप भिन्न वक्तव्य नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम में अगर धर्म की भरोसा नहीं करेंगे। अप्रतिष्ठा होती जा रही है, तो उसमें सबसे बड़ा कारण मनोविज्ञान | | जीसस कहते हैं कि शैतान मेरे पास खड़ा हो गया और मेरे कान की अधूरी खोजें हैं। मनोविज्ञान जो बातें कहता है, वे आधी हैं और में कहने लगा कि तू ऐसा काम कर। मैंने कहा, हट शैतान! आधी होने से खतरनाक हैं।
अगर कोई आदमी-आपकी पत्नी, आपका पति आपसे साधारण आदमी बीच में है। साधारण आदमी से जो नीचे गिर | | आकर कहे कि आज रास्ते पर अकेला था; शैतान मेरे पास में आ जाता है, पागल हो जाता है। वह भी एबनार्मल है, वह भी | गया और कान में कहने लगा, ऐसा कर। तो आप फौरन संदिग्ध असाधारण है। साधारण आदमी से जो ऊपर चला जाता है, वह भी | | हो जाएंगे। फोन उठाकर डाक्टर को खबर करेंगे कि कुछ गड़बड़ एबनार्मल है, वह भी असाधारण है। और पश्चिम दोनों को एक ही हो गई है। मान नेता है। साधारण आदमी से नीचे कोई गिर जाए, तो पागल | अगर आपके पति ऐसी खबर दें...। ऋषि कहते हैं, देवताओं हो जाता है; ऊपर कोई उठ जाए, तो महर्षि हो जाता है। दोनों से उनकी बात हो रही है। अगर आपकी पत्नी आपसे कहे कि आज
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
सुबह इंद्र देवता से चर्चा हो गई, तो आप क्या करिएगा? दफ्तर | अगर कोई पागलपन आपके जीवन को चिंता और वासना से जाइएगा? फिर दफ्तर नहीं जाएंगे। आप चिंता में पड़ जाएंगे कि छुटकारा दिला देता हो, अगर कोई पागलपन आपके जीवन में अब बाल-बच्चों का क्या होगा! यह स्त्री पागल हो गई। संसार का जो बंधन है, जो कष्ट है, जो पीड़ा है, जो जंजीरें हैं, उन
और अगर यह आपकी दृष्टि पत्नी या पति के बाबत है, तो सब को तोड़ देता हो, तो ऐसा पागलपन सौभाग्य है और परमात्मा आप कितनी ही बातें करते हों, आप उपनिषद और वेद पढ़कर से ऐसे पागलपन की प्रार्थना करनी चाहिए। मान नहीं सकते कि ये बातें ज्ञानियों की हैं। आप कितनी ही श्रद्धा । और अगर कोई समझदारी आपकी जिंदगी को तकलीफों से भर दिखाते हों, वह झूठी होगी। क्योंकि भीतर तो आप समझेंगे कि देती हो, और कोई समझदारी आपकी जिंदगी को पीड़ा और तनाव कुछ दिमाग इनका खराब है। कहां देवता! कहां देवियां! यह सब से घेर देती हो, और कोई समझदारी आपकी जिंदगी को कारागृह क्या हो रहा है?
बना देती हो, और कोई समझदारी आपको सिवाय दुख और रामकृष्ण बातें कर रहे हैं काली से। घंटों उनकी चर्चा हो रही सिवाय नर्क के कहीं न ले जाती हो, तो परमात्मा से प्रार्थना करनी है। अगर आप देख लेते, तो आप क्या समझते? आपको तो चाहिए कि ऐसी समझदारी से मेरा छुटकारा हो। काली दिखाई नहीं पड़ती। आपको तो सिर्फ रामकृष्ण बातें करते यही मैं मूर्छा के लिए भी कहूंगा। कोई मूर्छा अगर आपके दिखाई पड़ते।
जीवन में आनंद की झलक ले आती हो, तो वह मूर्छा चैतन्य से तो आप पागलखाने में देख सकते हैं, लोग बैठे हैं, अकेले बातें ज्यादा कीमती है। और सिर्फ कोई होश आपको निरंतर तोड़ता जाता कर रहे हैं, बिना किसी के। दोनों तरफ से जवाब दे रहे हैं। तो | | हो, तनाव और चिंता से और संताप से भरता हो, तो वह होश स्वभावतः यह खयाल उठेगा कि कुछ विक्षिप्तता है। विक्षिप्तता में | मूर्छा से बदतर है।
और असाधारणता में कुछ संबंध मालूम पड़ता है। या फिर हमारी | कसौटी क्या है? कसौटी है आपका अंतिम फल, क्या आप हो व्याख्या की भूल है।
| जाते हैं। ऊपर के लक्षण बिलकुल मत देखें। परिणाम क्या होता है! असाधारण व्यक्ति ऐसी चीजों को देख लेते हैं, जो साधारण | अंत में आपके जीवन में कैसे भूल लगते हैं! व्यक्तियों को कभी दिखाई नहीं पड़ सकतीं; और ऐसे अनुभव को | | तो रामकृष्ण के जीवन में जो फूल लगते हैं, वे किसी पागल के उपलब्ध हो जाते हैं, जिसका साधारण व्यक्ति को कभी स्वाद नहीं | | जीवन में नहीं लगते। रामकृष्ण के जीवन से जो सुगंध आती है, वह मिलता। फिर वे ऐसी बातें कहने लगते हैं, जो साधारण व्यक्ति के | किसी मूछित, कोमा में, हिस्टीरिया में पड़ गए व्यक्ति के जीवन समझ के पार पड़ती हैं। फिर उनके जीवन में ऐसी घटनाएं होने लगती से नहीं आती। उसी सुगंध के सहारे हम उन्हें परमहंस कहते हैं। हैं, जो हमारे तर्क, हमारे नियम, हमारी व्यवस्था को तोड़ती हैं। और अगर उस सुगंध की आप फिक्र छोड़ दें, और सिर्फ लक्षण
हमारी जिंदगी एक राजपथ है, बंधा हुआ रास्ता है। असाधारण देखें और डाक्टर से जांच करवा लें, तो वे भी मूर्छित हैं, और लोग रास्ते से नीचे उतर जाते हैं; पगडंडियों पर चलने लगते हैं। हिस्टीरिया के बीमार हैं, और उनके इलाज की जरूरत है। और ऐसी खबरें लाने लगते हैं, जिनका हमें कोई भी पता नहीं है, | | दो तरह की चेतना है। एक चेतना जो बाहर के दबाव से पैदा जो हमारे नक्शों में नहीं लिखी हैं, जो हमारी किताबों में नहीं हैं, जो | | होती है—प्रतिक्रिया, रिएक्शन। उस चेतना को कृष्ण कहते हैं, वह हमारे अनुभव में नहीं हैं। पहली बात यही खयाल में आती है कि | | क्षेत्र का ही हिस्सा है, वह छोड़ने योग्य है। एक और चेतना है, जो इस आदमी का दिमाग खराब हो गया।
| किसी कारण से पैदा नहीं होती; जो मेरा स्वभाव है, जो मेरा स्वरूप रामकृष्ण भी पागल मालूम पड़ेंगे। रामकृष्ण ही क्यों, रामकृष्ण | | है, जो मेरे भीतर छिपी है, जिसका झरना मैं लेकर ही पैदा हुआ हूं, जैसे जितने लोग हुए हैं दुनिया में कहीं भी, वे सब पागल मालूम | या ज्यादा उचित होगा कहना कि मैं और उसका झरना एक ही चीज पड़ेंगे। लेकिन एक फर्क खयाल रख लेंगे, तो भेद साफ हो जाएगा। | के दो नाम हैं। मैं वह झरना ही हूं।
अगर कोई पागलपन आपको शुद्ध कर जाता हो, अगर कोई ___ लेकिन इस झरने का पता तभी चलेगा, जब हम बाहर के आघात पागलपन आपको मौन और शांत और आनंदित कर जाता हो, | से पैदा हुई चेतना से अपने को मुक्त कर लें। नहीं तो हमारा ध्यान अगर कोई पागलपन आपको जीवन के उत्सव से भर जाता हो, निरंतर बाहर चला जाता है और भीतर ध्यान पहुंच ही नहीं पाता।
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रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
समय ही नहीं मिलता, अवसर ही नहीं मिलता।
हमारी जिंदगी में दो काम हैं। जिसको हम जागना कहते हैं, वह जागना नहीं है। जिसको हम जागना कहते हैं, वह बाहर की चोट में हमारी चेतना का उत्तेजित रहना है। बाहर की चोट में चेतना का उत्तेजित रहना है। और जिसको हम नींद कहते हैं, वह भी नींद नहीं है। वह भी केवल थक जाने की वजह से है। बाहर की उत्तेजना अब हमको उत्तेजित नहीं कर पाती, हम थककर पड़ जाते हैं । जिसको हम नींद कहते हैं, वह थकान है। और जिसको हम जागरण कहते हैं, वह चोटों के बीच चुनाव, चुनौती के बीच हमारे भीतर होती प्रतिक्रिया है।
कृष्ण और बुद्ध और क्राइस्ट दूसरे ढंग से जागते हैं और दूसरे ढंग से सोते हैं। उनकी नींद थकान नहीं है; उनकी नींद विश्राम है। उनका जागरण बाहर का आघात नहीं है; उनका जागरण भीतर की स्फुरणा है । और जो व्यक्ति थककर नहीं सोया है, वह नींद में भी जागता रहता है। इसलिए कृष्ण ने कहा है कि योगी, जब सब सोते हैं, तब भी जागता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह रातभर बैठा रहता है आंखें खोले। कई पागल वैसी कोशिश भी करते हैं कि रातभर आंखें खोले बैठे रहो। क्योंकि योगी रात सोता नहीं है। इसलिए नासमझ यह सोचने लगते हैं कि अगर रात न सोए, तो योगी बन जाएंगे ! या नींद कम करो-चार घंटा, तीन घंटा, दो घंटा - जितना कम सोओ, कम से कम उतने योगी हो गए।
कृष्ण का वैसा मतलब नहीं है। योगी भरपूर सोता है; आपसे ज्यादा सोता है; आपसे गहरा सोता है। लेकिन उसकी नींद शरीर में घटती है, क्षेत्र में घटती है; क्षेत्रज्ञ जागा रहता है। शरीर विश्राम में होता है, भीतर वह जागा होता है। वह रात करवट भी बदलता है, तो उसे करवट बदलने का होश होता है। रात उसकी बेहोश नहीं है।
और ध्यान रहे, उसकी रात बेहोश नहीं है – कृष्ण ने दूसरी बात नहीं कही है, वह भी मैं आपसे कहता हूं - आपका दिन भी बेहोश है। योगी रात में भी जागता है; भोगी दिन में भी सोता है। इसका यह मतलब नहीं है कि दिन में अगर आप घंटे, दो घंटे सो जाते हों, उससे मेरा मतलब नहीं है । भोगी दिन में भी सोता है, उसका मतलब यह है कि उसके भीतर की चेतना तो जागती ही नहीं। केवल आघात, चोट उसको जगाए रखती है।
अभी मनसविद कहते हैं कि जितना शोरगुल चल रहा है दुनिया में, बड़े शहरों में, उसकी वजह से लोग बहरे होते जा रहे हैं। और
सौ साल अगर इसी रफ्तार से काम आगे जारी रहा, तो सौ साल बाद शहरों में कान वाला आदमी मिलना मुश्किल हो जाएगा। | इतना आघात पड़ रहा है कि कान धीरे-धीरे जड़ हो जाएंगे। वैसे अभी भी आप बहुत कम सुनते हैं; और अच्छा ही है। अगर सब सुनें, जो हो रहा है चारों तरफ, तो आप पागल हो जाएंगे।
और इसलिए आज नए बच्चे हैं, तो रेडियो बहुत जोर से चलाते हैं। धीमी आवाज से चेतना में कोई चोट ही नहीं पड़ती, काफी शोरगुल हो । नए जो संगीत हैं, नए युवक-युवतियों के जो नृत्य हैं, वे भयंकर शोरगुल से भरे हैं। जितना शोरगुल हो उतना ही अच्छा, थोड़ा अच्छा लगता है। क्योंकि छोटे-मोटे शोरगुल से तो कोई चोट ही नहीं पैदा होगी। तेज चुनौती चाहिए, तेज आघात चाहिए, तो थोड़ा-सा रस मालूम होता है कि पैदा हो रहा है। लेकिन यह कब तक चलेगा?
पश्चिम में उन्होंने नए रास्ते निकाले हैं। केवल चोट से भी काम नहीं चलता, तो बहुत तरह के प्रकाश लगा लेते हैं। प्रकाश बदलते रहते हैं तेजी से । बहुत जोर से शोर मचता रहता है। कई तरह के नाच, कई तरह के गीत चलते रहते हैं। एक बिलकुल विक्षिप्त अवस्था हो जाती है। तब घंटेभर उस विक्षिप्त अवस्था में रहकर | किसी आदमी को लगता है, कुछ जिंदगी है; कुछ जीवन का | अनुभव होता है !
हम इतने मर गए हैं कि जब तक बहुत चोट न हो, तो जीवन का भी कोई अनुभव नहीं होता। धीमे स्वर तो हमें सुनाई ही न पड़ेंगे। और जीवन के नैसर्गिक स्वर सभी धीमे हैं। वे हमें सुनाई नहीं पड़ेंगे। रात का सन्नाटा हमें सुनाई नहीं पड़ेगा। हृदय की अपनी धड़कन हमें सुनाई नहीं पड़ेगी।
आपने कभी अपने खून की चाल की आवाज सुनी है ? वह बहुत धीमी है; वह सुनाई नहीं पड़ेगी। लेकिन आवाज तो हो रही है। बक मिनिस्टर फुलर ने लिखा है कि मैं पहली दफा एक ऐसे भवन में गया, एक विज्ञान की प्रयोगशाला में, जो पूर्णरूपेण साउंड-प्रूफ थी, जहां कोई आवाज बाहर से भीतर नहीं जा सकती थी । लेकिन मुझे भीतर दो तरह की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। तो मुझे जो | वैज्ञानिक दिखाने ले गया था, उससे मैंने पूछा कि यह क्या बात है! | आप तो कहते हैं, एब्सोल्यूट साउंड - प्रूफ है। लेकिन यहां दो तरह की आवाजें आ रही हैं !
तो वैज्ञानिक हंसने लगा। उसने कहा, वे आवाजें बाहर से नहीं आ रही हैं, वह आपके खून की चाल की आवाज है। आपका हृदय
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धड़क रहा है, वह आपने कभी ठीक से सुना नहीं। अब यहां कोई और भीतर के बीच की देहली पर खड़ी हो सकती है। और दोनों आवाज नहीं है, तो आपके हृदय की धड़कन जोर से आ रही है। और तरफ होश रख सकते हैं। आपका खून जो चल रहा है शरीर के भीतर, उसमें जो घर्षण हो रहा लेकिन अति जटिल है बात। इसलिए उचित है कि रामकृष्ण की है, उसकी आवाज आ रही है। ये दो आवाजें आपके भीतर हैं। आप | तरफ से ही चलें; दूसरी घटना भी घट जाएगी बाद में। रामकृष्ण ने
अंदर ले आए। बाहर से कोई आवाज भीतर नहीं आ सकती। | आधा काम बांट लिया है। बाहर की तरफ से होश छोड़ दिया है, __आपने कभी अपने खून की आवाज सुनी है ? नहीं सुनी है। खून | | सारा होश भीतर ले गए हैं। एक दफा भीतर का होश सध जाए, तो की आवाज तो आपको सुनाई नहीं पड़ती है और बहुत-से लोग | | फिर बाहर भी होश साधा जा सकता है। बैठकर भीतर ओंकार का नाद सुनने की कोशिश करते हैं ! वह अति रामकृष्ण का प्रयोग सरल है बुद्ध के प्रयोग से। और साधारण सूक्ष्म है; वह आपको कभी सुनाई नहीं पड़ सकती।
आदमी को रामकृष्ण का प्रयोग ज्यादा आसान है, बजाय बुद्ध के __ अब यह खून की आवाज तो स्थूल आवाज है; जैसे झरने की प्रयोग के। क्योंकि बुद्ध के प्रयोग में दो काम एक साथ साधने आवाज होती है, वैसे खून की भी आवाज है। लेकिन वही आपको | | पड़ेंगे; ज्यादा समय लगेगा; और ज्यादा कठिनाई होगी; और सुनाई नहीं पड़ी; आप सोच रहे हैं कि ओंकार का नाद सुनाई पड़ | अत्यंत अड़चनों से गुजरना पड़ेगा। रामकृष्ण की प्रक्रिया बड़ी सरल जाए! वह तो परम गूढ, परम सूक्ष्म, आखिरी आवाज है। जब सब | है। बाहर को छोड़ ही दें एक बार और भीतर ही डूब जाएं। एक तरह से व्यक्ति पूर्ण शांत हो जाता है, तभी वह सुनाई पड़ती है। तब | दफा भीतर का रस अनुभव में आ जाए, तो फिर बाहर भी उसे भीतर निनाद होने लगता है; तब वह जो ओम भीतर गूंजता है, वह | जगाए रखा जा सकता है। पैदा हुआ ओम नहीं है। इसलिए हमने उसको अनाहत नाद कहा है।
आहत नाद का अर्थ है, जो चोट से पैदा हो। अनाहत नाद का अर्थ है, जो बिना चोट के अपने आप पैदा होता रहे। वह सुनाई एक और मित्र ने पूछा है कि ऐसा सुना है कि पड़ेगा। लेकिन तब हमें अपनी चेतना को बाहर के आघात से | देवताओं को भी अगर मुक्ति चाहिए हो, तो मनुष्य छुटकारा कर लेना जरूरी है।।
का शरीर धारण करना पड़ता है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रामकृष्ण जब मूर्छित हैं, तब उन्होंने बाहर की तरफ से अपने बीच का तादात्म्य टूटना क्या देव-योनि में संभव नहीं द्वार-दरवाजे बंद कर लिए हैं। अब वे भीतर का अनाहत नाद सुन है? मनुष्य होने की क्या जरूरत है? अगर क्षेत्र और रहे हैं। अब उन्हें भीतर का ओंकार सुनाई पड़ रहा है।
क्षेत्रज्ञ का संबंध टूटने से ही परम ज्ञान घटित होता है, लेकिन हर से मूर्छित होना जरूरी नहीं है। और भी विधियां हैं, | तो देवता इस संबंध को क्यों नहीं तोड़ सकते? इसके जिनमें बाहर भी होश रखा जा सकता है और भीतर भी। लेकिन वे | लिए मनुष्य के शरीर में आने की जरूरत क्या है? थोड़ी कठिन हैं, क्योंकि दोहरी प्रक्रिया हो जाती है।
बुद्ध कभी बेहोश नहीं हुए। रामकृष्ण जैसा बेहोश होकर गिरे, ऐसा बद्ध के जीवन में कोई उल्लेख नहीं है कि वे बेहोश हए हों। न OT डा टेक्निकल, थोड़ा तकनीकी सवाल है। लेकिन कृष्ण के जीवन में हमने सुना है, न जीसस के जीवन में सुना है, न चा समझने जैसा है और आपके काम का भी है। देवता मोहम्मद के जीवन में सुना है कि बेहोश हो गए। रामकृष्ण के जीवन | तो यहां मौजूद नहीं हैं, लेकिन आपके भी काम का है, में वैसी घटना है। और कुछ संतों के जीवन में वैसी घटना है। | क्योंकि आपको भी कुछ बात समझ में आ सकेगी।
तो बुद्ध कभी बेहोश नहीं हुए बाहर से भी। तो बुद्ध की प्रक्रिया | देव-योनि से मुक्ति संभव नहीं, इसका बड़ा गहरा कारण है। रामकृष्ण की प्रक्रिया से ज्यादा कठिन है। बुद्ध कहते हैं, दोनों तरफ | और मनुष्य-योनि से मुक्ति संभव है, बड़ी गहरी बात है। और होश रखा जा सकता है, भीतर भी और बाहर भी। जरूरत नहीं है इससे आप यह मत सोचना कि कोई मनुष्य-योनि का बड़ा गौरव बाहर से बंद करने की। बाहर भी होश रखा जा सकता है और भीतर | | है इसमें। ऐसा मत सोच लेना। कुछ अकड़ मत जाना इससे कि भी। हम बीच में खड़े हो सकते हैं। वह जो परम चेतना है, बाहर देवताओं से भी ऊंचे हम हुए, क्योंकि इस मनुष्य-योनि से ही मुक्ति
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हो सकती है।
क्योंकि उसे कभी खयाल ही नहीं था कि शूद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं; ऊंचे-नीचे का सवाल नहीं है; अकड़ने की कोई बात नहीं होने का उपाय है। अब उसे पता है; अब आशा खुली है। अब उसे है। सच तो, अगर ठीक से समझें, तो थोड़ा दीन होने की बात है। पता है कि शूद्र होना जरूरी नहीं है, वह ब्राह्मण भी हो सकता है। कारण यह है कि देव-योनि का अर्थ है कि जहां सुख ही सुख है। शूद्र होना अनिवार्य नहीं है। अब गांव की सड़क ही साफ करना और जहां सुख ही सुख है, वहां मूर्छा घनी हो जाती है। दुख मूर्छा | | जिंदगी की कोई अनिवार्यता नहीं है; अब वह राष्ट्रपति भी हो को तोड़ता है। दुख मुक्तिदायी है। पीड़ा से छूटने का मन होता है। सकता है। आशा का द्वार खुल गया है। सुख से छूटने का मन ही नहीं होता।
अब वह सड़क पर बुहारी तो लगा रहा है, लेकिन बड़े दुख से। आप भी संसार से छूटना चाहते हैं, तो क्या इसलिए कि सुख | वहीं वह पांच सौ साल पहले भी बुहारी लगा रहा था, लेकिन तब से छूटना चाहते हैं ? दुख से छूटना चाहते हैं। दुख से छूटना चाहते | कोई दुख नहीं था। क्योंकि दुख इतना मजबूत था, उसके बाहर जाने हैं, इसलिए संसार से भी छूटना चाहते हैं। अगर कोई आपको | की कोई आशा नहीं थी, कोई उपाय नहीं था, इसलिए बात ही खतम तरकीब बता दे कि संसार में भी रहकर और दुख से छूटने का उपाय हो गई थी। है, तो आप मोक्ष का नाम भी न लेंगे। आप भूलकर फिर मोक्ष की नरक में कोई साधना नहीं करता, और स्वर्ग में भी कोई साधना बात न करेंगे। फिर आप कृष्ण वगैरह को कहेंगे कि आप जाओ नहीं करता। क्योंकि नरक में दुख इतना गहन है और आशा का कोई मोक्ष। हम यहीं रहेंगे। क्योंकि दुख तो छोड़ा जा सकता है, सुख उपाय नहीं है, कि आदमी उस दुख से ही राजी हो जाता है। जब मिल सकता है, फिर मोक्ष की क्या जरूरत है?
दुख आखिरी हो, तो हम राजी हो जाते हैं। जब तक आशा रहती संसार को छोड़ने का सवाल ही इसलिए उठता है कि अगर हम है, तब तक हम लड़ते हैं। दुख को छोड़ना चाहते हैं, तो सुख को भी छोड़ना पड़ेगा। वे दोनों ___ इसे थोड़ा समझ लें। जब तक आशा रहती है, तब तक हम साथ जुड़े हैं।
| लड़ते हैं। और जहां तक आशा रहती है, वहां तक हम लड़ते हैं। संसार में सुख और दुख मिश्रित हैं। सब सुखों के साथ दुख जुड़ा | | और जब आशा टूट जाती है, हम शांत होकर बैठ जाते हैं। लड़ाई हुआ है। सुख पकड़ा नहीं कि दुख भी पकड़ में आ जाता है। आप | खतम हो गई। सुख को लेने गए और दुख की जकड़ में फंस जाते हैं। सुख चाहा स्वर्ग में भी कोई साधना नहीं करता है, क्योंकि सुख से छूटने का और दुख के लिए दरवाजा खुल जाता है।
| खयाल ही नहीं उठता। सुख से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। स्वर्ग या देव-योनि का अर्थ है, जहां सुख ही सुख है। जहां सुख मनुष्य दोनों के बीच में है। मनुष्य दोनों है, नरक भी और स्वर्ग ही सुख है, वहां छोड़ने का खयाल ही न उठेगा। इसलिए देवता भी। मनुष्य आधा नरक और आधा स्वर्ग है। और दोनों मिश्रित है। गुलाम हो जाते हैं, छोड़ने का खयाल ही नहीं उठता। वहां दुख भी सघन है और सुख की आशा भी। और हर सुख के
नरक से भी मुक्ति नहीं हो सकती और स्वर्ग से भी मुक्ति नहीं | बाद दुख मिलता है, यह अनुभूति भी है। इसलिए मनुष्य चौराहा हो सकती। जिन्होंने ये वक्तव्य दिए हैं. उन्होंने बड़ी गहरी खोज की है। उसके नीचे नरक है, उसके ऊपर स्वर्ग है। स्वर्ग में आदमी सख है। क्योंकि नरक में दख ही दख है. और अगर दख ही दख हो, तो से राजी हो जाता है, नरक में दुख से राजी हो जाता है। मनुष्य की आदमी दुख का आदी हो जाता है। यह थोड़ा समझ लें। अवस्था में किसी चीज से कभी राजी नहीं हो पाता। मनुष्य असंतोष
अगर दुख ही दुख जीवन में हो, सुख की कोई भी अनुभूति न | है। वह असंतुष्ट ही रहता है। कुछ भी हो, संतोष नहीं होता। हो, तो आदमी दुख का आदी हो जाता है। और जहां सुख का कोई | इसलिए साधना का जन्म होता है। अनुभव ही न हो, वहां सुख की आकांक्षा भी धीरे-धीरे तिरोहित हो | जहां असंतोष अनिवार्य हो, कोई भी स्थिति हो। आप झोपड़े में जाती है। सुख की आकांक्षा वहीं पैदा होती है, जहां आशा हो। हों, तो दुखी होंगे; और आप महल में हों, तो दुखी होंगे। आपका
इसलिए दुनिया में जितनी सुख की आशा बढ़ती है, उतना दुख होना, मनुष्य का होना ही ऐसा है कि वह तृप्त नहीं हो सकता। बढ़ता जाता है। पांच सौ साल पीछे शूद्र इतने ही दुख में था, जितना अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। उसके होने के ढंग में ही उपद्रव है। वह आज दुख में है। शायद ज्यादा दुख में था। लेकिन दुखी नहीं था, बीच की कड़ी है। आधा उसमें स्वर्ग भी झांकता है, आधा नरक भी
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झांकता है।
कि राबिया, क्या तू पागल हो गई? शक तो हमें बहुत बार होता था मनुष्य के पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह आधा-आधा | | तेरी बातें सुनकर कि तू पागल हो गई है। अब तूने यह क्या किया है; अधूरा-अधूरा है; सीढ़ी पर लटका हुआ है; त्रिशंकु की भांति | है! यह क्या खेल, नाटक कर रही है? कहां भागी जा रही है? और है। इसलिए जो मनुष्य साधना नहीं करता, वह असाधारण है। जो | यह पानी और यह मशाल किसलिए? मनुष्य साधना में नहीं उतरता, वह असाधारण है। नरक में नहीं तो राबिया ने कहा कि इस पानी में मैं तुम्हारे नर्क को डुबाना उतरता, समझ में आती है बात। स्वर्ग में नहीं उतरता, समझ में चाहती हूं और इस मशाल से तुम्हारे स्वर्ग को जलाना चाहती हूं। आती है। अगर आप साधना में नहीं उतरते, तो आप चमत्कारी हैं। | और जब तक तुम स्वर्ग और नरक से न छूट जाओ, तब तक क्योंकि आपका होना ही असंतोष है। और अगर आपको इस तुम्हारा परमात्मा से कोई मिलना नहीं हो सकता। असंतोष से भी साधना का खयाल पैदा नहीं होता, तो आश्चर्य है। | __ अब हम सूत्र को लें।
जगत में बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि कोई मनुष्य हो और | | और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का साधक न हो। यह बड़े से बड़ा आश्चर्य है। स्वर्ग में देवता होकर | अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमा-भाव, . कोई साधक हो, यह आश्चर्य की बात होगी। नरक में होकर कोई मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, साधक हो, यह भी आश्चर्य की बात होगी। मनुष्य होकर कोई बाहर-भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन और इंद्रियों साधक न हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि आपके होने में | | सहित शरीर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों असंतोष है। और असंतोष से कोई कैसे तृप्त हो सकता है! साधना | में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, का इतना ही मतलब है कि जैसा मैं हूं, उससे मैं राजी नहीं हो | | मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बारंबार दर्शन सकता; मुझे स्वयं को बदलना है।
करना, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं। इसलिए मनुष्य को चौराहा कहा है ज्ञानियों ने। स्वर्ग से भी लौट कौन है ज्ञानी? क्योंकि कल कृष्ण ने कहा कि ज्ञानी जान लेता है आना पड़ेगा। जब पुण्य चुक जाएंगे, तो सुख से लौट आना पड़ेगा। | तत्व से इस बात को कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अलग हैं। तो जरूरी है, और जब पाप चुक जाएंगे, तो नरक से लौट आना पड़ेगा। अब हम समझ लें कि ज्ञानी कौन है? कौन जान पाएगा इस भेद को?
और मनुष्य की योनि से तीन रास्ते निकलते हैं। एक, दुख अर्जित | | कौन इस भेद को जानकर अभेद को उपलब्ध होगा? तो अब ज्ञानी कर लें, तो नरक में गिर जाते हैं; सुख अर्जित कर लें, तो स्वर्ग में | | के लक्षण हैं। एक-एक लक्षण पर खयाल कर लेना जरूरी है। चले जाते हैं। लेकिन दोनों ही क्षणिक हैं, और दोनों ही छूट जाएंगे। श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव-शुरू बात, क्योंकि ज्ञान के जो भी अर्जित किया है, वह चुक जाएगा, खर्च हो जाएगा। ऐसी कोई | | साथ तत्क्षण श्रेष्ठता का भाव पैदा होता है कि मैं श्रेष्ठ हूं, दूसरे संपदा नहीं होती, जो खर्च न हो। कमाई खर्च हो ही जाएगी। | निकृष्ट हैं; मैं जानता हूं, दूसरे नहीं जानते हैं; मैं ज्ञानी हूं, दूसरे
नरक भी चक जाएगा, स्वर्ग भी चक जाएगा, जब तक कि यह अज्ञानी हैं। ज्ञान के साथ जो सबसे पहला रोग, जिससे बचना खयाल न आ जाए कि एक तीसरा रास्ता और है, जो कमाने का | जरूरी है, वह श्रेष्ठता का अहंकार है। नहीं, कुछ अर्जित करने का नहीं, बल्कि जो भीतर छिपा है, उसको ब्राह्मण की अकड़ हम देखते हैं। अब उसकी कम होती जा रही उघाड़ने का है। स्वर्ग भी कमाई है, नरक भी। और आपके भीतर है, क्योंकि चारों तरफ से उस पर हमला पड़ रहा है। नहीं तो ब्राह्मण जो परमात्मा छिपा है, वह कमाई नहीं है; वह आपका स्वभाव है। की अकड़ थी। ब्राह्मण की शक्ल ही देखकर कह सकते हैं कि वह वह मौजूद ही है। जिस दिन आप स्वर्ग और नर्क की तरफ जाना ब्राह्मण है। उसके नाक का ढंग, उसके आंख का ढंग, उसके चेहरे बंद करके स्वयं की तरफ जाना शुरू कर देते हैं, उस दिन फिर | का रोब! चाहे वह भीख मांगता हो, लेकिन फिर भी ब्राह्मण लौटने की कोई जरूरत नहीं है।
पहचाना जा सकता है कि वह ब्राह्मण है। उसकी आंख, उसका ___ मुसलमान फकीर औरत हुई है, राबिया। एक दिन लोगों ने देखा | श्रेष्ठता का भाव, एक अरिस्टोक्रेसी, एक गहरा आभिजात्य, भीतर कि वह बाजार में भागी जा रही है। उसके एक हाथ में पानी का एक | मैं श्रेष्ठ हूं! चाहे वह नंगा फकीर हो, चाहे कपड़े फटे हों, चाहे हाथ कलश है और एक हाथ में एक जलती हुई मशाल है। लोगों ने कहा में भिक्षा का पात्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भीतर
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एक दीप्ति श्रेष्ठता की जलती रहेगी।
पहले। रूस उसका अनुकरण कर रहा है, जाने-अनजाने। ब्राह्मण एक बड़े मजे की घटना घटी है मनुष्य के इतिहास में। और वह को ऊपर बिठा दो, फिर उपद्रव नहीं होगा। उसकी श्रेष्ठता सुरक्षित यह कि हिंदुस्तान में हमने ब्राह्मण को क्षत्रिय के ऊपर रख दिया था; | रहे, फिर कोई बात नहीं है। भीख मांग सकता है वह, लेकिन उसकी तलवार के ऊपर ज्ञान को रख दिया था। इसलिए हिंदुस्तान में कभी भीतरी अकड़ कायम रहनी चाहिए। आप उसको सिंहासन पर भी क्रांति नहीं हो सकी। क्योंकि दुनिया में जब भी कोई उपद्रव होता है, बिठा दो और कहो कि विनम्र हो जाओ, भीतर की अकड़ छोड़ दो, उसकी जड़ में ब्राह्मण होता है। कहीं भी हो, समझदार ही उपद्रव | वह सिंहासन को लात मार देगा। ऐसे सिंहासन का कोई मूल्य नहीं करवा सकता है: नासमझ तो पीछे चलते हैं। अगर यह पश्चिम में है। उसे भीतर का सिंहासन चाहिए। इतनी क्रांति की बात चलती है....।
जैसे ही किसी व्यक्ति को ज्ञान का जरा-सा स्वाद लगता है कि मार्क्स को मैं ब्राह्मण कहता हूं। लेनिन को, ट्राटस्की को ब्राह्मण | | एक भीतरी श्रेष्ठता पैदा होनी शुरू हो जाती है। उसकी चाल बदल कहता हूं। ब्राह्मण का मतलब, इंटेलिजेंसिया; वह जो सोचती है, जाती है। उसकी अकड़ बदल जाती है। विचारती है। उस सोचने-विचारने वाले की श्रेष्ठता को अगर | कृष्ण कहते हैं, ज्ञान का लेकिन पहला लक्षण वे कह रहे हैं, आपने जरा भी चोट पहुंचाई, तो वह उपद्रव खड़ा कर देता है। वह श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव। फौरन लोगों को भड़का देता है।
ब्राह्मण को विनयी होना चाहिए; यह उसका पहला लक्षण है। सिर्फ हिंदुस्तान अकेला मुल्क है, जहां पांच हजार साल में कोई | | यह होता नहीं। नहीं होता, इसीलिए पहला लक्षण बताया। जो नहीं क्रांति नहीं हुई। इसका राज क्या है? सारी दुनिया में क्रांति हुई, | | होता, उसकी चिंता पहले कर लेनी चाहिए। जो बहुत कठिन है, हिंदुस्तान में क्रांति नहीं हुई। उसका सीक्रेट क्या है? सीक्रेट है कि | | उसकी फिक्र पहले कर लेनी चाहिए। हमने ब्राह्मण को, जो उपद्रव कर सकता है, उसको पहले ही ऊपर | ज्ञान आए, तो उसके साथ-साथ विनम्रता बढ़ती जानी चाहिए। रख दिया। उसको कहा कि तू तो श्रेष्ठ है।
अगर ज्ञान के साथ विनम्रता न बढ़े, तो ज्ञान जहर हो जाता है। ज्ञान फिर एक बड़े मजे की घटना घटी कि ब्राह्मण भूखा मरता रहा, | के साथ विनम्रता समानुपात में बढ़ती जाए, तो ज्ञान जहर नहीं हो दीन रहा, दुखी रहा, लेकिन कभी उसने बगावत की बात नहीं की, | | पाता और अमृत हो जाता है। क्योंकि उसकी भीतरी श्रेष्ठता सुरक्षित है। और जब वह श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण का अभाव...। तो कोई दिक्कत नहीं है।
आचरण दो तरह से होता है। एक तो आचरण होता है, रूस फिर इसका अनगमन कर रहा है। कोई सोच भी नहीं सहज-स्फर्त। और एक आचरण होता है. दंभ आयोजित। आप सकता. लेकिन रूस इसका फिर अनगमन कर रहा है। आज रूस रास्ते पर जा रहे हैं और एक भखा आदमी हाथ फैला देता है। आप ने सब वर्ग तो मिटा दिए, लेकिन ब्राह्मण को ऊपर बिठा रखा है। दो पैसे उसके हाथ में रख देते हैं, सहज दया के कारण, वह भूखा जिसको वे एकेडेमीसिएंस कहते हैं वहां। वे जितने भी बुद्धिवादी | है इसलिए। लोग हैं-लेखक हैं, कवि हैं, वैज्ञानिक हैं, डाक्टर हैं, वकील लेकिन रास्ते पर कोई भी नहीं है, अकेले हैं, और भूखा आदमी हैं-जिनसे उपद्रव की कोई भी संभावना है, उनका एक आभिजात्य | | हाथ फैलाता है, आप बिना देखे निकल जाते हैं। रास्ते पर लोग वर्ग बना दिया है।
| देखने वाले मौजूद हैं, तो आप दो पैसे दे देते हैं। अगर साथ में मित्र रूस में लेखक इतना समादृत है, जितना जमीन पर कहीं भी मौजूद हैं, या ऐसा समझ लीजिए कि आपकी लड़की की शादी हो नहीं। कवि इतना समादृत है, जितना जमीन पर कहीं भी नहीं। रही है और लड़का लड़की को देखने आया है, वह आपके साथ वैज्ञानिक, सोचने-समझने वाला आदमी समादृत है। उसको ऊपर है, और भिखमंगा हाथ फैला देता है; दो पैसे की जगह आप दो . बिठा दिया है। उसको फिर ब्राह्मण की कोटि में रख दिया है। रूस रुपए दे देते हैं। में क्रांति तब तक नहीं हो सकती अब, जब तक यह ब्राह्मण का | | ये दो रुपए आप दामाद को दे रहे हैं, होने वाले दामाद को। आप आभिजात्य न टूटे।
| एक दंभ का आचरण कर रहे हैं। आप उसको दिखला रहे हैं कि मैं दो प्रयोग हुए हैं। हिंदुस्तान ने प्रयोग किया था पांच हजार साल क्या हूं! इसका भिखारी से कोई लेना-देना नहीं है। भिखारी से कोई
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संबंध ही नहीं है। भिखारी को आपने पैसे दिए ही नहीं। और | वह आचरण सहज करेगा; जो ठीक लगता है, वही करेगा। जो आपको कोई न भीतर दया है, न कोई करुणा है, न कोई सवाल है। | आनंदपूर्ण है, वही करेगा। सिर्फ इसलिए कुछ नहीं करेगा कि लोग आप एक दंभ आरोपित कर रहे हैं, एक आयोजन कर रहे हैं। तो | क्या कहेंगे। लोग अच्छा कहेंगे या बुरा कहेंगे, यह उसकी आप अच्छे आदमी भी हो सकते हैं दंभ-आचरण के कारण। विचारधारा न होगी।
ध्यान रहे, सहज बरा आदमी भी बेहतर है। कम से कम सहज | हम तो हर समय यही सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे। लोगों की तो है। और जो सहज है, वह कभी अच्छा हो सकता है। क्योंकि हमारी फिक्र इतनी ज्यादा है कि अगर मैं आपको कह दूं कि कल बुराई दुख देती है। दुख कोई भी नहीं चाहता। आज नहीं कल सुख | सुबह आप मरने वाले हैं, तो जो आपको पहले खयाल आएगा, की तरफ जाएगा; खोजेगा; तो बुराई को छोड़ेगा। लेकिन हम झूठे वह यह है कि मरघट मुझे कौन लोग पहुंचाने जाएंगे। फलां आदमी अच्छे आदमी हैं। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। झूठे अच्छे आदमी | जाएगा कि नहीं? मिनिस्टर जाएगा कि नहीं? गवर्नर जाएगा कि का मतलब है कि हम अच्छे बिलकुल नहीं हैं और बाहर हमने एक | नहीं? मरने के बाद अखबार में मेरी खबर छपेगी कि नहीं? लोग अच्छा आरोपण कर रखा है। रिस्पेक्टिबिलिटी...।
क्या कहेंगे? मां-बाप बच्चों से कहते हैं कि देख, इज्जत मत गंवा देना, हमारा बहुत लोगों के मन में यह इच्छा होती है कि मरने के बाद लोग खयाल रखना, किसका बेटा है। वे उसको यह नहीं कह रहे हैं कि | मेरे संबंध में क्या कहेंगे, उसका कुछ पता चल जाए। इस तरह की अच्छा काम करना अच्छा है। वे यह कह रहे हैं, अच्छा काम करना लोगों ने कोशिश भी की है। अहंकार-पोषक है। वे यह कह रहे हैं, घर की इज्जत का खयाल एक आदमी ने, राबर्ट रिप्ले ने अपने मरने की खबर उड़ा दी। रखना। वे उससे यह नहीं कह रहे हैं कि अच्छे होने में तेरा आनंद | सिर्फ इसलिए कि अखबारों में पता चल जाए, और कौन-कौन होना चाहिए। वे यह कह रहे हैं, घर की इज्जत का सवाल है, | क्या-क्या कहता है, उसे मैं एक दफा पढ़ तो लूं। वह मरने के ही प्रतिष्ठा का सवाल है, वंश का सवाल है।
करीब था, डाक्टरों ने कहा था कि अब बस, चौबीस घंटे, छत्तीस वे उसको अहंकार सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि समझना कि | घंटे से ज्यादा नहीं बच सकते। तो उसने अपने सेक्रेटरी को बुलाया तू किसका बेटा है। वे उसको झूठ सिखा रहे हैं। वह लड़का अब और कहा कि तू एक काम कर। तू खबर कर दे कि मैं मर गया। मैं दंभ से आचरण करेगा। वह अच्छा भी होगा, तो अच्छे के पीछे भी अपनी खबर अखबारों में पढ़ लेना चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद वासना यही होगी कि आदर-सम्मान मिले।
लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं। रिस्पेक्टिबिलिटी दंभाचरण है, आदर की तलाश। लेकिन हमने | | दूसरे दिन जब उसने खबर पढ़ ली और अच्छी-अच्छी बातें पढ़ सारा आचरण आदर पर खड़ा कर रखा है। हम एक-दूसरे को यही | ली उसके संबंध में, क्योंकि मरने के बाद लोग अच्छी बातें कहते समझा रहे हैं, सिखा रहे हैं। सारी शिक्षा, सारा संस्कार, कि अगर ही हैं, शिष्टाचारवश। और शायद इसलिए भी कि जब हम मरेंगे, बुरे हुए, तो बेइज्जती होगी। और बेइज्जती से आदमी डरता है, | तो लोग भी खयाल रखेंगे। बाकी और तो कुछ खास बात...। इसलिए बुरा नहीं होता।
| जब आप किसी आदमी के संबंध में सनें कि सभी लोग अच्छी आपको असलियत का तो तब पता चले, जब आप लोगों से बातें कर रहे हैं, समझ लेना कि मर गया। नहीं तो जिंदा आदमी के कह दें कि कोई फिक्र नहीं, बुरे हो जाओ, बेइज्जती नहीं होगी। और | बाबत सभी लोग अच्छी बात कर ही नहीं सकते। बड़ा कठिन है, अगर हम एक ऐसा समाज बना लें, जिसमें बुरे होने से बेइज्जतीन बड़ा कठिन है। होती हो. तब आपको पता चलेगा कि कितने आदमी अच्छे हैं। अखबारों में अच्छी बातें सनकर रिप्ले बहत संतष्ट हो गया। अभी तो बुराई से बेइज्जती मिलती है, अहंकार को चोट लगती है, | | और उसने कहा कि अब अखबार वालों को खबर कर दो कि मेरी तो आदमी अच्छा होने की कोशिश करता है। अच्छे होने की | | तस्वीर निकाल लें मरने की खबर पढ़ते हुए। मैं मनुष्य-जाति के आकांक्षा में भी अच्छे होने का खयाल नहीं है, अच्छे होने की | इतिहास का पहला आदमी हूं, जिसने अपने मरने की खबर पढ़ी। आकांक्षा में अहंकार का पोषण है।
फिर उसने अखबारों में दूसरी खबर छपवाई। कृष्ण कहते हैं ज्ञानी के लिए लक्षणों में, दंभाचरण का अभाव।। निश्चित ही वह पहला आदमी था, जिसने अपने मरने की खबर
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रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
पढ़ी और जिसने अपनी मृत्यु पर लोगों के द्वारा दिए गए संदेश पढ़े।
दूसरों की फिक्र इतनी है कि आदमी मरते क्षण में भी अपनी फिक्र नहीं करता। जिंदगी की तो बात ही अलग, मौत भी आ रही हो, तो दूसरों की चिंता होती है।
आप यह जो दूसरों की चिंता करके जीते हैं, तो आपका सारा आचरण दंभ - आचरण होगा।
ज्ञानी सहज जीएगा; उसके भीतर जो है, वैसा ही जीएगा; परिणाम जो भी हो। दुख मिले, तो दुख झेलने को राजी रहेगा। सुख मिले, तो सुख झेलने को राजी रहेगा। समभाव से जो भी परिणाम हो, उसको झेलेगा, लेकिन जीएगा सहजता से | आपकी तरफ देखकर नहीं जीएगा। वह किसी तरह का आरोपण, किसी तरह का मुखौटा, किसी तरह के वस्त्र आपकी नजर से नहीं पहनेगा। उसे जो ठीक लगेगा, जो उसका आंतरिक आनंद होगा ।
दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना...।
वह भी ज्ञान का लक्षण है। क्यों? क्योंकि जितना ही हम किसी को सताते हैं, उतने ही हम सताए जाते हैं। यह कोई दूसरे पर दया करने के लिए नहीं है ज्ञानी का लक्षण । यह सिर्फ ज्ञानी की बुद्धिमत्ता है, उसका सहज बोध है, कि जब मैं किसी को सताता हूं, तो मैं अपने सताने के लिए आयोजन कर रहा हूं।
सिर्फ अज्ञानी ही दूसरे को सता सकता है, क्योंकि उसका मतलब है कि उसे पता ही नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूं। अपने लिए ही कांटे बो रहा हूं। यह अज्ञानी ही कर सकता है।
ज्ञानी तो देखता है जीवन के अंतः- संबंधों को, कि जो मैं करता हूं, वही मुझ पर वापस लौट आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है। जो भी मैं बोलता हूं, वही मुझ पर बरस जाता है। अगर मैं गाली फेंकता
तो गालियां मेरे पास लौट आती हैं। और अगर मैं मुस्कुराहट फेंकता हूं, तो हजार मुस्कुराहटें मेरी तरफ वापस लौट आती हैं। जगत वही लौटा देता है, जो हम उसे देते हैं। यह ज्ञानी का अनुभव है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। वह जानता है कि मैं दुख दूंगा, तो मैं दुख देने के लिए लोगों को आमंत्रित कर रहा हूं।
आप किसी को दुख देकर देखें। सीधी-सी बात है कि जब आप किसी को दुख देते हैं, तो आप उसको प्रेरित करते हैं कि वह आपको दुख दे।
इसे आप ऐसा समझें कि जब कोई आपको दुख देता है, आपके मन में क्या होता है? जब कोई आपको दुख देता है, तो जो
पहली बात आपके मन में बनती है, वह यह कि इसको कैसे दुगुना | दुख दें। आप उपाय में लग जाते हैं कि इसको कैसे दुख दें। यह सीधा-सा, सरल-सा नियम है। इसलिए ज्ञानी प्राणिमात्र को भी किसी प्रकार से नहीं सताना चाहता है।
क्षमा भाव...।
क्षमा का अर्थ लोग समझते हैं कि दूसरे पर दया करना। नहीं, वैसा अर्थ नहीं है। क्योंकि दया में भी अहंकार है । क्षमा बड़ी सूक्ष्म बात है।
क्षमा का अर्थ है, मनुष्य की कमजोरी को समझना और यह | जानना कि मैं खुद भी कमजोर हूं, दूसरा भी कमजोर है। खुद की कमजोरी का अनुभव ज्ञानी को होता है, वह अपनी सीमाएं जानने लगता है; अपनी सीमाएं जानने के कारण वह प्रत्येक मनुष्य के प्रति क्षमावान हो जाता है, क्योंकि वह समझता है कि सबकी कमजोरी है । जो ज्ञानी आपकी कमजोरी के प्रति क्षमावान नहीं, समझना कि उसने अभी अपना आत्म विश्लेषण नहीं किया।
मैंने सुना है, यहूदी फकीर बालशेम के पास एक युवक आया। | उस युवक ने कहा कि मैं महापापी हूं। कोई भी सुंदर स्त्री मुझे रास्ते पर दिखती है, तो उसे भोगने का मन होता है। फिर मैं कुढ़ता हूं, परेशान होता हूं। कोई भी अच्छी चीज दिखाई पड़े, तो चोरी करने का मन होता है। कर न पाऊं, यह दूसरी बात है, लेकिन मन तो हो | जाता है। जरा-सा कोई मुझे दुख पहुंचा दे, तो उसकी हत्या करने | का मन होता है। मैं महापापी हूं। तो मुझे कोई कठोर दंड दो।
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बालशेम ने कहा कि तूने स्वीकार किया, इतना काफी है। बस, तू इसको स्मरण रखना कि जो तुझे होता है, ऐसा ही दूसरे को भी होता है। तो अगर तुझे कल पता चले कि फलां आदमी फलां की स्त्री के प्रति बुरी तरह से देख रहा था, तो तू निंदा से मत भर जाना। तू समझना कि मनुष्य कमजोर है, क्योंकि तू कमजोर है। तू क्षमा को जन्म देना |
पर उस युवक ने कहा कि नहीं, मुझे सजा दो, मुझे दंड दो । | बालशेम ने कहा कि अगर मैं तुझे दंड दूं, तो तू भी दूसरे को दंड देना चाहेगा और क्षमा कभी पैदा न होगी। अगर मैं तुझे कहूं कि तुझे इतना दंड देता हूं, क्योंकि तूने दूसरे की स्त्री की तरफ बुरी नजर से देखा; तो तू दंड झेल लेगा, लेकिन तेरा अहंकार मजबूत होगा। और कल अगर किसी ने कहा कि फलां आदमी दूसरे की स्त्री की तरफ बुरी नजर से देख रहा है, तो तू चाहेगा कि इसको दंड दिया | जाए। तू क्षमावान नहीं होगा। मैं तुझे यही दंड देता हूं कि कोई दंड
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नहीं देता। सिर्फ तू इतना खयाल रखना, जब दूसरे में कोई भूल | | रहता है। देखे. तो खयाल रखना कि वे सारी भलें और भी बड़े रूप में तेरे कष्ण कहते हैं. क्षमा का भाव. मन-वाणी की सरलता...। भीतर मौजूद हैं। दूसरा क्षम्य है।
सरलता को थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिए कि उसका क्या ज्ञानी विश्लेषण करता है अपना। उस विश्लेषण से सारी अर्थ होता है। सरलता का अर्थ होता है, बिना किसी कपट के। मनुष्यता से उसकी पहचान हो जाती है। ज्ञानी का यह अनिवार्य सरलता का अर्थ होता है, सीधा-सीधा। सरलता का अर्थ होता है, लक्षण है कि ज्ञानी निंदा नहीं करेगा, दंडित नहीं करेगा; वह यह बिना किसी योजना को बनाए, बिना किसी कैलकुलेशन के, बिना नहीं कहेगा कि तुम महापापी हो और नरक में सड़ोगे। वह तुम्हारे किसी गणित के। ऊपर खड़े होकर तुम्हें नीचा दिखाने की कोशिश भी नहीं करेगा। ___ छोटे बच्चे में सरलता होती है। अगर उसको क्रोध आ गया है, क्योंकि उसने अपना विश्लेषण किया है, उसने अपनी स्थिति भी | तो वह आग की तरह जल उठता है, भभक उठता है। उस क्षण ऐसा जानी है। और अपनी स्थिति को जानकर वह पूरी मनुष्यता की लगता है, सारी दुनिया को नष्ट कर देने की उसकी मर्जी है। और स्थिति से परिचित हो गया है।
क्षणभर बाद वह फूल की तरह मुस्कुरा रहा है। और जिसको वह. लेकिन उस युवक ने कहा कि नहीं, जब तक आप मुझे दंड न | | मारने को खड़ा हो गया था, नष्ट कर देने को, उसी के साथ खेल देंगे, तब तक मैं जाऊंगा नहीं। मैं इतना बड़ा पापी हूं! तो बालशेम | | रहा है। जो भीतर था, उसने बाहर ले आया; जैसा था, वैसा ही ने कहा, तू कुछ भी पापी नहीं है। तुझसे बड़ा मैं रहा हूं। तू कुछ भी | | बाहर ले आया। उसने यह नहीं सोचा कि लोग क्या सोचेंगे। उसने नहीं है। तुझसे बड़ा मैं रहा हूं। और मैं भी किसी दिन एक गुरु के यह नहीं सोचा कि दुनिया क्या कहेगी। उसने यह नहीं सोचा कि पास गया था और दंड मैंने भी चाहा था।
| इससे नरक जाऊंगा या स्वर्ग जाऊंगा। उसने कुछ सोचा ही नहीं, ___ अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। बड़े दंड से भी प्रसन्न होता है। कोई दंड | जो भीतर था, वह बाहर ले आया। नहीं मिल रहा है, तो उसे लग रहा है कि मुझे समझा ही नहीं जा रहा। बच्चे में सरलता है। और इसलिए बच्चा अभी रो रहा है, अभी है। समझ रहे हैं कि कोई छोटा-मोटा पापी। मैं बार-बार कह रहा है। मस्करा सकता है। कई दफे बडों को बडी हैरानी होती है कि ये बच्चे कि मैं बड़ा पापी हूं। मुझे कोई बड़ा दंड दो। बड़े दंड में भी मजा | भी किस तरह के हैं! अभी रो रहा था, अभी मुस्कुरा रहा है। बड़े रहेगा। कोई छोटा-मोटा पापी नहीं है कोई आम पापी नहीं | | धोखेबाज मालूम पड़ते है, पाखंडी मालूम पड़ते हैं। इतने जल्दी यह हूं-चलता-फिरता, ऐरा-गैरा-खास पापी हूं।
हो कैसे सकता है कि अभी यह रो रहा था, अभी मुस्कुरा रहा है! तो बालशेम ने कहा, मैं भी किसी गुरु के पास गया था। और आप रोएं, तो दो-चार दिन लग जाएंगे मुस्कुराने में। क्योंकि वह मैंने भी कहा था, मैं महापापी हूं; मुझे बड़ा दंड दो। मेरे गुरु ने कहा रोना आप में सरकता ही रहेगा। पर आप कारण समझते हैं? था कि तुझे दंड नहीं दूंगा। और याद रखना तू भी किसी को दंड मत अभी एक मित्र आए; सालभर पहले पत्नी चल बसी। वे अभी देना, सिर्फ क्षमा का भाव देना।
तक नहीं हंस पा रहे हैं। सालभर हो गया, रो ही रहे हैं। वे मुझसे कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी का लक्षण है क्षमा का भाव।
बोले कि मुझे किसी तरह रोने से छुटकारा दिलाइए। मैंने कहा कि वह जानता है आदमी कमजोर है। वह जानता है. आदमी अगर मेरी आप समझते हों. तो मेरा समझना ऐसा है कि आप ठीक मुश्किल में है। वह जानता है, आदमी बड़ी दुविधा में है। वह से रोए नहीं हैं। नहीं तो सालभर कैसे रोते! आप ऐसे ही जानता है कि आदमी जैसा भी है, बड़ी जटिलता में है। इसलिए उसे | कुनकुने-कुनकुने रो रहे हैं, ल्यूकवार्म। शक्ल लंबी बनाए हुए हैं। दोषी क्या ठहराना!
दिल खोलकर नहीं रो लिए। छाती पीटकर, नाचकर, कूदकर, जैसा ___ अगर आप कुछ भूल कर लेते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। | करना हो, ठीक से रो लें। चौबीस घंटे निकाल लें, मैंने उनसे कहा, स्वाभाविक मालूम होता है। सच तो यह है कि अगर आप भूल नहीं | छुट्टी के और चौबीस घंटे रो लें। चौबीस साल रोने की बजाय करते हैं, तो बड़ा अस्वाभाविक मालूम होता है। आदमी इतना चौबीस घंटे रो लें। फिर हंसी अपने आप आ जाएगी। रोना निकल कमजोर, इतनी शक्तियों का दबाव, इतनी जटिलताएं, इतनी | | जाए, तो हंसी आ जाती है। मुसीबतें, उनके बीच में भी आदमी किसी तरह अपने को सम्हाले वह छोटा बच्चा एक क्षण में रोता है, एक क्षण में हंसता है।
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रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
उसका कारण यह नहीं है कि वह धोखा दे रहा है। उसका कारण | जैसी है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी को चोट पहुंचाना यह नहीं है कि उसकी हंसी झूठी है। उसका कारण यह है कि उसका | चाहता है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि वह किसी को रोना इतना सच्चा था कि निकल गया; बात खतम हो गई। अब वह | अपमानित करना चाहता है। इसका सिर्फ इतना मतलब है कि वह हंस रहा है।
जैसा भीतर है, चाहता है कि लोग उसे बाहर भी वैसा ही जानें। फिर आपका रोना भी झूठा है, हंसना भी झूठा है। ऊपर से चिपकाया इसके कारण जो भी कठिनाई झेलनी पड़े, वह झेल लेगा। लेकिन हुआ है। दोनों ही झूठे हैं। जिंदगी चल रही है झूठ में। दोनों तरफ अपने को झूठा नहीं करेगा। झूठ के चक्के लगाए हुए हैं गाड़ी में। कहीं नहीं पहुंच रही है जिंदगी, दो उपाय हैं, या तो बाहर की कठिनाई से बचने के लिए भीतर तो कहते हैं, कहीं पहुंचती नहीं। प्रयोजन क्या है? लक्ष्य नहीं | जटिल हो जाएं; और या फिर बाहर की कठिनाई झेलने की तैयारी मिलता!
हो, तो भीतर सरल हो जाएं। वह लक्ष्य मिलेगा क्या! दोनों चक्के झूठे हैं। वे दिखाई पड़ते हैं, संतत्व की सबसे बड़ी तपश्चर्या सरलता है। कोई धूप में खड़ा पेंटेड हैं। चक्के नहीं हैं।
| होना संतत्व नहीं है। और न कोई सिर के बल खड़े होकर अभ्यास सरलता का अर्थ है, जैसा भीतर हो, वैसा ही बाहर प्रकट कर | करे, तो कोई संत हो जाएगा। ये सब कवायदें हैं और इनका कोई देना। बड़ी कठिनाई होगी। आप कहेंगे, आप उपद्रव की बात कह | बहुत बड़ा मूल्य नहीं है। संतत्व की असली संघर्ष की तपश्चर्या है रहे हैं। उपद्रव की है, इसीलिए तो कम लोग सरल हो पाते हैं। | सरलता, क्योंकि तब आपको बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी। बड़ी जटिल आप इसीलिए तो हो जाते हैं, क्योंकि सरल होना मुश्किल | मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी, क्योंकि चारों तरफ आपने झूठ का जाल है। अगर सरल होंगे, तो बहुत-सी कठिनाइयां झेलनी पड़ेंगी। | बिछा रखा है। बहुत-सी कठिनाइयां झेलनी पड़ेंगी, बहुत-सी अड़चनें झेलनी ___ आपने ऐसे आश्वासन दे रखे हैं, जो आप पूरे नहीं कर सकते। पड़ेंगी। इसीलिए तो आदमी उनसे बचने के लिए कठिन हो जाता | | आपने ऐसे वक्तव्य दे रखे हैं, जो असत्य हैं। आपने सबको धोखे है, जटिल हो जाता है।
में रख छोड़ा है और आपके चारों तरफ एक झूठी दुनिया खड़ी हो एक आदमी सुबह-सुबह मिलता है। मन में होता है कि इस दुष्ट गई है। सरलता का अर्थ है, यह दुनिया गिरेगी, खंडहर हो जाएगा। की शक्ल कहां से दिखाई पड़ गई! अब दिनभर खराब हुआ। और | | क्योंकि आप अपनी पत्नी से कहते ही चले जा रहे हैं कि मैं तुझे प्रेम उससे आप नमस्कार करके कहते हैं कि धन्यभाग कि आप दिखाई। करता है। वह मानती नहीं। वह रोज पछती है कि प्रेम करते हैं? पड़ गए। बड़ी कृपा है। बड़े दिनों में दिखाई पड़े। बड़े दिन से बड़ी | हजार ढंग से पूछती है कि आप मुझे प्रेम करते हैं? इच्छा थी। और भीतर कह रहे हैं, यह दुष्ट कहां से सुबह दिखाई। पति-पत्नी एक-दूसरे से पूछते हैं बार-बार, तरकीबें निकालते पड़ गया!
| हैं पूछने की, कि आप मुझे अभी भी प्रेम करते हैं? क्योंकि भरोसा अब यह जो भीतर और बाहर हो रहा है, अगर आप सीधे ही तो दोनों को नहीं आता; आ भी नहीं सकता। क्योंकि दोनों धोखा कह दें कि महानुभाव, कहां से दिखाई पड़ गए आप सुबह से। दे रहे हैं। पत्नी भी जानती है कि जब मैं ही नहीं करती हूं प्रेम, तो दिनभर खराब हो गया। तो आप कठिनाई में पड़ेंगे। क्योंकि यह | दूसरे का क्या भरोसा! पति भी जानता है कि जब मैं ही नहीं करता
आदमी झंझट डालेगा। यह आपको फिर ऐसे ही जाने नहीं देगा। हूं प्रेम, तो पत्नी का क्या भरोसा! फिर दिन तो दूर है, यह अभी आपको उपद्रव खड़ा कर देगा। यह इसलिए दोनों छिपी नजरों से जांच करते रहते हैं कि प्रेम है भी शक्ल फिर दिनभर में करेगी, वह तो अलग रही बात; लेकिन यह या नहीं। और एक-दूसरे से पूछते रहते हैं। और जब एक-दूसरे से । अभी कोई मुसीबत खड़ी कर देगा। तो आप ऊपर एक झूठा पूछते हैं, तो गले लगकर एक-दूसरे को आश्वासन देते हैं कि अरे, आवरण खड़ा कर लेते हैं। जिंदगी की जरूरतें आपको झूठा बना तेरे सिवाय जन्मों-जन्मों में न किसी को किया है, न कभी करूंगा। देती हैं।
जन्मों-जन्मों की बात कर रहे हैं और भीतर सोच रहे हैं कि इसी लेकिन ज्ञानी के लिए, कृष्ण कहते हैं, कठिनाई भला हो, लेकिन जन्म में अगर छुटकारा हो सके! वह भीतर चल रहा है। उसको मन-वाणी की सरलता चाहिए। वह वैसी ही बात कह देगा, संतत्व की सबसे बड़ी तपश्चर्या है, सरल हो जाना। शुरू में
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बहुत कठिनाई होगी। लेकिन कठिनाई शुरू में ही होगी, थोड़े ही कामचलाऊ ढंग से मान लेते हैं। इसलिए किसी को शिक्षक बना दिन में कठिनाइयां शांत हो जाएंगी। और थोड़े दिन में आप पाएंगे | | लेना आसान है, गुरु बनाया कठिन है। और फर्क है गुरु और कि कठिनाइयों के ऊपर उठ गए। और जब आप सरल हो जाएंगे, | | शिक्षक में। शिक्षक का मतलब है, यह कामचलाऊ संबंध है। तो लोग आपकी बात का बुरा भी न मानेंगे।
तुमसे हम सीख लेते हैं, उसके बदले में हम तुम्हें कुछ दे देते हैं। ___ शुरू में तो बहुत बुरा मानेंगे, क्योंकि आप एकदम बदलेंगे और | | तुम्हारी फीस ले लो। हम तुम्हें धन दे देते हैं, तुम हमें ज्ञान दे दो; लगेगा कि यह क्या हो गया! यह आदमी कल तक क्या था, आज | बात खतम हो गई। यह गुरु का संबंध नहीं है। क्या हो गया! एकदम पतन हो गया इस आदमी का। कल तक | शिक्षक का संबंध ऐसा है, रास्ते पर किसी आदमी से पूछा कि कहता था प्रेम, आज कहता है कि एक क्षण प्रेम का मुझे कोई पता स्टेशन का रास्ता किधर जाता है। बस, इतनी बात है। उसने रास्ता ही नहीं है। मैंने कभी तझे प्रेम किया नहीं है।
बता दिया। आपने उसको धन्यवाद दे दिया, अपने रास्ते पर चले शुरू में कठिनाई होगी, लेकिन जैसे-जैसे सरलता बढ़ती | | गए। कुछ लेना-देना नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध ऐसा जाएगी, प्रकट होने लगेगी, वैसे-वैसे कठिनाई विदा हो जाएगी। | है, उसमें कामचलाऊ रिश्ता है, उपयोगिता का संबंध है। और एक मजा है, सरलता में झेली गई कठिनाई भी सुख देती है | | गुरु और शिष्य का रिश्ता गैर-उपयोगिता का है और उसमें और जटिलता में आया सुख भी दुख ही हो जाता है। क्योंकि हम कोई कामचलाऊ बात नहीं है। और इसीलिए गुरु को शिष्य कुछ भीतर इतनी गांठों से भर जाते हैं कि सुख हममें प्रवेश ही नहीं कर | भी तो नहीं दे सकता। प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं दे सकता; कोई धन सकता। हम भीतर इतने अशांत हो जाते हैं कि अब कोई शांति की | | नहीं दे सकता। किरण हममें प्रवेश नहीं कर सकती।
__ पुराने दिनों में तो व्यवस्था यह थी कि गुरु भोजन भी विद्यार्थी तो कृष्ण कहते हैं, मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित | | को देगा, आश्रम में रहने की जगह भी देगा। उसकी सब भांति फिक्र गुरु की सेवा-उपासना...।
करेगा, जैसे पिता अपने बेटे की फिक्र करे। ज्ञान भी देगा और इतनी क्यों बातें जोड़नी? श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की | | बदले में कुछ भी नहीं लेगा। सेवा-उपासना। क्या जरूरत है इतनी बातें जोड़ने की गुरु की | ___ आप कठिनाई में पड़ेंगे उस आदमी के साथ, जो बदले में कुछ उपासना में?
न ले। जो बदले में कुछ ले ले, उससे तो हमारा नाता-रिश्ता कारण है। किसी को भी गुरु स्वीकार करना मनुष्य के लिए अति | | समानता का हो जाता है। जो बदले में कुछ न ले, उससे हमारा कठिन है। इस जगत में कठिनतम बातों में यह बात है कि किसी | नाता-रिश्ता समानता का कभी नहीं हो पाता। वह ऊपर होता है, को गुरु स्वीकार करें। क्योंकि गुरु स्वीकार करने का अर्थ होता है, | हम नीचे होते हैं। मैंने अपने को स्वीकार किया कि मैं अज्ञानी हूं। गुरु को स्वीकार तो इतने आग्रहपूर्वक कृष्ण कहते हैं, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की करने का अर्थ होता है, मैंने स्वीकारा कि मैं अज्ञानी हूं। यह बड़ी | | सेवा-उपासना। कठिन बात है। हमारा मानना होता है कि हम तो ज्ञानी हैं ही। श्रद्धा-भक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी। और इसका एक
तो शिष्य बनना बहुत कठिन है। शायद सर्वाधिक कठिन बात | मनोवैज्ञानिक रूप भी समझ लेना जरूरी है। कही जा सकती है, शिष्य बनना, सीखने की तैयारी। अहंकार को __मनसविद कहते हैं कि जिस व्यक्ति से भी हम कुछ लेते हैं और छोड़ना पड़े पूरा।
उसके उत्तर में नहीं दे पाते, उसके प्रति हमारे मन में दुश्मनी पैदा और फिर किसी को गुरु स्वीकार करना, किसी को अपने से | होती है। क्योंकि उस आदमी ने हमें किसी तरह नीचा दिखाया है। ऊपर स्वीकार करना, बड़ा जटिल है। मन तो यही कहता है कि एक मेरे मित्र हैं। बड़े धनपति हैं और बड़े दंभी हैं। और बड़े भले मुझसे ऊपर कोई भी दुनिया में नहीं है। और सब हैं, मुझसे नीचे | | आदमी हैं। और जब भी कोई मुसीबत में हो, तो उसकी सहायता हैं। हर आदमी अपने को शिखर पर मानता है। यह सहज मन की | करते हैं। कम से कम उनके रिश्तेदारों में तो कोई भी मुसीबत में हो, दशा है।
तो वे हर हालत में सहायता करते हैं। मित्र, परिचित, कोई भी हो, तो किसी को अपने से ऊपर मानना बड़ी कठिन है बात। हम सहायता करते हैं।
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• रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
एक दिन मेरे पास आकर वे कहने लगे कि मैंने जिंदगी में सिवाय गुरु का शिष्य दुश्मन हो ही जाएगा। दूसरों की सहायता के कुछ भी नहीं किया, लेकिन कोई भी मेरा इसे हम ऐसा समझें कि बेटे बाप के दुश्मन हो जाते हैं। इसलिए उपकार नहीं मानता है! उलटे लोग मेरी निंदा करते हैं। जिनकी मैं | | हमने बाप के प्रति बहुत श्रद्धा का भाव पैदा करने की कोशिश की सहायता करता हूं, वे ही निंदा करते हैं। जिनको मैं पैसे से सब तरह | | है, नहीं तो बेटे बाप के दुश्मन हो ही जाएंगे। क्योंकि बाप से सब की सुविधा पहुंचाता हूं, वे ही मेरे दुश्मन बन जाते हैं। तो कारण | मिलता है; और लौटाने का क्या है। क्या है ? किस वजह से ऐसा हो रहा है?
पर बाप से तो जो मिलता है, वह लौटाया भी जा सकता है, तो मैंने उनसे कहा कि आप उनको भी कुछ उत्तर देने का मौका | | क्योंकि बाह्य वस्तुएं हैं। गुरु से जो मिलता है, वह तो लौटाया ही देते हैं कि नहीं? तो उन्होंने कहा कि उसकी तो कोई जरूरत ही नहीं | | नहीं जा सकता है। वह तो ऐसी घटना है कि उसको लौटाने का है। मेरे पास पैसा है, मैं उनकी सहायता कर देता हूं। तो फिर, मैंने | सिर्फ एक उपाय है कि तुम किसी और को शिष्य बना देना। बस, कहा कि कठिनाई है। क्योंकि वे क्या करें! जब आप उनकी | वही उपाय है; और कोई उपाय नहीं है। जो तुमने गुरु से पाया है, सहायता करते हैं, तो आपको लगता है कि आप बहुत अच्छा काम | | वह तुम किसी और शिष्य को दे देना, यही उपाय है। गुरु तक कर रहे हैं, लेकिन जिसकी सहायता की जाती है, वह आदमी तो | लौटाने का कोई उपाय नहीं है। अनुभव करता है कि उसका अपमान हुआ। ऐसा मौका आया कि | इसलिए श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की उपासना। बाहर-भीतर की किसी की सहायता लेनी पड़ी। और फिर लौटा सकता नहीं है, आप शुद्धि, अंतःकरण की स्थिरता, मन-इंद्रियों सहित शरीर का किसी को लौटाने देते नहीं हैं। तो फिर वह आपका दुश्मन हो | निग्रह...। जाएगा। वह आपका उत्तर किसी न किसी तरह तो देगा। इन सबके संबंध में मैंने काफी बात पीछे की है।
दो ही उपाय हैं, या तो आप उसकी कोई सहायता लें और उसको । लोक-परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और भी ऊपर होने का कोई मौका दें। और नहीं तो फिर वह आपकी अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में सहायता झूठी थी, धोखे की थी, आप आदमी बुरे हैं, ये सब खबरें दुख और दोषों का बारंबार दर्शन, ये सब ज्ञान के लक्षण हैं। फैलाकर अपने मन को यह सांत्वना दिलाएगा कि इतने बुरे आदमी आखिरी बात जिसकी अभी चर्चा नहीं हुई, उसकी हम बात कर से नीचे होने का कोई सवाल ही नहीं; इस बुरे आदमी से तो मैं ही लें। जन्म, मृत्यु, जरा, रोग, दुख इत्यादि में बारंबार दोषों का दर्शन, ऊपर हूं। यह वह कंसोलेशन, सांत्वना खोज रहा है।
ये सब ज्ञान के लक्षण हैं। आदमी के मन की बड़ी जटिलता है।
जब आप पर कोई बीमारी आती है, कोई दुख आता है, कोई गुरु से आप ज्ञान लेते हैं, लौटा तो कुछ भी नहीं सकते। क्योंकि | असफलता घटित होती है, कोई संताप घेर लेता है, तब आप क्या ज्ञान कैसे लौटाया जा सकता है! उससे जो मिलता है, उसका कोई | | करते हैं? तब आप तत्क्षण यही सोचते हैं कि किन्हीं दूसरे लोगों की प्रत्युत्तर नहीं हो सकता। इसलिए भारत में बड़े आग्रहपूर्वक यह | शरारत, षड्यंत्र के कारण आप कष्ट पा रहे हैं। तो यह अज्ञानी का कहा है कि श्रद्धा और भक्ति सहित...।
लक्षण है। अगर बहुत प्रगाढ़ श्रद्धा हो, तो ही शिष्य गुरु के विरोध में जाने | ज्ञानी का लक्षण यह है कि जब भी वह दुख पाता है, तब वह से बच सकेगा, नहीं तो दुश्मन हो जाएगा। आज नहीं कल शिष्य | | सोचता है कि जरूर मैंने कोई दोष किया, मैंने कोई पाप किया, मैंने के दुश्मन हो जाने की संभावना है। वह दुश्मन हो ही जाएगा। वह कोई भूल की, जिसका मैं फल भोग रहा हूं। ज्ञान का लक्षण यह है कोई न कोई बहाना और कोई न कोई कारण खोजकर शत्रुता में | | कि जब भी दुख मिले, तो अपने दोष की खोज करना। जरूर कहीं खड़ा हो जाएगा, तभी उसको राहत मिलेगी कि झंझट मिटी; इस | न कहीं मैंने बोया होगा, इसलिए मैं काट रहा हूं। आदमी के बोझ से मुक्त हुआ।
__ अज्ञानी दूसरे को दोषी ठहराता है, ज्ञानी सदा अपने को दोषी इसलिए हमने बहुत खोजबीन करके श्रद्धा और भक्ति को ठहराता है। और इसलिए अज्ञानी दोष से कभी मुक्त नहीं होता; अनिवार्य शर्त माना है शिष्य की, तभी शिष्य गुरु के साथ उसके | ज्ञानी दोष से मुक्त हो जाता है। अगर मुझे यह प्रगाढ़ प्रतीति होने मार्ग पर चल सकता है और दुश्मन होने से बच सकता है। नहीं तो लगे और होगी ही—अगर हर दुख में, हर पीड़ा में, हर रोग में,
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हर मृत्यु में मैं यही जानूंगा कि मेरी कोई भूल है, तो निश्चित ही | लेकिन जिस ढंग से आप खड़े हैं, बहुत दूर है, क्योंकि आप पीठ आगे उन भूलों को करना मुश्किल हो जाएगा। जिन दोषों से इतना | | किए खड़े हैं। इन लक्षणों के विपरीत आप सब कुछ कर रहे हैं। दुख पैदा होता है, उनको करना असंभव हो जाएगा। मेरा मन | | आपकी पीठ है मंदिर की तरफ। इसलिए अगर आप और गहन संस्कारित हो जाएगा। मुझे यह स्मरण गहरे में बैठ जाएगा, तीर की | अंधकार में, और अज्ञान में, और दुख में प्रवेश करते चले जाते हैं, तरह चुभ जाएगा।
तो कुछ आश्चर्य नहीं है। __ अगर सभी दुख मेरे ही कारण से पैदा हुए हैं, तो फिर आगे मेरे | पांच मिनट रुकेंगे। कोई भी व्यक्ति बीच से न उठे। बीच से उठने दुख पैदा होने मुश्किल हो जाएंगे, क्योंकि मैं अपने कारणों को | | में बाधा पड़ती है। पांच मिनट कीर्तन में भाग लें, और फिर जाएं। हटाने लगंगा। लेकिन अज्ञानी के दख दसरों के कारण से पैदा होते हैं। इसलिए उसके हाथ में कोई ताकत ही नहीं है, वह कुछ कर सकता नहीं। दूसरे जब बदलेंगे, सारी दुनिया जब बदलेगी, तब वह सुखी हो सकता है! __ अज्ञानी सुखी होगा, जब सारी दुनिया बदल जाएगी और कोई गड़बड़ नहीं करेगा, तब। ऐसा कभी होने वाला नहीं है। ज्ञानी अभी सुखी हो सकता है, इसी क्षण सुखी हो सकता है। क्योंकि वह मानता है कि दुख मेरे ही किसी दोष के कारण हैं।
मुसलमान फकीर इब्राहीम एक रास्ते से गुजरता था। उसके शिष्य साथ थे। इब्राहीम के प्रति उनका बडा आदर. बडा भाव. बड़ा सम्मान था। वह आदमी भी वैसा पवित्र था। अचानक इब्राहीम के पैर में पत्थर की चोट लगी और जमीन पर गिर पड़ा, पैर लहूलुहान हो गया।
शिष्य बहुत चकित हुए, शिष्य बहुत हैरान हुए। शिष्यों ने कहा कि यह किसी की शरारत मालूम पड़ती है। कल शाम को हम निकले थे, तब यह पत्थर यहां नहीं था। और सुबह आप यहां से निकलेंगे और मस्जिद जाएंगे सुबह के अंधेरे में, किसी ने यह पत्थर जानकर यहां रखा है। दुश्मन काम कर रहे हैं।
इब्राहीम ने कहा, पागलो, फिजूल की बातों में मत पड़ो। रुको। और इब्राहीम घुटने टेककर परमात्मा को धन्यवाद देने बैठ गया। प्रार्थना करने के बाद उसने कहा, हे परमात्मा, तेरी बड़ी कृपा है। पाप तो मैंने ऐसे किए हैं कि आज फांसी लगनी चाहिए थी; सिर्फ पत्थर की चोट से तूने मुझे छुड़ा दिया। तेरी अनुकंपा अपार है।
ज्ञानी का लक्षण है, जब भी कोई पीड़ा आए, तो खोजना, कहीं अपनी कोई भूल, अपना कोई दोष, जिसके कारण यह दुख आ रहा होगा।
ये कष्ण ने ज्ञान के लक्षण कहे हैं। इन लक्षणों को जो भी परा करने लगे, वह धीरे-धीरे ज्ञान के मंदिर की तरफ बढ़ने लगता है।
और मंदिर बहुत दूर नहीं है। जहां आप खड़े हैं, बहुत पास है।
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अध्याय 13 चौथा प्रवचन
समत्व और एकीभाव
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।। के फूल खिल सकते हैं। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।। ९ ।। __ भविष्य है; वह भविष्य भी खींचता है। अतीत खींचता है,
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। | क्योंकि अतीत में हमारा अनुभव है, हमारी जड़ें हैं। और भविष्य भी विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।। १०।। खींचता है, क्योंकि भविष्य में हमारी संभावना और आशा है। और अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
मनष्य भविष्य और अतीत के बीच में एक तनाव है। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।।११।। कोई जानवर इतना बेचैन नहीं है, जितना मनुष्य। पशुओं की तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और आंखों में झांकें कोई बेचैनी नहीं है, कोई अशांति नहीं है। पशु ममता का न होना तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही | अपने होने से राजी है। कुत्ता कुत्ता है। बिल्ली बिल्ली है। शेर शेर चित्त का सम रहना अर्थात मन के अनुकूल और प्रतिकूल | | है। और आप किसी शेर से यह नहीं कह सकते कि तू कुछ कम
के प्राप्त होने पर हर्ष-शोकादि विकारों का न होना। शेर है या किसी कुत्ते से भी नहीं कह सकते कि तू कुछ कम कुत्ता और मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान-योग के | | है। लेकिन आदमी से आप कह सकते हैं कि तू कुछ कम आदमी द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में । है। सभी आदमी बराबर आदमी नहीं हैं, लेकिन सभी कुत्ते बराबर रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में | कुत्ते हैं। कुत्ता जन्म से ही कुत्ता है। आदमी जन्म से केवल एक बीज अरति, प्रेम का न होना।
है। हो भी सकता है, न भी हो। तथा अध्यात्म-ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के आदमी को छोड़कर सभी पशु पूरे के पूरे पैदा होते हैं; आदमी अर्थरूप परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है | | अधूरा है। उस अधूरे में बेचैनी है। और पूरे होने के दो रास्ते हैं। या और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है, ऐसे कहा जाता है। तो आदमी वापस नीचे गिरकर पशु हो जाए, तो थोड़ी राहत मिलती
है। क्रोध में आपको जो राहत मिलती है, हिंसा में जो राहत मिलती
है, संभोग में जो राहत मिलती है, शराब में जो राहत मिलती है, पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, मैं बहुत बेचैन वह नीचे पशु हो जाने की राहत है। आप वापस गिरकर यह खयाल हूं और मेरे पास इतनी बेचैनी है कि सारी शक्ति इस छोड़ देते हैं कि कुछ होना है। आप राजी हो जाते हैं, नीचे गिरकर। बेचैनी में ही समाप्त हो जाती है। तो मैं इस बेचैनी | लेकिन वह राहत बहुत थोड़ी देर ही टिक सकती है। वह राहत का क्या उपयोग कर सकता हूं और इस बेचैनी का | इसलिए थोड़ी देर ही टिक सकती है, क्योंकि पीछे गिरने का प्रकृति कारण क्या है?
में कोई उपाय नहीं है। कोई बूढ़ा बच्चा नहीं हो सकता वापस। थोड़ी देर को अपने को भुला सकता है; बच्चों के खिलौनों में भी डूब
सकता है थोड़ी देर को, गुड्डा-गुड्डी का विवाह भी रचा सकता है। 11 नुष्य का होना ही बेचैनी है। कम या ज्यादा, लेकिन और थोड़ी देर को शायद भूल भी जाए कि मैं बूढ़ा हूं। लेकिन यह 01 ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है, जो बेचैन न हो। मनुष्य भूलना ही है। कोई बूढ़ा वापस बच्चा नहीं हो सकता। बेचैन होगा ही।
और यह भूलना कितनी देर चलेगा? यह विस्मरण कितनी देर नीत्शे ने कहा है कि मनुष्य ऐसे है, जैसे एक पुल, दो किनारों चलेगा? यह थोड़ी देर में टूट जाएगा। असलियत ज्यादा देर तक पर टिका हुआ, बीच में अधर लटका हुआ। पीछे पशु का जगत है | नहीं भुलाई जा सकती। और जैसे ही यह टूटेगा, बूढ़ा वापस बूढ़ा और आगे परमात्मा का आयाम, और मनुष्य बीच में लटका हुआ | हो जाएगा। है। वह पशु भी नहीं है और अभी परमात्मा भी नहीं हो गया है। पशु | आदमी पशु हो सकता है। आप क्रोध में थोड़ी देर मजा ले सकते होने से थोड़ा ऊपर उठ आया है। लेकिन उसकी जड़ें पशुता में फैली | हैं, लेकिन कितनी देर? और जैसे ही क्रोध के बाहर आएंगे, हुई हैं। और किसी भी मूर्छा के क्षण में वह वापस पशु हो जाता | पश्चात्ताप शुरू हो जाएगा। आप शराब पीकर थोड़ी देर को भूल है। और आगे विराट परमात्मा की संभावना है। उसमें से दिव्यता सकते हैं, लेकिन कितनी देर? शराब के बाहर आएंगे और
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पश्चात्ताप शुरू हो जाएगा।
| छिपा हुआ बीज फूल नहीं बनता, तब तक आपकी बेचैनी दूर नहीं जितनी भी मूर्छा की विधियां हैं, वे पशु होने के मार्ग हैं। । | होगी। हां, थोड़ी देर को आप किसी पर बेचैनी उलीच सकते हैं। आदमी, आदमी जैसा है, वैसा रहे, तो बेचैन है। या तो पीछे गिरे, | | उस उलीचने में राहत मिलेगी। लेकिन आप अपनी शक्ति को व्यर्थ तो चैन मिलता है। लेकिन चैन क्षणभर का ही होता है। जिनको हम | | खो रहे हैं। जिस शक्ति से बड़ी यात्रा हो सकती थी, उससे आप सुख कहते हैं, वे पशुता के सुख हैं। और इसलिए सुख क्षणभंगुर केवल लोगों को और स्वयं को दुख दे रहे हैं। एक तो हम यह होता है। क्योंकि हम पशु सदा के लिए नहीं हो सकते। पीछे लौटने | | उपयोग करते हैं। का कोई उपाय नहीं है। आगे जाने का ही एकमात्र उपाय है। और दूसरा हम यह उपयोग करते हैं कि जब हम बेचैनी को नहीं
और दूसरा उपाय है कि आदमी बेचैनी के बाहर हो जाए कि वह निकाल पाते और बेचैनी को नहीं फेंक पाते, तो फिर हम बेचैनी को परमात्मा के साथ अपने को एक होना जान ले। उसके भीतर जो भुलाने के लिए उपयोग करते हैं। तो कोई शराब पी लेता है, कोई छिपा है, वह पूरा प्रकट हो जाए। मनुष्य अपना भविष्य बन जाए। | सिनेमाघर में जाकर बैठ जाता है। कोई संगीत सुनने लगता है। हम वह जो हो सकता है, वह हो जाए। तो वैसी ही शांति आ जाएगी, | | कोशिश करते हैं कि यह जो भीतर चलता हुआ तूफान है, यह भूल जैसी गाय की आंख में दिखाई पड़ती है। इसलिए संतों की आंखों | जाए, यह याद में न रहे। यह भी समय और शक्ति का अपव्यय है। में अक्सर पशुओं जैसी सरलता वापस लौट आती है। लेकिन वह एक तीसरा और ठीक मार्ग है। और वह यह है, इस बेचैनी को पशुओं जैसी है, पाशविक नहीं है।
समझें, और इस बेचैनी को साधना में रूपांतरित करें। यह बेचैनी पशु भी शांत है। इसलिए शांत है कि अभी उसे बेचैनी का बोध साधना बन सकती है। इसे भुलाने की कोई जरूरत नहीं है। और न ही नहीं हुआ। अभी विकास का खयाल पैदा नहीं हुआ। अभी आगे | | इसे रुग्ण और हिंसा के मार्गों पर प्रेरित करने की जरूरत है। इस बढ़ने की आकांक्षा पैदा नहीं हुई। अभी आकाश को छूने और | | बेचैनी का आध्यात्मिक उपयोग हो सकता है। यह बेचैनी सीढ़ी बन स्वतंत्रता की तरफ उडने के पंख नहीं लगे। अभी स्वप्न नहीं पैदा सकती है। यह बेचैनी शक्ति है: यह उबलता हआ ऊर्जा का प्रवाह हुआ सत्य का। वह सोया हुआ है। जैसा सोया हुआ आदमी शांत | | है। इस प्रवाह को आप ऊपर की तरफ ले जा सकते हैं। छोटे-से होता है, ऐसा पशु भी शांत है।
प्रयोग करें। संत भी शांत हो जाता है। लेकिन स्वप्न पूरा हो गया, इसलिए। __ आपको खयाल नहीं होगा। आपको क्रोध आ जाए, तो आप सत्य पा लिया, इसलिए। संत पूरा हो गया। अब वह अधूरा नहीं | सोचते हैं, एक ही रास्ता है कि क्रोध को प्रकट करो। या एक रास्ता है। अधूरे में बेचैनी रहेगी।
है कि क्रोध को दबा लो और पी जाओ। लेकिन पी लिया गया क्रोध तो आप अकेले बेचैन हैं, ऐसा नहीं है। मनुष्य ही बेचैन है। और आगे-पीछे प्रकट होगा। पी लिया गया क्रोध पीया नहीं जा सकता, इस बेचैनी का, पूछा है, क्या उपयोग करें? इस बेचैनी का उपयोग | वह जहर उबलता ही रहेगा और कहीं न कहीं निकलेगा। और तब करें, वह जो भविष्य है उसको पाने के लिए; वह जो आप हो सकते | खतरे ज्यादा हैं। क्योंकि वह उन लोगों पर निकलेगा, जिनसे उसका हैं, वह होने के लिए। इस बेचैनी में मत उलझे रहें। और इस बेचैनी कोई संबंध भी नहीं था। और कहीं न कहीं उसकी छाया पड़ेगी और को ढोते मत रहें। इसका उपयोग कर लें।
जीवन को नुकसान पहुंचेगा। __ हम भी बेचैनी का उपयोग करते हैं, लेकिन हम उपयोग दो ढंग माइकलएंजलो ने लिखा है कि जब भी मुझे क्रोध पकड़ लेता है, से करते हैं। दोनों ढंग से खतरा होता है। या तो हम बेचैनी का | तब मैं छैनी उठाकर अपनी मूर्ति को बनाने में लग जाता हूं; पत्थर उपयोग करते हैं बेचैनी को निकाल लेने में। क्रोध में, हिंसा में, घृणा तोड़ने लगता हूं। और लिखा है माइकलएंजलो ने कि मैं हैरान हो में, ईर्ष्या में, प्रतिस्पर्धा में, संघर्ष में हम बेचैनी को निकालने का | | जाता हूं कि पांच-सात मिनट पत्थर तोड़ने के बाद मैं पाता हूं कि मैं उपयोग करते हैं। उससे बेचैनी समाप्त नहीं होगी, क्योंकि बेचैनी | | हलका हो गया; क्रोध तिरोहित हो गया। किसी आदमी को तोड़ने का वह कारण नहीं है।
की जरूरत नहीं रही। जब तक आपके भीतर की मूर्ति नहीं निखरती, और जब तक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब आपको क्रोध आए, तो आप आपके भीतर का स्वभाव प्रकट नहीं होता, और जब तक आप में छोटे-से प्रयोग करें। और आप हैरान होंगे कि क्रोध नई यात्रा पर
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निकल सकता है। माइकलएंजलो मूर्ति बना लेता है क्रोध से। | कि क्रोध नहीं करना चाहिए। यह भी न कहूंगा कि मुझे क्रोध क्यों सृजनात्मक हो जाता है क्रोध।
| होता है। मैं सिर्फ देखूगा। जैसे आकाश में एक बादल जा रहा हो, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आपको क्रोध आए, तो आप इतना ही | ऐसे भीतर क्रोध के बादल को देखूगा। जैसे रास्ते से कोई गुजर रहा करें कि जोर से मुट्ठी बांधे पांच बार और खोलें। और आपका क्रोध | हो, ऐसे भीतर से गुजरते क्रोध को देखूगा। सिर्फ देखूगा, कुछ तिरोहित हो जाएगा। आप कहेंगे, इतना आसान नहीं है। लेकिन करूंगा नहीं। करके देखें। जितनी जोर से मुट्ठी बांध सकते हों, पूरी ताकत लगा ___ और आप चकित हो जाएंगे। कुछ ही क्षणों में, देखते ही देखते, दें, और खोलें, फिर बांधे और खोलें-पांच बार। और फिर | क्रोध शांत हो गया है। और वह जो क्रोध की शक्ति थी, वह लौटकर अपने भीतर देखें कि क्रोध कहां है! आप हैरान होंगे कि | आपको भीतर उपलब्ध हो गई है। क्रोध हलका हो गया; या खो भी गया, या समाप्त भी हो गया। ज्ञानी जीवन की समस्त बेचैनी को, निरीक्षण और साक्षी के द्वारा
जापान में वे सिखाते हैं बच्चों को कि जब भी क्रोध आए, तब तुम अंतर्यात्रा के उपयोग में ले आता है। वह फ्यूल बन जाती है, वह गहरी श्वास लो और छोड़ो। आप एक पंद्रह-बीस श्वास गहरी लेंगे ईंधन बन जाती है। और इसलिए कई बार ऐसा हुआ है कि .
और छोड़ेंगे, और आप पाएंगे कि क्रोध विलीन हो गया। न तो उसे महाक्रोधी क्षणभर में आध्यात्मिक हो गए हैं। दबाना पड़ा, और न किसी पर प्रकट करना पड़ा। और बीस गहरी हमने वाल्मीकि की कथा सुनी है। ऐसी बहुत कथाएं हैं। और श्वास स्वास्थ्य के लिए लाभपूर्ण है। वह सृजनात्मक हो गया। हमें हैरानी होती है कि इतने क्रोधी, हिंसक, हत्यारे तरह के व्यक्ति
जो बंधे हुए रास्ते हैं, वे ही आखिरी रास्ते नहीं हैं। अध्यात्म, क्षणभर में कैसे आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश कर गए? राज, उसका जीवन की समस्त बेचैनी का नया उपयोग करना सिखा है। जैसे जब | रहस्य यही है। आपको क्रोध आए, तो आप आंख बंद कर लें और क्रोध पर ध्यान | असल में अगर आपके पास क्रोध की शक्ति भी नहीं है, तो करें। मुट्ठी बांधकर भी शक्ति व्यर्थ होगी। श्वास लेंगे, तो | आपके पास ईंधन भी नहीं है, आप उपयोग क्या करिएगा? इसलिए थोड़ा-सा उपयोग होगा स्वास्थ्य के लिए। मूर्ति बनाएंगे, तो साधारण क्रोधी आध्यात्मिक नहीं हो पाता। खयाल करना। थोड़ा-सा सृजनात्मक काम होगा।
साधारण कामवासना से भरा व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं हो पाता। लेकिन क्रोध जब आए. तो आंख बंद करके क्रोध पर ध्यान करें। साधारण दष्टता से भरा व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं हो पाता। उसके कुछ भी न करें, सिर्फ क्रोध को देखें कि क्रोध क्या है। क्रोध का | पास जो कुछ भी है, उसमें वह कुनकुना ही हो सकता है, उबल नहीं दर्शन करें। साक्षी बनकर बैठ जाएं। जैसे कोई और क्रोध में है और सकता। उसके पास शक्ति क्षीण है।
आप देख रहे हैं। और अपनी क्रोध से भरी प्रतिमा को पूरा का पूरा इसलिए आप घबड़ाना मत। अगर बेचैनी ज्यादा है, सौभाग्य है। निरीक्षण करें।
| अगर कामवासना प्रगाढ़ है, सौभाग्य है। अगर क्रोध भयंकर है, थोड़े ही निरीक्षण में आप पाएंगे, क्रोध समाप्त हो गया, क्रोध | बड़ी परमात्मा की कृपा है। इसका अर्थ है कि आपके पास ईंधन है। विलीन हो गया। जैसा मुट्ठी बांधने से विलीन होता है, पत्थर तोड़ने अब यह दूसरी बात है कि ईंधन से आप यात्रा करेंगे कि घर जला से विलीन होता है, वैसा निरीक्षण से भी विलीन होता है। | लेंगे। इसमें जल मरेंगे या इस ऊर्जा का उपयोग करके यात्रा पर
लेकिन निरीक्षण से जब विलीन होता है क्रोध, तो क्रोध में जो| | निकल जाएंगे, यह आपके हाथ में है। शक्ति छिपी थी, वह आपकी अंतर-आत्मा का हिस्सा हो जाती है। | परमात्मा ने जो भी दिया है, वह सभी उपयोगी है। चाहे कितना जब मुट्ठी से आप क्रोध को विलीन करते हैं, तो शक्ति बाहर चली | ही विकृत दिखाई पड़ता हो, और चाहे कितना ही खतरनाक और जाती है। जब आप पत्थर तोड़ते हैं, तो भी बाहर चली जाती है। | पापपूर्ण मालूम पड़ता हो, जो भी मनुष्य को मिला है, उस सबकी लेकिन जब आप सिर्फ शुद्ध निरीक्षण करते हैं, सिर्फ एक विटनेस | | उपयोगिता है। और अगर उपयोग आप न कर पाएं, तो आपके होकर भीतर रह जाते हैं कि क्रोध उठा है, मैं इसे देखूगा। और कुछ | अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है। भी न करूंगा; इस क्रोध के पक्ष में, विपक्ष में कुछ भी न करूंगा, कुछ लोग हैं, जिनको अगर खाद दे दिया जाए, तो घर में ढेर सिर्फ देलूंगा। यह भी न कहूंगा कि क्रोध बुरा है। यह भी न कहूंगा | लगाकर गंदगी भर लेंगे। उनका घर दुर्गंध से भर जाएगा। और कुछ
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लोग हैं, जो खाद को बगीचे में डाल लेंगे। और उसी खाद से फूल | बैठे हैं। जो आदमी खाद का दुश्मन बना बैठा है, वह खाद का निकल आएंगे, और उनका घर सुगंध से भर जाएगा। जो खाद को उपयोग न कर पाएगा। हम पहले से ही माने बैठे हैं, क्रोध बुरा है, ही सम्हालकर बैठ जाएंगे, वे भगवान को गाली देंगे कि हम पर यह | | घृणा बुरी है, सब बुरा है। और उस सबसे हम भरे हैं। बुरे की जो किस भांति का अभिशाप है कि यह खाद हमारे ऊपर डाल दिया। | धारणा है, वह देखने नहीं देती। बुरे की जो धारणा है, वह निष्पक्ष है! जो जानते हैं, वे खाद से फूल निर्मित कर लेते हैं। | विचार नहीं करने देती। बुरे की जो धारणा है, वह समझने के पहले
फूलों की जो सुगंध है, वह खाद की ही दुर्गंध है। फूलों में जो ही भागने और लड़ने में लगा देती है। रंग है, वह खाद का ही है; वह सब खाद ही रूपांतरित हुआ है। | तो एक तो धारणाएं छोड़ें। निर्धारणापूर्वक देखना शुरू करें।
मनुष्य के पास क्रोध, घृणा, हिंसा खाद है; अध्यात्म का फूल | तथ्य उन्हीं के सामने प्रकट होते हैं, जो बिना धारणा के उन्हें देखते खिल सकता है। अगर आप थोड़े-से साक्षी को जगाने की कोशिश | | हैं। जो धारणा से देखते हैं, वे तो अपनी ही धारणा को परिपुष्ट कर करें। साक्षी-भाव माली बन जाता है।
लेते हैं। तो बेचैनी से घबड़ाएं मत, अशांति से घबड़ाएं मत। भीतर | __दूसरी बात, भागने की आदत छोड़ें। पूरी पृथ्वी पर हमें पलायन पागलपन उबलता हो, भयभीत न हों। उसका उपयोग करें। उसके | सिखाया गया है, भागो, बचो। भागने से कोई भी कभी जीत को साक्षी होना शुरू हो जाएं। और जब भी कोई चीज भीतर पकड़े, तो | उपलब्ध नहीं होता। तो क्रोध आ गया है, तो आप रेडियो खोल लेते उसको अवसर समझें, कि वह ध्यान का एक मौका है, उस पर | | हैं। मन में कामवासना उठी है, तो रामायण पढ़ने लगते हैं। घृणा ध्यान करें।
मन में उठ गई है, हिंसा का भाव आता है, तो मंदिर चले जाते हैं। लेकिन हम उलदा करते हैं। जब क्रोध आ जाए, तो हम राम-राम | । भागे मत। भागने से कुछ भी न होगा। वह जो छिपा है भीतर, जपते हैं। हम सोचते हैं कि हम ध्यान कर रहे हैं। राम-राम जपना | वह मजबूत होता रहेगा। न तो उसे मंदिर मिटा सकता है, न तो सिर्फ डायवर्शन है। वह तो क्रोध उबल रहा है, आप अपने मन | | रामायण मिटा सकती है। कोई भी उसे मिटा नहीं सकता। सिवाय को कहीं और लगा रहे हैं, ताकि इस क्रोध में न उलझना पड़े। यह | | आपके साक्षात्कार के कोई उसे मिटा नहीं सकता। आपको उसे तो इस तरह राम-राम जपकर आप सिर्फ अपने को थोड़ी देर के | | आंख गड़ाकर देखना ही पड़ेगा। अपने भीतर जो है, उसका नग्न लिए बचा रहे हैं, मस्तिष्क को हटा रहे हैं।
दर्शन जरूरी है। लेकिन क्रोध वहां पड़ा है, वह बदलेगा नहीं। आपके हटने से। लेकिन भागने वाला दर्शन नहीं कर पाता। और भागने वाला नहीं बदलेगा; आपके जम जाने से और देखने से बदलेगा। आप | | धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है। और जितना भागता है, उतने ही शत्रु पीठ कर लेंगे, तो क्रोध और घाव बना देगा भीतर, और जड़ें जमा | | उसका पीछा करते हैं। क्योंकि वे शत्रु बाहर नहीं हैं। वे आपके साथ लेगा। आप अपनी दोनों आंखें क्रोध पर गड़ा दें। और यह क्षण है | हैं, आपमें ही हैं। आपके हिस्से हैं। कि आप होशपूर्वक क्रोध को देख लें।
दो बातें, एक तो पक्ष छोड़ें। पक्ष के कारण बड़ी कठिनाई है। कामवासना मन को पकड़े, तो भागें मत। घबड़ाएं मत। राम-राम | । मैंने सुना है कि आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में एक फुटबाल मैच हो मत जपें। कामवासना को सीधा देखें। सीधा साक्षात्कार जरूरी है | रहा था। और दो दल थे। प्रोटेस्टेंट ईसाई, उनका एक दल था; और वासनाओं का। लेकिन आदमी को भागना सिखाया गया है। उसको | | कैथोलिक ईसाई, उनका एक दल था। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए कहा गया है, जहां भी कुछ बुरा दिखाई पड़े, भाग खड़े होओ। । | थे, प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक दोनों ही, क्योंकि दोनों के दल थे।
लेकिन भागोगे कहां? बुरा तुम्हारे भीतर है, वह तुम्हारे साथ और मामला सिर्फ फुटबाल का नहीं था, धर्म का हो गया था। जो चला जाएगा। अपने से भागने का कोई भी रास्ता नहीं है। अगर जीतेगा...फुटबाल का ही सवाल नहीं है कि फुटबाल में जीत गया। बुराई कहीं बाहर होती, तो हम भाग भी जाते। वह हमारे भीतर खड़ी | अगर कैथोलिक पार्टी जीत गई, तो कैथोलिक धर्म जीत गया। और है, उसको बदलना पड़ेगा। इस खाद का उपयोग करना पड़ेगा। | अगर प्रोटेस्टेंट पार्टी जीत गई, तो प्रोटेस्टेंट धर्म जीत गया। और इसका उपयोग करना बहुत कठिन नहीं है।
तो भारी कशमकश थी, और भारी उत्तेजना थी, और दोनों दलों कठिनाई सिर्फ दो हैं। एक, कि हम पहले से ही दुर्भाव बनाए के लोग दोनों तरफ मौजूद थे अपने-अपने दल को प्रोत्साहन देने
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के लिए। और तब कैथोलिक दल ने बहुत अच्छा खेल लिया। अड़चन दोहरी हो गई है। क्रोध का दुख तो भोगना ही पड़ता है, विजय के करीब आते मालूम पड़े। एक आदमी उछल-उछलकर | फिर क्रोध किया, इसका भी दुख भोगना पड़ता है। यह दोहरा दुख उनको प्रोत्साहन दे रहा था। वह इतनी खुशी में आ गया था कि | | हो गया। क्रोध ही काफी था आदमी को परेशान करने के लिए। अब अपनी टोपी भी उछाल रहा था। उसके पास के लोगों ने समझा कि | | आप एक और दुश्मन खड़ा कर लिए कि क्रोध बुरा है। तो पहले यह कैथोलिक मालूम पड़ता है।
क्रोध करें, उसका दुख भोगें; और फिर क्रोध किया, इसका दुख फिर हवा बदली और प्रोटेस्टेंट दल तेजी से जीतता हुआ मालूम | | भोगें। कामवासना बुरी है, पहले कामवासना का दुख भोगें। और पड़ने लगा। लेकिन वह जो आदमी टोपी उछाल रहा था, वह अब | फिर कामवासना में उतरे, यह पाप किया, इसका दुख भोगें। और भी टोपी उछालता रहा और नाचता रहा।
इस तरह जीवन और जटिल हो गया है। तब आस-पास के लोग जरा चिंतित हुए। तो पड़ोसी ने पूछा कि ___ कामवासना क्या है? क्रोध क्या है? मन की सारी ऊर्जाएं क्या माफ करें, आप कैथोलिक हैं या प्रोटेस्टेंट? आप किसके पक्ष में | हैं? इनका निष्पक्ष दर्शन सीखें। और आप बड़े आनंदित होंगे। और नाच रहे हैं? किसकी खुशी में नाच रहे हैं? क्योंकि पहले जब उस आनंद से ही आपके जीवन में बेचैनी बदलनी शुरू हो जाएगी कैथोलिक जीत रहे थे, तब भी आप टोपी उछाल रहे थे। तब भी | और चैन निर्मित होने लगेगा। बड़े आप आनंदित हो रहे थे। और अब जब कि कैथोलिक हार रहे। दूसरी बात, भागना बंद कर दें। हैं और प्रोटेस्टेंट जीत रहे हैं, तब भी आप आनंदित हो रहे हैं। तो वैज्ञानिक कहते हैं कि दो ही उपाय हैं, या तो भागो या लड़ो। आप किसके पक्ष में आनंदित हो रहे हैं?
| जिंदगी में यही है। अगर एक शेर आप पर हमला कर दे, तो दो ही उस आदमी ने कहा, मैं किसी के पक्ष में आनंदित नहीं हो रहा | | उपाय हैं, या तो भागो या लड़ो। अगर लड़ सकते हो, तो ठीक। हं. मैं तो खेल का आनंद ले रहा है। जिस आदमी ने पछा था, उसने नहीं तो भाग खड़े होओ। दो ही उपाय हैं। अपनी पत्नी से कहा कि यह आदमी नास्तिक मालूम होता है। बाहर की जिंदगी में अगर संघर्ष की स्थिति आ जाए, तो दो ही
खेल का आनंद ले रहा हूं, उस आदमी ने कहा। बड़ी कीमत की | | विकल्प हैं, लड़ो या भागो। लेकिन भीतर की जिंदगी में एक तीसरा बात कही। उसने कहा, मुझे इससे मतलब नहीं कि कौन जीत रहा | विकल्प भी है, जागो। वह तीसरा विकल्प ही धर्म है। है। लेकिन खेल इतना आनंदपूर्ण हो रहा है कि मैं उसका आनंद ले बाहर की जिंदगी में तो कोई उपाय नहीं है। दो ही मार्ग हैं। अगर रहा हूं। मैं किसी पक्ष में नहीं हूं। तो उस आदमी को लगा कि यह | शेर हमला कर दे, तो क्या करिएगा? या तो लड़िए या भागिए। दो नास्तिक होना चाहिए, क्योंकि जो कैथोलिक भी नहीं है और | में से कुछ चुनना ही पड़ेगा। प्रोटेस्टेंट भी नहीं है...।
लेकिन भीतर दो विकल्प की जगह तीन विकल्प हैं। या तो लड़ो, आप मन का थोड़ा आनंद लेना सीखें। लेकिन आप पहले से ही | या भागो, या जागो। न लड़ो, और न भागो, सिर्फ खड़े होकर जाग या तो कैथोलिक हैं या प्रोटेस्टेंट हैं। पहले से ही माने बैठे हैं और | जाओ। जो भी हो रहा है, उसे देख लो। जागते ही ऊर्जा रूपांतरित मन की शक्तियों का आनंद नहीं ले पाते हैं। पहले से ही मान लिया | होती है। और बेचैनी आनंद की यात्रा पर निकल जाती है। वह नाव है कि क्रोध बुरा है, कामवासना पाप है, लोभ बुरा है। यह बुरा है, | बन जाती है। वह बुरा है; यह अच्छा है। सब माने बैठे हैं। पता आपको कुछ भी | नहीं है। क्योंकि अगर आपको ही पता हो कि क्या बुरा है, तो बुरा फौरन बंद हो जाए। अगर आपको ही पता हो कि क्या भला है, तो | एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मन-वाणी की सरलता भला आपकी जिंदगी में आ जाए। आपको कुछ पता नहीं है। सुना | अर्थात भीतर-बाहर एक जैसा होना, धार्मिकता व है; लोगों ने कहा है; हजारों-हजारों साल की हवा और संस्कार है। ज्ञान का लक्षण आपने कहा। यदि व्यक्ति जैसा भीतर तो बस, आप उनको मानकर बैठे हैं। और उससे बड़ी अड़चन में है, वैसा ही व्यवहार बाहर भी करने लगे, तो वर्तमान पड़े हुए हैं।
समाज व नीति व्यवस्था में बड़ी अराजकता का आना क्रोध बुरा है, यह मालूम है, और क्रोध होता है। इसलिए अवश्यंभावी दिखता है। इस अराजकता से बचने का
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क्या कोई मध्य मार्ग या किसी नैतिक अनुशासन को | अच्छी बातें हमारे वस्त्र हो गई हैं। उन वस्त्रों से हम किसको धोखा आप जरूरी नहीं मानते?
दे रहे हैं? कोई उससे धोखे में नहीं आ रहा है, क्योंकि सभी भी वही धोखा कर रहे हैं।
दूसरी बात यह खयाल में ले लेनी जरूरी है कि समाज में 1 हली तो बात यह समझ लेनी चाहिए कि इसके पहले | अराजकता फैल सकती है, उसका कारण यह नहीं है कि सत्य से 4 कि आप समाज के संबंध में सोचें, स्वयं के संबंध में अराजकता फैलती है। उसका कारण यह है कि असत्य का अगर
सोचें। तत्क्षण लोग समाज के संबंध में सोचना शुरू समाज हो, तो सत्य से अराजकता फैलती है। अगर सभी लोग झूठ कर देते हैं कि समाज में क्या होगा। पहली विचारणा तो यह है कि | बोलते हों, तो वहां कोई आदमी सच बोले, तो उससे अराजकता आप में क्या हो रहा है। दसरी विचारणा समाज की हो सकती है। | फैलेगी। जहां सभी लोग बेईमान हों, वहां कोई आदमी ईमानदार हो
तो पहले तो यह ठीक से समझ लें कि जब तक जो आपके भीतर | जाए, तो उससे अराजकता फैलेगी। है, आप बाहर प्रकट नहीं करते, तो आप झूठे होते जा रहे हैं, आप __ आपने वह कहानी सुनी होगी कि एक सम्राट नग्न रास्ते पर झूठे हो गए हैं। एक कागज की प्रतिमा हो गए हैं। असली आदमी | निकला है, लेकिन एक आदमी ने उसे भरोसा दिलवा दिया है कि भीतर दबा है। और झूठा आदमी ऊपर आपकी छाती पर चढ़ा है। वह देवताओं के वस्त्र पहने हुए है। एक धोखेबाज आदमी ने उससे यह झूठा आपके लिए बोझ हो गया है। इस झूठ की पर्त बढ़ती चली लाखों रुपए ले लिए, और उससे कहा है कि मैं तुझे देवताओं के जाती है। और जितनी इस झूठ की पर्त बढ़ती है, जिंदगी उतनी बुरी, | वस्त्र ला दूंगा। और एक दिन वह देवताओं के वस्त्र लेकर आ गया बेहूदी, निराश, उबाने वाली हो जाती है। क्योंकि केवल स्वभाव के | है। और उसने सम्राट को कहा कि आप अपने वस्त्र उतारते जाएं, साथ ही रस का संबंध हो सकता है। झूठ के साथ जीवन में कोई | मैं देवताओं के वस्त्र निकालता हूं। रस, कोई अर्थ नहीं जुड़ पाता।
सम्राट ने अपनी टोपी निकाली। उसने पेटी में से खाली हाथ तो पहले तो यह देखें कि आप भीतर जो है, उसे बाहर न लाकर | बाहर निकाला। सम्राट ने देखा कि टोपी तो हाथ में नहीं है। उसने आप झठे हो गए हैं। और आप ही झूठे नहीं हो गए हैं, सभी झूठे कहा, तुम्हारा हाथ खाली है! उस आदमी ने सम्राट के कान में कहा हो गए हैं।
कि मैं जब चलने लगा, तो देवताओं ने मुझ से कहा था, ये वस्त्र इसलिए हमने एक समाज निर्मित किया है, जो झूठ का समाज केवल उसी को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो। है। जब व्यक्ति झूठा होगा, तो समाज भी झूठा होगा। और जब उस सम्राट को तत्क्षण टोपी दिखाई पड़ने लगी। क्योंकि अब यह व्यक्ति का आधार ही झूठ होगा, तो समाज की सारी की सारी झंझट की बात हो गई। उसने कहा, अहा, ऐसी सुंदर टोपी तो मैंने व्यवस्था झूठ हो जाएगी। फिर हम लाख उपाय करें कि समाज कभी देखी नहीं! और उसने टोपी सिर पर रख ली, जो थी ही नहीं। अच्छा हो जाए, वह अच्छा नहीं हो सकता। क्योंकि ईंट गलत है, लेकिन टोपी का ही मामला नहीं था। फिर उसके बाकी वस्त्र भी तो मकान अच्छा नहीं हो सकता। इकाई गलत है, तो जोड़ अच्छा | निकलते चले गए। दरबारी घबड़ाए; क्योंकि वह सम्राट नग्न हुआ नहीं हो सकता।
जा रहा था। लेकिन जब आखिरी वस्त्र भी निकल गया, तब उस तो पहले तो व्यक्ति को सहज, स्वाभाविक कर लेना जरूरी है। आदमी ने जोर से कहा कि दरबारियो, अब तुम्हें मैं एक और खबर तो पहली तो बात यह खयाल रखें कि अगर समाज भी आप अच्छा बताता हूं। जब मैं चलने लगा, तो देवताओं ने कहा था कि ये वस्त्र चाहते हैं, तो उसके लिए सच्चा व्यक्ति जरूरी है। सच्चे व्यक्ति के | उसी को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही बाप से पैदा हुआ हो। बिना अच्छा समाज नहीं होगा। और अच्छाई अगर झूठ है, तो सम्राट ने कहा कि कितने सुंदर वस्त्र हैं! दरबारी आगे बढ़ आए समाज ऊपर से कितना ही अच्छा दिखाई पड़े, भीतर सड़ता रहेगा। | एक-दूसरे से वस्त्रों की तारीफ करने में। क्योंकि अगर कोई पीछे सड़ रहा है। सब अच्छी-अच्छी बातें ऊपर हैं। और सब बुरी-बुरी | रह जाए, तो कहीं शक न हो जाए कि यह कहीं किसी और से तो बातें नीचे बह रही हैं।
| पैदा नहीं हुआ। एक-दूसरे से बढ़-बढ़कर तारीफ करने लगे। ऐसा लगता है कि बुरी बातें तो हमारी आत्मा हो गई हैं और जो थोड़े डर भी रहे थे तारीफ करने में, क्योंकि राजा बिलकुल
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गीता दर्शन भाग-6
नग्न था, उन्होंने भी देखा कि जब इतने लोग तारीफ कर रहे हैं, तो गलती अपनी ही होगी। जब इतने लोग कह रहे हैं कि ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं, अदभुत, अलौकिक ! तो शक अपने पर ही हुआ आदमियों को, कि इसका मतलब यही है कि मेरी मां मुझे धोखा दे गई! मैं अपने ही बाप का बेटा नहीं मालूम पड़ता। अब इसको बताने से क्या सार है ! वह भी आदमी आगे बढ़कर तारीफ करने लगा।
यह हालत सभी की थी। लेकिन उस बेईमान आदमी ने कहा कि देवताओं ने कहा है कि पहली दफा पृथ्वी पर ये वस्त्र जाते हैं, तो इनका जुलूस निकलना जरूरी है। रथ तैयार करवाएं, और राजधानी में जुलूस निकलेगा।
राजधानी में हवा की तरह खबर फैल गई कि सम्राट को देवता के वस्त्र मिले हैं। लेकिन एक शर्त है। वे उसी को दिखाई पड़ते हैं, जो अपने ही बाप से पैदा हो।
लाखों लोग रास्तों के किनारे खड़े थे। सभी को वस्त्र दिखाई पड़ते थे। सिर्फ एक छोटा बच्चा, जो अपने बाप के कंधे पर बैठा हुआ था, उसने अपने बाप के कान में कहा, लेकिन पिताजी, राजा नंगा है ! उसने कहा, चुप रह नासमझ अभी तेरी उम्र नहीं है। जब तू बड़ा होगा, तो अनुभव से तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ने लगेंगे।
वह लड़का अराजकता फैला रहा था। सारे नगर को, सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे थे। अगर सारा समाज झूठ को पकड़े हो, तो सत्य अराजकता लाता है। लेकिन ऐसी अराजकता स्वागत के योग्य है।
संन्यासी का अर्थ ही यही है कि वह समाज के झूठ को मानने राजी नहीं है। संन्यासी अराजक है, असामाजिक है। वह यह कह रहा है कि तुम्हारे झूठ मानने को मैं राजी नहीं हूं। मैं उसी ढंग से जीऊंगा, जिस ढंग से मुझे ठीक लगता है। चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी कष्ट झेलना पड़े। वह कष्ट तपश्चर्या है।
आप यह मत सोचें कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होगा। अगर ऐसा होता कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होता, तो दुनिया में इतना झूठ होता ही नहीं । सत्य की यात्रा पर कष्ट है। इसीलिए तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। झूठ सुविधापूर्ण है। सत्य असुविधापूर्ण है। झूठ में कनवीनिएंस है। क्योंकि चारों तरफ झूठ है।
वह बाप अपने बेटे से क्या कह रहा था? वह यही कह रहा था कि उपद्रव खड़ा मत कर। यही सुविधापूर्ण है। जब सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे हों, तो अपने को भी वस्त्र देखना ही सुविधापूर्ण है। झंझट खड़ी करनी उचित नहीं है।
यह जो कृष्ण का सूत्र है कि मन-वाणी की सरलता, सहजता,
यह आपको खतरे में तो ले ही जाएगी। खतरे में इसलिए ले जाएगी, | क्योंकि चारों तरफ जो लोग हैं, वे मन-वाणी से सरल नहीं हैं, जटिल हैं, छद्म, झूठ, चालाकी से भरे हैं। वे वही नहीं कहते हैं, | जो कहना चाहते हैं। वे वही नहीं प्रकट करते हैं, जो प्रकट करना चाहते हैं । और ये इतनी परतें हो गई हैं झूठ की कि उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कहना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या करना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।
तो निश्चित ही, जब कोई व्यक्ति यह निर्णय और संकल्प करेगा कि मैं सरल हो जाऊंगा, तो अड़चनें आएंगी, कठिनाइयां खड़ी होंगी। उन कठिनाइयों के डर से ही तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। साधक का अर्थ है कि वह इन कठिनाइयों को झेलने को राजी होगा।
इसका यह अर्थ नहीं है कि आप जान-बूझकर समाज में अराजकता फैलाएं। इसका यह भी अर्थ नहीं आप जान-बूझ कर लोगों को परेशानी में डालें । इसका कुल इतना अर्थ है कि जब भी आपके सामने यह सवाल उठे कि मैं अपनी आत्मा को बेचूं और सुविधा को खरीदूं या सुविधा को तोड़ने दूं और आत्मा को बचाऊं, तो आप आत्मा को बचाना और सुविधा को जाने देना ।
यह कोई जरूरी नहीं है कि आप चौबीस घंटे उपद्रव खड़ा करते रहें। लेकिन इतना खयाल रखना जरूरी है कि आत्मा न बेची जाए किसी भी कीमत पर। सुविधा के मूल्य पर स्वयं को न बेचा जाए, इतना ही खयाल रहे, तो आदमी धीरे-धीरे सरलता को उपलब्ध हो जाता है। और कठिनाई शुरू में ही होगी। एक बार आपका सत्य के साथ तालमेल बैठ जाएगा, तो कठिनाई नहीं होगी।
सच तो यह है, तब आपको पता चलेगा कि झूठ के साथ मैंने कितनी कठिनाइयां झेलीं और व्यर्थ झेलीं, क्योंकि उनसे मिलने वाला कुछ भी नहीं है।
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सत्य के साथ झेली गई कठिनाई का तो परिणाम है, फल है। झूठ के साथ झेली गई कठिनाई का कोई परिणाम नहीं है, कोई फल नहीं है। एक झूठ बोलो, तो दस झूठ बोलने पड़ते हैं। क्योंकि एक झूठ को बचाना हो, तो दस झूठ की दीवाल खड़ी करनी जरूरी है। और फिर दस झूठ के लिए हजार बोलने पड़ते हैं। और इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होता। और एक झूठ से हम दूसरे पर पोस्टपोन करते जाते हैं, कहीं पहुंचते नहीं ।
सत्य के लिए कोई इंतजाम नहीं करना होता । सत्य के लिए कोई दूसरे सत्य का सहारा नहीं लेना पड़ता।
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* समत्व और एकीभाव
वाइल्ड ने लिखा है कि झूठ बोलना केवल उन्हीं के लिए संभव अंतिम प्रश्न। एक और मित्र ने पूछा है कि अनेक है, जिनकी स्मृति बहुत अच्छी हो। जिनकी स्मृति कमजोर है, उन्हें सदगुरुओं के व्यवहार व जीने के ढंग में श्रेष्ठता का भूलकर झूठ नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि झूठ में बहुत हिसाब | अभिमान और दंभाचरण दिखाई पड़ता है। तथाकथित रखना पड़ेगा। एक झूठ बोल दिया, तो फिर उसका हिसाब रखना ज्ञानी व वास्तविक धार्मिक व्यक्ति को बाहर से कैसे पड़ता है सदा। फिर उसी झूठ के हिसाब से सब बोलना पड़ता है। पहचाना जाए? क्योंकि भीतर से पहचानना अत्यंत
तो वाइल्ड ने लिखा है कि मेरी चूंकि स्मृति कमजोर है, इसलिए कठिन है! मैं सत्य का ही भरोसा करता हूं। क्योंकि उसे बोलने में याद रखने की कोई जरूरत नहीं है।
झूठ के लिए स्मृति तो मजबूत चाहिए। इसीलिए अक्सर ऐसा गह थोड़ा समझने जैसा है कि जब भी आपको समझने हो जाता है कि जो समाज अशिक्षित हैं, वहां झूठ कम प्रचलित होता प के लिए कुछ कहा जाता है, तत्काल आप दूसरों के है। क्योंकि झूठ के लिए शिक्षित होना जरूरी है। जो समाज असभ्य संबंध में सोचना शुरू कर देते हैं। कृष्ण ने यह नहीं हैं, वे कम बेईमान होते हैं। क्योंकि बेईमानी के लिए जितनी कहा है कि ज्ञानी का लक्षण यह है कि वह पता लगाए कुशलता चाहिए, वह उनके पास नहीं होती। जैसे ही लोगों को | दंभाचरण में है और कौन नहीं है। कृष्ण ने यह नहीं कहा है कि ज्ञानी शिक्षित करो, बेईमानी बढ़ने लगती है उसी अनुपात में। लोगों को | इसका पता लगाने निकलता है कि कौन गुरु दंभी है और कौन गुरु शिक्षा दो, उसी के साथ झूठ बढ़ने लगता है, क्योंकि अब वे | दंभी नहीं है। कृष्ण ने कहा है कि तुम दंभाचरण में हो या नहीं, कुशलता से झूठ बोल सकते हैं। झूठ के लिए कला चाहिए। सत्य | इसकी फिक्र करना। के लिए बिना कला के भी सत्य के साथ जीया जा सकता है। झूठ लेकिन हम? हमें अपनी तो फिक्र ही नहीं है। हम जैसे निस्वार्थ के लिए आयोजन चाहिए।
| आदमी खोजना बहुत कठिन है! हमें अपनी बिलकुल फिक्र नहीं हम जिस समाज में जी रहे हैं, वह सब आयोजित है। इस | है। हमें सारी दुनिया की फिक्र है। कौन सदगुरु दंभाचरणी है, इसका आयोजन के बीच से छूटना हो, तो कठिनाई शुरू में होगी, लेकिन | कैसे पता लगाएं! मुझे एक कहानी याद आ गई। कठिनाई अंत में नहीं होगी।
मैंने सुना, एक गांव में शराब के खिलाफ बोलने के लिए एक इस बात को ऐसा समझें कि असत्य के साथ पहले सुविधा होती | महात्मा का आगमन हुआ। उनका देश शराब के विपरीत सप्ताह है, बाद में असुविधा होती है। सत्य के साथ पहले असुविधा होती | मना रहा था। तो महात्मा ने बहुत समझाया, शराब के खिलाफ है, बाद में सुविधा होती है। जिनको हम संसार के सुख कहते हैं, बहुत-सी बातें समझाई। और फिर जोर देने के लिए उसने कहा कि वे पहले सुख मालूम पड़ते हैं, पीछे दुख मालूम पड़ते हैं। और | तुम्हें पता है कि गांव में सब से बड़ी हवेली किसकी है? शराब जिनको हम अध्यात्म की तपश्चर्या कहते हैं, वह पहले कष्ट मालूम बेचने वाले की। और पैसा उसका कौन चुकाता है ? तुम। और तुम्हें पड़ती है और पीछे आनंद हो जाता है।
| पता है कि गांव में किसकी स्त्री सबसे ज्यादा कीमती गहने पहनती इसको सूत्र की तरह याद कर लें। पहली ही घटना को सब कुछ | है? शराब बेचने वाले की। और उसका मूल्य तुम अपने खून से मत समझना, अंतिम घटना सब कुछ है।
चुकाते हो। तो पहले अगर असुविधा भी हो, तो उसकी फिक्र न करके यही | जब सभा पूरी हो गई, तो एक जोड़ा, पति-पत्नी, उसके पास ध्यान रखना कि बाद में क्या होगा, अंतिम फल क्या होगा, अंतिम आया और महात्मा के चरणों में सिर रखकर उन्होंने कहा कि परिणाम क्या होगा। नहीं तो लोग जहर की गोली भी शक्कर में | आपकी बड़ी कृपा है। आपने जो उपदेश दिया, उससे हमारा जीवन लिपटी हो तो खा लेते हैं। क्योंकि पहले स्वाद मीठा मालूम पड़ता बदल गया। तो महात्मा ने कहा कि बड़ी खुशी की बात है। क्या है। पहले स्वाद से सावधान होना जरूरी है। अंतिम स्वाद को ध्यान
तमने शराब न पीने का तय कर लिया। उन्होंने कहा कि नहीं. हमने में रखना जरूरी है।
एक शराब की दुकान खोलने का तय कर लिया है। आपने ऐसी हृदय को चोट पहुंचाने वाली बातें कहीं कि अब हम सोचते हैं, सब
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गीता दर्शन भाग-6
धंधा छोड़कर शराब ही बेचने का धंधा कर लें।
सुना है मैंने, एक गांव में एक बहुत बड़ा कंजूस धनपति था। उससे कभी कोई दान मांगने में सफल नहीं हो पाया था । और गांव में बड़ी तकलीफ थी। कोई प्लेग फैल गई थी। कोई बीमारी आ गई | थी। तो मजबूरी की वजह से दान मांगने लोग उसके घर भी गए। उन्होंने दान की प्रशंसा में बहुत बातें कहीं। और उन्होंने कहा कि दान से बड़ा धर्म जगत में दूसरा नहीं है। और यह समय ऐसी असुविधा का है कि आप जरूर कुछ दान करें।
उस कंजूस ने कहा कि मुझे दान के संबंध में थोड़ा और समझाओ। जो चंदा मांगने आए थे, बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि यह बड़ा शुभ लक्षण था। क्योंकि पहले तो वह दरवाजा ही नहीं खोलता था। भीतर भी आ जाए कोई दान मांगने, तो तत्काल बाहर निकालता था। उसने कहा कि बैठो प्रेम से। मुझे जरा दान के संबंध में और थोड़ा समझाओ।
उन्होंने कहा, कुछ आशा है। यह पहला मौका था कि उसने दान मांगने वालों को इतने प्रेम से बिठाया। फिर तो उसने पानी वगैरह भी बुलाकर पिलाया । और कहा कि जरा और, मुझे दान के संबंध में पूरा ही समझा दो। वे समझे कि अब कोई दिक्कत नहीं रही। कहीं और दान मांगने न जाना पड़ेगा। सभी कुछ यह आदमी दे देगा | इसके पास इतना है कि यह अकेला भी काफी है गांव की बीमारी मुकाबले में ।
जब वे सारी बात कह चुके, तो उस कृपण कंजूस ने कहा कि मैं तुम्हारी बात से इतना प्रभावित हो गया हूं कि जिसका कोई हिसाब नहीं! तो उन्होंने कहा, अब आपका क्या इरादा है ? दान मांगने वाले एकदम मुंह बा के बोले कि अब आपका क्या इरादा है ? उसने कहा, इरादा क्या ! मैं भी तुम्हारे साथ दान मांगने चलता हूं। जब दान इतनी बड़ी चीज है, तो मैं भी लोगों को समझाऊंगा ।
कृष्ण कह रहे हैं कि दंभाचरण ज्ञानी का लक्षण नहीं है। आप पूछ रहे हैं कि कई दंभाचरणी हैं, उनका कैसे पता लगाएं? कृष्ण का उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। कृष्ण आपसे कह रहे हैं।
और आप दूसरे का पता लगाएंगे कैसे? पहले तो कोई जरूरत नहीं है। दूसरा अपने दंभ के लिए कष्ट खुद पाएगा; आप कष्ट नहीं पाएंगे। अपने दंभ के कारण दूसरा नरक में जाएगा; आपको नहीं जाना पड़ेगा। अपने दंभ के कारण दूसरे के स्वर्ग का द्वार बंद होगा; आपका द्वार बंद नहीं होगा। आप क्यों परेशान हैं? दूसरा दंभी है या नहीं, यह उसकी चिंता है। आप कृपा करें और अपनी चिंता करें।
| अपने पर थोड़ी कृपा करनी जरूरी है।
फिर अगर आप पता लगाना भी चाहें, तो लगाने का कोई उपाय नहीं है। जब तक कि आप पूरी तरह दंभ-शून्य न हो जाएं, तब तक | आप दूसरे में दंभ है या नहीं, इसका कोई पता नहीं लगा सकते। क्योंकि आपका जो दंभ है, वह व्याख्या करेगा। आपके भीतर जो दंभ बैठा है, वह व्याख्या करेगा। आपके भीतर जो अहंकार है, उसके कारण आप दूसरे में भी कुछ देख लेंगे, जो दूसरे में शायद न भी हो ।
|
1.
समझें ऐसा, कि अगर आप कृष्ण के पास खड़े हों दंभ से भरे हुए, तो आपको कृष्ण की बातें बहुत दंभपूर्ण मालूम होंगी। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ। अब इससे ज्यादा अहंकार की और क्या बात हो सकती है ! सब छोड़ - सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज – सब धर्म - वर्म छोड़, मेरे चरण में आ जा, मेरी शरण आ जा।
अगर आप ईमानदारी से कहें; आप खड़े हों कृष्ण के पास, तो आप कहेंगे कि यह आदमी हद का अहंकारी है। इससे ज्यादा अहंकारी और कोई मिलेगा, जो अपने ही मुंह से अपने ही चरणों में आने का प्रचार कर रहा है !
आपके भीतर दंभ हो, तो कृष्ण का यह वचन दंभपूर्ण मालूम | होगा । और आपके भीतर दंभ न हो, तो कृष्ण का यह वचन | करुणापूर्ण मालूम होगा। यह सिर्फ करुणा है कृष्ण की कि वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू व्यर्थ यहां-वहां मत भटक। और यहां जोर चरणों का नहीं है, यहां जोर समर्पण का है। लेकिन दंभी आदमी | को सुनाई पड़ेगा कि कृष्ण अपने पैरों का प्रचार कर रहे हैं कि मेरे | पैरों में आ जा। कृष्ण सिर्फ इतना कह रहे हैं उससे कि तू झुकना | सीख ले। पैरों में आना तो सिर्फ बहाना है। तू समर्पण की कला | सीख ले, तू झुक जा ।
लेकिन आपको दंभपूर्ण मालूम पड़ेगा। आपके भीतर का दंभ | होगा, तो अड़चन देगा। इसलिए जब तक आपके भीतर का अहंकार न मिट जाए, तब तक आप न जान पाएंगे कि कौन अहंकार - शून्य है, और कौन अहंकार - शून्य नहीं है।
पर इस चिंता में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। आप अपनी ही चिंता कर लें, पर्याप्त है। सदगुरुओं को सदगुरुओं पर छोड़ दें। | उनका नरक-स्वर्ग उनके लिए है। उनकी तकलीफें वे भोगेंगे। न तो उनके पुण्य में आप भागीदार हो सकते हैं, न उनके पाप में। आप सिर्फ अपने में ही भागीदार हो सकते हैं। आप अकेले हैं। और
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समत्व और एकीभाव
दायित्व आपका आपके ऊपर है। समय मत खोएं, अवसर मत | | जो इतनी जल्दी निर्णय ले लेता है, वह ओछा आदमी है। उसके खोएं, शक्ति को व्यर्थ मत लगाएं।
साथ मेहनत करने की कोई जरूरत नहीं है। फिर सदगुरुओं के ढंग हैं अपने, उनकी अपनी व्यवस्थाएं हैं, | जो आदमी समझदार है, वह सोचेगा कि जब रामकृष्ण गाली दे जिनको पहचानना बड़ी जटिल बात है।
रहे हैं, तो गाली में भी कोई मतलब होगा। थोड़ा रुकना चाहिए। मुसलमान फकीर हुआ, बायजीद। तो बायजीद, अक्सर नए | जल्दी करने की जरूरत नहीं है। रामकृष्ण जैसा आदमी अकारण लोग आते थे, तो उनके साथ बड़ा बेरुखा व्यवहार करता था। बड़ा | गाली नहीं देगा; अगर गाली दे रहा है, तो कोई प्रयोजन होगा, कोई बेरुखा, जैसे कि वे आदमी ही न हों। बायजीद बहुत विनम्र आदमी | | मतलब होगा। तो जरा मैं रुकू और निर्णय करने की जल्दी न करूं। था। उससे विनम्र आदमी खोजना कठिन है। लेकिन नए आगंतुक | | जो रुक जाता, वह सदा के लिए रुक जाता। जो भाग जाता, वह लोगों से वह बड़ा बेरुखा और बड़ा बुरा व्यवहार करता था। | सदा के लिए भाग जाता।
उसके शिष्य उससे कहते थे कि तुम अचानक, जब भी कोई नए। । सदगुरुओं के अपने ढंग हैं, अपनी व्यवस्थाएं हैं। कहना कठिन लोग आते हैं, तो तुम इतने सख्त क्यों हो जाते हो? हम तुम्हें जानते | है कि वे किस लिए क्या कर रहे हैं। आप उस झंझट में पड़ना ही हैं भलीभांति, जैसे ही नए लोग जाते हैं, तुम एकदम पिघल जाते | मत। अगर आपको गुरु खोजना हो, तो धैर्यपूर्वक, बिना निर्णय हो; तुम नवनीत जैसे कोमल हो। लेकिन तुम पत्थर जैसे कठोर क्यों | | लिए निकट रहने की क्षमता जुटाना। और जितना बड़ा गुरु होगा, हो जाते हो नए लोगों के लिए? और फिर नए लोग तुम्हारे संबंध | | उतनी ज्यादा धैर्य की परीक्षा लेगा। क्योंकि उतनी ही बड़ी संपदा देने में बड़ी बुरी धारणा ले जाते हैं। वे सारी जगह खबर करते हैं कि यह के पहले वह आपकी पात्रता को पूरी तरह परख लेना चाहेगा। कोई आदमी बहुत दुष्ट मालूम होता है, अहंकारी मालूम होता है, क्रोधी | | छोटा-मोटा गुरु होगा, तो आपकी कोई परीक्षा भी नहीं लेगा। मालूम होता है।
| क्योंकि उसको डर है कि कहीं भाग न जाओ। वह आपको फांसने तो बायजीद कहता था, इसीलिए, ताकि व्यर्थ की भीड़-भड़क्का | ही बैठा है। मेरी तरफ न आने लगे। मेरे पास समय कम है, काम ज्यादा है। | छोटा-मोटा गुरु तो ऐसा है, जैसे कि मछली को पकड़ने के लिए
और मैं केवल चुने हुए लोगों के ऊपर ही काम करना चाहता हूं। आटा लगाकर कांटे में बैठा हुआ है। वह बड़े प्यार से कहेगा, मैं पत्थरों को नहीं घिसना चाहता, सिर्फ हीरों को निकालना चाहता | आइए बैठिए। आपको सिर आंखों पर लेगा। आपके अहंकार को हूं। जिसमें इतनी भी अकल नहीं है कि जो मेरे झूठे अहंकार को | | फुसलाएगा। आप राजी होंगे। लगेगा कि बढ़िया बात है; यह पहचान सके, उसके साथ मेहनत करने को मैं राजी नहीं हूं। | आदमी ऊंचा है। कितना विनम्र है! कि मुझसे कहा, आइए बैठिए।
लेकिन कोई-कोई बायजीद का यह दंभ और क्रोध देखकर भी जिसे कोई नहीं कहता, आइए बैठिए; इतने बड़े आदमी ने मुझसे रह जाते थे। क्योंकि जो समझदार हैं, वे कहते थे कि पहला ही | | कहा, आइए बैठिए! परिचय काफी नहीं है। थोड़ी निकटता से; थोड़ा रुककर; थोड़े दिन आपको शायद पता न हो; रूजवेल्ट जब अमेरिका का इलेक्शन ठहरकर। जल्दी निर्णय नहीं लेना है। जो थोड़े दिन रुक जाते थे, वे | | जीता प्रेसिडेंट का। इलेक्शन जीतने के बाद उसने अपने पहले सदा के लिए बायजीद के हो जाते थे। अगर आप गए होते, तो आप | वक्तव्य में, किसी ने उससे पूछा कि आपके जीतने की जो विधियां लौट गए होते।
आपने उपयोग की, उसमें खास बात क्या थी? तो उसने कहा, छोटे ऐसे फकीर हुए हैं, हमारे मुल्क में हुए हैं, जो बेहूदी गालियां देते | | आदमियों को आदर देना। उसने दस हजार आदमियों को निजी पत्र हैं। उनमें कुछ परम ज्ञानी हुए हैं। आप उनके पास जाएंगे, तो वे | लिखे थे। उनमें ऐसे आदमी थे, कि जैसे टैक्सी ड्राइवर था, जिसकी मां-बहन की और भद्दी गालियां देंगे, जो आप कभी सोच ही नहीं | टैक्सी में बैठकर वह स्टेशन से घर तक आया होगा। सकते कि संत पुरुष देगा।
रूजवेल्ट की आदत थी कि वह टैक्सी ड्राइवर से उसका नाम खुद रामकृष्ण गालियां देते थे। और कारण कुल इतना था कि |
देते थे। और कारण कुल इतना था कि पूछेगा, पत्नी का नाम पूछेगा, बच्चे का नाम पछेगा। वह टैक्सी जो इतनी जल्दी निर्णय ले ले, कि यह आदमी गलत है, क्योंकि ड्राइवर तो आगे गाड़ी चला रहा है; पीछे देख नहीं रहा है। लेकिन गाली दे रहा है, इस आदमी के साथ मेहनत करनी उचित नहीं है। रूजवेल्ट नोट करता रहेगा, पत्नी का नाम, बच्चे का नाम; बच्चे
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0 गीता दर्शन भाग-60
की तबियत कैसी है; बच्चा किस क्लास में पढ़ता है। टैक्सी ड्राइवर | मिले तो हम खुश हों। हम सफलता मिलते ही खुश हो जाते हैं। फूला नहीं समा रहा है। पंडित नेहरू आपसे पूछ रहे हों तो...। | यह हमें खुश होने के लिए कुछ करना थोड़े ही पड़ता है, यह हमारा
और फिर दो साल बाद एक पत्र आएगा टैक्सी ड्राइवर के नाम, कोई निर्णय थोड़े ही है। कि तुम्हारी पत्नी की तबीयत खराब थी पिछली बार तुम्हारे गांव जब जब प्रियजन घर आए, तो हम प्रसन्न हो जाते हैं। कोई प्रसन्न होने आया था, अब उसकी तबीयत तो ठीक है न? तुम्हारे बच्चे तो ठीक | के लिए चेष्टा थोड़े ही करनी पड़ती है। और जब कोई गाली दे, से स्कूल में पढ़ रहे हैं न? और इस बार मैं चुनाव में खड़ा हुआ हूं, अपमान करे, तो हम दुखी हो जाते हैं। दुखी होने के लिए हमें थोड़ा खयाल रखना।
सोचना थोड़े ही पड़ता है। चुनाव का मौका कहां है? जो होता है, वह किसी भी पार्टी का हो, पागल हो गया। अब उसको | वह जब हो जाता है, तब हमें पता चलता है। जब हम दुखी हो जाते दल-वल का कोई सवाल नहीं है। अब रूजवेल्ट से निजी संबंध | हैं, तब पता चलता है कि दुखी हो गए। हो गया। अब वह यह कार्ड लेकर घूमेगा।
| कष्ण कहते हैं. समता। यह समता कैसे घटेगी? इसके घटने की छोटे आदमी के अहंकार को फुसलाना राजनीतिज्ञ का काम है, | प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया खयाल में लेनी चाहिए। संतों का काम नहीं है। संत आपके अहंकार को तोड़ना चाहते हैं, कोई भी अनुभव भीतर पैदा हो, उसे अचेतन पैदा न होने दें। फुसलाना नहीं चाहते हैं।
उसमें सजगता रखें। कोई गाली दे, तो इसके पहले कि क्रोध आए, तो रामकृष्ण गाली देते हैं; रूजवेल्ट कहता है, आइए बैठिए। | एक पांच क्षण के लिए बिलकुल शांत हो जाएं। क्रोध को कहें कि वह फर्क है। पर कहना मुश्किल है कि संत का क्या प्रयोजन है। | पांच क्षण रुको। दुख को कहें, पांच क्षण रुको। पांच क्षण का आप जल्दी मत करें। निर्णय सदा अपने बाबत लें, दूसरे के बाबत | अंतराल देना जरूरी है। तो आपके पास पर्सपेक्टिव, दृष्टि पैदा हो कभी मत लें।
सकेगी। पांच क्षण बाद सोचें कि मुझे दुखी होना है या नहीं। दुख और संत तो खतरनाक हैं; उनके बाबत तो निर्णय लें ही मत। | को चुनाव बनाएं। दुख को मूर्छित घटना न रहने दें। नहीं तो फिर उनको उनके निर्णय पर छोड़ दें। अगर आपको कुछ लाभ उनसे आप कुछ भी न कर पाएंगे। लेना हो, तो धैर्यपूर्वक, बिना निर्णय के लाभ ले लें। निश्चित ही, गुरजिएफ ने लिखा है कि मेरे पिता ने मरते क्षण मुझे एक मंत्र अगर आपने धैर्य रखा, तो आप जिस गुरु के पास हैं, उस गुरु की दिया, उसी मंत्र ने मेरे पूरे जीवन को बदल दिया। मरते वास्तविक प्रतिमा प्रकट हो जाएगी। अगर आपने जल्दी की, तो वक्त-गुरजिएफ तो बहुत छोटा था, नौ साल का था-पिता ने आप हो सकता है, कभी किसी बुद्ध के पास आकर भी किनारे से | कहा, मेरे पास देने को तेरे लिए कुछ भी नहीं है। लेकिन एक संपत्ति निकल जाएं और वंचित रह जाएं।
| मेरे पास है, जिससे मैंने जीवन में परम आनंद अनुभव किया। वह अब हम सूत्र को लें।
मैं कुंजी तुझे दे जाता हूं। अभी तो तेरी समझ भी नहीं है कि तू समझ तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और | पाए। इसलिए अभी जो मैं कहता हूं, तू सिर्फ याद रखना। किसी ममता का न होना तथा प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का | | दिन समझ आएगी, तो उस दिन समझ लेना। सम रहना अर्थात मन के अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्राप्त होने पर तो गुरजिएफ के पिता ने कहा कि तू एक ही खयाल रखना, कोई हर्ष-शोकादि विकारों का न होना।
भी प्रतीति, दुख की या सुख की, तत्क्षण मत होने देना। थोड़ी ___ इस संबंध में एक बात खयाल ले लेनी चाहिए। समता! दुख हो जगह। अगर कोई गाली दे, तो उससे कहकर आना कि चौबीस घंटे या सुख, प्रिय घटना घटे या अप्रिय, सफलता हो या असफलता, | बाद मैं जबाब दूंगा। और चौबीस घंटे के बाद बराबर जवाब देना। यश या अपयश, दोनों का बराबर मूल्य है। दोनों में से किंचित भी | अगर तुझे लगे कि छुरा भोंकना हो, तो चौबीस घंटे बाद छुरा भोंक एक को वांछनीय और एक को अवांछनीय न मानना ज्ञानी का | देना जाकर। लेकिन चौबीस घंटे का बीच में अंतराल देना। लक्षण है। समत्व ज्ञानी की आधारशिला है।
गुरजिएफ ने लिखा है कि मेरी पूरी जिंदगी बदल दी इस बात ने। लेकिन यह होगा कैसे? क्योंकि जब सफलता मिलती है, तो क्योंकि मरते बाप की बात थी। इसके बाद बाप मर गया। तो मन प्रीतिकर लगती है। कोई हम तय थोड़े ही करते हैं कि जब सफलता | पर टंकी रह गई। और एक आश्वासन दिया था बाप को, तो पूरा
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करना था। तो किसी ने अगर गाली दी, तो मैं कहकर आया कि क्षमा करें। बाप को एक वचन दिया है, चौबीस घंटेभर बाद आपको जवाब दूंगा।
और चौबीस घंटेभर बाद न तो गाली का जवाब देने योग्य लगा, नगाली में कोई मूल्य मालूम पड़ा, बात ही व्यर्थ हो गई। चौबीस घंटे बाद जाकर गुरजिएफ कह आता कि आपने गाली दी, बड़ी कृपा की। लेकिन मेरे पास कोई जवाब देने को नहीं है।
गाली का जवाब तो तत्काल ही दिया जा सकता है। ध्यान रखना, गाली की प्रक्रिया है, उसका जवाब तत्काल दिया जा सकता है । उसमें देरी की, कि आप चूके।
डेल कार्नेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक स्त्री ने उसे पत्र लिखा। वह रेडियो पर बोला लिंकन के ऊपर। लिंकन की कोई जन्मतिथि थी, उस पर व्याख्यान दिया। और व्याख्यान में उसने लिंकन के संबंध में कुछ गलत तथ्य बोल दिए। तो एक स्त्री ने उसे पत्र लिखा कि जब तुम्हें लिंकन के संबंध में कुछ भी पता नहीं, तो कम से कम व्याख्यान देने की जुर्रत तो मत करो। वह भी रेडियो पर! सारे मुल्क ने सुना। और लोग हंसे होंगे। अपनी भूल सुधार करो और क्षमा मांगो। उसने बहुत क्रोध से पत्र लिखा था।
डेल कार्नेगी ने उसी वक्त क्रोध से जवाब लिखा । जितना जहरीला पत्र था, उतना ही जहरीला जवाब लिखा। लेकिन रात देर हो गई थी, तो उसने सोचा, सुबह पत्र डाल देंगे। पत्र को वैसे ही टेबल पर रखकर सो गया।
सुबह उठकर डालते वक्त दुबारा पढ़ना चाहा। तो पत्र को दुबारा पढ़ा तो उसे लगा कि यह जरा ज्यादा है, इतने क्रोध की कोई जरूरत नहीं। वह गरमी कम हो गई, लोहा ठंडा हो गया। तो उसने सोचा, दूसरा पत्र लिखूं; यह उचित नहीं है। उसने दूसरा पत्र लिखा, उसमें थोड़ी-सी क्रोध की रेखा रह गई थी। तब उसे खयाल आया कि अगर रात के बारह घंटे में इतना फर्क हो गया, तो मैं बारह घंटे और रुकूं। जल्दी क्या है जवाब देने की ! और देखूं कि क्या फर्क होता है।
बारह घंटे बाद पत्र को पढ़ा, तो उसे लगा कि यह भी ज्यादा है। उसने तीसरा पत्र लिखा। लेकिन तब उसने तय किया कि मैं सात दिन रोज सुबह-सांझ पत्र को पढूंगा और सातवें दिन पत्र को लिखूंगा – फाइनल |
सातवें दिन जो पत्र लिखा, वह प्रेमपूर्ण था, क्षमायाचना से भरा था। उसमें उसने लिखा कि आपने मेरी गलती दिखाई, उसके लिए मैं जितना अनुगृहीत होऊं, उतना कम है। और आगे भी कभी मेरी
कोई गलती दिखाई पड़े, तो मुझे खबर देना। वह स्त्री उससे मिलने आई और सदा के लिए मित्रता खड़ी हो गई ।
क्या होता है - फासला । हम जल्दी में होते हैं। जो भी होता है, मूर्च्छा में कर लेते हैं । समता अगर चाहिए हो, तो फासला पैदा करने की कला सीखनी चाहिए। लेकिन हम होशियार लोग हैं। हम फासले में भी धोखा दे सकते हैं।
मैंने सुना है, एक बाप ने देखा कि उसका बेटा एक दूसरे बच्चे | को, पड़ोसी के बच्चे को दबाए हुए लान में, छाती पर बैठा हुआ है। तो उसने चिल्लाकर कहा कि मुन्ना, कितनी दफा मैंने तुझे कहा कि किसी से भी झगड़ने, मार-पीट करने के पहले सौ तक गिनती पढ़ा कर । तो उसने कहा, वही मैं कर रहा हूं। सौ तक गिनती पढ़ | रहा हूं। लेकिन यह निकलकर भाग न जाए सौ तक गिनती जब तक मैं पढूं, इसलिए इसको दबाकर रखा हुआ है। सौ की गिनती पूरी होते ही इसे ठिकाने लगा दूंगा।
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सौ की गिनती कही इसलिए थी कि फासला पैदा हो जाए। किसी को मारने के पहले सौ तक गिनती पढ़ना । मुन्ना होशियार है। वह | उसको दबाकर बैठा है बच्चे को, कि अगर सौ तक गिनती हमने पढ़ी, तब तक यह निकल गया, तो मारेंगे किसको !
तो आप भी ऐसी होशियारी मत करना । अन्यथा कोई सार नहीं है । फासला पैदा करना है इसलिए, ताकि समता आ जाए। फास | हो जाए, तो दुख दुख नहीं देता, और सुख सुख नहीं देता । सुख | और दुख दोनों मूर्च्छित अनुभव हैं। तत्क्षण हो जाते हैं, मूर्च्छा में हो जाते हैं।
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जैसे कोई बिजली का बटन दबाता है, ऐसे ही आपके भीतर बटन दब जाते हैं। आप सुखी हो जाते हैं, दुखी हो जाते हैं। बिजली | का बटन दबाने पर बिजली कह नहीं सकती कि मैं नहीं जलूंगी। मजबूर है, यंत्र है। लेकिन आप यंत्र नहीं हैं।
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जब कोई गाली दे, तो क्रोधित होना, तत्क्षण बिजली की बटन की तरह काम हो रहा है। आप यंत्र की तरह व्यवहार कर रहे हैं। रुकें। | उसने गाली दी ; ठीक। लेकिन आप अपने मालिक हैं। गाली लेने में जल्दी मत करें। किसी ने सम्मान किया, वह उसकी बात है । किसी | ने आपकी खुशामद की, चापलूसी की, वह उसकी बात है। लेकिन आप जल्दी मत करें, और एकदम पिघल न जाएं। रुकें, थोड़ा समय दें। थोड़े फासले पर खड़े होकर देखें कि क्या हो रहा है।
और आप पाएंगे कि जितना आप फासला बढ़ाते जाएंगे, सुख-दुख समान होते जाएंगे। जितने करीब होंगे, सुख-दुख में
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
बड़ा फासला है। जितने फासले पर होंगे, सुख-दुख का फासला | उसके सारे खंड मन के इकट्ठे हो जाते हैं और वह एकीभाव को कम होने लगता है। जब कोई व्यक्ति दूर से खड़े होकर देख सकता | उपलब्ध हो जाता है। है, सुख और दुख एक ही हो जाते हैं। क्योंकि दूरी से दिखाई पड़ता | जितने आपके प्रेम होंगे, उतने आपके खंड होंगे, उतने आपके है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन समता | हृदय के टुकड़े होंगे। अगर आपके दस-पांच प्रेमी हैं, तो आपके उपलब्ध हो जाती है।
हृदय के दस-पांच स्वर होंगे, दस-पांच टुकड़े होंगे। आप एक __ कृष्ण कहते हैं, समता ज्ञानी का लक्षण है। और मुझ परमेश्वर आदमी नहीं हो सकते, दस प्रेम अगर आपके हैं; आप दस आदमी में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान-योग के द्वारा अव्यभिचारिणी| होंगे। आपके भीतर एक भीड़ होगी। भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और ___ यह जो इतना जोर है अव्यभिचारिणी भक्ति पर, कि एक का विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति, प्रेम का न होना। भाव है तो एक का ही भाव रह जाए, इसका अर्थ यह है कि जितना
और मुझ परमेश्वर में एकीभाव। बड़े दंभ की बात है, मुझ ही एक का भाव रहने लगेगा, उतना ही भीतर भी एकत्व घनीभूत परमेश्वर में एकीभाव! कृष्ण कहे ही चले जाते हैं कि मुझ परमेश्वर होने लगेगा; इंटीग्रेशन भीतर फलित हो जाएगा। इसलिए प्रेमी भी के साथ तू ऐसा संबंध बना।
योग को उपलब्ध हो जाता है, और योगी प्रेमी हो जाता है। अहंकारी पढ़ेगा, तो बड़ी अड़चन में पड़ेगा। वह तो अर्जुन का __ अगर कोई पूरे मन से किसी एक व्यक्ति को प्रेम कर सके, तो बड़ा निकट संबंध था, बड़ी आत्मीयता थी, इसलिए अर्जुन ने एक | उस प्रेम में भी एकत्व घटित हो जाता है। भीतर इंटीग्रेशन हो जाता भी बार नहीं पूछा कि क्या बार-बार रट लगा रखी है, मुझ परमात्मा | है; भीतर सारे खंड जुड़ जाते हैं। अनेक स्वर समाप्त हो जाते हैं। में। उसने एक भी बार यह सवाल नहीं उठाया कि क्यों अपने को | एक ही स्वर और एक ही भाव रह जाता है। उस एक भाव के परमात्मा कह रहे हो? और क्यों अपने ही मुंह से कहे चले जा रहे | | माध्यम से प्रवेश हो सकता है अनंत में। अनेक को छोड़कर एक; हो कि मैं परमात्मा हूं?
| और तब एक भी छूट जाता है और अनंत उपलब्ध होता है। वह इतना आत्मीय था, इतना निकट था, कि कृष्ण को जानता कृष्ण कहते हैं, अव्यभिचारिणी भक्ति! था कि यह घोषणा किसी अहंकार की घोषणा नहीं है। यह कहना | अनन्य रूप से मुझ एक में ही तू समर्पित हो जा। तेरे मन में यह सिर्फ अर्जुन को समर्पण के लिए राजी करने का उपाय है। खयाल भी न रहे कि कोई और भी हो सकता है, जिसके प्रति
मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान-योग के द्वारा समर्पण होना है। अगर उतना-सा खयाल भी रहा, तो समर्पण पूरा अव्यभिचारिणी भक्ति...।
नहीं हो सकता। भक्ति अव्यभिचारिणी. इसे थोडा समझ लेना चाहिए। इधर मेरे पास अनेक लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम इस गुरु के व्यभिचार का अर्थ होता है, अनेक के साथ लगाव। व्यभिचारिणी पास गए, फिर उस गुरु के पास गए, फिर उस गुरु के पास गए। कहते हैं हम उस स्त्री को, जो पति को भी दिखा रही है कि प्रेम | | वे गुरुओं के पास घूमते रहते हैं। उनकी यह व्यभिचारिणी मन की करती है, और उसके प्रेमी भी हैं, उनसे भी प्रेम कर रही है। और | | दशा उन्हें कहीं भी पहुंचने नहीं देती। उनसे मैं कहता हूं, तुम एक प्रेम एक खिलवाड़ है। क्षणभर भी कोई उसे एकांत में मिल जाए, | गुरु के पास रुक जाओ। वे कहते हैं, हमें पक्का कैसे पता लगे कि तो उससे भी प्रेम शरू हो जाएगा। मन में किसी एक की कोई जगह वही गुरु ठीक है, जब तक हम बहुतों के पास न जाएं। मैं उनसे नहीं है।
कहता हूं कि वह गलत हो तो भी तुम एक के पास रुक जाओ। व्यभिचार का अर्थ है, मन में एक की जगह नहीं है। मन खंडित क्योंकि उसके गलत और सही होने का उतना बड़ा सवाल नहीं है, है। बहुत प्रेमी हैं, बहुत पति हैं; उसका अर्थ है व्यभिचार। एक! तो | तुम्हारा एक के प्रति रुक जाना तुम्हारे लिए क्रांतिकारी घटना बनेगी। मन अव्यभिचारी हो जाता है।
| वह गलत होगा, वह वह जाने। उससे तुम चिता मत लो। तुम __ और बड़े मजे की बात है, समझने जैसी है, कि यह इतना जो | उसकी फिक्र मत करो। जोर है एक प्रेमी पर, यह प्रेमी के हित में नहीं है। असल में प्रेम कई बार ऐसा भी होता है कि गलत गुरु के पास भी ठीक शिष्य करने वाला अगर एक व्यक्ति को प्रेम करने में समर्थ हो जाए, तो सत्य को उपलब्ध हो जाता है। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी।
भक्ति ।
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लेकिन हम जानते हैं, हमने एकलव्य की कथा पढ़ी है। गलत गुरु | अवस्था में अगर परमात्मा उपलब्ध न हो, तो फिर कभी भी का सवाल ही नहीं है; गुरु था ही नहीं वहां। वहां तो सिर्फ मूर्ति बना | | उपलब्ध नहीं हो सकता है। तो बाहर की कला तो खो गई, लेकिन रखी थी उसने द्रोणाचार्य की। उस मूर्ति के सहारे भी वह उस | वह भीतर की कला को उपलब्ध हो गया। कुशलता को उपलब्ध हो गया जो एकाग्रता है।
इसकी फिक्र छोड़ना; मैं लोगों को कहता हूं, इसकी फिक्र छोड़ो कैसे यह हुआ? क्योंकि मूर्ति तो कुछ सिखा नहीं सकती। | कि गुरु ठीक है या नहीं। तुम कैसे पता लगाओगे? तुम हजार के द्रोणाचार्य खुद भी इतना नहीं सिखा पाए अर्जुन को, जितना उनकी पास घूमकर और कनफ्यूज्ड हो जाओगे, तुम और उलझ जाओगे। पत्थर की मूर्ति ने एकलव्य को सिखा दिया।
| तुम्हें कुछ पता होने वाला नहीं है। तम जितनों के पास जाओगे. तो द्रोणाचार्य का कोई हाथ नहीं है उसमें। अगर कुछ भी है हाथ, | उतने खंडित हो जाओगे। तुम बेहतर है, कहीं रुकना सीखो। रुकने तो एकलव्य के भाव का ही है। वह उस पत्थर की मूर्ति के पास इतना | में खूबी है। बेहतर है, एक के प्रति समर्पित होना सीखो। समर्पण एकीभाव होकर रुक गया, इतनी अव्यभिचारिणी भक्ति थी उसकी | में राज है। वह किसके प्रति, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। कि पत्थर की मूर्ति के निकट भी उसे जीवंत गुरु उपलब्ध हो गया। ___ और कई दफा तो ऐसा होता है कि गलत के प्रति समर्पण ज्यादा
और गुरु द्रोणाचार्य इस योग्यता के गुरु नहीं थे, जितना एकलव्य | | कीमती परिणाम लाता है। इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि ठीक के प्रति ने उनको माना और फल पाया। क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य समर्पण तो स्वाभाविक है। आपकी कोई खूबी नहीं है उसमें। वह को धोखा दिया। और अपने संपत्तिशाली शिष्य के लिए एकलव्य | | आदमी ठीक है, इसलिए समर्पण आपको करना पड़ रहा है। का अंगूठा कटवा लिया।
आपकी कोई खूबी नहीं है। लेकिन आदमी गलत हो और आप द्रोणाचार्य की उतनी योग्यता नहीं थी, जितनी एकलव्य ने मानी। समर्पण कर सकें, तो खूबी निश्चित ही आपकी है। लेकिन यह बात गौण है। द्रोणाचार्य की योग्यता थी या नहीं, यह | | तो कभी-कभी बहुत-से गुरु अपने आस-पास गलत वातावरण सवाल ही नहीं है। एकलव्य की यह अनन्य भाव-दशा, और | | स्थापित कर लेते हैं। वह भी समर्पण का एक हिस्सा है। क्योंकि एकलव्य की यह महानता, कि इस गुरु ने जब अंगूठा मांगा, तब | | अगर उनके बाबत सभी अच्छा हो, तो समर्पण करने में कोई खूबी उसकी भी समझ में तो आ ही सकता था। आ ही गया होगा। साफ | नहीं, कोई चुनौती नहीं है। वे अपने आस-पास बहुत-सा जाल ही बात है। अंगूठा कट जाने पर वह धनुर्विद नहीं रह जाएगा। खड़ा कर लेते हैं, जो कि गलत खबर देता है। और उस क्षण में
और द्रोणाचार्य ने अंगूठा इसीलिए मांगा कि जब उसके निशाने | | अगर कोई समर्पित हो जाता है, तो समर्पण की उस दशा में देखे, और उसकी तन्मयता और एकाग्रता और उसकी कला देखी, अव्यभिचारिणी भक्ति का जन्म होता है। तो द्रोण णाचार्य के पैर कंप गए। उन्हें लगा कि अर्जन फीका पड कष्ण कहते हैं. एकांत और शद्ध देश में रहने का स्वभाव और
गा। अर्जन की अब कोई हैसियत इस एकलव्य के सामने नहीं विषयासक्त मनष्यों के समदाय में अरति, प्रेम का न होना...। हो सकती। थी भी नहीं। क्योंकि अर्जुन का इतना भाव द्रोणाचार्य आप भीड़ खोजते हैं हमेशा। और अक्सर भीड़ खोजने वाला के प्रति कभी भी नहीं था, जितना भाव एकलव्य का द्रोणाचार्य के | | गलत भीड़ खोजता है। क्योंकि भीड़ खोजना ही गलत मन का प्रति था। और द्रोणाचार्य अर्जुन को तो उपलब्ध थे, एकलव्य को | लक्षण है। उपलब्ध भी नहीं थे।
दूसरे से कुछ भी मिल सकता नहीं। आप जरा सोचें, आप क्या यह कथा बड़ी मीठी और बड़ी अर्थपूर्ण है। एकलव्य ने अंगूठा करते हैं दूसरे से मिलकर? कुछ थोड़ी निंदा, पास-पड़ोस की कुछ भी काटकर दे दिया। मैं मानता हूं कि उसकी धनुर्विद्या तो खो गई | | अफवाहें। किसकी पत्नी भाग गई! किसके बेटे ने धोखा दिया! अंगूठा कटने से, लेकिन उसने भीतर जो योग उपलब्ध कर लिया कौन चोरी कर ले गया! कौन बेईमान है! ये सारी आप बातें करते अंगूठा काटकर...।
| हैं। यह रस अकेले में नहीं आता, इसके लिए दो-चार लोग चाहिए, उस एकलव्य के लिए कृष्ण को गीता कहने की जरूरत नहीं | इसके लिए आप भीड़ खोजते हैं। पड़ी। वह अंगूठा काटने के क्षण में ही उस परम एकत्व को उपलब्ध । एक दिन चौबीस घंटे अपनी चर्चा का खयाल करें। आप कहां हो गया होगा। क्योंकि जरा भी संदेह न उठा! ऐसी असंदिग्ध | बैठते हैं? क्यों बैठते हैं? क्यों बातें करते हैं ये? क्या रस है
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इसमें? और अगर यह रस आपका कायम है, तो ज्ञान कभी | पत्नी भी आपके साथ ध्यान में प्रवेश नहीं कर सकती। आपका बेटा उपलब्ध न होगा, क्योंकि यह सारा अज्ञान को बचाने की व्यवस्था भी आपके साथ भक्ति के जगत में नहीं प्रवेश करेगा। वहां आप कर रहे हैं आप।
अकेले होंगे। इसलिए अकेले होने का थोड़ा रस! और जब भी कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी का लक्षण है, एकांत का रस। ज्ञानी ज्यादा | मौका मिल जाए, तो अकेले होने में मजा! से ज्यादा अकेले रहना चाहेगा।
लेकिन हम तो घबड़ाते हैं। जरा अकेले हुए कि लगता है कि क्यों? क्योंकि अकेले में ही स्वयं का साक्षात्कार हो सकता है; | मरे। जरा अकेले हुए कि डर लगता है। जरा अकेले हुए कि लगता और अकेले में ही भीड़ के प्रभाव और संस्कारों से बचा जा सकता है, ऊब जाएंगे, क्या करेंगे! है। और अकेले में ही आदमी शांत और मौन हो सकता है। और | | एक बहुत मजे की बात है। आप अपने से इतने ऊबे हुए हैं कि अकेले में ही धीरे-धीरे भीतर सरककर उस द्वार को खोल सकता | आप अपने साथ थोड़ी देर भी नहीं रह सकते। और जब कोई है, जो परमात्मा का द्वार है।
आपके साथ ऊब जाता है, तो आप सोचते हैं, वह आदमी बुरा है। दूसरे के साथ रहकर कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। | जब आप खुद ही अपने साथ ऊब जाते हैं, तो दूसरे तो ऊबेंगे ही। . चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे मोहम्मद, परमात्मा के पास पहुंचने ___ अकेले में थोड़ी देर खुद ही से बातें करिए। एक दिन ऐसा प्रयोग के पहले एकांत में सरक गए थे। महावीर बारह वर्ष तक मौन हो | | करिए। जापान में एक विधि है ध्यान की। वे साधक को कहते हैं गए थे। बुद्ध छः वर्ष तक जंगल में चले गए थे। मोहम्मद तीस दिन | कि जो भी तेरे भीतर चलता हो, उसको जोर-जोर से बोल। भीतर तक बिलकुल एकांत पर्वत पर रह गए थे। जीसस को तैंतीस वर्ष | | मत बोल, जोर-जोर से बोल। बैठ जा एकांत में और जो भी भीतर की उम्र में उनको फांसी हुई। ईसाइयों के पास केवल तीन साल की | | चलता हो, उसको जोर से बोल। कहानी है, आखिरी तीन साल की। बाकी तीस साल चुप मौन आप घबड़ा जाएंगे, अगर भीतर जो जैसा है, उसको जोर से साधना में गुजरे।
| बोलेंगे। घंटेभर में आप कहेंगे कि मैं भी कहां का बोरियत पैदा यह जो मौन में सरक जाना है, एकांत का रस है, यह ज्ञानी का करने वाला आदमी हूं! लक्षण है। भीड़ का रस, समूह का रस, क्लब, मित्र की तलाश लेकिन यही आप दूसरों से बोल रहे हैं। और जब दूसरे आपसे खतरनाक है।
बोर होते हैं, तो आप समझते हैं, इनकी समझ नहीं है। जरा समझ लेकिन आप यह मत सोचना कि क्लब ही सिर्फ क्लब है। लोग | का...मैं तो बड़ी ऊंची बातें कर रहा हूं और ये ऊब रहे हैं। लेकिन तो धर्म-कथाओं में भी इसीलिए चले जाते हैं। विशेषकर स्त्रियां तो जब हर आदमी अपने से ऊबा है, तो ध्यान रहे, वह दूसरे को भी इसीलिए पहुंच जाती हैं धर्म-कथाओं में कि वहां जाकर वे सब चर्चा उबाएगा। कर लेती हैं, जिसका कि उन्हें मौका कहीं नहीं मिलता। सब जमाने __ और दूसरे आपकी कुछ देर तक बात सुनते हैं, उसका कारण भर की स्त्रियां वहां मिल जाती हैं। जमाने भर के रोग और कहानियां आप जानते हैं? इसलिए नहीं कि आपकी बात में कोई रस है। उन्हें वहां मिल जाते हैं। वहां वे सब चर्चा कर लेती हैं। कथा तो बल्कि इसलिए कि जब आप बंद हो जाएं, तब वे बोलें। और कोई बहाना है।
कारण नहीं होता। कि अब आप उबा लिए काफी, अब हमको भी मंदिर में भी आप जा सकते हैं; हो सकता है, परमात्मा से मिलने | उबाने दो। न जा रहे हों। वहां भी आप गपशप करने जा रहे हों, जो लोग मंदिर इसलिए सबसे ज्यादा बोर करने वाला आदमी वह मालूम पड़ता आते हैं उनसे। यह भी हो सकता है, आप किसी गुरु के पास भी | | है, जो कि आपको मौका ही नहीं देता। और कोई कारण नहीं है। इसीलिए जाते हों कि थोड़ा आस-पास के उपद्रव की खबरें सुन | वह बोले ही चला जाता है। वह आपको अवसर ही नहीं देता। आएं। लेकिन कुछ एकांत की तलाश न हो।
इसलिए आप कहते हैं, बहुत बोर करने वाला आदमी है। उसका ___ ध्यान रखना जरूरी है कि आप अकेले ही सत्य से मिल सकते | केवल मतलब इतना है कि आप ही बोर किए जा रहे हैं! मुझको भी हैं, भीड़ को साथ लेकर जाने का कोई उपाय नहीं है। आपका | बोर करने का मौका दें। एक अवसर मुझे भी दें, तो मैं भी आपको निकटतम मित्र भी आपके साथ समाधि में नहीं जाएगा। आपकी | ठीक करूं। लेकिन जो असली बोर करने की कला में कुशल हैं,
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वे मौका नहीं देते।
| यह परमात्म-भाव ऐसा हो जाना चाहिए कि परमात्मा ही दिखाई आदमी अपने साथ इतनी ज्यादा पीड़ा अनुभव करता है, और पड़े, बाकी लोग उसके रूप दिखाई पड़ें। यह भाव-दशा बन जाती सोचता है, दूसरों को सुख देगा। पति पत्नी को सुख देना चाहता है। लेकिन अपने से ही शुरू करना पड़े।। है, पत्नी पति को सुख देना चाहती है। पत्नी सोचती है कि पति के | __ और जैसे कोई पत्थर फेंके पानी में, तो पहले छोटा-सा वर्तुल लिए स्वर्ग बना दे, लेकिन अकेली घडीभर नहीं रह सकती, नरक | | उठता है पत्थर के चारों तरफ। फिर वर्तुल फैलता जाता है, और दूर मालूम होने लगता है। तो जब अकेले रहकर पत्नी को खुद नरक | | अनंत किनारों तक चला जाता है। ऐसा पहली दफा परमात्मा का मालूम होने लगता है, तो यह पति के लिए नरक ही बना सकती है, | पत्थर अपने भीतर ही फेंकना जरूरी है। फिर वर्तुल उठता है, लहरें स्वर्ग बनाएगी कैसे!
| फैलने लगती हैं, और चारों तरफ पहुंच जाती हैं। कोई किसी दूसरे के लिए स्वर्ग नहीं बना पाता, क्योंकि हम ___ जब तक आप अपने में देखते हैं पाप, नरक, और आपको कोई अकेले अपने साथ रहने को राजी नहीं हैं।
| परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तब तक आपको किसी में भी दिखाई इस जमीन पर उन लोगों के निकट कभी-कभी स्वर्ग की | | नहीं पड़ सकता। आप कितना ही मंदिर की मूर्ति पर जाकर सिर थोड़ी-सी हवा बहती है, जो अपने साथ रहने की कला जानते हैं। | पटकें और आपको चाहे कृष्ण और राम भी मिल जाएं, तो भी इसे थोड़ा समझ लेना। जो आदमी एकांत में रहने की कला जानता | | आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। है, उसके पास आपको कभी थोड़े-से रस की बूंदे मिल सकती हैं, | जिस धोबी ने राम के खिलाफ वक्तव्य दिया, और जिसकी कोई अमृत की थोड़ी झलक मिल सकती है। लेकिन जो अपने साथ | | वजह से राम को सीता को निकाल देना पड़ा, वह राम के गांव का रहना जानता ही नहीं, उसका तो जीवन से कोई संस्पर्श नहीं हआ है। निवासी था; उसको राम में राम दिखाई नहीं
पड़ा। उसको सीता में कृष्ण कहते हैं, शुद्ध देश में, एकांत में, अपने भीतर की शुद्धता | सीता दिखाई नहीं पड़ी। उसको तो सीता में भी दिखाई पड़ी में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में | | व्यभिचारिणी स्त्री। वह खुद व्यभिचारी रहा होगा। जो हमारे भीतर अरति...।
| होता है, वह हमें दिखाई पड़ता है। अगर कभी जाना भी हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास तो राम भी पास खड़े हों, तो आपको गड़बड़ ही दिखाई पड़ेंगे। जाना चाहिए, जो आपको संसार की तरफ न ले जाता हो। जो | आपको तो कुछ अड़चन ही मालूम होगी। आपको लगेगा, कुछ न आपको संन्यास की तरफ ले जाता हो। जो आपको उठाता हो | कुछ बात है। वस्तुओं के पार। जो आपको जीवन के परम मंदिर की तरफ इशारा एक मित्र ने थीसिस लिखी है, राम के ऊपर एक शोध-ग्रंथ करता हो। अगर जाना ही हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास | लिखा है। और शोध-ग्रंथ में उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश जाना चाहिए। अन्यथा भीड़ से, समूह से बचना चाहिए। | की है कि शबरी बूढ़ी स्त्री नहीं थी, जवान स्त्री थी। और राम का
तथा अध्यात्म-ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थ रूप | संबंध प्रेम का था शबरी से, भक्ति का नहीं था। परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है; और जो इससे | इन मित्र को मैं जानता हूं। वे कभी-कभी मुझसे मिलने आते थे। विपरीत है, वह अज्ञान है; ऐसा कहा है। परमात्मा को सर्वत्र | मैंने उनसे पूछा कि यह ठीक हो या गलत हो, मुझे कुछ पता नहीं। देखना, यह तो ज्ञान है। और इससे विपरीत जो है, वह अज्ञान है। | और इसमें मुझे कोई रस भी नहीं कि राम का शबरी से प्रेम था या
बड़ा कठिन है परमात्मा को सर्वत्र देखना। अपने ही भीतर नहीं | नहीं। लेकिन तुम्हें शोध करने का यह खयाल कैसे पैदा हुआ? सच देख सकते, तो बाहर कैसे देख सकेंगे। पहले तो अपने ही भीतर | हो भी सकता है। मुझे कुछ पता नहीं कि राम का क्या संबंध था देखना जरूरी है कि परमात्मा मौजूद है। चाहे कितना ही विकृत | और न मेरी कोई उत्सुकता है कि किसी के संबंधों की जानकारी हो, कितना ही उलझा हो, बंधन में हो, कारागृह में हो, है तो | | करूं। न मेरा कोई अधिकार है; न मैं कोई इंसपेक्टर हूं, जो तय परमात्मा ही। चाहे कितनी ही बेचैनी में, परेशानी में हो, है तो | | किया गया है कि पता लगाएं कि किसका किससे प्रेम है। यह शबरी परमात्मा ही। अपने भीतर भी परमात्मा देखना शुरू करना चाहिए, और राम के बीच की बात है। लेकिन तुम्हें यह खयाल कैसे आया? और अपने आस-पास भी देखना शुरू करना चाहिए। धीरे-धीरे तुम्हें खयाल तो अपने ही किसी अनुभव से आया होगा। और
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तुम्हारे देखने की दृष्टि से ही तो शोध पैदा हुई है; राम की घटना से पैदा नहीं हुई। क्योंकि राम पर तो बहुत लोग शोध करते हैं, लेकिन यह शोध किसी ने भी नहीं की है।
इन सज्जन ने खोजबीन की है कि सीता का निकालना, धोबी का तो बहाना था, राम सीता को निकालना ही चाहते थे।
राम के मन में क्या था, यह तो पता लगाने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जो आदमी यह खोज कर रहा है, इसके मन की स्थिति तो सोचने जैसी हो जाती है।
आप जब तक अपने भीतर परमात्मा को न देख पाएं, तब तक राम में भी दिखाई नहीं पड़ेगा। और जिस दिन आप अपने भीतर देख पाएं, उस दिन रावण में भी दिखाई पड़ेगा। क्योंकि अपनी सारी पीड़ाओं, दुखों, चिंताओं, वासनाओं के बीच भी जब आपको भीतर की ज्योति दिखाई पड़ने लगती है, तो आप जानते हैं कि चाहे कितना ही पाप हो चारों तरफ, भीतर ज्योति तो परमात्मा की ही है। चाहे कांच पर कितनी ही धूल जम गई हो, और चाहे कांच कितना ही गंदा हो | गया हो, लेकिन भीतर की ज्योति तो निष्कलुष जल रही है। ज्योति पर कोई धूल नहीं जमती, और ज्योति कभी गंदी नहीं होती।
हां, ज्योति के चारों तरफ जो कांच का घेरा है, वह गंदा हो सकता है। जब आप अपने गंदे से गंदे घेरे में भी उस ज्योति का अनुभव कर लेते हैं, तत्क्षण सारा जगत उसी ज्योति से भर जाता है। ज्ञानी का लक्षण है, परमात्मा का सर्वत्र अनुभव करना। पांच मिनट रुकेंगे। बीच से कोई उठे न। कीर्तन पूरा हो जाए, तब जाएं।
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अध्याय 13 पांचवां प्रवचन
समस्त विपरीतताओं
का विलयपरमात्मा में
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गीता दर्शन भाग-
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ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वामृतमश्नुते । और उनके हिसाब से श्रद्धा को निर्मित करती है। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।। १२ ।। आप भगवान में श्रद्धा रखते हैं। इसलिए नहीं कि आपके हृदय
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । का कोई तालमेल परमात्मा से हो गया है, बल्कि इसलिए कि भय सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। १३ ।। मालूम पड़ता है। बचपन से डराए गए हैं कि अगर परमात्मा को न
सन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । माना, तो कुछ अहित हो जाएगा। यह भी समझाया गया है कि असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।। १४ ।। परमात्मा को माना, तो स्वर्ग मिलेगा, पुण्य होगा, भविष्य में सुख
और हे अर्जुन, जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर पाएंगे। मनुष्य अमृत और परमानंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी मन डरता है। मन भयभीत होता है। मन लोभ के पीछे दौड़ता प्रकार कहूंगा । वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से | है। लेकिन भीतर गहरे में आप जानते हैं कि आपका परमात्मा से
न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है। कोई संबंध नहीं है। परंतु वह सब ओर से हाथ-पैर वाला एवं सब ओर नेत्र, यह जो ऊपर की श्रद्धा है, जबरदस्ती आरोपित श्रद्धा है, यह . सिर और मुख वाला तथा सब ओर से श्रोत वाला है, | अंधी होगी। क्योंकि हृदय का तालमेल न हो, तो आंख नहीं हो क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है। | सकती। और ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, यह उसकी पहचान
और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु | होगी। ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, क्योंकि भीतर तो पता ही वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। तथा आसक्तिरहित है है कि परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। वह है या नहीं, यह भी पता और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सब को नहीं है। ऊपर-ऊपर से माना है। अगर कोई खंडन करने लगे, तर्क धारण-पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है। | देने लगे, तो भीतर भय होगा। भय दूसरे से नहीं होता, भीतर अपने
ही छिपा होता है।
अगर मेरी श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, अंधी है, तो मैं डरूंगा कि कोई पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि श्रद्धा क्या | मेरी श्रद्धा न काट दे। कोई विपरीत बातें न कह दे। विपरीत बातों है और अंध-श्रद्धा क्या है?
से डर नहीं आता। क्योंकि मेरी श्रद्धा कमजोर है, इसलिए डर है कि टूट न जाए। और मेरी श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, फट सकती है, छिद्र
हो सकते हैं। और छिद्र हो जाएं, तो मेरे भीतर जो अश्रद्धा छिपी है, 4ता के इस अध्याय को समझने में यह प्रश्न भी उसका मुझे दर्शन हो जाएगा। OM उपयोगी होगा।
ध्यान रहे, दुनिया में कोई आदमी आपको संदेह में नहीं डाल अंध-श्रद्धा से अर्थ है, वस्तुतः जिसमें श्रद्धा न हो, | सकता। संदेह में डाल ही तब सकता है, जब संदेह आपके भीतर सिर्फ ऊपर-ऊपर से श्रद्धा कर ली गई हो। भीतर से आप भी जानते भरा हो। और श्रद्धा की पर्त भर हो ऊपर। पर्त तोड़ी जा सकती है, हों कि श्रद्धा नहीं है, लेकिन किसी भय के कारण या किसी लोभ | तो संदेह आपका बाहर आ जाएगा। के कारण या मात्र संस्कार के कारण, समाज की शिक्षा के कारण | जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं स्वीकार कर लिया हो।
| है। और जो आस्तिक डरता है कि कहीं ईश्वर के विपरीत कोई बात ऐसी श्रद्धा के पास आंखें नहीं हो सकतीं। क्योंकि आंखें तो तभी | | सुन ली, तो कुछ खतरा हो जाएगा, वह आस्तिक नहीं है; उसे अभी उपलब्ध होती हैं श्रद्धा को, जब हृदय उसके साथ हो। तो | | आस्था उपलब्ध नहीं हुई; वह अपने से ही डरा हुआ है। वह जानता अंध-श्रद्धा बुद्धि की ही बात है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा। है कि कोई भी जरा-सा कुरेद दे, तो मेरे भीतर का संदेह बाहर आ
क्योंकि आमतौर से लोग समझते हैं कि अंध-श्रद्धा हृदय की | | जाएगा। वह संदेह बाहर न आए, इसलिए वह पागल की तरह बात है, बुद्धि की नहीं। अंध-श्रद्धा बुद्धि की ही बात है; श्रद्धा हृदय अपने भरोसे के लिए लड़ता है। की बात है। बुद्धि सोचती है लाभ-हानि, हित-अहित, परिणाम, अंधे लोग लड़ते हैं, उद्विग्न हो जाते हैं, उत्तेजित हो जाते हैं। वे
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के समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में ॐ
आपका सिर तोड़ने को राजी हो जाएंगे, लेकिन आपकी बात सुनने क्योंकि स्त्रियां ज्यादा भयभीत होती हैं। और बूढ़ा होते-होते हर को राजी नहीं होंगे। वे केवल एक ही बात की खबर दे रहे हैं, वे आदमी स्त्रैण हो जाता है और भयभीत होने लगता है, डरने लगता आपसे नहीं डरे हुए हैं, वे खुद अपने से डरे हुए हैं। और कहीं आप | है। हाथ-पैर कंपने लगते हैं। जवानी का भरोसा चला जाता है। मौत उनकी उनसे ही मुलाकात न करवा दें, इससे आपसे डरे हुए हैं। करीब आने लगती है। जैसे-जैसे मौत करीब आती है, भय की
अंध-श्रद्धा लोभ और भय से जन्मती है; श्रद्धा अनुभव से | छाया बढ़ती है। भय की छाया बढ़ती है, तो भगवान का भरोसा जन्मती है। और जो आदमी अंध-श्रद्धा में पड़ जाएगा, उसकी श्रद्धा | | बढ़ता है। सदा के लिए बांझ हो जाएगी, उसे श्रद्धालु होने का मौका ही नहीं | __यह भरोसा झूठा है। इस भरोसे का असलियत से कोई संबंध मिलेगा। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि नास्तिक होना बेहतर है, | नहीं है। यह तो डर से पैदा हो रहा है। और डर से जो पैदा हो रहा बजाय झूठे आस्तिक होने के। क्योंकि नास्तिक होने में एक सच्चाई | है, उससे कोई क्रांति नहीं हो सकती जीवन में। तो है कि आप कहते हैं, मुझे पता नहीं है। जिस बात का मुझे पता बच्चों को हम डराकर धार्मिक बना लेते हैं। और सदा के लिए नहीं है, मैं भरोसा नहीं करूंगा। और एक संभावना है नास्तिक के | इंतजाम कर देते हैं कि वे कभी धार्मिक न हो पाएंगे। बच्चों को लिए कि अगर उसे कभी पता चलना शुरू हो जाए, तो वह भरोसा | डराया जा सकता है। मां-बाप शक्तिशाली हैं; समाज शक्तिशाली करेगा। लेकिन जिसने झूठा भरोसा कर रखा है, वह सच्चे भरोसे है; शिक्षक शक्तिशाली है। हम बच्चों को डर के आधार पर मंदिरों तक कैसे पहुंचेगा? झूठा भरोसा उसे यह खयाल दिला देता है कि | में झुका देते हैं, मस्जिदों में नमाज पढ़वा देते हैं, प्रार्थना करवा देते मुझे तो श्रद्धा उपलब्ध हो गई है।
| हैं। बच्चे मजबूरी में, डर की वजह से झुक जाते हैं, प्रार्थना कर लेते इस जमीन पर धर्म का न होना इसी कारण है, क्योंकि लोग झूठे| | हैं। और फिर यह भय ही उन्हें सदा झुकाए रखता है। आस्तिक हैं, इसलिए सच्ची आस्तिकता उपलब्ध नहीं हो पाती। लेकिन इस कारण कभी सच्ची श्रद्धा का जन्म नहीं होता। जिस और जब तक हम झूठी आस्तिकता का भरोसा रखेंगे, तब तक | | आदमी को नकली हीरे-मोती असली मालूम पड़ गए, वह असली जमीन अधार्मिक रहेगी। आप अपने से ही पूछे, सच में आपको | की खोज ही नहीं करेगा। ईश्वर में कोई भरोसा है?
धार्मिक व्यक्ति भय से प्रभावित नहीं होता, न लोभ से आंदोलित मेरे एक शिक्षक थे, नास्तिक थे। उनकी मरण-तिथि पर मैं उनके होता है। धार्मिक व्यक्ति तो सत्य की तलाश में होता है। और उस घर मौजूद था। बहुत बीमार थे, उनको देखने गया था। फिर उनके | | तलाश के लिए कोई दूसरी प्रक्रिया है। उस तलाश के लिए चिकित्सक ने कहा कि एक-दो दिन से ज्यादा बचने की उम्मीद नहीं ऊपर-ऊपर से थोपने का कोई उपाय नहीं है, न कोई लाभ है। उस है, तो रुक गया था। नास्तिक थे सदा के, कभी मंदिर नहीं गए। तलाश के लिए भीतर उतरने की जरूरत है। आप जिस दिन अपने ईश्वर की बात से ही चिढ़ जाते थे। धर्म का नाम किसी ने लिया कि | | भीतर उतरना सीख जाएंगे, उसी दिन आपको सम्यक श्रद्धा भी वे विवाद में उतर जाते थे। लेकिन मरने की थोड़ी ही घडीभर पहले | उपलब्ध होने लगेगी। मैंने देखा कि वे राम-राम, राम-राम जप रहे हैं। धीमे-धीमे उनके जो व्यक्ति अपने भीतर जितना गहरा जाएगा, परमात्मा में उसकी होंठ हिल रहे हैं।
उतनी ही श्रद्धा हो जाएगी। जो व्यक्ति अपने से बाहर जितना तो मैंने उन्हें हिलाया और मैंने पूछा, यह क्या कर रहे हैं आखिरी भटकेगा, वह कितनी ही परमात्मा की बातें करे, उसकी श्रद्धा झूठी वक्त? तो उन्होंने बड़ी दयनीयता से मेरी तरफ देखा और उनके और अंधी होगी। आखिरी शब्द ये थे कि आखिरी वक्त भय पकड़ रहा है। पता नहीं, परमात्मा तक पहुंचने की एक ही सीढ़ी है, वह आप स्वयं हैं। ईश्वर हो, तो हर्ज क्या है राम-राम कर लेने में! नहीं हुआ तो कोई | न तो किसी मंदिर में जाने से उसकी श्रद्धा पैदा होगी, न किसी बात नहीं; अगर हुआ तो आखिरी क्षण स्मरण कर लिया। मस्जिद में जाने से पैदा होगी। उसका मंदिर, उसकी मस्जिद, उसका
यह भयभीत चित्त है। इसलिए अक्सर बूढ़े लोग आस्तिक हो | गुरुद्वारा आप हैं। वह आपके भीतर छिपा है। आप जैसे-जैसे अपने जाते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में बूढ़े स्त्री-पुरुष दिखाई | भीतर उतरेंगे, वैसे-वैसे उसका स्वाद, उसका रस, उसका अनुभव पड़ते हैं। और पुरुषों की बजाय स्त्रियां ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, | आने लगेगा। और उस अनुभव के पीछे जो श्रद्धा जन्मती है, वही
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
श्रद्धा है। लेकिन नकली सिक्कों से जो राजी हो गया, वह भीतर | अनुभव अगर हो जाए, तो जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह कामचलाऊ कभी जाता नहीं।
नहीं है। वह आत्यंतिक, अल्टिमेट है। उसमें फिर कोई संदेह नहीं झूठी श्रद्धा की कोई जरूरत भी नहीं है। क्योंकि जिस पर हम | हो सकता। सिर्फ एक अनुभव है स्वयं की आत्मा का, जो भरोसा कर रहे हैं, वह भीतर बैठा है। उस पर भरोसा करने की कोई | असंदिग्ध कहा जा सकता है; बाकी सब अनुभव संदिग्ध हैं। सब जरूरत नहीं है, उसका तो अनुभव ही किया जा सकता है। और में धोखा हो सकता है। जिसका अनुभव किया जा सकता है, उसका भरोसा क्या करना? | ___ पिछले महायुद्ध में एक सैनिक फ्रांस के एक अस्पताल में भरती क्या जरूरत?
हुआ। उसके पैर में भयंकर चोट पहुंची थी और असह्य पीड़ा थी ___ आप सूरज पर विश्वास नहीं करते। कोई आपसे पूछे कि आपकी | और पीड़ा के कारण वह बेहोश हो गया था। चिकित्सकों ने देखा
सूरज में श्रद्धा है? तो आप हंसेंगे कि आप कैसा व्यर्थ का सवाल कि उसका पैर बचाना असंभव है, और अगर पैर नहीं काट दिया पूछते हैं! सूरज है; श्रद्धा का क्या सवाल? श्रद्धा का सवाल तो तभी | गया, तो पूरे शरीर में भी जहर फैल सकता है। इसलिए घुटने के उठता है उन चीजों के संबंध में, जिनका आपको पता नहीं है। नीचे का हिस्सा उन्होंने काट दिया। वह बेहोश था। ___आपसे कोई नहीं पूछता कि आपकी पृथ्वी में श्रद्धा है ? पृथ्वी है, सुबह जब उसे होश आया, तो उसके पास खड़ी नर्स से उसने श्रद्धा का क्या सवाल है। लेकिन लोग पूछते हैं, ईश्वर में श्रद्धा है? | | पहली बात यही कही कि मेरे पैर में बहुत तकलीफ हो रही है, मेरे आत्मा में श्रद्धा है? और आप कभी नहीं सोचते कि ये भी असंगत | पंजे में असह्य पीड़ा है। पंजा तो था नहीं। इसलिए पीड़ा तो हो नहीं सवाल हैं। लेकिन आप कहते हैं, श्रद्धा है या नहीं है। क्योंकि जिन सकती पंजे में। पैर तो काट दिया था। लेकिन उसे तो पता नहीं था; चीजों के संबंध में पूछा जा रहा है, वे आपको अनुभव की नहीं | वह तो बेहोशी में था। होश आते ही उसने जो पहली बात कही, मालूम होती।
उसने कहा कि मेरे पंजे में बहुत पीड़ा है। वह तो बंधा कंबल में पड़ा लेकिन धर्म का यही आग्रह है कि वे भी उतने ही अनुभव की। | हुआ है। उसे कुछ पता नहीं है। है, जितना पृथ्वी और सूरज; शायद इससे भी ज्यादा अनुभव की नर्स हंसने लगी। उसने कहा कि फिर से थोड़ा सोचो। सच में हैं। क्योंकि यह तो हो भी सकता है कि सूरज का हमें भ्रम हो रहा पंजे में पीड़ा है? उस आदमी ने कहा, इसमें भी कोई झूठ होने का हो। क्योंकि सूरज बाहर है और हमारा उससे सीधा मिलना कभी सवाल है ? असह्य पीड़ा हो रही है मुझे। उस नर्स ने कहा, लेकिन नहीं होता।
तुम्हारा पैर तो काट दिया गया है, इसलिए यह तो माना नहीं जा वैज्ञानिक कहते हैं कि हम किसी भी चीज को सीधा नहीं देख सकता कि तुम्हारे पंजे में पीड़ा हो रही है। जो पंजा अब है ही नहीं, सकते। सूरज को आपने कभी देखा नहीं है आज तक। क्योंकि उसमें पीड़ा कैसे हो सकती है? सूरज को आप देखेंगे कैसे सीधा? सूरज की किरणें आती हैं, वे | नर्स ने कंबल उघाड़ दिया। उस आदमी ने देखा, उसके घुटने के आपकी आंख पर पड़ती हैं। वे किरणें आपकी आंख में रासायनिक | | नीचे का पैर तो कट गया है। लेकिन उसने कहा कि मैं देख रहा हूं परिवर्तन पैदा करती हैं। वे रासायनिक परिवर्तन आपके भीतर कि मेरे घुटने के नीचे का पैर कट गया है, लेकिन फिर भी मुझे पंजे विद्युत प्रवाह पैदा करते हैं। वे विद्युत-प्रवाह आप तक पहुंचते हैं, | | में ही पीड़ा हो रही है; मैं क्या कर सकता हूं! उनकी चोट। वह चोट आपको अनुभव होती है।
डाक्टर बुलाए गए। उन्होंने बड़ी खोजबीन की। यह पहला मौका आज तक सूरज कभी आपने देखा नहीं। सूरज को देखने का | | था कि कोई आदमी ऐसी पीड़ा की बात कर रहा है, जो अंग ही न कोई उपाय नहीं है। अभी आप मुझे देख रहे हैं। लेकिन मैं आपको | | बचा हो! आपका सिर किसी ने काट दिया और आप कह रहे हैं, दिखाई नहीं पड़ रहा। आपको दिखाई तो भीतर रासायनिक परिवर्तन | सिर में दर्द हो रहा है! पैर बचा ही नहीं, तो पंजे में दर्द नहीं हो हो रहे हैं। सीधा पदार्थ को अनुभव करने का कोई उपाय नहीं है। ।
| सकता। घुटने में दर्द हो सकता है, क्योंकि वहां से काटा गया है। बीच में इंद्रियों की मध्यस्थता है।
| लेकिन वह आदमी कहता है, घुटने में मुझे दर्द नहीं; मुझे दर्द तो इसलिए यह तो हो भी सकता है कि सूरज न हो। सूरज के | पंजे में है। संबंध में जो श्रद्धा है, वह कामचलाऊ है। लेकिन स्वयं का तो उसका बहुत अन्वेषण किया गया। और पाया गया कि दर्द
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KO समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में
जब आपके पंजे में होता है, तो उससे सीधा तो आपकी मुलाकात दबाएंगे। चूहे को इतना रस आ रहा है, तो चूहों की कामुकता के होती नहीं। पंजे से स्नायुओं का जाल फैला हुआ है मस्तिष्क तक। बाबत कोई बहुत ज्यादा खबर नहीं है, लेकिन आदमी तो बहुत वे स्नायु कंपते हैं, उनके कंपन से आपको दर्द का पता चलता है। | कामुक मालूम होता है। वह तो फिर दबाता ही रहेगा। चूहा भी जब पंजा तो काट दिया गया। लेकिन जो स्नायु पंजे के दर्द में कंपना तक बेहोश होकर नहीं गिर गया, एक्झास्टेड, तब तक वह दबाता शुरू हुए थे, वे अब भी कंप रहे हैं। इसलिए उनके कारण उस | | ही रहा। आदमी को खबर मिल रही है कि पंजे में दर्द हो रहा है। पंजा नहीं __ जो कुछ भी बाहर घटित हो रहा है, वह आपके मस्तिष्क में है, और पंजे में दर्द हो रहा है!
| पहुंचता है तंतुओं के द्वारा। इसलिए उसके बाबत सचाई नहीं है कि उस आदमी के अन्वेषण से यह तय हुआ कि बाहर से जो भी | | बाहर सच में घटित हो रहा है या सिर्फ तंतु खबर दे रहे हैं। आपको घटनाएं आपको मिल रही हैं, उनके बाबत पक्का नहीं हुआ जा | | धोखे में डाला जा सकता है। सकता। निश्चित नहीं है; संदिग्ध है। बिना पंजे के दर्द हो सकता। सिर्फ अनुभव तो एक है असंदिग्ध, जिस पर श्रद्धा हो सकती है। बिना आदमी के मौजूद आपको आदमी दिखाई पड़ सकता है। है। और वह अनुभव है भीतर का, जो इंद्रियों के माध्यम से घटित अगर आपके भीतर वे ही स्नायु कंपित कर दिए जाएं, जो आदमी | नहीं होता। जिसका सीधा साक्षात्कार होता है। के मौजूद होने पर कंपित होते हैं, तो आपको आदमी दिखाई पड़ना | | __तो जितना कोई व्यक्ति अपने भीतर उतरता है, उतना ही परमात्मा शुरू हो जाएगा।
| में श्रद्धा बढ़ती है। इसलिए महावीर ने तो कहा है, परमात्मा की बात अभी उन्होंने चूहों पर बहुत-से प्रयोग किए। स्लेटर ने एक यंत्र ही मत करो। सिर्फ आत्मा को जान लो और तुम परमात्मा हो छोटा-सा बनाया है। जब कोई व्यक्ति, पुरुष-स्त्री, पशु-पक्षी, जाओगे। इसलिए महावीर ने परमात्मा की बात के लिए भी मना कर कोई भी संभोग करता है, तो संभोग में जो रस आता है वह रस दिया। न तो उसकी बात करो, न उस पर श्रद्धा करो। तुम सिर्फ कहां आता है ? क्योंकि संभोग तो घटित होता है यौन-केंद्र के पास | | आत्मा को जान लो और तुम परमात्मा हो जाओगे। क्योंकि उसके
और रस आता है मस्तिष्क में, तो जरूर मस्तिष्क में कोई तंतु कंपते जानने में ही वह अनुभव तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा, जो परम और होंगे जिनके कारण रस आता है।
आत्यंतिक है। . तो स्लेटर ने उन तंतुओं की खोज की चूहों में। और उसने एक | | श्रद्धा का अर्थ है, अनुभव पर आधारित। अंध-श्रद्धा का अर्थ छोटा-सा यंत्र बनाया। और मस्तिष्क से इलेक्ट्रोड जोड़ दिए, | | है, लोभ, भय पर आधारित। आप अपने भीतर खोज करें कि बिजली के तार जोड़ दिए। और जैसे ही वह बटन दबाता, चूहा वैसे | | आपकी श्रद्धाएं लोभ पर आधारित हैं, भय पर आधारित हैं या ही आनंदित होने लगता, जैसा संभोग में होता है। फिर तो उसने एक | अनुभव पर आधारित हैं। अगर लोभ और भय पर आधारित हैं, तो ऐसा यंत्र बनाया कि बंटन चूहे के सामने ही लगा दी। और चूहे को आप अंध-श्रद्धा में जी रहे हैं। ही अनभव हो गया। जब चहे ने बार-बार बटन स्लेटर को दबाते और जो अंध-श्रद्धा में जी रहा है वह धार्मिक नहीं है. और वह देखा और उसे आनंद आया भीतर, तो चूहा खुद बटन दबाने लगा। बड़े खतरे में है। वह अपने जीवन को ऐसे ही नष्ट कर देगा। श्रद्धा
फिर तो स्लेटर ने लिखा है कि चूहे ने खाना-पीना सब बंद कर | | में जीने की शुरुआत ही धार्मिक होने की शुरुआत है। दिया। वह एकदम बटन दबाता ही चला जाता, जब तक कि बेहोश न हो जाता। एक चूहे ने छः हजार बार बटन दबाया। दबाता ही गया। दबाएगा, आनंदित होगा, फिर दबाएगा, फिर आनंदित | | एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि कल आपने कहा कि होगा। छः हजार बार उसने संभोग का रस लिया। और संभोग तो एक के प्रति अनन्य प्रेम व श्रद्धा को अव्यभिचारिणी हो नहीं रहा; मस्तिष्क में तंत हिल रहे हैं।
| की संज्ञा दी तथा अनेक के प्रति प्रेम व श्रद्धा को स्लेटर का कहना है कि यह यंत्र अगर कभी विकसित हुआ, तो व्यभिचारिणी कहा। साधारणतः स्थिति उलटी लगती मनुष्य संभोग से मुक्त भी हो सकता है। लेकिन यह खतरनाक यंत्र है। अर्थात एक के प्रति प्रेम मोह व आसक्ति बन है। अगर चूहा छः हजार बार दबाता है, तो आप साठ हजार बार जाती है और अनेक के प्रति प्रेम मुक्ति व प्रेम का
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गीता दर्शन भाग-6
विस्तार तथा प्रार्थना बन जाती है। दूसरी बात यह कि अनेक को प्रेम कर पाना प्रेम का विस्तार व विकास लगता है, व्यभिचारी भाव नहीं । इस विरोधाभास के संबंध में कहें। कुछ
दो
बातें हैं। एक तो एक और अनंत, और इन दोनों के बीच में है अनेक या तो अनंत को प्रेम करें, तो मुक्त हो जाएंगे। और या एक को प्रेम करें, तो मुक्त हो । जाएंगे। अनेक उलझा देगा। अनेक व्यभिचार है, अनंत नहीं । या तो एक को प्रेम करें कि सारा प्रेम एक पर आ जाए। इसलिए नहीं कि एक का प्रेम मुक्त करेगा। कल भी मैंने कहा, एक पर अगर प्रेम करेंगे, तो आप भीतर एक हो जाएंगे।
प्रेम तो कला है स्वयं को रूपांतरित करने की। अगर एक को प्रेम किया, तो आप एक हो जाएंगे। और या फिर अनंत को प्रेम करें, तो आप अनंत हो जाएंगे।
लेकिन अनेक को प्रेम मत करें, नहीं तो आप खंड-खंड हो जाएंगे।
एक का प्रेम मोह बन सकता है, अनेक का प्रेम भी मोह बनेगा; सिर्फ जरा बदलता हुआ मोह रहेगा। एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है, तो अनेक का प्रेम भी आसक्ति बनेगा। और एक का प्रेम जब इतनी आसक्ति और इतना कष्ट देता है, तो अनेक का प्रेम और आसक्ति और भी ज्यादा कष्ट देगा।
लोग सोचते हैं कि अनेक को प्रेम करने से प्रेम मुक्त होगा, गलत खयाल में हैं। और जो भी वैसा सोचते हैं, वे असल में रुग्ण हैं। जैसे लार्ड बायरन, इस तरह के लोग, डान जुआन टाइप लोग, जो एक को प्रेम, दो को प्रेम, तीन को प्रेम, इसी चक्कर में भटकते रहते हैं।
पहले तो लोग सोचते थे, मनोवैज्ञानिक भी सोचते थे कि जो डान जुआन टाइप का आदमी जो है, यह बड़ा प्रेमी है। इसके पास इतना प्रेम है कि एक व्यक्ति पर नहीं चुकता, इसलिए बहुत-से व्यक्तियों को प्रेम करता फिरता है। लेकिन अब मनसविद मानते हैं कि यह रुग्ण है। बहुत प्रेम नहीं है, प्रेम है ही नहीं। इसको प्रेम करना ही नहीं आता। और इसलिए केवल व्यक्तियों को बदलता चला जाता है।
और जितना आप व्यक्तियों को बदलेंगे, उतना छिछला हो जाएगा प्रेम । क्योंकि गहराई के लिए समय चाहिए। और गहराई के
लिए आत्मीयता चाहिए। और गहराई के लिए निकट साहचर्य चाहिए ।
अगर एक व्यक्ति रोज एक स्त्री बदल लेता है और प्रेम करता चला जाता है, तो उसका प्रेम शरीर से गहरा कभी भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि शरीर से ज्यादा संबंध ही नहीं हो पाएगा। मन तो तब संबंधित होता है, जब दो व्यक्ति सुख-दुख में साथ रहते हैं। और आत्मा तो तब संबंधित होती है, जब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दूसरे की मौजूदगी भी पता नहीं चलती कि दूसरा मौजूद है। जब दो व्यक्ति एक कमरे में इस भांति होते हैं, जैसे एक ही व्यक्ति हो, दो हैं ही नहीं, तब कहीं भीतर की आत्मा का संबंध स्थापित होता है।
एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है। जरूरी नहीं है कि बने । . बनाने वाले पर निर्भर करता है। और जो एक के साथ आसक्ति बना लेगा, वह अनेक के साथ भी आसक्ति बना लेगा। एक के साथ प्रेम प्रार्थना भी बन सकता है। वह बनाने वाले पर निर्भर है।
जिस व्यक्ति को आप प्रेम करते हैं, अगर वह प्रेम केवल शरीर का ही प्रेम न हो, अगर उसके भीतर के मनुष्यत्व का और उसके भीतर की आत्मा का भी प्रेम हो; और धीरे-धीरे बाहर गौण हो | जाए, और भीतर प्रमुख जाए; और धीरे-धीरे उसका आकार और रूप भूल जाए और उसका निराकार और निर्गुण स्मरण में रहने लगे, तो वह प्रेम प्रार्थना बन गया।
और अच्छा है कि एक के साथ ही यह प्रेम प्रार्थना बने। क्योंकि एक के साथ गहराई आसान है; अनेक के साथ गहराई आसान नहीं है । अनेक के साथ प्रेम ऐसा ही है, जैसे एक आदमी एक हाथ जमीन यहां खोदे, दो हाथ जमीन कहीं और खोदे, तीन हाथ जमीन | कहीं और खोदे, और जिंदगीभर इस तरह खोदता रहे और कुआं | कभी भी न बने। क्योंकि कुआं बनाने के लिए एक ही जगह खोदते जाना जरूरी है। साठ हाथ, सौ हाथ एक ही जगह खोदे, तो शायद जल स्रोत उपलब्ध हो पाए ।
दो व्यक्तियों के बीच अगर गहरा प्रेम हो, तो वे एक ही जगह खोदते चले जाते हैं। खोदते खोदते एक दिन शरीर की पर्त टूट जाती है, मन की पर्त भी टूट जाती है और एक-दूसरे के भीतर के चैतन्य का संस्पर्श शुरू होता है। पति-पत्नी अगर गहरे प्रेम में हों, तो एक-दूसरे में परमात्मा को खोज ले सकते हैं। दो प्रेमी परमात्मा को खोज ले सकते हैं। उनका प्रेम धीरे-धीरे प्रार्थना बन जाएगा।
लेकिन अगर यह लगता हो कि इसमें खतरा है, तो खतरा इस कारण नहीं लगता कि एक व्यक्ति के प्रति प्रेम में खतरा है। खतरा
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0 समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में -
अपने ही किसी दोष के कारण लगता है।
गीता में, न कुरान में। सबको ठीक कहने का मतलब ऐसा नहीं है तो दूसरा उपाय है। और वह दूसरा उपाय है, अनंत के प्रति प्रेम। कि वे जानते हैं कि सब ठीक है। सबको ठीक कहने का मतलब तब फिर एक का खयाल ही छोड़ दें; अनेक का भी खयाल छोड़ यह है कि हमें कोई मतलब ही नहीं है। सभी ठीक है। उपेक्षा का दें। फिर रूप का खयाल ही छोड़ दें, शरीर का खयाल ही छोड़ दें। | भाव है। कोई रस नहीं है, कोई लगाव नहीं है। एक इनडिफरेंस है। फिर तो अनंत का, शाश्वत का, जो चारों तरफ मौजूद निराकार है, | इस उपेक्षा से कोई आस्तिकता तो पैदा होगी नहीं। क्योंकि इस उसके प्रेम में लीन हों। फिर पत्थर से भी प्रेम हो, वृक्ष से भी प्रेम उपेक्षा से कोई काम ही नहीं हो सकता। न मंदिर में झुकते हैं वे, न हो, आकाश में घूमते हुए बादल के टुकड़े से भी प्रेम हो। फिर | | मस्जिद में झुकते हैं। व्यक्तियों का सवाल न रहे; फिर अनंत के साथ प्रेम हो। तो भी यह भी हो सकता है, ऐसे लोग भी हैं, जो मंदिर के सामने भी व्यभिचार पैदा न होगा। .
झुक जाते हैं, मस्जिद के सामने भी झुक जाते हैं। लेकिन उनका एक के साथ अव्यभिचार हो सकता है और अनंत के साथ | | झुकना औपचारिक है। लेकिन एक अनन्य भाव नहीं है। अव्यभिचार हो सकता है। दोनों के बीच में व्यभिचार पैदा होगा। वह जो आदमी कहता है कि नहीं, मस्जिद में ही भगवान हैं;
और आदमी बहुत बेईमान है। और अपने को धोखा देने में बहुत | भला हमें उसकी बात जिद्दपूर्ण मालूम पड़े, और परम ज्ञान की दृष्टि कुशल है। अभी पश्चिम में इसकी बहुत तेज हवा है। क्योंकि | से जिद्दपूर्ण है। परम ज्ञान की दृष्टि से मंदिर में भी है, मस्जिद में पश्चिम में मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि एक के साथ प्रेम जडता बन | भी है, गुरुद्वारा में भी है। लेकिन परम ज्ञान की दृष्टि से! वह अभी जाता है, कुंठा बन जाता है, अवरोध हो जाता है; प्रेम तो मुक्त होना | | परम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ है। अभी तो उचित है कि उसका चाहिए। और मक्त प्रेम मक्ति लाएगा। तो उसका परिणाम केवल | एक के प्रति ही पूरा भाव हो। वह अभी मंदिर में ही पूरा डूब जाए गहरी अनैतिकता है। न तो कोई मुक्ति आ रही है, न कोई प्रेम आ या मस्जिद में ही पूरा डूब जाए। रहा है, न कोई प्रार्थना आ रही है। लोग व्यक्तियों को बदलते जा रहे | जिस दिन वह मस्जिद में पूरा डूब जाएगा, उस दिन मस्जिद में हैं और व्यक्तियों के साथ एक तरह का खिलवाड़ शुरू हो गया है। | ही मंदिर भी प्रकट हो जाएगा। लेकिन वह बाद की बात है। अभी वह जो पवित्रता है, वह जो आत्मीयता है, उसका उपाय ही नहीं रहा। मस्जिद में भी डूबा नहीं, मंदिर में भी डूबा नहीं। और वह कहता
आज एक स्त्री है, कल दूसरी स्त्री है। आज एक पति है, कल | | है, सब ठीक है। मंदिर में भी सिर झुका लेता हूं, मस्जिद में भी सिर दूसरा पति है। पति-पत्नी का भाव ही गिरता जा रहा है। दो व्यक्तियों| | झुका लेता हूं। उसका हृदय कहीं भी नहीं झुकेगा। के बीच जैसे क्षणभर का संबंध है। न कोई दायित्व है, न कोई गहरा - यह ऐसा है, जैसे आपका किसी स्त्री से प्रेम हो जाए। जब लगाव है, न कोई कमिटमेंट। नहीं, कुछ भी नहीं है। एक ऊपर के आपका किसी स्त्री से प्रेम हो जाता है, तो आपको लगता है, ऐसी तल पर मिलना-जुलना है। यह मिलना-जुलना खतरनाक है। और सुंदर स्त्री जगत में दूसरी नहीं है। यह कोई सच्ची बात नहीं है। इसके परिणाम पश्चिम में प्रकट होने शुरू हो गए हैं। क्योंकि न तो आपने सारी जगत की स्त्रियां देखी हैं, न जांच-परख
आज पश्चिम में प्रेम की इतनी चर्चा है, और प्रेम बिलकुल नहीं। की है, न तौला है। यह वक्तव्य गलत है। और यह आप कैसे कह है। क्योंकि प्रेम के लिए अनिवार्य बात थी कि एक व्यक्ति के साथ सकते हैं बिना दुनियाभर की स्त्रियों को जाने हुए कि तुझसे सुंदर गहरी संगति हो। और एक व्यक्ति के प्रति ऐसा भाव हो कि जैसे | कोई भी नहीं है! उस व्यक्ति के अतिरिक्त अब तुम्हारे लिए जगत में और कोई नहीं लेकिन आपकी भाव-दशा यह है। अगर आज सारी दुनिया की है, तो ही उस व्यक्ति में गहरे उतरना संभव हो पाएगा। स्त्रियां भी खड़ी हों, तो भी आपको यही लगेगा कि यही स्त्री सबसे
कृष्ण ने जो कहा है, अव्यभिचारिणी भक्ति, उसका प्रयोजन | | ज्यादा सुंदर है। सौंदर्य स्त्री में नहीं होता, आपके प्रेम के भाव में यही है।
होता है। और जब किसी स्त्री पर आपका प्रेम-भाव आरोपित हो एक मित्र को मैं जानता हूं। वे कहते हैं, कुरान भी ठीक, गीता जाता है, तो वही सुंदर है। सारा जगत फीका हो जाता है। इस क्षण भी ठीक, बाइबिल भी ठीक, सभी ठीक। मस्जिद भी ठीक, मंदिर | में, इस भाव-दशा में, यही सत्य है। भी ठीक। लेकिन न तो उन्हें मंदिर में रस है और न मस्जिद में; न और आप ज्ञान की बातें मत करें, कि आप कहें कि नहीं, दूसरी
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
स्त्री भी सुंदर है; यह भी सुंदर है और सभी सुंदर हैं। सुंदर तो सभी | | हो, तो सभी नाम बराबर हैं। जिस आदमी को चलना नहीं है, वह हैं। और यह बात कहनी ठीक नहीं है, क्योंकि गणित के हिसाब से | | आदमी इस तरह की बातें कर सकता है। लेकिन जिसको चलना ठीक नहीं बैठती। तो आप कभी प्रेम में ही न पड पाएंगे। और अगर है. उसका सिर तो एक जगह झकना चाहिए। क्योंकि
ने के लिए सच में आप प्रेम में पड़ जाएं, तो उस क्षण में एक स्त्री, एक पुरुष | | जो अनन्य भाव न हो, तो पूरा समर्पण नहीं हो सकता। आपको परम सुंदर मालूम पड़ेगा।
मस्जिद में गया हुआ आदमी सोचता है, मंदिर भी ठीक, गिरजा ___ उसमें अगर आप लीन हो सकें, तो धीरे-धीरे स्त्री का व्यक्तित्व | | भी ठीक, गुरुद्वारा भी ठीक, तो झुक नहीं सकता। वह जो झुकने
खो जाएगा। और स्त्रैण तत्व का सौंदर्य दिखाई पड़ने लगेगा। और | की दशा चाहिए कि डूब जाए पूरा, वह नहीं हो सकता। वह तो होगा गहरे उतरेंगे, तो स्त्रैण तत्व भी खो जाएगा, सिर्फ चैतन्य का सौंदर्य अनन्य भाव से। अनुभव में आने लगेगा। जितने गहरे उतरेंगे, सीमा टूटती जाएगी तो कृष्ण जो कहते हैं अव्यभिचारिणी भक्ति, उसका अर्थ है,
और असीम प्रकट होने लगेगा। लेकिन प्राथमिक क्षण में तो यही एक के प्रति। फिर सवाल यह नहीं है कि वह अल्लाह के प्रति हो, भाव पैदा होगा कि इससे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं है। कि राम के प्रति हो, कि बुद्ध के प्रति हो, कि महावीर के प्रति हो,
बहुत बार धार्मिक, सामाजिक सुधार करने वाले लोग, बहुत | यह सवाल नहीं है। किसी के प्रति हो. वह एक के प्रति हो। तरह के नुकसान पहुंचा देते हैं। वे समझा देते हैं, अल्लाह ईश्वर इस संबंध में यह बात समझ लेनी जरूरी है कि दुनिया के जो तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। वे बिलकुल ठीक कह रहे हैं। | पुराने दो धर्म हैं, यहूदी और हिंदू, बाकी सब धर्म उनकी ही शाखाएं और फिर भी गलत कह रहे हैं। क्योंकि जिस आदमी को ऐसा लग हैं। इस्लाम, ईसाइयत यहूदी धर्म की शाखाएं हैं। जैन, बौद्ध हिंदू गया, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, न तो अल्लाह के प्रति डूबने की | धर्म की शाखाएं हैं। लेकिन मौलिक धर्म दो हैं, हिंदू और यहूदी। क्षमता आएगी और न राम के प्रति डूबने की क्षमता आएगी। और दोनों के संबंध में एक बात सच है कि दोनों ही नान-कनवर्टिंग
प्राथमिक क्षण में तो ऐसा मालूम होना चाहिए कि अल्लाह ही | | हैं। न तो यहूदी पसंद करते हैं कि किसी को यहूदी बनाया जाए सत्य है, राम वगैरह सब व्यर्थ। या राम ही सत्य है, अल्लाह वगैरह | समझा-बुझाकर। और न हिंदू पसंद करते रहे हैं कि किसी को सब व्यर्थ। प्राथमिक क्षण में तो यह प्रेम का ही भाव होना चाहिए। | समझा-बुझाकर हिंदू बनाया जाए। दोनों की मान्यता यह रही है कि
तम अनभव में पता चल जाएगा. शिखर पर पहंचकर, कि सभी किसी की भी जो अनन्य श्रद्धा हो, उससे उसे जरा भी हिलाया न रास्ते यहीं आते हैं।
| जाए। उसकी जो श्रद्धा हो, वह उसी श्रद्धा से आगे बढ़े। और अगर लेकिन जमीन पर बैठा हुआ आदमी, जो पहाड़ पर चढ़ा नहीं, कोई व्यक्ति आधे जीवन में परिवर्तित कर लिया जाए, तो उसकी वह कहता है, सभी रास्ते वहीं जाते हैं। फिर वह चलेगा कैसे! श्रद्धा कभी भी अनन्य न हो पाएगी। चलना तो एक रास्ते पर होता है। सभी रास्तों पर कोई भी नहीं चल __ एक बच्चा हिंदू की तरह पैदा हुआ और तीस साल तक हिंदू भाव सकता। चलने के लिए तो यह भाव होना चाहिए कि यही रास्ता | में बड़ा हुआ। और फिर तीस साल के बाद उसे यहूदी बना दिया जाता है. बाकी कोई रास्ता नहीं जाता। तो ही हिम्मत, उत्साह पैदा | जाए। वह यहूदी भला बन जाए, लेकिन भीतर हिंदू रहेगा, ऊपर होता है। लेकिन जो चला नहीं है, बैठा है अभी दरवाजे पर ही यात्रा यहूदी रहेगा। और ये दो परतें उसके भीतर रहेंगी। इन दो परतों के के, वह कहता है, सभी रास्ते वहां जाते हैं। वह चल ही नहीं पाएगा, कारण वह कभी भी एक भाव को और एक समर्पण को उपलब्ध पहला कदम ही नहीं उठेगा।
नहीं हो पाएगा। तो जो अंतिम रूप से सत्य है, वह प्रथम रूप से सत्य हो, यह इसलिए दुनिया के ये पुराने दो धर्म नान-कनवर्टिग थे। इन्होंने जरूरी नहीं है। और जो प्रथम रूप से सत्य मालूम होता है, वह अंत | | कहा, हम किसी को बदलेंगे नहीं। अगर कोई बदलने को भी में भी बचेगा, यह भी जरूरी नहीं है।
आएगा, तो भी बहुत विचार करेंगे, बहुत सोचेंगे, समझेंगे-तब। __ आखिर में तो न अल्लाह उसका नाम है और न राम उसका नाम | | जहां तक तो कोशिश यह करेंगे उसको समझाने की कि वह बदलने है। उसका कोई नाम ही नहीं है। लेकिन प्राथमिक रूप से तो कोई की चेष्टा छोड़ दे। वह जहां है, जिस तरफ चल रहा है, वहीं अनन्य एक नाम को ही पकड़कर चलना, अगर चलना हो। अगर बैठना | | भाव से चले। वहीं से पहुंच जाए।
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समस्त विपरीतताओं का विलय - परमात्मा में
इसमें बड़ी समझने की बात है, बहुत विचारने की बात है। क्योंकि व्यक्ति को हम जितनी ज्यादा दिशाएं दे दें, उतना ही ज्यादा चलना मुश्किल कर देते हैं।
कृष्ण का यह कहना कि तू अनन्य भाव से एक के प्रति समर्पित हो जा, इसका प्रयोजन है। क्योंकि तब तू भीतर भी एक और इंटिग्रेटेड हो जाएगा। और वह जो तेरे भीतर एकत्व घटित होगा, वही तुझे परमात्मा की तरफ ले जाने वाला है।
अगर यह बात ठीक न लगती हो, तो अनेक विकल्प नहीं है। विकल्प है फिर, अनंत। तो फिर अनंत के प्रति समर्पित हो जाएं। दो के बीच चुनाव कर लें। लेकिन अनेक खतरनाक है। अनेक दोनों के बीच में है, और उससे व्यभिचार पैदा होता है। और आप खंड-खंड हो जाते हैं, टूट जाते हैं। और आपका टूटा हुआ व्यक्तित्व किसी भी गहरी यात्रा में सफल नहीं हो सकता। अब हम सूत्र
और हे अर्जुन, जो जानने के योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य अमृत और परम आनंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा।
जो जानने के योग्य है...।
इसे थोड़ा हम खयाल में ले लें। बहुत-सी बातें जानने की इच्छा पैदा होती है, जिज्ञासा पैदा होती है, कुतूहल पैदा होता है। लेकिन हम यह कभी नहीं सोचते कि सच में वे बातें जानने योग्य भी हैं या नहीं । कुतूहल काफी नहीं है। क्योंकि कुतूहल से कुछ हल न होगा, समय और शक्ति व्यय होगी।
बहुत-सी बातें हम जानने की कोशिश करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि जानकर क्या करेंगे। बच्चों जैसी उत्सुकता है । अगर बच्चों को साथ ले जाएं, तो वे कुछ भी पूछेंगे, कुछ भी सवाल उठाते जाएंगे। और ऐसा भी नहीं है कि सवालों से उन्हें कुछ मतलब है। अगर आप जवाब न दें, तो एक-दो क्षण बाद वे दूसरा सवाल उठाएंगे। पहले सवाल को फिर न उठाएंगे।
बच्चों की तो बात छोड़ दें। पास बड़े-बूढ़े आते हैं, उनसे भी मैं चकित होता हूं। आते हैं सवाल उठाने । कहते हैं कि बड़ी जिज्ञासा है । और मैं दो मिनट कुछ और बातें करता हूं, फिर वे घंटेभर बैठते हैं, लेकिन दुबारा वह सवाल नहीं उठाते। फिर वे चले जाते हैं। वह सवाल कुछ मूल्य का नहीं था। वह सिर्फ कुतूहल था, क्यूरिसिटी थी।
अभी तो पश्चिम के वैज्ञानिक भी यह सोचने लगे हैं कि हमें
विज्ञान के कुतूहल पर भी रोक लगानी चाहिए। क्योंकि विज्ञान कुछ भी पूछे चला जाता है, कुछ भी खोजे चला जाता है, बिना इसकी फिक्र किए कि इसका परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? इसको जान भी लेंगे, तो क्या होगा ?
जानने को तो बहुत है, और आदमी के पास समय तो थोड़ा है। | जानने को तो अनंत है, और आदमी की तो सीमा है । जानने के तो कितने आयाम हैं, और अगर आदमी ऐसा ही जानता रहे सभी रास्तों पर, तो खुद समाप्त हो जाएगा और कुछ भी जान न पाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है...।
जिसको जानने का मन होता है, वह जानने योग्य है, जरूरी नहीं है । फिर जानने योग्य क्या है? क्या है परिभाषा जानने योग्य की? जानने की जिज्ञासा तो बहुत चीजों की पैदा होती है - यह भी जान | लें, यह भी जान लें, यह भी जान लें।
कृष्ण कहते हैं— और भारत की पूरी परंपरा कहती है – कि जानने योग्य वह है, जिसको जानने पर फिर कुछ जानने को शेष न रह जाए। अगर फिर भी जानने को शेष रहे, तो वह जानने योग्य नहीं था। उससे तो प्रश्न थोड़ा आगे हट गया और कुछ हल न हुआ।
ट्रेंड रसेल ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि जब मैं बच्चा था और मेरी पहली दफा उत्सुकता दर्शन में बढ़ी, तो मैं सोचता था, दर्शनशास्त्र में सभी प्रश्नों के उत्तर हैं। नब्बे वर्ष का बूढ़ा होकर अब | मैं यह कह सकता हूं कि मेरी धारणा बिलकुल गलत थी और परिणाम बिलकुल दूसरा निकला है। दर्शनशास्त्र के पास उत्तर तो हैं ही नहीं, सिवाय प्रश्नों के। और पहले मैं सोचता था कि खोज करने से प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, और नब्बे वर्ष तक मेहनत करके अब मैं पाता हूं कि खोज करने से एक प्रश्न में से दस प्रश्न निकल आते हैं, उत्तर वगैरह कुछ भी मिलता नहीं है।
पूरे दर्शनशास्त्र का इतिहास पुराने प्रश्नों में से नए प्रश्न निकालने | का इतिहास है। उत्तर कुछ भी नहीं है। और जो लोग उत्तर देने की कोशिश भी करते हैं, उनका उत्तर भी कोई मानता नहीं है। उन उत्तर में से भी दस प्रश्न लोग खड़े करके पूछने लगते हैं। एक प्रश्न दूसरे प्रश्न को जन्म देता है, उत्तर कहीं दिखाई नहीं पड़ते। कारण कुछ होगा। और कारण यही है ।
धर्म पूछता है उसी प्रश्न को, जो पूछने योग्य है । और जानना चाहता है वही, जो जानने योग्य है। और दर्शनशास्त्र जानना चाहता है कुछ भी, जो भी जानने योग्य लगता है; जिसमें भी कुतूहल पैदा हो जाता है।
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0 गीता दर्शन भाग-60
दर्शनशास्त्र खुजली की तरह है। खुजाने का मन होता है, इसकी | जाएगा। और अगर समाधान चाहिए, तो फिर साधना की तैयारी बिना फिक्र किए कि परिणाम क्या होगा। खुजाते वक्त अच्छा भी करनी पड़ेगी। समाधान तो तेरे रूपांतरण से होगा। लगता है। लेकिन फिर लहू निकल आता है और पीड़ा होती है! तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है और जिसको जानकर ___धर्म कहता है, खुजाने के पहले पूछ लेना जरूरी है कि परिणाम | | मनुष्य अमृत को प्राप्त होता है...। क्या होगा। जिस जानने से और जानने के सवाल उठ जाएंगे, वह वही जानने योग्य है, जिसको जानकर आदमी अमृत को प्राप्त जानना व्यर्थ है। पर एक ऐसा जानना भी है, जिसको जानकर सब | | होता है। और अमृत परमानंद है, मृत्यु दुख है। जानने की दौड़ समाप्त हो जाती है। वह कब होगी? उस बात को हमारे सभी दुखों के पीछे मृत्यु छिपी है। अगर आप खोज भी ठीक से समझ लेना चाहिए। आखिर आदमी जानना ही क्यों | तो आप जिन बातों को भी दुख मानते हैं, उन सबके पीछे मृत्यु की चाहता है?
| छाया मिलेगी। चाहे ऊपर से दिखाई भी न पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, इसे हम ऐसा समझें कि अगर कोई मृत्यु न हो, तो दुनिया में | तो पाएंगे, सभी दुखों के भीतर मृत्यु छिपी है। जहां भी मृत्यु की दर्शनशास्त्र होगा ही नहीं। मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, जीवन | झलक मिलती है, वहीं दुख आ जाता है। क्या है? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, शरीर ही सब कुछ तो | बुढ़ापे का दुख है, बीमारी का दुख है, असफलता का दुख है, नहीं है, आत्मा भीतर है या नहीं? मृत्यु के कारण आदमी पूछता है, | सब मृत्यु का ही दुख है। धन छिन जाए, तो दुख है; वह भी मृत्यु जब शरीर गिर जाएगा तो क्या होगा? मृत्यु के कारण आदमी पूछता | का ही दुख है। क्योंकि धन से लगता है, इस जीवन को सुरक्षित है, परमात्मा है या नहीं है?
| करेंगे। धन छिन गया, असुरक्षित हो गए। थोड़ी कल्पना करें एक ऐसे जगत की, जहां मृत्यु नहीं है, जीवन | मकान जल जाए. तो दख होता है। वह भी मकान के जलने का शाश्वत है। वहां न तो आप पूछेगे आत्मा के संबंध में, न परमात्मा दुख नहीं है। मकान की दीवारों के भीतर मालूम होता था, सब ठीक के संबंध में। वहां दर्शनशास्त्र का जन्म ही नहीं होगा। है, सुरक्षित है। मकान के बाहर आकाश के नीचे खड़े होकर मौत सारा दर्शनशास्त्र मृत्यु से जन्मता है।
ज्यादा करीब मालूम पड़ती है। इसलिए धर्म कहता है, जब तक अमृत का पता न चल जाए, धन पास में न हो, तो मौत पास मालूम पड़ती है। धन पास में तब तक तुम्हारे प्रश्नों का कोई अंत न होगा, क्योंकि तुम मृत्यु के | हो, तो मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। धन की दीवार बीच में खड़ी कारण पूछ रहे हो। जब तक तुम्हें अमृत का पता न चल जाए, तब | हो, तो हम मौत को टाल सकते हैं, कि अभी कोई फिक्र नहीं; तक तुम पूछते ही रहोगे, पूछते ही रहोगे। और कोई भी उत्तर दिया | देखेंगे। और फिर धन हमारे पास है, कुछ न कुछ इंतजाम कर लेंगे।
न होगा, जब तक कि अमृत का अनुभव न मिल जाए। चिकित्सा हो सकती है, डाक्टर हो सकता है। कुछ होगा। हम मृत्यु ___ इसलिए बुद्ध अक्सर कहते थे उनके पास आए लोगों से, कि को पोस्टपोन कर सकते हैं। वह हो या न, यह दूसरी बात है। तुम प्रश्नों के उत्तर चाहते हो या समाधान? जो भी आदमी आता लेकिन हम अपने मन में सोच सकते हैं कि इतनी जल्दी नहीं है उसको तो एकदम से समझ में भी न पड़ता कि फर्क क्या है? कोई | कुछ, कुछ उपाय किया जा सकता है। धन पास में न हो, प्रियजन आदमी आकर पूछता कि ईश्वर है या नहीं? तो बुद्ध कहते, तू उत्तर | पास में न हों, अकेले आप खड़े हों आकाश के नीचे, मकान जल चाहता है कि समाधान? तो वह आदमी तो पहले चौंकता ही कि | | गया हो, मौत एकदम पास मालूम पड़ेगी। दोनों में फर्क क्या है? तो बुद्ध कहते, उत्तर अगर चाहिए, तो उत्तर | सफल होता है आदमी, तो मौत बहुत दूर मालूम पड़ती है। तो हां या न में दिया जा सकता है, कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। असफल होता है आदमी, तो खयाल आने लगते हैं उदासी के, मरने लेकिन तुझे उत्तर मिलेगा नहीं। क्योंकि मेरे कहने से क्या होगा! का भाव होने लगता है। उत्तर तो मैं दे सकता हूं; समाधान तुझे खोजना पड़ेगा। उत्तर तो ऐसे | जहां भी दुख है, समझ लेना कि वहां मौत कहीं न कहीं से झांक मुफ्त मिल सकता है, समाधान साधना से मिलेगा। उत्तर तो ऊपरी | रही है। होगा, समाधान आंतरिक होगा। तो तू ईश्वर है या नहीं, इसका उत्तर तो हम मृत्यु को जानते हुए और मृत्यु में जीते हुए कभी भी आनंद चाहता है कि समाधान? उत्तर चाहिए, तो शास्त्र में भी मिल | | को उपलब्ध नहीं हो सकते। हम भुला सकते हैं अपने को, कि मौत
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समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में
दूर है, लेकिन दूर से भी उसकी काली छाया पड़ती ही रहती है। क्योंकि आस्तिकता-नास्तिकता तो जीवन को दो हिस्सों में तोड़ हमारे सभी सखों में मौत की छाया आकर जहर घोल देती है, कितने लेती हैं। आस्तिक कहता है, ईश्वर है। नास्तिक कहता है, ईश्वर ही सुखी हों। बल्कि सच तो यह है कि सुख के क्षण में भी मौत की नहीं है। लेकिन दोनों एक ही भाषा का उपयोग कर रहे हैं। आस्तिक झलक बहुत साफ होती है, क्योंकि सुख के क्षण में भी तत्क्षण | कहता है, है में हमने ईश्वर को पूरा कह दिया। और नास्तिक कहता दिखाई पड़ता है कि क्षणभर का ही है यह सुख। वह जो क्षणभर का है कि नहीं है में हमने पूरा कह दिया। उनमें फर्क शब्दों का है। दिखाई पड़ रहा है, वह मौत की छाया है।
लेकिन दोनों दावा करते हैं कि हमने पूरे ईश्वर को कह दिया। पढ़ रहा था मैं हरमन हेस के बाबत। जिस दिन उसे नोबल प्राइज गीता कहती है कि कोई भी शब्द उसे पूरा नहीं कह सकता। मिली, उसने अपने मित्र को एक पत्र में लिखा है कि एक क्षण को | क्योंकि शब्द छोटे हैं और वह बहुत बड़ा है। हम कहेंगे है, तो भी मैं परम आनंदित मालूम हुआ। लेकिन एक क्षण को! और तत्क्षण | आधा कहेंगे, क्योंकि नहीं होना भी जगत में घटित होता है। वह भी उदासी छा गई, अब क्या होगा? अभी तक एक आशा थी कि | तो परमात्मा में ही घटित हो रहा है। नहीं है अगर परमात्मा के बाहर नोबल प्राइज। वह मिल गई; अब? घनघोर अंधेरा घेर लिया। अब | | हो, तो इसका अर्थ हुआ कि जगत के दो हिस्से हो गए। कुछ जीवन व्यर्थ मालूम पड़ा, क्योंकि अब कुछ पाने योग्य भी नहीं। | परमात्मा के भीतर है, और कुछ परमात्मा के बाहर है। तब तो मौत करीब दिखाई पड़ने लगी।
परमात्मा दो हो गए; तब तो जगत विभाजित हो गया। आदमी दौड़ता रहता है, जब तक सुख नहीं मिलता। जब मिलता । अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ जीवन है, तो फिर मौत किस है, तब अचानक दिखाई पड़ता है, अब? अब क्या होगा? जिस | | में होगी? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ सुख है, तो दुख स्त्री को पाना था, वह मिल गई। जिस मकान को बनाना था, वह | | किस में होगा? और अगर हम कहें कि परमात्मा सिर्फ स्वर्ग है, मिल गया। बेटा चाहिए था, बेटा पैदा हो गया। अब? तो फिर नर्क कहां होगा? फिर हमें नर्क को अलग बनाना पड़ेगा
सुख के क्षण में सुख क्षणभंगुर है, तत्क्षण दिखाई पड़ जाता है। परमात्मा से। उसका अर्थ हुआ कि हमने अस्तित्व को दो हिस्सों सुख के क्षण में सुख जा चुका, यह अनुभव में आ जाता है। सुख | | में तोड़ दिया। और अस्तित्व दो हिस्सों में टूटा हुआ नहीं है; के क्षण में दुख मौजूद हो जाता है।
अस्तित्व एक है। मौत सब तरफ से घेरे हुए है, इसलिए कृष्ण कहते हैं, अमृत और | परमात्मा ही जीवन है और परमात्मा ही मृत्यु। दोनों है। इसलिए परमानंद को जिससे प्राप्त हो जाए, वही ज्ञान है। और ऐसी जानने | कृष्ण कहते हैं, वह अकथनीय है। क्योंकि जब कोई चीज दोनों हो, योग्य बातें मैं तुझसे अच्छी प्रकार कहूंगा।
तो अकथनीय हो जाती है। कथन में तो तभी तक होती है, जब तक वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता एक हो और विपरीत न हो। है और न असत ही कहा जाता है।
अरस्तू ने कहा है कि आप दोनों विपरीत बातें एक साथ कहें, तो यह बहुत सूक्ष्म बात है। थोड़ा ध्यानपूर्वक समझ लेंगे। वक्तव्य व्यर्थ हो जाता है।
वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत कहा जाता | जैसे कि अगर आप मुझसे पूछे कि आप यहां हैं या नहीं हैं ? मैं है और न असत ही कहा जाता है।
| कहूं कि मैं यहां हूं भी और नहीं भी हूं, तो वक्तव्य व्यर्थ हो गया। परमात्मा को हम न तो कह सकते कि वह है, और न कह सकते | अदालत आपसे पूछे कि आपने हत्या की या नहीं की? और आप कि वह नहीं है। कठिन बात है। क्योंकि हमें तो लगता है, दोनों कहें, हत्या मैंने की भी है और मैंने नहीं भी की है, तो आपका बातों में से कुछ भी कहिए तो ठीक है, समझ में आता है। या तो वक्तव्य व्यर्थ हो गया। क्योंकि दोनों विपरीत बातें एक साथ नहीं कहिए कि है, या कहिए कि नहीं है। दुनिया में जो आस्तिक और हो सकतीं। नास्तिक हैं, वे इसी विवाद में होते हैं।
अरस्तू का तर्क कहता है, एक ही बात सही हो सकती है। और इसलिए अगर कोई पूछे कि गीता आस्तिक है या नास्तिक? तो | यही बुनियादी फर्क है, भारतीय चिंतना में और यूनानी चिंतना में, मैं कहूंगा, दोनों नहीं है। कोई पूछे कि वेद आस्तिक हैं या नास्तिक? | पश्चिम और पूरब के विचार में। तो मैं कहूंगा, दोनों नहीं हैं। धार्मिक हैं, आस्तिक-नास्तिक नहीं हैं। । पश्चिम कहता है कि विपरीत बातें साथ नहीं हो सकती हैं,
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
कंट्राडिक्टरीज साथ नहीं हो सकते। या तो ऐसा होगा, या वैसा | इस अर्थ में, कि वृक्ष हो सकता है; अगर हम बो दें, तो वृक्ष हो होगा; दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम कहता है, | जाएगा। और जो कल हो सकता है, वह आज भी कहीं न कहीं या तो कहो गॉड इज़, ईश्वर है; या कहो गॉड इज़ नाट, ईश्वर नहीं | | छिपा होना चाहिए, नहीं तो कल होगा कैसे। फिर हर कोई बीज है। लेकिन गीता कहती है, गॉड इज़ एंड इज़ नाट, बोथ; ईश्वर है। बो देने से हर कोई वृक्ष नहीं हो जाएगा। जो वृक्ष छिपा है, वही भी, नहीं भी है।
होगा। नहीं तो हम आम बो दें और नीम पैदा हो जाए। नीम बो दें ___ वह सत भी है, असत भी है; या तो यह उपाय है कहने का। और और आम पैदा हो जाए। लेकिन नीम से नीम पैदा होगी। इसका या दूसरा उपाय यह है कि न तो वह सत है, और न वह असत है। | एक मतलब साफ है कि नीम में नीम का ही वृक्ष छिपा था। जो
और चूंकि दोनों को एक साथ उपयोग करना पड़ता है, इसलिए | बीज है आज, वह कल वृक्ष हो सकता है, इसलिए वृक्ष उसमें अकथनीय है; कहा नहीं जा सकता। कहने में आधे को ही कहना | है-अव्यक्त, अप्रकट, अनमैनिफेस्ट। पड़ता है। क्योंकि भाषा द्वंद्व पर निर्भर है, भाषा द्वैत पर निर्भर है, | फिर कल वृक्ष हो गया। अगर मैं आपसे पूछू कि बीज कहां है? भाषा विरोध पर निर्भर है। भाषा में अगर दोनों विरोध एक साथ रख | कल बीज था, वृक्ष छिपा था। आज वृक्ष है, बीज छिप गया। बीज . दिए जाएं, तो व्यर्थ हो जाता है, अर्थ खो जाता है। इसलिए | अब भी है, लेकिन अब छिप गया। अप्रकट है। लेकिन हम कहेंगे, अकथनीय है। लेकिन क्यों नहीं कहा जा सकता ईश्वर को कि है? | बीज नहीं है।
थोड़ा समझें। हम कह सकते हैं, टेबल है, कुर्सी है, मकान है। नहीं अप्रकट रूप है, और है प्रकट रूप है। ईश्वर दोनों है, कभी इसी तरह हम कह नहीं सकते कि ईश्वर है। क्योंकि मकान कल प्रकट है, कभी अप्रकट है। जगत उसका है रूप है, पदार्थ उसका नहीं हो जाएगा। कुर्सी कल जलकर राख हो जाएगी, मिट जाएगी। | है रूप है, और आत्मा उसका नहीं रूप है। टेबल परसों नहीं होगी। मकान आज है, कल नहीं था। जब हम यह थोड़ा जटिल है। इसलिए बुद्ध ने आत्मा को नथिंगनेस कहा कहते हैं, मकान है, तो इसमें कई बातें सम्मिलित हैं। कल मकान | है, नहीं। यह जो दिखाई पड़ता है, यह परमात्मा का है रूप है। और नहीं था, और कल मकान फिर नहीं हो जाएगा। और जब हम कहते | जो भीतर नहीं दिखाई पड़ता है, वह उसका नहीं रूप है। और जब हैं, ईश्वर है, तो क्या हम ऐसा भी कह सकते हैं कि कल ईश्वर नहीं | तक दोनों को हम न जान लें, तब तक हम मुक्त नहीं हो सकते। था और कल ईश्वर नहीं हो जाएगा?
है को तो हम जानते हैं, नहीं है को भी जानना होगा। इसलिए हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। मकान कल नहीं था, कल ध्यान मिटने का उपाय है, नहीं होने का उपाय है। प्रेम मिटने का फिर नहीं होगा, बीच में है। हर है के दोनों तरफ नहीं होता है। | उपाय है, नहीं होने का उपाय है। समर्पण, भक्ति, श्रद्धा, सब मिटने इसलिए ईश्वर है, यह कहना गलत है। क्योंकि उसके दोनों तरफ के उपाय हैं, ताकि नहीं रूप को भी आप जान लें। नहीं नहीं है। वह कल भी था, परसों भी था। कल भी होगा, परसों | जो न सत है, जो न असत है, या जो दोनों है, वह अकथनीय भी होगा। वह सदा है।
| है। उसे कहा नहीं जा सकता। इसलिए सभी शास्त्र उस संबंध में तो जो सदा है, उसको है कहना उचित नहीं। क्योंकि हम है उन बहुत कुछ कहकर भी यह कहते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता। चीजों के लिए कहते हैं, जो सदा नहीं हैं। और जिसके लिए है हमारा सब कहना बच्चों की चेष्टा है। हमारा सब कहना प्रयास कहना ही उचित न हो, उसके लिए नहीं है कहने का तो कोई अर्थ | | है आदमी का, कमजोर आदमी का, सीमित आदमी का। जैसे कोई नहीं रह जाता।
आकाश को मुट्ठी में बांधने की कोशिश कर रहा हो। ईश्वर अस्तित्व ही है। नहीं और है, दोनों उसमें समाविष्ट हैं। निश्चित ही, मुट्ठी में भी आकाश ही होता है। जब आप मुट्ठी उसका ही एक रूप है है; और उसका ही एक रूप नहीं है। कभी | | बांधते हैं, तो जो आपके भीतर है मुट्ठी के, वह भी आकाश ही है। वह प्रकट होता है, तब है मालूम होता है। और कभी अप्रकट हो | | लेकिन फिर भी क्या आप उसको आकाश कहेंगे? क्योंकि आकाश जाता है, तब नहीं है मालूम होता है।
| तो यह विराट है। एक बीज है। अगर मैं आपसे पूछू कि बीज में वृक्ष है या नहीं? | आपकी मुट्ठी में भी आकाश ही होता है, लेकिन पूरा आकाश तो आपको कहना पड़ेगा कि दोनों बातें हैं। क्योंकि बीज में वृक्ष है, | | नहीं होता। क्योंकि आपकी मुट्ठी भी आकाश में ही है, पूरे आकाश
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को मुट्ठी नहीं घेर सकती। मुट्ठी आकाश से बड़ी नहीं हो सकती। अगर आप हृदयपूर्वक अपने हाथ को उसके हाथ में दे दें,
मनुष्य की चेतना परमात्मा को पूरा अपनी मुट्ठी में नहीं ले पाती, | | असंदिग्ध मन से, तो शून्य आकाश भी उसका हाथ बन जाएगा। क्योंकि मनुष्य की चेतना स्वयं ही परमात्मा के भीतर है। फिर भी हम | और आपके हाथ को वह सम्हाल लेगा। लेकिन यह निर्भर आप पर कोशिश करते हैं। उस कोशिश में थोड़ी-सी झलकें मिल सकती हैं। | है। क्योंकि अगर यह हृदय पूरा हो, तो यह घटना घट जाएगी, लेकिन झलक भी तभी मिल सकती है, जब कोई सहानुभूति से | क्योंकि सब कछ वही है। हर जगह उसका हाथ उठ सकता है। हर समझने की कोशिश कर रहा हो। अगर जरा भी सहानुभूति की कमी | | हवा की लहर उसका हाथ बन सकती है। लेकिन वह बनाने की कला हो, तो झलक भी नहीं मिलेगी, झलक भी खो जाएगी। आपके भीतर है। अगर यह श्रद्धा पूरी हो, तो यह घटना घट जाएगी।
शब्द असमर्थ हैं। लेकिन अगर सहानुभूति हो, तो शब्दों में से | | लेकिन अगर जरा-सा भी संदेह हो, तो यह घटना नहीं घटेगी। कुछ सार-सूचना मिल सकती है।
लोग कहते हैं कि हमारा संदेह तो तब मिटेगा, जब घटना घट परंतु वह सब ओर से हाथ-पैर वाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर | जाए। वे भी ठीक ही कहते हैं। संदेह तभी मिटेगा, जब घटना घट और मुख वाला है तथा सब ओर से श्रोत वाला है, क्योंकि वह | | जाए। लेकिन तब बड़ी कठिनाई है। कठिनाई यह है कि जब तक संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है।
| संदेह न मिटे, घटना भी नहीं घटती। यह बड़ी उलझन की बात है। लेकिन इसका यह मतलब मत समझना कि वह अकथनीय है,। | मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक बार नदी में तैरना सीखने निराकार है, निर्गुण है, न कहा जा सकता सत, न असत, तो हमसे | गया। लेकिन पहली दफा पानी में उतरा और गोता खा गया, और सारा संबंध ही छूट गया। फिर आदमी को लगता है कि ऐसी चीज, | | मुंह में पानी चला गया, और नाक में पानी उतर गया। तो घबड़ाकर शून्य जैसी, उससे हमारा क्या लेना-देना! फिर हम किसके सामने | | बाहर निकल आया। उसने कहा, कसम खाता हूं भगवान की, अब रो रहे हैं? और किससे प्रार्थना कर रहे हैं? और किसकी पूजा कर | जब तक तैरना न सीख लूं, पानी में न उतरूंगा। रहे हैं? और किसके प्रति समर्पण करें? जो न है, न नहीं है, जो | लेकिन जो उसे सिखाने ले गया था, उसने कहा, नसरुद्दीन, अकथनीय है। कृष्ण खुद जिसको कहने में समर्थ न हों, उसके | | अगर यह कसम तुम्हारी पक्की है, तो तुम तैरना सीखोगे कैसे? बाबत बात ही क्या करनी है। फिर बेहतर है, हम अपने काम-काज क्योंकि जब तक तम पानी में न उतरो, तैरना न सीख पाओगे। और की दनिया में लगे रहें। ऐसे अकथनीय के उपद्रव में हम न पड़ेंगे। तमने खा ली कसम कि जब तक तैरना न सीख लं. पानी में न क्योंकि जिसे कहा नहीं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, उससे | उतरूंगा। अब बड़ी मुश्किल हो गई। पानी में उतरोगे, तभी तैरना संबंध भी क्या निर्मित होगा!
भी सीख सकते हो। तो तत्क्षण दूसरे वचन में ही कृष्ण कहते हैं, परंतु वह सब ओर थोड़ा डूबने की, गोता खाने की तैयारी चाहिए। थोड़ा जीवन को . से हाथ-पैर वाला, सब ओर से नेत्र, सिर, मुख वाला, कान वाला | | संकट में डालने की तैयारी चाहिए, तो ही कोई तैरना सीख सकता है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त कर के स्थित है। है। अब कोई घाट पर बैठकर तैरना नहीं सीख सकता।।
जैसे उसका प्रकट और अप्रकट रूप है, वैसे ही उसका आकार | | अगर आपको लगता हो कि संदेह तो हम तभी छोड़ेंगे, जब और निराकार रूप है। जैसा उसका निराकार और आकार रूप है, | | उसका हाथ हमारे हाथ को पकड़ ले, तो बड़ी कठिनाई में हैं आप। वैसा ही उसका सगुण और निर्गुण रूप है। वह दोनों है, दोनों | | क्योंकि उसका हाथ तो सब तरफ मौजूद है। लेकिन जिसका संदेह विपरीतताएं एक साथ। इसलिए अगर कोई चाहे तो उससे बात कर | छूट गया, उसी के लिए हाथ उसकी पकड़ में आता है। आप तभी सकता है। कोई चाहे तो उसके कान में बात डाल सकता है। कोई | | पकड़ पाएंगे—उसका हाथ तो मौजूद है—आप तभी पकड़ पाएंगे, कान आपके सामने नहीं आएगा। लेकिन अगर आप पूरे | जब आपका संदेह छूट जाए। हृदयपूर्वक उससे कुछ कहें, तो उस तक पहुंच जाएगा, क्योंकि | तो कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे संदेह छूटे। कुछ प्रयोग सभी तरफ उसके कान हैं।
| करने पड़ेंगे, जिनसे श्रद्धा बढ़े। कुछ प्रयोग करने पड़ेंगे, जिनसे कृष्ण यह कह रहे हैं, सब ओर से कान वाला, सब ओर से हाथ |
| वह खला आकाश उसके हाथ. उसके कान. उसकी आंखों में वाला...।
रूपांतरित हो जाए।
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कि गीता दर्शन भाग-60
एक ही बात मेरे खयाल में आती है। खुद पर विश्वास करने की | जब एक दफे मैं मछुए के जाल में पकड़ गई, और मछुए ने मुझे कोई भी जरूरत नहीं है, हमें खुद पर विश्वास होता ही है। आप हैं, | | बाहर खींच लिया। बाहर खिंचते ही पता चला कि जिसमें मैं जी रही इतना पक्का है। ऐसा कोई भी आदमी नहीं है. जिसको यह शक हो थी. वह जल था। तडपने लगी प्यास से। कि मैं नहीं हूं।
तो तुझे अगर जल का पता करना है, तो पूछने से पता नहीं क्या आपको कभी कोई ऐसा आदमी मिला, जिसको शक हो | | चलेगा। तू छलांग लगाकर किनारे पर थोड़ी देर तड़प ले। क्योंकि कि मैं नहीं हूं। इस शक के लिए भी तो खुद का होना जरूरी है।। | जल में ही हम पैदा हुए हैं। जल ही बाहर है और जल ही भीतर है। कौन करेगा शक? एक बात असंदिग्ध है कि मैं हूं। इसलिए इस मैं इसलिए कुछ पता नहीं चलता। दोनों तरफ जल है। ' हूं के साथ कुछ प्रयोग करने चाहिए, जो असंदिग्ध है।
मछली जल ही है; और जल में ही पैदा हुई है; और जल में ही और जैसे-जैसे इस मैं हूं में प्रवेश होता जाएगा, वैसे-वैसे ही कल क्षीण होकर लीन हो जाएगी। आदमी और परमात्मा के बीच संदेह बिलकुल समाप्त हो जाएंगे। और जिस दिन मैं हूं की पूरी जल और मछली का संबंध है। हम उसी में हैं। इसलिए हम पूछते प्रतीति होती है, हाथ फैला दें, और परमात्मा का हाथ हाथ में आ |फिरते हैं, परमात्मा कहां है? खोजते फिरते हैं, परमात्मा कहां है? जाएगा। आंख खोलें, और उसकी आंख आपकी आंख के सामने और वह कहीं नहीं मिलता। होंगी। बोलें, और उसके कान आपके होंठों से लग जाएंगे। मछली को तो सुविधा है किनारे उतर जाने की, तड़प ले। हम
कृष्ण कहते हैं, वह सब ओर से हाथ-पैर वाला है, क्योंकि सब | को वह भी सुविधा नहीं है। ऐसा कोई किनारा नहीं है, जहां परमात्मा को व्याप्त करके वही स्थित है। और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को न हो। इसलिए परमात्मा के बीच रहकर हम परमात्मा से प्यासे रह जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। जाते हैं। वही भीतर है, वही बाहर है।
वह आपके बाहर ही है, ऐसा नहीं है; वह आपके भीतर भी है। कृष्ण कहते हैं, संपूर्ण इंद्रियों को जानने वाला भी वही है। भीतर हमारा और उसका संबंध ऐसे है, जैसे मछली और सागर का संबंध। | से वही आंख में से देख रहा है। बाहर वही दिखाई पड़ रहा है फूल
सुना है मैंने, एक दफा एक मछली बड़ी मुसीबत में पड़ गई थी। में। भीतर आंख से वही देख रहा है। और सब इंद्रियों के भीतर से कुछ मछुए नदी के किनारे बैठकर बात कर रहे थे कि जल जीवन | जानते हुए भी सब इंद्रियों से रहित है। के लिए बिलकुल जरूरी है, जल के बिना जीवन नहीं हो सकता। | इसका थोड़ा प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। क्योंकि यह मछली ने भी सुन लिया। मछली ने सोचा, लेकिन मैं तो बिना जल | | कोई तर्क-निष्पत्ति नहीं है। यह कोई तर्क का वक्तव्य होता, तो हम के ही जी रही हूं। यह जल क्या है? ये मछुए किस चीज की बात गणित और तर्क से इसको समझ लेते। ये सभी वक्तव्य कर रहे हैं? तो इसका अर्थ यह हुआ कि अभी तक मुझे जीवन का अनुभूति-निष्पन्न हैं। कोई पता ही नहीं चला! क्योंकि मछुए कहते हैं कि जल के बिना थोड़ा प्रयोग कर के देखें। थोड़ा आंख बंद कर लें और भीतर जीवन नहीं हो सकता। जल तो जीवन के लिए अनिवार्य है। | देखने की कोशिश करें। आप चकित होंगे, थोड़े ही दिन में आपको
तो मछली पूछती फिरने लगी जानकार मछलियों की तलाश में।। | भीतर देखने की कला आ जाएगी। इसका मतलब यह हुआ कि उसने बड़ी-बड़ी मछलियों से जाकर पूछा कि यह जल क्या है ? | आंख जब नहीं है, बंद है, तब भी आप भीतर देख सकते हैं। उन्होंने कहा, हमने कभी सुना नहीं। हमें कुछ पता नहीं। अगर तुझे | कान बंद कर लें और थोड़े दिन भीतर सुनने की कोशिश करें। पता ही करना है, तो तू नदी की धार में बहती जा। सागर में सुनते | | एक घंटेभर कान बंद करके बैठ जाएं और सुनने की कोशिश करें हैं कि और बड़ी-बड़ी ज्ञानी मछलियां हैं, वे शायद कुछ बता सकें। भीतर। पहले तो आपको बाहर की ही बकवास सुनाई पड़ेगी। पहले
तो मछली यात्रा करती हुई सागर तक पहुंच गई। वहां भी उसने | तो जो आपने इकट्ठा कर रखा है कानों में संग्रह, कान उसी को मुक्त मछलियों से पूछा। एक मछली ने उसे कहा कि हां, पूछने से कुछ | कर देंगे और वही कोलाहल सुनाई पड़ेगा। लेकिन धीरे-धीरे, सार नहीं है। और एक दफा यह पागलपन मुझे भी सवार हो गया | धीरे-धीरे-धीरे कोलाहल शांत होता जाएगा और एक ऐसी घड़ी था, कि जल क्या है ? सुना था कथाओं में, शास्त्रों में पढ़ा था, कि | आएगी कि आपको भीतर का नाद सुनाई पड़ने लगेगा। वह नाद जल क्या है? लेकिन उसका कोई पता नहीं था। पता तो तब चला | | बिना कान के सुनाई पड़ता है। फिर अगर कोई आपके कान
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बिलकुल भी नष्ट कर दे, तो भी वह नाद सुनाई पड़ता रहेगा।। | उन कणों से निकलती है; वे कण प्रिज्म का काम करते हैं। वे किरण
अंधा भी आत्मा को देख सकता है। अंधा भी भीतर के अनुभव | को सात टुकड़ों में तोड़ देते हैं। सूरज की किरण तो सफेद है। में उतर सकता है। और बहरा भी ओंकार के नाद को सुन सकता लेकिन पानी के लटके कणों में से गुजरकर सात टुकड़ों में टूट जाती है। लेकिन हम उस दिशा में मेहनत नहीं करते। हम तो बहरे को है। इसलिए आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है। निंदित कर देते हैं कि तुम बहरे हो; तुम्हारा जीवन व्यर्थ है। मनुष्य की बुद्धि भी प्रिज्म का काम करती है और चीजों को
अगर दुनिया कभी ज्यादा समझदार होगी, तो हम बहरे को तोड़ती है। जब तक आप बुद्धि को हटाकर देखने की कला न पा सिखाएंगे वह कला, जिसमें वह भीतर का नाद सुन ले। क्योंकि जाएं, तब तक आपको इंद्रधनुष दिखाई पड़ेगा, चीजें टूटी हुई बहरा हमसे ज्यादा आसानी से सुन सकता है। क्योंकि हम तो बाहर | अनेक रंगों में दिखाई पड़ेंगी। अगर आप इस प्रिज्म को हटा लें, तो के कोलाहल में बुरी तरह उलझे होते हैं। बहरे को भीतर का नाद | | चीज एक रंग की हो जाती है, सफेद हो जाती है। जल्दी सुनाई पड़ सकता है।
सफेद कोई रंग नहीं है। सफेद सब रंगों का जोड़ है। सफेद में और अंधे को भीतर का दर्शन जल्दी हो सकता है। लेकिन हम तो सब रंग छिपे हैं। इसलिए स्कूल में बच्चों को सिखाया जाता है, तो निंदित कर देते हैं। क्योंकि हमारी बाहर आंखों की दुनिया है; जो | | एक छोटा-सा चाक बना लेते हैं। चाक में सात रंग की पंखुड़ियां बाहर नहीं देख सकता, वह अंधा है, वह जीवन से व्यर्थ है। जो बाहर | | लगा देते हैं। और फिर चाक को जोर से घुमाते हैं। चाक जब जोर नहीं सुन सकता, वह व्यर्थ है। जो बोल नहीं सकता, वह बेकार है।। | से घूमता है, तो सात रंग नहीं दिखाई पड़ते, चाक सफेद रंग का
लेकिन भीतर के प्रवेश के लिए मूक होना पड़ता है, बहरा होना | | दिखाई पड़ने लगता है। सफेद सातों रंगों का जोड़ है। सातों रंग पड़ता है और अंधा होना पड़ता है।
सफेद के टूटे हुए हिस्से हैं। और जब कोई अंधा होकर भी भीतर देख लेता है, बहरा होकर जगत इंद्रधनुष है। इंद्रियों से टूटकर जगत का इंद्रधनुष निर्मित भी भीतर सुन लेता है, तब हमें पता चल जाता है कि वह जो भीतर | होता है। इंद्रियों को हटा दें, मन को हटा दें, बुद्धि को हटा दें, तो छिपा है, वह इंद्रियों से जानता है, लेकिन इंद्रियों से रहित है। वह | सारा जगत शुभ्र, एक रंग का हो जाता है। वहां सभी विरोध मिल इंद्रियों के बिना भी जान सकता है।
जाते हैं। वहां काला और हरा और लाल और पीला, सब रंग एक तथा आसक्तिरहित और गुणों से अतीत हुआ निर्गुण भी है, | | हो जाते हैं। अपनी योगमाया से सब का धारण-पोषण करने वाला और गुणों । यह जो कृष्ण कह रहे हैं, यह इंद्रधनुष मिटाने वाली बातें हैं। वे को भोगने वाला भी है।
| कह रहे हैं, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, सब गुण उसी के हैं; इन सारे वक्तव्यों में विरोधों को जोड़ने की कोशिश की गई है। और फिर भी कोई गुण उसका नहीं है। वह कोशिश यह है कि हम परमात्मा को विभाजित न करें। और हम ___ इस तरह की बातों को पढ़कर पश्चिम में तो लोग समझने लगे यह न कहें कि वह ऐसा है और ऐसा नहीं है। वह दोनों है। निर्गुण | कि ये भारत के ऋषि-महर्षि, अवतार, ये थोड़े-से विक्षिप्त मालूम भी है, और गुणों को भोगने वाला भी है।
होते हैं। ये इस तरह के वक्तव्य देते हैं, जिनमें कोई अर्थ ही नहीं है। मनुष्य के मन को सबसे बड़ी कठिनाई यही है, विपरीत को क्योंकि अरस्तू ने कहा है कि ए इज़ ए, एंड कैन नेवर बी नाट जोड़ना। हमें तोड़ना तो आता है, जोड़ना बिलकुल नहीं आता। हम ए-अ अ है और न-अ कभी नहीं हो सकता। इस आधार पर तो किसी भी चीज को बड़ी आसानी से तोड़ लेते हैं। तोड़ने में हमें आज की सारी शिक्षण-पद्धति विकसित हुई है कि विरोध इकट्ठे नहीं जरा अड़चन नहीं होती। क्योंकि बुद्धि की व्यवस्था ही तोड़ने की हो सकते। और यह क्या बात है, वेद, उपनिषद, गीता एक ही बात है। बुद्धि खंडक है। जैसे कि कोई आपने अगर कांच का प्रिज्म देखा | | कहे चले जाते हैं कि वह दोनों है! हो; तो प्रिज्म से किरण को गुजारें प्रकाश की, वह सात टुकड़ों में इसे हम समझ लें ठीक से। इसे कहने का कारण है। टूट जाती है।
आपकी बुद्धि को तोड़ने के लिए यह कहा जा रहा है, आपकी इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है वर्षा में, वह इसीलिए दिखाई पड़ता है। बुद्धि को समझाने के लिए नहीं। यह कृष्ण अर्जुन की बुद्धि को वर्षा में कुछ पानी के कण हवा में टंगे रह जाते हैं। सूरज की किरण समझाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं; यह अर्जुन की बुद्धि को तोड़ने
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की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि बुद्धि समझ भी ले, तो भी बुद्धि के | | और अब एक तीसरा वक्तव्य और हो गया कि मन हिल रहा है। पार न जाएगी। बुद्धि तो टूट जाए, तो ही अर्जुन पार जा सकता है। पताका हिल रही है; हवा हिल रही है; मन हिल रहा है। हम बूढ़े
यह वक्तव्य बुद्धि विनाशक है। वह जो खंड-खंड करने वाली गुरु के पास जाएंगे। बुद्धि है, उसको तोड़ने का उपाय है, उसे व्यर्थ करने का उपाय है। | वे तीनों बूढ़े गुरु के पास गए। बूढ़े गुरु ने कहा कि जब तक तुम
और जब दोनों विरोध एक साथ दे दिए जाएं, तो बुद्धि व्यर्थ हो | | देखते हो, हवा हिल रही है, पताका हिल रही है, मन हिल रहा जाती है। फिर सोचने को कुछ भी नहीं बचता।
है-जब तक तुम विभाजित करते हो तीन में तब तक तुम न थोड़ा सोचें, निर्गुण भी वही, सगुण भी वही, क्या सोचिएगा? समझ पाओगे। संसार हिलने का नाम है। यहां सभी कुछ हिल रहा इसलिए दो पंथ हमने निर्मित कर लिए हैं। निर्गुणवादियों ने अलग है। और सभी चीजें अलग-अलग नहीं हिल रही हैं, सब चीजें जुड़ी पथ निर्मित कर लिया है। उन्होंने कहा कि नहीं, वह निर्गुण है। | हैं। हवा भी हिल रही है; पताका भी हिल रही है; मन भी हिल रहा सगुणवादियों ने अलग पंथ निर्मित कर लिया। उन्होंने कहा कि | है। तीनों जुड़े हैं। तीनों हिल रहे हैं। संसार कंपन है। नहीं, वह सगुण है; निर्गुण कभी नहीं है।
लेकिन गुरु ने कहा कि रिझाई थोड़ा ठीक कहता है तुम दोनों से, ये दोनों बातें बुद्धिगत हैं। अगर निर्गुण है, तो सगुण नहीं हो | क्योंकि न तो तुम पताका का हिलना रोक सकते हो और न हवा का सकता। सगुण है, तो निर्गुण नहीं हो सकता। हमने दो पंथ निर्मित हिलना रोक सकते हो, लेकिन मन का हिलना तुम रोक सकते हो। कर लिए। ये दोनों पंथ अधार्मिक हैं, क्योंकि दोनों पंथ बुद्धिगत और अगर मन का हिलना रुक जाए, तो पताका भी नहीं हिलेगी, बात को मानते हैं। बुद्धि के पार नहीं जाते।
हवा भी नहीं हिलेगी; सब हिलना बंद हो जाएगा। तुम्हारा मन धर्म विरोध को जोड़ने वाला है। वह कहता है, वह दोनों है और | हिलता है, इसलिए तुम हिलने को अनुभव कर पाते हो। दोनों नहीं है। जो व्यक्ति इस बात को समझने में राजी हो जाएगा हमारी जो बुद्धि है, वह विरोधों में बंटी है। वह चीजों को बांटती कि दोनों है. उसको समझने की कोशिश में अपनी समझ ही छोड है. एनालाइज करती है, विश्लिष्ट करती है। वह कहती है. यह देनी पड़ेगी।
जन्म है, यह मौत है। वह कहती है, यह मित्र है, यह शत्रु है। वह एक घटना मुझे याद आती है। झेन फकीर हुआ रिझाई, वह खड़ा कहती है, यह जहर है, यह अमृत है। वह कहती है, यह अच्छा है, था अपने मंदिर के द्वार पर। मंदिर के ऊपर लगी हुई पताका हवा में और यह बुरा है। हर चीज को बांटती है। हिल रही थी। रिझाई के दो शिष्य मंदिर के सामने से गुजर रहे थे। ___ यह कृष्ण का पूरा प्रयास यही है कि बांटो मत। जगत को, उन्होंने खड़े होकर पताका की तरफ देखा। सुबह का सूरज था, हवाएं अस्तित्व को एक की तरह देखो। बांटो मत। निर्गुण भी वही, गुणों थीं, और पताका कंप रही थी, और जोर से आवाज कर रही थी। वाला भी वही है।
रिझाई के एक शिष्य ने कहा कि मैं पूछता हूं, हवा हिल रही है इस पर अगर थोड़े प्रयास करेंगे, इस तरह की विपरीत बातों को या पताका हिल रही है? हिल कौन रहा है? दूसरे शिष्य ने कहा, अगर एक साथ आंख बंद करके ध्यान करेंगे, तो बहुत आनंद हवा हिल रही है। पहले शिष्य ने कहा कि गलत. पताका हिल रही | | आएगा। मन तो कहेगा कि एक कुछ भी तय कर लो जल्दी, या तो है। बड़ा विवाद हो गया।
निर्गुण या सगुण। अब हवा और पताका जब हिलते हैं, तो कौन हिल रहा है? __इसे जरा प्रयोग करके देखें। आंख बंद करके कभी बैठ जाएं आसान है एक के पक्ष में वक्तव्य देना। लेकिन सच में कौन हिल | अपने मंदिर में, अपनी मस्जिद में और कहें कि वह दोनों है। और रहा है ? रिझाई खड़ा सुन रहा था, वह बाहर आया। और उसने कहा | फिर अपने से पूछे कि क्या राजी हैं? मन कहेगा कि नहीं, दोनों नहीं कि न तो पताका हिल रही है और न हवा हिल रही है; तुम्हारे मन | हो सकते। एक कुछ भी हो सकता है। मन फौरन कहेगा कि या तो हिल रहे हैं।
| मान लो कि सगुण है, या मान लो कि निर्गुण है। लेकिन रिझाई के शिष्यों को बात जमी नहीं। तो रिझाई का बूढ़ा ___ तो मुसलमान मान लिए कि निर्गुण है। तो मूर्तियां तोड़ते फिरे, गुरु मौजूद था, जिंदा था। तो उन्होंने कहा, यह बात हमें जमती नहीं क्योंकि सगुण को नहीं बचने देना है। उनको लगा कि जब निर्गुण है। यह तो और उपद्रव हो गया। हमारा तो दो ही का विवाद था। है, तो फिर सगुण को तोड़ देना है।
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Ka समस्त विपरीतताओं का विलय-परमात्मा में
एक आदमी मूर्ति-पूजा कर रहा है। वह कहता है, भगवान सगुण है, इसलिए हम मूर्ति बनाते हैं। एक आदमी कहता है, वह निर्गुण है, इसलिए हम मूर्ति तोड़ते हैं। लेकिन दोनों मूर्ति की तरफ ध्यान लगाए हुए हैं, एक तोड़ने के लिए, एक बनाने के लिए।
मुसलमानों से ज्यादा मूर्ति-पूजक खोजना बहुत मुश्किल है, क्योंकि मूर्ति को तोड़ना भी उसके ही साथ संबंधित हो जाना है। आखिर मूर्ति पर इतना ध्यान देने की जरूरत क्या है! अगर वह निर्गुण है और सगुण नहीं है, तो मूर्ति को तोड़ने से क्या फायदा है ? कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि वह एक पक्ष में हो जाए, तो दूसरे पक्ष के खिलाफ कोशिश करता है; तो ही एक पक्ष में रह सकता है। डर लगता है कि कहीं दूसरा पक्ष ठीक न हो; तो मिटा दो दूसरे पक्ष को। - लेकिन कुछ मिट सकता नहीं। पत्थर की मूर्तियां टूट सकती हैं। ये आदमी भी सब मूर्तियां हैं। इनको कैसे तोड़िएगा? वृक्ष भी एक मूर्ति है। पत्थर को भी तोड़ दो, तो वह जो टूटा हुआ पत्थर है, वह भी मूर्ति है; वह भी एक मूर्त रूप है; वह भी आकार है। आकार कैसे मिटाइएगा?
अस्तित्व में दोनों समाविष्ट हैं, निराकार भी, आकार भी। न तो बनाने की कोई जरूरत है, न मिटाने की कोई जरूरत है। बनाने और मिटाने का अगर कोई काम ही करना हो, तो भीतर करना जरूरी है कि भीतर इस मन को इस हालत में लाना जरूरी है कि जहां यह दोनों विरोधों को एक साथ स्वीकार कर ले।
जैसे ही दोनों विरोध एक साथ स्वीकार होते हैं, मन गिर जाता है और समाप्त हो जाता है। और अमन की स्थिति पैदा हो जाती है। वह अमनी स्थिति ही समाधि है।
यह सारा प्रयोजन कृष्ण का इतना ही है कि आप दोनों को एक साथ स्वीकार करने को राजी हो जाएं। राजी होते ही आप रूपांतरित हो जाएंगे। और जब तक आप राजी न होंगे और एक पक्ष में झुकेंगे, तब तक आप बदल नहीं सकते हैं, तब तक आप द्वंद्व में ही घिरे रहेंगे।
दो में से एक को चुनना द्वैत को समर्थन करना है। दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेना, अद्वैत की उपलब्धि है।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई उठे न बीच से। कीर्तन पूरा हो जाए, फिर जाएं। कीर्तन के बाद दो मिनट सिर्फ संगीत चलता है, उस वक्त भी न उठे। एक पांच मिनट पूरा बैठे रहें।
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अध्याय 13 छठवां प्रवचन
स्वयं को बदलो
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बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
बहुत कारण हो सकते हैं। सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ।। १५ ।। इसलिए भी अच्छा लग सकता है बोलना कि गीता आपको
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । प्रीतिकर हो, आपके धर्म का ग्रंथ हो, तो आपके अहंकार को पोषण भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ।। १६ ।। मिलता हो कि गीता ठीक है। आपकी सांप्रदायिक संस्कार वाली
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। मनःस्थिति को सहारा मिलता हो कि हमारा मानना बिलकुल ठीक ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हदि सर्वस्य विष्ठितम् ।। १७ ।। है, गीता महान ग्रंथ है। तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण | लेकिन सिर्फ बोलना ठीक लगे, तो कोई भी लाभ नहीं है; है और चर-अचर रूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से | नुकसान भी हो सकता है। कुछ लोग शब्दों में ही जीते हैं। जीवनभर अविज्ञेय है अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति | पढ़ते हैं, सुनते हैं, और कभी कुछ करते नहीं। ऐसे लोग जीवन को
समीप में और अति दूर में भी स्थित वही है। | ऐसे ही गंवा देंगे, और मरते समय सिवाय पछतावे के कुछ भी हाथ और वह विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण | | न रहेगा। क्योंकि मैंने क्या कहा गीता के संबंध में, वह मरते वक्त .
हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक-पृथक के सदृश काम आने वाला नहीं है। आपने क्या किया! सुना, वह मूल्य का स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों नहीं है। क्या किया, वही मूल्य का है। लेकिन करने में कठिनाई का धारण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा मालूम पड़ती है। सब का उत्पन्न करने वाला है।
सुनने में आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता। मैं बोलता हूं, आप और वह ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा सुनते हैं; करना आपको कुछ भी नहीं पड़ता। सुनने में आपको
जाता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के करना ही क्या पड़ता है? विश्राम करना पड़ता है। करने में आपसे योग्य है एवं तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय शुरुआत होती है। और जैसे ही कुछ करने की बात आती है, वैसे में स्थित है।
ही तकलीफ शुरू हो जाती है।
उन मित्र ने भी पूछा है कि कभी-कभी आप कोई ध्यान का शांत
| प्रयोग-सूत्र भी दे दिया करते हैं, यहां तक तो ठीक है...। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, आप बोलते | क्योंकि वह प्रयोग भी उन्होंने किया नहीं है। वह भी मैं दे दिया हैं, तो ठीक लगता है। कभी-कभी कोई शांत ध्यान | करता हूं; यहां तक ठीक है। वह शांत प्रयोग भी उन्होंने किया नहीं का प्रयोग-सूत्र भी दे दिया करते हैं। यहां तक तो है। वह भी सुन लिया है। कीर्तन में अड़चन आती है, क्योंकि यहां ठीक है। लेकिन जब आपके कीर्तन का प्रयोग चलता कुछ लोग करते हैं। है, तो मन में वैसा भाव आता ही नहीं कि जैसा मंच अब यहां कुछ लोग करते हैं, तो उससे बचने के दो उपाय हैं। पर सभी लोग इतनी तेजी से नाचा करते हैं! या तो आप समझें कि ये पागल हैं, तब आपको कोई अड़चन न
होगी। इनका दिमाग खराब हो गया है, हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं, या
नाटक कर रहे हैं; बनकर कर रहे हैं; या कुछ पैसे ले लिए होंगे, + न बातें समझनी चाहिए। एक, बोला हुआ ठीक लगना | इसलिए कर रहे हैं। ऐसा सोच लें, तो आपको सुविधा रहेगी, (II बहुत मूल्य का नहीं है। बोला हुआ ठीक लगता है, सांत्वना रहेगी। आपको करने की फिर कोई जरूरत नहीं है।
___यह सिर्फ मनोरंजन हो सकता है, यह केवल एक कुछ लोग करने से इस तरह बचते हैं, वे अपने मन को समझा बौद्धिक व्यायाम हो सकता है। या यह भी हो सकता है कि आप लेते हैं कि कुछ गलत हो रहा है। इसलिए फिर खुद को करने की जो सुनना चाहते हैं, उससे तालमेल बैठ जाता है, इसलिए रसपूर्ण तो कोई जरूरत नहीं रह जाती। लगता है। यह भी हो सकता है कि इतनी देर मन बोलने में उलझ तकलीफ तो उन लोगों को होती है, जिनको यह भी नहीं लगता जाता है, तो आपकी चिंताएं, परेशानियां, अशांति भूल जाती है। कि गलत हो रहा है और करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते। ये मित्र
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उसी वर्ग में हैं। उनको लगता है कि ठीक हो रहा है। लेकिन इतना लगना काफी नहीं है। करने की हिम्मत बड़ी दूसरी बात है। क्योंकि जैसे ही आप करना शुरू करते हैं कुछ, बहुत-से परिणाम होंगे। पहला तो यह साहस करना पड़ेगा, पागल होने का साहस । क्योंकि धर्म साधारण आदमी करता नहीं, सुनता है। और जब भी धर्म को कोई करने लगता है, तो बाकी लोग उसको पागल समझते हैं। कबीर को भी लोग पागल समझते हैं। मीरा को भी लोग पागल समझते हैं। बुद्ध भी लोग पागल समझते हैं। क्राइस्ट को भी लोग पागल समझते हैं। यह तो बहुत बाद में लोग उनको समझ पाते हैं कि वे पागल नहीं हैं। यह भी वे तभी समझ पाते हैं, जब बात इतनी दूर हो जाती है कि उनसे सीधा संबंध नहीं रह जाता।
आप भी जब पहली दफा धर्म के जीवन में उतरेंगे, तो आस-पास के लोग आपको पागल समझना शुरू कर देंगे। संसार ने यह इंतजाम किया हुआ है कि उसके जाल के बाहर कोई जाए, तो उसके मार्ग में सब तरह की बाधाएं खड़ी करनी हैं। और यह उचित भी है, क्योंकि अगर सभी लोगों को धर्म की तरफ जाने में आसानी दी जाए, तो बाकी लोग जो धार्मिक न होंगे, उनको बड़ा कष्ट होना शुरू हो जाएगा। अपने कष्ट से बचने के लिए वे धार्मिक व्यक्ति को पागल करार देकर सुविधा में रहते हैं। वे समझ लेते हैं कि दिमाग खराब हो गया है। आसानी हो जाती है।
आप कृष्ण को पूजते भला हों, लेकिन कृष्ण अगर आपको मिल जाएं, तो आप उनको भी पागल ही समझेंगे। वे तो मिलते नहीं; मूर्ति को आप पूजते रहते हैं। असली कृष्ण खड़े हो जाएं, तो शायद आप घर में टिकने भी न दें। शायद आप रात घर में ठहरने भी न दें। क्योंकि इस आदमी का क्या भरोसा ! हो सकता है आपकी पत्नी इसके लगाव में पड़ जाए, सखी बन जाए, गोपी हो जाए। तो आप घबड़ाएंगे।
जीवित कृष्ण से तो आप परेशान हो जाएंगे। मरे हुए कृष्ण को पूजना बिलकुल आसान है। क्योंकि मरे हुए कृष्ण से आपकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं होता।
जीसस को मानने वाले लोगों को भी अगर जीसस मिल जाएं, तो वे उनको फिर सूली पर चढ़ा देंगे। क्योंकि वह आदमी अब भी वैसा ही खतरनाक होगा।
समय बहुत जब बीत जाता है और कथाएं हाथ में रह जाती हैं, जिनको सुनने और पढ़ने का मजा होता है, तब धर्म की अड़चन मिट जाती है।
तो यहां जब कुछ लोग कीर्तन कर रहे हैं, तो वे लोग तो हिम्मत करके पागल हो रहे हैं। अगर आपको लगता है कि ठीक कर रहे हैं, तो सम्मिलित हो जाएं। सम्मिलित होने में आपको भय छोड़ना पड़ेगा। लोग क्या कहेंगे, यह पहला भय है; और गहरे से गहरा भय है। लोग क्या समझेंगे ?
एक महिला मेरे पास कुछ ही दिन पहले आई। और उसने मुझे कहा कि मेरे पति ने कहा है कि सुनना तो जरूर, लेकिन भूलकर कभी कीर्तन में सम्मिलित मत होना। तो मैंने उससे पूछा कि पति को क्या फिक्र है तेरे कीर्तन में सम्मिलित होने से ? तो उसने कहा, पति मेरे डाक्टर हैं; प्रतिष्ठा वाले हैं। वे बोले कि अगर तू कीर्तन में सम्मिलित हो जाए, तो लोग मुझे परेशान करेंगे कि आपकी पत्नी को क्या हो गया ! तो तू और सब करना, लेकिन कीर्तन भर में सम्मिलित मत होना ।
घर से लोग समझाकर भेजते हैं कि सुन लेना, करना भर मत कुछ, क्योंकि करने में खतरा है। सुनने तक बात बिलकुल ठीक है। | करने में अड़चन मालूम होती है, क्योंकि आप पागल होने के लिए तैयार नहीं हैं। और जब तक आप पागल होने के लिए तैयार नहीं हैं, तब तक धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है।
तो सुनें मजे से ; फिर चिंता में मत पड़ें। जिस दिन भी करेंगे, उस दिन आपको दूसरे क्या कहेंगे, इसकी फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी।
दूसरे बहुत-सी बातें कहेंगे। वे आपके खिलाफ नहीं कह रहे हैं, वे अपनी आत्म-रक्षा कर रहे हैं। क्योंकि अगर आपको ठीक मानें, तो वे गलत लगेंगे। इसलिए उपाय एक ही है कि आप गलत हैं, तो वे अपने को ठीक मान सकते हैं। और निश्चित ही उनकी संख्या | ज्यादा है। आपको गलत होने के लिए तैयार होना पड़ेगा ।
बड़े से बड़ा साहस समूह के मत से ऊपर उठना है। लोग क्या | कहेंगे, यह फिक्र छोड़ देनी है। इस फिक्र के छोड़ते ही आपके भीतर भी रस का संचार हो जाएगा। यही द्वार बांधा हुआ है, इसी से दरवाजा रुका हुआ है। यह फिक्र छोड़ते ही से आपके पैर में भी थिरकन आ जाएगी, और आपका हृदय भी नाचने लगेगा, और आप भी गा सकेंगे।
और अगर यह फिक्र छोड़कर आप एक बार भी गा सके और नाच सके, तो आप कहेंगे कि अब दुनिया की मुझे कोई चिंता नहीं है। एक बार आपको स्वाद मिल जाए किसी और लोक का, तो फिर कठिनाई नहीं है लोगों की फिक्र छोड़ने में।
कठिनाई तो अभी है कि उसका कोई स्वाद भी नहीं है, जिसे पाना
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है। और लोगों से जो प्रतिष्ठा मिलती है, उसका स्वाद है, जिसको | अगर आप बोलने से ही खुश होकर चले जाते हैं, तो प्रयोजन व्यर्थ छोड़ना है। जिसको छोड़ना है, उसमें रस है; और जिसको पाना है, गया। वह लक्ष्य नहीं था। उसका हमें कोई रस नहीं है। इसलिए डर लगता है। हाथ की आधी रोटी भी, मिलने वाली स्वर्ग में पूरी रोटी से ज्यादा मालूम पड़ती है। स्वाभाविक है; सीधा गणित है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि गीता में बार-बार कृष्ण लेकिन अगर इस दशा में, जिसमें आप हैं, आप सोचते हैं सब का कहना है कि मैं ही परम ब्रह्म हं। सब छोड़कर ठीक है, तो मैं आपसे नहीं कहता कि आप कोई बदलाहट करें। मेरी शरण आ जाओ, मैं तुम्हें मुक्त करूंगा। लेकिन
और आपको लगता हो कि सब गलत है, जिस हालत में आप हैं, यह वचन अन्य-धर्मी स्वीकार नहीं करते। और आपने तो फिर हिम्मत करें और थोड़े परिवर्तन की खोज करें। कहा है कि ठीक जीवन जीने की कला ही गीता है। __ शांत प्रयोग करना हो, शांत प्रयोग करें। सक्रिय प्रयोग करना फिर भी अन्य-धर्मी कृष्ण को परमात्मा मानने को हो, सक्रिय प्रयोग करें। लेकिन कुछ करें।
राजी नहीं हैं। और कहते हैं, गीता वैष्णव संप्रदाय का . __ अधिक लोग कहते हैं कि शांत प्रयोग ही ठीक है। क्योंकि धार्मिक ग्रंथ है। अकेले में आंख बंद करके बैठ जाएंगे, किसी को पता तो नहीं चलेगा। लेकिन अक्सर शांत प्रयोग सफल नहीं होता। क्योंकि आप भीतर इतने अशांत हैं कि जब आप आंख बंद करके बैठते हैं, | 21 न्य-धर्मियों की फिक्र क्या है आपकों? और आप तो सिवाय अशांति के भीतर और कुछ भी नहीं होता। शांति तो नाम | 1 अन्य-धर्मियों का कौन-सा ग्रंथ मानने को तैयार हैं? को भी नहीं होती। वह जो भीतर अशांति है, वह चक्कर जोर से
आप कुरान पढ़ते हैं? और आप मानने को तैयार हैं मारने लगती है। जब आप शांत होकर बैठते हैं, तब आपको | कि कुरान परमात्मा का वचन है? आप बाइबिल पढ़ते हैं? और सिवाय भीतर के उपद्रव के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। आप मानने को तैयार हैं कि जीसस ईश्वर का पुत्र है ? और अगर
इसलिए उचित तो यह है कि वह जो भीतर का उपद्रव है, उसे आप मानने को तैयार नहीं हैं, तो आप अपने कृष्ण को किसी दूसरे भी बाहर निकल जाने दें। हिम्मत से उसको भी बह जाने दें। उसके को मनाने के लिए क्यों परेशान हैं! बह जाने पर, जैसे तूफान के बाद एक शांति आ जाती है, वैसी __ और फिर दूसरे से प्रयोजन क्या है? आपको कृष्ण की बात ठीक शांति आपको अनुभव होगी। तूफान तो धीरे-धीरे विलीन हो | | लगती है, उसे जीवन में उतारें। अपने को बदलें। जिसको मोहम्मद जाएगा और शांति स्थिर हो जाएगी।
| की बात ठीक लगती हो, वह मोहम्मद की बात को जीवन में उतार यह कीर्तन का प्रयोग कैथार्सिस है। इसमें जो नाच रहे हैं लोग, | | ले, और अपने को बदल ले। जब आप दोनों बदल चुके होंगे, तो कूद रहे हैं लोग, ये उनके भीतर के वेग हैं, जो निकल रहे हैं। इन | | दोनों एक से होंगे; जरा भी फर्क न होगा। वेगों के निकल जाने के बाद भीतर परम शून्यता का अनुभव होता | लेकिन गीता वाले को फिक्र है कि किसी तरह मुसलमान को है। उसी शून्यता से द्वार मिलता है और हम अनंत की यात्रा पर राजी कर ले कि गीता महान ग्रंथ है। निकल जाते हैं।
| इससे क्या हल है? तुम्हें तो पता है कि गीता महान ग्रंथ है और लेकिन कुछ करें। कम से कम शांत प्रयोग ही करें। अभी शांत | | तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं हो रहा, तो मुसलमान भी मान लेगा करेंगे, तो कभी सक्रिय भी करने की हिम्मत आ जाएगी। लेकिन | कि गीता महान ग्रंथ है, तो क्या फर्क हो जाएगा? बीस करोड़ हिंदू सुनने पर भरोसा मत रखें। अगर सुनने से मुक्ति होती होती, तो | | तो मान रहे हैं, कुछ फर्क तो हो नहीं रहा है। तुम तो माने ही बैठे सभी की हो गई होती। सभी लोग काफी सुन चुके हैं। कुछ करना । हो कि गीता महान ग्रंथ है और कृष्ण परम ब्रह्म हैं, तो तुम्हारे जीवन होगा। करने से जीवन बदलेगा और क्रांति होगी।
| में कुछ नहीं हो रहा, तो तुम दूसरे की क्या फिक्र कर रहे हो! मैं जो बोलता भी हूं, तो प्रयोजन बोलना नहीं है। बोलना तो | | दूसरे की हमें चिंता है नहीं। असल में हमें खुद ही भय है और सिर्फ बहाना है, ताकि आपको करने की तरफ ले जा सकूँ। और शक है कि कृष्ण भगवान हैं या नहीं! और जब तक कोई शक करने
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वाला मौजूद है, तब तक हमारे शक को भी हवा मिलती है। अब मुसलमान कहता है कि हम नहीं मानते, तुम्हारी गीता में कुछ सार है; तो हमें खुद ही डर पैदा होता है कि कहीं यह ठीक नहीं है। इससे हम पहले इसको राजी करने को उत्सुक हो जाते हैं।
ध्यान रहे, जब भी आदमी किसी दूसरे को राजी करने में बहुत श्रम उठाता है, तो उसका मतलब यह है कि वह खुद संदिग्ध है। वह जब तक सबको राजी न कर लेगा, तब तक उसका खुद भी मन राजी नहीं है। वह खुद भी डरा हुआ है कि बात पक्की है या नहीं ! क्योंकि इतने लोग शक करते हैं।
बीस करोड़ हिंदू हैं, तो कोई अस्सी करोड़ मुसलमान हैं। तो बीस करोड़ हिंदू जिसको मानते हैं, अस्सी करोड़ मुसलमान तो इनकार करते हैं। कोई एक अरब ईसाई हैं, वे इनकार करते हैं। कोई अस्सी करोड़ बौद्ध हैं, वे इनकार करते हैं। तो सारी दुनिया तो इनकार करती है बीस करोड़ हिंदुओं को छोड़कर !
तो शक पैदा होता है कि यह गीता अगर सच में परम ब्रह्म का वचन होता, तो साढ़े तीन, चार अरब आदमी सभी स्वीकार करते। दो-चार न करते, तो हम समझ लेते कि दिमाग फिरा है। यहां तो हालत उलटी है। दो-चार स्वीकार करते हैं, बाकी तो स्वीकार नहीं कर रहे हैं। तो भीतर संदेह पैदा होता है। उस संदेह से ऐसे सवाल उठते हैं।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कौन स्वीकार करता है या कौन स्वीकार नहीं करता। तुम्हारी जिंदगी बदल जाए, तो बात सत्य है। तुम कृष्ण की बात मानकर अपनी जिंदगी को बदल लो। तुम अकेले काफी हो। कोई पूरी दुनिया में स्वीकार न करे, लेकिन तुम अकेले अगर अपनी जिंदगी में स्वर्ण ले आते हो और कचरा जल जाता है, तो कृष्ण की बात सही है। सारी दुनिया इनकार करती रहे, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता।
लेकिन खुद तो हम कोई परिवर्तन लाना नहीं चाहते; हम सब दूसरे को कनवर्ट करने में लगे हैं। हम जैसे अजीब लोग खोजने मुश्किल हैं। हमारी हालत ऐसी है कि जैसे घर में हमारे कुआं हो, जिसमें अमृत भरा हो। हम तो उसको कभी नहीं पीते, हम पड़ोसियों को समझाते हैं कि आओ, हमारे पास अमृत का कुआं है, उसको पीओ और पड़ोसी भी उसको कैसे माने, क्योंकि हमने खुद ही अमृत का कोई स्वाद नहीं लिया है।
अगर आपके घर में अमृत का कुआं होता, तो पहले आप पीते, फिर दूसरे की फिक्र करने जाते। और सच तो यह है कि अगर अमृत
आपने पी लिया होता और आप अमर हो गए होते और मृत्यु आपके | जीवन से मिट गई होती, तो किसी को समझाने जाने की जरूरत नहीं थी। पड़ोसी खुद ही पूछने आता कि मामला क्या है! तुम ऐसे अमृत आनंद को उपलब्ध कैसे हो गए? क्या पीते हो ? क्या खाते हो ? क्या राज है तुम्हारा? तुम्हें पड़ोसी के पास कहने की जरूरत न होती।
तुम्हें जरूरत इसलिए पड़ती है कि तुम्हारे कुएं पर तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं है। तुमने खुद ही कभी उसका पानी पीकर नहीं देखा । तुम पहले पड़ोसी को पिलाने की कोशिश में लगे हो । शायद तुम्हें डर है कि पता नहीं जहर है या अमृत। पहले पड़ोसी पर देख लें परिणाम क्या होता है, फिर अपना सोचेंगे।
क्या फिक्र है तुम्हें? अपने शास्त्र को दूसरों पर लादने की चिंता क्यों है? अपने को बदलो। तुम्हारी बदलाहट दूसरों को दिखाई | पड़ेगी और उन्हें लगेगा कि कुछ सार है, तो वे भी तुम्हारे शास्त्र में से शायद कुछ ले लें। लेकिन लें या न लें, इसे लक्ष्य बनाना उचित नहीं है।
सभी लोग ऐसा सोचते हैं। मेरे पास बहुत लोग आते हैं, वे कहते | हैं कि गीता इतना महान ग्रंथ है, मुसलमान क्यों नहीं मानता ? ईसाई क्यों नहीं मानता ?
महान ग्रंथ उनके पास हैं। और गीता से इंचभर कम महान नहीं हैं। लेकिन महान ग्रंथ से तुमको भी मतलब नहीं है, उनको भी मतलब है।
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तुम जब गीता को महान कहते हो, तो तुम यह मत सोचना कि तुम्हें पता है कि गीता महान है। गीता को तुम महान सिर्फ इसलिए कहते हो कि गीता तुम्हारी है। और गीता को महान कहने से तुम्हारे अहंकार को रस आता है। गीता महान है, इसके पीछे यह छिपा है कि मैं महान हूं, क्योंकि मैं गीता को मानने वाला हूं।
कुरान महान है, तो मुसलमान सोचता है, मैं महान हूं। बाइबिल महान है, तो ईसाई सोचता है, मैं महान हूं।
अगर कोई कह दे, गीता महान नहीं है, तो तुम्हें चोट लगती है। वह इसलिए नहीं कि तुम्हें गीता का पता है । वह चोट इसलिए लगती है कि तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है।
हमारे अहंकार के बड़े जाल हैं। हम कहते हैं, भारत महान देश है। भारत-वारत से किसी को लेना-देना नहीं है। कि चीन महान | देश है। मतलब हमें अपने से है। भारत इसलिए महान देश है, | क्योंकि आप जैसा महान व्यक्ति भारत में पैदा हुआ। और कोई
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कारण नहीं है। अगर आप इंग्लैंड में पैदा होते, तो इंग्लैंड महान देश | | और तर्क पर है। उसने भी लिखा है कि जब मैं सोचता हूं, तो मुझे होता। आप जर्मनी में पैदा होते, तो जर्मनी महान देश होता। जहां लगता है कि बुद्ध से महान व्यक्ति जमीन पर दूसरा नहीं हुआ। जब आप पैदा होते, वही देश महान होने वाला था।
| मैं सोचता हूं निष्पक्ष भाव से, तो मुझे लगता है, बुद्ध से महान कोई जमीन पर एकाध देश है, जो यह कहता हो, हम महान नहीं | व्यक्ति जमीन पर दूसरा नहीं हुआ। लेकिन मेरे भीतर छिपा हुआ हैं? कोई एकाध जाति है, जो कहती हो, हम महान नहीं हैं? कोई | ईसाई, जिसको मैं वर्षों पहले त्याग कर चुका हूं...। एकाध धर्म है, जो कहता हो, हम महान नहीं हैं? ।
क्योंकि बट्रेंड रसेल ने ईसाइयत का त्याग कर दिया था। उसने सब अहंकार की घोषणाएं हैं। धर्म का इससे कोई भी संबंध | एक बहुत अदभुत किताब लिखी है, जिसका नाम है; व्हाय आई नहीं है।
| एम नाट ए क्रिश्चियन-मैं ईसाई क्यों नहीं हूं? लेकिन बचपन तो पर हम अहंकार की सीधी घोषणा नहीं कर सकते। अगर कोई | ईसाइयत में बड़ा हुआ था। मां-बाप ने धर्म तो ईसाइयत दिया था; आदमी खडे होकर कहे कि मैं महान हं. तो हम सबको एतराज संस्कार तो ईसाइयत के थे। फिर सोच-विचार करके ईसाई धर्म का होगा। सीधी घोषणा खतरनाक है। क्योंकि सीधी घोषणा से दूसरों | त्याग कर दिया। के अहंकार को चोट लगती है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं महान __तब भी बड रसेल कहता है कि मैं ऊपर से विचार करके कहता हूं, तो फिर आप? आप तत्क्षण छोटे हो जाएंगे। तो आप फौरन हूं कि बुद्ध से महान कोई भी नहीं। लेकिन भीतर मेरे हृदय में कोई इनकार करेंगे कि यह बात नहीं मानी जा सकती। आपका दिमाग | कहता है कि बुद्ध कितने ही महान हों, लेकिन जीसस से महान हो खराब है। .
नहीं सकते। भीतर कोने में कोई छिपा हुआ कहता है। और ज्यादा लेकिन मैं कहता हूं, हिंदू धर्म महान है। हिंदुओं के बीच तो यह से ज्यादा मैं इतना ही कर सकता हूं कि बुद्ध और जीसस दोनों बात स्वीकार कर ली जाएगी, क्योंकि मेरे अहंकार से किसी के समान हैं। बड़ा-छोटा कोई भी नहीं, ज्यादा से ज्यादा। लेकिन अहंकार की टक्कर नहीं होती। हिंदुओं के अहंकार को भी मेरे जीसस को बुद्ध से नीचे रखना मुश्किल हो जाता है। अहंकार के साथ पुष्टि मिलती है। हां, मुसलमान इनकार करेगा। | इसलिए नहीं कि बुद्ध से नीचे हैं या ऊंचे हैं. ये बातें मढतापर्ण
लेकिन अगर मैं कहं, भारत महान है। तो भारत में रहने वाले | हैं। जो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गया, उसकी कोई तुलना नहीं सभी लोग स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि उनके अहंकार को चोट नहीं | | की जा सकती। न वह किसी से नीचे है और न किसी से ऊपर है। लगती। चीन के अहंकार को चोट लगेगी, जर्मनी के अहंकार को | | असल में ज्ञान को उपलब्ध होते ही व्यक्ति तुलना के बाहर हो चोट लगेगी।
जाता है। ___ अगर कहीं हमने किसी दिन मंगल पर या किसी और तारे पर बुद्ध और कृष्ण और महावीर और क्राइस्ट किसी से ऊंचे-नीचे मनुष्यता खोज ली या मनुष्य जैसे प्राणी खोज लिए, तो हम घोषणा नहीं हैं। यह ऊंचे-नीचे की भाषा ही उस लोक में व्यर्थ है। यह तो कर सकेंगे, पृथ्वी महान है। फिर पृथ्वी पर किसी को चोट नहीं हमारी भाषा है। यहां हम ऊंचे-नीचे होते हैं। जैसे ही अहंकार छूट लगेगी। लेकिन मंगल ग्रह पर जो आदमी होगा, उसको फौरन चोट गया। कौन ऊंचा होगा और कौन नीचा होगा? क्योंकि ऊंचा-नीचा लगेगी।
अहंकार की तौल है। ये सारी घोषणाएं छिपे हुए अहंकार की घोषणाएं हैं, परोक्ष बुद्ध भी अहंकारशून्य हैं और क्राइस्ट भी अहंकारशून्य हैं और घोषणाएं हैं। आपके कृष्ण परम ब्रह्म हैं, तो जीसस परम ब्रह्म क्यों कृष्ण भी, तो ऊंचा-नीचा कौन होगा! ऊंचा-नीचा तभी तक कोई नहीं हैं? वे भी परम ब्रह्म हैं। और जीसस ही क्यों? परम ब्रह्म तो | | हो सकता है, जब तक अहंकार का भाव है। हर एक के भीतर छिपा है। किसी के भीतर प्रकट हो गया है और तो यह आप जो कहते हैं कि कृष्ण ब्रह्म हैं, ऐसा दूसरे धर्म के किसी के भीतर अप्रकट है। सच तो यह है कि परम ब्रह्म के | | लोग क्यों नहीं मानते? इसीलिए नहीं मानते हैं कि इससे उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लेकिन बड़ी कठिनाई है। | अहंकार की कोई तृप्ति नहीं होती; और आप इसीलिए मानते हैं कि
बड रसेल ने लिखा है...। बऍड रसेल तो विचारशील से | | आपके अहंकार की तृप्ति होती है। बहुत दूर के धर्मों को तो छोड़ विचारशील व्यक्तियों में एक है। और जिसका पूरा भरोसा बुद्धि | दें, जैन भी राजी नहीं हैं आपसे मानने को, जो कि बिलकुल आपके
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स्वयं को बदलो
पड़ोस में रह रहा है। और आपके और उसके धर्म में कोई बुनियादी फर्क नहीं दिखता, वह भी मानने को राजी नहीं है। जैन को तो छोड़ दें, राम भक्त, जो कि हिंदू है, वह भी इस बात को मानने को राजी नहीं है।
असल में हम मानते उसी बात को हैं, जिससे हमारा अहंकार खिलता है। जिससे हमारे अहंकार में खिलावट नहीं आती, हम मानते - वानते नहीं हैं।
यह धार्मिक आदमी की चिंता ही नहीं है लेकिन । धार्मिक आदमी इसकी फिक्र करता है कि जो मुझे ठीक लगता है, उस रास्ते से चलूं और अपने को बदल लूं, और नए जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। वह रास्ता कृष्ण के मार्ग से मिले, तो ठीक; और क्राइस्ट के मार्ग से मिले, तो ठीक। मार्गों की चिंता ही नासमझ करते हैं। मंजिल की चिंता !
लेकिन कुछ लोग होते हैं, आम नहीं खाते, गुठलियां गिनते हैं। इस तरह के लोग उसी कोटि में हैं। उन्हें फुर्सत ही नहीं है आम को चखने की। वे गुठलियां गिनते रहते हैं !
इन मित्र ने यह भी पूछा है कि क्या निराकार परमात्मा ही कृष्ण नहीं हैं ?
निराकार परमात्मा सभी के भीतर है। कृष्ण के भीतर भी है। कृष्ण के भीतर वह ज्योति पूरी प्रकट होकर दिखाई पड़ रही है, क्योंकि सारे परदे गिर गए हैं। आपके भीतर परदे हैं, इसलिए वह ज्योति दिखाई नहीं पड़ रही है। ज्योति में कोई अंतर नहीं है। किसी का दीया ढंका है और किसी का दीया उघड़ा है। बस, उतना ही फर्क है । में कोई फर्क नहीं है, ज्योति में कोई फर्क नहीं है।
कृष्ण में और आपमें जो अंतर है, वह भीतर की ज्योति का नहीं है, बाहर के आवरण का है।
अभी भी कई भक्तों को और संतों को कृष्ण का साक्षात दर्शन होता है। चौबीस घंटे मुझे भी 'कृष्ण के सिवाय दूसरा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तो निराकार परमात्मा भक्तों के लिए साकार रूप लेते हैं, क्या यह सच है ?
आप भाव से जिसका भी स्मरण करते हैं, वह आपके लिए
रूपवान हो जाता है, वह आपके लिए रूपायित हो जाता है । आपका भाव निर्माता है, स्रष्टा है। भाव सृजनात्मक है। कोई कृष्ण आ जाते हैं, ऐसा नहीं है; कोई क्राइस्ट आ जाते हैं, ऐसा नहीं है। | लेकिन भाव क्रिएटिव है। आप जब गहन भाव से स्मरण करते हैं, तो आपकी चेतना ही उस रूप की हो जाती है जिस रूप का आपने स्मरण किया है। आप कृष्णमय हो जाते हैं, अपने ही भाव के कारण। कोई क्राइस्टमय हो जाता है, अपने ही भाव के कारण।
आपने शायद सुना होगा, ईसाई फकीर हैं बहुत-से, आज भी जीवित हैं, जिनको स्टिगमेटा निकलता है। स्टिगमेटा है, जहां-जहां जीसस को खीले ठोंके गए थे हाथों में। हाथ में, पैर में जीसस को खीले ठोंककर सूली पर लटकाया गया था। तो ऐसे ईसाई फकीर हैं, जो इतने जीससमय हो जाते हैं कि शुक्रवार के दिन, जिस दिन जीसस को सूली हुई थी, उस दिन उनके हाथ और पैर में छेद हो जाते हैं और खून बहने लगता है।
इसके तो वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। खुले समूह के सामने फकीर आंख बंद किए बैठा रहा है और ठीक समय पर — डाक्टरों ने सारी परीक्षा कर ली है - और उसके हाथ: खून बहना शुरू हो जाता है। और ठीक चौबीस घंटे बाद खून की धारा बंद हो जाती है, घाव |पुर जाता है । इतना भाव से एक हो जाता है कि मैं जीसस हूं, कि जीसस के शरीर पर जो घटना घटी थी, वह उसके शरीर पर घटनी शुरू हो जाती है।
इसलिए जीसस के भक्त को जीसस दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण के भक्त को कृष्ण दिखाई पड़ते हैं। राम के भक्त को राम दिखाई पड़ते कृष्ण के भक्त क्राइस्ट कभी दिखाई नहीं पड़ते। क्राइस्ट के भक्त को कृष्ण कभी नहीं दिखाई पड़ते। भाव जब सघन हो जाता है, तो आपकी चेतना रूपांतरित हो जाती है, उसी भाव में एक हो जाती है।
वह जो कृष्ण आपको दिखाई पड़ते हैं, वह आपके ही भीतर की | ज्योति है, जो आपको बाहर दिखाई पड़ रही है भाव के कारण। कोई कृष्ण वहां खड़े हुए नहीं हैं।
इसलिए आप दूसरे को नहीं दिखा सकते हैं कि मुझे कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं, तो आप दस मुहल्ले के लोगों को बुला लें और उनको कहें कि तुम भी देखो, मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। या आप फोटोग्राफर को लिवा लाएं और कहें कि फोटो निकालो; मुझे कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं। कोई फोटो नहीं आएगा । और पड़ोसी को, किसी को दिखाई नहीं पड़ेंगे। पड़ोसी तय करके जाएंगे कि
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
आपका दिमाग खराब हो गया है।
उन्होंने काली की प्रार्थना और पूजा करके पाया था, तब उन्होंने कहा सब्जेक्टिव है, आंतरिक है, आत्मिक है। आपका ही भाव | कि ठीक है, यह रास्ता भी वहीं आता है। यह रास्ता भी वहीं ले साकार हुआ है। और यह कला बड़ी अदभुत है। यह भाव अगर | जाता है। इस रास्ते से चलने वाले भी वहीं पहुंच जाएंगे, जहां दूसरे पूरी तरह साकार होने लगे, तो आप मनुष्य की हैसियत से मिटते | रास्तों से चलने वाले पहंचते हैं। जाएंगे और परमात्मा की हैसियत से प्रकट होने लगेंगे। अपने भाव । फिर तो रामकृष्ण ने कोई छः धर्मों के अलग-अलग प्रयोग से यह सृजन की क्षमता को उपलब्ध कर लेना स्रष्टा हो जाना है। | किए। और सभी धर्मों से जब वे एक ही समाधि को पहुंच गए, तब यही क्रिएटर हो जाना है।
उन्होंने यह वक्तव्य दिया कि रास्ते अलग हैं, लेकिन पर्वत का __ लेकिन आप इससे ऐसा मत समझ लेना कि आपको कृष्ण का शिखर एक है। और अलग-अलग रास्तों से, कभी-कभी विपरीत स्मरण आता है, इसलिए जिसको क्राइस्ट का स्मरण आता है उसको | दिशाओं में जाने वाले रास्तों से भी आदमी उसी एक शिखर पर गलती हो रही है। आप ऐसा भी मत समझ लेना कि कृष्ण के आपको | पहुंच जाता है। दर्शन होते हैं, इसलिए सभी को कृष्ण के दर्शन से ही परमात्मा की तो जल्दी मत करना। दूसरे पर कृपा करना। दूसरे को चोट. प्राप्ति होगी। इस भूल में आप मत पड़ना। अपने-अपने भाव, | पहुंचाने की कोशिश मत करना। एक ही ध्यान रखना कि आपकी अपना-अपना मार्ग, अपनी-अपनी प्रतीति।।
पूरी शक्ति अपने ही प्रयोग में लगे। और धीरे-धीरे आपकी चेतना और भूलकर भी दूसरे की प्रतीति को छूना मत, और गलत मत आपके ही भाव के साथ एक हो जाए। कहना। अपनी प्रतीति बता देना कि मुझे ऐसा होता है, और मुझे परमात्मा को निकट लाने की एक ही कला है। और वह कला यह आनंद हो रहा है। लेकिन दूसरे की प्रतीति को गलत कहने की | यह है कि आप अपने भाव को पूरा का पूरा उसमें डुबा दें। कोशिश मत करना, क्योंकि वह अनधिकार है, वह ट्रेसपास है। इसके दो उपाय हैं। अगर आपके मन की वृत्ति सगुण की हो, तो
और दूसरे के भाव को नुकसान पहुंचाना अधार्मिक है। | आप कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर, कोई भी प्रतीक चुन लें कोई ___आपको ऐसा भी लगता हो कि यह गलत हो रहा है दूसरे को, | भी रूप, कोई भी आकार चुन लें; और उसी आकार में अपने को तो भी आप जल्दी मत करना, क्योंकि दूसरे के संबंध में आपको लीन करने लगे। कुछ भी पता नहीं है। थोड़ा धैर्य रखना। और अगर दूसरे के संबंध लेकिन अगर आकार में आपकी रुचि न हो, तो जरूरत नहीं है में कुछ भी कहना हो, तो दूसरा जो प्रयोग कर रहा है, वह प्रयोग | किसी आकार की भी। तब आप निराकार ध्यान में सीधे उतरने खुद भी कर लेना और फिर ही कहना।
लगे। तब आप अनंत और अनादि का, शाश्वत और सनातन का, रामकृष्ण को ऐसा ही हुआ। रामकृष्ण को लोग आकर पूछते थे | | निराकार आकाश का ही भाव करें-किसी मूर्ति का, किसी बिंब कि इस्लाम धर्म कैसा? ईसाइयत कैसी? तंत्र के मार्ग कैसे हैं? तो का, किसी प्रतीक का नहीं। रामकृष्ण ने कहा कि मैं जब तक उन प्रयोगों को नहीं किया हूं, कुछ यह भी आपको खोज लेना चाहिए कि आपके लिए क्या उचित भी नहीं कह सकता। तो लोग पूछते हैं, तो रामकृष्ण ने कहा कि मैं | | होगा। आपका अपना भीतरी झुकाव और लगन, आपका भीतरी सब प्रयोग करूंगा।
| ढांचा क्या है, यह आपको ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि तो रामकृष्ण छः महीने के लिए मुसलमान की तरह रहे। पृथ्वी | सभी लोगों को सभी बातें ठीक नहीं होंगी; सभी मार्ग सभी के लिए पर यह प्रयोग पहला था, अपने ढंग का था। रामकृष्ण छः महीने | ठीक नहीं होंगे। तक मंदिर नहीं जाते थे, मस्जिद ही जाते थे। और छः महीने तक | जो आदमी निर्गुण को समझ ही नहीं सकता, वह आदमी निर्गुण नमाज ही पढ़ते थे, प्रार्थना नहीं करते थे। छः महीने तक उन्होंने | | के पीछे पड़ जाएगा, तो कष्ट पाएगा और कभी भी उपलब्धि न हिंदुओं जैसे कपड़े पहनने बंद कर दिए थे और मुसलमान जैसे | होगी। कपड़े पहनने लगे थे। छः महीने उन्होंने अपने को इस्लाम में पूरी इसे आप ऐसा समझें। स्कूल में बच्चे भर्ती होते हैं। सभी बच्चों तरह डुबा लिया।
| को गणित नहीं जमता, क्योंकि गणित बिलकुल निराकार है। गणित और जब इस्लाम से भी उन्हें वही अनुभव हो गया, जो अनुभव का कोई आकार तो है नहीं। गणित तो एब्सट्रैक्ट है। सभी बच्चों
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को गणित नहीं जमता। जिन बच्चों को गणित नहीं जमता, या | | | संगति नहीं बैठती, उनमें विरोध है। तो आप जन्मों-जन्मों तक जिनको गणित में बिलकुल रस नहीं आता, या जिनको गणित में कोशिश करते रहें, वह रेत से तेल निकालने जैसी चेष्टा है। वह कोई गति नहीं होती, उन्हें भूलकर भी निराकार और निर्गुण की बात कभी सफल न होगी। और आप शायद यही सोचते रहेंगे कि कर्मों में नहीं पड़ना चाहिए। मैं सिर्फ एक उदाहरण दे रहा हूं। जिनकी के फल के कारण बाधा पड़ रही है। कर्मों के फल के कारण बाधा गणित पर पकड़ नहीं बैठती, उनको निराकार और निर्गुण की बात | पड़ती है, लेकिन इतनी बाधा नहीं पड़ती, जितनी बाधा ढांचे के ही नहीं करनी चाहिए। क्योंकि गणित तो स्थूलतम निराकार की | | विपरीत अगर कोई मार्ग चुन ले तो पड़ती है। यात्रा है। ध्यान तो परम यात्रा है।
इसलिए गुरु का उपयोग है कि वह आपके ढांचे के संबंध में आइंस्टीन जैसा व्यक्ति निराकार में उतर सकता है सरलता से, | खोज कर सकता है। क्योंकि सारा खेल ही निराकार गणित का है।
पश्चिम में मनोवैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि आपको अपने मन गणित बाहर कहीं भी नहीं है, केवल बुद्धि के निराकार में है। | के संबंध में उतना पता नहीं है, जितना कि मनसविद को पता है। अगर आदमी मर जाए, तो गणित बिलकुल मिट जाएगा। क्योंकि | और मनसविद आपका विश्लेषण करके आपके संबंध में वे बातें गणित का कोई सवाल ही नहीं है। आप कहते हैं, एक, दो, तीन, जान लेता है, जो आपको ही पता नहीं थीं। चार-ये कहीं भी नहीं हैं। यह सिर्फ खयाल है, सिर्फ एक निराकार | तो आप यह मत समझ लेना कि चूंकि आप हैं, इसलिए आप भाव है।
| अपने संबंध में सब जानते हैं। आप अपने संबंध में एक प्रतिशत ___ इस तरह का कोई व्यक्ति हो कि उसका निराकार से, एब्सट्रैक्ट | भी नहीं जानते। निन्यानबे प्रतिशत तो आपको अपने बाबत ही पता से कोई संबंध न बैठता हो, तो उसे साकार की यात्रा करनी चाहिए। | नहीं है। और उसके लिए कोई दूर से निष्पक्ष खड़े होकर देखने जैसे मीरा है। तो मीरा को निराकार से कोई रस नहीं, कोई संबंध | वाला चाहिए, जो ठीक से पहचान ले कि क्या-क्या आपके भीतर नहीं है। वह तो कृष्ण को जितना रसपूर्ण देख पाती है, नाचते हुए, | छिपा है। अगर वह आपके भीतर को ठीक से पहचान ले और बांसुरी बजाते हुए, उतनी ही लीन हो जाती है।
| पकड़ ले, तो मार्ग चुनना आसान हो जाए। स्त्रियां अक्सर निराकार की तरफ नहीं जा सकतीं। क्योंकि स्त्रैण अनंत मार्ग हैं और अनंत तरह के लोग हैं। और ठीक मार्ग ठीक मन आकति को | प्रेम करता है. आकार को प्रेम करता है। परुष व्यक्ति को मिल जाए. तो कभी-कभी क्षण में भी मक्ति फलित हो अक्सर निराकार की तरफ जा सकते हैं। क्योंकि पुरुष मन जाती है। लेकिन वह तभी, जब बिलकुल ठीक मार्ग और ठीक एब्सट्रैक्ट है, निर्गुण की तलाश करता है।
व्यक्ति से मिल जाए। लेकिन सभी पुरुष पुरुष नहीं होते और सभी स्त्रियां स्त्रियां नहीं यह करीब-करीब वैसा है, जैसे आप रेडिओ लगाते हैं। और होतीं। बहुत-सी स्त्रियां पुरुष के ढांचे की होती हैं, बहुत-से पुरुष | आपकी सुई अगर ढीली हो, तो दो-दो, चार-चार स्टेशन एक साथ स्त्री के ढांचे के होते हैं। यह ढांचा केवल शरीर का नहीं, मन का | पकड़ती है। कुछ भी समझ में नहीं आता। फिर आप धीमे-धीमे, भी है।
धीमे-धीमे ट्यून करते हैं। और जब ठीक जगह पर सुई रुक जाती तो आपको ठीक पता लगा लेना चाहिए कि आपका भीतरी ढांचा है, ठीक स्टेशन पर, तो सभी स्पष्ट हो जाता है। क्या है। इसलिए गुरु की बड़ी उपयोगिता है। क्योंकि आपको ___ करीब-करीब आपके बीच और विधि के बीच जब तक ठीक शायद यह समझ में भी न आ सके कि आपका ढांचा क्या है। और | ट्यूनिंग न हो जाए, तब तक सत्य की कोई प्रतीति नहीं होती। तब शायद आप गलत ढांचे पर प्रयोग करते रहें और परेशान होते रहें। | तक बहुत बार आपको बहुत मार्ग बदलने पड़ते हैं; बहुत बार अनेक लोग परेशान होते हैं और वे यही समझते हैं कि अपने कर्मों | बहुत-सी विधियां बदलनी पड़ती हैं। के फल के कारण उपलब्धि नहीं हो रही है। अक्सर तो कर्मों के फल | लेकिन अगर आदमी सजग हो, तो बिना गुरु के भी मार्ग खोज का कोई संबंध नहीं होता। उपलब्धि में भूल इसलिए होती है कि ले सकता है। समय थोड़ा ज्यादा लगेगा। अगर आदमी समर्पणशील आपसे तालमेल नहीं पड़ता, जिस विधि का आप प्रयोग कर रहे हैं। हो, तो गुरु के सहारे बहुत जल्दी घटना घट सकती है। जो आप प्रयोग कर रहे हैं। और जो आप हैं, उन दोनों में कोई
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आखिरी सवाल। एक मित्र पूछते हैं कि मैंने सुना है तो बुद्ध ज्यादा कुशल हैं। वे बीच-बीच में नहीं रुकते, वे पहले कि रामकृष्ण परमहंस जब भी गुह्य ज्ञान के बारे में ही घोषणा कर देते हैं। बुद्ध जिस गांव में जाते थे, वे कहलवा देते थे बताते थे, तभी बीच-बीच में रुक जाते थे, और कहते कि ग्यारह प्रश्न मुझसे कोई न पूछे। थे, मां मुझे सच बोलने को नहीं देती। इसका क्या | उन ग्यारह प्रश्नों में वे सब बातें आ जाती थीं. जो गह्म सत्य के अर्थ है?
संबंध में हैं। वे कहते थे, इन्हें छोड़कर तुम कुछ भी पूछो। ये ग्यारह प्रश्न मुझसे मत पूछो। क्योंकि इनके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा
सकता। ये अव्याख्येय हैं। 7 त्य बोला नहीं जा सकता; बोलने की कोशिश की जा | रामकृष्ण ग्राम्य थे। उनकी भाषा ग्रामीण की थी। उनके प्रतीक रा सकती है। और जिनको सत्य का कोई पता नहीं है, | | भी ग्राम्य थे। उनकी कहानियां भी ग्राम्य थीं। उन्होंने पहले से
उन्हें यह अनुभव कभी नहीं होता कि सत्य बोला नहीं | | घोषणा नहीं की थी, लेकिन जब वे बोलते थे, तो बीच-बीच में जा सकता। जिन्हें सत्य का पता ही नहीं है, वे मजे से बोल सकते | अड़चन आ जाती थी। वे कुछ कहना चाहते थे और वह नहीं प्रकट. हैं। उन्हें कभी खयाल भी न आएगा कि सत्य को शब्द में रखना | होता था। कोई शब्द नहीं मिलता था। अत्यंत कठिन, करीब-करीब असंभव है।
लेकिन यह घटना तभी घटती है, जब आपके पास कुछ जिनको भी सत्य का पता है, उन्हें बहुत बार भीतर यह अड़चन | | महत्वपूर्ण कहने को हो। अगर आप बाजार में चीजें खरीदने और आ जाती है; बहुत बार यह अड़चन आ जाती है। उन्हें मालूम है कि | बेचने की ही भाषा को, और उतना ही आपके पास कहने को हो, क्या है सत्य, लेकिन कोई शब्द उससे मेल नहीं खाता। अगर वे | तो यह अड़चन कभी नहीं आती। लेकिन जैसे ही आप ऊपर उड़ते कोई भी शब्द चुनते हैं, तो पाते हैं कि उससे कुछ भूल हो जाएगी। | हैं और समाज और बाजार की भाषा के बाहर की दुनिया में प्रवेश वे जो कहना चाहते हैं, वह तो कहा नहीं जाएगा। और कई बार ऐसा | करते हैं, वैसे ही कठिनाई आनी शुरू हो जाती है। लगता है कि जो वे नहीं कहना चाहते, वह भी इस शब्द से ध्वनित रवींद्रनाथ ने छः हजार गीत लिखे हैं। शायद दुनिया में किसी हो जाएगा। बहुत बार ऐसा होता है कि यह शब्द का उपयोग तो | कवि ने इतने गीत नहीं लिखे। पश्चिम में शेली को वे कहते हैं किया जा सकता है, लेकिन सुनने वाला गलत समझेगा। तो | महाकवि। लेकिन उसके भी दो हजार गीत हैं। रवींद्रनाथ के छ: रुकावट हो जाती है।
हजार गीत हैं, जो संगीत में बद्ध हो सकते हैं। रामकृष्ण का मतलब वही है। वह उनके काव्य की भाषा है कि ___ मरने के तीन या चार दिन पहले एक मित्र ने आकर रवींद्रनाथ वे कहते हैं, मां रोक लेती है सत्य को कहने से। वह उनकी | को कहा कि तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि पृथ्वी पर अब तक हुए काव्य-भाषा है। लेकिन असली कारण...कोई रोकता नहीं है; | महाकवियों में तुम्हारा सबसे बड़ा दान है-छः हजार गीत, जो सत्य ही रोक लेता है। क्योंकि सत्य शब्द के साथ बैठ नहीं पाता। | | संगीत में बंध सकते हैं! और प्रत्येक गीत अनूठा है। तुम्हें मृत्यु का
फिर रामकृष्ण की तकलीफ दूसरी भी है। क्योंकि वे शब्द के | कोई भय नहीं होना चाहिए और न कोई दुख लेना चाहिए, क्योंकि संबंध में बहुत कुशल भी नहीं थे। बेपढ़े-लिखे थे। बुद्ध इस तरह | तुम काम पूरा कर चुके हो; तुम फुलफिल्ड हो। आदमी तो वह दुखी नहीं रुकते। रामकृष्ण दूसरी कक्षा तक मुश्किल से पढ़े थे। मरता है, जिसका कुछ काम अधूरा रह गया हो। तुम्हारा काम तो पढ़ना-लिखना नहीं हुआ था। शब्द से उनका कोई बहुत संबंध न | | जरूरत से ज्यादा पूरा हो गया है। था। और फिर उन्हें अनुभव तो वही हुआ, जो बुद्ध को हुआ। । रवींद्रनाथ ने कहा कि रुको, आगे मत बढ़ो। मेरी हालत दूसरी
लेकिन बुद्ध सुशिक्षित थे, शाही परिवार से थे। जो भी हो सकता | ही है। मैं इधर परमात्मा से प्रार्थना किए जा रहा हूं कि अभी तो मैं था संस्कार श्रेष्ठतम, वह उन्हें उपलब्ध हुआ था। जो भी आभिजात्य | अपना साज बिठा पाया था; अभी मैंने गीत गाया कहां! अभी तो की भाषा थी, जो भी काव्य की, कला की भाषा थी, जो भी श्रेष्ठतम मैं ठोंक-पीट करके अपना साज बिठा पाया था। और अब गाने का था साहित्य में, उसका उन्हें पता था। तो बुद्ध नहीं रुकते हैं। लेकिन | वक्त करीब आता था कि इस शरीर के विदा होने का वक्त करीब इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध कह पाते हैं सत्य है वह। नहीं। आ गया। ये छः हजार गीत तो मेरी कोशिश हैं सिर्फ. उस गीत को
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गाने के लिए, जो मैं गाना चाहता हूं। अभी उसे गा नहीं पाया हूं। | के कहने के, उसका स्मरण आते ही वे लीन हो जाते थे, इसलिए
और यह तो वक्त जाने का आ गया! वह गीत तो अनगाया रह गया | भी अंतराल हो जाता था। है, जो मेरे भीतर उबलता रहा है। उसी को गाने के लिए ये छः हजार अब हम सूत्र को लें। मैंने प्रयास किए थे। ये सब असफल गए हैं। मैं सफल नहीं हो पाया। तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है जो मैं कहना चाहता था, वह अभी भी अनकहा मेरे हृदय में दबा है। | और चर-अचर रूप भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय
असल में जितनी ही ऊंचाई की प्रतीति और अनुभूति होगी, शब्द | अर्थात जानने में नहीं आने वाला है। तथा अति समीप में और अति उतने ही नीचे पड़ जाएंगे। बाजार की भाषा ऐसे रह जाती है, जैसे | दूर में भी स्थित वही है। और वह विभागरहित एक रूप से आकाश कोई आकाश में उड़ गया दूर, और बाजार की भाषा बहुत नीचे रह | | के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर संपूर्ण भूतों में पृथक-पृथक के गई। अब उससे कोई संबंध नहीं जुड़ता।
सदृश स्थित प्रतीत होता है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का और आकाश की कोई भाषा नहीं है। अभी तक तो नहीं है। कवि | धारण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला तथा सब का उत्पन्न बड़ी कोशिश करते हैं; कभी-कभी कोई एक झलक ले आते हैं। | करने वाला है। और वह ज्योतियों की भी ज्योति एवं माया से अति संतों ने बड़ी कोशिश की है; और कभी-कभी कोई एक झलक | परे कहा जाता है। तथा वह बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं शब्दों में उतार दी है। लेकिन सब झलकें अधूरी हैं। क्योंकि सब | तत्वज्ञान से प्राप्त होने वाला और सब के हृदय में स्थित है। शब्द आदमी के हैं और अनुभूति परमात्मा की है। आदमी बहुत | तीन महत्वपूर्ण बातें। पहली बात, परमात्मा के संबंध में जब भी छोटा है और अनुभूति बहुत बड़ी है। इतना बड़ा हो जाता है अनुभव कुछ कहना हो, तो भाषा में जो भी विरोध में खड़ी हुई दो अतियां कि वाणी सार्थक नहीं रह जाती।
हैं, एक्सट्रीम पोलेरिटीज हैं, उन दोनों को एक साथ जोड़ लेना इसलिए रामकृष्ण बीच-बीच में रुक जाते थे। लेकिन वे भक्त थे | जरूरी है। क्योंकि दोनों अतियां परमात्मा में समाविष्ट हैं। और जब उनकी भाषा भक्त की है। जो मैंने कहा, ऐसा उत्तर वे नहीं देते। वे | भी हम एक अति के साथ परमात्मा का तादात्म्य करते हैं, तभी हम कहते कि मां ने रोक लिया। मां सत्य नहीं बोलने देती। बात यही है।। भूल कर जाते हैं और अधूरा परमात्मा हो जाता है। और हमारा
मां क्यों रोकेगी सत्य बोलने से? लेकिन रामकृष्ण तो सत्य और | परमात्मा के संबंध में जो वक्तव्य है, वह असत्य हो जाता है, वह मां को एक ही मानते हैं। उनके लिए मां सत्य है, सत्य मां है। वह पूरा नहीं होता। मां उनके लिए सत्य का साकार रूप है। तो वे कहते हैं, मां रोक मगर मनुष्य का मन ऐसा है कि वह एक अति को चुनना चाहता लेती है। वे कभी-कभी बीच में रुक जाते थे। बहत देर तक चप रह है। हम कहना चाहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है। तो दनिया के सारे जाते थे। फिर बात शुरू करते थे। वह कहीं और से शुरू होती थी। | धर्म, सिर्फ हिंदुओं को छोड़कर, कहते हैं कि परमात्मा स्रष्टा है, .जहां से उन्होंने शुरू की थी, जहां टूट गई थी, बीच में अंतराल आ | | क्रिएटर है। सिर्फ हिंदू अकेले हैं जमीन पर, जो कहते हैं, परमात्मा जाता था। इन अंतरालों का एक कारण और है।
दोनों है, स्रष्टा भी और विनाशक भी, क्रिएटर और डिस्ट्रायर। रामकृष्ण अनेक बार बीच-बीच में समाधि में भी चले जाते थे। यह बहुत विचारणीय है और बहुत मूल्यवान है। क्योंकि और कभी भी कोई ईश्वर-स्मरण आ जाए, तो उनकी समाधि लग परमात्मा स्रष्टा है, यह तो समझ में आ जाता है। लेकिन वही जाती थी। कभी तो ऐसा होता कि रास्ते पर चले जा रहे हैं और विनाशक भी है, वही विध्वंसक भी है, यह समझ में नहीं आता। किसी ने किसी से जयरामजी कर ली, और वे खड़े हो गए, और |
|| आपके बेटे को जन्म दिया, तब तो आप परमात्मा को धन्यवाद आंख उनकी बंद हो गई। यह नाम सुनकर ही, राम का स्मरण दे देते हैं कि परमात्मा ने बेटे को जन्म दिया। और आपका बेटा मर सुनकर ही वे समाधि में चले गए। उनको सड़क पर ले जाते वक्त | | जाए, तो आपकी भी हिम्मत नहीं पड़ती कहने की कि परमात्मा ने भी ध्यान रखना पड़ता था। कोई मंदिर की घंटी बज रही है और धूप | | बेटे को मार डाला। क्योंकि यह सोचते ही कि परमात्मा ने बेटे को जल रही है, उनको सुगंध आ गई और घंटी की आवाज सुन ली, मार डाला, ऐसा लगता है, यह भी कैसा परमात्मा, जो मारता है! वे समाधि में चले गए।
लेकिन ध्यान रहे, जो जन्म देता है, वही मारने वाला तत्व भी तो कभी-कभी बोलते वक्त भी, जैसे ही वे करीब आते थे सत्य होगा। चाहे हमें कितना ही अप्रीतिकर लगता हो। हमारी प्रीति और
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गीता दर्शन भाग-6
अप्रीति का सवाल भी नहीं है। जो बनाता है, वही मिटाएगा भी । नहीं तो मिटाएगा कौन?
और अगर मिटने की क्रिया न हो, तो बनने की क्रिया बंद हो जाएगी। अगर जगत में मृत्यु बंद हो जाए, तो जन्म बंद हो जाएगा। . आप यह मत सोचें कि जन्म जारी रहेगा और मृत्यु बंद हो सकती है। उधर मृत्यु बंद होगी, इधर जन्म बंद होगा। और अनुपात निरंतर वही रहेगा। उधर मृत्यु को रोकिएगा, इधर जन्म रुकना शुरू हो जाएगा।
इधर चिकित्सकों ने, चिकित्साशास्त्र ने मृत्यु को थोड़ा दूर हटा दिया है, बीमारी थोड़ी कम कर दी है, तो सारी दुनिया की सरकारें संतति-निरोध में लगी हैं। वह लगना ही पड़ेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। और अगर सरकारें संतति-निरोध नहीं करेंगी, तो अकाल करेगा, भुखमरी करेगी, बीमारी करेगी। लेकिन जन्म और मृत्यु में एक अनुपात है। उधर आप मृत्यु को रोकिए, तो इधर जन्म को रोकना पड़ेगा।
अब इधर हिंदुस्तान में बहुत-से साधु-संन्यासी हैं, वे कहते हैं, संतति-निरोध नहीं होना चाहिए। उनको यह भी कहना चाहिए कि अस्पताल नहीं होने चाहिए। अस्पताल न हों, तो संतति-निरोध की कोई जरूरत नहीं है। इधर मौत रोकने में सब राजी हैं कि रुकनी चाहिए। संत-महात्मा लोगों को समझाते हैं, अस्पताल खोलो; मौत को रोको। मौत को हटाओ; बीमारी कम करो। और वही संत-महात्मा लोगों को समझाते हैं कि बर्थ कंट्रोल मत करना । इससे तो बड़ा खतरा हो जाएगा। यह परमात्मा के खिलाफ है।
अगर बर्थ कंट्रोल परमात्मा के खिलाफ है, तो दवाई भी परमात्मा के खिलाफ है। क्योंकि परमात्मा बीमारी दे रहा है और तुम दवा कर रहे हो! परमात्मा मौत ला रहा है और तुम इलाज करवा रहे हो! तब सब चिकित्सा परमात्मा के विरोध में है। चिकित्सा बंद कर दो, संतति-निरोध की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। लोग अपने आप ही ठीक अनुपात में आ जाएंगे। इधर मौत रोकी, इधर जन्म रुकता है।
आप सोच लें, अगर किसी दिन विज्ञान ने यह तरकीब खोज निकाली कि आदमी को मरने की जरूरत नहीं, तो हमें सभी लोगों को बांझ कर देना पड़ेगा, क्योंकि फिर पैदा होने की कोई जरूरत नहीं ।
जन्म और मृत्यु एक ही धागे के दो छोर हैं। उनमें एक संतुलन है। यह सूत्र पहली बात यह कर रहा है कि परमात्मा दोनों अतियों का जोड़ है। सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है।
बहुत लोग हैं, जो मानते हैं, परमात्मा बाहर है। आम आदमी की धारणा यही होती है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। एक बहुत बड़ी दाढ़ी वाला बूढ़ा आदमी, वह सारी दुनिया को सम्हाल रहा है सिंहासन पर बैठा हुआ ! इससे बड़ा खतरा भी होता है कभी-कभी ।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब मुझे बचपन में यह समझाया गया कि परमात्मा आकाश में बैठा हुआ है अपने सिंहासन पर और दुनिया का काम कर रहा है, तो उसने लिखा है कि मैं अपने बाप से कह तो नहीं सका, लेकिन मुझे सदा एक ही खयाल आता था कि वह अगर पेशाब, मल-मूत्र त्याग करता होगा, तो वह सब हम ही पर. गिरता होगा । आखिर वह सिंहासन पर बैठा-बैठा कब तक बैठा रहता होगा; कभी तो मल-मूत्र त्याग करता होगा !
उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि यह बात मेरे मन में बुरी तरह घूमने लगी। छोटा बच्चा ही था। किसी से कह तो सकता नहीं, | क्योंकि किसी से कहूं तो वह पिटाई कर देगा कि यह भी क्या बात कर रहे हो, परमात्मा और मल-मूत्र ! लेकिन जब परमात्मा सिंहासन पर बैठता है आदमियों की तरह, जैसे आदमी कुर्सियों पर बैठते हैं; और जब परमात्मा की दाढ़ी-मूंछ और सब आदमी की तरह है, तो फिर मल-मूत्र भी होना ही चाहिए। किसी से, जुंग ने लिखा है, मैं कह तो नहीं सका, तो फिर मुझे सपना आने लगा। कि वह बैठा है अधर में और मल-मूत्र गिर रहा है !
आम आदमी की धारणा यही है कि वह कहीं आकाश में बैठा हुआ है— बाहर। इसलिए आप मंदिर जाते हैं, क्योंकि परमात्मा बाहर है। यह एक अति है।
एक दूसरी अति है, जो मानते हैं कि परमात्मा भीतर है; बाहर का कोई सवाल नहीं। इसलिए न कोई मंदिर, न कोई तीर्थ; न बाहर कोई जाने की जरूरत । परमात्मा भीतर है।
यह सूत्र कहता है कि दोनों बातें अधूरी हैं। जो कहते हैं, परमात्मा भीतर है, वे भी आधी बात कहते हैं । और जो कहते हैं, परमात्मा बाहर है, वे भी आधी बात कहते हैं। और दोनों गलत हैं, क्योंकि अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर होता है। क्योंकि वह सत्य जैसा भासता है और सत्य नहीं होता । परमात्मा बाहर और भीतर दोनों में है।
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वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है। क्योंकि बाहर-भीतर उसके ही दो खंड हैं। हमारे लिए जो बाहर
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है और हमारे लिए जो भीतर है, वह उसके लिए न तो बाहर है, न | नहीं सकता। परमात्मा तो बहुत दूर है, नमक का स्वाद भी नहीं भीतर है। दोनों में वही है।
समझा सकता। और अगर आपने कभी नमक नहीं चखा है, तो मैं ऐसा समझें कि आपके कमरे के भीतर आकाश है और कमरे के लाख सिर पटकू और सारे शास्त्र इकट्ठे कर लूं और दुनियाभर के बाहर भी आकाश है। आकाश बाहर है या भीतर? आपका मकान | विज्ञान की चर्चा आपसे करूं, तो भी आखिर में आप पूछेगे कि ही आकाश में बना है, तो आकाश आपके मकान के भीतर भी है | | आपकी बातें तो सब समझ में आईं, लेकिन यह नमकीन क्या है? और बाहर भी है। दीवालों की वजह से बाहर-भीतर का फासला | | उसका उपाय एक ही है कि एक नमक का टकडा आपकी जीभ पैदा हो रहा है। यह शरीर की दीवाल की वजह से बाहर-भीतर का | पर रखा जाए। शास्त्र-वास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। जो समझ में फासला पैदा हो रहा है। वैसे बाहर-भीतर वह दोनों नहीं है; या | आने वाला नहीं है, वह भी अनुभव में आने वाला हो जाएगा। और दोनों है।
| आप कहेंगे कि आ गया अनुभव में स्वाद। सूत्र कहता है, बाहर भीतर दोनों है परमात्मा। चर-अचर रूप परमात्मा का स्वाद आ सकता है। इसलिए कोई प्रत्यय के ढंग भी वही है।
से, कंसेप्ट की तरह समझाए, कोई सार नहीं होता। इसीलिए तो हम चर-अचर रूप भी वही है। जो बदलता है, वह भी वही है; जो परमात्मा के लिए कोई स्कूल नहीं खोल पाते, कोई पाठशाला नहीं नहीं बदलता, वह भी वही है।
बना पाते। या बनाते हैं तो उससे कोई सार नहीं होता। यहां भी हम इसी तरह का द्वंद्व खड़ा करते हैं कि परमात्मा कभी कितनी ही धर्म की शिक्षा दो, कोई धर्म नहीं होता। सीख-साख नहीं बदलता और संसार सदा बदलता रहता है। लेकिन बदलाहट | | कर आदमी वैसे का ही वैसा कोरा लौट जाता है। और कई दफे तो में भी वही है और गैर-बदलाहट में भी वही है। दोनों द्वंद्व को वह | | और भी ज्यादा चालाक होकर लौट जाता है, जितना वह पहले नहीं घेरे हुए है।
था। क्योंकि अब वह बातें बनाने लगता है। अब वह अच्छी बातें सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, जानने में आने वाला नहीं है। | करने लगता है। वह धर्म की चर्चा करने लगता है। और स्वाद उसे बहुत सूक्ष्म है। सूक्ष्मता दो तरह की है। एक तो कोई चीज बहुत | | बिलकुल नहीं है। सूक्ष्म हो, तो समझ में नहीं आती। या कोई चीज बहुत विराट हो, | कृष्ण कहते हैं, सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है, समझ में आने वाला तो समझ में नहीं आती। न तो यह अनंत विस्तार समझ में आता है | | नहीं है। अति समीप है और अति दूर भी है। और न सूक्ष्म समझ में आता है। दो चीजें छूट जाती हैं। ___ पास है बहुत; इतना पास, जितना कि आप भी अपने पास नहीं
दो छोर हैं, विराट और सूक्ष्म। सूक्ष्म को कहना चाहिए, शून्य हैं। असल में पास कहना ठीक ही नहीं है, क्योंकि आप ही वही हैं। जैसा सूक्ष्म। एक से भी नीचे, जहां शून्य है। दो तरह के शून्य हैं। | | और दूर इतना है, जितने दूर की हम कल्पना कर सकें। अगर संसार एक से भी नीचे उतर जाएं, तो एक शून्य है। और अनंत का एक | | की कोई भी सीमा हो, विश्व की, तो उस सीमा से भी आगे। कोई शून्य है। ये दोनों समझ में नहीं आते। परमात्मा दोनों अर्थों में सूक्ष्म | | सीमा है नहीं, इसलिए अति दूर और अति निकट। ये दो अतियां है। विराट के अर्थों में भी, शून्य के अर्थों में भी। और इसलिए हैं, जिन्हें जोड़ने की कृष्ण कोशिश कर रहे हैं। अविज्ञेय है। समझ में आने जैसा नहीं है।
विभागरहित, उसका कोई विभाजन नहीं हो सकता। और सभी पर यह तो बड़ी कठिन बात हो गई। अगर परमात्मा समझ में आने विभागों में वही मौजूद है। तथा वह जानने योग्य परमात्मा भूतों का जैसा ही नहीं है, तो समझाने की इतनी कोशिश! सारे शास्त्र, सारे धारण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला और उत्पन्न करने ऋषि एक ही काम में लगे हैं कि परमात्मा को समझाओ। और वह वाला, सभी वही है। समझ में आने योग्य नहीं है। फिर यह समझाने से क्या सार होगा! | वही बनाता है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है। यह धारणा
समझ में आने योग्य नहीं है, इसका यह मतलब आप मत | | बड़ी अदभुत है। और एक बार यह खयाल में आ जाए, वही बनाता समझना कि वह अनुभव में आने योग्य नहीं है। समझ में तो नहीं | | है, वही सम्हालता है, वही मिटाता है, तो हमारी सारी चिंता समाप्त आएगा, लेकिन अनुभव में आ सकता है।
| हो जाती है। जैसे अगर मैं आपको समझाने बैलूं नमक का स्वाद, तो समझा। यह एक सूत्र आपको निश्चित कर देने के लिए काफी है। यह
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गीता दर्शन भाग-60
एक सूत्र आपको सारे संताप से मुक्त कर देने के लिए काफी है। मां अपने बेटे को बुद्धि के ढंग से नहीं जानती। सोचती नहीं क्योंकि फिर आपके हाथ में कुछ नहीं रह जाता। न आपको परेशान | | उसके बाबत; जानती है। हृदय की धड़कन से जुड़कर जानती है। होने का कोई कारण रह जाता है। और न आपको शिकायत की कोई | | वह उसे पहचानती है। वह पहचान कुछ और मार्ग से होती है। वह जरूरत रह जाती है। और न आपको कहने की जरूरत रह जाती है | मार्ग सीधा-सीधा खोपड़ी से नहीं जुड़ा हुआ है। वह शायद हृदय कि ऐसा क्यों है? बीमारी क्यों है? बुढ़ापा क्यों है? मौत क्यों है? | | की धड़कन से और भाव, अनुभूति से जुड़ा हुआ है। कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं रह जाती। आप जानते हैं कि वही | | परमात्मा को जानने के लिए बुद्धि उपकरण नहीं है। बुद्धि को एक तरफ से बनाता है और दूसरी तरफ से मिटाता है। और वही | रख देना एक तरफ मार्ग है। इसलिए सारी साधनाएं बुद्धि को हटा बीच में सम्हालता भी है।
देने की साधनाएं हैं। और बुद्धि को जो एक तरफ उतारकर रख दे, इसलिए हमने परमात्मा का त्रिमूर्ति की तरह प्रतीक निर्मित किया जैसे स्नान करते वक्त किसी ने कपड़े उतारकर रख दिए हों, ऐसा है। उसमें तीन मूर्तियां, तीन तरह के परमात्मा की धारणा की है। | प्रार्थना और ध्यान करते वक्त कोई बुद्धि को उतारकर रख दे, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, वह हमने तीन धारणा की हैं। ब्रह्मा सर्जक है, | | बिलकुल निर्बुद्धि हो जाए, बिलकुल बच्चे जैसा हो जाए,. स्रष्टा है। विष्णु सम्हालने वाला है। शिव विनष्ट कर देने वाला है। | बाल-बुद्धि हो जाए, जिसे कुछ बचा ही नहीं, सोच-समझ की कोई लेकिन त्रिमूर्ति का अर्थ तीन परमात्मा नहीं है। वे केवल तीन चेहरे बात ही न रही, तो तत्क्षण संबंध जुड़ जाता है। हैं। मूर्ति तो एक है। वह अस्तित्व तो एक है, लेकिन उसके ये तीन __ क्यों ऐसा होता होगा? ऐसा इसलिए होता है कि बुद्धि तो बहुत ढंग हैं।
| संकीर्ण है। बुद्धि का उपयोग है संसार में। जहां संकीर्ण की हम __ और वही ज्योतियों की ज्योति, माया से अति परे कहा जाता है। | खोज कर रहे हैं, क्षुद्र की खोज कर रहे हैं, वहां बुद्धि का उपयोग तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्वज्ञान | है। लेकिन जैसे ही हम विराट की तरफ जाते हैं, वैसे ही बुद्धि बहुत से प्राप्त होने वाला और सबके हृदय में स्थित है। | संकीर्ण रास्ता हो जाती है। उस रास्ते से प्रवेश नहीं किया जा सकता __ अविज्ञेय है, समझ में न आने वाला है, और फिर भी जानने | है। उसको हटा देना, उसे उतार देना। योग्य वही है। ये बातें उलझन में डालती हैं। और लगता है कि संतों ने न मालम कितनी तरकीबों से एक ही बात सिखाई हैं कि एक-दूसरे का विरोध है। विरोध नहीं है। समझ में तो वह नहीं कैसे आप अपनी बुद्धि से मुक्त हों। इसलिए बड़ी खतरनाक भी है। आएगा, अगर आपने समझदारी बरती। अगर आपने कोशिश की क्योंकि हमें तो लगता है कि बुद्धि को बचाकर कुछ करना है, बुद्धि कि बुद्धि से समझ लेंगे, तर्क लगाएंगे, गणित बिठाएंगे, आयूँ| | साथ लेकर कुछ करना है, सोच-विचार अपना कायम रखना है। करेंगे, प्रमाण जुटाएंगे, तो वह आपकी समझ में नहीं आएगा। कहीं कोई हमें धोखा न दे जाए। कहीं ऐसा न हो कि हम बुद्धि को क्योंकि सभी प्रमाण आपके हैं, आपसे बड़े नहीं हो सकते। सभी उतारकर रखें, और इसी बीच कुछ गड़बड़ हो जाए। और हम कुछ तर्क आपके हैं; आपके अनुभव से ज्यादा की उनसे कोई उपलब्धि भी न कर पाएंगे। नहीं हो सकती। और सभी तर्क बांझ हैं; उनसे कोई अनुभव नहीं ___ तो बुद्धि को हम हमेशा पकड़े रहते हैं, क्योंकि बुद्धि से हमें मिल सकता।
लगता है, हमारा कंट्रोल है, हमारा नियंत्रण है। बुद्धि के हटते ही लेकिन जानने योग्य वही है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जानने | नियंत्रण खो जाता है। और हम सहज प्रकृति के हिस्से हो जाते हैं। की कोई और कीमिया, कोई और प्रक्रिया हमें खोजनी पड़ेगी। बुद्धि इसलिए खतरा है और डर है। इस डर में थोड़ा कारण है। वह उसे जानने में सहयोगी न होगी। क्या बुद्धि को छोड़कर भी जानने खयाल में ले लेना जरूरी है। का कोई उपाय है? क्या कभी आपने कोई चीज जानी है, जो बुद्धि __ अगर आपको क्रोध आता है, तो बुद्धि एक तरफ हो जाती है। को छोड़कर जानी हो?
जब क्रोध चला जाता है, तब बुद्धि वापस आती है। और तब आप अगर आपके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव हो, तो शायद | | पछताते हैं। जब कामवासना पकड़ती है, तो बुद्धि एक तरफ हो थोड़ा-सा खयाल आ जाए। प्रेम के अनुभव में आप बुद्धि से नहीं जाती है। और जब काम-कृत्य पूरा हो जाता है, तब आप उदास जानते; कोई और ढंग है जानने का, कोई हार्दिक ढंग है जानने का। और दुखी और चिंतित हो जाते हैं कि फिर वही भूल की। कितनी
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बार सोचा कि नहीं करें, फिर वही किया। फिर बुद्धि आ गई। | दे; उसकी बीमारी को दूर कर दे।
एक बात खयाल रखें, प्रकृति भी तभी काम करती है, जब बुद्धि | ___ इसलिए चिकित्सक की पहली चिंता होती है कि मरीज सो बीच में नहीं होती। आपके भीतर जो निम्न है, वह भी तभी काम | जाए। बाकी काम दूसरा है, नंबर दो पर है। दवा वगैरह नंबर दो करता है, जब बुद्धि नहीं होती। अगर आप बुद्धि को सजग रखें, | पर है। पहला काम है कि मरीज सो जाए। क्यों इतनी चिंता है? तो आप क्रोध भी नहीं कर पाएंगे और कामवासना में भी नहीं उतर क्योंकि मरीज की बुद्धि दिक्कत दे रही है। सो जाए, तो प्रकृति पाएंगे।
काम कर सके। __ अगर दुनिया बिलकुल बुद्धिमान हो जाए, तो संतान पैदा होनी ___आप भी जब सोते हैं, तभी आपका शरीर स्वस्थ हो पाता है। बंद हो जाएगी, संसार उसी वक्त बंद हो जाएगा। क्योंकि नीचे की दिनभर में आप उसको अस्वस्थ कर लेते हैं। प्रकृति की भी सक्रियता तभी हो सकती है, जब आप बुद्धि का आपको पता है, बच्चा जब पैदा होता है तो बाईस घंटे सोता है, नियंत्रण छोड़ दें। क्योंकि प्रकृति तभी आपके भीतर काम कर पाती | | बीस घंटे सोता है। और मां के पेट में नौ महीने चौबीस घंटे सोता है, जब आपकी बुद्धि बीच में बाधा नहीं डालती।
| है। फिर जैसे-जैसे उम्र बड़ी होने लगती है, नींद कम होने लगती वह जो श्रेष्ठ प्रकृति है, जिसको हम परमात्मा कहते हैं, वह भी | | है। फिर बूढ़ा और कम सोता है। फिर बुढ़ापे में कोई आदमी दो ही तभी काम करता है, जब आपकी बुद्धि नहीं होती। पर इसमें एक घंटे, तीन घंटे ही सो ले, तो बहुत। खतरा है, जो समझ लेने जैसा है। वह यह कि चूंकि हम नीचे की | बूढ़े बहुत परेशान होते हैं। सत्तर साल के बूढ़े भी मेरे पास आ प्रकृति से डरे हुए हैं, इसलिए बुद्धि के नियंत्रण को हम हमेशा | जाते हैं। वे कहते हैं, कुछ नींद का रास्ता बताइए। कायम रखते हैं। हम डरे हुए हैं। अगर बुद्धि को छोड़ दें, तो क्रोध, | | नींद की आपको जरूरत नहीं रही है अब। जैसे-जैसे शरीर मरने हिंसा, कुछ भी हो जाए। अगर बुद्धि को हम छोड़ दें, तो हमारे । के करीब पहुंचता है, प्रकृति शरीर में काम करना कम कर देती है। भीतर की वासनाएं स्वच्छंद हो जाएं, तो हम तो अभी पागल की | | उसकी जरूरत नहीं है। बनाने का काम बंद हो जाता है। तरह न मालूम क्या कर गुजरें।
बच्चा चौबीस घंटे सोता है, क्योंकि प्रकृति को बनाने का काम कितनी बार हत्या करने की सोची है बात! लेकिन बुद्धि ने कहा, करना है। अगर बच्चा जग जाए, तो बाधा डालेगा। उसकी बुद्धि यह क्या कर रहे हो? पाप है। जन्मों-जन्मों तक भटकोगे, नरक में बीच में आ जाएगी। वह कहेगा, टांग जरा लंबी होती, जो अच्छा जाओगे। और न भी गए नरक में, तो अदालत है, कोर्ट है, पुलिस था। नाक जरा ऐसी होती, तो अच्छा था। आंख जरा और बड़ी है। और कहीं भी न गए, तो खुद की कासिएंस है, अंतःकरण है, होती, तो मजा आ जाता। वह गड़बड़ डालना शुरू कर देगा। वह कचोटेगा सदा, कि तुमने हत्या की। फिर क्या मुंह दिखाओगे? तो नौ महीने प्रकृति उसको एक दफे भी होश नहीं देती। बेहोश, कैसे चलोगे रास्ते पर? कैसे उठोगे? तो बुद्धि ने रोक लिया है। प्रकृति अपना काम करती है। जैसे ही बच्चा पूरा हो जाता है, बाहर
अगर आज कोई कहे कि बुद्धि का नियंत्रण छोड़ दो, तो पहला | | आ जाता है। लेकिन तब भी बाईस घंटे सोता है। अभी बहुत काम खयाल यही आएगा, अगर नियंत्रण छोड़ा कि उठाई तलवार और होना है। अभी उसकी पूरी जिंदगी की तैयारी होनी है। किसी की हत्या कर दी। क्योंकि वह तैयार बैठा है भाव भीतर। जैसे ही बच्चे के शरीर का काम पूरा हो जाता है, वैसे ही नींद एक
नीचे की प्रकृति के डर के कारण हम बुद्धि को नहीं छोड़ पाते। जगह आकर रुक जाती है-छः घंटा, सात घंटा, आठ घंटा। काम और हमें ऊपर की प्रकृति का कोई पता नहीं है। क्योंकि वह भी बुद्धि प्रकृति का पूरा हो गया। अब ये आठ घंटे तो रोज के काम के लिए के छोड़ने पर ही काम करती है।
| हैं। रोज में आप शरीर को जितना तोड़ लेंगे, उतना प्रकृति रात में पूरा इसे हम ऐसा भी समझें। अगर कोई आदमी बीमार हो, तो कर देगी। दूसरे दिन आप सुबह ताजा होकर काम में लग जाएंगे। चिकित्सक पहली फिक्र करते हैं कि उसको नींद ठीक से आ जाए। | बूढ़ा तो अब मरने के करीब है, उसको तीन घंटा भी जरूरत से क्योंकि वह जगा रहता है, तो शरीर की प्रकृति को काम नहीं करने ज्यादा है। क्योंकि अब प्रकृति कुछ बना नहीं रही है, सिर्फ तोड़ रही देता, बाधा डालता रहता है। नींद आ जाए, तो शरीर अपना काम है। इसलिए नींद कम होती जा रही है। पूरा कर ले; प्रकृति उसके शरीर को ठीक कर दे; उसके घाव भर प्रकृति भी काम करती है, जब आप बुद्धि से बीच में बाधा नहीं
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
डालते। यह मैं इसलिए उदाहरण दे रहा हूं कि जो नीचे की प्रकृति | देखने वाले का अनुभव क्या है। के संबंध में सच है. वही ऊपर की प्रकति के संबंध में भी सच है। भोजन कर रहे हैं। साक्षी हो जाएं। अचानक खयाल आए. एक जब आप परमात्मा को भी बाधा नहीं डालते और बुद्धि को हटा लेते | | गहरी श्वास लें और देखने लगे कि आप देख रहे हैं अपने शरीर हैं, तब वह भी काम करता है। लेकिन नीचे के भय के कारण हम | को भोजन करते हुए। पहले थोड़ी अड़चन होगी, थोड़ा-सा विचित्र ऊपर से भी भयभीत होते हैं। नीचे के डर के कारण, हम ऊपर की | मालूम पड़ेगा, क्योंकि दो की जगह तीन आदमी हो गए। अभी तरफ भी नहीं खुलते।
भोजन था, करने वाला था; भूख थी, करने वाला था। अब एक इसलिए मेरा कहना है कि प्रकृति को भी परमात्मा का बाह्य रूप यह तीसरा और आ गया, देखने वाला। . समझें। उससे भी भयभीत न हों। उससे भी भयभीत न हों, उसमें यह देखने वाले की वजह से थोड़ी कठिनाई होगी। एक तो भी उतरें। उससे भी डरें मत। उससे भी भागें मत। उसको भी घटने भोजन करना धीमा हो जाएगा। आप ज्यादा चबाएंगे, आहिस्ता दें। उसमें भी बाधा मत डालें और नियंत्रण मत बनाएं। बिना बाधा | उठाएंगे। क्योंकि यह देखने वाले की वजह से क्रियाओं में जो डाले, बिना नियंत्रण बनाए, होश को कायम रखें। वह अलग बात विक्षिप्तता है. वह कम हो जाती है। शायद इसीलिए हम देखने वाले है। फिर वह बुद्धि नहीं है।
को बीच में नहीं लाते, क्योंकि जल्दी ही डालकर भागना है। किसी बुद्धि का अर्थ है, बाधा डालना, नियंत्रण करना। ऐसा न हो, | तरह अंदर कर देना है भोजन को और निकल पड़ना है। ऐसा हो। उपाय करना। होश का अर्थ है, साक्षी होना। हम कोई | अगर आप चलेंगे भी होशपूर्वक, तो आप पाएंगे, आपकी गति बाधा न डालेंगे। अगर क्रोध आ रहा है, तो हम क्रोध के भी साक्षी | धीमी हो गई। हो जाएंगे। और कामवासना आ रही है, तो हम कामवासना के भी बुद्ध चलते हैं। उनके चलने की गति ऐसी शांत है, जैसे कोई परदे साक्षी हो जाएंगे। हम देखेंगे; हम बीच में कुछ निर्णय न करेंगे कि | पर फिल्म को बहुत धीमी स्पीड में चला रहा हो; बहुत आहिस्ता है। अच्छा है, कि बुरा है; होना चाहिए, कि नहीं होना चाहिए; मैं रोकं, बुद्ध से कोई पूछता है कि आप इतने धीमे क्यों चलते हैं? तो कि न रोकं; करूं, कि न करूं; हम कुछ भी निर्णय न लेंगे। हम | बुद्ध ने कहा कि उलटी बात है। तुम मुझ से पूछते हो कि मैं इतना सिर्फ शांत देखेंगे; जैसे दूर खड़ा हुआ कोई आदमी चलते हुए रास्ते
धीमा क्यों चलता है। मैं तमसे पछता है कि तम पागल की तरह को देख रहा हो। आकाश में पक्षी उड़ रहे हों और आप देख रहे हों, | क्यों चलते हो? यह इतना ज्वर, इतना बुखार चलने में क्यों है? ऐसा हम देखेंगे।
चलने में इतनी विक्षिप्तता क्यों है? मैं तो होश से चलता है, तो सब नीचे की प्रकृति को भी दर्शन करना सीखें, तो बुद्धि हटेगी और | कुछ धीमा हो जाता है। साक्षी जगेगा। और जब नीचे का भय न रह जाएगा, तो आप ऊपर ___ध्यान रहे, जितना होश होगा, उतनी आपकी क्रिया धीमी हो की तरफ भी बुद्धि को हटाकर रख सकेंगे। क्योंकि आपको भरोसा | जाएगी। और जितना कर्ता शून्य होगा, उतना क्रियाओं में से उन्माद, आ जाएगा कि बुद्धि को ढोने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जैसे | ज्वर चला जाएगा; क्रियाएं शांत हो जाएंगी। ही बुद्धि हटती है, परमात्मा ज्ञात होना शुरू हो जाता है। | और ध्यान रहे, शांत क्रियाओं से पाप नहीं किया जा सकता।
वह अविज्ञेय है बुद्धि से। लेकिन बुद्धि के हटते ही प्रज्ञा से, अगर आप किसी की हत्या करने जा रहे हैं और धीमे-धीमे जा रहे साक्षी भाव से वही ज्ञान योग्य है, वही जानने योग्य है, वही अनुभव | हैं, तो पक्का समझिए, हत्या-वत्या नहीं होने वाली है। अगर आप योग्य है।
| किसी का सिर तोड़ने को खड़े हो गए हैं और बड़े आहिस्ता से आखिरी बात इस संबंध में खयाल ले लें, क्योंकि साक्षी का सूत्र | | तलवार उठा रहे हों, तो इसके पहले कि तलवार उसके सिर में जाए, बहुत मूल्यवान है। और अगर आप साक्षी के सूत्र को ठीक से | | म्यान में वापस चली जाएगी। समझ लें, तो परमात्मा का कोई भी रहस्य आपसे अनजाना न रह | उतने धीमे पाप होता ही नहीं। पाप के लिए ज्वर, त्वरा, तेजी जाएगा। और इस साक्षी के सूत्र को समझने के लिए छोटा-छोटा | | चाहिए। और जो आदमी तेजी से जी रहा है, वह चाहे पाप कर प्रयोग करें। कुछ भी छोटा-मोटा काम कर रहे हों, तो कर्ता बनकर | | रहा हो, न कर रहा हो, उससे बहुत पाप अनजाने होते रहते हैं। मत करें, साक्षी बनकर करें, ताकि थोड़ा अनुभव होने लगे कि | | उसकी तेजी से ही होते रहते हैं। उसके ज्वर से ही हो जाते हैं। ज्वर
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ही पाप है।
ऊहापोह बंद हो जाएगा। बुद्ध कहते हैं, जैसे ही होश से करोगे, सब धीमा हो जाएगा। कोई छोटा-सा प्रयोग। कुछ नहीं कर रहे हैं; श्वास को ही देखें।
रास्ते पर चलते वक्त अचानक खयाल कर लें; एक गहरी श्वास | श्वास भीतर गई, बाहर गई। श्वास भीतर गई, बाहर गई। आप लें, ताकि खयाल साफ हो जाए और धीमे से देखें कि आप चल उसको ही देखें।
लोग मुझसे पूछते हैं, कोई मंत्र दे दें। मैं उनसे कहता हूं, मंत्र खाली बैठे हैं; आंख बंद कर लें और देखें कि आप बैठे हुए हैं। | वगैरह न लें। एक मंत्र परमात्मा ने दिया है, वह श्वास है। उसको आंख बंद करके बराबर आप देख सकते हैं कि आपकी मूर्ति बैठी | | देखें। श्वास पहला मंत्र है। बच्चा पैदा होते ही पहला काम करता हुई है। एक पैर की तरफ से देखना शुरू करें कि पैर की क्या हालत है श्वास लेने का। और आदमी जब मरता है. तो आखिरी काम है। दब गया है। परेशान हो रहा है। चींटी काट रही है। ऊपर की | | करता है श्वास छोड़ने का। श्वास से घिरा है जीवन। तरफ बढ़ें। पूरे शरीर को देखें कि आप देख रहे हैं। आप जन्म के बाद पहला काम श्वास है; वह पहला कृत्य है। आप देखते-देखते ही बड़ी गहरी शांति में उतर जाएंगे, क्योंकि देखने में | | श्वास लेकर ही कर्ता हुए हैं। इसलिए अगर आप श्वास को देख आदमी साक्षी हो जाता है।
| सकें, तो आप पहले कृत्य के पहले पहुंच जाएंगे। आपको उस रात बिस्तर पर लेट गए हैं। सोने के पहले एक पांच मिनट आंख | | जीवन का पता चलेगा, जो श्वास लेने के भी पहले था, जो जन्म बंद करके पूरे शरीर को भीतर से देख लें।
के पहले था। शायद आपको पता हो या न हो, पश्चिम तो अभी एनाटॉमी की | अगर आप श्वास को देखने में समर्थ हो जाएं, तो आपको पता खोज कर पाया है कि आदमी के शरीर में क्या-क्या है। क्योंकि चल जाएगा कि मृत्यु शरीर की होगी, श्वास की होगी, आपकी नहीं उन्होंने सर्जरी शुरू की, आदमी को काटना शुरू किया। यह कोई होने वाली। आप श्वास से अलग हैं। तीन सौ साल में ही आदमी को काटना संभव हो पाया, क्योंकि बुद्ध ने बहुत जोर दिया है अनापानसती-योग पर, श्वास के दुनिया का कोई धर्म लाश को काटने के पक्ष में नहीं था। तो पहले आने-जाने को देखने का योग। वे अपने भिक्षुओं को कहते थे, तुम सर्जन जो थे, वे चोर थे। उन्होंने लाशें चुराईं मुरदाघरों से; काटा, | | कुछ भी मत करो; बस एक ही मंत्र है, श्वास भीतर गई, इसको आदमी को भीतर से देखा। लेकिन योग हजारों साल से भीतर देखो; श्वास बाहर गई, इसको देखो। और जोर से मत लेना। कुछ आदमी के संबंध में बहुत कुछ जानता है।
करना मत श्वास को; सिर्फ देखना। करने का काम ही मत करना। अब ये पश्चिम के सर्जन कहते हैं कि पूरब में योग को कैसे पता सिर्फ देखना। चला आदमी के भीतर की चीजों का? वह पता काटकर नहीं चला आंख बंद कर ली, श्वास ने नाक को स्पर्श किया, भीतर गई, है। वह योगी के साक्षी भाव से चला है।
| भीतर गई। भीतर पेट तक जाकर उसने स्पर्श किया। पेट ऊपर उठ अगर आप भीतर साक्षी भाव से प्रवेश करें और घूमने लगें, तो | गया। फिर श्वास वापस लौटने लगी। पेट नीचे गिर गया। श्वास थोड़े दिन में आप अपने शरीर को भीतर से देखने में समर्थ हो | | वापस आई। श्वास बाहर निकल गई। फिर नई श्वास शुरू हो गई। जाएंगे। आप भीतर का हड्डी, मांस-मज्जा, स्नायु-जाल सब भीतर यह वर्तुल है। इसे देखते रहना। से देखने लगेंगे। और एक बार आपको भीतर से शरीर दिखाई पड़ने । अगर आप रोज पंद्रह-बीस मिनट सिर्फ श्वास को ही देखते रहें, लगे, कि आप शरीर से अलग हो गए। क्योंकि जिसने भीतर से तो आप चकित हो जाएंगे, बुद्धि हटने लगी। साक्षी जगने लगा। शरीर को देख लिया, वह अब यह नहीं मान सकता कि मैं शरीर आंख खुलने लगी भीतर की। हृदय के द्वार, जो बंद थे जन्मों से, हूं। वह देखने वाला हो गया; वह द्रष्टा हो गया।
खुलने लगे, सरकने लगे। उस सरकते द्वार में ही परमात्मा की चौबीस घंटे में जब भी आपको मौका मिल जाए, कोई भी पहली झलक उपलब्ध होती है। क्रिया में, साक्षी को सम्हालें। साक्षी के सम्हालते दो परिणाम साक्षी द्वार है; बुद्धि बाधा है। होंगे। क्रिया धीमी हो जाएगी; कर्ता क्षीण हो जाएगा; और विचार पांच मिनट रुकेंगे। कीर्तन में सम्मिलित हों बैठकर। अगर और बुद्धि कम होने लगेंगे, विचार शांत होने लगें। बुद्धि का सम्मिलित न हो सकें, तो कम से कम साक्षी भाव से देखें।
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अध्याय 13 सातवां प्रवचन
पुरुष-प्रकृति-लीला
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गीता दर्शन भाग-6
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते । । १८ ।। प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् । । १९ । । कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। २० ।। हे अर्जुन, इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया, इसको तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
और हे अर्जुन, प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी मेरी माया और पुरुष अर्थात क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को ही तू अनादि जान और रागद्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को
भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान । क्योंकि कार्य और करण के उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कहीं जाती है और पुरुष सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।
पहले कुछ प्रश्न | एक मित्र ने पूछा है कि व्यक्ति का ढांचा, उसका व्यक्तित्व जानने के लिए गुरु का उपयोग होता रहा है। पर क्या हम किसी के सम्मोहन में, हिप्नोसिस में अपना टाइप, अपना ढांचा नहीं जान सकते ? क्या सम्मोहन का प्रयोग साधना के लिए खतरनाक भी हो सकता है?
स
म्मोहन एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है। लाभप्रद भी है, खतरनाक भी। असल में जिस चीज से भी लाभ पहुंच सकता हो, उससे खतरा भी हो सकता है। खतरा होता ही उससे है, जिससे लाभ हो सकता हो। जिसमें लाभ की शक्ति है, उसमें नुकसान की शक्ति भी होती है।
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तो सम्मोहन कोई होमियोपैथिक दवा नहीं है कि जिससे सिर्फ लाभ ही पहुंचता हो और नुकसान न होता हो। सम्मोहन के संबंध में बड़ी भ्रांतियां हैं। लेकिन पश्चिम में तो भ्रांतियां टूटती जा रही हैं। पूरब में भ्रांतियों का बहुत जोर है। और
आश्चर्य की बात तो यह है कि पूरब ही सम्मोहन का पहला खोजी है। लेकिन हम उसे दूसरा नाम देते थे। हमने उसे योग तंद्रा कहा है। नाम हमारा बढ़िया है। नाम सुनते ही अंतर पड़ जाता है।
हिप्नोसिस का मतलब भी तंद्रा है। वह भी ग्रीक शब्द हिप्नोस से बना है, जिसका अर्थ नींद होता है।
दो तरह की नींद संभव है। एक तो नींद, जब आपका शरीर थक जाता है, रात आप सो जाते हैं। वह प्राकृतिक है। दूसरी नींद है, जो चेष्टा करके आप में लाई जा सकती है, इनड्यूस्ड स्लीप । योग- तंद्रा या सम्मोहन या हिप्नोसिस वही दूसरी तरह की नींद है।
रात जब आप सोते हैं, तब आपका चेतन मन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शांत हो जाता है। और अचेतन मन सक्रिय हो जाता है। आपके मन की गहरी परतों में आप उतर जाते हैं। सम्मोहन में भी | चेष्टापूर्वक यही प्रयोग किया जाता है कि आपके मन की ऊपर की पर्त, जो रोज सक्रिय रहती है, उसे सुला दिया जाता है। और आपके भीतर का मन सक्रिय हो जाता है।
भीतर का मन ज्यादा सत्य है। क्योंकि भीतर के मन को समाज विकृत नहीं कर पाया । भीतर का मन ज्यादा प्रामाणिक है। क्योंकि भीतर का मन अभी भी प्रकृति के अनुसार चलता है। भीतर के मन में कोई पाखंड, कोई धोखा, भीतर के मन में कोई संदेह, कोई शक- सुबहा कुछ भी नहीं है। भीतर का मन एकदम निर्दोष है। जैसे पहले दिन पैदा हुए बच्चे का जैसा निर्दोष मन होता है, वैसा निर्दोष मन भीतर है। धूल तो ऊपर-ऊपर जम गई है। मन के बाहर की परतों पर कचरा इकट्ठा हो गया है। भीतर जैसे हम प्रवेश करते हैं, वैसा शुद्ध मन उपलब्ध होता है।
इस शुद्ध मन को हिप्नोसिस के द्वारा संबंधित, हिप्नोसिस के द्वारा इस शुद्ध मन से संपर्क स्थापित किया जा सकता है। स्वभावतः लाभ भी हो सकता है, खतरा भी।
अगर कोई खतरा पहुंचाना चाहे, तो भी पहुंचा सकता है। क्योंकि वह भीतर का मन संदेह नहीं करता है। उससे जो भी कहा जाता है, वह मान लेता है। वह परम श्रद्धावान है।
अगर एक पुरुष को सम्मोहित करके कहा जाए कि तुम पुरुष नहीं, स्त्री हो, तो वह स्वीकार कर लेता है कि मैं स्त्री हूं। उससे कहा जाए। अब तुम उठकर चलो, तुम स्त्री की भांति चलोगे । | तो वह पुरुष, जो कभी स्त्री की भांति नहीं चला, स्त्री की भांति चलने लगेगा। उस पुरुष को कहा जाए कि तुम्हारे सामने यह गाय खड़ी है - और वहां कोई भी नहीं खड़ा है - अब तुम दूध लगाना
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शुरू करो, तो वह बैठकर दूध लगाना शुरू कर देगा। सम्मोहन में अगर आपको सुझाव दे दिया जाए, दूसरे दिन से ही
वह जो अचेतन मन है, वह परम श्रद्धावान है। उससे जो कहा आपका ध्यान लगना गहरा हो जाएगा। आप प्रार्थना करते हैं, जाए, वह उस पर प्रश्न नहीं उठाता। वह उसे स्वीकार कर लेता है। | लेकिन व्यर्थ के विचार आते हैं। सम्मोहन में कह दिया जाए कि यही श्रद्धा का अर्थ है। वह यह नहीं कहता कि कहां है गाय? वह प्रार्थना के क्षण में कोई भी विचार न आएंगे, तो प्रार्थना आपकी यह नहीं कहता कि मैं पुरुष हूं, स्त्री नहीं हूं। वह संदेह करना जानता परम शांत और आनंदपूर्ण हो जाएगी, कोई विचार का विघ्न न रह ही नहीं। संदेह तो मन की ऊपर की पर्त, जो तर्क सीख गई है, वही जाएगा। आपकी साधना में सहयोग पहुंचाया जा सकता है। करती है।
योग के गुरु सम्मोहन का प्रयोग करते ही रहे हैं सदियों से। __इसका लाभ भी हो सकता है, इसका खतरा भी है। क्योंकि उस लेकिन कभी उसका प्रयोग जाहिर और सार्वजनिक नहीं किया परम श्रद्धालु मन को कुछ ऐसी बात भी समझाई जा सकती है, जो गया। वह निजी गुरु के और शिष्य के बीच की बात थी। और जब व्यक्ति के अहित में हो, जो उसको नुकसान पहुंचाए। मृत्यु तक | गुरु किसी शिष्य को इस योग्य मान लेता था कि अब उसके अचेतन घटित हो सकती है। सम्मोहित व्यक्ति को अगर भरोसा दिला में प्रवेश करके काम शुरू करे, तो ही प्रयोग करता था। और जब दिया जाए कि तुम मर रहे हो, तो वह भरोसा कर लेता है कि मैं कोई शिष्य किसी गुरु को इस योग्य मान लेता था कि उसके चरणों मर रहा है।
में सब कुछ समर्पित कर दे, तभी कोई गुरु उसके भीतर प्रवेश करके उन्नीस सौ बावन में अमेरिका में एंटी-हिप्नोटिक एक्ट बनाया सम्मोहन का प्रयोग करता था। गया। यह पहला कानून है हिप्नोसिस के खिलाफ दुनिया में कहीं | रास्ते पर काम करने वाले सम्मोहक भी हैं। स्टेज पर प्रयोग करने भी बना। क्योंकि चार लड़के विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में वाले सम्मोहक भी हैं। उनके साथ आपका कोई श्रद्धा का नाता नहीं सम्मोहन की किताब पढ़कर प्रयोग कर रहे थे। और उन्होंने एक | | है। उनके साथ आपका नाता भी है, तो व्यावसायिक हो सकता है लड़के को, जिसको बेहोश किया था, भरोसा दिला दिया कि तू मर | | कि आप पांच रुपया फीस दें और वह आपको सम्मोहित कर दे। गया है। वे सिर्फ मजाक कर रहे थे। लेकिन वह लड़का सच में ही | | लेकिन जो आदमी पांच रुपए में उत्सुक है सम्मोहित करने को, वह मर गया। वह हृदय में इतने गहरी बात पहुंच गई-वहां कोई संदेह | आपको नुकसान पहुंचा सकता है। नहीं है-मृत्यु हो गई, तो मृत्यु को स्वीकार कर लिया। शरीर और ___ इस तरह की घटनाएं दुनियाभर के पुलिस थानों में रिपोर्ट की गई आत्मा का संबंध तत्क्षण छूट गया। तो हिप्नोसिस के खिलाफ एक हैं कि किसी ने किसी को सम्मोहित किया और उससे कहा कि रात कानून बनाना पड़ा।
तू अपनी तिजोरी में चाबी लगाना भूल जाना; या रात तू अपने घर अगर मृत्यु तक पर भरोसा हो सकता है, तो फिर किसी भी चीज | का दरवाजा खुला छोड़ देना। पोस्ट हिप्नोटिक सजेशन! आपको पर भरोसा हो सकता है।
अभी बेहोश किया जाए, आपको बाद के लिए भी सुझाव दिया जा तो सम्मोहन का लाभ भी उठाया जा सकता है। पश्चिम में बहुत | | सकता है कि आप अड़तालीस घंटे बाद ऐसा काम करना। तो आप बड़ा सम्मोहक था, कूए। कूए ने लाखों मरीजों को ठीक किया सिर्फ | | अड़तालीस घंटे बाद वैसा काम करेंगे और आपको कुछ समझ में सम्मोहन के द्वारा। अब तक दुनिया का कोई चिकित्सक किसी भी | नहीं आएगा कि आप क्यों कर रहे हैं। या आप कोई तरकीब खोज चिकित्सा पद्धति से इतने मरीज ठीक नहीं कर सका है, जितना कूए लेंगे, कोई रेशनलाइजेशन, कि मैं इसलिए कर रहा हूं। ने सिर्फ सम्मोहन से किया। असाध्य बीमारियां दूर कीं। क्योंकि मैं एक युवक पर प्रयोग कर रहा था पोस्ट हिप्नोटिक सजेशन भरोसा दिला दिया भीतर कि यह बीमारी है ही नहीं। इस भरोसे के के। उसे मैंने बेहोश किया और उसे मैंने कहा कि छः घंटे बाद तू आते ही शरीर बदलना शुरू हो जाता है।
| मेरी फलां नाम की किताब को उठाएगा और उसके पंद्रहवें पेज पर कूए ने हजारों लोगों की शराब, सिगरेट, और तरह के दुर्व्यसन | दस्तखत कर देगा। फिर वह होश में आ गया। छः घंटे बाद की बात क्षणभर में छुड़ा दिए, क्योंकि भरोसा दिला दिया। मन को गहरे में है। वह अपने काम में लग गया। मैंने वह किताब अलमारी में बंद भरोसा आ जाए, तो शरीर तक परिणाम होने शुरू हो जाते हैं। करके ताला लगा दिया।
तो लाभ भी हो सकता है। अगर आपको ध्यान नहीं लगता है, ठीक छः घंटे बाद उसने आकर मुझे कहा कि मुझे आपकी फलां
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
नाम की किताब पढ़नी है। मैंने पूछा कि तुझे अचानक क्या जरूरत | | बना रहता है। क्योंकि आपको डर तो रहता ही है कि पता नहीं, यह पड़ गई? उसने कहा कि नहीं, मुझे कई दिन से खयाल है पढ़ने का। | आदमी क्या करवाए। तो अगर वह कहे कि गाय का दूध लगाओ, अभी मेरे पास सुविधा है, तो मैं पढ़ना चाहता हूं। मैंने उसे चाबी दी | | तो आप लगा लेंगे। वह कहे कि आप स्त्री की तरह चलो, तो चल
और उसने खोला; और जब मैं भीतर पहुंचा कमरे में, तो वह किताब | | लेंगे। लेकिन अगर वह कोई ऐसी बात कहे, जो आपके अंतःकरण पढ़ नहीं रहा था, वह पंद्रह नंबर के पृष्ठ कर दस्तखत कर रहा था। | के विपरीत पड़ती है, अनुकूल नहीं पड़ती है, या आपकी नैतिक
जब वह पकड़ गया दस्तखत करते, तो बहुत घबड़ाया; और एकदम खिला है, तो आप तत्क्षण जाग जाएंगे और उसने कहा कि मेरी समझ के बाहर है, लेकिन मझे बड़ी बेचैनी हो। इनकार कर देंगे। रही थी कि कछ करना है। और कछ समझ में नहीं आ रहा था कि जैसे किसी जैन को जो बचपन से ही गैर-मांसाहारी रहा है, क्या करना है। और दस्तखत करते ही मेरा मन एकदम हलका हो सम्मोहित करके अगर कहा जाए कि मांस खा लो; वह फौरन जग गया, जैसे कोई बोझ मेरे ऊपर से उतर गया है। पर मैंने क्यों | जाएगा; वह सम्मोहन टूट जाएगा उसी वक्त। दस्तखत किए हैं, मुझे कुछ पता नहीं है।
किसी सती स्त्री को, जिसका अपने पति के अलावा कभी तो ऐसी रिपोर्ट की गई हैं पुलिस में कि किसी सम्मोहक ने किसी | किसी के प्रति कोई भाव पैदा नहीं हुआ है, अगर उसे कहा जाए को सम्मोहित कर दिया और उससे कहा कि तू जाते वक्त अपने | सम्मोहन में कि इस व्यक्ति को चूम लो, उसकी फौरन नींद खुल पैसे की थैली यहीं छोड़ जाना; अपना मनीबैग यहीं छोड़ जाना; या| | जाएगी, सम्मोहन टूट जाएगा। लेकिन अगर स्त्री का मन दूसरे अपनी चेक बुक यहीं छोड़ जाना। वह आदमी चेक बुक वहीं छोड़ | पुरुषों के प्रति जाता रहा हो, तो सम्मोहन नहीं टूटेगा, क्योंकि गया जाते वक्त। तब तो खतरे हो सकते हैं।
इसमें कुछ खास विरोध नहीं हो रहा है। शायद उसकी दबी हुई अचेतन मन बड़ा शक्तिशाली है। आपके चेतन मन की कोई भी | | इच्छा ही पूरी हो रही है। शक्ति नहीं है। आपका चेतन मन तो बहुत ही कमजोर है। इसीलिए __ तो जब कोई व्यावसायिक रूप से किसी को सम्मोहित करता है, तो आप संकल्प करते हैं कि सिगरेट नहीं पीऊंगा, छोड़ दूंगा; और | तो आपके भीतर एक हिस्सा तो सजग रहता ही है। बहुत गहरे घंटेभर भी संकल्प नहीं चलता है। क्योंकि जिस मन से आपने | | प्रवेश नहीं हो सकता। लेकिन जब कोई गरु और शिष्य के संबंध किया है, वह बहुत कमजोर मन है। उसकी ताकत ही नहीं है कुछ। में सम्मोहन घटित होता है, तो प्रवेश बहुत आंतरिक हो जाता है। अगर यही संकल्प भीतर के मन तक पहुंच जाए, तो यह | व्यक्ति अपने को पूरा छोड़ देता है। इसलिए समर्पण का इतना मूल्य महाशक्तिशाली हो जाता है। फिर उसे तोड़ना असंभव है। है, श्रद्धा का इतना मूल्य है।
सम्मोहन के द्वारा व्यक्ति का ढांचा खोजा जा सकता है। लेकिन सम्मोहन के माध्यम से निश्चित ही व्यक्ति के टाइप का पता सम्मोहित ऐसे व्यक्ति से ही होना, जिस पर परम श्रद्धा हो। | लगाया जा सकता है। सम्मोहन के द्वारा व्यक्ति के पिछले जन्मों में व्यावसायिक सम्मोहन करने वाले व्यक्ति से सम्मोहित मत होना। प्रवेश किया जा सकता है। सम्मोहन के द्वारा व्यक्ति के भीतर क्योंकि उसकी आपमें उत्सुकता ही व्यावसायिक है। आपसे कोई कौन-से कारण हैं, जिनके कारण वह परेशान और उलझा हुआ है, आत्मिक और आंतरिक संबंध नहीं है। और जब तक आत्मिक और | वे खोजे जा सकते हैं। और सम्मोहन के माध्यम से बहुत-सी बातों आंतरिक संबंध न हो, तब तक किसी व्यक्ति को अपने इतने भीतर | का निरसन किया जा सकता है, रेचन किया जा सकता है; प्रवेश करने देना खतरनाक है।
बहुत-सी बातें मन से उखाड़कर बाहर फेंकी जा सकती हैं। इसलिए गुरु तो प्रयोग करते रहे हैं। लेकिन इस प्रयोग को सदा हम जो भी करते हैं ऊपर-ऊपर से, वह ऐसा है, जैसे कोई किसी ही निजी समझा गया है। यह सार्वजनिक नहीं है। दो व्यक्तियों के | वृक्ष की शाखाओं को काट दे। शाखाएं कटने से वृक्ष नहीं कटता, बीच की निजी बात है। कभी-कभी तो...यह प्रयोग पूरा भी तभी नए पीके निकल आते हैं। वृक्ष समझता है कि आप कलम कर रहे हो सकता है, जब कि बहुत निकट और प्रगाढ़ संबंध हों। | हैं। जब तक जड़ें न उखाड़ फेंकी जाएं, तब तक कोई परिवर्तन नहीं
जैसे कि स्टेज पर कोई सम्मोहित कर रहा है आपको, तो आप | होता। वृक्ष फिर से सजीव हो जाता है। कितने ही सम्मोहित हो जाएं, आपके भीतर एक हिस्सा असम्मोहित आप मन के ऊपर-ऊपर जो भी कलम करते हैं, वह खतरनाक
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है। वह फायदा नहीं करती, नए अंकुर निकल आते हैं। वही| का अर्थ है दुख, ऊर्जा का ऊपर जाने का अर्थ है आनंद। लेकिन बीमारियां और घनी होकर पैदा हो जाती हैं। जड़ उखाड़कर फेंकना नीचे जाती ऊर्जा अगर सिर्फ दुख ही देती हो, तब तो सभी लोग रुक हो, तो गहरे अचेतन में जाना जरूरी है।
| जाएंगे। लेकिन नीचे जाती ऊर्जा सुख का प्रलोभन देती है और अंत लेकिन सम्मोहन अकेला मार्ग नहीं है। अगर आप ध्यान करें, | | में दुख देती है। इसीलिए तो इतने लोग उसमें बहे चले जाते हैं। तो खुद भी अपने भीतर इतने ही गहरे जा सकते हैं। सम्मोहन के नीचे बहती हुई ऊर्जा आशा बंधाती है कि सुख मिलेगा। आशा द्वारा दूसरा व्यक्ति आपके भीतर गहरे जाता है और आपको | ही रहती है, दुख मिलता है। लेकिन हम इतने बुद्धिहीन हैं कि प्रथम सहायता पहुंचा सकता है। ध्यान के द्वारा आप स्वयं ही अपने भीतर | और अंतिम को कभी जोड़ नहीं पाते। हजार बार दुख पाकर भी फिर गहरे जाते हैं और अपने को बदल सकते हैं।
जब नया प्रलोभन आता है, तो हम उसी मछली की तरह व्यवहार जिन लोगों को ध्यान में बहुत कठिनाई होती हो, उनके लिए | | करते हैं, जो अनेक बार आटे को पकड़ने में कांटे से पकड़ गई है, सम्मोहन का सहारा लेना चाहिए। लेकिन अत्यंत निकट संबंध हो | | लेकिन फिर जब आटा लटकाता है मछुआ, तो फिर मछली आटे किसी गुरु से, तभी। और जो व्यक्ति ध्यान में सीधे जा सकते हों, | को पकड़ लेती है। उनको सम्मोहन के विचार में नहीं पड़ना चाहिए। उसकी कोई भी आटे और कांटे में मछली संबंध नहीं जोड़ पाती। हम भी नहीं जरूरत नहीं है।
जोड़ पाते कि हम जहां-जहां सुख की आशा रखते हैं, वहां-वहां और सम्मोहन का भी सहारा इसीलिए लेना चाहिए कि ध्यान में | | दुख मिलता है, सुख मिलता नहीं। लेकिन इसका हम संबंध नहीं गहरे जाया जा सके, बस। और किसी काम के लिए सहारा नहीं | जोड़ पाते। लेना चाहिए। क्योंकि बाकी सब काम तो ध्यान में गहरे जाकर किए __ जहां भी आपको दुख मिलता हो, आप थोड़ा सोचें कि वहां आपने जा सकते हैं। सिर्फ ध्यान न होता हो, तो ध्यान में कैसे मैं गहरे | सुख चाहा था। सुख न चाहा होता, तो दुख मिल ही नहीं सकता। जाऊं, सम्मोहन का इसके लिए सहारा लिया जा सकता है। । | दुख मिलता ही तब है, जब हमने सुख चाहा हो। आटे को कोई
सम्मोहन गहरी प्रक्रिया है और बड़ी वैज्ञानिक है। और मनुष्य के | | मछली पकड़ेगी, तो ही कांटे से जकड़ सकती है। लेकिन जब कांटे बहुत हित में सिद्ध हो सकती है। लेकिन स्वभावतः, जो भी हितकर से मछली जकड़ जाती है, तब वह भी नहीं सोच पाती कि इस आटे हो सकता है, वह खतरनाक भी है।
के कारण मैं कांटे में फंस गई हूं। आप भी नहीं सोच पाते कि जब | दुख में आप उलझते हैं, तो किसी सुख की आशा में फंस गए हैं।
नीचे बहती ऊर्जा पहले सुख का आश्वासन देती है, फिर दुख एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि हमें नीचे बह रही में गिरा देती है। ऊपर उठती ऊर्जा पहले कष्ट, तप, साधना, जो . प्राकृतिक ऊर्जा के ऊपर ऊर्ध्वगमन की चेष्टा क्यों | | कि कठिन है; द्वार पर ही मिलता है दुख ऊपर जाती साधना में; करनी चाहिए?
लेकिन अंत में सुख हाथ आता है।
तो आप एक बात ठीक से समझ लें, दुख अगर पहले मिल रहा
हो और पीछे सुख मिलता हो, तो आप समझना कि ऊर्जा ऊपर की का ई नहीं कहता है कि आप चेष्टा करें। आपकी ऊर्जा | | तरफ जा रही है। और अगर सुख पहले मिलता हआ लगता हो और
नीचे बह रही है, उससे दुख हो रहा है, उससे पीड़ा हो | | पीछे दुख हाथ में आता हो, तो ऊर्जा नीचे की तरफ जा रही है। यह
रही है, उससे जीवन व्यर्थ रिक्त हो रहा है। तो आपको | लक्षण है कि आपकी शक्ति कब निम्न हो रही है और कब ऊर्ध्व ही लगता हो कि पीड़ा हो रही है, दुख हो रहा है, जीवन व्यर्थ जा हो रही है। रहा है, तो ऊपर ले जानी चाहिए। कोई आपसे कह नहीं रहा है कि कोई भी आपसे नहीं कहता कि आप अपनी जीवन शक्ति को आप ऊपर ले जाएं। और किसी के कहने से आप कभी ऊपर ले | | ऊपर ले जाएं। लेकिन आप आनंद चाहते हैं, तो जीवन शक्ति को भी न जाएंगे।
ऊपर ले जाना पड़ेगा। लेकिन नीचे का अनुभव ही पीड़ादायी है। ऊर्जा का नीचे जाने | समस्त धर्म जीवन शक्ति को ऊपर ले जाने की विधियां है। सारा
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गीता दर्शन भाग-60
योग, सारा तंत्र, सब एक ही बात की चेष्टा है कि आपके जीवन | हो गई। तो क्या प्रकृति का विरोध करना ठीक है? की जो ऊर्जा नीचे गिरती है, वह ऊपर कैसे जाए। और एक बार ऊपर जाने लगे, तो दूसरे जगत का प्रारंभ हो जाता है।
प्रकृति नीचे भी है और ऊपर भी है। जब भाप आकाश की तरफ देखा आपने. पानी नीचे की तरफ बहता है। लेकिन पानी को उडती है. तब भी प्राकतिक नियमों का ही अनगमन कर रही है। गरम करें और पानी भाप बन जाए, तो ऊपर की तरफ उड़ना शुरू | और जब पानी नीचे की तरफ बहता है, तब भी प्राकृतिक नियमों हो जाता है। पानी ही है। लेकिन सौ डिग्री पर भाप बन गया, और | का ही अनुगमन कर रहा है। क्रांतिकारी अंतर हो गया। आयाम बदल गया। दिशा बदल गई। __ ऊपर की तरफ ले जाने वाले नियम भी प्राकृतिक हैं। और नीचे पहले नीचे की तरफ बहता था; पहले कहीं भी पानी होता, तो वह की तरफ ले जाने वाले नियम भी प्राकृतिक हैं। चुनाव आपको कर गड़े की तलाश करता; अब आकाश की तलाश करता है। लेना है। और मनुष्य स्वतंत्र है चुनाव के लिए, यही मनुष्य की
आपके भीतर जो जीवन है, जो एनर्जी है, जो ऊर्जा है, वह भी गरिमा है। मनुष्य की खूबी यही है। पशुओं से उसमें विशेषता है, एक विशेष प्रक्रिया से गुजरकर ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती तो सिर्फ एक, कि पशु चुनाव करने को स्वतंत्र नहीं है। उसको कोई है। उस ऊपर उठती हुई ऊर्जा को हमने कुंडलिनी कहा है। च्वाइस नहीं है। उसकी ऊर्जा नीचे की तरफ ही बहेगी। वह चुनाव
साधारणतः जैसा आदमी पैदा होता है प्रकृति से, वह ऊर्जा नीचे | नहीं कर सकता ऊपर की तरफ बहने का। वह चाहे तो भी नहीं कर की तरफ जाती है। जमीन का ग्रेविटेशन उसे नीचे की तरफ खींचता | सकता। वह चाह भी नहीं सकता। है। जमीन की कशिश नीचे की तरफ खींचती है। और आप नीचे पशु बंधा हुआ है, नीचे की तरफ ही बहेगा। मनुष्य को संभावना की तरफ चौबीस घंटे खिंच रहे हैं। और जिंदगी उतार है। बच्चा | | है। अगर वह कुछ न करे, तो नीचे की तरफ बहेगा। अगर कुछ जितना पवित्र होता है, बूढ़ा उतना पवित्र नहीं रह जाता। बड़ी करे, तो ऊपर की तरफ भी बह सकता है। मनुष्य के पास उपाय है। अदभुत बात है!
और जो मनुष्य चुनाव नहीं करता, वह पशु ही बना रह जाता है। बच्चा जैसा निर्दोष होता है, बूढ़ा वैसा निर्दोष नहीं रह जाता।। | वह कभी मनुष्य नहीं बन पाता। क्योंकि फिर पशु में और उसमें कोई होना तो उलटा चाहिए। क्योंकि जीवन होना चाहिए एक विकास। | फर्क नहीं है। एक ही शुरुआत है फर्क की और वह यह है कि हम यह तो हुआ पतन।
|चन सकते हैं। हम चाहें तो ऊपर की तरफ भी बह सकते हैं। अगर हम बूढ़े आदमी के मन को खोल सकें, तो हम पाएंगे कि | __एक बड़े मजे की बात है। चूंकि हम ऊपर की तरफ भी बह सकते बूढ़ा आदमी डर्टी, एकदम गंदा हो जाता है। जीवन की सारी की | | हैं, इसलिए हम पशु से भी ज्यादा नीचे गिर सकते हैं। अगर आदमी सारी वासना तो बनी रहती है और शक्ति सब खो जाती है। और | पशु होना चाहे, तो सभी पशुओं को मात कर देता है। दुनियाभर के वासना मन में घूमती है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होने लगता है, | | सारे जंगली जानवरों को भी इकट्ठा कर लें, तो भी हिटलर का शरीर की शक्ति तो खोती जाती है और वासना चित्त को घेरती है। | मुकाबला नहीं कर सकते, चंगेजखां का मुकाबला नहीं कर सकते। क्योंकि चित्त कभी भी बूढ़ा नहीं होता, वह जवान ही बना रहता है। दुनिया का कोई पशु आदमी जैसा पशु नहीं हो सकता, अगर तो बड़ी गंदगी घिर जाती है।
| आदमी पशु होना चाहे। क्योंकि जितने आप ऊपर उठ सकते हैं, बच्चे और बूढ़े में विकास न दिखाई देकर, पतन दिखाई पड़ता | उतने ही अनुपात में नीचे गिर सकते हैं। जितने बड़े शिखर पर चढ़ने है। कारण सिर्फ एक है, कि बच्चे की ऊर्जा अभी बहनी शुरू नहीं | की संभावना है, उतनी ही बड़ी खाई में गिर जाने की भी संभावना हुई है। जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, ऊर्जा नीचे की तरफ बहनी शुरू | साथ ही जुड़ी हुई है। शिखर और खाई साथ-साथ चलते हैं। पतन होगी। और अगर कोई प्रयोग न किए जाएं, तो ऊर्जा ऊपर की तरफ | | और विकास साथ-साथ चलते हैं। न बहेगी।
लेकिन कोई भी पशु बहुत नीचे नहीं गिर सकता। आप जंगल
| में चले जाएं, तो आप पता भी नहीं लगा सकते कि कौन-सा.सिंह इन मित्र ने यह भी पूछा है कि अगर साक्षी-भाव या | | ज्यादा पशु है। सभी सिंह एक जैसे पशु हैं। भूख लगती है, साधना लानी पड़ती है, तब तो फिर वह अप्राकृतिक | | चीर-फाड़कर खा जाते हैं। लेकिन दो सिंहों में कोई फर्क नहीं किया
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पुरुष-प्रकृति-लीला
जा सकता। एक सिंह नीचा गिर गया है और एक सिंह ऊंचा है, ऐसा आप फर्क नहीं कर सकते।
आदमी ऊपर उठना चाहे, तो बुद्ध और कृष्ण भी और क्राइस्ट भी उसमें पैदा हो जाते हैं। और नीचे गिरना चाहे, तो चंगेज और नादिर और हिटलर और स्टैलिन भी पैदा हो जाते हैं। कोई अड़चन नहीं है। और आदमी कुछ न करे, तो साधारण किस्म का पशु रह जाता है।
ऊपर की तरफ जाने के लिए श्रम करना होगा। लेकिन श्रम के कारण आप यह मत समझ लेना कि वह अप्राकृतिक है। आदमी जमीन पर चलता है। नाव में पानी में चलता है। हवाई जहाज में हवा में चलता है। अब अंतरिक्ष यान हमने बनाए हैं, वे आकाश में हवा के पार भी चले जाते हैं। अप्राकृतिक कुछ भी नहीं है। क्योंकि अप्राकृतिक तो घटित ही नहीं हो सकता।
हवा में जब आदमी उड़ रहा है हवाई जहाज में, तब भी प्रकृति के नियमों का ही उपयोग कर रहा है। और जब आदमी नहीं उड़ता था, तो उसका मतलब यह नहीं है कि तब नियम नहीं थे । नियम थे, हमें उनका पता नहीं था ।
तो जब आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होते हैं, तब भी आप प्रकृति केही नियमों का काम कर रहे हैं। और जब आप कामवासना में गिरते हैं, तब भी प्रकृति के ही नियमों का काम हो रहा है।
एक हवाई जहाज जब हवा में उड़ता है, तब भी प्रकृति के नियम काम रहे हैं। और जब हवाई जहाज में कुछ गड़बड़ हो जाती है और हवाई जहाज ऊपर से नीचे गिरकर जमीन पर टकराता है, तब भी प्रकृति के ही नियम काम कर रहे हैं।
आप कितने ढंग से प्रकृति के नियमों का अपने अनुकूल उपयोग करते हैं, उस मात्रा में आपके जीवन में आनंद फलित होता है। और आप किस मात्रा में प्रकृति के नियमों का उपयोग नहीं कर पाते अपने अनुकूल या अपने को नियमों के अनुकूल नहीं बना पाते, उस मात्रा में दुख होता है।
ऊपर की यात्रा भी प्राकृतिक ही है, अप्राकृतिक नहीं; लेकिन उच्चतर प्रकृति की तरफ है। नीचे की यात्रा भी प्राकृतिक है, लेकिन निम्न है। और जो निम्न है, वह दुख लाता है। और जो निम्न है, वह नरक बन जाता है। और जो श्रेष्ठ है, उच्च है, वह स्वर्ग बन जाता है और आनंद की संभावना के द्वार खुल जाते हैं।
लेकिन कोई आपसे कह नहीं रहा है कि आप ऐसा करें। और किसी के कहने से आप करेंगे भी नहीं ।
तो मैं तो आपसे इतना ही कह रहा हूं कि आप पहचानें कि अगर | आप दुख में हैं, तो आप पहचान लें कि आप नीचे की तरफ जा रहे हैं। और आपको अगर दुख में ही रहना हो, तो फिर कुशलता से नीचे की तरफ जाएं। लेकिन नीचे की तरफ जाकर सुख की आशा | न करें। वह आशा गलत है। और आपको लगता हो कि दुख को | बदलना है जीवन से और आनंद की यात्रा करनी है, तो ऊपर की | तरफ उठना शुरू हों। और ऊपर की तरफ उठने में पहले कष्ट होगा; उसको ही हमने तप कहा है।
जब भी कोई पहाड़ की तरफ चढ़ेगा, तो परेशानी होगी। पहाड़ से उतरते वक्त कोई परेशानी नहीं होती। सभी चढ़ाव कष्टपूर्ण हैं। लेकिन सभी चढ़ावों के अंत पर विश्राम है। और कष्ट के बाद जो विश्राम है, उसका स्वाद, उसका मूल्य ही कुछ और है।
और बहुत मजे की बात है। अगर एक हवाई जहाज से आपको एवरेस्ट पर उतार दिया जाए, तो आपको वह आनंद कभी उपलब्ध न होगा, जो हिलेरी और तेनसिंह को चढ़कर एवरेस्ट पर पहुंचकर | हुआ है। आप भी उसी जगह खड़े हो जाएंगे हवाई जहाज से उतरकर, जिस जगह हिलेरी और तेनसिंह जाकर खड़े हुए थे। लेकिन जो आनंद उनको मिला था, वह आपको न मिलेगा। क्योंकि आनंद सिर्फ मंजिल में ही नहीं है, यात्रा में भी है। और यात्रा से मंजिल अगर अलग कर ली जाए, तो कोरी, निस्सार, रसहीन हो जाती है।
इसलिए शार्टकट खोजने की फिक्र नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जितना शार्टकट आप खोज लेंगे, उतना ही मंजिल का रस चला | जाएगा। यात्रा का अपना सुख है। और यात्रा का सुख ही इकट्ठा होकर मंजिल पर उपलब्ध होता है। जो यात्रा से बचने की कोशिश करता है, वह एक दफे पहुंच भी सकता है। लेकिन उस पहुंचने में कोई भी रस न होगा, कोई भी रस न होगा।
जो लोग बद्री और केदार की यात्रा पैदल करते रहे थे, उनका | मजा और था। अब बस से जा सकते हैं; अब वह बात न रही। कल हवाई जहाज से सीधा उतरेंगे; कोई रस न रह जाएगा। क्योंकि | यात्रा और मंजिल दो चीजें नहीं हैं। यात्रा का ही अंतिम पड़ाव है मंजिल । और जिसने यात्रा ही काट दी, एक अर्थ में उसकी मंजिल ही कट गई।
यात्रा के कष्ट से भयभीत न हों, क्योंकि मंजिल के सुख में | उसका भी अनुदान है।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
इसी संदर्भ में एक मित्र ने और पूछा है कि स्लेटर ने और विश्राम अनुभव होता है। ध्यान जो लोग करते हैं, जब वे ध्यान चूहे के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड्स डालकर उसके की अवस्था में हैं, तब यह यंत्र लगा दिया जाए, तो फौरन अल्फा मस्तिष्क के विशेष तंतु कंपित करके संभोग का आनंद | की आवाज देना शुरू कर देता है। दिलाया। समाधि भी अस्तित्व से एक तरह का संभोग तो अब तो पश्चिम में वे इसकी भी जांच करने में सफल हो गए है। क्या यह संभव नहीं है कि मस्तिष्क के कोई तंतु हैं कि कौन आदमी ध्यान में है, कौन नहीं है। अब आप झूठा दावा समाधिस्थ अवस्था में कंपित होते हों? और इनकी नहीं कर सकते, क्योंकि यंत्र खबर देगा कि आप ध्यान में हैं या नहीं वैज्ञानिक व्यवस्था की जा सके, तो फिर साधारण हैं। आप ऐसे ही नहीं कह सकते कि मैं ध्यान में हूं। क्योंकि वह यंत्र आदमी को भी उसके समाधि वाले तंतुओं को कंपित को धोखा नहीं दिया जा सकता। आप धोखा देने की कोशिश करेंगे, करके समाधि का अनुभव दिया जा सकता है। फिर | फौरन अल्फा चली जाएगी, क्योंकि धोखा देने का खयाल भी बाधा साधना की, योग की कोई जरूरत न रहेगी। योग तो है। जरा-सा कोई विचार आएगा. यंत्र आवाज बंद कर देगा। जैसे कहता है कि समाधि को उपलब्ध करने वाला सहस्रार ही विचार बंद होंगे, यंत्र आवाज देने लगेगा। चक्र तक मस्तिष्क में छिपा हुआ है!
इस यंत्र पर काफी काम चल रहा है। लेकिन इस यंत्र से जो पैदा होता है, वह भी यात्रारहित मंजिल है। और इसलिए एक
बहुत मजे की बात खयाल में वहां भी आनी शुरू हो गई है कि इस श्चित ही, स्लेटर जैसे मनोवैज्ञानिकों का यही खयाल | यंत्र से भी अल्फा पैदा हो जाती है और ध्यान करने वालों को भी D1 है कि समाधि भी यंत्रों के द्वारा पैदा की जा सकती है। अल्फा पैदा होती है। लेकिन ध्यान करने वाला कहता है, परम
न केवल खयाल है, बल्कि यंत्र भी निर्मित हो गए हैं। | आनंद मुझे मिल रहा है। और यह अल्फा, यंत्र से पैदा हुआ वाला न केवल यंत्र निर्मित हो गए हैं, हजारों-लाखों लोग पश्चिम में आदमी कहता है, मुझे थोड़ी शांति मालूम पड़ रही है। दोनों के यंत्रों का उपयोग भी कर रहे हैं। कोई हजार रुपए की कीमत का वक्तव्य में बुनियादी भेद है। यंत्र है। उस यंत्र से आप मस्तिष्क में तार जोड़ देते हैं, यंत्र को ___ ध्यान करने वाला कहता है, मुझे परम आनंद मिल रहा है। और चला देते हैं और यंत्र आपके मस्तिष्क के भीतर की तरंगों की | यंत्र दोनों के बाबत एक ही खबर दे रहा है कि अल्फा! यंत्र में कोई खबर देने लगता है।
फर्क नहीं है। जो समाधि का प्रयोग कर के पहुंचा है उसके बाबत, एक खास तरंग, जिसको पश्चिम में वे अल्फा कहते हैं, अल्फा और जो केवल मशीन के साथ तारतम्य बिठाया है उसके बाबत, यंत्र तरंग में आदमी ध्यान की अवस्था में पहुंच जाता है। तो यंत्र खबर एक-सी खबर देता है। लेकिन मशीन से जिसने सीखा है, वह कहता देने लगता है कि आपमें कब अल्फा पैदा होती है। और जैसे ही है, मुझे थोड़ी शांति मालूम पड़ती है। और जो ध्यान से आया है, वह अल्फा पैदा होती है, यंत्र आवाज करता है और आप समझ जाते | | कहता है, मझे आनंद मालम पड़ता है। तब बड़ी कठिनाई है। हैं कि अल्फा तरंग पैदा हो गई। अब इसी तरंग में आपको ठहरे तब अभी विचारकों को संदेह पैदा होने लगा है कि यंत्र से जो रहना है।
चीज पैदा हो रही है, वह शायद बाह्य रूप से एक-सी है, लेकिन ___ यंत्र की सहायता से आप थोड़े दिन में ठहरना सीख जाते हैं। | भीतरी हिस्से पर भिन्न है। क्योंकि जिस आदमी ने तीस साल ध्यान बहुत कठिन नहीं है। दो-चार दिन में आप ठहरना सीख जाते हैं। किया है, वह कहता है, मुझे परम आनंद की, परम ब्रह्म की क्योंकि आपको अंदाज हो जाता है; यंत्र खबर देता है कि ठीक यही अनुभूति हो रही है। और यह मशीन से तो तीन महीने में उतनी चीज अल्फा है। क्योंकि यंत्र आवाज करता है और आप पहचान | स्थिति पैदा हो जाएगी, जितनी बुद्ध को वर्षों में पैदा हुई है। महावीर जाते हैं कि अल्फा भीतर पैदा हो रही है। बस, अब इसी तरंग में | को वर्षों में वर्षों में भी कहना ठीक नहीं, जन्मों में पैदा हुई। उतना रुक जाना है। एक दो-चार दिन के अभ्यास से...।
तो तीन महीने में यह यंत्र पैदा कर देगा। मेरे पास वह यंत्र है। इधर मैं उस पर प्रयोग किया हूं। दो-चार लेकिन जिन लोगों में तीन महीने में इस यंत्र ने वह हालत पैदा दिन के अभ्यास से आप ध्यान अनुभव करने लगते हैं। बहुत शांति कर दी, वे बुद्ध नहीं हो जाते। न तो उनके जीवन में कोई परिवर्तन
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होता है, न उनके जीवन में कोई सत्य, न उनके जीवन में कोई | लेकिन अगर ध्यान आपकी कोई आत्मिक यात्रा है; जैसी बुद्ध प्रफुल्लता, न उनके जीवन में कोई उत्सव आता है। उनके जीवन में की खोज है, महावीर की खोज है, ऐसी अगर कोई खोज है, जिस वह सुगंध नहीं दिखाई पड़ती, जो बुद्ध के जीवन में दिखाई पड़ती है। पर आपका पूरा जीवन समर्पित है; यह कोई शांति की तलाश नहीं
तो कुछ बुनियादी भीतरी फर्क होगा। वह फर्क क्या है? क्योंकि | है, सत्य की तलाश है; यह केवल दुख और बोझ के कम होने की यंत्र तो कहता है, दोनों में एक-सी तरंगें पैदा हो रही हैं। वह फर्क बात नहीं है, आनंद में स्थापित होने की बात है; यह कोई है, यात्रा का फर्क। वह फर्क है, असली फूल और बाजार से खरीद कामचलाऊ जिंदगी ठीक से चल सके, इसलिए थोड़ी शांति रहे, लाए फूल-अपने बगीचे में पैदा किए गए फूल और जाकर बाजार ऐसी व्यवस्था नहीं है, बल्कि परम मुक्ति कैसे अनुभव हो, उसकी से एक फूल खरीद लाएं हैं, टूटा हुआ, उसमें जो फर्क है। | खोज है: तो फिर यंत्र से यह आनंद, यह समाधि, यह ध्यान
यह जो यंत्र से पैदा हो रहा है, यह ऊपर से चेष्टित और आरोपित उपलब्ध नहीं होगा। है। मन यह अभ्यास सीख लेगा, और इस यंत्र के साथ तालमेल लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कोई यंत्र का विरोध कर बिठा लेगा। तालमेल बैठ जाने से शांति मालूम पड़ेगी। और जिन | रहा हूं। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि यंत्र का भी उपयोग करना लोगों को अशांति से तकलीफ है, उनके लिए यंत्र उपयोगी है। | अच्छा है। उससे कम से कम शांति तो मिलेगी। और यह भी लेकिन ध्यान की पूर्ति नहीं होगी। ध्यान की पूर्ति असंभव है। खयाल आएगा कि जब यंत्र से इतनी शांति मिल सकती है, तो
इसको हम ऐसा समझें। स्लेटर का जो प्रयोग मैंने आपसे कहा ध्यान से कितनी संभावना हो सकती है और समाधि से कितना...! कि चूहे को उसने संभोग का प्रयोग करा दिया यंत्र से, और चूहा एक झलक उससे मिलेगी, वह झलक अपने आप में बुरी नहीं प्रयोग करता चला गया। इसमें भी वही फर्क है।
है। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि यंत्र योग की जगह ले लेंगे, अगर किसी स्त्री से आपका प्रेम है—जो जरा मुश्किल बात है। तो भूल में है। कोई अगर सोचता हो कि यंत्र प्रेम की जगह ले लेंगे, क्योंकि आमतौर से तो लोग सोचते हैं कि सभी को प्रेम है। प्रेम | तो भूल में है। इतनी ही कठिन बात है, जैसा कभी-कभी कोई वैज्ञानिक होता है। वह जो आंतरिक है, उसकी जगह कोई भी यंत्र नहीं ले सकता। कभी-कभी कोई कवि होता है। कभी-कभी कोई दार्शनिक होता है। लेकिन अगर आपकी जिंदगी सिर्फ बाह्य है, तो यंत्र उसकी जगह कभी-कभी कोई चित्रकार होता है। ऐसे ही कभी-कभी कोई प्रेमी | ले सकते हैं। होता है। प्रेमी भी सब लोग होते नहीं।
अब हम सूत्र को लें। अगर सच में ही किसी पुरुष को किसी स्त्री से प्रेम है, तो उस हे अर्जुन, इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन और स्त्री के साथ संभोग में जो आनंद उसे उपलब्ध होगा, वह स्लेटर | | जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप से कहा गया। इसको तत्व का यंत्र पैदा नहीं करवा सकता। हां, अगर आपको स्त्री से कोई प्रेम से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। नहीं है और आप किसी वेश्या के पास संभोग करने चले गए हैं, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संबंध में, ज्ञान और ज्ञान के साधन के संबंध तो जो आपको क्षणभर की जो प्रतीति होगी संभोग में-मुक्तता | | में, कृष्ण कहते हैं, मैंने थोड़ी-सी बातें कहीं। इनको अगर कोई तत्व की, खाली हो जाने की, बोझ के उतर जाने की—वह स्लेटर के से जान ले, तो वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। यंत्र से भी हो जाएगी।
तत्व से जानकर! इसे हम समझ लें। यंत्र के द्वारा भी वह संभोग पैदा हो सकता है, जो उस व्यक्ति | एक तो जानकारी है सूचना की। कोई कहता है, हम सुन लेते हैं के साथ आपको पैदा होता है, जिससे आपका कोई गहरा प्रेम नहीं | और हम भी जान लेते हैं। वह तत्व से जानना नहीं है। एक जानकारी है। लेकिन अगर प्रेम है, तो यंत्र फिर उस संभोग को पैदा नहीं कर | है अनुभव की, स्वयं के साक्षात की। हम ही जानते हैं। तब हम सकता।
| तत्व से जानते हैं। अगर आपको सिर्फ मन की थोड़ी-सी शांति चाहिए, जो कि एक आदमी कहता है कि सागर का जल खारा है। हम समझ ट्रैक्वेलाइजर से भी पैदा हो जाती है, तो वैसी ही शांति आपको गए। जल भी हमने देखा है। सागर भी हमने देखा है। खारेपन का अल्फा तरंगें पैदा करने वाले यंत्र से भी पैदा हो जाएगी। | भी हमको पता है। समझ गए। वाक्य का अर्थ हमारी समझ में आ
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गया कि सागर का जल खारा है। लेकिन यह अर्थ शाब्दिक है। मगर कठिनाई तो तब हुई, जब उसको तीसरा नंबर मिला। और हमने सागर के जल को कभी चखा नहीं। और बिना चखे हमें कुछ | जब पता चला कि वह मौजूद था और नंबर तीन आया चार्ली पता न चलेगा। चखकर जो हमें पता चलेगा, वह तत्व से ज्ञान चैपलिन की नकल करने में, तब तो बड़ी हैरानी हुई कि यह बात होगा। अनुभव से अपने जो ज्ञान होता है, वह तत्व है। दूसरे से भी क्या हो गई! दूसरे लोग हाथ मार ले गए। क्योंकि दूसरे लोगों के उसके संबंध में खबर मिल सकती है।
लिए सिर्फ नकल थी बंधी हुई! चार्ली चैपलिन को सहज मामला खतरा यह है कि हम दूसरे से मिली खबरों को भी अपना ज्ञान | | है। उसने कुछ नया कर दिया होगा, जो उसने पहले कभी नहीं किया समझ लेते हैं। इसी तरह दुनिया में अनेक लोग अज्ञानी के अज्ञानी | था। उसी में फंस गया वह। क्योंकि जो उसने पहले नहीं किया था, मर जाते हैं, इस भ्रांति में कि वे जानते हैं, इस भ्रांति में कि उन्हें | | वह तो निरीक्षकों को भी पता नहीं था, जज़ेस को भी पता नहीं था। ज्ञान है।
और जो उसने पहले नहीं किया था, वह तो चार्ली चैपलिन का माना रोज मुझे ऐसे लोगों से मिलना हो जाता है, जिन्हें शास्त्र कंठस्थ ही नहीं जा सकता। और उसे कभी खयाल ही नहीं था कि अपनी हैं। अगर कृष्ण भी मिल जाएं और फिर से उनसे कहा जाए कि गीता नकल कैसे करनी। उसने जिंदगीभर जो भी किया था, वह सहज. कहो, तो दोहरा न सकेंगे। क्योंकि कृष्ण को कोई यह कंठस्थ नहीं था। पहली दफा उसने नकल करने की कोशिश की। खुद ही हार है। बहुत-सी बातें छूट जाएंगी, बहुत-सी नई जुड़ जाएंगी। सब | गया अपनी ही नकल में! नंबर तीन पर आया। ढांचा बदल जाएगा। लेकिन इनको जिनको गीता कंठस्थ है, इनसे आप पक्का समझिए कि अगर कृष्ण भी कहीं बिठा दिए जाएं भूल होने का उपाय नहीं है। ये कृष्ण में भी भूलें बता सकते हैं। प्रतियोगिता में कंठस्थ गीता वालों से; हारेंगे। इनसे जीतने का कोई क्योंकि कृष्ण दुबारा दोहरा न सकेंगे। यह तो सहजस्फूर्त थी। मगर उपाय नहीं है। ये हाथ मार ले जाएंगे। क्योंकि इनको बिलकुल इनको कंठस्थ है।
कंठस्थ है, यंत्रवत। ये जो कंठस्थ हैं, इनको धीरे-धीरे यह भ्रांति पैदा हो जाती है कि ज्ञान को कंठस्थ होने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ अज्ञान इन्हें पता है।
कंठस्थ करता है। कंठस्थ का मतलब ही यह है कि तुम्हें पता नहीं ऐसा हुआ एक बार कि इंग्लैंड में एक प्रतियोगिता रखी गई। | है। तुम्हारे भीतर नहीं है। सिर्फ कंठ में है। शब्दों की याददाश्त है। प्रतियोगिता यह थी कि सारी दुनिया से अभिनेता आमंत्रित किए गए। ___ हम सबको शब्द याद हैं। और शब्दों के याद होने से भ्रांति होती थे कि वे चार्ली चैपलिन का अभिनय करें। चार्ली चैपलिन को | है कि हमें मालूम है। शब्द खतरनाक हैं। अगर बार-बार दोहराते रहें, मजाक सूझा; उसने सोचा मैं भी क्यों न किसी और नाम से अभिनय तो आप ही भूल जाते हैं कि पता नहीं है। ईश्वर, ईश्वर, ईश्वर में सम्मिलित हो जाऊं! मुझे तो पुरस्कार निश्चित है। शक की कोई सुनते-सुनते ऐसा लगने लगता है कि हमें मालूम है कि ईश्वर है। बात ही नहीं, क्योंकि चार्ली चैपलिन का ही अभिनय करना था | | आत्मा, आत्मा, आत्मा सुनते-सुनते आप भूल ही जाते हैं कि आत्मा दूसरों को।
न हमें पता है कि क्या है, न कोई अनुभव है, न कोई स्वाद है। सारी दुनिया में अनेक जगह प्रतियोगिताएं हुईं और फिर सौ यह बड़ी खतरनाक स्थिति है। क्योंकि शब्द एक भ्रम पैदा कर प्रतियोगी लंदन में इकट्ठे हुए; किसी को शक भी नहीं था कि उसमें | | देते हैं, एक हवा पैदा कर देते हैं चारों तरफ कि मालूम है। एक चार्ली चैपलिन भी है। वे सभी चार्ली चैपलिन जैसे लग रहे थे। | अगर कोई आपसे पूछे, आत्मा है? आप फौरन कहेंगे, हां। वैसी ही मूंछ लगाई थी। वैसे ही कपड़े पहने थे। वैसी ही चाल | बिना एक रत्तीभर शक पैदा हुए कि हमें कुछ भी पता नहीं है कि चलते थे। तो उसमें चार्ली चैपलिन भी छिप गया था। वह भी किसी आत्मा है या नहीं है। दूसरे नाम से भी हो गया था।
और जितने आप विश्वास से कह रहे हैं, है; उतने ही विश्वास अगर पता चल जाता आयोजकों को, तो उसे निकाल बाहर से रूस में किसी से पूछो, वह कहता है, नहीं है। क्योंकि बचपन करते। क्योंकि उसका तो कोई सवाल ही नहीं था। फिर तो से उसको सिखाया जा रहा है, नहीं है, नहीं है। आपको सिखाया प्रतियोगिता खराब ही हो गई। इसलिए वह छिपकर ही सम्मिलित जा रहा है, है, है। आप दोनों एक से हैं। जरा भी फर्क नहीं है। वह
| भी तोते की तरह दोहराया गया है उसको कि आत्मा नहीं है। और
था।
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है। जो दृश्य है, वही नहीं है; अदृश्य भी है। आज मौजूद है, कल | गैर-मौजूद हो जाता है। यह गैर-मौजूदगी भी अस्तित्व का एक ढंग है । यह न होना भी होने का एक प्रकार है। क्योंकि बिलकुल परिपूर्ण रूप से नहीं तो जो है, वह हो ही नहीं सकता।
आपको भी तोते की तरह दोहराया गया है कि आत्मा है। ऊपर से देखने पर कितना फर्क मालूम पड़ता है! आप लगते हैं। आस्तिक और वह रूस का आदमी लगता है नास्तिक । आप दोनों एक से हैं। न तो आप आस्तिक हैं, न वह नास्तिक है। वह भी, जो उसने सुना है, दोहरा रहा है। जो आपने सुना है, आप दोहरा रहे हैं। फर्क क्या है? फर्क तो पैदा होगा, जब तत्व से ज्ञान होगा।
सुनी हुई बातचीतों का कोई भी मूल्य नहीं है। और उसी आदमी मैं बुद्धिमान कहता हूं, जो यह याद रख सके कि सुनी हुई बातें ज्ञान नहीं है। सुनी हुई बातों को एक तरफ रखे।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुनी हुई बातें बुरी हैं। यह भी नहीं कह रहा हूं कि सुनी हुई बातों का कोई उपयोग नहीं है। लेकिन इतना स्मरण होना चाहिए कि क्या है मेरी स्मृति और क्या है मेरा ज्ञान ! क्या मैंने सुना है और क्या मैंने जाना है !
है, वही तुम्हारा है, वही तत्व है। जो नहीं जाना है, सुना है, वह सिर्फ धारणाएं हैं, प्रत्यय हैं, कंसेप्ट्स हैं। उनसे कोई जीवन बदलेगा नहीं ।
तो कृष्ण कहते हैं, जो तत्व से जानता है, वह मेरा भक्त मेरे स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है। | स्वभावतः, जो तत्व से जानेगा, वह परम ईश्वर के स्वरूप के साथ एक हो ही जाएगा। उसे कोई बाधा नहीं है।
और हे अर्जुन, प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी मेरी माया और पुरुष अर्थात क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को ही तू अनादि जान ।
यह प्रश्न विचारणीय है और बहुत ऊहापोह मनुष्य इस पर करता रहा है।
हमारे मन में यह सवाल उठता ही रहता है कि किसने बनाया जगत को ? किसने बनाया ? कौन है स्रष्टा ? जरूर कोई बनाने वाला है। हमारा मन यह मान ही नहीं पाता कि बिना बनाए यह जगत हो सकता है। बनाने वाला तो चाहिए ही
तो हम बच्चों जैसी बातें करते रहते हैं और हम बच्चों जैसी बातें प्रचारित भी करते रहते हैं कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसा स्रष्टा है कोई, जो सृष्टि को बनाता है।
कृष्ण कहते हैं, तू दोनों को अनादि जान, प्रकृति भी और पुरुष को भी।
वे बनाए हुए हैं, वे सदा से हैं। कभी प्रकट होते हैं, कभी अप्रकट। लेकिन मिटता कुछ भी नहीं है और न कुछ बनता है । कभी दृश्य हैं, कभी अदृश्य। लेकिन जो अदृश्य है, वह भी
इसलिए कृष्ण कहते हैं, प्रकृति भी और पुरुष भी !
वह जो दिखाई पड़ता है वह, और वह जो देखता है वह, वे दोनों अनादि हैं। उनका कोई प्रारंभ नहीं है। उनके प्रारंभ की बात ही बचकानी है।
एक मित्र ने सवाल पूछा है। उन्होंने पूछा है कि विज्ञान तो धर्म से जीत गया संघर्ष में ! वह इसीलिए जीत गया कि वह जो भी कहता है, स्पष्ट है। और धर्म जो भी कहता है, वह स्पष्ट नहीं है। और उन मित्र ने यह कहा है कि धर्म अभी तक नहीं बता पाया कि जगत को किसने बनाया? सृष्टि कैसे हुई ? क्यों हुई ? प्रश्न में थोड़ा अर्थ है।
धर्म तो वस्तुतः कहता है कि जगत अनादि है; किसी ने बनाया नहीं है। बनाने की बात ही बच्चों को समझाने के लिए है। और इस संबंध में विज्ञान भी राजी है। विज्ञान भी कहता है कि अस्तित्व प्रारंभ - शून्य है ।
ईसाइयत से विज्ञान की थोड़ी कलह हुई। और कलह का कारण यह था कि ईसाइयत ने तय कर रखा था कि जगत एक खास तारीख को बना। एक ईसाई पादरी ने तो तारीख और दिन सब निकाल रखा था। जीसस से चार हजार चार साल पहले, फलां-फलां दिन, इतने बजे सुबह जगत का निर्माण हुआ !
विज्ञान को अड़चन और कलह शुरू हुई ईसाइयत के साथ | विज्ञान और धर्म का संघर्ष नहीं है। विज्ञान और ईसाइयत में संघर्ष हुआ जरूर, क्योंकि ईसाइयत की बहुत-सी धारणाएं बचकानी थीं। और विज्ञान ने कहा कि यह तो बात एकदम गलत है कि चार हजार साल पहले जीसस के पृथ्वी बनी या जगत बना। क्योंकि पृथ्वी में ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो लाखों-लाखों साल पुराने हैं।
आदमी लेकिन बड़ा बेईमान है। और आदमी अपने लिए जो भी ठीक मानना चाहता है, उसको ठीक मान लेता है। तरकीबें निकाल लेता है। जिस बिशप ने यह सिद्ध किया था कि जीसस के चार | हजार चार साल पहले पृथ्वी बनी, उसने एक वक्तव्य जाहिर किया। और उसने कहा कि हम यह मानते हैं कि पृथ्वी में ऐसी चीजें मिलती हैं, जो लाखों साल पुरानी हैं।
अब यह बड़ी कठिन बात है। अगर पृथ्वी में ऐसी चीजें मिलती
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हैं, जो लाखों साल पुरानी हैं, तो पृथ्वी कैसे बन सकती है चार | | और संयोग का वियोग होता है, विनाश होता है। लेकिन जो तत्व हजार साल पहले या छः हजार साल पहले?
है, उसका विनाश नहीं होता। जब आप मरेंगे, तो शरीर अपनी उस बिशप ने कहा कि भगवान के लिए सभी कुछ संभव है। दुनिया में लौट जाएगा मिट्टी-पत्थर की। और आपकी चेतना चेतना उसने चार हजार साल पहले पथ्वी बनाई और पथ्वी में ऐसी चीजें की दनिया में लौट जाएगी। वे दोनों पहले भी थे। रख दीं जो लाखों साल पुरानी मालूम पड़ती हैं; लोगों की भक्ति की आप? आप एक संयोग हैं दो के। आपका जन्म होता है, परीक्षा के लिए! कि लोग अगर सच में निष्ठावान हैं, तो वे कहेंगे, आपका अंत होता है। हमारी तो निष्ठा है। यह भगवान हमारी परीक्षा ले रहा है। भारतीय मनीषा कहती है कि न तो प्रकृति का कोई आदि है, न
ये आदमी के बेईमान होने के ढंग इतने हैं कि वह अपनी बेईमानी | कोई अंत है। और न पुरुष का कोई आदि है और अंत है। लेकिन में ईश्वर तक को भी फंसा लेता है। ईश्वर ने बनाई तो चार हजार | संसार का आदि और अंत है। साल पहले ही चीजें, लेकिन ईश्वर के लिए क्या असंभव है! सर्व संसार ऐसे ही है, जैसे आपका शरीर और आत्मा के मिलने से शक्तिशाली है। उसने उसको इस ढंग से बनाया कि वैज्ञानिक धोखा आपका व्यक्तित्व। ऐसे ही इतने सारे पुरुषों और इस प्रकृति के. खा जाते हैं कि लाख साल पुरानी है। सिर्फ छांटने के लिए कि जो | | मिलने से जो प्रकट होता है संसार, वह प्रारंभ होता है और उसका असली आस्तिक हैं, वे राजी रहेंगे; और जो नकली आस्तिक हैं, अंत होता है। वे नास्तिक हो जाएंगे। उसने यह तरकीब बिठाई।
हम जिस संसार में रह रहे हैं, वह सदा नहीं था। वैज्ञानिक कहते लेकिन कृष्ण की धारणा बहुत वैज्ञानिक है। वे कहते हैं कि हैं कि हमारा सूरज कोई चार हजार साल में ठंडा हो जाएगा। अरबों प्रकृति और पुरुष का कोई आदि-प्रारंभ नहीं है। लेकिन इसका यह | वर्ष से गरमी दे रहा है। उसकी गरमी चुकती जा रही है। चार हजार मतलब नहीं है कि इस जगत का प्रारंभ नहीं है।
साल और, और वह ठंडा हो जाएगा। उसके ठंडे होते ही पृथ्वी इसका फर्क समझ लें।
भी ठंडी हो जाएगी। फिर पौधा यहां नहीं फूटेगा; फिर बच्चे यहां प्रकृति का कोई प्रारंभ नहीं है, पुरुष का कोई प्रारंभ नहीं है।। | पैदा नहीं होंगे; फिर श्वास यहां नहीं चलेगी; फिर यहां जीवन आपके शरीर का कोई प्रारंभ नहीं है और आपकी आत्मा का भी शून्य हो जाएगा। कोई प्रारंभ नहीं है। लेकिन आपका प्रारंभ है। आपकी आत्मा भी आदमी ही नहीं मरता, पृथ्वियां भी मरती हैं। अभी हमारी पृथ्वी अनादि है और आपका शरीर भी अनादि है। क्योंकि शरीर में क्या जीवित है, लेकिन वह भी बुढ़ापे के करीब पहुंच रही है। अभी कई है जो आपके पहले नहीं था! सभी कुछ था। मिट्टी थी, हड्डी-मांस, पृथ्वियां मृत हैं। अभी कई पृथ्वियां जन्मने के करीब हैं। अभी कई जो भी आपके भीतर है, वह सब था; किसी रूप में था। पृथ्वियां जवान हैं। अभी कई पृथ्वियां बचपन में हैं।
अगर आपके शरीर की सब चीजें निकाली जाएं, तो वैज्ञानिक वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन है। कहते हैं, कोई चार, साढ़े चार रुपए का सामान उसमें निकलता है। पचास हजार पृथ्वियां हैं कम से कम, जिन पर जीवन है। उसमें कोई अल्युमिनियम, तांबा, पीतल सब है। बहुत थोड़ा-थोड़ा है। सब बिलकुल बच्चों जैसी है। अभी-अभी उसमें काई फूट रही है और निकाल लिया जाए, तो कोई सस्ते जमाने में साढ़े चार रुपए का | घास उग रहा है, अभी और बड़ा जीवन नहीं आया है। कोई होता था, अब कुछ महंगा होता होगा। लेकिन यह सब था। | बिलकुल बूढ़ी हो गई है; सब सूख गया है। आदमी भी जा चुके
शरीर भी आपका अनादि है। और आपके भीतर जो छिपी हुई | हैं, प्राणी भी जा चुके हैं; आखिरी काई भी सूखती जा रही है। कोई आत्मा है, वह भी अनादि है। लेकिन आप अनादि नहीं हैं। आपका बिलकुल बंजर हो गई है, मृत। कोई अभी गर्भ में है; अभी तैयारी तो जन्म हुआ। आपका तो म्युनिसिपल के दफ्तर में सब कर रही है। जल्दी ही जीवन का अंकुर उस पर फूटेगा। हिसाब-किताब है। कब आप पैदा हुए, कहां पैदा हुए, कैसे पैदा पृथ्वियां आती हैं, खो जाती हैं। संसार बनते हैं, विनष्ट हो जाते हुए, वह सब है।
| हैं। लेकिन मूल तत्व दो हैं, प्रकृति और पुरुष, प्रकृति और आप पैदा हुए, आप एक जोड़ हैं। आप तत्व नहीं हैं, आप एक | | परमात्मा, पदार्थ और चैतन्य, वे दोनों अनादि हैं। कंपाउंड हैं। इलिमेंट नहीं हैं, संयोग हैं। संयोग का जन्म होता है; | तब एक सवाल उठेगा मन में, तो फिर हम कहते हैं कि ब्रह्मा,
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विष्णु, महेश - ब्रह्मा बनाता है, विष्णु सम्हालते हैं, महेश मिटाते हैं इनका क्या अर्थ है ?
ये भी सम्हालते, मिटातें, बनाते हैं संसारों को, अस्तित्व को नहीं। ये भी एक संसार को बनाते हैं। इसलिए बौद्धों ने तो अनेक ब्रह्मा माने हैं। क्योंकि जितने संसार हैं, उतने ब्रह्मा । क्योंकि हर संसार को बनाने की शक्ति का नाम ब्रह्मा है; ब्रह्मा कोई व्यक्ति नहीं हैं। सम्हालने की शक्ति का नाम विष्णु है; विष्णु कोई व्यक्ति नहीं हैं। विनष्ट हो जाने की संभावना का नाम शिव है; शिव कोई व्यक्ति नहीं हैं।
तो जहां-जहां जीवन है, जीवन का विस्तार है, और जहां-जहां जीवन का अंत है, वहां-वहां ये तीन शक्तियां काम करती रहेंगी। लेकिन इन सबका संबंध संसारों से है।
इसलिए बहुत मजेदार घटना बौद्ध कथाओं में है। वह यह कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो जो पहला व्यक्ति जिज्ञासा करने आया, वह था ब्रह्मा। ब्रह्मा ने आकर सिर टेक दिया बुद्ध के चरणों में और कहा कि मुझे ज्ञान दें। हमें तो बड़ी घबड़ाहट होगी। क्योंकि ब्रह्मा बनाने वाला संसार का, वह बुद्ध के चरणों में आया पूछने कि मुझे ज्ञान दें!
ब्रह्मा संसार को बनाने वाला जरूर है, लेकिन संसार को वह बनाता ही इसलिए है कि उसमें संसार को बनाने की वासना है। बुद्ध वासना - मुक्त हो गए। इसलिए बुद्ध ब्रह्मा से ऊपर हो गए । बुद्ध शुद्ध पुरुष हो गए। ब्रह्मा उनसे नीचे रह गया। क्योंकि ब्रह्मा भी बनाता है। बनाने का अर्थ ही है कि कामवासना है। जहां वासना नहीं है, वहां कोई सृजन न होगा। इसलिए हम ब्रह्मा को मुक्त नहीं मानते। ब्रह्मा को भी हम मानते हैं कि वह भी बंधन में है, क्योंकि बनाने का... ।
स्वभावतः, आप एक छोटी-सी दुकान चलाते हैं, कितनी मुसीबत है! अगर ब्रह्मा को हम समझें और इतने सारे संसार को चलाता है, तो उसकी मुसीबत का हम अंदाज लगा सकते हैं। उसकी मुसीबत का हम खयाल कर सकते हैं। इतना बड़ा संसार अगर किसी को चलाना पड़ रहा है, तो उसके पीछे एक तो प्रगाढ़ कामना होनी चाहिए, अंतहीन वासना होनी चाहिए। और फिर उसका उपद्रव और जाल भी होगा ही ।
वह बुद्ध से कहता है ब्रह्मा – यह कथा मीठी है— कि मुझे भी कुछ ज्ञान दें; मैं भी उलझा हूं अभी; मेरा मन भी शांत नहीं है। आप जहां पहुंच गए हैं, वहां से कुछ अमृत मेरे लिए भी !
लेकिन बुद्ध चुप हैं। और बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो उन्हें लगा कि अब बोलने की क्या जरूरत। जो जाना है, वह कहा नहीं जा सकता। और जो सुनने वाले हैं, उनमें कोई समझ भी न पाएगा। | इसलिए व्यर्थ की मेहनत नहीं करनी है।
तो ब्रह्मा उनके पैर पर सिर रख रखकर बार-बार कहता है कि आप लोगों से कहें, क्योंकि हम हजारों-हजारों साल तक प्रतीक्षा करते हैं कि कोई बुद्ध हो, तो हमें कुछ ज्ञान मिले। हम भी कुछ जान पाएं। हमें भी कुछ पता चले कि क्या है।
ब्रह्मा का यह पूछना बड़ा मजेदार है। उसे भी पता नहीं कि क्या है। वह भी अपनी वासना में जी रहा है।
हम सब छोटे-छोटे ब्रह्मा हैं, जब हम बनाते हैं। और हम सब छोटे-छोटे विष्णु हैं, जब हम सम्हालते हैं। और हम सब छोटे-छोटे शिव हैं, जब हम मिटाते हैं। इसी को विराट करके देखें, तो पूरे संसार का खयाल आ जाएगा।
कृष्ण कहते हैं, लेकिन दो मौलिक तत्व, प्रकृति और पुरुष अनादि हैं। और राग-द्वेष आदि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ जान ।
और जो कुछ भी तुझे दिखाई पड़ता है इस जगत में पैदा होता हुआ - राग-द्वेष, विकार, त्रिगुण - यह संपूर्ण पदार्थ, इनको तू प्रकृति के ही रूप जान। ये प्रकृति से ही पैदा हुए हैं।
तत्व दो हैं, प्रकृति और पुरुष । बाकी जितना फैलाव दिखाई पड़ता है, वह दो में से किसी से जुड़ा होगा। तो कृष्ण कहते हैं, यह जितना विस्तार है माया का, त्रिगुण का; ये जो भी दिखाई पड़ रहे हैं पदार्थ, इतने रूप, इतने रंग, इतना परिवर्तन; ये सब प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान। ये प्रकृति में ही उत्पन्न होते हैं और प्रकृति में ही लीन होते रहते हैं। जिससे ये उत्पन्न होते हैं और जिसमें लीन होते हैं, उसी का नाम प्रकृति है।
यह प्रकृति शब्द हमारा बड़ा अदभुत है। ऐसा शब्द दुनिया की किसी भी भाषा में नहीं है। अंग्रेजी में अक्सर हम प्रकृति को नेचर | या क्रिएशन से अनुवादित करते हैं। दोनों ही गलत हैं। प्रकृति शब्द का अर्थ है, कृति के पहले। उसका अर्थ है, प्रि-क्रिएशन । शब्द बहुत अनूठा है। प्रकृति का अर्थ है कि कृति के पहले। जब कुछ भी नहीं था, तब भी जो था । जब कुछ भी नहीं बना था, तब भी जो था, प्रि-क्रिएशन। पहले जो था, सृजन के भी पहले जो था, उसका नाम प्रकृति है।
इसलिए प्रकृति को क्रिएशन तो अनुवाद किया ही नहीं जा
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0 गीता दर्शन भाग-60
सकता। नेचर भी अनुवाद नहीं किया जा सकता। क्योंकि नेचर तो, | कैक्टस के पौधे को घर में रखेगा। सौ साल पहले कोई रख लेता, जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वह है।
| तो हम उसका पागलखाने में इलाज करवाते। कैक्टस का पौधा प्रकृति सांख्यों का बड़ा अनूठा शब्द है। उसका अर्थ है, जो कुछ | | गांव के बाहर लोग अपने खेत के चारों तरफ बागुड़ लगाने के काम दिखाई पड़ रहा है, यह जब नहीं था और जिसमें छिपा था, उसका | में लाते रहे हैं। सुंदर है, ऐसा कभी किसी ने सोचा नहीं था। नाम प्रकृति है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, जब यह सब मिट जाएगा अब हालत ऐसी है कि जिनको भी खयाल है सौंदर्य का और उसी में डूब जाएगा जिससे निकला है, उसका नाम प्रकृति है। | थोड़ा-बहुत, वे गुलाब वगैरह को निकाल बाहर कर रहे हैं घरों से;
तो प्रकृति है वह, जिससे सब निकलता है और जिसमें सब लीन | | कैक्टस के पौधे लगा रहे हैं! जिनको कहें अवांगार्द जो बहुत हो जाता है। प्रकृति है मूल उदगम सभी रूपों का।
आभिजात्य हैं, जिनको सौंदर्य का बड़ा बोध है, या जो अपने समय क्योंकि कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही | से बहुत आगे हैं, वे सब तरह के ऐड़े-तिरछे कांटों वाले पौधे घरों जाती है। और पुरुष सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में | | में इकट्ठे कर रहे हैं। उनमें ऐसे पौधे भी हैं कि अगर कांटा लग जाए, हेतु कहा जाता है।
| तो जहर हो जाए खून में। लेकिन उसकी भी चिंता नहीं है। पौधा इन दो बातों को बहुत गौर से समझ लेना चाहिए। जिनकी | | इतना सुंदर है यह कि मौत भी झेली जा सकती है। साधना की दृष्टि है, उनके लिए बहुत काम की है।
कोई सोच नहीं सकता था सौ साल पहले कि ये कैक्टस के पौधे कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है। और सुंदर होते हैं। अभी हो गए हैं। ज्यादा दिन चलेंगे नहीं। सब फैशन पुरुष सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है। | है। अभी गुलाब के सौंदर्य की चर्चा करना बड़ा आर्थोडाक्स,
घटनाएं घटती हैं प्रकृति में, भोग की कल्पना और मुक्ति की पुराना, दकियानूसी मालूम पड़ता है। कोई कहने लगे, बड़ा सुंदर कल्पना घटती है पुरुष में।
| गुलाब है। तो लोग कहेंगे, क्या फिजूल की बातें कर रहे हो! कितने ___एक फूल खिला। फूल का खिलना प्रकृति में घटित होता है। लोग कह चुके। सब उधार है। दुनिया हो गई, सारा संसार गुलाब और अगर कोई आदमी न हो पृथ्वी पर, तो फूल न तो सुंदर होगा | की चर्चा करके थक गया। अब हटाओ गुलाब को। आउट आफ
और न कुरूप। या होगा? कोई आदमी नहीं है जगत में; एक फूल | डेट है। बिलकुल तिथिबाह्य है। कैक्टस की कुछ बात हो। खिला एक पहाड़ के किनारे। वह सुंदर होगा कि कुरूप होगा? वह | पिकासो ने अपनी एक डायरी में लिखा है कि मैं एक स्त्री के प्रेम सुखद होगा कि दुखद होगा? वह किसी को आनंदित करेगा कि में पड़ गया हूं। स्त्री सुंदर नहीं है। लेकिन उस स्त्री में एक धार है। किसी को पीड़ित करेगा? कोई है ही नहीं पुरुष।
सुंदर तो नहीं है। लेकिन फिर वह लिखता है कि सुंदर की भी क्या सिर्फ फूल खिलेगा। न सुंदर होगा, न असुंदर; न सुखद, न
बकवास। यह तो बहत परानी धारणा है। धार है. जैसे कि काट दे. दुखद; न कोई उसकी तारीफ करेगा, न कोई उसकी निंदा करेगा। | जैसे तलवार में धार होती है। उस धार में मुझे रस है। लेकिन फूल खिलेगा; फूल अपने में पूरी तरह से खिलेगा। यह कैक्टस का प्रेम ही होगा, जो स्त्री तक फैल रहा है। धार,
फिर एक पुरुष प्रकट होता है। फूल के पास खड़ा हो जाता है। | काट दे! सौंदर्य भी मुरदा-मुरदा लगता है पुराना। अगर कालिदास फूल तो प्रकृति में खिल रहा है। पुरुष के मन में, पुरुष के भाव में, | का सौंदर्य हो, पिकासो को बिलकुल न जंचेगा। वह जो कालिदास कल्पना खिलनी शुरू हो जाती है फूल के साथ-साथ समानांतर। | जिस सौंदर्य की चर्चा करता है, कुंदन जैसे सुंदर शरीर की,
पुरुष कहता है, सुंदर है। यह सुंदर का जो फूल खिल रहा है, स्वर्ण-काया की, वह पिकासो को नहीं जंचेगा। यह पुरुष के भीतर खिल रहा है। फूल बाहर खिल रहा है। यह जो मैंने सुना है, एक गांव में ऐसा हुआ कि एक दलाल जो लोगों सुंदर होने का भाव खिल रहा है, यह पुरुष के भीतर खिल रहा है। की शादी करवाने का काम करता था, एक युवक को बहुत तारीफ
और अगर परुष कहता है संदर है. तो सख पाता है. सख भोगता करके एक स्त्री दिखाने ले गया। उसने उसकी ऐसी तारीफ की थी है। अगर पुरुष कहता है असुंदर है, तो दुख पाता है। कि जमीन पर ऐसी सुंदर स्त्री खोजना ही मुश्किल है। __ और ऐसा नहीं है। सुंदर और असुंदर धारणाओं पर निर्भर करते | | युवक भी बड़े उत्साह में, बड़ी उत्तेजना में था। और कुछ भी खर्च हैं। आज से सौ साल पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि | करने को तैयार था शादी के लिए। दलाल ने इतनी बातें बांध दी थीं,
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to पुरुष-प्रकृति-लीला 0
दलाल ने ऐसी चर्चा की थी और इतनी कविताएं उद्धृत की थीं, और अचानक बहुत उत्साह में आ गए। मैंने पूछा, क्या हुआ? इशारा इतने शास्त्रों का उल्लेख किया था, और स्त्री के रंग-रूप और | | किया, दूर घाट पर एक सुंदर स्त्री की पीठ। बोले कि मैं अब न बैठ एक-एक अंग का ऐसा वर्णन किया था कि युवक बिलकुल | सकूँगा। बड़ा अनुपात है शरीर में। और बाल देखते हैं! और झुकाव उत्तेजित था कि शीघ्रता से मुझे ले चलो, दर्शन करने दो। देखते हैं! मैं जरा जाकर, शक्ल देख आऊं। मैंने कहा, जाओ।
लेकिन जब युवक ने दर्शन किया, तो उसके हाथ-पैर ढीले पड़ । वे गए। मैं उन्हें देखता रहा। बड़े आनंदित,जा रहे थे। उनके पैर गए। उसने दलाल के कान में कहा कि क्या इस स्त्री की तुम बातें | | में नृत्य था। कोई खींचे जा रहा है जैसे चुंबक की तरह। और जब कर रहे थे। इसको तुम सुंदर कहते हो? इसकी आंखें ऐसी भयावनी | | वे इस स्त्री के पास पहुंचे, तो भक्क से जैसे ज्योति चली गई। वे हैं, जैसे कि भूत-प्रेत हो। यह इतनी लंबी नाक मैंने कभी देखी नहीं। | | एक साधु महाराज थे, वे स्नान कर रहे थे। इसके दांत सब अस्तव्यस्त हैं। इसको किसी बच्चे को डराने के | ___ लौट आए, बड़े हताश। सब सुख लुट गया। माथे पर हाथ काम में लाया जा सकता है। तुम इसको सुंदर कह रहे थे? | रखकर बैठ गए। मैंने कहा, क्या मामला है? कहने लगे, अगर
उस दलाल ने कहा, तो मालूम होता है, तुम दकियानूसी हो। इफ | | यहीं बैठा रहता तो ही अच्छा था। साधु महाराज हैं। वह बाल से यू डोंट लाइक ए पिकासो, दैट इज़ नाट माई फाल्ट-और अगर धोखा हुआ। वहां स्त्री थी नहीं। तुम पिकासो के चित्र पसंद नहीं करते, तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं | लेकिन उतनी देर उन्होंने स्त्री का सुख लिया था, जो वहां नहीं है। पिकासो ने ऐसे ही चित्र बनाए हैं। उसने कहा, मैं तो पिकासो | थी। वह सुख उनके अपने भीतर था। और अगर वहीं बैठे-बैठे चले जैसा-नोबल प्राइज पुरस्कृत व्यक्ति-और अगर तुम उसके चित्र जाते, तो शायद कविताएं लिखते। क्या करते, क्या न करते। शायद में सौंदर्य नहीं देख सकते, तो मेरा कोई कसूर नहीं है। यह स्त्री उसी जिंदगीभर याद रखते वह अनुपात शरीर का, वह झुकाव, वे गोल का प्रतीक है। यह आधुनिक बोध है। यह तुम कहां का दकियानूसी | | बांहें, वे बाल, वह गोरा शरीर, वह जिंदगीभर उन्हें सताता। संयोग खयाल रखे हुए हो! कालिदास पढ़ते हो? क्या करते हो? | से बच गए। देख लिया। छुटकारा हुआ। लेकिन दोनों भाव भीतर
आदमी के भीतर वह जो चैतन्य है, वह भाव निर्मित करता है। | थे। साधु महाराज को कुछ पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है भोक्ता, फिर भाव से भोगता है।
उनके आस-पास। वे दोनों उनके अपने ही भीतर उठे थे। ध्यान रहे, अगर आप भाव से भोगते हैं, तो भाव से दुख भी | सांख्य की धारणा है, वही कृष्ण कह रहे हैं, कि तुम जो भी भोग पाएंगे, सुख भी पाएंगे, दोनों पाएंगे। और मजा यह है कि फूल | रहे हो, वह तुम्हारे भीतर उठ रहा है। बाहर प्रकृति निष्पक्ष है। उसे बाहर है। न सुंदर है, न कुरूप है। और यह भाव आपका है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है। तुम चाहे सुख पाओ, तुम चाहे दुख
तो कृष्ण कहते हैं कि सब कार्य-कारण उत्पन्न करने में प्रकृति है। पाओ, तुम ही जिम्मेवार हो। हेतु और पुरुष सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु __ और अगर यह बात खयाल में आ जाए कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कहा जाता है।
| तो मुक्त होना कठिन नहीं है। तो फिर ठीक है, जब मैं ही जिम्मेवार सुख-दुख तुम पैदा करते हो, वह प्रकृति पैदा नहीं करती। प्रकृति हूं, और प्रकृति न तो सुख पैदा करती है और न दुख, मैं ही आरोपित निष्पक्ष है। कहना चाहिए, प्रकृति को पता ही नहीं है कि तुम नाहक | करता हूं। सुख और दुख मेरा आरोपण है प्रकृति के ऊपर; सुख सुख-दुख भोग रहे हो।
और दुख मेरे सपने हैं, जिन्हें मैं फैलाता हूं, और फैलाकर फिर एक फूल को पता चलता होगा कि तुम बड़े आनंदित हो रहे हो | | भोगता हूं। अपने ही हाथ से फैलाता हूं और खुद ही फंसता हूं और कि तुम बड़े दुखी हो रहे हो? फूल को कुछ पता नहीं चलता। फूल | भोगता हूं। अगर यह बात खयाल में आनी शुरू हो जाए, तो बड़ी को कुछ लेना-देना नहीं है। फूल अपने तईं खिल रहा है। तुम्हारे | अदभुत क्रांति घट सकती है। लिए खिल भी नहीं रहा है। तुमसे कोई संबंध ही नहीं है। तुम | जब आपके भीतर सुख का भाव उठने लगे, तब जरा चौंककर असंगत हो। लेकिन तुम एक भाव पैदा कर रहे हो। उस भाव से | | खड़े हो जाना और देखना कि प्रकृति कुछ भी नहीं कर रही है, मैं तुम डांवाडोल हो रहे हो। वह भाव तुम्हारे भीतर है।
ही कुछ भाव पैदा कर रहा हूं। आपके चौंकते ही भाव गिर जाएगा। मेरे एक मित्र हैं। बैठे थे एक दिन गंगा के किनारे मेरे साथ। आपके होश में आते ही भाव गिर जाएगा। प्रकृति वहां रह जाएगी,
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गीता दर्शन भाग-6
सुख-दुखरहित; पुरुष भीतर रह जाएगा, सुख - दुखरहित । पुरुष जब प्रकृति की तरफ दौड़ता है और आरोपित होता है, तो सुख-दुख पैदा होते हैं। और जो उस सुख-दुख में पड़ा है, वह द्वंद्व और अज्ञान में है।
सुख-दुख के बाहर है आनंद । आनंद है पुरुष का स्वभाव; सुख-दुख है आरोपण प्रकृति पर । सुख-दुख है, पुरुष अपने को देख रहा है प्रकृति में ; प्रकृति का उपयोग कर रहा है दर्पण की तरह । अपनी ही छाया को देखकर सुखी या दुखी होता है। कभी-कभी आप भी अपने बाथरूम में अपने आईने में देखकर सुखी-दुखी होते हैं। कोई भी वहां नहीं होता । आईना ही होता है। अपनी ही शक्ल होती है। उसको ही देखकर कभी बड़े सुखी भी होते हैं, गुनगुनाने लगते हैं गीत । जिनके पास गले जैसी कोई चीज नहीं है, वे भी बाथरूम में गुनगुनाने से नहीं बच पाते। अगर कोई ऐसा आदमी मिल जाए, जो बाथरूम में नहीं गुनगुनाता, तो समझना कि योगी है।
बाथरूम में तो लोग गुनगुनाते ही हैं। वे किसको देखकर गुनगुनाने लगते हैं? कौन-सी छवि उनको ऐसा आनंद देने लगती है? अपनी ही। अपने ही साथ मौज लेने लगते हैं।
करीब-करीब प्रकृति के साथ हम जो भी खेल खेल रहे हैं, वह दर्पण के साथ खेला गया खेल है। फिर कभी दुखी होते हैं, कभी सुखी होते हैं, और वह सब हमारा ही खेल है, हमारा ही नाटक है।
इसे थोड़ा बोध में लेना शुरू करें। घटनाएं प्रकृति में घटती हैं, भावनाएं भीतर घटती हैं। और भावनाओं के कारण हम परेशान हैं, घटनाओं के कारण नहीं | और बड़ा मजा यह है कि अगर हम कभी इस परेशानी से मुक्त भी होना चाहते हैं, तो हम घटनाएं छोड़कर भागते हैं, भावनाओं को नहीं छोड़ते।
एक आदमी दुखी है घर में, गृहस्थी में । वह संन्यास ले लेता है, हिमालय चला जाता है। मगर उसे पता ही नहीं है कि वह दुखी इसलिए नहीं था कि वहां पत्नी है, बच्चा है, दुकान है। उसके कारण कोई दुखी नहीं था। वे तो घटनाएं हैं प्रकृति में। दुखी तो वह अपनी भावनाओं के कारण था । भावनाएं तो साथ चली जाएंगी हिमालय भी। और वहां भी वह उनका आरोपण कर लेगा ।
मैंने सुना है, एक आदमी शांति की तलाश में चला गया जंगल। बड़ा परेशान था कि बाजार में बड़ा शोरगुल है, बड़ा उपद्रव है। जंगल में जाकर वृक्ष के नीचे खड़ा ही हुआ था कि एक कौए ने बीट कर दी। सिर पर बीट गिरी। उसने कहा कि सब व्यर्थ हो गया।
जंगल में भी शांति नहीं है!
जंगल में भी कौए तो बीट कर ही रहे हैं। और कौआ कोई आपकी खोपड़ी देखकर बीट नहीं कर रहा है। न बाजार में कोई आपकी खोपड़ी देखकर कुछ कर रहा है। कहीं कोई आपकी फिक्र नहीं कर रहा है। घटनाएं घट रही हैं। आप भावनाग्रस्त होकर घटनाओं को पकड़ लेते हैं और जकड़ जाते हैं।
और यह तो दूर कि असली घटनाएं पकड़ती हैं, लोग सिनेमा में बैठकर रोते रहते हैं। लोगों के रूमाल देखें सिनेमा के बाहर निकलकर, गीले हैं। आंसू पोंछ रहे हैं। वह तो सिनेमा में अंधेरा | रहता है, इससे बड़ी सुविधा है। सबकी नजर परदे पर रहती है, तो पड़ोस में कोई नहीं देखता । और लोग झांक लेते हैं कि कोई नहीं देख रहा है, अपना आंसू पोंछ लेते हैं।
क्या हो रहा है परदे पर ? वहां तो कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां तो केवल धूप-छाया का खेल है। और आप इतने परेशान हो रहे हैं ! आप धूप-छाया के खेल से भी परेशान हो रहे हैं ! अगर कोई एक | डाकू किसी का पीछा कर रहा है पहाड़ की कगार पर, तो आप तक की श्वास रुक जाती है। आप सम्हलकर बैठ जाते हैं। रीढ़ ऊंची हो जाती है। श्वास रुक जाती है। जैसे कोई आपका पीछा कर रहा है या आप किसी का पीछा कर रहे हैं। और आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आप सिर्फ कुर्सी पर बैठे हुए हैं। थोड़ी देर में प्रकाश हो जाएगा।
सांख्य शास्त्र ने इसको उदाहरण की तरह लिया है कि जैसे कोई नर्तकी नाचती हो, तो उसके नाच में जो आप रस ले रहे हैं, वह आपके भीतर है। और आपके भीतर रस है, इसलिए नर्तकी नाच रही है, क्योंकि उसको लोभ है कि आपको रस होगा, तो आप कुछ देंगे। अगर आपके भीतर रस चला जाए, नर्तकी नाच बंद कर देगी और चली जाएगी।
सांख्य शास्त्र कहता है कि जिस दिन पुरुष रस लेना बंद कर देता है, प्रकृति उसके लिए समाप्त हो जाती है। प्रकृति हट जाती है परदे से। उसकी कोई जरूरत न रही।
सुख और दुख मेरे प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन हैं। मैंने उन्हें आरोपित किया है निष्कलुष प्रकृति पर । प्रकृति का कुछ भी दोष नहीं है । प्रकृति में तो घटनाएं घटती रहती हैं। वे घटती रहेंगी, मैं नहीं रहूंगा तब भी । और मैं नहीं था तब भी। वे घटती ही रहती हैं। उनसे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मैं, यह जो पुरुष है भीतर... ।
इस पुरुष शब्द को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यह भी | वैसा ही अदभुत शब्द है, जैसा प्रकृति । ये दोनों शब्द सांख्यों के हैं।
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पुरुष-प्रकृति-लीला
और सांख्य की पकड़ बड़ी वैज्ञानिक है।
प्रकृति का अर्थ है, जो कृति के पूर्व है । और पुरुष का अर्थ | है - वह उसी से बना है, जिससे पुर बनता है; नागपुर या कानपुर में जो पुर लगा है, पुरुष उसी शब्द से बना है - पुरुष का अर्थ है, जिसके चारों तरफ नगर बसा है और जो बीच में है। पुर के बीच में जो है, वह पुरुष
तो सारी प्रकृति पर है और उसके बीच में जो बसा है, जो निवासी है, वह पुरुष है। सारी घटनाएं नगर में घट रही हैं। और वह बीच में जो बसा है, अगर होशपूर्वक रहे, तो उसे कुछ भी न छुएगा, स्पर्श भी न करेगा। वह कुंवारा ही आएगा और कुंवारा ही चला जाएगा। वह कुंवारा ही है। जब आप उलझ जाते हैं, तब भी वह कुंवारा है; क्योंकि उसे कुछ छू नहीं सकता। निर्दोषता उसका स्वभाव है।
इसलिए कोई पाप पुरुष को छूता नहीं; सिर्फ आपकी भ्रांति है कि छूता है । कोई पुण्य पुरुष को छूता नहीं; सिर्फ भ्रांति है कि छूता है । कोई सुख-दुख नहीं छूता । पुरुष स्वभावतः निर्दोष है।
लेकिन यह जिस दिन होश आएगा, उसी दिन आप सजग होकर जाग जाएंगे और पाएंगे कि टूट गया वह तारतम्य सुख-दुख का । आप भीतर रहते बाहर हो गए। आप पुरुष हो गए; पुर के बीच पुर से अलग हो गए।
प्रकृति और पुरुष की इस दृष्टि को सिर्फ सिद्धांत की तरह, सिद्धांत की भांति समझने से कोई सार नहीं है। इसे थोड़ा जिंदगी में पहचानना। कहां प्रकृति और कहां पुरुष, इसका बोध रखना। और जब प्रकृति में पुरुष आरोपित होने लगे, तो चौंककर खड़े हो जाना और आरोपित मत होने देना ।
थोड़ी-थोड़ी कठिनाई होगी; शुरू-शुरू में अड़चन पड़ेगी। पुरानी आदत हैं। जन्मों-जन्मों की आदत है। पता ही नहीं चलता और आरोपण हो जाता है। फूल देखा नहीं और पहले ही कह देते हैं, सुंदर है; बड़ा आनंद आया। अभी ठीक से देखा भी नहीं था । अभी ठीक से पहचाना भी नहीं था कि सुंदर है या नहीं। कह दिया। रुकें थोड़ा। और पुरुष को आरोपित न होने दें। आरोपण है बंधन और आरोपण से मुक्त हो जाना है मुक्ति ।
पांच मिनट कोई उठे नहीं। कीर्तन में सम्मिलित हों, और फिर
जाएं।
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अध्याय 13 आठवां प्रवचन
गीता में समस्त मार्ग हैं
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0 गीता दर्शन भाग-6600
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । सभी की बात कर रहे हैं। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। २१ ।। इस बात के करने का फायदा है। इन सारे मार्गों को अर्जुन समझ
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । ले, तो उसे खयाल में आना कठिन न रह जाएगा कि कौन-सा मार्ग परमात्मेति चायुक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।। २२ ।। उसके सर्वाधिक अनुकूल है। और जिसे आप नहीं जानते, उससे य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृति च गुणैः सह ।
खतरा है; और जिसे आप जान लेते हैं, उससे खतरा समाप्त हो सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ।। २३ ।। जाता है। परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए सभी रास्तों के संबंध में जान लेने के बाद जो निर्णय होगा, वह त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है। और इन गुणों का ज्यादा सम्यक होगा। इसलिए कृष्ण सभी रास्तों की बात कर रहे हैं। संग ही इसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है। | इस अर्थ में, कृष्ण का वक्तव्य, उनका उपदेश बुद्ध, महावीर, वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है, | मोहम्मद और जीसस के वक्तव्य से बहुत भिन्न है। केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला जीसस एक ही मार्ग की बात कर रहे हैं। महावीर एक ही मार्ग होने से अनुमंता एवं सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, | की बात कर रहे हैं। बुद्ध एक ही मार्ग की बात कर रहे हैं। कृष्ण जीवलप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से | सभी मार्गों की बात कर रहे हैं। और यह सभी मार्गों की बात जान महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा, | लेने के बाद जब कोई चुनाव करता है, तो चुनाव ज्यादा सार्थक, ऐसा कहा गया है।
ज्यादा अभिप्रायपूर्ण होगा। और उस मार्ग पर सफलता भी ज्यादा इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो आसान होगी। मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी बहुत बार तो कोई मार्ग शुरू में आकर्षक मालूम होता है, लेकिन फिर नहीं जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है। | पूरे मार्ग के संबंध में जान लेने पर उसका आकर्षण खो जाता है।
बहुत बार कोई मार्ग शुरू में बहुत कंटकाकीर्ण और कठिन मालूम
| पड़ता है, लेकिन मार्ग के संबंध में पूरी बात समझ लेने पर सुगम पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पछा है कि पुरी गीता हो जाता है। अर्जुन को उसका स्वधर्म और मार्ग समझाने के लिए ___ इसलिए कृष्ण सारी बात खोलकर रखे दे रहे हैं। अर्जुन के कही गई मालूम होती है। क्या कृष्ण और अर्जुन के माध्यम से जैसे वे पूरी मनुष्यता से ही बात कह रहे हैं। बीच गुरु-शिष्य का संबंध है? यदि हां, तो श्रीकृष्ण मनुष्य जिस-जिस मार्ग से परमात्मा तक पहुंच सकता है, वे अर्जुन से उन अनेक मार्गों की अनावश्यक बातें क्यों | सभी मार्ग अर्जुन के सामने कृष्ण खोलकर रख रहे हैं। इन सभी करते हैं, जिन पर अर्जुन को चलना ही नहीं है? | मार्गों पर अर्जुन चलेगा नहीं। चलने की कोई जरूरत भी नहीं है।
लेकिन सभी को जानकर जो मार्ग वह चुनेगा, वह मार्ग उसके लिए
| सर्वाधिक अनुकूल होगा। - स संबंध में पहली तो यह बात जान लेनी जरूरी है कि | | दूसरी बात, कृष्ण और अर्जुन के बीच जो संबंध है, वह गुरु र जिन मार्गों पर आपको नहीं चलना है, उन पर भी | | और शिष्य का नहीं, दो मित्रों का है। दो मित्रों का संबंध और
चलने का झुकाव आपके भीतर हो सकता है। और वह गुरु-शिष्य के संबंध में बड़े फर्क हैं। और इसीलिए कृष्ण गुरु की झुकाव खतरनाक है। और वह झुकाव आपके जीवन, आपकी | | भाषा में नहीं बोल रहे हैं, एक मित्र की भाषा में बोल रहे हैं। वे सभी शक्ति को, अवसर को खराब कर सकता है।
बातें अर्जुन को कह रहे हैं, जैसे वे अर्जुन को परसुएड कर रहे हैं, तो कृष्ण उन सभी मार्गों की बात कर रहे हैं अर्जुन से, जिन पर | फुसला रहे हैं, राजी कर रहे हैं। उसमें आदेश नहीं है, उसमें आज्ञा चलने के लिए किसी भी मनुष्य के मन में झुकाव हो सकता है। | नहीं है। एक मित्र एक दूसरे मित्र को राजी कर रहा है, समझा रहा मनुष्य मात्र जिन मार्गों पर चलने के लिए उत्सुक हो सकता है, उन है। उसमें कृष्ण ऊपर खड़े होकर अर्जुन को आज्ञा नहीं दे रहे हैं;
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गीता में समस्त मार्ग हैं
साथ खड़े होकर अर्जुन से चर्चा कर रहे हैं। यह दो गहरे मित्रों के बीच संवाद है।
निश्चित ही, कृष्ण गुरु हैं और अर्जुन शिष्य है, लेकिन उनके बीच संबंध दो मित्रों का है। इस मित्रता के संबंध के कारण गीता में जो वार्तालाप है, जो डायलाग है, वह न कुरान में है, न बाइबिल में है; वह न धम्मपद में है, न जेन्द अवेस्ता में है।
डायलाग, वार्तालाप, दो मित्र निकट से बातें कर रहे हैं। न अर्जुन को भयभीत होने की जरूरत है कि वह गुरु से बोल रहा है, गुरु को जल्दी है कि वह मार्ग पर लगा दे अर्जुन को। दो मित्रों की चर्चा है। इस मित्रता की चर्चा से जो नवनीत निकलेगा, उसका बड़ा मूल्य है।
गहरे में तो अर्जुन शिष्य है, उसे इसका कोई पता नहीं। वह पूछ रहा है, प्रश्न कर रहा है, जिज्ञासा कर रहा है, वे शिष्य के लक्षण हैं। लेकिन वे लक्षण अचेतन हैं।
अर्जुन ऐसे ही पूछ रहा है, जैसे एक मित्र से मुसीबत में सलाह ले रहा है। उसे पता नहीं है कि वह शिष्य होने के रास्ते पर चल पड़ा। सच तो यह है कि जो उसने पूछा था, उसने कभी सोचा भी न होगा कि उसके परिणाम में जो कृष्ण ने कहा, वह कहा जाएगा।
अर्जुन ने तो इतना ही पूछा था कि मेरे प्रियजन हैं, संबंधी हैं, मित्र हैं, नाते-रिश्तेदार हैं, सभी मेरे परिवार के लोग हैं, इस तरफ भी, उस तरफ भी। हम सब बंटकर खड़े हैं, एक बड़ा कुटुंब । उस तरफ मेरे गुरु हैं, पूज्य भीष्म हैं। यह सब संघर्ष पारिवारिक है; यह हत्या अकारण मालूम पड़ती है। ऐसे राज्य को पाकर भी मैं क्या करूंगा, जिसमें मेरे सभी संबंधी और मित्र नष्ट हो जाएं? तो ऐसा राज्य तो त्याग देने योग्य लगता है।
अर्जुन के मन में एक वैराग्य का उदय हुआ है। वह उदय भी मोह कारण ही हुआ है। अगर वह वैराग्य मोह के कारण न होता, तो कृष्ण को गीता कहने की कोई जरूरत न होती; अर्जुन विरागी हो गया होता। जो वैराग्य मोह के कारण पैदा होता है, वह वैराग्य है ही नहीं। वह केवल वैराग्य की भाषा बोल रहा है। इस दुविधा के कारण गीता का जन्म हुआ।
अर्जुन कहता तो यह है कि मेरे मन में वैराग्य आ रहा है; यह सब छोड़ दूं; यह सब असार है। लेकिन कारण जो बता रहा है, कारण यह कि मेरे प्रियजन, मेरे मित्र, मेरे संबंधी, मेरे गुरु, ये सब रेंगे, कटेंगे। वैराग्य का जो कारण है, वह मोह है।
यह असंभव है। कोई भी वैराग्य मोह से पैदा नहीं हो सकता ।
वैराग्य तो पैदा होता है मोह की मुक्ति से । अर्जुन की यह जो कठिनाई है, इस दुविधा के कारण पूरी गीता का जन्म हुआ।
अर्जुन को यह पता भी नहीं है कि उसका जो वैराग्य है, वह झूठा है। उसकी जड़ में मोह है। और जहां मोह की जड़ हो, वहां वैराग्य के फूल नहीं लग सकते। मोह की जड़ में कैसे वैराग्य के फूल लग सकते हैं? अर्जुन परेशान तो मोह से है।
समझें, अगर उसके रिश्तेदार न कटते होते, कोई और कट रहा | होता, तो अर्जुन बिलकुल फिक्र न करता। वह घास-पत्तियों की तरह तलवार से काट देता। इसके पहले भी उसने बहुत बार लोगों को काटा है, लड़ा है, झगड़ा है, लेकिन कभी उसके मन में वैराग्य नहीं उठा। क्योंकि जिनको काट रहा था, उनसे कोई संबंध न था । वह पुराना धनुर्धर है; शिकार उसे सहज है; युद्ध उसके लिए खेल है।
आज जो तकलीफ खड़ी हो रही है, वह तकलीफ लोग कट | जाएंगे, इससे नहीं हो रही है। अपने लोग कट जाएंगे ! वह अपनत्व, ममत्व के कारण तकलीफ हो रही है। देखता है अपने ही परिवार को दोनों तरफ बंटा हुआ; जिनके साथ बड़ा हुआ, मित्र की तरह खेला, जो अपने ही भाई हैं, अपने ही गुरु हैं, जिन्होंने सिखाया ! उस तरफ द्रोण खड़े हैं, जिनसे सारी कला सीखी। आज उन्हीं की हत्या करने को उन्हीं की कला का उपयोग करना पड़ेगा। आज उनको ही काटना होगा, जिनके चरणों पर कल सिर रखा था। | इससे अड़चन आ रही है। अगर इनकी जगह कोई भी होते अब स, अर्जुन ऐसे काट देता, जैसे घास काट रहा है।
उसे कोई अहिंसा का भाव पैदा नहीं हो रहा है; वह किसी वैराग्य को उपलब्ध नहीं हो रहा है; सिर्फ मोह दुख दे रहा है। अपनों को | ही काटना कष्ट दे रहा है। इसलिए गीता का जन्म हुआ। अर्जुन का | वैराग्य वास्तविक नहीं है। अगर अर्जुन का वैराग्य वास्तविक हो, तो वह कृष्ण से पूछेगा भी नहीं ।
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यह भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। जब हमारे भीतर झूठी चीजें होती हैं, तो हम किसी से पूछते हैं।
एक युवक मेरे पास आया और वह कहने लगा कि मैं आपसे पूछने आया हूं, क्या मैं संन्यास ले लूं? मैंने उस युवक से कहा कि अगर मैं कहूं कि मत लो, तो तुम क्या करोगे? वह बोला कि मैं नहीं लूंगा। तो मैंने कहा कि जो संन्यास किसी के पूछने पर निर्भर करता हो— कि कोई कह दे कि ले लो, कोई कह दे कि न ले लो, और तुम उसकी मान लोगे - वह संन्यास तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में उठ नहीं रहा है।
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गीता दर्शन भाग-6
बुद्ध किसी से पूछने नहीं जाते हैं। महावीर किसी से पूछने नहीं जाते हैं। जीसस किसी से पूछने नहीं जाते हैं कि मैं ऐसा कर लूं? यह वैराग्य का उदय हो रहा है, तो अब मैं क्या करूं?
अर्जुन पूछता है। अर्जुन के भीतर कोई वैराग्य नहीं है, सिर्फ मोह-ममता है। उसका वैराग्य झूठा है। नहीं तो वह कृष्ण से कहता कि मैं जाता हूं, बात खतम हो गई। मुझे दिखाई पड़ गया कि यह व्यर्थ है और असार है। फिर कृष्ण भी न समझाने की कोशिश करते, न समझाने का कोई अर्थ था ।
अर्जुन दुविधा में है, कहें कि स्किजोफ्रेनिक है, बंटा हुआ है। आधा मन तो लड़ने के लिए आतुर है; धन के लिए आतुर है; राज्य के लिए आतुर है । वह भी मोह है। और आधा मन इस हत्या से भी भयभीत हो रहा है अपनों को ही मारने की। वह भी मोह है। और इन दोनों से मिलकर वैराग्य की वह बातें कर रहा है, जो कि बिलकुल झूठी हैं, क्योंकि इन दोनों वैराग्य का कोई भी संबंध नहीं है। इसे थोड़ा आप ठीक से समझ लेना । बहुत बार आप भी वैराग्य की बातें करते हैं। लेकिन ध्यान रखना कि आपका वैराग्य मोह से पैदा नहीं हो रहा है।
किसी आदमी की पत्नी मर जाती है और वह विरागी हो जाता है। और कल तक उसको वैराग्य का कोई खयाल नहीं था। किसी आदमी का दिवाला निकल जाता है और वह संन्यास के लिए उत्सुक हो जाता है। कल तक उसे संन्यास का क्षणभर भी खयाल नहीं था।
अब दिवाले से निकलने वाले संन्यास की कितनी कीमत हो सकती है, थोड़ा समझ लेना । और पत्नी के मरने से जो वैराग्य निकलता है, वह किस मूल्य का होगा ? जुए में हार जाने से कोई संन्यासी हो जाएगा, उस संन्यास में गंध तो जुए की ही होगी। वह संन्यास जुए का ही रूप होगा, क्योंकि बीज में तो जुआ था । अगर यही आदमी जुए में जीत गया होता, तो? यह पत्नी न मरी होती, तो? यह दिवाला न निकला होता, तो? तो इस आदमी का वैराग्य से कोई लेना-देना न था ।
तो जब आपके मन में ऐसा कोई वैराग्य उठता हो, जिसकी जड़ मोह हो, तो आप समझना कि यह वैराग्य झूठा है और इस वैराग्य के आधार पर आप परमात्मा तक नहीं पहुंच सकेंगे।
पर अर्जुन को पता नहीं है कि वह क्या पूछ रहा है। ध्यान रहे, जब आप किसी गुरु से पूछते हैं कुछ तो जरूरी नहीं है कि जो आप पूछते हैं, वही आपकी मौलिक जिज्ञासा हो। आपका प्रश्न तो बहुत ऊपरी होता है। क्योंकि भीतरी प्रश्न भी खोजना अति
कठिन है। लेकिन गुरु आपके ऊपरी प्रश्न से आपके भीतरी प्रश्नों को उठाना शुरू करता है। वह तो सिर्फ उसको एक खूंटी बना लेता है; और फिर आपके भीतर प्रवेश करने लगता है; और जो छिपा है, उसे बाहर लाने लगता है।
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अर्जुन ने कुछ पूछा है, कृष्ण कुछ कह रहे हैं। और अर्जुन धीरे-धीरे उत्सुक हो गया उनकी बात सुनने में। वह भूल ही गया युद्ध, अपने- जन, वैराग्य, वह बात भूल गया । वह कुछ और ही बातें पूछने लगा । कृष्ण ने उस मौके का बहाना, लाभ उठाकर, अर्जुन के मन को खोल दिया उसकी भीतर की सारी संभावनाओं के प्रति ।
अर्जुन अनजाना शिष्य है । जान में तो वह मित्र है। कृष्ण जानकर गुरु हैं | और अर्जुन के प्रति मित्रता का जो भाव है, वह केवल . अर्जुन की मित्रता के उत्तर में है।
अर्जुन अनजाना शिष्य है और कृष्ण जानकर गुरु हैं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि अगर वे गुरु की भाषा में बोलें, तो अर्जुन को पीड़ा होगी, उसके अहंकार को चोट लगेगी। वह तो मित्र ही मानकर जीया है। अगर मित्र न माना होता, तो उनको सारथी बनने के लिए राजी भी नहीं करता। बात ही बेहूदी है कि उनसे कहता कि तुम मेरे घोड़ों को सम्हालो और मेरे रथ के सारथी हो जाओ! वे बचपन के साथी हैं, दोस्त हैं। गहरी उनकी मित्रता है।
अर्जुन के मन को चोट न पहुंचे, इसलिए कृष्ण बात करते हैं मित्र की भाषा में ही । और धीरे-धीरे उस मित्र की भाषा में ही गुरु का संदेश भी डालते जाते हैं। और जैसे-जैसे अर्जुन राजी होता जाता है, वैसे-वैसे वे गुरु होते जाते हैं। जैसे ही अर्जुन बंद होता है और | डरता है, वैसे ही वे मित्र हो जाते हैं। जैसे ही अर्जुन राजी होता है, खुलता है, ग्राहक होता है, वे बहुत ऊंचाई पर उठ जाते हैं। उस ऊंचाई पर जहां कि वे परमात्मा हैं; वहां से बोलने लगते हैं
इसलिए कृष्ण के इन वचनों में कई तलों के वचन हैं। कभी वे ठीक मित्र की तरह बोल रहे हैं। कभी वे गुरु की तरह बोल रहे हैं। कभी वे ठीक परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। आखिरी ऊंचाई से लेकर साधारण जीवन के तल तक कृष्ण बोल रहे हैं। इसलिए गीता बहुत तलों पर है | और अर्जुन पर निर्भर है; अर्जुन जब जिस ऊंचाई पर उठ सकता है, उस ऊंचाई की वे बात करते हैं।
सभी मार्गों की उन्होंने अर्जुन के सामने बात रख दी है, ता अर्जुन सहज ही चुनाव कर ले | और अर्जुन यह नहीं पूछ रहा है कि आप मुझे मार्ग दे दो। तो कृष्ण एक ही मार्ग दे सकते थे । अर्जुन तलाश में है। अभी उसे यह भी पक्का पता नहीं है कि वह क्या
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ॐ गीता में समस्त मार्ग हैं -
खोज रहा है। अभी उसे यह भी मालूम नहीं है कि वह क्या चाहता ये कोई तुलनात्मक वक्तव्य नहीं हैं। यह उस क्षण में आपकी है। तो कृष्ण सारे मार्ग खोलकर रखे दे रहे हैं। शायद इन मार्गों के | | भाव-दशा को पूरा पकड़ लिया फूल ने और फूल इस जगत का संबंध में बात करते-करते ही कोई मार्ग अर्जुन के लिए आकृष्ट कर | | सर्वाधिक श्रेष्ठतम सौंदर्य हो गया। और दूसरे क्षण में इसी भांति ले. चंबक बन जाए और अर्जन खिंच जाए।
चांद ने पकड़ लिया। और तीसरे क्षण में सागर ने पकड़ लिया। और फिर इस बहाने, अर्जुन के बहाने, पूरी मनुष्यता के लिए | | ये तीनों बातों में कोई विरोध नहीं है और कोई तुलना नहीं है। ये यह संदेश हो जाता है। क्योंकि ऐसा कोई भी मार्ग नहीं है, जिस पर | | सिर्फ इस बात की खबर देते हैं कि एक ऐसी भी भाव-दशा है, जब कृष्ण ने गीता में मूल बात न कर ली हो। तो सभी मार्गों के लोग | फूल से जीवन का श्रेष्ठतम अनुभव होता है। उसी भाव-दशा में अपने योग्य बात गीता में पा सकते हैं।
| कभी चांद-तारों से भी जीवन के श्रेष्ठतम सौंदर्य की प्रतीति हो जाती इसका फायदा भी है, इसका नुकसान भी है। इसका फायदा कम | | है। और कभी उसी भाव-दशा का रस, संगीत, सागर की लहरों से हुआ, नुकसान ज्यादा हुआ। क्योंकि आदमी कुछ ऐसा है कि | | भी बंध जाता है। फायदा लेना जानता ही नहीं, सिर्फ नुकसान लेना ही जानता है। कबीर एक ढंग से उसी शिखर पर पहुंच जाते हैं। बुद्ध दूसरे ढंग कृष्ण ने सारे मार्ग गीता में कह दिए हैं। और जब वे एक मार्ग | |
| से उसी शिखर पर पहुंच जाते हैं। महावीर तीसरे ढंग से उसी शिखर के संबंध में बोलते हैं, तो बाकी के संबंध में भूल जाते हैं। और उस | पर पहुंच जाते हैं। वह शिखर एक है। वह भाव-दशा एक है। मार्ग को उसकी पूरी ऊंचाई पर उठा देते हैं। इसलिए उन्होंने सभी कृष्ण इस तरह बात कर रहे हैं कि उसमें कोई तुलना नहीं है। मार्गों की प्रशंसा की है। कभी उन्होंने भक्ति को कहा श्रेष्ठ; कभी । | एक-दूसरे को नीचा दिखाने का भाव नहीं है। उन्होंने ज्ञान को कहा श्रेष्ठ; कभी उन्होंने कर्म को कहा श्रेष्ठ।
अंब यह बड़ी उलझन वाली बात है। क्योंकि अगर भक्ति श्रेष्ठ है, तो साधारण बुद्धि का आदमी कहेगा, फिर कर्म को श्रेष्ठ नहीं | | एक मित्र ने मुझसे प्रश्न पूछा है कि जब आप कृष्ण कहना चाहिए; फिर ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं कहना चाहिए। और अगर | पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे कृष्ण ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर भक्ति को श्रेष्ठ नहीं कहना चाहिए। और श्रेष्ठतम हैं। और जब आप लाओत्से पर बोलते हैं, कृष्ण इसकी फिक्र ही नहीं करते। वे जिस मार्ग की बात करते हैं, तो ऐसा लगता है, लाओत्से का कोई मुकाबला नहीं। उसको उसकी श्रेष्ठता तक पहुंचा देते हैं। उसकी ऊंचाई, उसकी| जब आप महावीर पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है आखिरी गरिमा, उसका आखिरी गौरीशंकर का शिखर खोल देते | कि बाकी सब फीके हैं, महावीर ही सब कुछ हैं। हैं। और जब दूसरे मार्ग की बात करते हैं, तो उसका गौरीशंकर खोलते हैं। तब वे भूल ही जाते हैं कि एक क्षण पहले उन्होंने ज्ञान को श्रेष्ठ कहा था, अब वे भक्ति को श्रेष्ठ कह रहे हैं।
व ह बिलकुल आपको ठीक लगता है। लेकिन उस यह इस कारण, यह किया तो कृष्ण ने इसलिए ताकि अर्जुन को | लगने का आप साफ मतलब समझ लेना, नहीं तो प्रत्येक मार्ग का जो श्रेष्ठतम है, प्रत्येक मार्ग में जो गहनतम गहराई नुकसान होगा; आप कनफ्यूजन में पड़ेंगे। है, उसका उसे खयाल दिला दें; फिर चुनाव उसके हाथ में है। जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तो लाओत्से के अतिरिक्त मेरे
यह वक्तव्य कि ज्ञान श्रेष्ठ है, यह वक्तव्य कि भक्ति श्रेष्ठ है, | लिए कोई भी नहीं है। तो जब मैं कहता हूं कि लाओत्से अद्वितीय तुलनात्मक नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे आपने गुलाब का फूल देखा | है, तो उसका यह मतलब नहीं है कि वह महावीर से श्रेष्ठ है या
और आपने कहा कि अदभुत! इससे सुंदर मैंने कुछ भी नहीं देखा। | बुद्ध से श्रेष्ठ है। उसका कुल मतलब यह है कि वह अपने आप में फिर आपने रात आकाश में तारे देखे और आपने कहा, अदभुत! | एक गौरीशंकर है। उसकी कोई तुलना नहीं। और न ही महावीर की इससे सुंदर मैंने कुछ भी नहीं देखा। और फिर एक दिन सुबह आपने कोई तुलना है, और न बुद्ध की, और न कृष्ण की। लेकिन आम सागर का गर्जन सुना और सागर की लहरें चट्टानों से टकराती देखीं | | आदमी तुलना करता है, कंपेरिजन करता है, और उससे तकलीफ और आपने कहा, इससे सुंदर मैंने कभी कुछ नहीं देखा। में पड़ता है।
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0 गीता दर्शन भाग-60
गीता के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। शंकर एक व्याख्या लिखते तिलक ने पांचवीं की, गांधी ने की, विनोबा ने की; हैं। वह व्याख्या भी अन्यायपूर्ण है, क्योंकि शंकर ज्ञान को श्रेष्ठतम | कोई एक हजार व्याख्याकार गीता के हुए जाने-माने, मानते हैं। वह उनकी मान्यता है। उस मान्यता में कोई भूल नहीं है। गैर जाने-माने तो और भी बहुत हैं। मुझसे पूछा है कि ज्ञान श्रेष्ठ है। किसी और से श्रेष्ठ नहीं है तुलनात्मक अर्थों में, | आप जो व्याख्या कर रहे हैं, इसमें और उनकी व्याख्या अपने आप में श्रेष्ठ है। दूसरे से कोई संबंध नहीं है। शंकर की में क्या फर्क है? मान्यता है कि ज्ञान श्रेष्ठ है। यह मान्यता बिलकुल ठीक है और सही है। फिर वे इसी मान्यता को पूरी गीता पर थोप देते हैं।
तो कुछ तो वचन ठीक हैं, जिन में कृष्ण ज्ञान को श्रेष्ठ कहते हैं। द समें बहुत फर्क है। मेरा कोई संप्रदाय नहीं है। मुझे गीता वहां तो शंकर को कोई तकलीफ नहीं है। लेकिन जहां कृष्ण भक्ति । २ पर कुछ भी आरोपित नहीं करना है। न मुझे आरोपित को श्रेष्ठ कहते हैं और कर्म को श्रेष्ठ कहते हैं, वहां शंकर को
करना है ज्ञान, न मुझे आरोपित करनी है भक्ति, न मुझे अड़चन आती है। पर शंकर बहुत कुशल तार्किक हैं। वे रास्ता | आरोपित करना है कर्म। मुझे पूरी गीता पर कोई चीज आरोपित नहीं निकाल लेते हैं। वे शब्दों में से भूलभुलैया खड़ी कर लेते हैं। वे करनी है। पूरी गीता पर जो भी कुछ आरोपित करने की कोशिश शब्दों के नए अर्थ कर लेते हैं। वे शब्दों की ऐसी व्याख्या जमा देते करेगा, वह कृष्ण के साथ अन्याय कर रहा है। हैं कि परी गीता शंकर की व्याख्या में ज्ञान की गीता हो जाती है। ___ मुझे तो इंच-इंच गीता जो कहती है, उसको ही प्रकट कर देना वह अन्याय है।
| है, इसकी बिना फिक्र किए कि आगे-पीछे उसके विपरीत, उसके रामानुज भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं। बिलकुल ठीक है। कुछ | | विरोध में भी कुछ कहा गया है। मुझे कोई सिस्टम, कोई व्यवस्था गलती नहीं है। लेकिन वे भक्ति के सूत्रों के आधार पर सारी गीता | नहीं बिठानी है। लेकिन कनफ्यूजिंग होगी; मेरी बात में बड़ा भ्रम ... पर भक्ति को आरोपित कर देते हैं। वह अन्याय है।
| पैदा होगा। वह वैसा ही भ्रम होगा, जैसा कृष्ण की बात में है। तिलक कर्म को श्रेष्ठ मानते हैं, तो पूरी गीता पर कर्म को | | क्योंकि कभी मैं कहूंगा, ज्ञान श्रेष्ठ है। जब गीता ज्ञान को श्रेष्ठ आरोपित कर देते हैं। वह अन्याय है। अपने आप में बात बिलकुल कहेगी, तो मैं भी कहूंगा। और जब गीता भक्ति को श्रेष्ठ कहेगी, ठीक है।
| तो मैं भी कहूंगा। मैं गीता के साथ बहूंगा। मैं अपने साथ गीता को कर्म श्रेष्ठ है, किसी और से नहीं, श्रेष्ठ है इसलिए कि उससे भी नहीं बहाऊंगा। परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। भक्ति श्रेष्ठ है, किसी और से मेरी कोई धारणा नहीं है, जो मुझे गीता पर आरोपित करनी है। नहीं, श्रेष्ठ है इसलिए कि वह भी परमात्मा का द्वार है। ज्ञान श्रेष्ठ अगर मेरी कोई धारणा हो, जो गीता पर मुझे आरोपित करनी है, तो है, किसी और से नहीं; वह भी वहीं पहुंचा देता है, जहां भक्ति और | इसको मैं व्यभिचार मानता हूं। यह उचित नहीं है। कर्म पहुंचाते हैं।
और इसीलिए मुझे सुविधा है कि मैं गीता पर बोलूं, तो मुझे __ और जो व्यक्ति जिस मार्ग से चलता है, स्वभावतः उसे वह श्रेष्ठ | तकलीफ नहीं है। मैं कुरान पर बोलूं, तो मुझे तकलीफ नहीं है। मैं लगेगा। क्योंकि उससे वह चलता है, उससे वह पाता है, उससे उसे | बाइबिल पर बोलूं, तो मुझे तकलीफ नहीं है। क्योंकि मुझे किसी अनुभव होता है। और दूसरे मार्ग से जो चलता है, उसका उसे कोई चीज पर कुछ आरोपित नहीं करना है। भी पता नहीं है।
___मैं मानता है. बाइबिल अपने में इतना अदभत फल है कि मैं कृष्ण ने सभी मार्गों की बात कही है।
| उसको आपके सामने खोल सकू तो काफी; उसकी सुगंध आपको मिल जाए, बहुत है। उस पर कुछ थोपने की जरूरत नहीं है।
इसलिए जो लोग मेरे बहुत-से वक्तव्य पढ़ते हैं, उनको लगता एक मित्र ने मुझसे यह भी पूछा है कि शंकर ने एक है, उनमें मैं बड़ा कंट्राडिक्शन है। लगेगा, विरोध लगेगा। कभी मैं व्याख्या की, रामानुज ने दूसरी व्याख्या की, वल्लभ | | यह कहा हूं, और कभी मैं यह कहा हूं, और कभी मैं यह कहा हूं। ने तीसरी व्याख्या की, निम्बार्क ने चौथी व्याख्या की, | निश्चित ही, कभी मैं गुलाब की तारीफ कर रहा था। और कभी मैं
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O गीता में समस्त मार्ग हैं -
चांद-तारों की तारीफ कर रहा था। और कभी मैं सागर की लहरों पास से गुजरते-गुजरते कोई गुरु उसे पकड़ लेता है। लेकिन तब की तारीफ कर रहा था। उन तारीफों में फर्क होगा। क्योंकि गुलाब | | भी गुरु को ऐसी ही व्यवस्था करनी पड़ती है कि शिष्य को लगे कि गुलाब है। चांद-तारे चांद-तारे हैं। लहरें लहरें हैं। और जगत | | उसने ही चुना है। ये जरा जटिलताएं हैं। विराट है।
गुरु को ऐसा इंतजाम करना पड़ता है कि जैसे शिष्य ने ही उसे जो व्यक्ति इन सब के बीच तालमेल बिठालने की कोशिश चुना है। क्योंकि शिष्य के अहंकार को यह बात बरदाश्त के बाहर करेगा, वह मुश्किल में पड़ जाएगा, अड़चन में पड़ जाएगा। होगी कि गुरु ने उसे चुन लिया। वह भाग खड़ा होगा। यह पता चलते तालमेल बिठालने की जरूरत ही नहीं है। आपको इस सब में जो ही कि गुरु ने उसे चुना है, वह भाग जाएगा। तो गुरु उसे इस ढंग से ठीक लग जाए, उस पर चलने की जरूरत है। फिर बाकी बातों को व्यवस्था देगा कि उसे लगे कि उसने ही गुरु को चुना है। और अगर आप छोड़ दें। गीता ज्ञान को भी कहेगी, कर्म को भी कहेगी, भक्ति कभी किसी दिन गुरु को उसे अलग भी करना होगा, तो गुरु ऐसी ही को भी कहेगी। आप फिक्र छोड़ें कि तीनों में कौन श्रेष्ठ है। जो | | व्यवस्था देगा कि शिष्य समझेगा, मैंने ही गुरु को छोड़ दिया है। आपको श्रेष्ठ लग जाए, आप उस पर चल पड़ें।
गुरु का काम जटिल है, और गहन है, और गुह्य है। लेकिन लेकिन कुछ लोग हैं, जो चलते नहीं हैं, जो बैठकर इस चर्चा में | | हमेशा गुरु ही आपको चुनता है, क्योंकि उसके पास दृष्टि है। वह जीवन व्यतीत करते हैं कि क्या श्रेष्ठ है। ज्ञान श्रेष्ठ है ? भक्ति श्रेष्ठ | | जानता है। वह आपके भीतर झांक सकता है। वह आपका है? कर्म श्रेष्ठ है? पूरी जिंदगी लगा देते हैं। इनके मस्तिष्क विक्षिप्त | | आगा-पीछा देख सकता है। आप क्या कर सकते हैं, क्या हो सकते हैं। ये होश में नहीं हैं कि ये क्या कर रहे हैं।
हैं, इसकी उसके पास देखने की दूरी, क्षमता, निरीक्षण है। शिष्य अर्जुन के सामने कृष्ण ने सब मार्ग खोलकर रख दिए हैं। और कैसे खोजेगा? हर मार्ग को उन्होंने इस तरह से प्रस्तावित किया है, जैसा उस मार्ग मेरे पास लोग आते हैं। पश्चिम में बहुत दौड़ है; और पश्चिम से को मानने वाला प्रस्तावित करेगा, पूरी उसकी शुद्धता में। उस मार्ग युवक निकलते हैं गुरु की तलाश में; सारी जमीन को खोज डालते को प्रस्तावित करते समय वे उसी मार्ग के साथ एक हो गए हैं। । | हैं। कभी इस मुल्क में ऐसी दौड़ थी। वह खो गई। यह मुल्क बहुत
कृष्ण तो जानकर गुरु हैं। और बहुत बार ऐसा होता है कि आप | दिन पहले अध्यात्म की दिशा में मर चुका है। जब बुद्ध जिंदा थे, तब जानकर शिष्य नहीं होते। हो भी नहीं सकते। क्योंकि शिष्य को | | इस मुल्क में भी ऐसी दौड़ थी। लोग एक कोने से दूसरे कोने तक इतना भी होश कहां है कि वह क्या है, इसका पता लगा ले। । | घूमते थे गुरु की तलाश में, कि कोई चुंबक मिल जाए, जो खींच ले।
इजिप्त के पुराने शास्त्रों में कहा गया है कि शिष्य कभी गुरु को | | सारी दुनिया से हिंदुस्तान उस समय भी लोग आते थे। नहीं खोज सकता। शिष्य खोजे
व्य खोजेगा कैसे? उसके पास मापदंड कहां अब फिर पश्चिम में एक दौड़ शुरू हुई है। पश्चिम के युवक है? वह कैसे परखेगा कि यही है गुरु? और कैसे परखेगा कि यही | और युवतियां खोजते निकल रहे हैं, गुरु कहां है! गुरु मेरे लिए है? कैसे जानेगा कि यह आदमी ठीक है या गलत __ मेरे पास बहुत लोग आते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि तुम खोज न है? क्या है उसके पास मार्ग, दिशासूचक यंत्र जिससे पहचानेगा | पाओगे गुरु को, लेकिन खोज मत बंद करो। खोज जारी रखो, कि इस आदमी के पीछे चलकर मैं पहुंच जाऊंगा? शिष्य कैसे गुरु | ताकि तुम अवेलेबल, उपलब्ध रहो। घूमते रहो। कोई गुरु तुम्हें चुन को खोजेगा?
| लेगा। और तुम्हारी अगर इतनी ही तैयारी हुई कि तुम किसी गुरु से इजिप्त की पुरानी किताबें कहती हैं कि शिष्य कभी गुरु को नहीं चुने जाने के लिए राजी हो गए, और किसी गुरु की धारा में बहने खोजता। इसका यह मतलब नहीं है कि शिष्य को खोज छोड़कर | को राजी हो गए, इतनी तुम्हारी तैयारी रही, तो तुम्हारे जीवन में घर बैठ जाना चाहिए। खोजना तो उसे चाहिए, हालांकि वह खोज | रूपांतरण आसान है। न सकेगा। लेकिन खोजने के उपक्रम में गुरुओं के लिए उपलब्ध | ___ अर्जुन के सामने कृष्ण सारे मार्ग रखे दे रहे हैं। यह सिर्फ मार्ग हो जाएगा। कोई गुरु उसको खोज लेगा।
| रखना ही नहीं है; मार्ग समझा रहे हैं और यहां ऊपर से कृष्ण की हमेशा गुरु ही शिष्य को खोजता है। और गुरु खोजने नहीं| चेतना अर्जुन में झांककर भी देखती जा रही है। कौन-सा मार्ग उसे निकलता, शिष्य खोजने निकलता है। लेकिन अनेक गुरुओं के जमता है! कौन-से मार्ग में वह ज्यादा रस लेता है! कौन-से मार्ग
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गीता दर्शन भाग-60
में ज्यादा सवाल उठाता है! कौन-से मार्ग में उसके भीतर तरंगें उठने | | जो निकल रहा है कचरा-कूड़ा, उसमें से वह पकड़ ले कि इसकी लगती हैं! कौन-से मार्ग में वह समाधिस्थ होकर सुनने लगता है! | आत्मा की तरफ स्वास्थ्य का क्या मार्ग होगा। कौन-से मार्ग में ऊब जाता है, जम्हाई लेता है! कौन-से मार्ग से | लेकिन यह बड़ी लंबी बात है। इसमें कभी तीन साल लग जाते उसका तालमेल बैठता है; कौन-से मार्ग से कोई तालमेल नहीं | हैं और कभी तीस साल भी लग जाते हैं, पूरा मनोविश्लेषण होते बैठता! यह सब वे देखते जा रहे हैं। इस सारी चर्चा के साथ-साथ हुए। अगर इस तरह मनोविश्लेषण किया जाए, तो कितने लोगों का अर्जुन का निरीक्षण चल रहा है। एक अर्थ में यह अर्जुन का | | मनोविश्लेषण होगा? और तीस साल के बाद भी फ्रायड यह नहीं मनोविश्लेषण है।
| कह सकता कि मनोविश्लेषण सच में ही पूरा हो गया। क्योंकि यह फ्रायड ने इस सदी में मनोविश्लेषण की कला खोजी। निकलता ही जाता है। यह कचरा अंतहीन है।
यह थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी होगा। और जो लोग ___ यह आपकी खोपड़ी इतनी विस्तीर्ण है! इतनी छोटी नहीं है, मनसशास्त्र में उत्सुक हैं और जो लोग साधना के लिए जरा भी | | जितनी दिखाई पड़ती है। इसमें लाखों शब्द भरे हुए हैं; और लाखों जिज्ञासा रखते हैं, उनके बहुत काम का होगा।
तथ्य भरे हुए हैं। अगर इनको खोलते ही चले जाएं, तो वे खुलते. फ्रायड ने एक मार्ग खोजा। वह मार्ग बिलकुल उलटा है। जैसा ही चले जाते हैं। तो यह तो बहुत लंबा हो गया मार्ग। मार्ग गुरु हमेशा उपयोग करते रहे थे, उससे उलटा है। फ्रायड अपने और अब पश्चिम में भी मनोवैज्ञानिक कहने लगे हैं कि मरीज को लिटा देता है कोच पर, पीछे बैठ जाता है परदे की ओट | साइकोएनालिसिस से कुछ हल नहीं हो सकता। अगर एक पागल में। और मरीज से कहता है, जो भी तुझे कहना हो, कह। तू को ठीक करने में तीस साल लग जाएं या दस साल लगें, तो कितने बिलकुल फिक्र मत कर कि क्या कह रहा है। जो भी तेरे भीतर आता पागल तुम ठीक कर पाओगे? और यह पूरी जमीन पागल मालूम हो, उसको तू कहता जा। सहज एसोसिएशन से, जो भी तेरे भीतर होती है। यहां कौन किसका मनोविश्लेषण करेगा! . आ जाए साहचर्य से, तू कहता जा।
और बड़े मजे की तो बात यह है कि मनोविश्लेषक भी अपना ___ मरीज कहना शुरू कर देता है। अनर्गल बातें भी कहता है। कभी | | मनोविश्लेषण दूसरे से करवाता है। करवाना पड़ता है। क्योंकि सार्थक बातें भी कहता है। कभी अचानक कुछ भी आ जाता है फ्रायड की शर्त यह है कि जब तक तुम्हारा खुद का मनोविश्लेषण असंगत, वह भी कहता है। पर उसको इसी का सहारा देता है फ्रायड न हो गया हो, तब तक तुम दूसरे का कैसे करोगे? तो पहले कि तू सिर्फ कहता जा, जो भी तेरे भीतर है। और फ्रायड परदे के | मनोविश्लेषक अपना मनोविश्लेषण करवाता है वर्षों तक। फिर वह पीछे बैठकर सुनता है।
दूसरों का करने लगता है। मगर कितने भी मनोविश्लेषक हों, तो वह इस मनुष्य के मन में प्रवेश कर रहा है। इसके भीतर जो भी क्या होगा इस जमीन पर? चलती रहती हैं बातें, जो विचार, जो शब्द, वह उनकी जांच कर | भारत की परंपरा कुछ और थी। हमने भी तरकीब खोजी थी। रहा है। इन शब्दों के माध्यम से वह उसके भीतर खोज रहा है, | | इसमें शिष्य नहीं बोलता था, इसमें गुरु बोलता था। यह जरा फर्क कितनी असंगति है, कितना उपद्रव है, कितनी विक्षिप्तता है। इन | समझ लेना। यह कृष्ण और अर्जुन की बात में खयाल आ जाएगा। शब्दों के बीच-बीच में से कहीं-कहीं उसे संध मिल जाती है, यहां शिष्य नहीं बोलता था। और हम शिष्य को मरीज नहीं कहते, जिससे कोई कुंजी मिल जाती है; जिससे पता चलता है। | वह शब्द ठीक नहीं है। हालांकि सभी शिष्य मरीज हैं। लेकिन वह ___ जैसे किसी आदमी को लिटाया और वह एकदम गंदी गालियां | शब्द ही ठीक नहीं है, वह बेहूदा है। और अब पश्चिम में भी बकने लगा, अश्लील बातें बोलने लगा, तो खयाल में आता है कि | मनोवैज्ञानिक कहने लगे कि मरीज शब्द उपयोग करना ठीक नहीं है, उसके भीतर क्या चल रहा है। और ऐसे वह भला आदमी था। क्योंकि उससे हम दूसरे को मरीज कहकर मरीज बनाने में सहयोगी अच्छा आदमी था। चर्च जाता था। सभी तरह नैतिक था। और होते हैं। क्योंकि जो भी शब्द हम देते हैं, उसका परिणाम होता है। भीतर उसके यह चल रहा है!
किसी आदमी से कहो कि तुम बड़े सुंदर हो; वह फौरन खिल तो फ्रायड वर्षों मेहनत करता है एक मरीज के साथ। ताकि | | जाता है। इतना सुंदर था नहीं कहने के पहले; कहते से ही खिल धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, वह कितना छिपाए, छिपा न पाए, और भीतर | जाता है। किसी आदमी को कह दो कि तुम जैसी शक्ल! पता नहीं
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0 गीता में समस्त मार्ग हैं कि
परमात्मा क्या कर रहा था, उस वक्त तुम्हें बनाया। कहीं भूल-चूक | | मौका नहीं मिला होगा। इसको स्तन में अभी भी अटकाव रह गया कर गया; क्या हो गया! वह आदमी तत्क्षण कुम्हला जाता है। वह है। इसको एक काम करना चाहिए। बच्चों के लिए जो दूध पीने की इतना कुरूप था नहीं, जितना कहते से ही हो जाता है। | बोतल आती है, वह खरीद लेनी चाहिए। उसमें दूध भरकर रात
एक आदमी को मरीज कहना भी खतरनाक है। क्योंकि आप | | उसको चूसना चाहिए, दस-पंद्रह मिनट सोने के पहले। तीन महीने एक वक्तव्य दे रहे हैं, जो उसके भीतर चला जाएगा। वह मरीज न | | के भीतर इसको स्तन दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे। भी हो, तो भी मरीज हो जाएगा।
स्तन दिखाई पड़ने का मतलब ही यह है कि बच्चे का जो रस था हम मरीज नहीं कहते, हम तो शिष्य कहते हैं। हम तो कहते हैं, | | स्तन में, वह कायम रह गया है। स्तन पूरा नहीं पीया जा सका। सीखने वाला। और बीमार भी इसीलिए बीमार है कि उसके सीखने | इसलिए आदिवासियों में जाएं, जहां बच्चे पूरी तरह अपनी मां का में कमी रह गई है। और कोई बीमारी नहीं है। उसका ज्ञान क्षीण है, | स्तन पीते हैं. वहां किसी की उत्सकता स्तन में नहीं है। अगर आप कम है; उसका अज्ञान ज्यादा है।
आदिवासी स्त्री को, हाथ रखकर भी उसके स्तन पर, पूछे कि यह शिष्य सुनता, गुरु बोलता था।
क्या है? तो वह कहेगी कि दूध पिलाने का थन है। आप अपने इस पश्चिम में अब गुरु सुन रहा है, जो चिकित्सक है; और शिष्य, | समाज की स्त्री के स्तन की तरफ आंख भी उठाएं, वह भी बेचैन, जो कि मरीज है, वह बोल रहा है। शिष्य बोल रहा है, गुरु सुन | आप भी बेचैन। आप भी आंख बचाते हैं, तब भी बेचैन; वह भी रहा है।
स्तन को छिपा रही है और बेचैन है। और छिपाकर भी प्रकट करने ___ गुरु बोलता था और बोलते समय वह शिष्य को जांचता चला की पूरी कोशिश कर रही है, उसमें भी बेचैन है। जाता था, कहां कौन-सी बात में रस आता है! उससे आपके बाबत और सबकी नजर वहीं लगी हुई है। चाहे फिल्म देखने जाएं, खबर मिलती थी।
चाहे उपन्यास पढ़ें, चाहे कविता करें, चाहे कहानी लिखें, स्तन बिलकुल जरूरी हैं! अगर कभी कोई दूसरे ग्रह की सभ्यता के लोग
इस जमीन पर आए, तो वे हमें कहेंगे कि ये लोग स्तनों से बीमार एक मित्र ने मुझे सवाल पूछा है कि यह जो यहां | समाज है। क्योंकि मूर्ति बनाओ तो, चित्र बनाओ तो, स्तन पहली कीर्तन होता है, यह बहुत खतरनाक चीज है। और चीज है; स्त्री गौण है। यह तो ऐसा मालूम पड़ता है कि कीर्तन करने वाले मगर यह बच्चे का दृष्टिकोण है। असल में बच्चा जब पहली साधु, संन्यासी, संन्यासिनियां कामवासना निकाल रहे | दफा मां से संबंधित होता है और वह उसका पहला संबंध है, हैं अपनी! और उन्हीं मित्र ने आगे पूछा है कि यह उसके पहले उसका कोई संबंध किसी से नहीं है, वह उसका पहला भी मुझे पूछना है कि जब मैं लोगों को कीर्तन करते समाज में पदार्पण है, वह उसका पहला अनुभव है दूसरे का-तो देखता हूं, तो अगर स्त्रियां कीर्तन कर रही हैं, तो मेरा वह पूरी मां से संबंधित नहीं होता; सिर्फ उसके स्तन से संबंधित ध्यान उनके स्तन पर ही जाता है!
होता है। पहला अनुभव स्तन का है। और पहले वह स्तन को ही पहचानता है; मां पीछे आती है। स्तन प्रमुख है, मां गौण है। और
अगर आपको बाद की उम्र में भी स्तन प्रमुख है, स्त्री गौण लगती 21 ब कीर्तन करते समय जिसका ध्यान स्तन पर जा रहा | है, तो आप बचकाने हैं और आपकी बुद्धि परिपक्व नहीं हो पाई। 1 हो, वह यह कह रहा है कि उसे लगता है कि सब आपको फिर से स्तन नकली खरीदकर बाजार से, पीना शुरू कर
संन्यासी अपनी कामवासना निकाल रहे हैं। उसे यह | देना चाहिए। उससे राहत मिलेगी। खयाल नहीं आता कि उसे जो दिखाई पड़ रहा है, वह उसके संबंध | गुरु बोलता था, शिष्य सुनता था। लेकिन शिष्य के सनने में भी में खबर है, किसी और के संबंध में खबर नहीं है। और वह खुद ही| गुरु देखता था, उसका रस कहां है। उसकी आंख कहां चमकने नीचे लिख रहा है कि मुझे उनके स्तन पर ध्यान जाता है। | लगती है और कहां फीकी हो जाती है! कहां उसकी आंख की पुतली
निश्चित ही, इस व्यक्ति को मां के स्तन से दूध पीने का पूरा खुल जाती है और फैल जाती है, और कहां सिकुड़ जाती है! कहां
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गीता दर्शन भाग-60
उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है, और कहां वह शिथिल होकर बैठ | आनंद को, जब तक ऐसा लगता है, लौट सकता हूं। द्वैत कायम जाता है! वह देख रहा है। बाहर और भीतर उसकी चेतना में क्या | है, अभी वापसी हो सकती है। लेकिन जब मुझे पता ही नहीं चलता हो रहा है, वह देख रहा है। और इस माध्यम से वह भी चुन रहा है | कि कौन परमात्मा और कौन मैं, दोनों एक हो गए, तब लौटना नहीं कि इस शिष्य के लिए क्या जरूरी होगा, क्या उपयोगी होगा। हो सकता। - इसलिए कष्ण ने सारे मार्गों की बात कही है। उन सारे मार्गों पर रामकष्ण परमहंस ज्ञान की स्थिति से लौटे। सागर के ठीक अर्जुन को चलना नहीं है। अर्जुन को चलना तो होगा एक ही मार्ग किनारे पहुंच गई नदी, तब उन्होंने कहा कि अब मैं जरा दूसरी नदी पर। लेकिन इन सारों को चलने के पहले जान लेना जरूरी है। के रास्ते पर भी चलकर देखू कि वह नदी भी सागर तक पहुंचती है
या नहीं! तब वे दूसरी नदी के रास्ते पर चले। फिर किनारे पर पहुंचे
| और उन्होंने कहा कि अब मैं तीसरी नदी के रास्ते पर चलकर देखें, एक और प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि रामकृष्ण वह भी सागर तक पहुंचती है या नहीं! इस तरह उन्होंने अनेक मार्गों परमहंस ने अनेक-अनेक मार्गों से चलकर एक ही की साधना की। मंजिल और एक ही सत्य की पुष्टि की। लेकिन एक जब अनेक मार्गों से चलकर उन्होंने देख लिया कि सभी नदियां साधना से सिद्ध होने के बाद भी उन्होंने वापस दूसरी सागर पहुंच जाती हैं। जो पूर्व की तरफ बहती हैं, वे भी सागर पहुंच साधना को अब स से कैसे शुरू किया होगा? क्या जाती हैं। जो पश्चिम की तरफ बहती हैं, वे भी सागर पहुंच जाती वे ज्ञान को उपलब्ध होकर फिर से अज्ञानी हो जाते हैं। जो उत्तर की तरफ बहती हैं, वे भी सागर पहुंच जाती हैं। जो थे और फिर नए मार्ग से शुरू करते थे?
दक्षिण की तरफ बहती हैं, वे भी सागर पहुंच जाती हैं। जिनका रास्ता बिलकुल सीधा है, वे भी सागर पहुंच जाती हैं। जो बहुत
इरछी-तिरछी बहती हैं, वे भी सागर पहुंच जाती हैं। जो बड़ी शांत + डा समझने जैसा है। परम ज्ञान के बाद तो कोई वापस | हैं, गंभीर हैं, वे भी सागर पहुंच जाती हैं। और जो बिलकुल तूफानी नहीं लौट सकता। कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मंजिल हैं और विक्षिप्त हैं, वे भी सागर पहुंच जाती हैं।
और यात्री एक हो जाते हैं। जब मंजिल और यात्री एक जब रामकृष्ण ने यह सब देख लिया, तब वे सागर में गिर गए। हो जाते हों, तो फिर लौटेगा कौन और कैसे?
उसके बाद नहीं लौटा जा सकता। परम ज्ञान...। लेकिन परम ज्ञान के पहले, ठीक मंजिल पर पहुंचने के पहले तो बुद्ध ने भी दो शब्दों का उपयोग किया है, निर्वाण और परम एक आखिरी कदम जब रह जाता है, उसे हम ज्ञान कहते हैं। परम निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है, आखिरी क्षण, जहां से आदमी चाहे, ज्ञान कहते हैं, जब मंजिल और यात्री एक हो जाते हैं। नदी सागर तो वापस लौट सकता है। और जहां से चाहे, तो गिर सकता है उस में गिर गई; अब नहीं लौट सकेगी। लेकिन नदी किनारे तक पहुंची अवस्था में, जहां से कोई वापसी नहीं है। उसको निर्वाण कहा है। है और ठहरी है। सागर में गिर सकती है, लौट भी सकती है। ज्ञान और जो गिर गया, उसको परम निर्वाण का क्षण है, जब साधक सिद्ध होने के द्वार पर पहुंच जाता है। वहां तो रामकृष्ण लौटे निर्वाण की दशा से, ज्ञान की दशा से। परम से सब कुछ दिखाई पड़ता है, सागर का पूरा विस्तार। लेकिन अभी ज्ञान की दशा से कोई भी नहीं लौट सकता है। भी फासला कायम है। साधक अभी भी सिद्ध नहीं हो गया है। सिद्ध अब हम सूत्र को लें। होने के करीब आ गया है, बिलकुल करीब आ गया है। सिद्ध होने परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए के बराबर हो गया है। एक क्षण, और लीन हो जाएगा। त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही
लेकिन अभी चाहे तो लौट सकता है। जब तक दो का अनुभव इसके अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है। वास्तव में तो होता है, तब तक लौटना हो सकता है। जब तक मैं देखता हूं कि यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है, केवल साक्षी होने से वह रहा परमात्मा और यह रहा मैं, तब तक लौट सकता हूं। जब | उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमंता एवं सबको तक मैं देखता हूं, यह रहा मैं और यह रहा आनंद; मैं जानता हूं | | धारण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों
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O गीता में समस्त मार्ग हैं 0
का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से | | हैं, किसी को मित्र कहते हैं। वे सब संबंध हैं, जो आपने निर्मित परमात्मा, ऐसा कहा गया है।
कर लिए हैं। वैसे संबंध कहीं हैं नहीं; सिर्फ भावों में है। परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए सब कृष्ण कह रहे हैं कि यह जो प्रकृति है चारों तरफ, उससे उत्पन्न पदार्थों को भोगता है...।
हुए ये जो सारे पदार्थ हैं, इनको आप भोगते हैं अपने ही भाव से। वह जो भीतर चैतन्य है, वह जो पुरुष है, उसके बाहर चारों तरफ | | और इन भावों के कारण ही अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेते हैं। जो प्रकृति का त्रिगुण विस्तार है, यह पुरुष ही सभी स्थितियों में | आप जैसा भाव करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। भाव जन्मदाता है। प्रकृति से संबंधित होता है। प्रकृति किसी भी स्थिति में पुरुष से| आप जैसा भाव करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। आप जो मांगते हैं, संबंधित नहीं होती। पहली तो बात यह खयाल में ले लें। | बड़े दुख की बात यही है कि वही मिल जाता है। जो कुछ भी आप
आप अपने मकान में हैं। आप कहते हैं, मेरा मकान। मकान हैं, वह आपकी ही वासनाओं का परिणाम है। कभी नहीं कहता कि आप मेरे हैं। और आप कल चले जाएंगे, तो | | थोड़ा खयाल करें, कितनी वासनाएं आप करते हैं! और जिन मकान रोएगा नहीं। मकान गिर जाएगा, तो आप रोएंगे। बहुत मजे | वासनाओं को आप करते हैं, धीरे-धीरे-धीरे उन वासनाओं को पूरा की बात है। मकान धेला भर भी आपकी चिंता नहीं करता; आप करने के योग्य आप हो जाते हैं। वैज्ञानिक भी कहते हैं, डार्विन ने बड़ी चिंता करते हैं।
प्रस्तावित किया है कि मनुष्य के पास जो-जो इंद्रियां हैं, वे इंद्रियां आपकी कार बिगड़ जाए, तो आंसू निकल आते हैं। जिस जमीन | | भी मनुष्य की वासनाओं से ही जन्मी हैं। पर आप खून-खराबा कर सकते हैं, जान दे सकते हैं, वह जमीन __आपके पास आंख है, इसलिए आप देखते हैं, यह बात ठीक आपकी रत्तीभर भी चिंता नहीं करती। बहुत पहले आप जैसे पागल | नहीं है। आप देखना चाहते थे, इसलिए आंख पैदा हुई। जिराफ है, और भी उस पर जान दे चुके हैं। जिस जमीन को आप अपना कहते | | उसकी लंबी गर्दन है। तो डार्विन कहता है कि जिराफ की इतनी लंबी हैं, आप नहीं थे, तब भी वह थी। कोई और उसको अपना कह रहा | | गर्दन क्यों है? ऊंट की इतनी लंबी गर्दन क्यों है? था। न मालूम कितने लोग दावा कर चुके। और दावेदार समाप्त हो हम तो ऊपर से यही देखते हैं कि ऊंट की इतनी लंबी गर्दन है, जाते हैं और जिस पर दावा किया जाता है, वह बना है। | इसलिए झाड़ पर कितने ही ऊंचे पत्ते हों, उनको तोड़कर खा लेता
प्रकृति आपसे कोई संबंध स्थापित नहीं करती। आप ही प्रकृति है। लेकिन विकासवादी कहते हैं कि झाड़ के ऊंचे पत्ते पाने के लिए से संबंध स्थापित करते हैं। आप ही संबंध बनाते हैं, आप ही तोड़ते | | ही जो वासना है उसकी, वही उसकी गर्दन को लंबा कर देती है हैं। संबंध बनाकर आप ही सुख पाते हैं, आप ही दुख पाते हैं। यह नहीं तो उसकी गर्दन लंबी नहीं हो जाएगी। और जंगल में बड़ा निपट आप पर ही निर्भर है। कुछ भी प्रकृति की उत्सुकता नहीं है संघर्ष है। क्योंकि नीचे के पत्ते तो कोई भी जानवर खा जाते। कि आपको दुख दे कि सुख दे। आप अपना सुख-दुख अपने हाथ | | जिसकी गर्दन जितनी ऊंची होगी, वह उतनी देर तक सरवाइव कर से निर्मित करते हैं।
| सकता है; उसका बचाव उतनी देर तक हो सकता है। और इसलिए एक मजे की घटना घटती है। जिस चीज से तो डार्विन और उनके अनुयायी कहते हैं कि यह ऊंट है, जिराफ आपको सुख मिलता है, आपकी दृष्टि बदल जाए, उसी से दुख है, यह सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट, वह जो बचाव करने में सक्षम मिलने लगता है। चीज वही है। जिस चीज से आपको दुख मिलता है अपने को, वह वही इंद्रियां पैदा कर लेता है, जिनकी उसकी वासना है, दृष्टि बदल जाए, उसी से सुख मिलने लगता है। चीज वही है। है। लंबी गर्दन के कारण ऊंट बड़े वृक्षों के पत्ते नहीं खाता है, बड़े पर आपकी दृष्टि बदली कि सारा अर्थ बदल जाता है। आपका | | वृक्षों के पत्ते खाना चाहता है, इसलिए उसके पास लंबी गर्दन है। खयाल बदला कि सारा संसार बदल जाता है।
आप जो देखते हैं, वह आंख के कारण नहीं देखते हैं; देखने की आप वस्तुओं के संसार में नहीं रहते, आप भावों और विचारों के वासना है भीतर, इसलिए आंख है। और इसकी बड़ी अदभुत संसार में रहते हैं। वस्तुएं तो बहुत दूर हैं, उनसे आपका कोई संबंध कभी-कभी घटनाएं घटी हैं। नहीं है। आ
वों को फैलाकर सेतु बनाते हैं, वस्तुओं से| | रूस में एक महिला अंधी हो गई। उसे देखने का रस तो लग संबंधित हो जाते हैं। किसी को पत्नी कहते हैं, किसी को पति कहते | गया था। देखा था उसने बहुत दिनों तक, फिर अंधी हो गई। और
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गीता दर्शन भाग-6600
देखने की वासना उसमें प्रगाढ़ थी। और देखना है, क्योंकि देखे | उसके योग्य इंद्रिय पैदा हो जाती है। उसकी चाह की छाया है। बिना जिंदगी एकदम बे-रौनक हो गई।
यह जरा कठिन होगा। क्योंकि अक्सर हम कहते हैं कि इंद्रियों __ आप सोच नहीं सकते कि जिसके पास आंख रही हों और आंखें | के कारण वासना है। गलत है बात। वासनाओं के कारण इंद्रियां हैं।
नाएं, उसकी जिंदगी एकदम अस्सी प्रतिशत समाप्त हो गई। इसीलिए तो ज्ञानी कहते हैं कि जब वासनाएं समाप्त हो जाएंगी, तो क्योंकि सब रंग खो गए; जिंदगी से सारी रंगीनी खो गई; सब चेहरे | | तुम जन्म न ले सकोगे। जन्म न ले सकने का मतलब यह है कि खो गए; सब रूप खो गए। ध्वनियों का एक उबाने वाला | तुम फिर इंद्रियां और शरीर को ग्रहण न कर सकोगे। क्योंकि इंद्रियां मोनोटोनस जगत रह गया, जहां कोई रंग नहीं, जहां कोई रूप नहीं। और शरीर मूल नहीं हैं, मूल वासना है। तुम जिस घर में पैदा हुए
तो उसकी देखने की प्रगाढ़ आकांक्षा उसमें पैदा हुई। और उसने | | हो, वह भी तुम्हारी वासना है। तुम जिस योनि में पैदा हुए हो, वह हाथ से चीजों को टटोलना शुरू किया। और धीरे-धीरे उसकी | भी तुम्हारी वासना है। अंगुलियां आंखों जैसा काम करने लगीं। अब तो उस पर बड़े इधर मैं एक बहुत अनूठे अनुभव पर आया। कुछ लोगों के वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं। वह आपके चेहरे के पास अंगुलियों को पिछले जन्मों के संबंध में मैं काम करता रहा हूं, कि उनके पिछले. लाकर, बिना छुए, हाथ घुमाकर कह सकती है कि चेहरा सुंदर है | जीवन की स्मृतियों में उन्हें उतारने का प्रयोग करता रहा हूं। एक या कुरूप है-बिना छुए!
| चकित करने वाला अनभव हआ। वह अनभव यह हआ कि परुष तो वैज्ञानिक कहते हैं कि उसके हाथ आपके चेहरे से निकलती | तो अक्सर पिछले जन्मों में भी पुरुष होते हैं, लेकिन अक्सर स्त्रियां किरणों के स्पर्श को अनुभव करने लगे। और सच तो बात यही है। | जन्म में बदलती हैं। जैसे अगर कोई पिछले जन्म में स्त्री थी, तो कि आंख भी चमड़ी ही है। हाथ भी चमड़ी है। आंख की चमड़ी ने | | इस जन्म में पुरुष हो जाती है। एक स्पेशिएलिटी, एक विशेष गुण पैदा कर लिया है देखने का। तो शायद स्त्रियों के मन में गहरी वासना पुरुष होने की होगी। कोई वजह नहीं है कि हाथ की चमड़ी वैसा गुण क्यों पैदा न कर ले! | स्त्रियों की परतंत्रता, शोषण के कारण स्त्रियों के मन में वासना होती
कुछ पशु हैं, जो पूरे शरीर से सुनते हैं। उनके पास कोई कान | | है कि पुरुष होती तो अच्छा था। प्रगाढ़...। और जीवनभर का नहीं है। पूरा शरीर ही कान का काम करता है। आप रात को | अनुभव उनको कहता है कि पुरुष होती तो अच्छा था। चमगादड़ देखते हैं। चमगादड़ कभी दिन में भी घर में घुस आता । लेकिन पश्चिम में स्त्रियों की स्वतंत्रता बढ़ रही है। पचास-सौ है। उसे दिन में दिखाई नहीं पड़ता। उसकी आंखें खुल नहीं सकतीं। | वर्ष के बाद यह बात मिट जाएगी। स्त्रियां स्त्री योनि में जन्म ले लेकिन आपने कभी खयाल किया हो, न किया हो; ठीक चमगादड़ सकेंगी; वह वासना क्षीण हो जाएगी। दीवाल के बिलकुल किनारे आकर चार-छः अंगुल की दूरी से लौट अक्सर ऐसा होता है कि जो ब्राह्मण घर में है, वह दूसरे जन्म में जाता है, टकराता नहीं। टकराने को होता है और लौट जाता है। | भी ब्राह्मण घर में है; उसके पीछे भी ब्राह्मण घर में है। क्योंकि और आंख उसकी देखती नहीं।
| ब्राह्मण घर का बेटा एक दफा ब्राह्मण घर का अहंकार और दर्प तो वैज्ञानिक उस पर बहुत काम करते हैं। तो उसका पूरा शरीर अनुभव किया हो, तो किसी और घर में पैदा नहीं होना चाहेगा। वह दीवाल की मौजूदगी को छः इंच की दूरी से अनुभव करता है। | उसकी वासना नहीं है। लेकिन शूद्र अक्सर बदल लेंगे। एक जन्म इसलिए वह करीब आ जाता है टकराने के, लेकिन टकराता नहीं। | में शूद्र है, तो दूसरे जन्म में वह दूसरे वर्ण में प्रवेश कर जाएगा। हां, आप उसको घबड़ा दें और परेशान कर दें, तो टकरा जाएगा। | उसकी गहरी वासना उस शूद्र के वर्ण से हट जाने की है। वह भारी लेकिन अपने आप वह टकराता नहीं। बिलकुल पास आकर हट है, कष्टपूर्ण है, वह बोझ है; उसमें होना सुखद नहीं है। जाता है। राडार है उसके पास, जो छः इंच की दूरी से उसको स्पर्श | तो हम जो वासना करते हैं, उस तरफ हम सरकने लगते हैं। का बोध दे देता है। दिन में उसके पास आंख नहीं है, लेकिन बचाव | | हमारी वासना हमारे आगे-आगे चलती है और हमारे जीवन को की सुविधा तो जरूरी है। उसका पूरा शरीर अनुभव करने लगा है। | पीछे-पीछे खींचती है। उसका पूरा शरीर संवेदनशील हो गया है।
कृष्ण कहते हैं, यह जो प्रकृति से फैला हुआ संसार है, हमारे हमारे भीतर वह जो छिपा हुआ पुरुष है, वह जो भी चाहता है, | भीतर छिपा हुआ पुरुष ही इसे भोगता है और गुणों का संग ही
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गीता में समस्त मार्ग हैं 0
इसकी अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने के कारण होते हैं। और क्योंकि जो यह वासना करेगी, उसको पूरा कर लेगी, खोज लेगी। फिर जिन चीजों से यह रस का संबंध बना लेता है, संग बना लेता | | अपने योग्य सब मिल जाता है। अयोग्य तो मिलता ही नहीं, बस है. जिनसे यह रस से जड जाता है, उन्हीं योनियों में प्रवेश करने अपने योग्य ही मिलता है। चाहें आप पहचान पाएं या न पहचान लगता है।
पाएं। __ अगर कोई इस तरह की वासनाएं करता है कि कुत्ता होकर उनको | ___ जब इससे दबने वाला व्यक्ति इसको मिल जाएगा, उससे इसे ज्यादा अच्छी तरह से पूरी कर सकेगा, तो प्रकृति उसके लिए कुत्ते | | तृप्ति नहीं होगी। किसी स्त्री को दबने वाले व्यक्ति से तृप्ति नहीं हो का शरीर दे देगी। प्रकृति सिर्फ खुला निमंत्रण है। कोई आग्रह नहीं | सकती, क्योंकि दबने वाला व्यक्ति स्त्रैण हो जाता है। स्त्री तो उसी है प्रकृति का। आप जो होना चाहते हैं, वे हो जाते हैं। आप अपने | पुरुष से प्रसन्न हो सकती है, जो दबाता हो। क्योंकि जो दबाता हो, गर्भ को चुनते हैं, जाने या अनजाने। आप अपनी योनि भी चुनते | | उसी के प्रति समर्पण हो सकता है। हैं, जाने या अनजाने।
स्त्री चाहती है, कोई दबाए। हालांकि दबाने का ढंग बहुत आप जो मांगते हैं, वह घटित हो जाता है। जैसे पानी नीचे बहता | | संस्कारित होना चाहिए। कोई सिर पर लट्ठ मारे, ऐसा नहीं। लेकिन है और गड्ढे में भर जाता है, ऐसे ही आप भी बहते हैं और अपनी | व्यक्तित्व ऐसा हो कि दबा दे, अभिभूत कर दे, और स्त्री समर्पित योनि में भर जाते हैं। आपकी जो वासनाएं हैं, वे आपको ले जाती | | हो जाए। स्त्री सिर्फ उसी में रस ले पाती है, जो उसे दबा दे, बिना हैं एक विशेष दिशा की तरफ। अच्छी और बुरी योनियों में जन्म | दबाए; दबाने का कोई आयोजन न करे; उसका होना, उसका हमारी ही आकांक्षाओं का फल है।
व्यक्तित्व ही दबा दे और स्त्री समर्पित हो जाए। उससे तो तृप्ति लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हम भूल ही जाते हैं कि हमारी | मिल सकती है। आकांक्षाएं क्या हैं। हम भूल ही जाते हैं कि हमने क्या मांगा था। लेकिन अब यह स्त्री कहती है कि वह मुझसे दबे। तो यह स्त्री जब तक हमें उपलब्धि होती है, तब तक हम अपनी मांग ही भूल | | को खोज रही है; पुरुष को नहीं खोज रही है। वह इसे मिल जाएगा, जाते हैं। अगर हम अपनी मांग याद रख सकें, तो हमें पता चल | | क्योंकि बहुत पुरुष स्त्रियों जैसे हैं। वे इसे मिल जाएंगे, और उनसे जाएगा कि फासला चाहे कितना ही हो मांग और प्राप्ति का, जो | | यह परेशान होगी। और परेशान होकर यह भाग्य को और भगवान हमने मांगा था, वह हमें मिल गया है।
को, न मालूम किस-किस को दोष देगी। और कभी फिक्र न करेगी इधर मैं देखता , लोग अपनी ही मांगों से दुखी हैं। | कि जो इसने मांगा था, वह इसे मिल गया।
एक युवती मेरे पास आई और उसने मुझे कहा कि मुझे एक ऐसा | | आप थोड़े अपने दुखों की छानबीन करना। जो आपने मांगा था, पति चाहिए जो सुंदर हो, स्वस्थ हो, शक्तिशाली हो, किसी से दबे वह आपको मिल गया है। नहीं, दबंग हो। ठीक है, खोज कर, मिल जाएगा। पर उसने कहा, ___ कुछ लोग कहते हैं कि हमारा दुख इसलिए है कि हमने जो मांगा एक बात और। वह सदा मेरी बात माने।
था, वह नहीं मिला। वे गलत कहते हैं। उनको ठीक पता नहीं है कि तो मैंने उसको कहा कि तु दोनों में तय कर ले। जो दबंग होगा, | उन्होंने क्या मांगा था। असलियत में जो आप मांगते हैं, वह मिल वह तझसे नहीं दबेगा। और अगर त उसको दबाना चाहती है. तो जो | जाता है। मांग परी हो जाती है। और तब आप दख पाते हैं। दख तुझसे दबेगा, वह किसी से भी दबेगा। तो तू पक्का कर ले; दो में | | पाकर आप समझते हैं कि मेरी मांग पूरी नहीं हुई, इसलिए दुख पा से चुन ले। क्योंकि दबंग तो उपद्रव रहेगा तेरे लिए भी। तू भी उसे रहा हूं। नहीं; आप थोड़ा समझना, खोजना। आप फौरन पा जाएंगे दबा नहीं पाएगी। और अगर तेरी वासना यह है कि तू उसे दबा पाए, | | कि मेरी मांगें पूरी हो गईं, तो मैं दुख पा रहा हूं। तो फिर वह दबंग नहीं रहेगा। वह तेरे पीछे डरकर चलेगा। जो तुझसे हमें पता नहीं है कि हम क्या मांगते हैं; हमारी क्या वासना है; डरेगा, वह फिर किसी से भी डरेगा। तो दो में से तू तय कर ले।। क्या परिणाम होगा। हम कभी हिसाब भी नहीं रखते। अंधे की तरह
कुछ दिन बाद आकर उसने मुझसे कहा कि तो ठीक है; वह चले जाते हैं। लेकिन समस्त धर्मों का सार है कि आप जिन मुझसे दबना चाहिए, चाहे फिर कुछ और भी हो।
वासनाओं से डूबते हैं, भरते हैं, उन योनियों में, उन व्यक्तित्व में, अब इसको पता नहीं है इस वासना का। यह पूरी हो जाएगी। उन ढांचों में, उन जीवन में आपका प्रवेश हो जाता है।
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गीता दर्शन भाग-6
वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है...। अब इस पुरुष की बहुत-सी स्थितियां हैं। क्योंकि पुरुष तो शरीर से भिन्न है, लेकिन जब भिन्न समझता है, तभी भिन्न है । और चाहे तो समझ ले कि मैं शरीर हूं, तो भ्रांति में पड़ जाएगा।
पुरुष शरीर में रहते हुए भी भिन्न है । यह उसका स्वभाव है। लेकिन इस स्वभाव में एक क्षमता है, तादात्म्य की । यह अगर समझ ले कि मैं शरीर हूं, तो शरीर ही हो जाएगा। आप अगर समझ लें कि आपके हाथ की लकड़ी आप हैं, तो आप लकड़ी ही हो जाएंगे। आप जो भी मान लें, वह घटित हो जाता है। मानना सत्य बन जाता है। पुरुष की यह भीतरी क्षमता है। वह जो मान लेता है, वह सत्य हो जाता है।
वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ पर ही है। लेकिन साक्षी होने से उपद्रष्टा ... ।
फिर इसकी अलग-अलग स्थितियां हैं। अगर यह साक्षी होकर देखे अपने को भीतर, तो यह उपद्रष्टा या द्रष्टा हो जाता है।
यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमंता हो जाता है... । अगर इसकी आप सम्मति मांगें, तो यह आपके लिए अनुमंता हो जाएगा। लेकिन आप इससे कभी सम्मति भी नहीं मांगते। कभी आप शांत और मौन होकर अपने भीतर के पुरुष का सुझाव भी नहीं मांगते। आप वासनाओं का सुझाव मानकर ही चलते हैं। इंद्रियों का सुझाव मानकर चलते हैं। या परिस्थिति में, कोई भी घड़ी उपस्थित हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया से चलते हैं।
एक आदमी गाली दे दे, तो वह आपको चला देता है। फिर आप उसकी गाली के आधार पर कुछ करने में लग जाते हैं। बिना इसकी फिक्र किए कि यह आदमी कौन है, जो मुझे गुलाम बना रहा है! मैं इसकी गाली को मानकर क्यों चलूं? यह तो मुझे चला रहा है! आप यह मत सोचना कि आप गाली न दें, तो बात खतम हो गई। तो आप भीतर इसकी गाली से कुछ सोचेंगे। शायद यह सोचेंगे कि क्षमा कर दो, नासमझ है। लेकिन यह भी आप चल पड़े। वही चला रहा है आपको। आप सोचें कि यह नासमझ है, पागल है, शराब पीए हुए है। इसलिए क्यों गाली का जवाब देना ! तो भी इसने आपको चला दिया। आप मालिक न रहे; यह बटन दबाने वाला हो गया। इसने गाली दी और आपके भीतर कुछ चलने लगा। आप गुलाम हो गए।
अगर आप रुककर क्षणभर साक्षी हो जाएं और भीतर की सलाह लें - परिस्थिति की सलाह न लें, प्रतिक्रिया न करें, इंद्रियों की
मानकर न पागल बनें - भीतर के साक्षी की सलाह लें, तो वह साक्षी अनुमंता हो जाता है।
सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।
यह जो भीतर पुरुष है, यह बहुत रूपों में प्रकट होता है। अगर ' आप इस पुरुष को शरीर के साथ जोड़ लें, तो लगने लगता है, मैं शरीर हूं। और आप संसार हो जाते हैं। इसको आप तोड़ लें ध्यान से और साक्षी हो जाएं, तो आप समाधि बन जाते हैं। इसकी आप सलाह मांगने लगें, तो आप स्वयं गुरु हो जाते हैं। इसके और भीतर प्रवेश करें, तो यह समस्त सृष्टि का स्रष्टा है, तो आप परमात्मा हो जाते हैं। और इसके अंतिम गहनतम बिंदु पर आप प्रवेश कर जाएं, जिसके आगे कुछ भी नहीं है, तो आप सच्चिदानंदघन परम ब्रह्म हो जाते हैं।
यह पुरुष ही आपका सब कुछ है। आपका दुख, आपका सुख; आपकी अशांति, आपका संसार; आपका स्वर्ग, आपका नरक; आपका ब्रह्म, आपका मोक्ष, आपका निर्वाण, यह पुरुष ही सब | कुछ है।
ध्यान रहे, घटनाएं बाहर हैं और भावनाएं भीतर हैं। भावना का जो अंतिम स्रोत है, वह है परम ब्रह्म सच्चिदानंदघन रूप। वह भी आप हैं।
इसलिए इस मुल्क ने जरा भी कठिनाई अनुभव नहीं की यह कहने में कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर है। आपको पता नहीं है, यह बात दूसरी है। लेकिन परमेश्वर आपके भीतर मौजूद है। और आपको पता नहीं है, इसमें भी आपकी ही तरकीब और कुशलता है। आप पता लगाना चाहें, तो अभी पता लगा लें। शायद आप पता लगाना ही नहीं चाहते हैं।
मुझसे सवाल लोग पूछते हैं। आज ही कुछ सवाल पूछे हैं कि अगर हम ध्यान में गहरे चले गए, तो हमारी गृहस्थी और संसार का क्या होगा ? शायद इसीलिए ध्यान में जाने से डर रहे हैं कि | गृहस्थी और संसार का क्या होगा। और फिर भी पूछते हैं। पूछा है उन्होंने भी कि फिर भी ध्यान का कोई रास्ता बताइए!
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क्या करिएगा ध्यान का रास्ता जानकर ? डर लगा हुआ है। क्योंकि हम जो वासनाओं का खेल बनाए हुए हैं, उसके टूट जाने का डर है। तो भूलकर रहना ठीक है।
शायद हम ध्यान में जाना नहीं चाहते, इसीलिए हम ध्यान में नहीं
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गीता में समस्त मार्ग हैं
गए हैं। और जिस दिन हम जाना चाहें, दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती।
लोग मुझसे आकर कहते हैं कि हम बड़ी कोशिश करते हैं, ध्यान में जा नहीं पाते ! उनसे मैं कहता हूं, तुम कोशिश वगैरह नहीं करते हो; और तुम जाना चाहते हो। तुम्हारा रस ध्यान में नहीं है। तुम्हारा रस कहीं और होगा। तुम मुझे बताओ, क्या चाहते हो ध्यान से?
एक आदमी ने कहा कि मैं लाटरी का नंबर चाहता हूं। आपके पास इसीलिए आया हूं कि ध्यान, ध्यान, ध्यान सुनते-सुनते मुझे लगा कि ध्यान करके एक दफा सिर्फ नंबर मिल जाए, बात खतम गई।
अब यह ध्यान से लाटरी का नंबर चाहता है! पहले उसने मुझे यह नहीं बताया। सोचा कि पता नहीं, मैं उसे ध्यान समझाऊं कि न समझाऊं ! लाटरी में मेरी उत्सुकता हो या न हो तो उसने कहा कि ध्यान की बड़ी इच्छा है। बड़ी अशांति रहती है। अशांति है लाटरी न मिलने की; ध्यान की नहीं है। मगर वह कह भी नहीं रहा है। वह भीतर सोच रहा है कि ध्यान लग जाए; चित्त शांत हो जाए; नंबर दिखाई पड़ जाए; बात खतम हो गई।
आप ध्यान से भी कुछ और चाहते हैं । और जब तक कोई ध्यान को ही नहीं चाहता ध्यान के लिए, तब तक ध्यान नहीं हो सकता। आप परमात्मा से भी कुछ और चाहते हैं। वह भी साधन है, साध्य नहीं है।
सोचें, अगर आपको परमात्मा मिल जाए; यहां से आप घर पहुंचें और पाएं कि परमात्मा बैठा हुआ है आपके बैठकखाने में। आप क्या मांगिएगा उससे ? जरा सोचें। फौरन मन फेहरिस्त बनाने . लगेगा। नंबर एक, नंबर दो...। और जो चीजें आप मांगेंगे, सभी क्षुद्र होंगी। परमात्मा से मांगने योग्य एक भी न होगी।
तो परमात्मा भी मिल जाए, तो आप संसार ही मांगेंगे। आप संसार मांगते हैं, इसलिए परमात्मा नहीं मिलता है। आप जो मांगते हैं, वह मिलता है । और अभी आप संसार से इतने दुखी नहीं हो गए हैं कि परमात्मा को सीधा मांगने लगें। इसलिए रुकावट है। अन्यथा वह आपके भीतर छिपा है। रत्तीभर का भी फासला नहीं है । आप ही वह हैं।
इस प्रकार पुरुष को और उसके गुणों को, गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है।
यह सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य | तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं | जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है।
जिस व्यक्ति को यह खयाल में आ जाता है कि प्रकृति अलग है और मैं अलग हूं, और जो इस अलगपन को सदा बिना किसी चेष्टा के स्मरण रख पाता है, फिर वह सब तरह से बर्तता हुआ भी...। वह वेश्यागृह में भी ठहर जाए, तो भी उसके भीतर की पवित्रता नष्ट नहीं होती। और आप मंदिर में भी बैठ जाएं, तो सिर्फ | मंदिर को अपवित्र करके घर वापस लौट आते हैं। आप कहां हैं, | इससे संबंध नहीं है। आप क्या हैं, इससे संबंध है।
अगर यह खयाल में आ जाए कि मैं अलग हूं, पृथक हूं, तो फिर जीवन नाटक से ज्यादा नहीं है। फिर उस नाटक में कोई बंधन नहीं है, फिर उस नाटक में कोई वासना नहीं है, फिर खेल है और अभिनय है। और जो अभिनय की तरह देख पाता है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर नहीं जन्मता। क्योंकि कोई वासना उसकी नहीं है। फिर जैसे एक काम पूरा कर रहा है। जैसे काम पूरा करने में कोई रस नहीं है। जैसे एक जिम्मेवारी है, वह निभाई जा रही है।
ऐसे जैसे कि एक आदमी रामलीला में राम बन गया है। जब उसकी सीता खो जाती है, तब वह भी रोता है, और वह भी वृक्षों से पूछता है कि हे वृक्ष, बताओ मेरी सीता कहां है। लेकिन उसके | आंसू अभिनय हैं। उसके भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है । न सीता खो गई है, न वृक्षों से वह पूछ रहा है, न उसे कुछ प्रयोजन है। वह अभिनय कर रहा है। वह वृक्षों से पूछेगा; आंसू बहाएगा; जार-जार रोएगा; सीता को खोजेगा। और परदे के पीछे जाकर | बैठकर चाय पीएगा। उसको कोई लेना-देना नहीं है । गपशप करेगा। बात ही खतम हो गई। उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
अगर असली राम भी परदे के पीछे ऐसे ही हटकर चाय पी लेते हों, तो वे परमात्मा हो गए। अगर आप भी अपनी जिंदगी के सारे उपद्रव को एक नाटक की तरह जी लेते हों, और परदे के पीछे हटने की कला जानते हों...। जिसको मैं कहता हूं, ध्यान, प्रार्थना, पूजा, | वह परदे के पीछे हटने की कला है। दुकान से आप घर लौट आए। परदे के पीछे हट गए, ध्यान में चले गए। ध्यान में जाने का मतलब है कि आपने कहा कि ठीक, वह नाटक बंद ।
अगर आप सच में ही भीतर के पुरुष को याद रख सकें, तो बंद कर सकेंगे। लेकिन अभी आप नहीं कर सकते। आप कितने ही परदे लटकाएं, दरवाजा बंद करें; वह दुकान आपके साथ चली आएगी
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भीतर। वह नाटक नहीं है। उसको आप बहुत जोर से पकड़े हुए हैं। हाथों में नहीं।
तो आप बैठकर राम-राम कर रहे हैं और भीतर नोट गिन रहे हैं। | __ जीसस के हाथों में खीलें ठोकने का कोई उपाय नहीं है। जीसस इधर राम-राम कर रहे हैं, वहां भीतर कुछ और चला रहे हैं। वहां को सूली देने का कोई उपाय नहीं है। जीसस जिंदा ही हैं। आप कोई हिसाब लगा रहे हैं कि वह नंबर दो के खाते में लिखना भूल शरीर को ही काट रहे हैं और मार रहे हैं। अगर जीसस भी शरीर गए हैं। या कल कैसे इनकम टैक्स वालों को धोखा देना है। वह | | से जुड़े हों, तो उनको भी पीड़ा होगी। तो वे भी रोएंगे, चिल्लाएंगे। भीतर चल रहा है। यहां राम-राम चल रहा है।
| वे भी छाती पीटेंगे कि बचाओ; कोई मुझे बचा लो। यह क्या कर आप ध्यान रखिए कि राम-राम झूठा है, जो ऊपर चल रहा है। | रहे हो! क्षमा करो, मुझसे भूल हो गई। वे कुछ उपाय करेंगे। और असली भीतर चल रहा है। उससे आपका काफी तादात्म्य है। | लेकिन वे कोई उपाय नहीं कर रहे हैं। उलटे वे प्रार्थना करते हैं आप दुकानदार ही हो गए हैं। आपके पास कोई भीतर पृथक नहीं | | परमात्मा से कि इन सब को माफ कर देना, क्योंकि इनको पता बचा है, जो दुकानदार न हो।
नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। __ जैसे ही कोई व्यक्ति प्रकृति और पुरुष के फासले को थोड़ा-सा किस चीज के लिए जीसस ने कहा है कि इनको पता नहीं है, ये. स्मरण करने लगता है कि यह मैं नहीं हूं...। इतना ही स्मरण कि क्या कर रहे हैं? इस चीज के लिए जीसस ने कहा है कि जिसको यह मैं नहीं हूं। दुकान पर बैठे हुए, कि दुकान कर रहा हूं; जरूरी | ये सूली पर लटका रहे हैं, वह तो लटकाया नहीं जा सकता; और है, दायित्व है; काम है, उसे निपटा रहा हूं। लेकिन घर पहुंचकर, | | जिसको ये लटका रहे हैं, वह मैं नहीं हूं। इनको कुछ पता नहीं है स्नान करके अपने मंदिर के कमरे में आदमी प्रविष्ट हो गया। वह |कि ये क्या कर रहे हैं। ये मेरी भ्रांति में किसी और को सूली पर परदे के पीछे चला गया. नाटक के मंच से हट आया. सब छोड | लटका रहे हैं। यह मतलब है। इनको खयाल तो यही है कि मुझे आया बाहर। और घंटेभर शांति से बैठ गया बाहर दुनिया के। | मार रहे हैं, लेकिन मुझे ये कैसे मारेंगे? जिसको ये मार रहे हैं, वह
इसका अभ्यास जितना गहन होता चला जाए, उतना ही योग्य | मैं नहीं हूं। और वह तो इनके बिना मारे भी मर जाता, उसके लिए है, उतना ही उचित है। तो धीरे-धीरे-धीरे कोई भी चीज आपको | | इतना आयोजन करने की कोई जरूरत न थी। और मैं इनके बांधेगी नहीं। कोई भी चीज बांधेगी नहीं। हो सकता है, जंजीरें भी | आयोजन से भी न मरूंगा। आपको बांध दी जाएं और कारागृह में आपको डाल दिया जाए, तो | इस भीतर के पुरुष का बोध जैसे-जैसे साफ होने लगेगा, भी आप स्वतंत्र ही होंगे। क्योंकि वह कारागृह में जो जंजीरें बांधेगे | वैसे-वैसे कृष्ण कहते हैं, फिर सब प्रकार से बर्तता हुआ...। जिसको, वह प्रकृति होगी। और आप बाहर ही होंगे।
इसलिए कृष्ण का जीवन जटिल है। कृष्ण का जीवन बहुत अपने भीतर एक ऐसे तत्व की तलाश ही अध्यात्म है. जिसको | जटिल है। और जो तर्कशास्त्री हैं, नीतिशास्त्री हैं, और जो नियम बांधा न जा सके, जो परतंत्र न किया जा सके, जो सदा स्वतंत्र है, से जीते और चलते और सोचते हैं, उन्हें कृष्ण का जीवन बहुत जो स्वतंत्रता है। यह पुरुष ऐसी स्वतंत्रता का ही नाम है। और सारे | असंगत मालूम पड़ता है। आध्यात्मिक यात्रा का एक ही लक्ष्य है कि आपके भीतर उस तत्व ___ एक मित्र ने सवाल पूछा है कि कृष्ण अगर भगवान हैं, तो वे की तलाश हो जाए, जिसको दुनिया में कोई सीमा न दे सके, कोई छल-कपट कैसे कर सके? जंजीर न दे सके, कोई कारागृह में न डाल सके। जिसका मुक्त होना | स्वभावतः, छल-कपट हम सोच ही नहीं सकते, नैतिक आदमी स्वभाव है।
कैसे छल-कपट कर सकता है! और छल-कपट करके वह कैसे इसका यह मतलब नहीं है कि आप कृष्ण को जंजीरें नहीं डाल भगवान हो सकता है! और वचन दिया था कि शस्त्र हाथ में नहीं सकते। इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध को कारागृह में नहीं | | लूंगा और अपना ही वचन झुठला दिया। ऐसे आदमी का क्या डाला जा सकता। जीसस को हमने सूली दी ही है। लेकिन फिर भी | | भरोसा जो अपना ही आश्वासन पूरा न कर सका और खुद ही अपने आप जीसस को सूली नहीं दे सकते। जिसको आप सूली दे रहे | आश्वासन को झूठा कर दिया! हैं, वह प्रकृति ही है। और जब आप जीसस के हाथ में खीलें ठोक | | हमें तकलीफ होती है। हमें बड़ी अड़चन होती है। कृष्ण बेबूझ रहे हैं, तो आप प्रकृति के हाथ में खीलें ठोक रहे हैं, जीसस के मालूम पड़ते हैं। कृष्ण को समझना कठिन मालूम पड़ता है।
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महावीर को समझना सरल है। एक संगति है । बुद्ध को समझना सरल है। जिंदगी एक गणित की तरह है । उसमें आप भूल-चूक नहीं निकाल सकते।
अगर महावीर कहते हैं अहिंसा, तो फिर वैसा ही जीते हैं। फिर पांव भी फूंककर रखते हैं। फिर पानी भी छानकर पीते हैं । फिर श्वास भी भयभीत होकर लेते हैं कि कोई कीटाणु न मर जाए। फिर महावीर का पूरा जीवन एक संगत गणित है। उस गणित में भूल-चूक नहीं निकाली जा सकती।
लेकिन कृष्ण का जीवन बड़ा बेबूझ है। जितनी भूल-चूक चाहिए, वे सब मिल जाएंगी। ऐसी भूल-चूक आप नहीं खोज सकते, जो उनके जीवन में न मिले। सब तरह की बातें मिल जाएंगी।
उसका कारण है। क्योंकि कृष्ण की दृष्टि जो है, उनका जो मौलिक आधार है सोचने का, वह यह है कि जैसे ही यह पता चल कि प्रकृति अलग और मैं अलग, फिर किसी भी भांति बर्तता हुआ कोई बंधन नहीं है। फिर कोई जन्म नहीं है।
इसलिए कृष्ण छल-कपट करते हैं, ऐसा हमें लगता है। ऐसा हमें लगता है कि वे आश्वासन देते हैं और फिर मुकर जाते हैं। लेकिन कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं। जब आश्वासन दिया था, तब पूरी तरह आश्वासन दिया था। उस क्षण का सत्य था वह, ट्रुथ आफ दि मोमेंट, उस क्षण का सत्य था। उस वक्त कोई बेईमानी न थी मन में; कहीं सोच भी न था कि इस आश्वासन को तोड़ेंगे। ऐसा कोई सवाल नहीं था। आश्वासन पूरी तरह दिया था। लेकिन दूसरे क्षण में सारी परिस्थिति बदल गई। और कृष्ण के लिए यह सब अभिनय से ज्यादा नहीं है। अगर यह अभिनय न हो, तो कृष्ण भी सोचेंगे . कि जो आश्वासन दिया था, उसको पूरा करो।
अगर जिंदगी बहुत असली हो, तो आश्वासन को पूरा करने का खयाल आएगा। लेकिन कृष्ण के लिए जिंदगी एक सपने की तरह है, जिसमें आश्वासन का भी कोई मूल्य नहीं है। वह भी क्षण सत्य था। उस क्षण में वैसा बर्तने का सहज भाव था। आज सारी स्थिति बदल गई। बर्तने का दूसरा भाव है। तो इस दूसरे भाव में कृष्ण दूसरा काम करते हैं। इन दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है। हमें विरोध दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम जिंदगी को असली मानते हैं।
आप इसे ऐसा समझें, आपको सपने का खयाल है। सपने का एक गुण है। सपने में आप कुछ से कुछ हो जाते हैं, लेकिन आपके भीतर कोई चिंता पैदा नहीं होती। आप जा रहे हैं। आप देखते हैं कि एक मित्र चला आ रहा है। और मित्र जब सामने आकर खड़ा हो
जाता है, तो अचानक घोड़ा हो जाता है, मित्र नहीं है। पर आपके भीतर यह संदेह नहीं उठता कि यह क्या गड़बड़ हो रही है ! मित्र था, अब घोड़ा कैसे हो गया? कोई संदेह नहीं उठता। असल में भीतर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि यह क्या गड़बड़ है ! जागकर भला आपको थोड़ी-सी चिंता हो, लेकिन तब आप कहते हैं, सपना है, सपने का क्या !
सपने में मित्र घोड़ा हो जाए, तो कोई चिंता पैदा नहीं होती । असलियत में आप चले जा रहे हों सड़क पर और उधर से मित्र आ रहा हो और अचानक घोड़ा हो जाए, फिर आपकी बेचैनी का अंत नहीं है। आपको पागलखाने जाना पड़ेगा कि यह क्या हो गया।
क्यों? क्योंकि इसको आप असलियत मानते हैं। कृष्ण इसको भी स्वप्न से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए जिंदगी में कृष्ण के लिए कोई संगति नहीं है । सब खेल है। और सब संगतियां क्षणिक हैं। और क्षण के पार उनका कोई मूल्य नहीं है।
कृष्ण की कोई प्रतिबद्धता, कोई कमिटमेंट नहीं है। किसी क्षण के लिए उनका कोई बंधन नहीं है। उस क्षण में जो है, जो सहज हो रहा है, वे कर रहे हैं। दूसरे क्षण में जो सहज होगा, वह करेंगे। | वे नदी की धार की तरह हैं। उसमें कोई बंधन, कोई रेखा, कोई रेल की पटरियों की तरह वे नहीं हैं कि रेलगाड़ी एक ही पटरी पर चली जा रही है। वे नदी की तरह हैं। जैसा होता है! पत्थर आ | जाता है, तो बचकर निकल जाते हैं। रेत आ जाती है, तो बिना बचे निकल जाते हैं।
आप यह नहीं कह सकते कि वहां पिछली दफा बचकर निकले थे और अब? अब रेत आ गई, तो सीधे निकले जा रहे हो बिना बचे, असंगति है !
नहीं, आप नदी से कुछ भी नहीं कहते। जब पहाड़ होता है, नदी बचकर निकल जाती है। तो आप यह नहीं कहते कि पहाड़ को काटकर क्यों नहीं निकलती! और जब रेत होती है, नदी बीच में से | काटकर निकल जाती है। तब आप यह नहीं कहते कि बड़ी बेईमान है! पहाड़ के साथ कोई व्यवहार, रेत के साथ कोई व्यवहार !
कृष्ण नदी की तरह हैं। जैसी परिस्थिति होती है, उसमें जो उनके | लिए सहज आविर्भूत होता है अभिनय, वह कर लेते हैं । और जिंदगी असलियत नहीं है। जिंदगी एक कहानी है, एक नाटक है, एक साइको ड्रामा । इसलिए उसमें उनको कोई चिंता नहीं है, कोई अड़चन नहीं है।
इस बात को जब तक आप ठीक से न समझ लेंगे, तब तक कृष्ण
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के जीवन को समझना बहुत कठिन है। क्योंकि कृष्ण बहुत रूप में कितना ही धोखा देना चाहे, सही और गलत कायम रहेगा। वासना हैं। और उस सब के पीछे कारण यही है कि कृष्ण का मौलिक | के साथ जुड़ा है सही और गलत का बोध। खयाल है कि जैसे ही पुरुष का भेद स्पष्ट हो गया, फिर सभी भांति __समझें इसे। आपको मैंने कह दिया कि न कुछ गलत है, न कुछ बर्तता हुआ भी व्यक्ति बंधन को उपलब्ध नहीं होता; जन्मों को | सही है। जैसा चाहो, वैसा बरतो। आप फौरन गए और चोरी कर उपलब्ध नहीं होता। वह सभी भांति बर्तता हुआ भी मुक्त होता है। | लाए। न कुछ गलत, न कुछ सही। लेकिन आपको चोरी का ही उसके वर्तन में आचरण और अनाचरण का भी कोई सवाल नहीं है। | खयाल क्यों आया सबसे पहले? फिर भी ठीक है। कुछ भी वर्तन
आचरण और अनाचरण का सवाल भी तभी तक है, जब तक | करें। आप ज्ञानी हो गए हैं, तो अब कोई आपको बाधा नहीं है। जिंदगी सत्य मालूम होती है। और जब जिंदगी एक स्वप्न हो जाती | लेकिन कोई आपकी चोरी कर ले गया, तब आप पुलिस में रिपोर्ट है, तो आचरण और अनाचरण दोनों समान हो जाते हैं। करने चले। और रो रहे हैं और कह रहे हैं, यह बहुत बुरा हुआ।
लेकिन एक सवाल उठेगा। तो क्या बुद्ध को और महावीर को मैंने तो सुना है, एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चला। यह पता नहीं चला ? क्या उनको यह पता नहीं चला कि हम अलग नौवीं बार मुकदमा चला। जज ने उससे पूछा कि तू आठ बार सजा हैं? और जब उन्हें पता चल गया कि हम अलग हैं, तो फिर उन्होंने भुगत चुका। तू बार-बार पकड़ जाता है। कारण क्या है तेरे पकड़े क्यों चिंता ली? फिर क्यों वे पंक्तिबद्ध, रेखाबद्ध, एक व्यवस्थित जाने का? उसने कहा, कारण साफ है कि मुझे अकेले ही चोरी और संगत, गणित की तरह जीवन को उन्होंने चलाया? करनी पड़ती है। मेरा कोई साझीदार नहीं है। अकेले ही सब काम
कुछ कारण हैं। वह भी व्यक्तियों की अपनी-अपनी भिन्नता, करना पड़ता है। तोड़ो दीवार, दरवाजे तोड़ो, तिजोरी तोड़ो, सामान अद्वितीयता का कारण है।
निकालो, बांधो, ले जाओ। कोई सहयोगी, पार्टनर न होने से सब सुना है मैंने कि एक बहुत बड़ा संत नारोपा अपने शिष्य को तकलीफ है। समझा रहा था कि जीवन तो अभिनय है। और जीवन में न कुछ तो उस जज ने पूछा कि तो तू सहयोगी क्यों नहीं खोज लेता, जब गलत है और न कुछ सही है। नारोपा ने कहा है कि सही और गलत आठ बार पकड़ा चुका! तो उसने कहा कि अब आप देखिए, जमाना का खयाल ही संसार है। कोई कहता है, यह सही है और यह गलत इतना खराब है कि किसी पार्टनर का भरोसा नहीं किया जा सकता। है; इतना ही भेद अज्ञानी बना देता है। न कुछ सही है, न कुछ गलत __चोर भी भरोसा रखने वाला पार्टनर खोजता है। और दुकानदारी है। यह ज्ञान है।
में तो चल भी जाए थोड़ी धोखाधड़ी, चोरी में नहीं चल सकती। तो उसके शिष्य ने कहा, आप तो बड़ी खतरनाक बात कह रहे चोरी में बिलकुल ईमानदार आदमी चाहिए। इसलिए चोरों में जैसे हैं। इसका मतलब हुआ कि हम जैसा चाहें वैसा आचरण करें? तो ईमानदार आपको मिलेंगे, वैसे दुकानदारों में नहीं मिल सकते। नारोपा ने कहा, तू समझा नहीं। जब तक तू कहता है, जैसा चाहें | | डाकुओं में, हत्यारों में जिस तरह की निष्ठा, भ्रातृत्व, भाईचारा
वैसा आचरण करें, जब तक चाह है, तब तक तो तुझे यह पता ही | | मिलेगा, वैसा अच्छे आदमियों में मिलना मुश्किल है। क्योंकि वहां नहीं चल सकता जो मैं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जब इतनी बुराई है कि उस बुराई को टिकने के लिए इतना भाईचारा न अनुभव होता है स्वयं का, तो पता चलता है, न कुछ गलत है, न | | हो, तो बुराई चल नहीं सकती। कुछ सही है। क्योंकि यह सब खेल है।
नारोपा ने कहा कि अगर तेरे भीतर चाह है, तो तू रुक। पहले लेकिन उसके शिष्य ने फिर कहा कि इसका तो मतलब यह हुआ चाह को छोड़। और जब तेरे भीतर कोई चाह न रहे, तब के लिए कि जो हम चाहें वह करें। नारोपा ने फिर कहा कि तू गलती कर रहा | | मैं कह रहा हूं कि फिर तू जैसा भी चाहे, वैसा बर्त। फिर कोई पाप है। जब तक तू चाहता है, तब तक मेरी बात तो तेरी समझ में ही | नहीं है, फिर कोई पुण्य नहीं है। नहीं आ सकती। जब सब चाह छोड़ देगा, तब तुझे यह खयाल | | इस तरह का विचार पश्चिम के नीति शास्त्रियों को बहुत अजीब आएगा। और तूने अगर मेरी बात का यह मतलब लिया कि जैसा लगता है। और वे सोचते हैं कि भारत में जो नीति पैदा हुई, वह चाहें हम करें, तो उसका तो अर्थ हुआ कि तू मेरी बात समझा ही | | इम्मारल है; वह नैतिक नहीं है। नहीं। चाह जिसके भीतर है, वासना जिसके भीतर है, वह तो | हमारे पास टेन कमांडमेंट्स जैसी चीजें नहीं हैं। परी गीता में
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बाइबिल जैसी टेन कमांडमेंट्स नहीं हैं, कि चोरी मत करो, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो। बल्कि उलटा यह कहा है कृष्ण ने कि अगर तुमको पता चल जाए कि यह पुरुष और प्रकृति अलग है, तो तुम जो हो, होने दो। फिर कोई बर्ताव हो, तुम्हारे लिए कोई बंधन नहीं है, कोई पाप नहीं है।
ईसाई बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है यह सोचकर, मुसलमान बड़ी दिक्कत में पड़ जाता है यह सोचकर कि गीता कैसा धर्म-ग्रंथ है! यह तो खतरनाक है।
अभी टर्की ने गीता पर नियंत्रण लगा दिया है, बंध लगा दिया है कि टर्की में गीता प्रवेश नहीं कर सकती। मेरे पास कुछ मित्रों ने पत्र लिखे हैं कि इसका आप भी विरोध करिए। गीता जैसी महान किताब पर टर्की ने क्यों प्रतिबंध लगाया ?
मैंने कहा, तुम्हें खुश होना चाहिए। कृष्ण को मरे पांच हजार साल हो गए होंगे और अभी भी गीता इतनी जिंदा है कि कोई मुल्क डरता है। खुश होना चाहिए। इसका मतलब है, गीता में अभी भी जान है, अभी भी ख़तरा और आग है। पर आग क्या है?
मुल्क में सब जगह विरोध हो गए। आर्यसमाजी हैं, फलां हैं, ढिकां हैं, जिनको विरोध करने का ही रस है, उन्होंने सबने विरोध कर दिया, प्रस्ताव कर दिए। और हमारे मुल्क में तो प्रस्ताव करने वालों की तो कोई कमी नहीं है। कि ऐसा नहीं होना चाहिए; बहुत बुरा हो गया; बड़ा अन्याय हो गया। लेकिन किसी ने खयाल न किया कि टर्की ने यह नियम लगाया क्यों है!
इस नियम के पीछे इस तरह के सूत्र हैं। क्योंकि यह भय मालूम पड़ता है कि अगर इस तरह की बात प्रचारित हो जाए, तो लोग . अनैतिक हो जाएंगे। यह भय थोड़ी दूर तक सच है । क्योंकि सामान्य आदमी अपने मतलब की बात निकाल लेता है।
गीता कहती है, जब पुरुष और प्रकृति का भेद स्पष्ट हो जाए, तो फिर कुछ भी बरतो, कोई पाप नहीं, कोई पुण्य नहीं, कोई बंधन नहीं; फिर कोई जन्म नहीं है। लेकिन पहली शर्त खयाल में रहे। अगर शर्त हटा दें हम, तो निश्चित ही एक अराजकता और अनैतिकता फैल सकती है। और तब टर्की अगर नियंत्रण लगाता हो कि गीता को मुल्क में नहीं आने देंगे, तो सामान्य आदमी को जो खतरा हो सकता है, उस खतरे की दृष्टि से ठीक ही है।
पर मैं तो खुश हुआ। खुश हुआ, क्योंकि इतनी पुरानी
किताबों पर कभी भी नियंत्रण नहीं लगते। क्योंकि जिंदा किताबें मर जाती हैं दो-चार-दस साल में। फिर उनसे कोई क्रांति-क्रांति
नहीं होती। पांच हजार साल ! उसके बाद भी कोई मुल्क चिंतित हो सकता है । तो उसका अर्थ है कि कोई चिंगारी, कोई बहुत विस्फोटक तत्व गीता में है ।
वह यही तत्व है, अनैतिक मालूम होता है।
अतिनैतिक है गीता का संदेश। सुपर इथिकल है। इथिकल तो बिलकुल नहीं है; नैतिक नहीं है। अतिनैतिक है। और उस | अतिनैतिकता को समझने में खतरा है। और जितनी ऊंचाई पर कोई चले, उतना ही डर है; गिर जाए, तो गड्ढे हैं बहुत बड़े । इस सूत्र को ठीक से समझ लेना ।
आपके मन में अगर कोई चाह बसी हो; मैं आपसे कहूं कि जो भी करना हो करो, कोई पाप नहीं है; और फौरन आपको खयाल आ जाए कि क्या करना है, तो आप समझ लेना कि आपके लिए अभी यह नियम नहीं है। यह सूत्र सुनकर, कि कुछ भी करो, कोई हर्ज नहीं है, आपके भीतर करने का कोई भी खयाल न उठे। यह सुनकर, कि कोई भी बरताव हो, कोई जन्म नहीं होगा; कोई दुख, कोई नरक नहीं होगा, और आपके भीतर कोई बरताव करने का खयाल न आए, तो यह सूत्र आपकी समझ में आ सकता है।
और तत्क्षण आपको लगे कि ऐसा? कुछ भी करो ! ले भागो पड़ोसी की पत्नी को !
क्योंकि मैंने सुना है, एक दफ्तर में ऐसा हो गया। दफ्तर के नौकर-चाकर ठीक से काम नहीं कर रहे थे, तो एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली मालिक ने | तो उसने कहा कि आप ऐसा करें, वहां एक तख्ती लगा दें। तख्ती में लिख दें कि जो भी कल करना है, वह आज करो; जो आज करना है, वह अभी करो। क्योंकि क्षणभर में प्रलय हो जाएगी, फिर कब करोगे! काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलै होएगी, बहुरि करोगे कब । तख्ती लगा दी बड़ी ।
दूसरे दिन मनोवैज्ञानिक पूछने आया कि क्या परिणाम हुआ । मालिक के सिर पर पट्टी बंधी थी। बिस्तर पर पड़े थे। उसने कहा, परिणाम? बरबाद हो गए ! क्योंकि टाइपिस्ट लड़की को लेकर भाग गया मुनीम । चिट्ठी लिख गया कि बहुत दिन से सोच रहा था कि कब भागूं । देखा कि काल करै सो आज कर, आज करै सो अब; पल में परलै होएगी, बहुरि करेगा कब । तो मैंने सोचा कि अब भागो । पल में परलै हो जाए, फिर कब करोगे!
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और वह जो आफिस बॉय था, उसने आकर जूते मार दिए सिर | क्योंकि वह कहता है, कई दिन से सोच रहे थे कि मारो। आफिस बॉय सोचता ही रहता है, कैसे मारें । उसको तो मालिक
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रोज ही मार रहा है। वह भी सोचता रहता है। उसने कहा कि जब लिखा ही है कि आज ही कर लो जो करना है, कल का कुछ भरोसा नहीं। तो उसने लगा दिए जूते।
जो कैशियर था, वह सब लेकर भाग गया। दफ्तर बंद पड़ा है। खूब कृपा की, उस मालिक ने कहा मनोवैज्ञानिक को, अच्छी तरकीब बताई। बरबाद कर डाला।
यह सूत्र आपके लिए नहीं है। यह सूत्र तभी है, जब पुरुष और प्रकृति का स्पष्ट बोध, भेद हो जाए, तो नीति का कोई बंधन नहीं है।
पांच मिनट रुकें। कीर्तन में सम्मिलित हों, और फिर जाएं।
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अध्याय 13 नौवां प्रवचन
पुरुष में थिरता के
चार मार्ग
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ध्यानेनात्मनि पश्यान्ति केचिदात्मानमात्मना । कृष्ण की शिक्षाएं प्रथम कोटि के मनुष्य की ही समझ में आ अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। २४ ।। | सकती हैं। वे अति जटिल हैं। और महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। से बहुत ऊंची हैं। थोड़ा कठिन होगा समझना। तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ।। २५।। __हम सबको समझ में आ जाता है कि चोरी करना पाप है। चोर यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । को भी समझ में आता है। आपको ही समझ में आता है, ऐसा नहीं;
क्षेत्राक्षेत्रजसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ।। २६ ।। | चोर को भी समझ में आता है कि चोरी करना बुरा है। लेकिन चोरी और हे अर्जुन, उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध करना बुरा क्यों है? हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य चोरी करना बुरा तभी हो सकता है, जब संपत्ति सत्य हो; पहली कितने ही ज्ञान-योग के द्वारा देखते हैं तथा अन्य कितने ही बात। धन बहुत मूल्यवान हो और धन पर किसी का कब्जा माना निष्काम कर्म-योग के द्वारा देखते हैं।
जाए, व्यक्तिगत अधिकार माना जाए, तब चोरी करना बुरा हो परंतु इनसे दूसरे अर्थात जो मंद बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं सकता है। इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले धन किसका है? एक तो यह माना जाए कि व्यक्ति का
पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं और वे सुनने के अधिकार है धन पर, इसलिए उससे जो धन छीनता है, वह परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निस्संदेह नुकसान करता है। दूसरा यह माना जाए कि धन बहुत मूल्यवान तर जाते हैं।
है। अगर धन में कोई मूल्य ही न हो, तो चोरी में कितना मूल्य रह हे अर्जुन, यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर-जंगम वस्तु उत्पन्न जाएगा? इसे थोड़ा समझें। होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही जितना मूल्य धन में होगा, उतना ही मूल्य चोरी में हो सकता है। उत्पन्न हुई जान।
अगर धन का बहुत मूल्य है, तो चोरी का मूल्य है। लेकिन कृष्ण जिस तल से बोल रहे हैं, वहां धन मिट्टी है।
यह बड़े मजे की बात है कि महावीर को मानने वाले जैन साधु पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भगवान भी कहते हैं, धन मिट्टी है। और फिर भी कहते हैं, चोरी पाप है। बुद्ध ने सत्य, अहिंसा, झूठ न बोलना, चोरी न करना, | मिट्टी को चुराना क्या पाप होगा? धन कचरा है। और फिर भी कहते बुरा न करना, यह सिखाया है। परंतु कृष्ण की गीता | हैं, चोरी पाप है! अगर धन कचरा है, तो चोरी पाप कैसे हो सकती में हिंसा का मार्ग बतलाया गया है। कृष्ण चोरी | है? कचरे को चुराने को कोई पाप नहीं कहता। वह धन लगता तो करना, झूठ बोलना, संभोग से समाधि की ओर जाना
| मूल्यवान ही है। सिखाते हैं। तो आप यह कहिए कि जो हिंसा का मार्ग असल में जो समझाते हैं कि कचरा है, वे भी इसीलिए अपने को बताता है, क्या वह भगवान माना जा सकता है? समझा रहे हैं, बाकी लगता तो उनको भी धन मूल्यवान है। इसलिए
धन की चोरी भी मूल्यवान मालूम पड़ती है।
मैं एक जैन मुनि के पास था, उन्होंने अपनी एक कविता मुझे ल द्ध, महावीर की शिक्षाएं नैतिक हैं और बहुत साधारण | सुनाई। उस कविता में उन्होंने बड़े अच्छे शब्द संजोए थे। और जो ५ आदमी को ध्यान में रखकर दी गई हैं। कृष्ण की | भी उनके आस-पास लोग बैठे थे, वे सब सिर हिलाने लगे। गीत
शिक्षाएं धार्मिक हैं और बहुत असाधारण आदमी को | अच्छा था; लय थी। लेकिन अर्थ? अर्थ बिलकुल ही व्यर्थ था। ध्यान में रखकर दी गई हैं।
अर्थ यह था उस गीत का कि हे सम्राटो, तुम अपने बद्ध. महावीर की शिक्षाएं अत्यंत साधारण बद्धि के आदमी की। | स्वर्ण-सिंहासनों पर बैठे रहो; मैं अपनी धूल में ही पड़ा हुआ मस्त भी समझ में आ जाएंगी; उनमें जरा भी अड़चन नहीं है। उसमें थर्ड हूं। मुझे तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन की कोई भी चाह नहीं। मेरे लिए रेट, जो आखिरी बुद्धि का आदमी है, उसको ध्यान में रखा गया है। तुम्हारा स्वर्ण-सिंहासन मिट्टी जैसा है। मैं तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासन को
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लात मारता हूं। मैं अपनी धूल में पड़ा हुआ फकीर मस्त हूं। मुझे | | उसी ऊंची जगह पर खड़े हैं, लेकिन वे बोल बहुत नीची जगह से तुम्हारे स्वर्ण-सिंहासनों की कोई भी जरूरत नहीं है। बार-बार यही रहे हैं, वहां जहां आप खड़े हैं। ध्वनि थी।
सदगुरु अपने हिसाब से चुनते हैं। वे किसको कहना चाहते हैं, गीत पूरा हो जाने पर मैंने उनसे पूछा कि अगर स्वर्ण-सिंहासनों इस पर निर्भर करता है। की सच में ही तुम्हें कोई फिक्र नहीं, तो यह गीत किसलिए लिखा | | महावीर आपको समझते हैं। वे जानते हैं कि आप चोर हो। और है? मैंने किसी सम्राट को इससे उलटा गीत लिखते आज तक नहीं आपको यह कहना कि चोरी और गैर-चोरी में कोई फर्क नहीं है, देखा, कि फकीरो, पड़े रहो अपनी मिट्टी में, हमें तुमसे कोई भी | | आप चोरी में ही लगे रहोगे। तो आपको समझा रहे हैं कि चोरी पाप ईर्ष्या नहीं। हम तुम्हारी फकीरी को लात मारते हैं। हम तुम्हारी | | है। हालांकि महावीर भी जानते हैं कि चोरी तभी पाप हो सकती है, फकीरी को दो कौड़ी का समझते हैं। हम अपने स्वर्ण-सिंहासन पर जब धन में मल्य हो। और जब धन में कोई मल्य नहीं है, चोरी में मजे में हैं। हमें तुमसे कोई ईर्ष्या नहीं है।
कोई मूल्य नहीं रह गया। मनुष्य जाति के हजारों साल के इतिहास में एक भी सम्राट ने ___ इसे हम ऐसा समझें। महावीर और बुद्ध समझा रहे हैं कि हिंसा ऐसा नहीं लिखा है। लेकिन फकीरों ने इस गीत जैसे बहुत गीत | पाप है और साथ ही यह भी समझा रहे हैं कि आत्मा अमर है, लिखे हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, फकीरों को | उसे काटा नहीं जा सकता। इन दोनों बातों में विरोध है। अगर मैं ईर्ष्या है। यह ईर्ष्या नहीं है, यह कहना भी ईर्ष्या से ही जन्म रहा है। | किसी को काट ही नहीं सकता, तो हिंसा हो कैसे सकती है? इसे
और फकीर कितना ही कह रहा हो, अपनी धूल में मस्त हैं, वह | थोड़ा समझें। अपने को समझा रहा है कि हम धूल में मस्त हैं। जान तो वह भी ___महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि हिंसा पाप है; किसी को मारो रहा है कि सम्राट सिंहासन पर मजा ले रहा है। नहीं तो सम्राट को | मत। और पूरी जिंदगी समझा रहे हैं कि मारा तो जा ही नहीं सकता, बीच में लाने का प्रयोजन क्या है? और स्वर्ण-सिंहासन अगर मिट्टी | क्योंकि आत्मा अमर है; और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने ही है, तो बार-बार दोहराने की जरूरत क्या है?
का कोई उपाय नहीं है। कोई भी तो नहीं कहता कि मिट्टी मिट्टी है। लोग स्वर्ण मिट्टी है,। | आपके भीतर दो चीजें हैं, शरीर है और आत्मा है। महावीर और ऐसा क्यों कहते हैं? स्वर्ण तो स्वर्ण ही दिखाई पड़ता है, लेकिन | | बुद्ध भी कहते हैं कि आत्मा अमर है, उसको मारा नहीं जा सकता; वासना को दबाने के लिए आदमी अपने को समझाता है कि मिट्टी और शरीर मरा ही हुआ है, उसको मारने का कोई उपाय नहीं है। है, क्या चाहना उसको! लेकिन चाह भीतर खड़ी है, उस चाह को | | तो फिर हिंसा का क्या मतलब है? फिर हिंसा में पाप कहां है? काटता है। मिट्टी है, क्या चाहना उसको!
आत्मा मर नहीं सकती, शरीर मरा ही हुआ है, तो हिंसा में पाप कैसे . यह स्त्री की देह है, इसमें कोई भी सौंदर्य नहीं है; हड्डी, | हो सकता है? और जब आप किसी को मार ही नहीं सकते, तो
मांस-मज्जा भरा है, ऐसा अपने को समझाता है। सौंदर्य उसको बचा कैसे सकते हैं? यह भी थोड़ा समझ लें। दिखाई पड़ता है। उसकी वासना मांग करती है। उसकी वासना ___ अहिंसा की कितनी कीमत रह जाएगी! अगर हिंसा में कोई मूल्य दौड़ती है। वह वासना को काटने के उपाय कर रहा है। वह यह नहीं है, तो अहिंसा का सारा मूल्य चला गया। अगर आत्मा काटी समझा रहा है कि नहीं, इसमें हड्डी, मांस-मज्जा है; कुछ भी नहीं | | ही नहीं जा सकती, तो अहिंसा का क्या मतलब है? आप हिंसा कर है। सब गंदी चीजें भीतर भरी हैं; यह मल का ढेर है।
ही नहीं सकते, अहिंसा कैसे करिएगा! इसे थोड़ा ठीक से समझें। लेकिन यह समझाने की जरूरत क्या है? मल के ढेर को देखकर | हिंसा कर सकते हों, तो अहिंसा भी हो सकती है। जब हिंसा हो ही कोई भी नहीं कहता कि यह मल का ढेर है, इसकी चाह नहीं करनी नहीं सकती, तो अहिंसा कैसे करिएगा? चाहिए। अगर स्त्री में मल ही दिखाई पड़ता है, तो बात ही खतम | | लेकिन महावीर और बुद्ध आपंकी तरफ देखकर बोल रहे हैं। वे हो गई; चाह का सवाल क्या है! और चाह नहीं करनी चाहिए, ऐसी जानते हैं कि आपको न तो आत्मा का पता है, जो अमर है; न धारणा का क्या सवाल है!
| आपको इस बात का पता है कि शरीर जो कि मरणधर्मा है। आप कृष्ण बहुत ऊंची जगह से बोल रहे हैं। महावीर और बुद्ध भी तो शरीर को ही अपना होना मान रहे हैं, जो मरणधर्मा है। इसलिए
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गीता दर्शन भाग-6
जरा ही क्रोध आता है, तो लगता है, दूसरे आदमी को तलवार से काटकर दो टुकड़े कर दो। आप जब दूसरे आदमी को काटने की सोचते हैं, तो आप दूसरे आदमी को भी शरीर मानकर चल रहे हैं। इसलिए हिंसा का भाव पैदा होता है।
इस हिंसा के भाव के पैदा होने में आपकी भूल है, आपका अज्ञान है। यह अज्ञान टूटे, इसकी महावीर और बुद्ध चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन कृष्ण का संदेश अंतिम है, आत्यंतिक है; वह अल्टिमेट है । वह पहली क्लास के बच्चों के लिए दिया गया नहीं है। वह आखिरी कक्षा में बैठे हुए लोगों के लिए दिया गया है।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू पागलपन की बात मत कर कि तू लोगों को काट सकता है। आज तक दुनिया में कोई भी नहीं काट सका। काटना असंभव है। क्योंकि वह जो भीतर है, शरीर को काटे जाने से कटता नहीं। वह जो भीतर है, शरीर को जलाने से जलता नहीं । वह जो भीतर है, शरीर को छेद सकते हैं। शस्त्र, वह छिदता नहीं। तो इसलिए तू पहली तो भ्रांति छोड़ दे कि तू काट सकता है। इसलिए तू हिंसक हो सकता है, यह बात ही भूल । और जब तू हिंसक ही नहीं हो सकता, तो अहिंसक होने का कोई सवाल नहीं है।
यह परम उपदेश है। और इसलिए जिनके पास छोटी बुद्धि है, सांसारिक बुद्धि है, उनकी समझ में नहीं आ सकेगा। पर कुछ हर्जा नहीं, वे महावीर और बुद्ध को समझकर चलें। जैसे-जैसे उनकी समझ बढ़ेगी, वैसे-वैसे उनको दिखाई पड़ने लगेगा कि महावीर और बुद्ध भी कहते तो यही हैं।
समझ बढ़ेगी, तब उनके खयाल में आएगा कि वे भी कहते हैं, आत्मा अमर है। वे भी कहते हैं कि आत्मा को मारने का कोई उपाय नहीं है। और वे भी कहते हैं कि धन केवल मान्यता है, उसमें कोई मूल्य है नहीं; मान्यता का मूल्य है। लेकिन जो माने हुए बैठे हैं, उनको छीनकर अकारण दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि दुख वे आपके द्वारा धन छीनने के कारण नहीं पाते हैं। वे धन में मूल्य मानते हैं, इसलिए पाते हैं।
थोड़ा समझ लें। अगर मेरा कोई धन चुरा ले जाता है, तो मैं जो दुख पाता हूं, वह उसकी चोरी के कारण नहीं पाता हूं; वह दुख इसलिए पाता हूं कि मैंने अपने धन में बड़ा मूल्य माना हुआ था । वह मेरे ही अज्ञान के कारण मैं पाता हूं, चोर के कारण नहीं पाता । मैं तो पाता हूं इसलिए कि मैं सोचता था, धन बड़ा मूल्यवान है और कोई मुझसे छीन ले गया।
कृष्ण कह रहे हैं, धन का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए न चोरी का कोई मूल्य है और न दान का कोई मूल्य है।
ध्यान रखें, धन में मूल्य हो, तो चोरी और दान दोनों में मूल्य है। फिर चोरी पाप है और दान पुण्य है। लेकिन अगर धन ही निर्मूल्य है, तो चोरी और दान, सब निर्मूल्य हो गए। यह आखिरी संदेश है।
इसका मतलब यह नहीं है कि आप चोरी करने चले जाएं। | इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप दान न करें। इसका कुल मतलब इतना है कि आप जान लें कि धन में कोई भी मूल्य नहीं है।
कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तू हिंसा करने में लग जा। क्योंकि कृष्ण तो मानते ही नहीं कि हिंसा हो सकती है। इसलिए कैसे कहेंगे कि हिंसा करने में लग जा! कृष्ण तो यह कह रहे कि. हिंसा-अहिंसा भ्रांतियां हैं। तू कर नहीं सकता। लेकिन करने की अगर तू चेष्टा करे, तो तू अकारण दुख में पड़ेगा।
इसे हम और तरह से भी समझें। क्योंकि यह बहुत गहरा है; और जैनों, बौद्धों और हिंदुओं के बीच जो बुनियादी फासला है, वह यह है।
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इसलिए गीता को जैन और बौद्ध स्वीकार नहीं करते। कृष्ण को उन्होंने नरक में डाला हुआ है। अपने शास्त्रों में उन्होंने लिखा है कि कृष्ण नरक में पड़े हैं। और नरक से उनका छुटकारा आसान नहीं है, क्योंकि इतनी खतरनाक बात समझाने वाला आदमी नरक में | होना ही चाहिए। जो यह समझा रहा है कि अर्जुन, तू बेफिक्री से का, क्योंकि कोई कटता ही नहीं है। इससे ज्यादा खतरनाक और क्या संदेश होगा !
और जो कह रहा है, किसी भी तरह का वर्तन करो, वर्तन का कोई मूल्य नहीं है; सिर्फ पुरुष के भाव में प्रतिष्ठा चाहिए। तुम्हारे आचरण की कोई भी कीमत नहीं है। तुम्हारा अंतस कहां है, यही सवाल है। तुम्हारा आचरण कुछ भी हो, उसका कोई भी मूल्य नहीं है, न निषेधात्मक, न विधायक। तुम्हारे आचरण की कोई संगति ही नहीं है। तुम्हारी आत्मा बस, काफी है। ऐसी समाज विरोधी, आचरण विरोधी, नीति विरोधी, अहिंसा विरोधी बात !
तो जैनों ने उन्हें नरक में डाल दिया है। और तब तक वे न छूटेंगे, जब तक इस सृष्टि का अंत न हो जाए। दूसरी सृष्टि जब जन्मेगी, तब वे छूटेंगे ।
ठीक है। जैनों की मान्यता के हिसाब से कृष्ण खतरनाक हैं, नरक में डालना चाहिए। लेकिन कृष्ण को समझने की कोशिश करें, तो कृष्ण ने इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम बात कही जा सकती है,
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पुरुष में थिरता के चार मार्ग
वह कही है। लेकिन कहने का ढंग भी उनका उतना ही श्रेष्ठ है, जितनी बात श्रेष्ठ है। उन्होंने उसे छोटे लोगों के लिए, साधारण बुद्धि के लोगों के लिए मिश्रित नहीं किया, समझौता नहीं किया है। उन्होंने आपसे कोई समझौता नहीं किया है। सत्य जैसा है, उसे वैसा ही कह दिया है। उसके क्या परिणाम होंगे, इसकी भी फिक्र नहीं
। और निश्चित ही कुछ लोग तो चाहिए, जो सत्य को वैसा ही कह दें जैसा है, बिना परिणामों की फिक्र किए। अन्यथा कोई भी सत्य कहा नहीं जा सकता ।
महावीर, बुद्ध समझाते हैं, दूसरे को दुख मत दो। और महावीर, बुद्ध यह भी समझाते हैं कि तुम्हें जब दुख होता है, तो तुम्हारे अपने कारण होता है, दूसरा तुम्हें दुख नहीं देता। इन दोनों बातों का मतलब क्या हुआ ?
. एक तरफ कहते हैं, दूसरे को दुख मत दो; दुख देना पाप है। दूसरी तरफ कहते हैं कि तुम्हें जब कोई दुख देता है, तो तुम अपने ही कारण दुख पाते हो, दूसरा तुम्हें दुख नहीं दे रहा है। दूसरा तुम को दुख दे नहीं सकता।
ये दोनों बातें तो विरोधी हो गईं। इसमें पहली बात साधारण बुद्धि लोगों के लिए कही गई है; दूसरी बात परम सत्य है । और अगर दूसरी सत्य है, तो पहली झूठ हो गई।
जब मैं दुख पाता हूं, तो महावीर कहते हैं कि तुम अपने कारण दुख पा रहे हो, कोई तुम्हें दुख नहीं देता । एक आदमी मुझे पत्थर मार देता है। महावीर कहते हैं, तुम अपने कारण दुख पा रहे हो । क्योंकि तुमने शरीर को मान लिया है अपना होना, इसलिए पत्थर लगने से शरीर की पीड़ा को तुम अपनी पीड़ा मान रहे हो। ठीक ! मैं किसी के सिर में पत्थर मार देता हूं, तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख मत पहुंचाओ।
यह बात कंट्राडिक्टरी हो गई। जब मुझे कोई पत्थर मारता है, तो दुख का कारण मैं हूं ! और जब मैं किसी को पत्थर मारता हूं, तब भी दुख का कारण मैं हूं !
यह दो तल पर है बात। दूसरे को दुख मत पहुंचाओ, यह क्षुद्र आदमी के लिए कहा गया है। क्योंकि क्षुद्र आदमी दूसरे को दुख पहुंचाने में बड़ा उत्सुक है; उसके जीवनभर का एक ही सुख है कि दूसरे को कैसे दुख पहुंचाएं। वह मरते दम तक एक ही बस काम करता रहता है कि दूसरों को कैसे दुख पहुंचाएं। जब वह सोचता भी है कि मेरा सुख क्या हो, तब भी दूसरे के दुख पर ही उसका सुख निर्भर होता है।
आप अपने सुखों को खोजें, तो आप पता लगा लेंगे कि जब तक आपका सुख दूसरे को दुख न देता हो, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप एक बड़ा मकान बना लें, लेकिन जब तक दूसरों के मकान छोटे न पड़ जाएं, तब तक सुख नहीं मालूम पड़ता। आप जो भी कर रहे हैं, आपके सुख में दूसरे के सुख को मिटाने की चेष्टा है।
इस तरह के आदमी के लिए महावीर और बुद्ध कह रहे हैं कि दूसरे को दुख पहुंचाओ मत। लेकिन यह बात ऐसे झूठ है, क्योंकि दूसरे को कोई दुख पहुंचा नहीं सकता, जब तक कि दूसरा दुख पाने | को राजी न हो। यह दूसरे की सहमति पर निर्भर है। आप पहुंचा नहीं सकते।
फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है ? ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि दूसरे को दुख पहुंचाने की चेष्टा में दूसरे को तो दुख नहीं पहुंचाया जा सकता, तुम अपने को ही दुख पहुंचाओगे। वह तो हो ही नहीं सकता दूसरे को दुख पहुंचाना, लेकिन तुम अपने को दुख |पहुंचाओगे। क्योंकि तुम दुख के बीज बो रहे हो। और जो तुम दूसरे के लिए करते हो, वह तुम्हारे लिए होता जाता है।
और जब तुम्हारे लिए कोई दुख पहुंचाए, तब तुम समझना कि | कोई दूसरा तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। यह हो सकता है कि तुम्हारे | अपने ही दूसरों को पहुंचाए गए दुखों के बीज दूसरे की सहायता से, संयोग से, निमित्त से अब तुम्हारे लिए फल बन रहे हों। लेकिन | दुख का मूल कारण तुम स्वयं ही हो।
यह दूसरी बात ऊंचे तल से कही गई है। और पहली बात को | जो पूरा कर लेगा, उसको दूसरी बात समझ में आ सकेगी। जो दूसरे
दुख पहुंचाना बंद कर देगा, उसे यह भी खयाल में आ जाएगा कि कोई दूसरा मुझे दुख नहीं पहुंचा सकता। यह दो तल की, दो कक्षाओं की बात है।
कृष्ण एक तल की सीधी बात कह रहे हैं, वे आखिरी बात कह रहे हैं। उनके सामने जो व्यक्ति खड़ा था, वह साधारण नहीं है। | जिस अर्जुन से वे बात कर रहे थे, उसकी प्रतिभा कृष्ण से जरा भी | कम नहीं है। संभावना उतनी ही है, जितनी कृष्ण की है। वह कोई मंद बुद्धि व्यक्ति नहीं है। वह धनी है प्रतिभा का । उसके पास वैसा ही निखरा हुआ चैतन्य है, वैसी ही बुद्धि है, वैसा ही प्रगाढ़ तर्क है। वे जिससे बात कर रहे हैं; वह शिखर की बात है।
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और इसीलिए गीता लोग कंठस्थ तो कर लेते हैं, लेकिन गीता को समझ नहीं पाते। और बहुत-से लोग जो गीता को मानते हैं, वे
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0 गीता दर्शन भाग-60
भी गीता में अड़चन पाते हैं। मान लेते हैं, तो भी गीता उनको | | ठहरे हुए हो। तुम सिर्फ भावनाओं में जा सकते हो। दिक्कत देती है। कठिनाई मालूम पड़ती है।
__ एक आदमी सोच रहा है कि दूसरे को मार डालूं, चोट पहुंचाऊं। __ महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को भी, जो गीता को माता कहते हैं, | | वह सब भावनाएं कर रहा है। वह जाकर शरीर को तोड़ भी सकता उनको भी गीता में तकलीफ है। क्योंकि यह हिंसा-अहिंसा उनको है। शरीर तक उसकी पहुंच हो जाएगी, क्योंकि शरीर टूटा ही हुआ भी सताती है। वे भी रास्ता निकालते हैं कोई। क्योंकि उनका मन | है। लेकिन वह जो भीतर चैतन्य था, उसको छू भी नहीं पाएगा। भी यह मानने की हिम्मत नहीं कर पाता कि कृष्ण जो कहते हैं, वह | | और अगर आपको लगता है कि आप छू पाए, तो अपने कारण ठीक ही कहते हैं कि काटो, कोई कटता नहीं। मारो, कोई मरता | नहीं, वह जो चैतन्य था भीतर, उसके भाव के कारण। अगर उसने नहीं। भयभीत मत होओ, डरो मत; तुम दूसरे को दुख पहुंचा नहीं | | मान लिया कि तुम मुझे मारने आए हो, तुम मुझे मार रहे हो, तुम सकते। इसलिए दूसरे को दुख न पहुंचाऊं, ऐसी चेष्टा भी व्यर्थ है। मुझे दुख दे रहे हो, तो यह उसका अपना भाव है। इस कारण तुम्हें
और मैंने दूसरे को दुख नहीं पहुंचाया, ऐसा अहंकार पागलपन है। लगता है कि तुम उसको दुख दे पाए। __ गांधी तक को तकलीफ होती है कि क्या करें। एक तरफ अहिंसा | ___ इसे हम ऐसा समझें। अगर आप महावीर को मारने जाएं, तो है। गांधी बुद्धि से जैन हैं, नब्बे प्रतिशत। जन्म से हिंदू हैं, दस | आप महावीर को दुख नहीं पहुंचा पाएंगे। बहुत लोगों ने मारा है प्रतिशत। तो गीता के साथ मोह भी है, लगाव भी है; कृष्ण को छोड़ और दुख नहीं पहुंचा पाए। महावीर के कानों में किसी ने खीले छेद भी नहीं सकते। और वह जो नब्बे प्रतिशत जैन होना है, क्योंकि दिए, लेकिन दुख नहीं पहुंचा पाए। क्यों? क्योंकि महावीर अब गुजरात की हवा जैनियों की हवा है। वहां हिंदू भी जैन ही हैं। उसके भावना नहीं करते। तम उन्हें दख पहंचाने की कोशिश करते हो. सोचने के तरीके के ढंग, वह सब जैन की आधारशिला पर निर्मित लेकिन वे दुख को लेते नहीं हैं। और जब तक वे न लें, दुख घटित हो गए हैं।
नहीं हो सकता। तुम-पहुंचाने की कामना कर सकते हो; लेने का तो गांधी गीता को भ्रष्ट कर देते हैं। वे फिर तरकीबें निकाल लेते | काम उन्हीं का है कि वे लें भी। जब तक वे न लें, तुम नहीं पहुंचा हैं समझाने की। वे कहते हैं, यह युद्ध वास्तविक नहीं है। यह युद्ध सकते। इसलिए महावीर को हम दुख नहीं पहुंचा सकते, क्योंकि तो मनुष्य के भीतर जो बुराई और अच्छाई है, उसका युद्ध है। यह | महावीर दुख लेने को अपने भीतर राजी नहीं हैं। कोई युद्ध वास्तविक नहीं है। और कृष्ण जो समझा रहे हैं आप उस व्यक्ति को दुख पहुंचा सकते हैं, जो दुख लेने को राजी काटने-पीटने को, यह बुराई को काटने-पीटने को समझा रहे हैं, | है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आपके कारण दुख नहीं लेता; मनुष्यों को नहीं। ये कौरव बराई के प्रतीक हैं: और ये पांडव भलाई| वह दुख लेने को राजी है, इसलिए लेता है। और अगर आप न के प्रतीक हैं। यह मनुष्य की अंतरात्मा में चलता शुभ और अशुभ | पहुंचाते, तो कोई और पहुंचाता। और अगर कोई भी पहुंचाने वाला का द्वंद्व है। बस, इस प्रतीक को पकड़कर फिर गीता में दिक्कत नहीं न मिलता, तो भी वह आदमी कल्पित करके दुख पाता। वह दुख रह जाती; फिर अड़चन नहीं रह जाती।
लेने को राजी था। वह कोई भी उपाय खोज लेता और दुखी होता। मगर यह बात सरासर गलत है। यह प्रतीक अच्छा है, लेकिन आप थोड़े दिन, सात दिन के लिए एक कमरे में बंद हो जाएं, यह बात गलत है। कृष्ण तो वही कह रहे हैं, जो वे कह रहे हैं। वे जहां कोई दुख पहुंचाने नहीं आता, कोई गाली नहीं देता, कोई क्रोध तो यह कह रहे हैं कि मारने की घटना घटती ही नहीं, इसलिए मार नहीं करवाता। आप चकित हो जाएंगे कि सात दिन में अचानक सकते नहीं हो, तो मारने की सोचो भी मत। पहली बात। और | आप किसी क्षण में दुखी हो जाते हैं, जब कि कोई दुख पहुंचाने बचाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। बचाओगे कैसे? वाला नहीं है। और किसी क्षण में अचानक क्रोध से भर जाते हैं,
तुम दूसरे के साथ कुछ कर ही नहीं सकते हो; तुम जो भी कर | जब कि किसी ने कोई गाली नहीं दी, किसी ने कोई अपमान नहीं सकते हो, अपने ही साथ कर सकते हो! और जब तुम दूसरे को | | किया। और किसी समय आप बड़े आनंदित हो जाते हैं, जब कि भी मारते हो, तो तुम अपने को ही मार रहे हो। जब तुम दूसरे को कोई प्रेम करने वाला नहीं है। बचाते हो, तो तुम अपने को ही बचा रहे हो। कृष्ण यह कह रहे हैं . अगर सात दिन आप मौन में, एकांत में बैठे, तो आप चकित हो कि तुम अपने से बाहर जा ही नहीं सकते। तुम अपने पुरुष में ही जाएंगे कि आपके भीतर भावों का वर्तन चलता ही रहता है। और
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ॐ पुरुष में थिरता के चार मार्ग
बिना किसी के आप सुखी-दुखी भी होते रहते हैं।
आप कहेंगे, हम चलेंगे किसलिए? चलने का कोई अर्थ ही न रहा, एक दफा यह आपको दिखाई पड़ जाए कि मैं बिना किसी के कोई प्रयोजन न रहा, कोई कारण न रहा, तो चलेंगे किसलिए? कोई सुखी-दुखी हो रहा हूं, तो आपको खयाल आ जाएगा कि दूसरे पागल तो नहीं हैं कि अकारण चलते रहें, जब कि कहीं पहुंचने को ज्यादा से ज्यादा आपको अपनी भावनाएं टांगने के लिए खूटी का | | नहीं है, कोई वासना नहीं है, कोई चाह नहीं है, कोई मंजिल नहीं है। काम करते हैं, इससे ज्यादा नहीं। वे निमित्त से ज्यादा नहीं हैं। । | हम कर्म करते हैं किसी वासना से। तो उन मित्र का पूछना
यही कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि तू निमित्त से ज्यादा नहीं| बिलकुल ठीक है कि जब वासना ही मिट गई और कर्म अभिनय है। तू यह खयाल ही छोड़ दे कि तू कर्ता है। उस कर्ता में ही कृष्ण | | है, यह समझ में आ गया; और कुछ पाने योग्य नहीं है, कुछ के लिए एकमात्र अज्ञान है।
पहुंचने योग्य नहीं है, यह दृष्टि स्पष्ट हो गई; तो कृष्ण का यह हमें समझ में आता है कि हिंसा करना बुरा है। हमें यह समझ में कहना कि फिर जो भी वर्तन हो, होने दें, फिर न कोई जन्म होगा, नहीं आता कि अहिंसा करना भी बुरा है। हिंसा करना बुरा है, | न वर्तन का कोई कर्म परिणाम होगा-इसका क्या अर्थ है? फिर क्योंकि दूसरे को दुख पहुंचता है, हमारा खयाल है। लेकिन कृष्ण वर्तन होगा ही क्यों? के हिसाब से हिंसा करना इसलिए बुरा है कि कर्ता का भाव बुरा है, यह थोड़ा जटिल और टेक्निकल है सवाल। इसे समझने की कि मैं कर रहा हूं। इससे अहंकार घना होता है।
कोशिश करें। अगर हिंसा करना बुरा है कर्ता के कारण, तो अहिंसा करना भी | | करीब-करीब बात ऐसी है कि आप एक साइकिल पर चल रहे उतना ही बरा है कर्ता के कारण। और कृष्ण कहते हैं, जड़ को ही हैं, पैडल चला रहे हैं। फिर आपने पैडल रोक दिए। पैडल रुकते काट दो; तुम कर्ता मत बनो। न तो तुम हिंसा कर सकते हो, न तुम से ही साइकिल नहीं रुक जाएगी। हालांकि रुक जाना चाहिए, अहिंसा कर सकते हो। तुम कुछ कर नहीं सकते। तुम केवल हो | | क्योंकि पैडल से चलती थी। पैडल चलाने से चलती थी, बिना सकते हो। तुम अपने इस होने में राजी हो जाओ। फिर जो कुछ हो | | पैडल चलाए साइकिल नहीं चल सकती थी। पैडल से चलती थी। रहा हो, उसे होने दो।
लेकिन आपने पैडल रोक दिए, तो भी साइकिल थोड़ी दूर जाएगी। और थोड़ी दूर जाना बहुत चीजों पर निर्भर होगा। थोड़ी दूर
बहुत दूर भी हो सकती है, अगर साइकिल उतार पर हो। अगर एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि अगर यह बात सच है |चढ़ाव पर हो, तो थोड़ी दूर बहुत कम दूर होगी। अगर समतल पर कि मैं कुछ न करने में ठहर जाऊं, पुरुष में ठहर जाऊं, | हो, तो भी काफी दूर होगी। अगर बिलकुल उतार हो, तो मीलों भी
अपने चैतन्य में साक्षी-भाव से रुक जाऊं, तो कृष्ण जा सकती है। साइकिल का पैडल बंद करते से साइकिल नहीं . कहते हैं, फिर जो भी वर्तन हो, उस वर्तन से कुछ भी | | रुकेगी, क्योंकि पैडल जो पीछे आपने चलाए थे अतीत में, उनसे
हानि-लाभ नहीं है, कोई पाप-पुण्य नहीं है। उन मित्र | | मोमेंटम पैदा होता है, उनसे गति पैदा होती है और चाकों में गति ने पूछा है कि जब मेरी सब चाह मिट गई, वासना | भर जाती है। वह गति काम करेगी। मिट गई, और जब मैंने अपने पुरुष को जान लिया, जिस दिन कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है और पुरुष में तो वर्तन होगा ही कैसे? जब मैं अपने आत्मा में ठहर | ठहर जाता है, तब भी शरीर में मोमेंटम रहता है। शरीर चाक की गया, तो वर्तन होगा ही कैसे?
| तरह गति इकट्ठी कर लेता है अनेक जन्मों में। अगर उतार पर यात्रा
हो, तो शरीर बहुत लंबा चल जाएगा।
___ इसलिए जिन लोगों को पैंतीस साल के पहले ज्ञान उपलब्ध हो गह बात सोचने जैसी है। यह सवाल उठेगा, क्योंकि हम || जाता है, उनको शरीर को लंबा चलाना बहुत कठिन है। क्योंकि 4 जितना भी वर्तन जानते हैं, वह चाह के कारण है। पैंतीस साल पीक है, पैंतीस साल के बाद शरीर में उतार शुरू होता
आप चलते हैं, क्योंकि कहीं पहुंचना है। कोई कहे कि है। इसलिए विवेकानंद, शंकर या क्राइस्ट, जो बहुत जल्दी ज्ञान को कहीं पहुंचने की जरूरत नहीं है, फिर चलना हो जितना, चलो। तो | | उपलब्ध हो गए, पैंतीस साल के पहले मर जाते हैं। शरीर में
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O गीता दर्शन भाग-60
मोमेंटम है, लेकिन अब यह यात्रा शरीर की ऊपर की तरफ थी। । को कैंसर होता है। तो इतने परम ज्ञानी को कैंसर हो जाए!
पैंतीस साल तक शरीर ऊपर की तरफ जाता है। सत्तर साल में बहुत कारणों में एक कारण यह भी है कि जिनका भी भीतर शरीर मौत होने वाली है, तो पैंतीस साल में पीक होती है। अस्सी साल | के साथ गति का संबंध टूट गया...। वह संबंध ही वासना का है, में मौत होने वाली है, तो चालीस साल में पीक होती है। सौ साल चाह का है। कहीं पहुंचना है, इसलिए पैडल चलाते थे। अब कहीं में मौत होने वाली है, तो पचास साल में पीक होती है। पैंतीस मैं | | भी नहीं पहुंचना है; पैडल चलना बंद हो गया। लेकिन पुरानी शक्ति औसत ले रहा हूं।
और अर्जित ऊर्जा के कारण शरीर चलेगा। लेकिन जो लोग पैंतीस साल के बाद ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, कृष्ण का यह जो कहना है कि जब कोई पुरुष में थिर हो जाता उनका शरीर काफी लंबा चल जाता है, क्योंकि शरीर तब उतार पर | है, फिर जो भी वर्तन होता है, उससे कोई कर्म-बंध नहीं होता। होता है और पुराना मोमेंटम काफी गति देता है। इसलिए बहुत-से क्योंकि कर्म-बंध वर्तन के कारण नहीं होता; कर्म-बंध चाह के ज्ञानी जो पैंतीस साल के पहले निर्वाण को उपलब्ध होते हैं. जिंदा कारण होता है। नहीं रह पाते, ज्यादा देर जिंदा नहीं रह पाते। कठिन है जिंदा रहना। और वर्तन थोड़ी देर जारी रहेगा। वर्तन पुराने लीक पर जारी या फिर जिंदा रहने के लिए उन्हें उपाय करने पड़ते हैं; कोई व्यवस्था | रहेगा। थोड़े दिन तक जीवन की धारा और बहेगी। लेकिन यह एक जुटानी पड़ती है।
| ही शरीर तक हो सकती है। अगर उनके पास कोई संदेश हो जिसे उन्हें हस्तांतरित करना है, इसलिए ज्ञानी का दूसरा जन्म नहीं होगा। क्योंकि बिना मोमेंटम और वह व्यक्ति मौजूद न हो जिसको संदेश हस्तांतरित करना है, के, बिना पैडल चलाए नई साइकिल नहीं चलेगी। अगर आप अभी या उन व्यक्तियों के बनने में, निर्मित होने में समय हो, तो फिर उन सवार हों सीधा साइकिल पर, और बिलकुल बिना पैडल चलाए व्यक्तियों को इंतजाम करना पड़ता है। लेकिन भीतर जो चाह का उस पर सवार हो जाएं, तो न तो सवार हो सकते हैं, सवार हो भी पैडल था, वह बंद होते से ही कठिनाई शुरू हो जाती है। जाएं तो फौरन गिर जाएंगे। नया शरीर नहीं चलेगा; पुराना शरीर
इसलिए अगर आपको बहुत ज्ञानी बहुत खतरनाक बीमारियों से थोड़े दिन चल सकता है। उस थोड़े दिन में जो भी होगा, उसका मरते मालूम पड़ते हैं, तो उसका कारण है। उसका कारण है कि कोई कर्म-बंध नहीं होगा। और यह बात उचित है, क्योंकि कुछ शरीर को जो गति होनी चाहिए, वह देने वाली चाह तो समाप्त हो वर्तन तो होगा ही। गई। अब तो शरीर पुरानी अर्जित शक्ति से ही चलता है, वह शक्ति महावीर को चालीस साल में ज्ञान हुआ, फिर वे अस्सी साल तक बहुत कम होती है। कोई भी बीमारी तीव्रता से पकड़ ले सकती है। | जिंदा रहे। तो चालीस साल जो जिंदा रहे ज्ञान के बाद, उन्होंने कुछ क्योंकि रेसिस्टेंस कम हो जाता है।
तो किया ही। दुकान नहीं चलाई, राज्य नहीं किया। किसी की हत्या ऐसा समझिए कि आप पैडल चला रहे थे साइकिल पर। और नहीं की, लेकिन फिर भी कुछ तो किया ही। श्वास तो ली; श्वास में कोई अगर आपको धक्का मार देता है, तो हो सकता था, आप न | भी कीटाणु मरे। पानी तो पीया; पानी में भी कीटाणु मरे। रास्ते पर भी गिरते। अगर गति तेज होती, तो आप धक्के को सम्हाल जाते। चले; पैदल चलने से भी कीटाणु मरे। रात सोए, जमीन पर लेटे, और आप बिना पैडल चलाए साइकिल पर थिरे हुए थे, जैसे चील उससे भी कीटाणु मरे। भोजन किया, उसमें भी हिंसा हुई। बोले, आकाश में बिना पंख चलाए थिरी हो। बस, धीमे-धीमे साइकिल | उसमें भी हिंसा हुई। आंख की पलकें झपकीं, उसमें भी हिंसा हुई। चल रही थी मंद गति से; और कोई जरा-सा धक्का दे दे, आप जीवित होना ही हिंसा है। बिना हिंसा के तो क्षणभर जीवित भी फौरन गिर पड़ेंगे। रेसिस्टेंस कम होगा। जितनी तेज गति होगी, नहीं रहा जा सकता। एक श्वास आप लेते हैं, कम से कम एक रेसिस्टेंस ज्यादा होगा; जितनी कम गति होगी, उतनी प्रतिरोधक लाख कीटाणु मर जाते हैं। तो कैसे बचिएगा? महावीर भी नहीं बच शक्ति कम हो जाती है।
सकते। श्वास तो लेंगे। भोजन कम कर देंगे, लेकिन भोजन लेंगे तो रामकृष्ण और रमण अगर कैंसर से मरते हैं, तो उसका कारण | तो। हिंसा कम हो जाएगी, लेकिन होगी तो।।
| है। बहुत लोगों को चिंता होती है कि इतने परम ज्ञानी और इन्हें तो । तो अगर चालीस साल, ज्ञान के बाद, हिंसा जारी रही, तो मुक्ति कम से कम कैंसर नहीं होना चाहिए। क्योंकि हम सोचते हैं, पापियों कैसे होगी? फिर कर्म-बंध हो जाएगा। इतनी हिंसा के लिए फिर
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से जन्म लेना पड़ेगा। अब यह बड़ा जटिल विशियस सर्किल है। अगर इस हिंसा के लिए फिर से जन्म लेना पड़े, तो जन्म लेते से ही नई हिंसा शुरू जाएगी। तो फिर छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। मुक्ति होगी कैसे ? जन्म-मरण से छुटकारा कैसे होगा? महावीर भी मानते हैं कि जैसे ही परम ज्ञान हो जाता है, फिर जो भी हो रहा है, उस होने से कोई बंध नहीं होता; उस होने से फिर कोई बंधन पैदा नहीं होता। तो ही मुक्ति संभव है, नहीं तो मुक्ति असंभव है। क्योंकि कुछ भी बाकी रहा, तो मुक्ति असंभव है। ज्ञान के बाद जो भी हो, उसका बंधन नहीं होगा। नहीं होगा इसलिए कि हम उसे कर नहीं रहे हैं। वह पुरानी क्रियाओं की इकट्ठी शक्ति के द्वारा हो रहा है। सच पूछें तो वह वर्तमान में हो ही नहीं रहा है । वह अतीत का ही हिस्सा है, जो आगे लुढ़का जा रहा है। जिस दिन आपका शरीर और आपका कर्म बिना पैडल चलाए साइकिल की तरह लुढ़कने लगते हैं और आप सिर्फ द्रष्टा रह हैं, उस दिन आपके लिए फिर कोई भविष्य, कोई जन्म, कोई जीवन नहीं है।
एक और मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि व्यक्ति जैसा भाव करता है, वैसा ही बन जाता है। तो क्या मुक्त होने के भाव को गहन करने से वह मुक्त भी हो सकता है?
क
भी भी नहीं। क्योंकि मुक्त होने का अर्थ ही है, से मुक्त हो जाना। इसलिए संसार में सब कुछ हो | सकता है भाव से, मुक्ति नहीं हो सकती। मुक्ति संसार का हिस्सा नहीं है।
भाव है संसार का विस्तार या संसार है भाव का विस्तार | तो आप जो भी भाव से चाहें, वही हो जाएंगे। स्त्री होना चाहें, स्त्री; पुरुष होना चाहें, पुरुष; पशु होना चाहें, पशु, पक्षी होना चाहें, पक्षी; स्वर्ग में देवता होना चाहें तो, नरक में भूत-प्रेत होना चाहें तो, जो भी आप होना चाहें - एक मुक्ति को छोड़करअपने भाव से होते हैं और हो सकते हैं।
- आप
मुक्ति का अर्थ ही उलटा है। मुक्ति का अर्थ है कि अब हम कुछ भी नहीं होना चाहते। अब जो हम हैं, हम उससे ही राजी हैं। अब हम कुछ होना नहीं चाहते हैं।
जब तक आप कुछ होना चाहते हैं, तब तक आप जो हैं, उससे आप राजी नहीं हैं। कुछ होना चाहते हैं। गरीब अमीर होना चाहता है; स्त्री पुरुष होना चाहती है; दीन धनी होना चाहता है। कुछ होना चाहते हैं। पशु पुरुष होना चाहता है; पुरुष स्वर्ग में देवता होना चाहता है। लेकिन कुछ होना चाहते हैं, कुछ होना चाहते हैं।
होना चाहने का अर्थ है कि जो मैं हूं, उससे मैं राजी नहीं हूं; मैं कुछ और होना चाहता हूं। और जो आप हैं, वही आपका सत्य है। और जो भी आप होना चाहते हैं, वह झूठ है।
भाव से झूठ पैदा हो सकते हैं, सत्य पैदा नहीं होता। सत्य तो है ही । इसलिए सभी भाव असत्य को जन्माते हैं। सारा संसार | इसीलिए माया है, क्योंकि वह भाव से निर्मित है।
आप जो होना चाहते हैं, वह हो जाते हैं। जो आप हैं, वह तो आप हैं ही। वह इस होने के पीछे दबा पड़ा रहता है। जैसे राख में अंगारा दबा हो, ऐसे आपके होने में, बिकमिंग में आपका बीइंग, आपका अस्तित्व दबा रहता है।
जिस दिन आप थक जाते हैं होने से, और आप कहते हैं, अब कुछ भी मुझे होना नहीं है, अब तो जो मैं हूं, राजी हूं। अब मुझे कुछ भी नहीं होना है। अब तो जो मेरा होना है; वही ठीक है। मेरा अस्तित्व ही अब मेरे लिए काफी है। अब मेरी कोई वासना, कोई दौड़ नहीं है। जिस आपकी भाव की यात्रा बंद हो जाती है, आप मुक्त हो जाते हैं।
इसलिए भावना से आप मुक्त न हो सकेंगे। भावना संसार का | स्रोत है। भावना रुक जाएगी, तो आप मुक्त हो जाएंगे। यह कहना भी ठीक नहीं कि मुक्त हो जाएंगे; क्योंकि मुक्त आप हैं। भावना के कारण आप बंधे हैं। आपकी मुक्ति भावना के जाल में बंधी है। जिस दिन भावना का जाल गिर जाएगा, आप मुक्त हैं।
आप सदा मुक्त थे । मोक्ष कोई भविष्य नहीं है। और मोक्ष कोई स्थान नहीं है। ध्यान रहे, मोक्ष आपका स्वभाव है। आप जो हैं अभी, इसी वक्त, इसी क्षण, वही आपका मोक्ष है।
लेकिन वह आप होना नहीं चाहते। आप कुछ और होना चाहते हैं। कोई भी स्वयं होने से राजी नहीं है। कोई कुछ और होना चाहता | है, कोई कुछ और होना चाहता है।
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राजनीतिज्ञ रे पास आते हैं, वे साधु होना चाहते हैं। साधु मेरे | पास आते हैं, उनकी बातें सुनकर लगता है कि वे राजनीतिज्ञ होना चाहते हैं। गरीब अमीर होना चाहता है। अमीर मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि बुरे उलझ गए हैं, बड़ी मुसीबत में हैं। इससे तो
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गीता दर्शन भाग-6
गरीबी बेहतर।
हमने जाना भी है, बुद्ध और महावीर अमीर घरों में पैदा हुए और गरीब हो गए। छोड़कर सड़क पर खड़े हो गए।
अमीर गरीब होना चाहता है। आज अमेरिका में गरीब होने की दौड़ खड़ी हो रही है, क्योंकि अमेरिका खूब अमीर हो गया है। तो नए बच्चे, लड़के, लड़कियां हिप्पी हो रहे हैं; वे छोड़ रहे हैं। वे कहते हैं, भाड़ में जाए तुम्हारा धन, तुम्हारे महल, तुम्हारी कारें कुछ भी नहीं चाहिए। हमें जिंदगी चाहिए सीधी, सरल।
अमीर गरीब होना चाहते हैं; गरीब अमीर होना चाहते हैं । कोई कुछ होना चाहता है, कोई कुछ होना चाहता है। एक बात पक्की है कि कोई भी स्वयं नहीं होना चाहता।
आप भी अपने भीतर न मालूम क्या - क्या सोचते रहते हैं। कोई को गांधी बनना है, किसी को विवेकानंद बनना है, किसी को क्राइस्ट बनना है। बस, एक बात भर नहीं, जो आप हैं, वह भर नहीं बनना है; बाकी सब बनना है।
संसार का अर्थ है, कुछ और होने की दौड़ । मोक्ष का अर्थ है, स्वयं होने के लिए राजी हो जाना। उसके लिए किसी भावना की जरूरत नहीं है। इसलिए अगर आप भावना करके मुक्त होंगे, तो वह मुक्ति झूठी होगी। वह भी चेष्टित और मन का ही फैलाव होगी।
कई लोग भावना करके मुक्त होने की चेष्टा करते रहते हैं। ऐसा समझाते रहते हैं कि हम तो आत्मा हैं, मुक्त हैं। यह शरीर मैं नहीं हूं, यह संसार मैं नहीं हूं। ऐसा समझा-समझाकर, कोशिश कर-करके, चेष्टा से अपने को मुक्त मान लेते हैं। उनकी मुक्ति भी चेष्टित है।
चेष्टित कोई मुक्ति हो सकती है? जिसके लिए चेष्टा करना पड़े, वह मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि चेष्टा तो बंधन बन जाती है। और जिसको सम्हालना पड़े रोज-रोज, वह मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि मुक्ति तो वही है जिसे सम्हालना न पड़े, ही ।
नदी को नदी होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती है। बादलों को आकाश में बादल होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती। आपके भीतर भी जो स्वभाव है, वह नदी और बादलों की तरह है । उसे होने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी है। और आप चेष्टा में लगे हैं।
इसलिए एक बहुत कीमती बात समझ लें।
जो दुनिया में परम ज्ञान के संदेशवाहक हुए हैं, उन्होंने कहा है कि वह जो परम ज्ञान है, चेष्टारहित है, एफर्टलेस है। उसमें कोई
प्रयत्न नहीं है । उसमें कुछ भी किया कि गलती हो जाएगी। उसमें कुछ करना भर मत। करना बंद कर देना और कुछ मत करना । यह जो करने का जाल है, इसे छोड़ देना; और तुम न करने में
ठहर जाना ।
यह कृष्ण यही कह रहे हैं कि वह जो पुरुष है, वह न तो कुछ करता है, न कुछ भोगता है। वह सिर्फ है। शुद्ध स्वभाव है।
उस पुरुष को ऐसे शुद्ध स्वभाव में जान लेना और समझना कि सब कुछ प्रकृति करती है और सब कुछ प्रकृति में होता है और मुझमें कुछ भी नहीं होता। मैं हूं निष्क्रिय; प्रकृति है सक्रिय । कर्म मात्र प्रकृति में हैं और मैं अकर्म हूं- ऐसी प्रतीति, ऐसा बोध, ऐसा इलहाम ऐसा एहसास - फिर कोई बंधन नहीं है, फिर कोई संसार - नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
हे अर्जुन, उस परम पुरुष को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञान- योग के द्वारा देखते हैं। और अन्य कितने ही निष्काम कर्म - योग के द्वारा देखते हैं।
ध्यान
कृष्ण कहते हैं, वह जो परम पुरुष की स्थिति है, उस स्थिति को | देखने के बहुत द्वार हैं। कुछ लोग शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ' के द्वारा उसे हृदय में देखते हैं । शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के
द्वारा...।
बुद्धि को सूक्ष्म और शुद्ध करने की प्रक्रियाएं हैं। बुद्धि साधारणतया स्थूल है। और स्थूल होने का कारण यह है कि स्थूल विषयों से बंधी है।
आप क्या सोचते हैं बुद्धि से ? अगर आप अपने मन का विश्लेषण करें, तो आप पाएंगे कि आपके सोचने-विचारने में कोई पचास प्रतिशत से लेकर नब्बे प्रतिशत तो कामवासना का प्रभाव होता है। उसका अर्थ है, आप शरीरों के संबंध में सोचते हैं। पुरुष स्त्रियों के शरीर के संबंध में सोचता रहता है।
तो जब आप शरीर के संबंध में सोचते हैं, तो बुद्धि भी शरीर जैसी ही स्थूल हो जाती है। बुद्धि जो भी सोचती है, उसके साथ तत्सम हो जाती है।
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अगर आप शरीरों के संबंध में कम सोचते हैं, कामवासना से कम ग्रसित हैं, तो धन के संबंध में सोचते हैं। मकानों, कारों के संबंध में सोचते हैं, जमीन-जायदाद के संबंध में सोचते हैं। वह भी सब स्थूल है। और उसमें भी बुद्धि वैसी ही हो जाती है, जो आप
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o पुरुष में थिरता के चार मार्ग
सोचते हैं। जो आप सोचते हैं, बुद्धि उसी का रूप ग्रहण कर लेती से सूक्ष्म को सुनूं। है। सोचते-सोचते, सोचते-सोचते बुद्धि वैसी ही हो जाती है। ऐसा करें कि बाजार में आप खड़े हैं। आंख बंद कर लें। जो तेज
खयाल करें आप, आप जो भी सोचते हैं, क्या आपकी बुद्धि आवाज है, वह तो अपने आप सुनाई पड़ती है। बीच बाजार में उसी तरह की नहीं हो गई है? एक चोर की बुद्धि चोर हो जाती है। | सड़क पर खड़े होकर आंख बंद करके इन सारी आवाजों में जो एक कंजूस की बुद्धि कंजूस हो जाती है। एक हत्यारे की बुद्धि हत्या | | सबसे सूक्ष्म आवाज है, उसे पकड़ने की कोशिश करें। से भर जाती है। जो भी वह कर रहा है, सोच रहा है, चिंतन कर | __ आप बहुत चकित होंगे कि जैसे ही आप सूक्ष्म को पकड़ने की रहा है, मनन कर रहा है, वह धीरे-धीरे उसकी बुद्धि का रूप हो | कोशिश करेंगे, जो बड़ी आवाजें हैं, वे आपके ध्यान से अलग हो जाता है।
जाएंगी, फौरन हट जाएंगी; और सूक्ष्म आवाजें प्रकट होने लगेंगी। बुद्धि को सूक्ष्म करने का अर्थ है कि धीरे-धीरे स्थूल पदार्थों से और आप कभी चकित भी हो सकते हैं कि एक पक्षी वृक्ष पर बोल बुद्धि को मुक्त करना है और उसे सूक्ष्म आब्जेक्ट, सूक्ष्म विषय देना | | रहा था, वह सड़क के ट्रैफिक और उपद्रव में अचानक आपको है। जैसे कि आप सूरज को देखें, तो यह स्थूल है। फिर आप आंख सनाई पड़ने लगा। सारा ट्रैफिक जैसे दर हो गया और पक्षी की धीमी बंद कर लें और सूरज का जो बिंब भीतर आंख में रह गया, आवाज प्रकट हो गई। निगेटिव, उस बिंब पर ध्यान करें। वह बिंब ज्यादा सूक्ष्म है। फिर स्थूल आवाजों को छोड़कर सूक्ष्म को सुनने की कोशिश करें।
आप बिंब पर ध्यान करते जाएं, ध्यान करते जाएं। आप पाएंगे कि | उस मात्रा में आपकी बुद्धि सूक्ष्म होगी। फिर धीरे से कान को बंद बिंब थोड़ी देर में खो जाता है।
| करके भीतर की आवाजें सुनें। जब ऐसे-ऐसे कोई उतरता जाता है, लेकिन अगर आप रोज ध्यान करेंगे, तो बिंब ज्यादा देर टिकने तो आखिरी जो सूक्ष्मतम आवाज है, नाद है भीतर, ओंकार की लगेगा। बिंब ज्यादा देर नहीं टिकता, आपकी बुद्धि सूक्ष्म हो जाती ध्वनि, वह सुनाई पड़नी शुरू होती है। जिस दिन वह सुनाई पड़ने है, इसलिए आप ज्यादा देर तक उसे देख पाते हैं। रोज-रोज आप लगे, समझना आपके पास शुद्ध सूक्ष्म बुद्धि पैदा हो गई। नाद करेंगे, तो आप पाएंगे कि सूरज को देखने की जरूरत ही न रही, | सुनाई पड़ने लगे, तो वह पहचान है कि आपके भीतर शुद्ध बुद्धि आप आंख बंद करते हैं और सूक्ष्म बिंब उपस्थित हो जाता है। अब पैदा हो गई। आप इस बिंब को देखते रहते हैं, देखते रहते हैं।
इसलिए हम अपने विद्यालयों में इस मुल्क में पहला काम यह पहले तो जब बुद्धि स्थूल रहेगी, तो बिंब फीका पड़ता जाएगा। करते थे...। अभी हम उलटे काम में लगे हैं। अभी हम सारी और जब बुद्धि सूक्ष्म होने लगेगी, तो आप चकित होंगे। जैसे-जैसे दुनिया में शिक्षा देते हैं, वे सभी स्थूल हैं। इस देश में हम इस बात आप भीतर देखेंगे, बिंब उतना ही तेजस्वी होने लगेगा। | की फिक्र किए थे कि विद्यार्थी जब गुरुकुल में मौजूद हो, तो पहला ___ जब बिंब पहले देखने में तो फीका लगे और फिर उसकी काम उसकी बुद्धि को सूक्ष्म करने का। जब तक उसके पास सूक्ष्म
तेजस्विता बढ़ती जाए, तो समझना कि आपकी बुद्धि सूक्ष्म हो रही बुद्धि नहीं है, तब तक क्या होगा? उसके पास स्थूल बुद्धि है, हम है। जब बिंब पहले तो तेजस्वी लगे और फिर धीरे-धीरे उसमें स्थूल शिक्षा उसे दे सकते हैं। वह शिक्षित भी हो जाएगा, पंडित फीकापन आता जाए, तो समझना कि आपकी बुद्धि स्थूल है, सूक्ष्म भी हो जाएगा, लेकिन ज्ञानी कभी भी नहीं हो पाएगा। पहले को नहीं पकड़ पाती, इसलिए बिंब फीका होता जा रहा है। | उसकी इस बुद्धि को स्थूल से सूक्ष्म करना है; पहले उसके
कान से आवाज सुनते हैं आप। जितने जोर की आवाज हो, | | उपकरण को निखार लेना है। उतनी आसानी से सुनाई पड़ती है; जितनी धीमी आवाज हो, उतनी __ अभी हम विद्यार्थियों को भेज देते हैं विद्यालय में। और विद्यालय मुश्किल से सुनाई पड़ती है। जोर की आवाजें सुनते-सुनते आपकी | में शिक्षक उन पर हमला बोल देते हैं, सिखाना शुरू कर देते हैं, सुनने की जो बुद्धि है, वह स्थूल हो गई है। कान कभी बंद कर लें | | बिना इसकी फिक्र किए कि सीखने का जो उपकरण है, वह अभी और कभी भीतर की सूक्ष्म आवाजें सुनें। धीरे-धीरे भीतर आवाजों| | सूक्ष्म भी हुआ था या नहीं; अभी उसमें धार भी आई थी या नहीं। का एक नया जग । एक ध्वनियों का जाल प्रकट हो | अभी वह स्थल ही है; उस स्थल पर हम फेंकना शुरू कर देते हैं जाएगा। और-और सुनते जाएं, और एक ही ध्यान रहे कि मैं सूक्ष्म चीजें, और भी स्थूल हो जाता है।
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इसलिए विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते बुद्धि का होना पहले जरूरी है। करीब-करीब कुंठित हो जाती है। बुद्धि लेकर नहीं लौटते हैं। करीब-करीब जैसे आपके पास एक दूरवीक्षण यंत्र हो, आप उसे विद्यार्थी विश्वविद्यालय से, खोकर लौटते हैं। हां, कुछ तथ्य याद लगाकर आंख में और किसी भी तारे की तरफ मोड़ दे सकते हैं। करके, स्मृति भरकर लौट आते हैं। परीक्षा दे सकते हैं। लेकिन | | फिर जिस तरफ आप मोड़ेंगे, वही तारा प्रगाढ़ होकर प्रकट हो बुद्धिमत्ता नाम-मात्र को भी नहीं दिखाई पड़ती।
जाएगा। ठीक वैसे ही जब सूक्ष्म बुद्धि भीतर होती है, तो एक रास्ता तो आज अगर सारे विश्वविद्यालयों में उपद्रव हैं सारी दुनिया में, है उसे हृदय की तरफ मोड़ देना, उस सूक्ष्म बुद्धि को हृदय पर लगा तो उसका कारण, बुनियादी कारण यह है कि आप उनसे बुद्धिमत्ता देना ध्यानपूर्वक, तो उस हृदय के मंदिर में परमात्मा का आविष्कार तो छीन लिए हैं और केवल स्मृति उनको दे दिए हैं। स्मृति का | | कर लेते हैं। उपद्रव है। बुद्धिमत्ता बिलकुल, विजडम बिलकुल भी नहीं है। कितने ही अन्य उसे ज्ञान-योग के द्वारा देखते हैं...।
और बुद्धिमत्ता पैदा होती है बुद्धि की सूक्ष्मता से। कितना आप ___यह हृदय की तरफ लगा देना भक्ति-योग है। हृदय भक्ति का जानते हैं, इससे नहीं। क्या आप जानते हैं, इससे भी नहीं। कितनी | केंद्र है, प्रेम का। तो जब सूक्ष्म हुई बुद्धि को कोई प्रेम के केंद्र हृदय . परीक्षाएं उत्तीर्ण की, इससे भी नहीं। कितनी पीएच.डी. और | की तरफ लगा देता है, तो मीरा का, चैतन्य का जन्म हो जाता है। डी.लिट. आपके पास हैं, इससे भी नहीं। बुद्धिमत्ता उपलब्ध होती | कृष्ण कहते हैं, कितने ही उसे ज्ञान-योग के द्वारा...। है, कितनी सूक्ष्म बुद्धि आपके पास है, उससे।
वही सूक्ष्म बुद्धि है, लेकिन उसे हृदय की तरफ न लगाकर इसलिए यह भी हो सकता है कि कभी कोई बिलकुल अपढ़ | मस्तिष्क का जो आखिरी केंद्र है, सहस्रार, उसकी तरफ मोड़ देना। आदमी भी बुद्धि की सूक्ष्मता को उपलब्ध हो जाए। और यह तो | तो सहस्रार में जो परमात्मा का दर्शन करते हैं, वह ज्ञान-योग है। अक्सर होता है कि बहुत पढ़े-लिखे आदमी बुद्धि की सूक्ष्मता को __ और कितने ही निष्काम कर्म-योग के द्वारा देखते हैं...। उपलब्ध होते दिखाई नहीं पड़ते हैं। पंडित में और बुद्धि की सूक्ष्मता | कितने ही अपनी उस सूक्ष्म हुई बुद्धि को अपने कर्म-धारा की पानी जरा मश्किल है। बहत कठिन है। जरा मुश्किल संयोग है। तरफ लगा देते हैं। वे जो करते हैं, उस करने में उस सक्ष्म बद्धि कभी-कभी गांव के ग्रामीण में, चरवाहे में भी कभी-कभी बुद्धिमत्ता को समाविष्ट कर देते हैं। तो करने से मुक्त हो जाते हैं, कर्ता नहीं की झलक दिखाई पड़ती है। उसके पास बुद्धि का संग्रह नहीं है। | रह जाते। लेकिन एक सूक्ष्म बुद्धि हो सकती है।
ये तीन मार्ग हैं, भक्ति, ज्ञान, कर्म। भक्ति उत्पन्न होती है हृदय इसलिए कबीर जैसा गैर पढ़ा-लिखा आदमी भी परम ज्ञान को | से। जो बुद्धि है, वह तो एक ही है; जो उपकरण है, वह तो एक ही उपलब्ध हो जाता है।
है। उसी एक उपकरण को हृदय की तरफ बहा देने से भक्त जन्म परम ज्ञान का संबंध, आपके पास कितनी संपदा है स्मृति की, | जाता है। उसी उपकरण को सहस्रार की तरफ बहा देने से ज्ञानी का इससे नहीं है। परम ज्ञान का संबंध इससे है, आपके पास कितने जन्म हो जाता है, बुद्ध पैदा होते हैं, महावीर पैदा होते हैं। और उसी सूक्ष्मतम को पकड़ने की क्षमता है। आप कितने ग्राहक, कितने | | को कर्म की तरफ लगा देने से क्राइस्ट पैदा होते हैं, मोहम्मद पैदा रिसेप्टिव हैं। कितनी बारीक ध्वनि आप पकड़ सकते हैं, और | होते हैं। कितना बारीक स्पर्श, कितना बारीक स्वाद, कितनी बारीक | | मोहम्मद और क्राइस्ट न तो भक्त हैं और न ज्ञानी हैं, शुद्ध गंध...। क्योंकि भीतर सब बारीक है। बाहर सब स्थूल है, भीतर | | कर्म-योगी हैं। इसलिए हम सोच भी नहीं सकते, जो लोग सब सूक्ष्म है। जब भीतर के जगत को अनुभव करना हो, तो | ज्ञान-योग की धारा में बहते हैं, वे सोच ही नहीं सकते कि मोहम्मद सूक्ष्मता और शुद्धि की जरूरत है।
को तलवार लेकर और युद्धों में जाने की क्या जरूरत! हम सोच कृष्ण कहते हैं, शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में | भी नहीं सकते कि क्राइस्ट को सूली पर लटकने की क्या जरूरत! देखते हैं...।
उपद्रव में पड़ने की क्या जरूरत! जब किसी के पास भीतर सूक्ष्म बुद्धि होती है, तो हृदय की तरफ क्रांति इत्यादि तो सब उपद्रव हैं। ये तो उपद्रवियों के लिए हैं। हम उसे मोड़ दिया जाता है। वह बहुत कठिन नहीं है। पर सूक्ष्म बुद्धि | | सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध कोई बगावत कर रहे हैं और सूली पर
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लटकाए जा रहे हैं। क्योंकि बुद्ध ज्ञान-योगी हैं। वे अपने सहस्रार पिलाना पड़ता। वे मूर्छित ही पड़े हैं। वे डूब गए हैं अपने केंद्र में; की तरफ शुद्ध सूक्ष्म बुद्धि को मोड़ रहे हैं। क्राइस्ट अपने कर्म की वहां से लौटने के लिए शरीर को सम्हालना पड़ेगा। नहीं तो वे खतम धारा की तरफ। .
ही हो जाएंगे; शरीर सड़ जाएगा। __इसलिए ईसाइयत की सारी धारा कर्म की तरफ हो गई है। तो संन्यासी की हमने सेवा की, क्योंकि संन्यासी या तो ज्ञान या इसलिए सेवा धर्म बन गया। इसलिए ईसाई मिशनरी जैसी सेवा कर भक्ति की तरफ मुड़ा हुआ था। क्राइस्ट ने धारा मोड़ दी कर्म की सकता है, दुनिया के किसी धर्म का कोई मिशनरी वैसी सेवा नहीं तरफ। कर सकता। उसके कारण बहुत गहरे हैं। उसमें कोई कितनी ही कृष्ण कहते हैं, कोई कर्म की तरफ, निष्काम कर्म-योग के द्वारा नकल करे...।
| परमात्मा को देख लेते हैं। यहां हिंदुओं के बहुत-से समूह हैं, जो नकल करने की कोशिश | निष्काम कर्म-योग के द्वारा परमात्मा दूसरों में दिखाई पड़ेगा। करते हैं। पर वह नकल ही साबित होती है। क्योंकि वह उनकी मूल | निष्काम कर्म-योग के द्वारा परमात्मा चारों तरफ दिखाई पड़ने धारा नहीं है। क्राइस्ट की पूरी साधना सूक्ष्म हुई बुद्धि को कर्म की | लगेगा। जिसकी भी आप सेवा करेंगे, वहीं परमात्मा दिखाई पड़ने तरफ लगाने की है। फिर कर्म ही सब कुछ है। फिर वही पूजा है, | | लगेगा। क्योंकि वह सूक्ष्म यंत्र जो बुद्धि का है, अब उस पर लग वही प्रार्थना है।
गया। — इसलिए एक ईसाई फकीर कोढ़ी के पास जिस प्रेम से बैठकर एक बात सार की है कि शुद्ध हुई बुद्धि को जहां भी लगा दें, वहां सेवा कर सकता है, कोई हिंदू संन्यासी नहीं कर सकता। कोई जैन | परमात्मा दिखाई पड़ेगा। और अशुद्ध बुद्धि को जहां भी लगा दें, संन्यासी तो पास ही नहीं आ सकता, करने की तो बात बहुत दूर। | वहां सिवाय पदार्थ के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ सकता है। कोढ़ी के पास! वह सोच ही नहीं सकता। वह अपने मन में सोचेगा, | ___ परंतु इससे दूसरे अर्थात जो मंद बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस ऐसे हमने कोई पाप कर्म ही नहीं किए, जो कोढ़ी की सेवा करें। प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले पुरुषों से कोढ़ी की सेवा तो वह करे, जिसने कोई पाप कर्म किए हों। हमने | | सुनकर ही उपासना करते हैं और वे सुनने के परायण हुए भी ऐसे कोई पाप कर्म नहीं किए हैं।
मृत्युरूप संसार-सागर को निस्संदेह तर जाते हैं। हिंदू संन्यासी सोच ही नहीं सकता सेवा की बात, क्योंकि हिंदू लेकिन ये तीन बड़ी प्रखर यात्राएं हैं; ज्ञान की, भक्ति की, कर्म संन्यासी को खयाल ही यह है कि संन्यासी की सेवा दूसरे लोग | की, ये बड़ी प्रखर यात्राएं हैं। और कोई बहुत ही जीवट के पुरुष करते हैं। संन्यासी किसी की सेवा करता है! यह क्या पागलपन की | | इन पर चल पाते हैं। सभी लोग इतनी प्रगाढ़ता से, इतनी प्रखरता बात है कि संन्यासी किसी के पैर दबाए। संन्यासी के सब लोग पैर से, इतनी त्वरा और तीव्रता से, इतनी बेचैनी, इतनी अभीप्सा से नहीं दबाते हैं। .
चल पाते हैं। उनके लिए क्या मार्ग है? उसकी भी गलती नहीं है, क्योंकि वह जिस धारा से निष्पन्न हुआ तो कृष्ण कहते हैं, अर्थात वे दूसरे भी इस प्रकार न जानते हुए, है, वह ज्ञान-योग की धारा है। उसका कर्म से कोई लेना नहीं है। । दूसरों से, जिन्होंने जाना है, उनसे सुनकर भी उपासना करते हैं उसका सहस्रार से संबंध है। वह अपनी सारी चेतना को सहस्रार | | और सुनने में परायण हुए मृत्युरूप संसार-सागर को निस्संदेह तर की तरफ मोड़ लेता है। और जब कोई अपनी सारी चेतना को | | जाते हैं। सहस्रार की तरफ मोड़ लेता है, तो स्वभावतः दूसरों को उसकी सेवा ___ इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्योंकि हममें से अधिक लोग उन करनी पड़ती है, क्योंकि वह बिलकुल ही बेहाल हो जाता है। न उसे | | तीन कोटियों में नहीं आएंगे। हममें से अधिक लोग इस चौथी कोटि भोजन की फिक्र है, न उसे शरीर की फिक्र है। दूसरे उसकी सेवा | में आएंगे, जो तीनों में से किसी पर भी जा नहीं सकते, जो तीनों में करते हैं। इसलिए हमने संन्यासियों की सेवा की, क्योंकि वे समाधि | | से किसी पर जाने की अभी अभीप्सा भी अनुभव नहीं करते हैं। में जा रहे थे।
| लेकिन वे भी, जिन्होंने जाना है, अगर उनकी बात सुन लें-वह रामकृष्ण मूर्छित पड़े रहते थे छः-छः दिन तक। दूसरे उनकी | | भी आसान नहीं है जिन्होंने जाना है, उनकी बात सुन लें; और सेवा करते थे। छः दिन तक उनको दूध पिलाना पड़ता, पानी | | उनकी बात सुनकर उसमें परायण हुए, उसमें डूब जाएं, लीन हो
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O गीता दर्शन भाग-60
जाएं, उससे उनकी उपासना का जन्म हो जाए, तो वे भी मृत्यु के | खबर भेजी कि आप हमारे यहां आएं; हमारे घर में मृत्यु घटित हो सागर को तर जाते हैं, अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं। | गई है, तो आप कुछ अमृत के संबंध में हमें समझाएं। तो मैंने उन्हें
मगर कई शर्ते हैं। पहली शर्त, जिन्होंने जाना है, उनसे सुनें, | कहा, समझना तुम्हें हो, तो तुम्हें मेरे पास आना होगा। उन्होंने मुझे फर्स्ट हैंड। जिन्होंने जाना है! अगर आप खुद जान लें मौलिक रूप | खबर भेजी, लेकिन आप ऐसा क्यों कहते हैं। क्योंकि और सब गुरु से स्वयं, तब तो ठीक है, वे तीन रास्ते हैं। अगर यह संभव न हो, | तो आ रहे हैं। और हम हजार रुपया प्रत्येक को भेंट भी करते हैं। तो जिन्होंने जाना है, उनसे सीधा सुनें। शास्त्र काम न देंगे, कोई गुरु | तो वे अमृत को हजार रुपए में खरीदने का इरादा रखते हैं। या उपयोगी होगा। जिसने जाना हो, उससे सीधा सुनें। क्योंकि अभी | | अमृत के संबंध में हजार रुपए में उनको कोई बता देगा, ऐसा उससे जो शब्द निकलेंगे, उसका जो स्पर्श होगा, उसकी जो वाणी | | खयाल रखते हैं। और जो उन्हें वहां बताने जा रहा है, उसे भी अमृत होगी, उसमें ताजी हवा होगी उसके अपने अनुभव की। इसलिए से कोई मतलब नहीं है; उसे भी हजार रुपए से ही मतलब होगा। शास्त्र पर कम जोर और गुरु पर ज्यादा जोर है।
। असल में गुरु आपके पास नहीं आ सकता। इसलिए नहीं कि अधिक लोगों के लिए, चौथा मार्ग जिनका होगा, उनके लिए गुरु इसमें कोई अड़चन है, बल्कि इसलिए कि आने में बात ही व्यर्थ हो. रास्ता है। और शास्त्र का अर्थ भी गुरु के द्वारा ही खुलेगा। क्योंकि | गई। कोई अर्थ ही न रहा। आपको ही उसके पास जाना पड़ेगा। शास्त्र तो कोई हजार साल, दस हजार साल पहले लिखा गया है। क्योंकि जाना केवल कोई भौतिक प्रक्रिया नहीं है; जाना भीतर के दस हजार साल पहले जो कहा गया है, उसमें बहुत कुछ जोड़ा गया, अहंकार का सवाल है। घटाया गया; दस हजार साल की यात्रा में बहुत कचरा भी इकट्ठा हो वे हैं करोड़पति, अरबपति, तो कैसे वे किसी के पास जा सकते गया, धूल भी जम गई। वह जो अनुभव था दस हजार साल पहले | हैं! अगर कैसे किसी के पास जा सकते हैं और सभी उनके पास का शुद्ध, वह अब शुद्ध नहीं है, वह बहुत बासा हो गया है। आते हैं, तो एक बात पक्की है कि वे गुरु के पास कभी नहीं पहुंच
फिर किसी व्यक्ति के पास जाएं, जिसमें अभी आग जल रही सकते हैं। और जो तथाकथित गुरु उनके पास पहुंचते हैं, वे गुरु हो, जो अभी जिंदा हो, अपने अनुभव से दीप्त हो; जिसके नहीं हो सकते। क्योंकि पहुंचने का जो संबंध है, वह शिष्य को ही रोएं-रोएं में अभी खबर हो; जिसने अभी-अभी जाना और जीया शुरू करना पड़ेगा; उसे ही निकटता लानी पड़ेगी, उसे ही पात्र हो सत्य को; जो अभी-अभी परमात्मा से मिला हो; जिसके भीतर बनना पड़ेगा। पुरुष ठहर गया हो और जिसका शरीर और जिसका संसार अब नदी घड़े के पास नहीं आती, घड़े को ही नदी के पास जाना केवल एक अभिनय रह गया हो; अब उसके पास बैठकर सुनें। पड़ेगा। और घड़े को ही झुकना पड़ेगा नदी में, तो ही नदी घड़े को
उपासना का अर्थ है, पास बैठना। उपासना शब्द का अर्थ है, पास भर सकेगी। नदी तैयार है भरने को। लेकिन घड़ा कहे कि मैं बैठना। उपनिषद शब्द का अर्थ है, पास बैठकर सुनना। ये शब्द बड़े | अकड़कर अपनी जगह बैठा हूं, मैं झुकूँगा नहीं; नदी आए और मुझे कीमती हैं. उपासना. उपदेश. उपनिषद। पास बैठकर। किसके भर दे और मैं हजार रुपए भेंट करूंगा पास? कोई जीवंत अनुभव जहां हो–सुनना। सुनना भी बहुत हां, कोई नल की टोंटी आ सकती है। पर नल की टोंटियों में और कठिन है, क्योंकि पास बैठने में पात्रता बनानी पड़ेगी। अगर जरा-सा नदियों में बड़ा फर्क है। कोई पंडित आ सकता है, कोई गुरु नहीं भी अहंकार है, तो आप पास बैठकर भी बहुत दूर हो जाएंगे। आ सकता।
गुरु के पास बैठना हो तो अहंकार बिलकुल नहीं चाहिए, तो पास पहुंचना एक कला है। विनम्रता, निरअहंकार भाव, क्योंकि वही फासला है। स्थान का कोई फासला नहीं है गुरु के और | सीखने की तैयारी, सीखने की उत्सुकता, सीखने में बाधा न तुम्हारे बीच, फासला तुम्हारे अहंकार का है। लोग सीखने भी आते | डालना। फिर सुने। क्योंकि सुनना भी बहुत कठिन है। क्योंकि जब हैं, तो बड़ी अकड़ से आते हैं। लोग सीखने भी आते हैं, तो भी | | आप सुनते भी हैं, तब भी सुनते कम हैं, सोचते ज्यादा हैं। आते नहीं हैं। उनको खयाल होता है कि आते हैं।
सोचेंगे आप क्या? जब आप सुन रहे हैं, तब भी आप सोच रहे यहां ऐसा हुआ। एक बहुत बड़े करोड़पति परिवार में, भारत के हैं कि अच्छा, यह अपने मतलब की बात है ? यह अपने संप्रदाय सबसे बड़े करोड़पति परिवार में किसी की मृत्यु हुई। तो मुझे उन्होंने की है? अपने शास्त्र में ऐसा लिखा है कि नहीं?
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पुरुष में थिरता के चार मार्ग
अब जिन मित्र ने यह सवाल पूछा है कि महावीर और बुद्ध ने अहिंसा की बात की और कृष्ण तो हिंसा की बात कर रहे हैं, इनको कैसे भगवान मानें, वे यहां बैठे हैं। वे बिलकुल नहीं सुन पा रहे होंगे। उनके प्राण बड़े बेचैन होंगे कि बड़ी मुसीबत हो गई। वे सुन ही नहीं सकते। क्योंकि सुनते समय उनके भीतर तौल चल रही है, भगवान है ? कृष्ण भगवान हैं कि नहीं? क्योंकि वे हिंसा की बात कह रहे हैं। कैसे भगवान हो सकते हैं!
तुमसे पूछ कौन रहा है ? तुम्हारा मत मांगा भी नहीं गया है। और कृष्ण कोई तुम्हारे वोट के कारण भगवान होने को नहीं हैं। तुम चिंता क्यों कर रहे हो? तुम वोट नहीं दोगे, तो वे भगवान नहीं रह जाएंगे, ऐसा कुछ नहीं है। दुनिया में सब लोग इनकार कर दें, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। और सब लोग स्वीकार कर लें, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण के होने में कोई अंतर नहीं आता इसके कि कौन क्या मानता है। वह तुम्हारी अपनी झंझट है। उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन तुम परेशान हो ।
अब उन्होंने अहिंसा की बात नहीं कही, हिंसा की बात कही; तुम अपने अहिंसा के सिद्धांत को पकड़े बैठे हो। वह सिद्धांत तुम्हें सुन न देगा। वह सिद्धांत बीच में दीवाल बन जाएगा। उस सिद्धांत की वजह से, जो कहा जा रहा है, उसके तुम कुछ और मतलब निकालोगे, जो कहे ही नहीं गए हैं। तुम सब विकृत कर लोगे। तुम अपनी बुद्धि को बीच में डाल दोगे और गुरु ने जो कहा है, उस सब को नष्ट कर दोगे ।
पास बैठना चुप होकर, मौन होकर ! इसलिए बहुत बार पुरानी परंपरा तो यही थी कि शिष्य गुरु के पास जाए, तो साल दो साल कुछ पूछे न; सिर्फ चुप बैठे; सिर्फ बैठना सीखे। बैठना सीखे।
सूफियों में कहा जाता है कि पहले बैठना सीखो। गुरु के पास आओ, बैठना सीखो, आना सीखो। अभी जल्दी कुछ ज्ञान की नहीं है। ज्ञान कोई इतनी आसान बात भी नहीं है कि लिया- दिया और घर की तरफ भागे। कोई इंस्टैंट एनलाइटेनमेंट नहीं है। काफी हो सकती है, बनाई एक क्षण में और पी ली ! कोई समाधि, कोई ज्ञान क्षण में नहीं होता। सीखना होगा।
सूफी अक्सर सालों बिता देते हैं; सिर्फ गुरु के पास झुककर बैठे रहते हैं। प्रतीक्षा करते हैं कि गुरु पहले पूछे कि कैसे आए? क्या चाहते हो? कभी-कभी वर्षों बीत जाते हैं। वर्षों कोई साधक रोज आता है नियम से, अपनी जगह आंख बंद करके शांत बैठ जाता है । गुरु को कभी लगता है, तो कुछ कहता है। नहीं लगता, तो नहीं
| कहता। दूसरे आने-जाने वाले लोगों से बात करता रहता है, शिष्य बैठा रहता है।
वर्षों सिर्फ बैठना होता है। जिस दिन गुरु देखता है कि बैठक जम गई। सच में शिष्य आ गया और बैठ गया। अब उसके भीतर कुछ भी नहीं है । उपासना हो गई।
अब वह बैठा है। सिर्फ पास है, जस्ट नियर । अब कुछ दूरी नहीं है, न अहंकार की, न विचारों की, न मत-मतांतर की, न | वाद-विवाद की, न कोई शास्त्र की। अब कुछ नहीं है। बस,' सिर्फ | बैठा है। जैसे एक मूर्ति रह गई, जिसके भीतर अब कुछ नहीं है, बाहर कुछ है। अब खाली घड़े की तरह बैठा है। उस दिन गुरु डाल देता है जो उसे डालना है, जो कहना है। उस दिन उंडेल देता है अपने को । उस दिन नदी उतर जाती है घड़े में ।
चौथे मार्ग पर बैठना सीखना होगा, मौन होना सीखना होगा, प्रतीक्षा सीखनी होगी, धैर्य सीखना होगा; और किसी जीवित गुरु की तलाश करनी होगी।
संसार - सागर को
ऐसे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप | निस्संदेह तर जाते हैं । हे अर्जुन, यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावरजंगम वस्तु उत्पन्न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान ।
सभी विचार के पीछे कृष्ण बार-बार दोहरा देते हैं, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ | वह जानने वाला और जो जाना जाता है वह । इन दो को वे बार-बार दोहरा देते हैं । कि जो भी पैदा होता है, वह सब क्षेत्र है। बनता है, मिटता है, वह सब क्षेत्र है। और वह जो न बनता है, न मिटता है, न पैदा होता है, जो सिर्फ देखता है, जो सिर्फ दर्शन मात्र की शुद्ध क्षमता है, जो केवल ज्ञान है, जो मात्र बोध है, जो प्योर | कांशसनेस है, जो शुद्ध चित्त है— वही पुरुष है, वही परम मुक्ति है।
एक मित्र ने पूछा है कि कृष्ण बहुत बार पुनरुक्ति करते मालूम होते हैं गीता में । फिर वही बात, फिर वही बात, फिर वही बात । | ऐसा क्यों है? क्या लिपिबद्ध करने वाले आदमी ने भूल की है? या कि कृष्ण जानकर ही पुनरुक्ति करते हैं? या कि अर्जुन बहुत मंद बुद्धि है कि बार-बार कहो, तभी उसकी समझ में आता है? या | कृष्ण भूल जाते हैं बार-बार, फिर वही बात कहने लगते हैं?
विचारणीय है। ऐसा कृष्ण के साथ ही नहीं है। बुद्ध भी ऐसा ही | बार-बार दोहराते हैं। क्राइस्ट भी ऐसा ही बार-बार दोहराते हैं। मोहम्मद भी ऐसा ही बार-बार दोहराते हैं। इस दोहराने में जरूर कुछ बात है।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
यह सिर्फ पुनरुक्ति नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को | हैं; पुराने खो जाते हैं। किताब का पूरा प्रयोजन बदल जाता है। समझ लेना चाहिए, नहीं तो पुनरुक्ति समझकर आदमी सोचता है। | किताब का पूरा अर्थ बदल जाता है। कि क्या जरूरत! गीता को छांटकर एक पन्ने में छापा जा सकता है। - इसलिए हमने इस मुल्क में पाठ पर बहुत जोर दिया, पढ़ने पर मतलब की बातें उतने में आ जाएंगी, क्योंकि उन्हीं-उन्हीं बातों को | कम। पढ़ने का मतलब एक दफा एक किताब पढ़ ली, खतम हो वे बार-बार दोहराए चले जा रहे हैं।
गया। पाठ का मतलब है, एक किताब को पढ़ते ही जाना है मतलब की बातें तो उसमें आ जाएंगी, लेकिन वे मुर्दा होंगी और | जीवनभर। रोज नियमित पढ़ते जाना है। उनका कोई परिणाम न होगा। कई बातें समझ लेनी जरूरी हैं। | लेकिन आप अगर मुर्दे की तरह पढ़ें, तो कोई सार नहीं है। पढ़ने
एक, जब कृष्ण उन्हीं बातों को दुबारा दोहराते हैं, तब आपको में इतना बोध होना चाहिए कि आप में जो फर्क हुआ है, उस फर्क पता नहीं कि शब्द भला वही हों, प्रयोजन भिन्न हैं। और प्रयोजन | | के कारण जो आप पढ़ रहे हैं, उसमें फर्क पड़ रहा है कि नहीं! तो इसलिए भिन्न हैं कि इतना समझ लेने के बाद अर्जुन भिन्न हो गया पाठ है। है। जो बात उन्होंने शुरू में कही थी अर्जुन से, वही जब वे बहुत ___ गीता कल भी पढ़ी थी, आज भी पढ़ी, कल भी पढ़ेंगे, अगले. देर समझाने के बाद फिर से कहते हैं, तो अर्जुन अब वही नहीं है। वर्ष भी पढ़ेंगे, पढ़ते जाएंगे। जब बच्चे थे, तब पढ़ी थी; जब बूढ़े इस बीच उसकी समझ बढ़ी है, उसकी प्रज्ञा निखरी है। अब यही होंगे, तब पढ़ेंगे। लेकिन बूढ़ा अगर सच में ही विकसित हुआ हो, शब्द दूसरा अर्थ ले आएंगे।
प्रौढ़ हुआ हो, सिर्फ शरीर की उम्र न बढ़ी हो, भीतर चेतना ने भी आप अगर इसकी परीक्षा करना चाहें, तो ऐसा करें, कोई एक | अनुभव का रस लिया हो, जागृति आई हो, पुरुष स्थापित हुआ हो, किताब चुन लें जो आपको पसंद हो। उसको इस वर्ष पढ़ें और तो गीता जो बुढ़ापे में पढ़ी जाएगी, उसके अर्थ बड़े और हो जाएंगे। अंडरलाइन कर दें। जो-जो आपको अच्छा लगे उसमें, उसको - तो कृष्ण जब बार-बार दोहराते हैं, तो वह अर्जुन जितना बदलता लाल स्याही से निशान लगा दें। और जो-जो आपको बुरा लगे, | | है, उस हिसाब से दोहराते हैं। वे उन्हीं शब्दों को दोहरा रहे हैं, जो उसको नीली स्याही से निशान लगा दें। और जो-जो आपको उपेक्षा | | उन्होंने पहले भी कहे थे। लेकिन उनका अर्थ अर्जुन के लिए अब योग्य लगे, उसको काली स्याही से निशान लगा दें।
दूसरा है। सालभर किताब को बंद करके रख दें। सालभर बाद फिर खोलें, दूसरी बात। जो भी महत्वपूर्ण है, उसे बार-बार चोट करना फिर से पढ़ें। अब जो पसंद आए उसको लाल स्याही से निशान | जरूरी है। क्योंकि आपका मन इतना मुश्किल में पड़ा है, सुनता ही लगाएं। आप हैरान हो जाएंगे। जो बात पिछले साल इसी किताब | | नहीं; उसमें कुछ प्रवेश नहीं करता। उसमें बार-बार चोट की में आपको पसंद नहीं पड़ी थीं, वे अब पसंद पड़ती हैं। और जो बात | | जरूरत है। उसमें हथौड़ी की तरह हैमरिंग की जरूरत है। तो जो पसंद पड़ी थी, वह अब पसंद नहीं पड़ती। जिसकी आपने उपेक्षा | मूल्यवान है, जैसे कोई गीत की कड़ी दोहरती है, ऐसा जो मूल्यवान की थी पिछले साल, इस बार बहुत महत्वपूर्ण मालूम हो रही है। है, कृष्ण उसको फिर से दोहराते हैं। वे यह कह रहे हैं कि फिर से
और जिसको आपने असाधारण समझा था, वह साधारण हो गई | | एक चोट करते हैं। और कोई नहीं जानता, किस कोमल क्षण में वह है। जिसको आपने नापसंद किया था, उसमें से भी कुछ पसंद आया |चोट काम कर जाएगी और कील भीतर सरक जाएगी। इसलिए है। और जिसको आपने पसंद किया था. उसमें से बहत कछ बहुत बार दोहराते हैं, बहुत बार चोट करते हैं। नापसंदगी में डाल देने योग्य है। किताब वही है, आप बदल गए। | इसलिए भी बार-बार दोहराते हैं कि जीवन का जो सत्य है, वह
और अगर सालभर बाद आपको सब वैसा ही लगे, जैसा | | तो एक ही है। उसको कहने के ढंग कितने ही हों, जो कहना चाहते सालभर पहले लगा था, तो समझना कि आपकी बुद्धि सालभर | | हैं, वह तो एक बहुत छोटी-सी बात है। उसे तो एक शब्द में भी पहले ही कुंठित हो गई है; बदल नहीं रही है; मर गई है। उसमें कोई | कहा जा सकता है। लेकिन एक शब्द में आप न समझ सकेंगे। बहाव नहीं रहा है।
| इसलिए बहुत शब्दों में कहते हैं। बहुत फैलाव करते हैं। शायद इस सालभर बाद फिर उसी किताब को पढ़ना, आप चकित होंगे, | बहाने समझ जाएं। इस बहाने न समझें, तो दूसरे बहाने समझ नए शब्द अर्थपूर्ण हो जाते हैं; नए वाक्य उभरकर सामने आ जाते जाएं। दूसरे बहाने न समझें, तो तीसरा सही। बहुत रास्ते खोजते हैं,
बहतका
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ॐ पुरुष में थिरता के चार मार्ग ®
बहुत मार्ग खोजते हैं।
घटना तो एक ही घटानी है। और वह घटना सिर्फ इतनी ही है। कि आप साक्षी हो जाएं। आप जागकर देख लें जगत को। मूर्छा टूट जाए। आपको यह खयाल में आ जाए कि मैं जानने वाला है। और जो भी में जान रहा है, वह में नहीं है।
यह इतनी-सी घटना घट जाए. इसके लिए सारा आयोजन है। इसके लिए इतने उपनिषद हैं, इतने वेद हैं, इतनी बाइबिल, कुरान, गीता, और सब है। बुद्ध हैं, महावीर, जरथुस्त्र और मोहम्मद, और सारे लोग हैं। लेकिन वे कह सभी एक बात रहे हैं, बहुत-बहुत ढंगों से, बहुत-बहुत व्यवस्थाओं से।
वह एक बात मूल्यवान है। लेकिन आपको अगर वह बात सीधी कह दी जाए, तो आपको सुनाई ही नहीं पड़ेगी। और मूल्य तो बिलकुल पता नहीं चलेगा।
आपको बहुत तरह से प्रलोभित करना होता है। जैसे मां छोटे बच्चे को प्रलोभित करती है, भोजन के लिए राजी करती है। राजी करना है भोजन के लिए, प्रलोभन बहुत तरह के देती है। बहुत तरह की बातें, बहुत तरह की कहानियां गढ़ती है। और तब बच्चे को राजी कर लेती है। कल वह दूसरे तरह की कहानियां गढ़ेगी, परसों तीसरे तरह की कहानियां गढ़ेगी। लेकिन प्रयोजन एक है कि वह बच्चा राजी हो जाए भोजन के लिए।
कृष्ण का प्रयोजन एक है। वे अर्जुन को राजी करना चाहते हैं उस परम क्रांति के लिए। इसलिए सब तरह की बातें करते हैं और फिर मूल स्वर पर लौट आते हैं। और फिर वे वही दोहराते हैं। इसके
अंत में भी उन्होंने वही दोहराया है। __ हे अर्जुन, जो कुछ भी स्थावर-जंगम वस्तु उत्पन्न होती है, उस संपूर्ण को तू क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न हुई जान।
वह जो भीतर क्षेत्रज्ञ बैठा है और बाहर क्षेत्र फैला है, उन दोनों के संयोग से ही सारे मन का जगत है। सारे सुख, सारे दुख; प्रीतिअप्रीति. सौंदर्य-करूपता, अच्छा-बरा. सफलता-असफलता. यश-अपयश, वे सब इन दो के जोड़ हैं। और इन दो के जोड़ में वह पुरुष ही अपनी भावना से जुड़ता है। प्रकृति के पास कोई भावना नहीं है। तू अपनी भावना खींच ले, जोड़ टूट जाएगा। तू भावना करना बंद कर दे, परम मुक्ति तेरी है।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई बीच से उठे नहीं। कीर्तन पूरा हो जाए, तभी उठे।
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अध्याय 13 दसवां प्रवचन
कौन है आंख वाला
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गीता दर्शन भाग-60
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।। भी झुक जाना चाहिए। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।। २७ ।। मनुष्य का होना ही संत्रस्त है। मनुष्य जिस ढंग का है, उसमें ही
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । पीड़ा है। मनुष्य का अस्तित्व ही दुखपूर्ण है। इसलिए असली तो न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ।। २८।। नासमझ वह है, जो सोचता है कि बिना अध्यात्म की ओर झुके हुए प्रकृत्यवच कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
| आनंद को उपलब्ध हो जाएगा। आनंद पाने का कोई उपाय और है यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ।। २९ ।। ही नहीं। और जो जितनी जल्दी झुक जाए, उतना हितकर है। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
यह बात सच है कि जो लोग अध्यात्म की ओर झुकते हैं, वे तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।३०।। मानसिक रूप से पीड़ित और परेशान हैं। लेकिन दूसरी बात भी इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर खयाल में ले लेना, झुकते ही उनकी मानसिक पीड़ा समाप्त होनी भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता शरू हो जाती है। झकते ही मानसिक उन्माद समाप्त हो जाता है। है, वहीं देखता है।
और अध्यात्म की प्रक्रिया से गुजरकर वे स्वस्थ, शांत और . क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर आनंदित हो जाते हैं। को समान देखता हुआ, अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं देखें बुद्ध की तरफ, देखें महावीर की तरफ, देखें कृष्ण की
करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। तरफ। उस आग से गुजरकर सोना निखर आता है। लेकिन जो और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही झुकते ही नहीं, वे पागल ही बने रह जाते हैं। किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, आप ऐसा मत सोचना कि अध्यात्म की तरफ नहीं झुक रहे हैं, वही देखता है।
तो आप स्वस्थ हैं। अध्यात्म से गुजरे बिना तो कोई स्वस्थ हो ही और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को नहीं सकता। स्वास्थ्य का अर्थ ही होता है, स्वयं में स्थित हो जाना। एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित देखता है तथा उस स्वयं में स्थित हुए बिना तो कोई स्वस्थ हो ही नहीं सकता। तब तक परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, तो दौड़ और परेशानी और चिंता और तनाव बना ही रहेगा। उस काल में सच्चिदानंदघन ब्रह्म को प्राप्त होता है। तो जो झुकते हैं, वे तो पागल हैं। जो नहीं झुकते हैं, वे और भी
ज्यादा पागल हैं। क्योंकि झुके बिना पागलपन से छूटने का कोई
उपाय नहीं है। इसलिए यह मत सोचना कि आप बहुत समझदार पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि प्रायः लोग हैं। क्योंकि आपकी समझदारी का कोई मूल्य नहीं है। अगर भीतर ऐसा सोचते हैं कि योग या अध्यात्म की ओर वे ही | चिंता है, पीड़ा है, दुख है, तो आप कितना ही जानते हों, कितनी झुकते हैं, जो मस्तिष्क के विकार से ग्रस्त हैं, भावुक ही समझदारी हो, वह कुछ काम न आएगी। आपके भीतर हैं या जीवन की कठिनाइयों से संत्रस्त हैं। प्रायः पागलपन तो इकट्ठा हो ही रहा है। पागलपन या उन्माद को साधना का प्रस्थान बिंदु मान और मैंने कहा कि आदमी का होना ही पागलपन है। उसके लिया जाता है!
कारण हैं। क्योंकि आदमी सिर्फ बीज है, सिर्फ एक संभावना है कुछ होने की। और जब तक वह हो न जाए, तब तक परेशानी
रहेगी। जब तक उसके भीतर का फूल पूरा खिल न जाए, तब तक । ऐसा सोचते हैं, वे थोड़ी दूर तक ठीक ही सोचते हैं। | बीज के प्राण तनाव से भरे रहेंगे। बीज टूटे, अंकुरित हो और फूल OII भूल उनकी यह नहीं है कि जो लोग मन से पीड़ित और बन जाए, तो ही आनंद होगा।
परेशान हैं, वे ही लोग ध्यान, योग और अध्यात्म की | । दुख का एक ही अर्थ है आध्यात्मिक भाषा में, कि आप जो हैं, ओर झुकते हैं; यह तो ठीक है। लेकिन जो अपने को सोचते हैं कि वह नहीं हो पा रहे हैं। और आनंद का एक ही अर्थ है कि आप जो मानसिक रूप से पीड़ित नहीं हैं, वे भी उतने ही पीड़ित हैं और उन्हें हो सकते हैं, वह हो गए हैं। आनंद का अर्थ है कि अब आपके
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कौन है आंख वाला
भीतर कोई संभावना नहीं बची आप सत्य हो गए हैं। आप जो भी हो सकते थे, वह आपने आखिरी शिखर छू लिया है। आप अपनी पूर्णता पर पहुंच गए हैं। और जब तक पूर्णता उपलब्ध नहीं होती, तब तक बेचैनी रहेगी।
जैसे नदी दौड़ती है सागर की तरफ, बेचैन, परेशान, तलाश में, वैसा आदमी दौड़ता है। सागर से मिलकर शांति हो जाती है। लेकिन कोई नदी ऐसा भी सोच सकती है कि ये पागल नदियां हैं, जो सागर की तरफ दौड़ रही हैं। और जो नदी सागर की तरफ दौड़ना बंद कर देगी, वह सरोवर बन जाएगी। नदी तो सागर में दौड़कर मिल जाती है, विराट हो जाती है। लेकिन सरोवर सड़ता है केवल, कहीं पहुंचता नहीं।
अध्यात्म गति है, मनुष्य के पार, मनुष्य के ऊपर, वह जो आत्यंतिक है, अंतिम है, उस दिशा में। लेकिन आप अपने को यह मत समझा लेना कि सिर्फ पागल इस ओर झुकते हैं। मैं तो बुद्धिमान आदमी हूं। मैं क्यों झुकूं !
आपकी बुद्धिमानी का सवाल नहीं है। अगर आप आनंद को उपलब्ध हो गए हैं, तब कोई सवाल नहीं है झुकने का । लेकिन अगर आपको आनंद की कोई खबर नहीं मिली है, और आपका हृदय नाच नहीं रहा है, और आप समाधि के, शांत होने के परम गुह्य रहस्य उपलब्ध नहीं हुए हैं, तो इस डर से कि कहीं कोई पागल न कहे, अध्यात्म से बच मत जाना। नहीं तो जीवन की जो परम खोज है, उससे ही बच जाएंगे।
पांगल झुकते हैं अध्यात्म की ओर, यह सच है । लेकिन वे पागल सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें कम से कम इतना होश तो है कि झुक जाएं इलाज की तरफ। उन पागलों के लिए क्या कहा जाए, जो पागल भी हैं और झुकते भी नहीं हैं; जो बीमार भी हैं और चिकित्सक की तलाश भी नहीं करते और चिकित्सा की खोज भी नहीं करते। उनकी बीमारी दोहरी है। वे अपनी बीमारी को स्वास्थ्य समझे बैठे हैं।
मेरे पास रोज ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनके पास बड़े-बड़े सिद्धांत हैं, जिन्होंने बड़े शास्त्र अध्ययन किए हैं। और जिन्होंने बड़ी उधर बुद्धि की बातें इकट्ठी कर ली हैं। मैं उनसे कहता हूं कि मुझे इसमें कोई उत्सुकता नहीं है कि आप क्या जानते हैं। मेरी उत्सुकता इसमें है कि आप क्या हैं। अगर आपको आनंद मिल गया हो, तो आपकी बातों का कोई मूल्य है मेरे लिए, अन्यथा यह सारी की सारी बातचीत सिर्फ दुख को छिपाने का उपाय है।
तो बुनियादी बात मुझे बता दें, आपको आनंद मिल गया है ? तो | फिर आप जो भी कहें, उसे मैं सही मान लूंगा। और आनंद न मिला हो, तो आप जो भी कहें, उस सबको मैं गलत मानूंगा, चाहे वह कितना ही सही दिखाई पड़ता हो। क्योंकि जिससे जीवन का फूल न खिलता हो, उसके सत्य होने का कोई आधार नहीं है। और जिससे जीवन का फूल तो बंद का बंद रह जाता हो, बल्कि और | ज्ञान का कचरा उसे दबा देता हो और खुलना मुश्किल हो जाता हो, उसका सत्य से कोई भी संबंध नहीं है।
मेरे हिसाब में आनंद की तरफ जो ले जाए, वह सत्य है; और | दुख की तरफ जो ले जाए, वह असत्य है। अगर आप आनंद की तरफ जा रहे हैं, तो आप जो भी कर रहे हैं, वह ठीक है। और अगर आप आनंद की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप कुछ भी कर रहे हों, वह सब गलत है। क्योंकि अंतिम कसौटी तो एक ही बात की है कि आपने जीवन के परम आनंद को अनुभव किया या नहीं।
तो ये मित्र ठीक कहते हैं, विक्षिप्त लोग झुके हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन सभी विक्षिप्त हैं।
मनसविद से पूछें, कौन स्वस्थ है? जिसको आप नार्मल, सामान्य आदमी कहते हैं, उसे आप यह मत समझ लेना कि वह स्वस्थ है। वह केवल नार्मल ढंग से पागल है। और कोई खास बात | नहीं है। और पागलों जैसा ही पागल है। पूरी भीड़ उसके जैसे ही पागल है। इसलिए वह पागल नहीं मालूम पड़ता। जरा ही ज्यादा आगे बढ़ जाता है, तो दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।
पागल में और आप में जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। थोड़ा डिग्रीज का फर्क है। आप निन्यानबे डिग्री पर हैं और पागल सौ डिग्री पर उबलकर पागल हो गया है। एक डिग्री आप में | कभी भी जुड़ सकती है, किसी भी क्षण । जरा-सी कोई घटना, और आप पागल हो सकते हैं।
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बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी को जरा-सी गाली दे दो और वह पागल हो जाता है। वह तैयार ही खड़ा था; एक छोटी-सी गाली ऊंट पर आखिरी तिनके का काम करती है और ऊंट बैठ जाता है। आपकी बुद्धिमानी जरा में सरकाई जा सकती है; उसका कोई मूल्य नहीं है। आप किसी तरह अपने को सम्हाले खड़े हैं।
इस सम्हाले खड़े रहने से कोई सार नहीं है। यह विक्षिप्तता से मुक्त होना जरूरी है। और योग विक्षिप्तता से मुक्ति का उपाय है। अच्छा है कि आप अपनी विक्षिप्तता को पहचान लें ।
ध्यान रहे, बीमारी को पहचान लेना अच्छा है, क्योंकि पहचाने
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गीता दर्शन भाग-6
से उपाय हो सकता है, इलाज हो सकता है। बीमारी को झुठलाना खतरनाक है। क्योंकि बीमारी झुठलाने से मिटती नहीं, भीतर बढ़ती चली जाती है।
लेकिन अनेक बीमार ऐसे हैं, जो इस डर से कि कहीं यह पता न चल जाए कि हम बीमार हैं, अपनी बीमारी को छिपाए रखते हैं। अपने घावों को ढांक लेते हैं फूलों से, सुंदर वस्त्रों से, सुंदर शब्दों
और अपने को भुलाए रखते हैं। लेकिन धोखा वे किसी और को नहीं दे रहे हैं। धोखा वे अपने को ही दे रहे हैं। घाव भीतर बढ़ते ही चले जाएंगे। पागलपन ऐसे मिटेगा नहीं, गहन हो जाएगा। और आज नहीं कल उसका विस्फोट हो जाएगा।
अध्यात्म की तरफ उत्सुकता चिकित्सा की उत्सुकता है । और उचित है कि आप पहचान लें कि अगर दुखी हैं, तो दुखी होने का कारण है। उस कारण को मिटाया जा सकता है। उस कारण को मिटाने के लिए उपाय हैं। उन उपायों का प्रयोग किया जाए, तो चित्त स्वस्थ हो जाता है।
आप अपनी फिक्र करें; दूसरे क्या कहते हैं, इसकी बहुत चिंता न करें। आप अपनी चिंता करें कि आपके भीतर बेचैनी है, संताप है, संत्रस्तता है, दुख है, विषाद है, और आप भीतर उबल रहे हैं आग से और कहीं कोई छाया नहीं जीवन में, कहीं कोई विश्राम का स्थल नहीं है ! तो फिर भय न करें। अध्यात्म आपके जीवन में छाया बन सकता है, और योग आपके जीवन में शांति की वर्षा कर सकता है। अगर प्यासे हैं, उस तरफ सरोवर है। और प्यासे हैं, सरोवर की तरफ जाएं। सिर्फ बुद्ध या कृष्ण जैसे व्यक्तियों को योग की तरफ जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि योग से वे गुजर चुके हैं। आपको तो जरूरत है ही। आपको तो जाना ही होगा। एक जन्म आप झुठला सकते हैं, दूसरे जन्म में जाना होगा। आप अनेक जन्मों तक झुठला सकते हैं, लेकिन बिना जाए कोई उपाय नहीं है । और जब तक कोई अपने भीतर के आत्यंतिक केंद्र को अनुभव न कर ले, और जीवन के परम स्रोत में न डूब जाए, तब तक विक्षिप्तता बनी ही रहती है।
दो शब्द हैं। एक है विक्षिप्तता और एक है विमुक्तता । मन का होना ही विक्षिप्तता है। ऐसा नहीं है कि कोई-कोई मन पागल होते हैं; मन का स्वभाव पागलपन है। मन का अर्थ है, मैडनेस | वह पागलपन है। और जब कोई मन से मुक्त होता है, तो स्वस्थ होता है, तो विमुक्त होता है।
आमतौर से हम सोचते हैं कि किसी का मन खराब है और किसी
का मन अच्छा है। यह जानकर आपको हैरानी होगी, योग की दृष्टि से मन का होना ही खराब है। कोई अच्छा मन नहीं होता। मन होता ही रोग है । कोई अच्छा रोग नहीं होता; रोग बुरा ही होता है।
जैसे हम अगर कहें, अभी तूफान था सागर में और अब तूफान शांत हो गया है। तो आप मुझसे पूछ सकते हैं कि शांत तूफान कहां है ? तो मैं कहूंगा, शांत तूफान का अर्थ ही यह होता है कि अब तूफान नहीं है। शांत तूफान जैसी कोई चीज नहीं होती। शांत तूफान का अर्थ ही होता है कि तूफान अब नहीं है। तूफान तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।
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ठीक ऐसे ही अगर आप पूछें कि शांत मन क्या है, तो मैं आपसे कहूंगा कि शांत मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। मन तो जब भी होता है, तो अशांत ही होता है।
शांत मन का अर्थ है कि मन रहा ही नहीं। मन और अशांति पर्यायवाची हैं। उन दोनों का एक ही मतलब है। भाषाकोश में नहीं; भाषाकोश में तो मन का अलग अर्थ है और अशांति का अलग अर्थ है। लेकिन जीवन के कोश में मन और अशांति एक ही चीज के दो नाम हैं। और शांति और अमन एक ही चीज के दो नाम हैं। नो माइंड, अमन ।
जब तक आपके पास मन है, आप विक्षिप्त रहेंगे ही। मन भीतर पागल की तरह चलता ही रहेगा। और अगर आपको भरोसा न हो, तो एक छोटा-सा प्रयोग करना शुरू करें।
अपने परिवार को या अपने मित्रों को लेकर बैठ जाएं। एक घंटे दरवाजा बंद कर लें। अपने निकटतम दस-पांच मित्रों को लेकर बैठ जाएं, और एक छोटा-सा प्रयोग करें। आपके भीतर जो चलता हो, उसको जोर से बोलें। जो भी भीतर चलता हो, जिसको आप मन कहते हैं, उसे जोर से बोलते जाएं - ईमानदारी से, उसमें बदलाहट न करें। इसकी फिक्र न करें कि लोग सुनकर क्या कहेंगे। एक छोटा-सा खेल है। इसका उपयोग करें।
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आपको बड़ा डर लगेगा कि यह जो भीतर धीमे-धीमे चल रहा है, इसको जोर से कहूं ? पत्नी क्या सोचेगी! बेटा क्या सोचेगा ! मित्र क्या सोचेंगे! लेकिन अगर सच में हिम्मत हो, तो यह प्रयोग करने जैसा है।
फिर एक-एक व्यक्ति करे; पंद्रह-पंद्रह मिनट एक-एक व्यक्ति बोले । जो भी उसके भीतर हो, उसको जोर से बोलता जाए। आप एक घंटेभर के प्रयोग के बाद पूरा कमरा अनुभव करेगा कि हम सब पागल हैं।
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0 कौन है आंख वाला
आप कोशिश करके देखें। अगर आपको डर लगता हो दूसरों __ आपका मन चलता ही रहता है। आप चाहें भी रोकना, तो रुकता का, तो किसी दिन अकेले में ही पहले करके देख लें। आपको पता | नहीं। कोशिश करके देखें। रोकना चाहेंगे, तो और भी नहीं रुकेगा। चल जाएगा कि पागल कौन है। लेकिन राहत भी बहुत मिलेगी। | और जोर से चलेगा। और सिद्ध करके बता देगा कि तुम मालिक अगर इतनी हिम्मत कर सकें मित्रों के साथ, तो यह खेल बड़े ध्यान | | नहीं हो, मालिक मैं हूं। छोटी-सी कोई बात रोकने की कोशिश का है; बहुत राहत मिलेगी। क्योंकि भीतर का बहुत-सा कचरा | | करें। और वही-वही बात बार-बार मन में आनी शुरू हो जाएगी। बाहर निकल जाएगा, और एक हल्कापन आ जाएगा और पहली - लोग बैठकर राम का स्मरण करते हैं। राम का स्मरण करते हैं, दफा यह अनभव होगा कि मेरी असली हालत क्या है। मैं अपने नहीं आता। कुछ और-और आता है, कुछ दूसरी बातें आती हैं। को बुद्धिमान समझ रहा हूं; बड़ा सफल समझ रहा हूं; बड़े पदों पर एक महिला मेरे पास आई, वह कहने लगी कि मैं राम की भक्त पहुंच गया हूं; धन कमा लिया है; बड़ा नाम है; इज्जत है; और | हूं। बहुत स्मरण करती हूं, लेकिन वह नाम छूट-छूट जाता है और भीतर यह पागल बैठा है! और इस पागल से छुटकारा पाने का नाम | दूसरी चीजें आ जाती हैं! अध्यात्म है।
___ मैंने कहा कि तू एक काम कर। कसम खा ले कि राम का नाम मेहरबाबा उन्नीस सौ छत्तीस में अमेरिका में थे। और एक व्यक्ति कभी न लूंगी। फिर देख। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मैंने को उनके पास लाया गया। उस व्यक्ति को दूसरों के विचार पढ़ने | | कहा, तू कसम खाकर देख। और हर तरह से कोशिश करना कि की कुशलता उपलब्ध थी। उसने अनेक लोगों के विचार पढ़े थे। | राम का नाम भर भीतर न आने पाए। वह किसी भी व्यक्ति के सामने आंख बंद करके बैठ जाता था; और | __वह तीसरे दिन मेरे पास आई। उसने कहा कि आप मेरा दिमाग वह व्यक्ति जो भीतर सोच रहा होता, उसे बोलना शुरू कर देता। | खराब करवा दोगे। चौबीस घंटे सिवाय राम के और कुछ आ ही - मेहरबाबा वर्षों से मौन थे। तो उनके भक्तों को, मित्रों को | | नहीं रहा है। और मैं कोशिश में लगी हूं कि राम का नाम न आए, जिज्ञासा और कुतूहल हुआ कि वह जो आदमी वर्षों से मौन है, वह | | और राम का नाम आ रहा है! भी भीतर तो कुछ सोचता होगा! तो इस आदमी को लाया जाए, | __मन सिद्ध करता है हमेशा कि आप मालिक नहीं हैं, वह मालिक क्योंकि वे तो कुछ बोलते नहीं।
है। और जब तक मन मालिक है, आप पागल हैं। जिस दिन आप तो उस आदमी को लाया गया। वह मेहरबाबा के सामने आंख | | मालिक हों, उस दिन स्वस्थ हुए, स्वयं में स्थित हुए। बंद करके, बड़ी उसने मेहनत की। पसीना-पसीना हो गया। फिर अध्यात्म से गुजरे बिना कोई भी स्वस्थ नहीं होता है। उसने कहा कि लेकिन बड़ी मुसीबत है। यह आदमी कुछ सोचता ही नहीं। मैं बताऊं भी तो क्या बताऊं! मैं बोलं, तो भी क्या बोलू! मैं आंख बंद करता हूं और जैसे मैं एक दीवाल के सामने हं, जहां एक मित्र ने पूछा है कि ऐसा कहा जाता है कि कोई विचार नहीं है।
भगवान की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। यदि इस निर्विचार अवस्था का नाम विमुक्तता है। जब तक भीतर यह बात सच है, तो हमारा सारा जीवन उनकी इच्छा विचार चल रहा है, वह पागल है, वह पागलपन है। यह ऐसा ही | के अनुसार ही चलता है। तो फिर हमें जो भले-बुरे समझिए कि आप बैठे-बैठे दोनों टांग चलाते रहें यहां। तो आपको
विचार आते हैं, अच्छे-बुरे काम बनते हैं. वह भी पड़ोसी आदमी कहेगा, बंद करिए टांग चलाना! आपका दिमाग उनकी ही इच्छा के अनुसार होता है! फिर तो साधना ठीक है? आप टांगें क्यों चला रहे हैं? टांग को चलाने की जरूरत | का भी क्या प्रयोजन है? फिर तो स्वयं को बदलने है, जब कोई चल रहा हो रास्ते पर। बैठकर टांग क्यों चला रहे हैं? | का भी क्या अर्थ है?
मन की भी तब जरूरत है, जब कोई सवाल सामने हो, उसको हल करना हो, तो मन चलाएं। लेकिन न कोई सवाल है, न कोई बात सामने है। बैठे हैं, और मन की टांगें चल रही हैं। यह 27 गर यह बात समझ में आ गई, तो साधना का फिर कोई विक्षिप्तता है; यह पागलपन है।
21 प्रयोजन नहीं है। साधना शुरू हो गई। अगर इतनी ही
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
बात खयाल में आ जाए कि जो भी कर रहा है, वह भगवान कर | | बुराई ही होगी। वह जो आप भीतर बैठे हैं, वह बुरा ही कर सकता रहा है, तो मेरा कर्तापन समाप्त हो गया।
| है। और जैसे ही आप विदा हो गए, मूल आधार खो गया बुराई - सारी साधना इतनी ही है कि मेरा अहंकार समाप्त हो जाए। फिर | का। फिर आपसे जो भी होगा, वह भला है; आपको भला करना अच्छा भी वही कर रहा है, बुरा भी वही कर रहा है। फिर अच्छे-बुरे नहीं पड़ेगा। का कोई सवाल ही नहीं रहा। वही कर रहा है, दोनों वही कर रहा लेकिन इसको, इस विचार को पूरी तरह से अपने में डुबा लेना है। दुख वही दे रहा है, सुख वही दे रहा है। जन्म उसका, मृत्यु और इस विचार में पूरी तरह से डूब जाना बड़ा कठिन है। क्योंकि उसकी। बंधन उसका, मुक्ति उसकी। फिर मेरा कोई सवाल न रहा। अक्सर हम इसको बड़ी होशियारी से काम में लाते हैं। जब तक मुझे बीच में आने की कोई जरूरत न रही। फिर साधना की कोई भी | हमसे कुछ बन सकता है, तब तक तो हम सोचते हैं, हम कर रहे हैं। जरूरत नहीं है। क्योंकि साधना हो गई। शुरू हो गई। जब हमसे कुछ नहीं बन सकता, हम असफल होते हैं, तब अपनी
यह विचार ही परम साधना बन जाएगा। यह खयाल ही इस असफलता छिपाने को हम कहते हैं कि परमात्मा कर रहा है। जीवन से सारे रोग को काट डालेगा। क्योंकि सारा रोग ही अहंकार, हम बहुत धोखेबाज हैं। और हम परमात्मा के साथ भी धोखा . इस बात में है कि मैं कर रहा हूं। यह समर्पण का परम सूत्र है। करने में जरा भी कृपणता नहीं करते।
लोग इसे समझ लेते हैं, यह भाग्यवाद है। यह भाग्यवाद नहीं है। __ जब भी आप सफल होते हैं, तब तो आप समझते हैं, आप ही भारत के इस विचार को बहुत कठिनाई से कुछ थोड़े लोग ही समझ कर रहे हैं। और जब आप असफल होते हैं, तब आप कहते हैं, पाए हैं। यह कोई वाद नहीं है। यह एक प्रक्रिया है साधना की। यह | | भाग्य है; उसकी बिना इच्छा के तो पत्ता भी नहीं हिलता। साधना का एक सूत्र है। यह कोई सिद्धांत नहीं है कि भगवान सब | | नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने पत्र में लिखा है अपनी पत्नी को। कर रहा है। यह एक विधान, एक प्रक्रिया, एक विधि है। | बहुत कीमती बात लिखी है। उसने लिखा है कि मैं भाग्यवाद का
ऐसा अगर कोई अपने को स्वीकार कर ले कि जो भी कर रहा | भरोसा नहीं करता हूं। मैं पुरुषार्थी हूं। लेकिन भाग्यवाद को बिना है, परमात्मा कर रहा है, तो वह मिट जाता है, उसी क्षण शून्य हो | | माने भी नहीं चलता। क्योंकि अगर भाग्यवाद को न मानो, तो अपने जाता है। और जैसे ही आप शून्य होते हैं, बुरा होना बंद हो जाएगा। | दुश्मन की सफलता को फिर कैसे समझाओ! उसकी क्या व्याख्या आपको बुरा बंद करना नहीं पड़ेगा।
हो। फिर मन को बड़ी चोट बनी रहती है। ___ यह जरा जटिल है। बुरा होना बंद हो जाएगा। दुख मिलना ___ अपनी सफलता पुरुषार्थ से समझा लेते हैं। अपने दुश्मन की समाप्त हो जाएगा, क्योंकि बुरा होता है सिर्फ अहंकार के दबाव के सफलता भाग्य से, कि भाग्य की बात है, इसलिए जीत गया, कारण। और दुख मिलना बंद हो जाएगा, क्योंकि दुख मिलता है | अन्यथा जीत कैसे सकता था! पड़ोसियों को जो सफलता मिलती केवल अहंकार को। जिसका अहंकार का घाव मिट गया, उस पर | | है, वह परमात्मा की वजह से मिल रही है। और आपको जो चोट नहीं पड़ती फिर। फिर उसे कोई दुख नहीं दे सकता। | सफलता मिलती है, वह आपकी वजह से मिल रही है। नहीं तो मन
इसका मतलब हुआ कि अगर कोई स्वीकार कर ले कि परमात्मा में बड़ी तकलीफ होगी। सब कुछ कर रहा है, फिर कुछ करने की जरूरत न रही। और बुरा __ अपनी हार स्वीकार करने का मन नहीं है। अपनी सफलता अपने आप बंद होता चला जाएगा, और दुख अपने आप शून्य हो | | स्वीकार करने का जरूर मन है। हारे हुए मन से जो इस तरह के जाएंगे। जिस मात्रा में यह विचार गहरा होगा, उसी मात्रा में बुराई | | सिद्धांत को स्वीकार करता है कि उसकी आज्ञा के बिना पत्ता भी विसर्जित हो जाएगी। क्योंकि बुराई के लिए आपका होना जरूरी नहीं हिलता, वह आदमी कुछ भी नहीं पा सकेगा। उसके लिए है। आपके बिना बुराई नहीं हो सकती।
सिद्धांत व्यर्थ है। भलाई आपके बिना भी हो सकती है। भलाई के लिए आपके यह किसी हारे हुए मन की बात नहीं है। यह तो एक साधना होने की कोई भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि भलाई के लिए का सूत्र है। यह तो जीवन को देखने का एक ढंग है, जहां से कर्ता आपका होना बाधा है। आप जब तक हैं, भलाई हो ही नहीं सकती। | को हटा दिया जाता है। और सारा कर्तृत्व परमात्मा पर छोड़ दिया चाहे भलाई का ऊपरी ढंग दिखाई भी पड़ता हो भले जैसा, भीतर | जाता है।
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कि कौन है आंख वाला
एक और मित्र ने सवाल पूछा है। वे दो-तीन दिन से चौबीस घंटे में आप ऐसे संतोष और ऐसी शांति और ऐसी पूछ रहे हैं इसी संबंध में। उन्होंने पूछा है कि आप | आनंद की झलक को उपलब्ध होंगे, जो आपने जीवन में कभी नहीं बहुत जोर देते हैं भाग्यवाद पर...।
जानी। और ये चौबीस घंटे फिर खतम नहीं होंगे, क्योंकि एक बार
रस आ जाए, स्वाद आ जाए, ये बढ़ जाएंगे। यह आपकी पूरी मैं जरा भी जोर नहीं देता भाग्यवाद पर। भाग्यवाद हजारों | जिंदगी बन जाएगी। विधियों में से एक विधि है जीवन को रूपांतरित करने की, अहंकार एक दिन के लिए आप भाग्य की विधि का प्रयोग कर लें, फिर को गला डालने की।
कोई तनाव नहीं है। सारा तनाव इस बात से पैदा होता है कि मैं कर
रहा हूं। स्वभावतः इसलिए पश्चिम में ज्यादा तनाव है, ज्यादा टेंशन उन मित्र ने कहा है कि अगर भाग्यवाद ही सच है, है, ज्यादा मानसिक बेचैनी है। पूरब में इतनी बेचैनी नहीं थी। अब तो आप बोलते क्यों हैं?
बढ़ रही है। वह पश्चिम की शिक्षा से बढ़ेगी, क्योंकि पश्चिम की
| शिक्षा का सारा आधार पुरुषार्थ है। और पूरब की शिक्षा का सारा वे समझे नहीं अपनी ही बात। अगर भाग्यवाद ही सच है, तो | आधार भाग्य है। दोनों विपरीत हैं। क्यों का कोई सवाल ही नहीं; परमात्मा ही मुझसे बोलता है। बोलते | पूरब मानता है कि सब परमात्मा कर रहा है। और पश्चिम क्यों हैं, यह कोई सवाल नहीं है।
| मानता है, सब मनुष्य कर रहा है। निश्चित ही, जब सब मनुष्य कर
| रहा है, तो फिर मनुष्य को उत्तरदायी होना पड़ेगा। फिर चिंता उन मित्र ने पूछा है, अगर भाग्यवाद ही सच है, तो | | पकड़ती है। थोड़ा फर्क देखें। आप लोगों से क्यों कहते हैं कि साधना करो? बट्रेंड रसेल परेशान है कि तीसरा महायुद्ध न हो जाए। उसकी
| नींद हराम होगी। आइंस्टीन मरते वक्त तक बेचैन है कि मैंने एटम यह मेरा भाग्य है कि मैं उनसे कहूं कि साधना करो। इसमें मैं | | बम बनने में सहायता दी है; कहीं दुनिया बरबाद न हो जाए। मरने कुछ कर नहीं रहा हूं। यह मेरी नियति है। और यह आपकी नियति | | के थोड़े दिन पहले उसने कहा कि अगर मैं दुबारा पैदा होऊ, तो मैं है कि आप सुनो, और बिलकुल करो मत।
वैज्ञानिक होने की बजाय एक प्लंबर होना पसंद करूंगा। मुझसे भाग्य कोई वाद नहीं है। भाग्य जीवन को देखने का एक ढंग | | भूल हो गई। क्योंकि दुनिया नष्ट हो जाएगी। और जीवन को बदलने की एक कीमिया है। यह कोई कमजोरों की | | लेकिन एक बात मजे की है कि आइंस्टीन समझ रहा है कि मेरे बात नहीं है, कि बैठ गए हाथ पर हाथ रखकर, सिर झुकाकर कि | कारण नष्ट हो जाएगी। बऍड रसेल सोच रहे हैं कि अगर शांति का क्या करें; भाग्य में नहीं है। यह बहुत हिम्मत की बात है और बहुत | उपाय मैंने न किया, हमने न किया, तो दुनिया नष्ट हो जाएगी। इधर ताकतवर लोगों की बात है, कि जो कह सकें कि सभी कुछ उस कृष्ण की दृष्टि बिलकुल उलटी है। परमात्मा से हो रहा है, सभी कुछ, बेशर्त। अच्छा या बुरा, सफलता कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जिनको तू सोचता है कि तु मारेगा, या असफलता, मैं अपने को हटाता हूं। मैं बीच में नहीं हूं। | उन्हें मैं पहले ही मार चुका हूं। वे मर चुके हैं। नियति सब तय कर
अपने को हटाना बहत शक्तिशाली लोगों के हाथ की बात है। चुकी है। बात सब हो चुकी है। कहानी का सब लिखा जा चुका है। कमजोर अपने को हटाने की ताकत ही नहीं रखते।
तू तो सिर्फ निमित्त है। जैसे ही आप यह समझ पाएंगे कि भाग्य एक विधि है, एक इन दोनों में फर्क देखें। इन दोनों में फर्क यह है कि पश्चिम में टेक्नीक! हजारों टेक्नीक हैं। मगर भाग्य बहुत गजब की टेक्नीक सोचा जाता है कि आदमी जिम्मेवार है। अगर आदमी जिम्मेवार है है। अगर इसका उपयोग कर सकें, तो आप चौबीस घंटे के लिए हर चीज के लिए, तो चिंता पकड़ेगी, एंग्जायटी पैदा होगी। फिर जो उपयोग कर के देखें।
भी मैं करूंगा, मैं जिम्मेवार हूं। फिर हाथ मेरे कंपेंगे, हृदय मेरा तय कर लें कि कल सुबह से परसों सुबह तक जो कुछ भी होगा, | कंपेगा। आदमी कमजोर है। और जगत बहुत बड़ा है। और सारी परमात्मा कर रहा है, मैं बीच में नहीं खड़ा होऊंगा।
जिम्मेवारी आदमी पर, तो बहुत घबड़ाहट पैदा हो जाती है। इसलिए
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गीता दर्शन भाग-6
पश्चिम इतना विक्षिप्त मालूम हो रहा है। इस विक्षिप्तता के पीछे पुरुषार्थ का आग्रह है ।
पूरब बड़ा शांत था। यहां जो भी हो रहा था, कोई जिम्मेवारी व्यक्ति की न थी, उस परम नियंता की थी। यह सच है या झूठ, यह सवाल नहीं है। पुरुषार्थ ठीक है कि भाग्य, यह सवाल नहीं है।
रे लिए तो पुरुषार्थ चिंता पैदा करने का उपाय है। अगर किसी को चिंता पैदा करनी है, तो पुरुषार्थ सुगम उपाय है। अगर आपको चिंता में रस है, तो आप सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लें। और अगर आपको चिंता में रस नहीं है और समाधि में रस है, तो सारी जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दें । परमात्मा न भी हो, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके छोड़ने से फर्क पड़ता है।
समझ लें। परमात्मा न भी हो, कहीं कोई परमात्मा न हो, लेकिन आप परमात्मा पर छोड़ दें, आपसे उतर जाए, आपके खयाल से हट जाए; आप जिम्मेवार नहीं हैं, कोई और जिम्मेवार है, बात समाप्त हो गई। आपकी चिंता विलीन हो गई। चिंता के मूल आधार अस्मिता, अहंकार, मैं है ।
इसे एक विधि की तरह समझें और प्रयोग करें, तो आप चकित हो जाएंगे। आपकी जिंदगी को बदलने में भाग्य की धारणा इतना अदभुत काम कर सकती है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
लेकिन बहुत सजग होकर उसका प्रयोग करना पड़े। कोई आदमी आपको गाली देता है, तो आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी है। आपके भीतर क्रोध आ जाता है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी । मार-पीट हो जाती है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी । वह आपकी छाती पर बैठ जाता है, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी; या आप उसकी छाती पर बैठ जाते हैं, तो भी आप स्वीकार करते हैं कि परमात्मा की मर्जी है।
ध्यान रहे, जब वह आपकी छाती पर बैठा हो, तब स्वीकार करना बहुत आसान है कि परमात्मा की मर्जी है; जब आप उसकी छाती पर बैठे हों, तब स्वीकार करना बहुत मुश्किल है कि परमात्मा की मर्जी है । क्योंकि आप काफी कोशिश करके उसकी छाती पर बैठ पाए हैं। उस वक्त मन में यही होता है कि अपने पुरुषार्थ का ही फल है कि इसकी छाती पर बैठे हैं।
सुख के क्षण में परमात्मा की मर्जी साधना है। सफलता के क्षण परमात्मा की मर्जी साधना है। विजय के क्षण में परमात्मा की मर्जी का स्मरण साधना है।
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तो आपकी जिंदगी बदल जाती है। अनिवार्यरूपेण आप बिलकुल नए हो जाते हैं। चिंता का केंद्र टूट जाता है। अब हम सूत्र को लें।
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है। कौन देखता कौन जानता है? किसके पास दर्शन है, दृष्टि है ? उसकी व्याख्या है। किसका जानना सही जानना | किसके पास असली आंख है ? कौन देखता है?
और
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है।
यह संसार हम सब देखते हैं। इसमें सभी नाश होता दिखाई पड़ता है। सभी परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है। सभी लहरों की तरह दिखाई पड़ता है, क्षणभंगुर । इसे देखने के लिए कोई बड़ी गहरी आंखों की जरूरत नहीं है। जो आंखें हमें मिली हैं, वे काफी हैं। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है।
लेकिन बड़ी कठिनाई है। इन आंखों से ही दिखाई पड़ जाता है कि यहां सब क्षणभंगुर है। लेकिन हममें बहुत-से लोग आंखें होते हुए बिलकुल अंधे हैं। यह भी दिखाई नहीं पड़ता कि यहां सब क्षणभंगुर है। यह भी दिखाई नहीं पड़ता। हम क्षणभंगुर वस्तुओं को भी इतने जोर से पकड़ते हैं, उससे पता चलता है कि हमें भरोसा है कि चीजें पकड़ी जा सकती हैं और रोकी जा सकती हैं।
एक युवक मेरे पास आया और उसने कहा कि एक युवती से मेरा प्रेम है। लेकिन कभी प्रेमपूर्ण लगता है मन, और कभी घृणा से भर जाता है । और कभी मैं चाहता हूं, इसके बिना न जी सकूंगा। और कभी मैं सोचने लगता हूं, इसके साथ जीना मुश्किल है। मैं क्या करूं?
मैं उससे पूछा, तू चाहता क्या है? तो उसने कहा, चाहता तो मैं यही हूं कि सतत मेरा प्रेम इसके प्रति बना रहे। फिर मैंने उससे कहा कि तू दिक्कत में पड़ेगा। क्योंकि इस जगत में सभी क्षणभंगुर है, प्रेम भी । यह तो तेरी आकांक्षा ऐसी है, जैसे कोई आदमी कहे कि मुझे भूख कभी न लगे; पेट मेरा भरा ही रहे। भूख लगती है, इसीलिए पेट भरने का खयाल पैदा होता है। भूख लगनी जरूरी है, तो ही पेट भरने का प्रयास होगा। और पेट भरते ही भूख मिट जाएगी। लेकिन पेट भरते ही नई भूख पैदा होनी शुरू हो जाएगी। एक वर्तुल है।
रात है, दिन है। ऐसे ही प्रेम है और घृणा है। आकर्षण है और
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कौन है आंख वाला
विकर्षण है। आदर है और अनादर है।
संबंध चाहते हैं स्थिर बना लें। वे नहीं बन पाते। हमने कितनी हमारी सारी तकलीफ यह होती है कि अगर किसी व्यक्ति के कोशिश की है कि पति-पत्नी का प्रेम स्थिर हो जाए, वह नहीं हो प्रति हमारा आदर है, तो हम कोशिश करते हैं, सतत बना रहे। वह पाता। बड़ा विषाद है, बड़ा दुख है, बड़ी पीड़ा है। कुछ स्थिर नहीं बना रह नहीं सकता। क्योंकि आदर के साथ वैसे ही रात भी जुड़ी हो पाता। मित्रता स्थिर हो जाए, शाश्वत हो जाए। कहानियों में है अनादर की। और प्रेम के साथ घणा की रात जड़ी है। | होती है। जिंदगी में नहीं हो पाती।
और सभी चीजें बहती हुई हैं, प्रवाह है। यहां कोई चीज थिर नहीं | | कहानियां भी हमारी मनोवांछनाएं हैं। जैसा हम चाहते हैं जिंदगी है। इसलिए जब भी आप किसी चीज को थिर करने की कोशिश में हो, वैसा हम कहानियों में लिखते हैं। वैसा होता नहीं। इसलिए करते हैं, तभी आप मुसीबत में पड़ जाते हैं। लेकिन कोशिश आप हर कहानी, दो प्रेमियों का विवाह हो जाता है या कोई फिल्म या इसीलिए करते हैं कि आपको भरोसा है कि शायद चीजें थिर हो जाएं। कोई कथा-और खत्म होती है कि इसके बाद दोनों आनंद से रहने
जवान आदमी जवान बने रहने की कोशिश करता है। सुंदर लगे। यहां खत्म होती है। यहां कोई जिंदगी खत्म नहीं होती। आदमी सुंदर बने रहने की कोशिश करता है। जो किसी पद पर है, कहानी चलती है, जब तक विवाह नहीं हो जाता और शहनाई वह पद पर बने रहने की कोशिश करता है। जिसके पास धन है, वह नहीं बजने लगती। और शहनाई बजते ही दोनों प्रेमी फिर सदा धनी बने रहने की कोशिश करता है। हम सब कोशिश में लगे हैं। | सुख-शांति से रहने लगे, यहां खत्म हो जाती है। और आदमी की
हमारे अगर जीवन के प्रयास को एक शब्द में कहा जाए, तो वह | जिंदगी में जाकर देखें। यह है कि जीवन है परिवर्तनशील और हम कोशिश में लगे हैं कि शहनाई जब बजती है, उसके बाद ही असली उपद्रव शुरू होता यहां कुछ शाश्वत मिल जाए। कुछ शाश्वत। इस परिवर्तनशील | है। उसके पहले थोड़ी-बहुत सुख-शांति रही भी हो। उसके बाद प्रवाह में हम कहीं पैर रखने को कोई भूमि पा जाएं, जो बदलती | | बिलकुल नहीं रह जाती। लेकिन उसे हम ढांक देते हैं। वहां से परदा नहीं है। क्योंकि बदलाहट से बड़ा डर लगता है। कल का कोई | गिरा देते हैं। वहां कहानी खत्म हो जाती है। वह हमारी मनोवांछा भरोसा नहीं है। क्या होगा, क्या नहीं होगा, सब अनजान मालूम है, ऐसा होना चाहिए था। ऐसा होता नहीं है। होता है। और अंधेरे में बहे चले जाते हैं। इसलिए हम सब चाहते हम अपनी कहानियों में जो-जो लिखते हैं, वह अक्सर वही है, हैं कोई ठोस भूमि, कोई आधार, जिस पर हम खड़े हो जाएं, | जो जिंदगी में नहीं होता। हम अपनी कहानियों में उन चरित्रों को
सुरक्षित। सिक्योरिटी मिल जाए, यह हमारी चेष्टा है। यह चेष्टा | बहुत ऊपर उठाते हैं आसमान पर, जो जिंदगी में हो नहीं सकते। बताती है कि हमें क्षणभंगुरता दिखाई नहीं पड़ती।
जिंदगी तो बिलकुल क्षणभंगुर है। वहां कोई चीज थिर होती यहां सभी कुछ क्षणभर के लिए है। हमें यही दिखाई नहीं पड़ता। | नहीं; टिक नहीं सकती। टिकना वहां होता ही नहीं। . कृष्ण तो कहते हैं, और वही देखता है, जो क्षणभंगुर के भीतर | ___ इसे ठीक से समझ लें। क्षणभंगुर है जगत चारों तरफ। हम इस शाश्वत को देख लेता है।
जगत से डरकर अपना एक शाश्वत मन का जगत बनाने की हमें तो क्षणभंगुर ही नहीं दिखाई पड़ता। पहली बात। क्षणभंगुर | | कोशिश करते हैं। वह नहीं टिक सकता। हमारा क्या टिकेगा; हम न दिखाई पड़ने से हम अपने ही मन के शाश्वत निर्मित करने की खद क्षणभंगर हैं। बनाने वाला यह मन क्षणभंगर है। इससे कछ कोशिश करते हैं। वे झूठे सिद्ध होते हैं। वे सब गिर जाते हैं। भी बन नहीं सकता। और जिस सामग्री से यह बनाता है, वह भी
हमारा प्रेम, हमारी श्रद्धा, हमारा आदर, हमारे सब भाव मिट | क्षणभंगुर है। जाते हैं, धूल-धूसरित हो जाते हैं। हमारे सब भवन गिर जाते हैं। लेकिन अगर हम क्षणभंगुरता में गहरे देखने में सफल हो जाएं, हम कितने ही मजबूत पत्थर लगाएं, हमारे सब भवन खंडहर हो | हम क्षणभंगुरता के विपरीत कोई शाश्वत जगत बनाने की कोशिश जाते हैं। हम जो भी बनाते हैं इस जिंदगी में, वह सब जिंदगी मिटा न करें, बल्कि क्षणभंगुरता में ही आंखों को पैना गड़ा दें, तो देती है। कुछ बचता नहीं। सब राख हो जाता है। लेकिन फिर भी क्षणभंगुरता के पीछे ही, प्रवाह के पीछे ही, वह जो अविनश्वर है, हम स्थिर को बनाने की कोशिश करते रहते हैं, और असफल होते वह जो परमात्मा है शाश्वत, वह दिखाई पड़ जाएगा। रहते हैं। हमारे जीवन का विषाद यही है।
। दो तरह के लोग हैं जगत में। एक वे, जो क्षणभंगुर को देखकर
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अपने ही गृह-उद्योग खोल लेते हैं शाश्वत को बनाने के। और दूसरे | | ले शाश्वत को परिवर्तनशील में। बनाने की जरूरत नहीं है; हमारे वे, जो क्षणभंगुर को देखकर अपना गृह-उद्योग नहीं खोलते | बनाए वह न बनेगा। वह मौजूद है। वह जो परिवर्तन है, वह केवल शाश्वत को बनाने का, बल्कि क्षणभंगुर में ही गहरा प्रवेश करते | ऊपर की पर्त है, परदा है। उसके भीतर वह छिपा है, चिरंतन। हम हैं। अपनी दृष्टि को एकाग्र करते हैं। और क्षणभंगुर की परतों को | सिर्फ परदे को हटाकर देखने में सफल हो जाएं। पार करते हैं। क्षणभंगुर लहरों के नीचे वे शाश्वत के सागर को । हम कब तक सफल न हो पाएंगे? जब तक हम अपने उपलब्ध कर लेते हैं।
गृह-उद्योग जारी रखेंगे और शाश्वत को बनाने की कोशिश करते कृष्ण कहते हैं, इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब | | रहेंगे। जब तक हम परिवर्तन के विपरीत अपना ही सनातन बनाने चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता की कोशिश करेंगे, तब तक हम परिवर्तन में छिपे शाश्वत को न है, वही देखता है।
देख पाएंगे। उसके पास ही आंख है, वही आंख वाला है, वही प्रज्ञावान है, __गृहस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना शाश्वत बनाने जो इस सारी क्षणभंगुरता की धारा के पीछे समभाव से स्थित में लगा है। संन्यस्थ का आध्यात्मिक अर्थ होता है, जो अपना . शाश्वत को देख लेता है।
शाश्वत नहीं बनाता, जो परिवर्तन में शाश्वत की खोज में लगा है। एक बच्चा पैदा हुआ। आप देखते हैं, जीवन आया। फिर वह गृहस्थ का अर्थ है, घर बनाने वाला। संन्यस्थ का अर्थ है, घर बच्चा जवान हुआ, फिर बूढ़ा हुआ और फिर मरघट पर आप उसे खोजने वाला। संन्यासी उस घर को खोज रहा है, जो शाश्वत है विदा कर आए। और आप देखते हैं, मौत आ गई।
ही, जिसको किसी ने बनाया नहीं। वही परमात्मा है, वही असली कभी इस जन्म और मौत दोनों के पीछे समभाव से स्थित कोई घर है। और जब तक उसको नहीं पा लिया, तब तक हम घरविहीन, चीज आपको दिखाई पड़ी? जन्म दिख जाता है, मृत्यु दिख जाती होमलेस, भटकते ही रहेंगे। है। लेकिन जन्म और मृत्यु के भीतर जो छिपा हुआ जीवन है, वह गृहस्थ वह है, जो परमात्मा की फिक्र नहीं करता। यह चारों तरफ हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जन्म के पहले भी जीवन था, परिवर्तन है, इसके बीच में पत्थर की मजबूत दीवालें बनाकर अपना और मृत्यु के बाद भी जीवन होगा।
घर बना लेता है खुद। और उस घर को सोचता है, मेरा घर है, मेरा मृत्यु और जन्म जीवन की विराट व्यवस्था में केवल दो घटनाएं आवास है। हैं। जन्म एक लहर है और मृत्यु लहर का गिर जाना है। लेकिन __ गृहस्थ का अर्थ है, जिसका घर अपना ही बनाया हुआ है। जिससे लहर बनी थी, वह जो सागर था, वह जन्म के पहले भी था संन्यस्थ का अर्थ है, जो उस घर की तलाश में है जो अपना बनाया और मृत्यु के बाद भी होगा। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हुआ नहीं है, जो है ही।
तो जन्म के समय हम बैंड-बाजे बजा लेते हैं कि जीवन आया, ___दो तरह के शाश्वत हैं, एक शाश्वत जो हम बनाते हैं, वे झूठे उत्सव हुआ। फिर मृत्यु के समय हम रो-धो लेते हैं कि जीवन गया, ही होने वाले हैं। हमसे क्या शाश्वत निर्मित होगा! शाश्वत तो वह उत्सव समाप्त हुआ, मौत घट गई। लेकिन दोनों स्थितियों में हम है, जिससे हम निर्मित हुए हैं। आदमी जो भी बनाएगा, वह टूट चूक गए उसे देखने से, जो न कभी पैदा होता है और न कभी नष्ट | जाएगा, बिखर जाएगा। आदमी जिससे बना है, जब तक उसको न होता है। पर हमारी आंखें उसको नहीं देख पातीं।
खोज ले, तब तक सनातन, शाश्वत, अनादि, अनंत का कोई __ अगर हम जन्म और जीवन के भीतर परम जीवन को देख पाएं, | | अनुभव नहीं होता। तो कृष्ण कहते हैं, तो तुम्हारे पास आंख है।
और जब तक उसका अनुभव न हो जाए, तब तक हमारे जीवन तो आंख की एक परिभाषा हुई कि परिवर्तनशील में जो शाश्वत में चिंता, पीड़ा, परेशानी रहेगी। क्योंकि जहां सब कुछ बदल रहा को देख ले। जहां सब बदल रहा हो. वहां उसे देख ले. जो कभी | है, वहां निश्चित कैसे हुआ जा सकता है? जहां पैर के नीचे से नहीं बदलता है। वह आंख वाला है।
जमीन खिसकी जा रही हो, वहां कैसे निश्चित रहा जा सकता है? इसलिए हमने इस मुल्क में फिलासफी को दर्शन कहा है। | जहां हाथ से जीवन की रेत खिसकती जाती हो, और जहां एक-एक फिलासफी को हमने दर्शन कहा है। दर्शन का अर्थ है यह, जो देख पल जीवन रिक्त होता जाता हो और मौत करीब आती हो, वहां कैसे
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कौन है आंख वाला
शांत रहा जा सकता है? वहां कोई कैसे आनंदित हो सकता है? | लगा, जैसे मैं भी कहां खुशी की बात में एक दुख की बात बीच में जहां चारों तरफ घर में आग लगी हो, वहां कैसे उत्सव और कैसे | | ले आया। वे बड़े उदास हो गए। उन्होंने मेरी बात टालने की नृत्य चल सकता है?
| कोशिश की। उन्होंने कहा कि नहीं, मैंने खंडहर तो देखे हैं। फिर असंभव है। तब एक ही उपाय है कि इस आग लगे हुए घर के | लेकिन वही माडल, वही चर्चा। भीतर हम छोटा और घर बना लें, उसमें छिप जाएं अपने उत्सव को ___ मैंने कहा, आपने नहीं देखे। क्योंकि जिन्होंने ये बनाए थे, उन्होंने बचाने के लिए। लेकिन वह बच नहीं सकता। परिवर्तन की धारा, | आपसे भी बहुत ज्यादा सोचा होगा। इतने बड़े महल आप नहीं बना जो भी हम बनाएंगे, उसे तोड़ देगी।
सकोगे। आज न बनाने वाले हैं, न उनके महल बचे। सब मिट्टी हो बुद्ध का वचन बहुत कीमती है। बुद्ध ने कहा है, ध्यान रखना, | गया है। आप जो बनाओगे वह मिट्टी हो जाएगा, इसको ध्यान में जो बनाया जा सकता है, वह मिटेगा। बनाना एक छोर है, मिटना | रखकर बनाना। वे कहने लगे कि आप कुछ ऐसी बातें करते हो कि दूसरा छोर है। और जैसे एक डंडे का एक छोर नहीं हो सकता, | मन उदास हो जाता है। अकारण आप उदास कर देते हैं। दूसरा भी होगा ही। चाहे आप कितना ही छिपाओ, भुलाओ, डंडे | | मैं आपको उदास नहीं कर रहा हूं। दूसरा छोर देखना जरूरी है। का दूसरा छोर भी होगा ही। या कि आप सोचते हैं कोई ऐसा डंडा | | दूसरे छोर को देखकर बनाओ। दूसरे छोर को जानते हुए बनाओ। हो सकता है, जिसमें एक ही छोर हो? वह असंभव है। | जो भी बनाएंगे, वह मिट जाएगा। - तो बुद्ध कहते हैं, जो बनता है, वह मिटेगा। जो निर्मित होता है, | हमारा बनाया हआ शाश्वत नहीं हो सकता। हम शाश्वत नहीं वह बिखरेगा। दूसरे छोर को भुलाओ मत। वह दूसरा छोर है ही, | | हैं। लेकिन हमारे भीतर और इस परिवर्तन के भीतर कुछ है, जो उससे बचा नहीं जा सकता। लेकिन हमारी आंखें अंधी हैं। और हम | | शाश्वत है। अगर हम उसे देख लें...। ऐसे अंधे हैं, हमारी आंखों पर ऐसी परतें हैं कि जिसका हिसाब नहीं। उसे देखा जा सकता है। परिवर्तन को जो साक्षीभाव से देखने
मैं एक उजड़े हुए नगर में मेहमान था। वह नगर कभी बहुत बड़ा लगे, थोड़े दिन में परिवर्तन की पर्त हट जाती है और शाश्वत के था। लोग कहते हैं कि कोई सात लाख उसकी आबादी थी। रही। | दर्शन होने शुरू हो जाते हैं। परिवर्तन से जो लड़े नहीं, परिवर्तन को होगी, क्योंकि खंडहर गवाही देते हैं। केवल सात सौ वर्ष पहले ही जो देखने लगे; परिवर्तन के विपरीत कोई उपाय न करे, परिवर्तन वह नगर आबाद था। सात लाख उसकी आबादी थी। और अब | | के साथ जीने लगे; परिवर्तन से भागे नहीं, परिवर्तन में बहने लगे; मुश्किल से नौ सौ आदमी उस नगर में रहते हैं। नौ सौ कुछ की | न कोई लड़ाई, न कोई झगड़ा, न विपरीत में कोई आयोजन; जो संख्या तख्ती पर लगी हुई है।
परिवर्तन को राजी हो जाए, सिर्फ जागा हुआ देखता रहे। उस नगर में इतनी-इतनी बड़ी मस्जिदें हैं कि जिनमें दस हजार धीरे-धीरे...। परिवर्तन की पर्त बहुत पतली है। होगी ही। परिवर्तन लोग एक साथ नमाज पढ़ सकते थे। इतनी-इतनी बड़ी धर्मशालाएं की पर्त बहुत मोटी नहीं हो सकती, बहुत पतली है, तभी तो क्षण में हैं, जिनमें अगर गांव में एक लाख लोग भी मेहमान हो जाएं बदल जाती है। धीरे-धीरे परिवर्तन की पर्त मखमल की पर्त मालूम अचानक, तो भी कोई अड़चन न होगी। आज वहां केवल नौ सौ | होने लगती है। उसे आप हटा लेते हैं। उसके पार शाश्वत दिखाई कुछ आदमी रहते हैं। सारा नगर खंडहर हो गया है। | पड़ना शुरू हो जाता है।
जिन मित्र के साथ मैं ठहरा था, वे अपना नया मकान बनाने की | ___ कृष्ण कहते हैं, नाशरहित परमेश्वर को जो समभाव से स्थित योजना कर रहे थे। वे इतने भावों से भरे थे नए मकान के; मुझे | देखता है, वही देखता है। क्योंकि वह पुरुष समभाव से स्थित हुए नक्शे दिखाए, माडल दिखाए कि ऐसा बनाना है, ऐसा बनाना है। । परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं
और उनके चारों तरफ खंडहर फैले हुए हैं। उनकी भी उम्र उस समय | | करता है। इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। कोई साठ के करीब थी। अब तो वे हैं ही नहीं। चल बसे। मकान __ क्योंकि वह पुरुष समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान बनाने की योजना कर रहे थे।
| देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है। इसे समझ लें। उनकी सारी योजनाएं सुनकर मैंने कहा, लेकिन एक बार तुम घर | इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। के बाहर जाकर ये खंडहर भी तो देखो। उन्हें मेरी बात सुनकर ऐसा हम अपने ही द्वारा अपने आपको नष्ट करने में लगे हैं। हम जो
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गीता दर्शन भाग-660
भी कर रहे हैं, उसमें हम अपने को नष्ट कर रहे हैं। लोग, अगर मैं हालत देखें। रिटायर होते ही से जिंदगी बेकार हो जाती है। समय उनसे कहता हूं कि ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा में उतरो, तो वे नहीं कटता। कहते हैं, समय कहां! और वे ही लोग ताश खेल रहे हैं। उनसे मैं | मनसविद कहते हैं कि रिटायर होते ही आदमी की दस साल उम्र पूछता हूं, क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय काट रहे हैं। उनसे | कम हो जाती है। अगर वह काम करता रहता, दस साल और जिंदा मैं कहूं, ध्यान करो। वे कहते हैं, समय कहां! होटल में घंटों बैठकर | रहता। क्योंकि अब कहां काटे? तो अपने को ही काट लेता है। वे सिगरेट फूंक रहे हैं, चाय पी रहे हैं, व्यर्थ की बातें कर रहे हैं। | अपने को ही नष्ट कर लेता है। उनसे मैं पूछता हूं, क्या कर रहे हो? वे कहते हैं, समय नहीं कटता, यह सूत्र कहता है कि जो व्यक्ति परिवर्तन के भीतर छिपे हुए समय काट रहे हैं।
शाश्वत को समभाव से देख लेता है, वह फिर अपने आपको नष्ट बड़े मजे की बात है। जब भी कोई काम की बात हो, तो समय नहीं करता। नहीं है। और जब कोई बे-काम बात हो, तो हमें इतना समय है कि नहीं तो हम नष्ट करेंगे। हम करेंगे क्या? इस क्षणभंगुर के प्रवाह उसे काटना पड़ता है। ज्यादा है हमारे पास समय!
में हम भी क्षणभंगुर का एक प्रवाह हो जाएंगे। और हम क्या करेंगे? . कितनी जिंदगी है आपके पास? ऐसा लगता है, बहुत ज्यादा है; इस क्षणभंगुर के प्रवाह में, इससे लड़ने में हम कुछ इंतजाम करने जरूरत से ज्यादा है। आप कुछ खोज नहीं पा रहे, क्या करें इस | में, सुरक्षा बनाने में, मकान बनाने में, धन इकट्ठा करने में, अपने जिंदगी का। तो ताश खेलकर काट रहे हैं। सिगरेट पीकर काट रहे को बचाने में सारी शक्ति लगा देंगे और यह सब बह जाएगा। हम हैं। शराब पीकर काट रहे हैं। सिनेमा में बैठकर काट रहे हैं। फिर बचेंगे नहीं। वह सब जो हमने किया, व्यर्थ चला जाएगा। भी नहीं कटती, तो सुबह जिस अखबार को पढ़ा, उसे दोपहर को | । थोड़ा सोचें, आपने जो भी जिंदगी में किया है, जिस दिन आप फिर पढ़कर काट रहे हैं। शाम को फिर उसी को पढ़ रहे हैं। | मरेंगे, उसमें से कितना सार्थक रह जाएगा? अगर आज ही आपकी
कटती नहीं जिंदगी; ज्यादा मालूम पड़ती है आपके पास। समय | मौत आ जाए, तो आपने बहुत काम किए हैं—अखबार में नाम बहुत मालूम पड़ता है और आप काटने के उपाय खोज रहे हैं। | छपता है, फोटो छपती है, बड़ा मकान है, बड़ी गाड़ी है, धन है,
पश्चिम में विचारक बहुत परेशान हैं। क्योंकि काम के घंटे कम | तिजोरी है, बैंक बैलेंस है, प्रतिष्ठा है, लोग नमस्कार करते हैं, लोग होते जा रहे हैं। और आदमी के पास समय बढ़ता जा रहा है। और | मानते हैं, डरते हैं, भयभीत होते हैं, जहां जाएं, लोग उठकर खड़े काटने के उपाय कम पड़ते जा रहे हैं। बहुत मनोरंजन के साधन | होकर स्वागत करते हैं लेकिन मौत आ गई आज। इसमें से तब खोजे जा रहे हैं, फिर भी समय नहीं कट रहा है।
कौन-सा सार्थक मालूम पड़ेगा? मौत आते ही यह सब व्यर्थ हो तो पश्चिम के विचारक घबड़ाए हुए हैं कि अगर पचास साल जाएगा। और आप खाली हाथ विदा होंगे। ऐसा ही चला, तो पचास साल में मुश्किल से एक घंटे का दिन हो। __ आपने जिंदगी में कुछ भी कमाया नहीं; सिर्फ गंवाया। आपने जाएगा काम का। वह भी मुश्किल से। वह भी सभी लोगों के लिए | | जिंदगी गंवाई। आपने अपने को काटा और नष्ट किया। आपने काम नहीं मिल सकेगा। क्योंकि टेक्नालाजी, यंत्र सब सम्हाल अपने को बेचा और व्यर्थ की चीजें खरीद लाए। आपने आत्मा लेंगे। आदमी खाली हो जाएगा।
गंवाई और सामान इकट्ठा कर लिया। बड़े से बड़ा जो खतरा पश्चिम में आ रहा है, वह यह कि जब | जीसस ने बार-बार कहा है कि क्या होगा फायदा, अगर तुमने आदमी खाली हो जाएगा और समय काटने को कुछ भी न होगा, | | पूरी दुनिया भी जीत ली और अपने को गंवा दिया? क्या पाओगे तब आदमी क्या करेगा? आदमी बहुत उपद्रव मचा देगा। वह कुछ | तुम, अगर तुम सारे संसार के मालिक भी हो गए और अपने ही भी काटने लगेगा समय काटने के लिए। वह कुछ भी करेगा; समय मालिक न रहे? काटेगा। क्योंकि बिना समय काटे वह नहीं रह सकता।
महावीर ने बहुत बार कहा है कि जो अपने को पा लेता है, वह आपको पता नहीं चलता। आप कहते रहते हैं कि कब जिंदगी सब पा लेता है। जो अपने को गंवा देता है, वह सब गंवा देता है। के उपद्रव से छुटकारा हो! कब दफ्तर से छुटूं! कब नौकरी से मुक्ति __ हम सब अपने को गंवा रहे हैं। कोई फर्नीचर खरीद ला रहा है मिले! कब रिटायर हो जाऊं! लेकिन जो रिटायर होते हैं, उनकी | आत्मा बेचकर। लेकिन हमें पता नहीं चलता कि आत्मा बेची,
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0 कौन है आंख वाला
क्योंकि आत्मा का हमें पता ही नहीं है। हमें पता ही नहीं, हम कब जो कुछ हो रहा है, जो भी कर्म हो रहे हैं, वे प्रकृति से हो रहे उसको बेच देते हैं; कब हम उसको खो आते हैं। जिसका हमें पता | | हैं। और जो भी भाव हो रहे हैं, वह परमात्मा से हो रहे हैं, वह पुरुष ही नहीं, वह संपदा कब रिक्त होती चली जाती है। | से हो रहे हैं।
चार पैसे के लिए आदमी बेईमानी कर सकता है, झूठ बोल पुरुष और प्रकृति दो तत्व हैं। सारे कर्म प्रकृति से हो रहे हैं और सकता है, धोखा दे सकता है। पर उसे पता नहीं कि धोखा, सारे भाव पुरुष से हो रहे हैं। इन दोनों को इस भांति देखते ही बेईमानी, झूठ बोलने में वह कुछ गंवा भी रहा है, वह कुछ खो भी | आपके भीतर का जो आत्यंतिक बिंदु है, वह दोनों के बाहर हो जाता रहा है। वह जो खो रहा है, उसे पता नहीं है। वह जो कमा रहा है | है। न तो वह भोक्ता रह जाता है और न कर्ता रह जाता है, वह देखने चार पैसे, वह उसे पता है। इसलिए कौड़ियां हम इकट्ठी कर लेते हैं | | वाला ही हो जाता है। एक तरफ देखता है प्रकृति की लीला और और हीरे खो देते हैं।
एक तरफ देखता है भाव की, पुरुष की लीला। और दोनों के पीछे कृष्ण कहते हैं, वही आदमी अपने को नष्ट करने से बचा सकता सरक जाता है। वह तीसरा बिंदु हो जाता है, असली पुरुष हो जाता है, जिसको सनातन शाश्वत का थोड़ा-सा बोध आ जाए। उसके | है। तो कृष्ण कहते हैं, वह सच्चिदानंदघन को प्राप्त हो जाता है। बोध आते ही अपने भीतर भी शाश्वत का बोध आ जाता है। ऐसा जो देखता है, वही देखता है। बाकी सब अंधे हैं।
जो हम बाहर देखते हैं, वही हमें भीतर दिखाई पड़ता है। जो हम | जीसस बहुत बार कहते हैं कि अगर तुम्हारे पास आंखें हों, तो भीतर देखते हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। बाहर और भीतर | देख लो। अगर तुम्हारे पास कान हों, तो सुन लो। दो नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जिनसे वे बोल रहे थे, उनके पास ऐसी ही आंखें थीं, जैसी अगर मुझे सागर की लहरों में सागर दिखाई पड़ जाए, तो मुझे | आपके पास आंखें हैं। जिनसे वे बोल रहे थे, वे कोई बहरे लोग मेरे मन की लहरों में मेरी आत्मा भी दिखाई पड़ जाएगी। अगर एक नहीं थे। कोई गूंगे-बहरों की भीड़ में नहीं बोल रहे थे। लेकिन वे बच्चे के जन्म और एक बूढ़े की मृत्यु में लहरें मालूम पड़ें और भीतर | | निरंतर कहते हैं कि आंखें हों, तो देख लो। कान हों, तो सुन लो। छिपे हए जीवन की झलक मझे आ जाए. तो मझे अपने बढापे. | क्या मतलब है उनका? अपनी जवानी, अपने जन्म, अपनी मौत में भी जीवन की शाश्वतता | | मतलब यह है कि हमारे पास आंखें तो जरूर हैं, लेकिन अब का पता हो जाएगा। इस बोध का नाम ही दृष्टि है। और इस बोध | तक हमने उनसे देखा नहीं। या जो हमने देखा है, वह देखने योग्य से ही कोई परम गति को प्राप्त होता है।
नहीं है। हमारे पास कान तो जरूर हैं, लेकिन हमने उनसे कुछ सुना __ और जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए नहीं; और जो हमने सुना है, न सुनते तो कोई हर्ज न था। चूक जाते, हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है। तो कुछ भी न चूकते। न देख पाते, न सुन पाते जो हमने सुना और
वही जो मैं आपसे कह रहा था। चाहे आप ऐसा समझें कि सब देखा है, तो कोई हानि नहीं थी। परमात्मा कर रहा है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं। सांख्य कहता | | थोड़ा हिसाब लगाया करें कभी-कभी, कि जिंदगी में जो भी है, सभी कुछ प्रकृति कर रही है, तब भी आप अकर्ता हो जाते हैं। आपने देखा है, अगर न देखते, क्या चूक जाता? भला ताजमहल
मल बिंद है, अकर्ता हो जाना। नान-डुअर, आप करने वाले देखे हों। न देखते, तो क्या चूक जाता? और जो भी आपने सुना नहीं हैं। किसी को भी मान लें कि कौन कर रहा है, इससे फर्क नहीं है, अगर न सुनते, तो क्या चूक जाता? पड़ता। सांख्य की दृष्टि को कृष्ण यहां प्रस्तावित कर रहे हैं। __ अगर आपके पास ऐसी कोई चीज देखने में आई हो, जो आप
वे कह रहे हैं, जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति से कहें कि उसे अगर न देखते, तो जरूर कुछ चूक जाता, और जीवन ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता | | अधूरा रह जाता। और ऐसा कुछ सुना हो, कि उसे न सुना होता, है। और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक तो कानों का होना व्यर्थ हो जाता। अगर कुछ ऐसा देखा और ऐसा परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस सुना हो कि मौत भी उसे छीन न सके और मौत के क्षण में भी वह परमात्मा के संकल्प से ही संपूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस आपकी संपदा बनी रहे, तो आपने आंख का उपयोग किया, तो काल में सच्चिदानंदघन को प्राप्त होता है।
| आपने कान का उपयोग किया, तो आपका जीवन सार्थक हुआ है।
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गीता दर्शन भाग-660
कृष्ण कहते हैं, वही देखता है, जो इतनी बातें कर लेता हुआ देख रहा हूं। और मैं तीन सप्ताह सिर्फ देखूगा। मैं देखने को है-परिवर्तन में शाश्वत को पकड़ लेता है, प्रवाह में नित्य को देख नहीं भूलूंगा। मैं स्मरण रसुंगा उठते-बैठते, चाहे कितनी ही बार लेता है, बदलते हुए में न बदलते हुए की झलक पकड़ लेता है। चूक जाऊं; बार-बार अपने को लौटा लूंगा और खयाल रखूगा कि वही देखता है।
मैं सिर्फ देख रहा हूं, मैं सिर्फ साक्षी हूं। मुझे कोई निर्णय नहीं लेना कर्तृत्व प्रकृति का है। भोक्तृत्व पुरुष का है। और जो दोनों के | है, क्या बुरा, क्या भला; क्या करना, क्या नहीं करना। मैं कोई बीच साक्षी हो जाता है। जो दोनों से अलग कर लेता है, कहता है, निर्णय न लूंगा। मैं सिर्फ देखता रहूंगा। न मैं भोक्ता हूं और न मैं कर्ता हूं...।
तीन सप्ताह इस पर आप प्रयोग करें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में सांख्य की यह दृष्टि बड़ी गहन दृष्टि है। कभी-कभी वर्ष में तीन | आएगा। तो शायद आपकी आंख से थोड़ी धूल हट जाए और सप्ताह के लिए छुट्टी निकाल लेनी जरूरी है।
आपको पहली दफा जिंदगी दिखाई पड़े। आंख से थोड़ी धूल हट छुट्टियां हम निकालते हैं, लेकिन हमारी छुट्टियां, जो हम रोज जाए और आंख ताजी हो जाए। और आपको बढ़ते हुए वृक्ष में वह करते हैं, उससे भी बदतर होती हैं। हम छुट्टियों से थके-मांदे लौटते | भी दिखाई पड़ जाए, जो भीतर छिपा है। बहती हुई नदी में वह हैं। और घर आकर बड़े प्रसन्न अनुभव करते हैं कि चलो, छट्टी | | दिखाई पड़ जाए, जो कभी नहीं बहा। चलती, सनसनाती हवाओं खत्म हुई; अपने घर लौट आए। छुट्टी है ही नहीं। हमारा जो में वह सुनाई पड़ जाए, जो बिलकुल मौन है। सब तरफ आपको हॉली-डे है, जो अवकाश का समय है, वह भी हमारे बाजार की परिवर्तन के पीछे थोड़ी-सी झलक उसकी मिल सकती है, जो दुनिया की ही दूसरी झलक है। उसमें कोई फर्क नहीं है। शाश्वत है।
लोग पहाड़ पर जाते हैं। और वहां भी रेडियो लेकर पहुंच जाते | लेकिन आपकी आंख पर जमी हुई धूल थोड़ी हटनी जरूरी है। हैं। रेडियो तो घर पर ही उपलब्ध था। वह पहाड़ पर जो सूक्ष्म संगीत उस धूल को हटाने का उपाय है, साक्षी के भाव में प्रतिष्ठा। अगर चल रहा है, उसे सुनने का उन्हें पता ही नहीं चलता। वहां भी जाकर आप तीन सप्ताह अवकाश ले लें, बाजार से नहीं, कर्म से, कर्ता रेडियो वे उसी तेज आवाज से चला देते हैं। उससे उनको तो कोई | से; भोग से नहीं, भोक्ता से...। शांति नहीं मिलती, पहाड़ की शांति जरूर थोड़ी खंडित होती है। __ भोग से भाग जाने में कोई कठिनाई नहीं है। आप अपनी पत्नी
सारा उपद्रव लेकर आदमी अवकाश के दिनों में भी पहुंच जाता को छोड़कर भाग सकते हैं जंगल में। पत्नी भाग सकती है मंदिर में है जंगलों में। सारा उपद्रव लेकर! अगर उस उपद्रव में जरा भी पति को छोड़कर। भोग से भागने में कोई अड़चन नहीं है, क्योंकि कमी हो, तो उसको अच्छा नहीं लगता। वह सारा उपद्रव वहां जमा भोग तो बाहर है। लेकिन भोक्ता भीतर बैठा हुआ छिपा है, वह लेता है।
हमारा मन है। वह वहां भी भोगेगा। वह वहां भी मन में ही भोग के इसलिए सभी सुंदर स्थान खराब हो गए हैं। क्योंकि वहां भी संसार निर्मित कर लेगा। वही रस लेने लगेगा। होटल खड़ी करनी पड़ती है। वहां भी सारा उपद्रव वही लाना पड़ता वहां भीतर से मैं भोक्ता नहीं हूं, भीतर से मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसी है, जो जहां से आप छोड़कर आ रहे हैं, वही सारा उपद्रव वहां भी | दोनों धाराओं के पीछे साक्षी छिपा है। उस साक्षी को खोदना है। ले आना पड़ता है जहां आप जा रहे हैं।
उसको अगर आप खोद लें, तो आपको आंख उपलब्ध हो जाएगी। __अगर यह कृष्ण का सूत्र समझ में आए, तो इसका उपयोग, आप | | और आंख हो, तो दर्शन हो सकता है। वर्ष में तीन सप्ताह के लिए अवकाश ले लें। अवकाश का मतलब ___ शास्त्र पढ़ने से नहीं होगा दर्शन; दृष्टि हो, तो दर्शन हो सकता है, एकांत जगह में चले जाएं। और इस भाव को गहन करें कि जो | । । है। शब्द सुन लेने से नहीं होगा सत्य का अनुभव; आंख हो, तो भी कर्म हो रहा है, वह प्रकृति में हो रहा है। और जो भी भाव हो सत्य दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि सत्य प्रकाश जैसा है। अंधे को रहा है, वह मन में हो रहा है। और मैं दोनों का द्रष्टा हूं, मैं सिर्फ | | हम कितना ही समझाएं कि प्रकाश कैसा है, हम न समझा पाएंगे। देख रहा हूं। जस्ट ए वाचर ऑन दि हिल्स, पहाड़ पर बैठा हुआ मैं | अंधे की तो आंख की चिकित्सा होनी जरूरी है। सिर्फ एक साक्षी हूं। सारा कर्म और भाव का जगत नीचे रह गया। ऐसा हुआ कि एक गांव में बुद्ध ठहरे, और एक अंधे आदमी सारा भाव और कर्म मेरे चारों तरफ चल रहा है और मैं बीच में खड़ा को लोग उनके पास लाए। और उन लोगों ने कहा कि यह अंधा मित्र
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o कौन है आंख वाला
है हमारा, बहुत घनिष्ठ मित्र है। लेकिन यह बड़ा तार्किक है। और ली थी। यह उन्हें खयाल ही चूक गया था कि आंख न हो तो प्रकाश हम पांच आंख वाले भी इसको समझा नहीं पाते कि प्रकाश है। और को समझाया कैसे जाए! प्रकाश कोई समझाने की बात नहीं, यह हंसता है और हमारे तर्क सब तोड़ देता है। और कहता है कि तुम अनुभव की बात है। मुझे अंधा सिद्ध करने के लिए प्रकाश का सिद्धांत गढ़ लिए हो। । चिकित्सक ने कहा कि पहले क्यों न ले आए? इस आदमी की
यह अंधा आदमी कहता है कि प्रकाश वगैरह है नहीं। तुम सिर्फ आंख अंधी नहीं है, केवल जाली है। और छः महीने की दवा के मुझे अंधा सिद्ध करना चाहते हो, इसलिए प्रकाश का सिद्धांत गढ़ | इलाज से ही जाली कट जाएगी। यह आदमी देख सकेगा। तुम इतने लिए हो, तुम सिद्ध करो। अगर प्रकाश है, तो मैं उसे छूकर देखना दिन तकं कहां थे? । चाहता हूं। क्योंकि जो भी चीज है, वह छूकर देखी जा सकती है। ___ उन्होंने कहा, हम तो तर्क में उलझे थे। हमें न इस अंधे आदमी अगर तुम कहते हो, छूने में संभव नहीं है, तो मैं चखकर देख | की आंख से कोई प्रयोजन था। हमें तो अपने सिद्धांत समझाने में सकता हूं। अगर तुम कहते हो, उसमें स्वाद नहीं है, तो मैं सुन रस था। वह तो बुद्ध की कृपा कि उन्होंने कहा कि चिकित्सक के सकता हूं। तुम प्रकाश को बजाओ। मेरे कान सुनने में समर्थ हैं। पास ले जाओ। अगर तुम कहते हो, वह सुना भी नहीं जा सकता, तो तुम मुझे छः महीने बाद उस आदमी की आंख ठीक हो गई। तब तक बुद्ध प्रकाश की गंध दो, तो मैं संघ लूं।
| तो बहुत दूर जा चुके थे। लेकिन वह आदमी बुद्ध को खोजता हुआ मेरे पास चार इंद्रियां हैं। तुम इन चारों में से किसी से प्रकाश से उनके गांव तक पहुंचा। उनके चरणों पर गिर पड़ा। बुद्ध को तो मेरा मिलन करवा दो। और अगर तुम चारों से मिलन करवाने में | खयाल भी नहीं रहा था कि वह कौन है। बुद्ध ने पूछा, तू इतना क्यों असमर्थ हो, तो तुम झूठी बातें मत करो। न तो तुम्हारे पास आंख | आनंदित हो रहा है? तेरी क्या खुशी? इतना उत्सव किस बात का? है और न मेरे पास आंख है। लेकिन तुम चालाक हो और मैं तू किस बात का धन्यवाद देने आया है? मेरे चरणों में इतने आनंद सीधा-सादा आदमी हूं। और तुमने मुझे अंधा सिद्ध करने के लिए के आंसू क्यों बहा रहा है? उसने कहा कि तुम्हारी कृपा। मैं यह प्रकाश का सिद्धांत गढ़ लिया है।
कहने आया हूं कि प्रकाश है। उन पांचों मित्रों ने कहा कि इस अंधे को हम कैसे समझाएं? न | | लेकिन प्रकाश तभी है, जब आंखें हैं। हम चखा सकते, न स्पर्श करा सकते, न कान में ध्वनि आ सकती। कृष्ण कह रहे हैं, उस आदमी को मैं कहता हूं आंख वाला, जो प्रकाश को कैसे बजाओ? तो हम आपके पास ले आए हैं। और आप | | परिवर्तन में शाश्वत को देख लेता है। हैं बुद्ध पुरुष, आप हैं परम ज्ञान को उपलब्ध। इतना ही काफी होगा | पांच मिनट रुकें। कोई बीच से उठे नहीं। कीर्तन पूरा हो, तब कि हमारे अंधे मित्र को आप प्रकाश के संबंध में कुछ समझा दें। | जाएं।
बुद्ध ने कहा, तुम गलत आदमी के पास आ गए। मैं तो समझाने में भरोसा ही नहीं करता। तुम किसी वैद्य के पास ले जाओ इस अंधे
आदमी को। इसकी आंख का इलाज करवाओ। समझाने से क्या होगा? तुम पागल हो? अंधे को समझाने बैठे हो। इसमें तुम्हारा पागलपन सिद्ध होता है। तुम इसकी चिकित्सा करवाओ। तुम इसे वैद्य के पास ले जाओ। इसकी आंख अगर ठीक हो जाए, तो तुम्हारे बिना तर्क के भी, तुम्हारे बिना समझाए यह प्रकाश को जानेगा। और तुम अगर इनकार करोगे कि प्रकाश नहीं है, तो यह सिद्ध करेगा कि प्रकाश है। आंख के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है।
संयोग की बात थी कि वे उसे वैद्य के पास ले गए। उन्हें यह कभी खयाल ही नहीं आया था। वे सभी पंडित थे. सभी ब्राह्मण थे. सभी ज्ञानी थे। सब तरह से तर्क लगाकर समझाने की कोशिश कर
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अध्याय 13 ग्यारहवां प्रवचन
साधना और समझ
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अनादित्वानिर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । | सुनते हैं। अब भी सुनने जाते हैं। समझ अभी भी पैदा नहीं हुई। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।।३१।। चालीस वर्ष से जो आदमी कृष्णमूर्ति को सुन रहा है, अब उसको
यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । | कृष्णमूर्ति को सुनने जाने की क्या जरूरत है अगर समझ पैदा हो सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।। ३ ।। गई हो? अब भी सुनने जाता है। और कृष्णमूर्ति चालीस साल से हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह एक ही बात कह रहे हैं कि समझ पैदा करो। वह अभी चालीस वर्ष अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न तक सुनकर भी पैदा नहीं हुई है। वह चार हजार वर्ष सुनकर भी पैदा करता है और न लिपायमान होता है।
नहीं होगी। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के न तो सुनने से समझ पैदा हो सकती है, न पढ़ने से समझ पैदा कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हो सकती है। ध्यान की भूमि में ही समझ पैदा हो सकती है। हां, हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से सुनने से ध्यान की तरफ जाना हो सकता है। पढ़ने से ध्यान की तरफ लिपायमान नहीं होता है।
जाना हो सकता है। और अगर समग्र मन से सुनें, तो सुनना भी . | ध्यान बन सकता है। और अगर समग्र मन से पढ़ें. तो पढ़ना भी
| ध्यान बन सकता है। लेकिन ध्यान जरूरी है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, आप ध्यान या • ध्यान का अर्थ समझ लें। ध्यान का अर्थ है, मन की ऐसी साधना पर इतना जोर क्यों देते हैं? आध्यात्मिक, अवस्था जहां कोई तरंग नहीं है। निस्तरंग चैतन्य में ही समझ का दार्शनिक ग्रंथों का पठन-पाठन या कृष्णमूर्ति या आप जन्म होता है। जैसे ज्ञानियों का श्रवण और स्वयं चिंतन-मनन, इनसे यह निस्तरंग चैतन्य कई तरह से पैदा हो सकता है। किसी को जो समझ आती है, क्या वह परिवर्तन के लिए पर्याप्त प्रार्थना से पैदा हो सकता है। किसी को पूजा से पैदा हो सकता है। नहीं है? क्या यही साधना नहीं है? ध्यान को बैठने किसी को नृत्य से, कीर्तन से पैदा हो सकता है। किसी को सुनने से का फिर क्या प्रयोजन है? ध्यान का अर्थ अगर पैदा हो सकता है। किसी को देखने से पैदा हो सकता है। किसी को साक्षी-भाव है, तो दिनभर सब जगह हर काम करते | मात्र बैठने से पैदा हो सकता है। किसी को योग की क्रियाओं से पैदा वक्त भी पूरा अवसर है। फिर ध्यान करने की, अलग हो सकता है। किसी को तंत्र की क्रियाओं से पैदा हो सकता है। से बैठने की क्या जरूरत है?
निस्तरंग चित्त बहुत तरह से पैदा हो सकता है। और जिस तरह से आपको पैदा होता है, जरूरी नहीं है कि दूसरे को भी उसी तरह से
| पैदा हो। तो आपको खोजना पड़ेगा कि कैसे निस्तरंग चित्त पैदा हो! स मझ काफी है, लेकिन समझ केवल सुन लेने या पढ़ निस्तरंग चित्त का नाम ही ध्यान है। तरंगायित चित्त का नाम मन रा लेने से उपलब्ध नहीं होती। समझ को भी भूमि देनी | | है। वह जो उथल-पुथल से भरा हुआ मन है, उसमें कोई भी समझ
पडती है। उसके बीज को भी भमि देनी पड़ती है। बीज पैदा नहीं हो सकती। क्योंकि वहां इतना भकंप चल रहा है कि कोई में पूरी संभावना है कि वह वृक्ष हो जाए, लेकिन बीज को भी जमीन | | बीज थिर नहीं हो सकता। अंकुरित होने के लिए अवसर ही नहीं में न डालें, तो वह वृक्ष नहीं होगा।
है। इसलिए ध्यान पर इतना जोर है। ___ ध्यान समझ के लिए भूमि है। समझ काफी है, उससे जीवन में | __ और अगर आप सोचते हों कि कृष्णमूर्ति का ध्यान पर जोर नहीं क्रांति हो जाएगी। लेकिन समझ का बीज ध्यान के बिना टूटेगा ही है, तो आप समझे ही नहीं। ध्यान शब्द का वे उपयोग नहीं करते नहीं।
हैं, क्योंकि उनको ऐसा खयाल है कि ध्यान शब्द बहुत विकृत हो और अगर समझ आप में पैदा होती हो बिना ध्यान के, तो गया है। लेकिन कोई शब्द विकृत नहीं होते। और केवल नए शब्द कृष्णमूर्ति को या मुझे सुनने का भी क्या प्रयोजन है! और मुझे वर्षों | चुन लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। से बहुत लोग सुनते हैं, कृष्णमूर्ति को चालीस वर्षों से बहुत लोग कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे सुनते समय सिर्फ सुनो!
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वह ध्यान हो गया। कोई भी क्रिया करते वक्त अगर सिर्फ क्रिया | कहते कि चौबीस ही घंटे व्यायाम क्यों न किया जाए! करें, तो ठीक की जाए और उसके संबंध में सोचा न जाए, तो ध्यान हो जाएगा। | है। जो आदमी चौबीस घंटे व्यायाम कर रहा है, उसको एक घंटे चलते वक्त अगर केवल चला जाए और कुछ भी मन में न करने | व्यायाम करने की कोई जरूरत भी नहीं है। जो चौबीस घंटे श्रम में दिया जाए, तो ध्यान हो जाएगा। भोजन करते वक्त अगर भोजन लगा हुआ है, उसे और व्यायाम की क्या जरूरत है? कोई जरूरत किया जाए और मन में उसके संबंध में कोई चिंतन न किया जाए, नहीं है। लेकिन जो व्यायाम नहीं कर रहा है, उसे घंटेभर भी कर तो भोजन करना ध्यान हो जाएगा। अगर आप अपने चौबीस घंटे लेने से चौबीस घंटे पर परिणाम होगा। को ध्यान में बदल लेते हैं, तो बहुत अच्छा है।
ध्यान के लिए एक घंटा निकाल लेना इसलिए उपयोगी है कि लेकिन लोग बहुत बेईमान हैं। एक घंटा न बैठने के लिए वे | | आप उस समय को पूरा का पूरा ही ध्यान में नियोजित कर सकते कहेंगे, चौबीस घंटे ध्यान क्यों नहीं किया जा सकता! और चौबीस | | हैं। एक दफा कला आ जाए, तो उस कला का उपयोग आप चौबीस घंटे वे ध्यान करने वाले नहीं हैं। और एक घंटा बैठना न पड़े, | घंटे कर सकते हैं। ध्यान एक कला है। फिर आप जो भी आप करें, इसलिए चौबीस घंटे पर टालेंगे।
| वह ध्यानपूर्वक कर सकते हैं। और तब अलग से ध्यान करने की अगर आप चौबीस घंटे ही ध्यान कर सकते हों, तो कौन आपको | | कोई जरूरत नहीं रह जाती। कहेगा कि घंटेभर करिए! आप मजे से चौबीस घंटे करिए। लेकिन | लेकिन जब तक वैसी घटना न घटी हो, तब तक कृष्णमूर्ति को चौबीस घंटे आप कर नहीं रहे हैं। और कर रहे होते, तो यहां मेरे | सुनकर या किसी को भी सुनकर तरकीबें मत निकालें। हम इतने पास पूछने को नहीं आना पड़ता।
| होशियार हैं तरकीबें निकालने में, कि जिससे हमारा मतलब सधता क्या जरूरत है मेरे पास आने की? ध्यान नहीं है, इसलिए कहीं | | हो, वह बात हम तत्काल निकाल लेते हैं। जाना पड़ता है, सुनना पड़ता है, समझना पड़ता है। ध्यान हो तो | | कृष्णमूर्ति लोगों को कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है। उनके आपके भीतर ही पौधा खिल जाएगा। आपके पास दूसरे लोग आने | पास उसी तरह के लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जो किसी भी गुरु के लगेंगे। आपको जाने की जरूरत नहीं होगी। अपनी समझ आ जाए. सामने झकने में अहंकार की तकलीफ पाते हैं। वे इकडे तो फिर किसी से क्या समझना है!
वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, जब कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, तो लेकिन आदमी का मन ऐसा है कि अगर कहो कि घंटेभर बैठो, ठीक ही कह रहे हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। तो वह कहेंगा, घंटेभर बैठने की क्या जरूरत है? चौबीस घंटे ध्यान __ लेकिन अगर गुरु की कोई जरूरत नहीं है आपको, तो कृष्णमूर्ति नहीं किया जा सकता!
के पास किसलिए जाते हैं? क्या प्रयोजन है? सिर्फ कह देने से कि मजे से करिए, लेकिन कम से कम घंटे से शुरू तो करिए। एक | गुरु की जरूरत नहीं है, कोई फर्क पड़ता है? जब तक आप किसी घंटा भी ध्यान करना मुश्किल है। चौबीस घंटा तो बहुत मुश्किल है। | से सीखने जाते हैं, तब तक आपको गुरु की जरूरत है। और बड़े जब ध्यान करने बैठेंगे, तब पता चलेगा कि एक क्षण को भी ध्यान | | मजे की बात यह है कि यह बात भी आपकी बुद्धि से पैदा नहीं हुई हो जाए, तो बहुत बड़ी घटना है। क्योंकि मन चलता ही रहता है। है कि गुरु की जरूरत नहीं है। यह भी किसी दूसरे ने आपको
तो उचित है कि एक घंटा निकाल लें चौबीस घंटे में से अलग | सिखाई है! यह भी आपने गुरु से ही सीखी है! ध्यान के लिए ही, और अनुभव करें। जिस दिन एक घंटे में आपको | | मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, कृष्णमूर्ति ऐसा कहते हैं, लगे कि सधने लगी बात, घटने लगी बात, चौबीस घंटे पर फैला कष्णमति ऐसा कहते हैं। वे कहते हैं. गरु की कोई जरूरत नहीं है। दें। फैलाना तो चौबीस घंटे पर ही है। क्योंकि जब तक जीवन पूरा | | यह भी तुम्हारी बुद्धि का मामला नहीं है, यह भी तुम किसी गुरु ध्यानमय न हो जाए, तब तक कोई क्रांति न होगी। लेकिन शुरुआत | | से सीख आए हो! इसको भी सीखने तुम्हें किसी के पास जाना पड़ा कहीं से करनी पड़ेगी।
है। इस साधारण-सी बात को सीखने भी किसी के पास जाना पड़ा __ और फिर एक घंटे ध्यान का परिणाम चौबीस घंटे पर होता है। है कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। परमात्मा को सीखने तुम किसी ठीक वैसे ही जैसे एक घंटा कोई सुबह व्यायाम कर लेता है, तो गुरु के पास नहीं जाना चाहते हो! चौबीस घंटे का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। और आप यह नहीं अड़चन कहीं और है। गुरु की जरूरत नहीं है, इससे तुम्हारा मन
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प्रसन्न होता है। प्रसन्न इसलिए होता है कि चलो, अब झुकने की | | अति कठिन है यह खयाल करना कि मैं देखने वाला हूं। कोशिश कोई जरूरत नहीं है; अब कहीं झुकने की कोई जरूरत नहीं है। | करें! घड़ी अपने सामने रख लें। और घड़ी में जो सेकेंड का कांटा
तुमने बड़ी गलत बात निकाली। तुमने अपने मतलब की बात | | है, जो चक्कर लगा रहा है, उस सेकेंड के कांटे पर ध्यान करें। और निकाल ली।
| इतना खयाल रखें कि मैं देखने वाला है, सिर्फ देख रहा है। मेरे पास लोग आते हैं। मैं जो कहता हूं, उसमें से वे वे बातें | आप हैरान होंगे कि परा एक सेकेंड भी आप यह ध्यान नहीं रख निकाल लेते हैं, जो उनके मतलब की हैं और जिनसे उनको बदलना | सकते। एक सेकेंड में भी कई दफा आप भूल जाएंगे और दूसरी नहीं पड़ेगा। वे मेरे पास आते हैं कि आपने बिलकुल ठीक कहा। | बातें आ जाएंगी। चौबीस घंटा तो बहुत दूर है, एक सेकेंड भी पूरा जंगल में जाने की, पहाड़ पर जाने की क्या जरूरत है! ज्ञान तो यहीं का पूरा आप यह ध्यान नहीं रख सकते कि मैं सिर्फ द्रष्टा हूं। इसी हो सकता है। बिलकुल ठीक कहा है।
बीच आप घड़ी का नाम पढ़ लेंगे। इसी बीच घड़ी में कितना बजा तो मैं उनको पूछता हूं, यहीं हो सकता है; कब तक होगा, यह है, यह भी देख लेंगे। घड़ी में कितनी तारीख है, वह भी दिखाई पड़ मुझे कहो। और यहीं हो सकता है, तो तुम यहीं करने के लिए क्या | जाएगी। इसी बीच बाहर कोई आवाज देगा, वह भी सुनाई पड़ कर रहे हो?
जाएगी। टेलिफोन की घंटी बजेगी, वह भी खयाल में आ जाएगी, उन्होंने मतलब की बात निकाल ली कि कहीं जाने की कोई किसका फोन आ रहा है! अगर कुछ भी बाहर न हो, तो भीतर कुछ जरूरत नहीं है। लेकिन जहां तुम हो, वहां तो तुम पचास वर्ष से हो | | स्मरण आ जाएगा, कोई शब्द आ जाएगा। बहुत कुछ हो जाएगा। ही। अगर वहीं ज्ञान होता होता, तो कभी का हो गया होता। लेकिन एक सेकेंड भी आप सिर्फ साक्षी नहीं रह सकते। तो अपने को तुमने अपने हिसाब की बात निकाल ली।
धोखा मत दें। घड़ीभर तो निकाल ही लें चौबीस घंटे में, और उसको ध्यान कठिन है। न तो चिंतन, न मनन, न सुनना-श्रवण। इनमें सिर्फ ध्यान में नियोजित कर दें। हां, जब घड़ी में सध जाए वह कोई कठिनाई नहीं है। ध्यान बहुत कठिन है। ध्यान का अर्थ है कि सुगंध, तो उसे चौबीस घंटे पर फैला दें। जब घड़ी में जल जाए वह कुछ घड़ी के लिए बिलकुल शून्य हो जाना। सारी व्यस्तता समाप्त | | दीया, तो फिर चौबीस घंटे उसको साथ लेकर चलने लगें। फिर हो जाए। मन कुछ भी न करता हो।
अलग से बैठने की जरूरत न रह जाएगी। ___ यह न करना बहुत कठिन है। क्योंकि मन कुछ न कुछ करना ही __ अलग से बैठने की जिस दिन जरूरत समाप्त हो जाती है, उसी चाहता है। करना मन का स्वभाव है। और अगर आप न-करने पर | | दिन जानना कि ध्यान उपलब्ध हुआ। अलग से बैठना तो जोर दें, तो मन सो जाएगा।
अभ्यास-काल है। वह तो प्राथमिक चरण है। वह तो सीखने का मन दो चीजें जानता है, या तो क्रिया और या निद्रा। आप या तो वक्त है। इसलिए ध्यान के जानकारों ने कहा है कि जब ध्यान करना उसे काम करने दो और या फिर वह नींद में चला जाएगा। ध्यान | व्यर्थ हो जाए, तभी समझना कि ध्यान पूरा हुआ। तीसरी दशा है। क्रिया न हो और निद्रा भी न हो, तब ध्यान फलित ___ लेकिन इसको पहले ही मत समझ लेना, कि जब ज्ञानी कहते हैं होगा।
कि ध्यान करना व्यर्थ हो जाए, तब ध्यान पूरा हुआ, तो हम करें ही कठिन से कठिन जो घटना मनुष्य के जीवन में घट सकती है, | क्यों! तो आपके लिए फिर कभी भी कोई यात्रा संभव नहीं हो वह ध्यान है। और आप कहते हैं, हम चौबीस घंटे क्यों न करें! पाएगी।
आप मजे से करें। लेकिन घड़ीभर करना मुश्किल है, तो चौबीस __ अच्छा है अगर चौबीस घंटे पर फैलाएं। लेकिन मैं जानता हूं, घंटे पर आप फैलाइएगा कैसे?
वह आप कर नहीं सकते। जो आप कर सकते हैं, वह यह है कि एक उपाय है कि आप साक्षी-भाव रखें, तो चौबीस घंटे पर फैल | | आप थोड़ी घड़ी निकाल लें। एक कोना अलग निकाल लें जीवन सकता है। लेकिन साक्षी-भाव आसान नहीं है। और जो आदमी | | का। और उसे ध्यान पर ही समर्पित कर दें। और जब आपको आ घडीभर ध्यान कर रहा हो, उसके लिए साक्षी-भाव भी आसान हो | | जाए कला, और आपको पकड़ आ जाए सूत्र, और आप समझ जाएगा। लेकिन जो आदमी घड़ीभर ध्यान भी न कर रहा हो, उसके | | जाएं कि किस क्वालिटी, किस गुण को ध्यान कहते हैं। और फिर लिए साक्षी-भाव भी बहुत कठिन होगा।
उस गुण को आप चौबीस घंटे याद रखने लगें, स्मरण रखने लगें;
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@ साधना और समझ
उठते-बैठते उसको सम्हालते रहें।
| कुछ गुरुओं ने अथक मेहनत की है उनके साथ, ताकि वे ज्ञान को जैसे किसी को कोई कीमती हीरा मिल जाए। वह दिनभर सब उपलब्ध हो जाएं। काम करे, बार-बार खीसे में हाथ डालकर टटोल ले कि हीरा वहां | यह बड़े मजे की बात है कि अगर आपको जबरदस्ती स्वर्ग में है? खो तो नहीं गया! कुछ भी करे, बात करे, चीत करे, रास्ते पर | भी ले जाया जाए, तो आप स्वर्ग के भी खिलाफ हो जाएंगे। और चले, लेकिन ध्यान उसका हीरे में लगा रहे।
| अपने मन से आप नरक भी चले जाएं, तो गीत गाते, सीटी बजाते कबीर ने कहा है कि जैसे स्त्रियां नदी से पानी भरकर घड़े को सिर जाएंगे। अपने मन से आदमी नरक भी गीत गाता जा सकता है। पर रखकर लौटती हैं, तो गांव की स्त्रियां हाथ भी नहीं लगातीं, सिर | और जबरदस्ती स्वर्ग में भी ले जाया जाए, तो वह स्वर्ग के भी पर घड़े को सम्हाल लेती हैं। गपशप करती, बात करती, गीत गाती | | खिलाफ हो जाएगा। और उन लोगों को कभी माफ न कर सकेगा, लौट आती हैं। तो कबीर ने कहा है कि यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से वे कोई | | जिन्होंने जबरदस्ती स्वर्ग में धक्का दिया है। भी ध्यान घड़े को नहीं देतीं, लेकिन भीतर ध्यान घड़े पर ही लगा रहता ___ कृष्णमूर्ति पर यह ज्ञान एक तरह की जबरदस्ती थी। यह किन्हीं है। गीत भी चलता है। बात भी चलती है। चर्चा भी चलती है। हंसती | | और लोगों का निर्णय था। और अगर कृष्णमूर्ति अपने ही ढंग से भी हैं। रास्ता भी पार करती हैं। लेकिन भीतर सूक्ष्म ध्यान घड़े पर | चलते, तो उन्हें कोई तीन-चार जन्म लगते। लेकिन यह बहुत चेष्टा लगा रहता है और घड़े को वे सम्हाले रखती हैं।
करके, बहुत त्वरा और तीव्रता से कुछ लोगों ने अथक मेहनत जिस दिन ऐसी कला का खयाल आ जाए, तो फिर आप कुछ लेकर उन्हें जगाने की कोशिश की। भी करें, ध्यान पर आपका काम भीतर चलता रहेगा। लेकिन यह ठीक जैसे आप गहरी नींद में सोए हों और कोई जबरदस्ती आपसे आज नहीं हो सकेगा।
| आपको जगाने की कोशिश करे, तो आपके मन में बड़ा क्रोध आता • कृष्णमूर्ति की बुनियादी भूल यही है कि वे आप पर बहुत भरोसा है। और अगर कोई जबरदस्ती जगा ही दे, भला जगाने वाले की कर लेते हैं। वे सोचते हैं, आप यह आज ही कर सकेंगे। उनसे भी | बड़ी शुभ आकांक्षा हो, भला यह हो कि मकान में आग लगी हो यह आज ही नहीं हो गया है। यह भी बहुत जन्मों की यात्रा है। और और आपको जगाना जरूरी हो, लेकिन फिर भी जब आप गहरी उनसे भी यह बिना गुरु के नहीं हो गया है। सच तो यह है कि इस नींद में पड़े हों और कोई सुखद सपना देख रहे हों, तो जगाने वाला सदी में जितने बड़े गुरु कृष्णमूर्ति को उपलब्ध हुए, किसी दूसरे | | दुश्मन मालूम पड़ता है। व्यक्ति को उपलब्ध नहीं हुए। और गुरुओं ने जितनी मेहनत कृष्णमूर्ति को अधूरी नींद से जगा दिया गया है। और जिन लोगों कृष्णमूर्ति के ऊपर की है, उतनी किसी शिष्य के ऊपर कभी मेहनत |ने जगाया है, उन्होंने बड़ी मेहनत की है। लेकिन कृष्णमूर्ति उनकों नहीं की गई है।
| अभी भी माफ नहीं कर पाए हैं। वह बात अटकी रह गई है। इसलिए जीवन के उनके पच्चीस साल बहुत अदभुत गुरुओं के साथ, | चालीस साल हो गए, उनके सब गुरु मर चुके हैं, लेकिन गुरुओं उनके सत्संग में, उनके चरणों में बैठकर बीते हैं। उनसे सब सीखा की खिलाफत जारी है। है। लेकिन यह बड़ी जटिलता की बात है कि जो व्यक्ति गुरुओं से | । उनका अपना अनुभव यही है कि गुरुओं से बचना। इसलिए वे ही सब सीखा है, वह व्यक्ति गुरुओं के इतने खिलाफ कैसे हो गया? | कहते हैं कि गुरुओं से बचना। क्योंकि उन पर जो हुआ है, वह
और वह क्यों यह कहने लगा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है? और | जबरदस्ती हुआ है। ध्यान से बचना। क्योंकि कोई भी विधि कहीं जिस व्यक्ति ने ध्यान की बहुत-सी प्रक्रियाएं करके ही समझ पाई है, कंडीशनिंग, संस्कार न बन जाए। क्योंकि उन पर तो सारी विधियों वह क्यों कहने लगा कि ध्यान की कोई जरूरत नहीं है? का प्रयोग किया गया है। इसलिए अब वे कहते हैं, सिर्फ समझो।
इसके पीछे बड़ी मनोवैज्ञानिक उलझन है। और वह उलझन यह | लेकिन समझना भी एक विधि है। और वे कहते हैं, केवल होश है कि अगर गुरु को आपने ही चुना हो, तब तो ठीक है। लेकिन को गहराओ। लेकिन होश को गहराना भी एक विधि है। अगर गुरुओं ने आपको चुनकर आपके साथ मेहनत की हो, तो एक अध्यात्म के जगत में आप कुछ भी करो, विधि होगी ही। और अंतर्विरोध पैदा हो जाता है।
| गुरु को इनकार करो, तो भी गुरु होगा। क्योंकि अगर आप अपने कृष्णमूर्ति ने खुद नहीं चुना है। कृष्णमूर्ति को चुना गया है। और ही तईं बिना गुरु और बिना विधि के उपलब्ध हो सकते हैं, तो आप
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
हो ही गए होते।
ऐसा समझिए कि आपके पास एक पुरानी मोटर है, जिसको __ कृष्णमूर्ति की अपनी अड़चन और तकलीफ है। और वह | | आपने रख दिया है। अब आप उपयोग नहीं करते हैं। आप पैदल अड़चन और तकलीफ एक अंधेरी छाया की तरह उनको घेरे रही | ही चलते हैं। लेकिन चालीस साल से मोटर आपके घर में रखी है। है। वह उनके वक्तव्य में छूटती नहीं है।
लेकिन कभी आपको तेज चलना पड़ता है और पैदल चलने से कोई पूछेगा कि अगर वे ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, तो यह बात | | काम नहीं आता, आप अपनी पुरानी मोटर निकाल लेते हैं। और छूटती क्यों नहीं? यह भी थोड़ी-सी जटिल है बात।
खटर-पटर करते मुहल्ले भर के लोगों की नींद हराम करते आप अगर कोई ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह यह क्यों नहीं अपनी गाड़ी को लेकर चल पड़ते हैं। देख सकता कि मेरा यह विरोध गुरुओं का, मेरी प्रतिक्रिया है। मेरे करीब-करीब मन जिस दिन छटता है, उसकी जो स्थिति रहती साथ गुरुओं ने जो किया है, उनको मैं अब तक माफ नहीं कर पा | है, जब भी उसका उपयोग करना हो, उसी स्थिति में करना पड़ेगा। रहा हूं! ध्यान का और योग का मेरा विरोध मेरे ऊपर ध्यान और | उसमें फिर कोई ग्रोथ नहीं होती। वह एक पुराने यंत्र की तरफ पड़ा योग की जो प्रक्रियाएं लादी गई हैं, उनकी प्रतिक्रिया है! जो आदमी | रह जाता है भीतर। व्यक्ति की चेतना उससे अलग हो जाती है, यंत्र ज्ञान को उपलब्ध हो गया, वह यह क्यों नहीं देख पाता?
की तरह मन पड़ा रह जाता है। उसी मन का उपयोग करना पड़ता और मैं मानता हूं कि कृष्णमूर्ति ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। | है। वह मन वही भाषा बोलता है, जिस भाषा में समाप्त हुआ था। इसलिए और जटिल हो जाती है बात। अगर कोई कह दे कि वे | | वह वहीं रुका हुआ है। ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए हैं, तो कोई अड़चन नहीं है। मैं मानता | | कृष्णमूर्ति चालीस साल से दूसरी दुनिया में हैं। लेकिन मन वहीं हं, वे ज्ञान को उपलब्ध हैं। फिर यह प्रतिक्रिया, यह जीवनभर का | पड़ा हुआ है, जहां उसे छोड़ा था। वह पुरानी गाड़ी, वह फोर्ड की विरोध छूटता क्यों नहीं है? इसका कारण आपसे कहूं। वह | | पुरानी कार वहीं खड़ी है। जब भी उसका उपयोग करते हैं, वह फिर समझने जैसा है।
ताजा हो जाता है। उसके लिए वह घटना उतनी ही ताजी है। ___ जब भी कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो ज्ञान के | | गुरुओं ने जबरदस्ती उन्हें धक्के देकर जगा दिया है। वह मन् उपलब्ध होने का क्षण वही होता है, जहां मन समाप्त होता है, जहां | अब भी प्रतिरोध से भरा हुआ है। वे ध्यान के विरोध में हैं, गुरुओं मन छूट जाता है और आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन के विरोध में हैं। लेकिन अगर उनकी बात को ठीक से समझें, तो ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद अगर उसे अपनी बात लोगों से | वह विरोध मन का ही है, ऊपरी ही है। कहनी हो, तो उसे उसी छूटे हुए मन का उपयोग करना पड़ता है। अगर सच में ही कोई व्यक्ति गुरुओं के विरोध में है, तो वह किसी
मन के बिना कोई संवाद, कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। को शिक्षा नहीं देगा। क्योंकि शिक्षा देने का मतलब ही क्या है। आपसे मैं बोल रहा हूं, तो मन का मुझे उपयोग करना पड़ेगा। तो कृष्णमूर्ति कितना ही कहें कि मैं कोई शिक्षा नहीं दे रहा हूं, जब मैं चुप बैठा हूं, अपने में हूं, तब मुझे मन की कोई जरूरत नहीं लेकिन शिक्षा नहीं दे रहे हैं, तो क्या कर रहे हैं! वे कितना ही कहें है। अपने स्वभाव में मुझे मन की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जब | कि तुम्हें कोई बात देने की मेरी इच्छा नहीं है, लेकिन चेष्टा बड़ी कर आपसे मुझे बात करनी है, तो मुझे मन का उपयोग करना पड़ेगा। | रहे हैं कि कोई बात दे दी जाए। और अगर श्रोता नहीं समझ पाते.
तो कृष्णमूर्ति का जिस दिन मन छूटा, उस मन की जो आखिरी | तो बड़े नाराज हो जाते हैं। समझाने की बड़ी अथक चेष्टा है। बड़े विरोध की दशा थी, उस मन का जो आखिरी भाव था-गुरुओं के, आग्रहपूर्ण हैं, कि समझो! और कहे चले जाते हैं कि मुझे कुछ विधियों के खिलाफ-वह मन के साथ पड़ा है। और जब भी समझाना नहीं है; मुझे कुछ बताना नहीं है; मुझे कोई मार्ग नहीं देना कृष्णमूर्ति मन का उपयोग करके आपसे बोलते हैं, तब वही मन जो | है। लेकिन क्या? क्या कर रहे हैं फिर? चालीस साल पहले काम के बाहर हो गया, वही काम में लाना पड़ता हो सकता है कि आप सोचते हों कि यही मार्ग है, कोई मार्ग न है। और कोई मन उनके पास है नहीं। इसलिए स्वभावतः उसी मन | देना; यही शिक्षा है, कोई विधि न देना; यही गुरुत्व है, गुरुओं से का वे उपयोग करते हैं। इसलिए जो वे नहीं कहना चाहें, जो उन्हें नहीं | | छुड़ा देना। लेकिन यह भी सब वही का वही है। कोई फर्क नहीं है। कहना चाहिए, वह भी कहा जाता है। वह उस मन के साथ है। तो कृष्णमूर्ति की एक जटिलता है, मन उनका कुछ विरोधों से
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ॐ साधना और समझ
भरा पड़ा है। वह पड़ा हुआ है। और जब भी वे उसका उपयोग करते वहां तो अपने पर करना। वहां तो सभी तरह से अपने को केंद्र हैं, वे सारे के सारे विरोध सजग हो जाते हैं।
मानना, तो ही संसार में आप चल पाएंगे। वह उपद्रव की दुनिया लेकिन आप सावधान रहना। आप अपनी फिक्र करना। आप । है; वहां अहंकार बिलकुल जरूरी है। चौबीस घंटे ध्यान कर सकते हों, तो जरूर करना। और न कर ठीक संसार से विपरीत यात्रा है अध्यात्म की। जो संसार में सकते हों, तो कृष्णमूर्ति कहते हैं कि घंटेभर ध्यान करने से कोई सहयोगी है, वही अध्यात्म में विरोधी हो जाता है। और जो संसार फायदा नहीं है, इसलिए घंटेभर करना रोक मत देना। में सीढ़ी है, वही अध्यात्म में मार्ग का पत्थर, अवरोध हो जाता है।
सागर मिल जाए, तो अच्छा है, ध्यान का। न मिले, तो जो छोटा ठीक उलटा हो जाता है। इसलिए संसार में जो लोग सफल होते हैं, सरोवर है, उसका भी उपयोग तो करना ही। जब तक सागर न मिल वे अहंकारी लोग हैं। जो बिलकुल पागल हैं, जिनको पक्का भरोसा जाए, तब तक सरोवर का ही उपयोग करना; तब तक एक बूंद भी है कि दुनिया की कोई ताकत उनको रोक ही नहीं सकती। वे पागल पानी की हाथ में हो, तो वह भी जरूरी है। वह बूंद आपको जिलाए की तरह लगे रहते हैं और सफल हो जाते हैं। रखेगी और सागर का स्वाद देती रहेगी, और सागर की तरफ बढ़ने | सफल होने में अड़चन क्या है? अड़चन यही है कि उनसे बड़े में साथ, सहयोग, शक्ति देती रहेगी।
पागल उनकी प्रतिस्पर्धा में न हों। और कोई अड़चन नहीं है। अगर उनसे भी बड़े पागल और उनसे भी अहंकारी उनकी प्रतिस्पर्धा में
हों, तो वे उनको मात कर देंगे। लेकिन मात करने का और जीतने एक दूसरे मित्र ने पूछा है, आत्म-विश्वास और लगन | का एक ही उपाय है वहां, आप कितने अहंकार के पागलपन से से मनुष्य को किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो | जुटते हैं! सकती है। क्या अध्यात्म के संबंध में भी यही सच है? अध्यात्म में आपका अहंकार जरा भी सहयोगी नहीं है, बाधा है।
वहां तो वही सफल होगा, जो कितनी मात्रा में अहंकार को छोड़कर
चलता है। 21 ध्यात्म के संबंध में इससे ज्यादा गलत और कोई बात जीसस ने कहा है, धन्य हैं वे लोग, जो इस संसार में अंतिम खड़े आ नहीं है। न तो आत्म-विश्वास वहां काम देगा, न हैं। क्योंकि प्रभु के राज्य में उनके प्रथम होने की संभावना है।
'लगन वहां काम देगी। इसे हम थोड़ा समझ लें। । जो यहां अंतिम है, वह प्रभु के राज्य में प्रथम हो सकता है। आत्म-विश्वास का क्या अर्थ होता है? अपने पर भरोसा। अंतिम का क्या अर्थ है? अंतिम का अर्थ है, जिसे अहंकार का कोई अपने पर भरोसा अहंकार की ही छाया है। अध्यात्म में तो आसानी भी रस नहीं है। प्रथम होने की कोई इच्छा नहीं है। होगी, अगर आप सारा भरोसा ईश्वर पर छोड़ दें बजाय अपने पर ___ इसलिए हमारी सारी शिक्षा गैर-आध्यात्मिक है। क्योंकि वह रखने के। अध्यात्म में तो अच्छा होगा कि आप अपने को बिलकुल प्रथम होना सिखाती है। हमारे सारे संस्कार अहंकार को जन्माने असहाय, हेल्पलेस समझें। वहां अकड़ काम न देगी कि मुझे अपने | | वाले हैं। हमारी सारी दौड़, प्रत्येक को मजबूत अहंकार चाहिए, इस पर भरोसा है। वहां तैरने से आप नहीं पहुंच सकेंगे। वहां तो आप पर खड़ी है। इसलिए फिर हम अध्यात्म की तरफ जाने में बड़ी नदी की धार में अपने को छोड़ दें और कह दें कि तू ही जान। | | अड़चन पाते हैं। क्योंकि वहां यही अवरोध है। वहां तो एक ही चीज
जितनी आपके मन में यह अकड़ होगी कि मैं कर लंगा, मैं कर सहयोगी है कि आप बिलकुल मिट जाएं। के दिखा दूंगा, उतनी ही बाधा पड़ेगी अध्यात्म में। और जगह की | आत्म-विश्वास का तो सवाल ही नहीं है। वहां आपको यह बात मैं नहीं कहता। अगर धन पाना हो, तो आत्म-विश्वास | खयाल भी न रहे कि मैं हूं। मेरा होना भी न रहे। मैं एक खाली शून्य बिलकुल जरूरी है। वहां अगर आप कहें कि परमात्मा पर छोड़ता | | हो जाऊं। वहां मैं ऐसे प्रवेश करूं, जैसे मैं ना-कुछ हूं-असहाय, हूं, तो आप लुट जाएंगे।
| निरालंब, निराधार। न कुछ कर सकता हूं, न कुछ हो सकता है। संसार में कुछ भी पाना हो, तो अहंकार जरूरी है। ध्यान रखना, जिस घड़ी कोई व्यक्ति इतना निराधार हो जाता है, इतना निरालंब संसार अहंकार की यात्रा है। वहां आप भरोसा दूसरे पर मत करना; || हो जाता है, इतना असहाय हो जाता है कि लगता है, मैं शून्य जैसा
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गीता दर्शन भाग-6
हूं, उसी क्षण परमात्मा उसके भीतर घटित हो जाता है। क्योंकि वह खाली हो गई जगह। जो अहंकार से भरा था भवन, अब खाली हो गया। अब वह बड़ा मेहमान उतर सकता है।
अभी तो आप अपने से इतने भरे हैं कि आपके भीतर परमात्मा को प्रवेश की कोई रंध्र मात्र भी जगह नहीं है। तो वहां कोई आत्म-विश्वास काम नहीं देगा।
इसका मतलब मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्म-अविश्वास काम देगा। आप ध्यान रखना, आत्म-विश्वास काम नहीं देगा, इसका यह मतलब नहीं है कि आप अपने पर अविश्वास कर लें, तो काम देगा। नहीं, अविश्वास भी अहंकार है! आप तो केंद्र रहते ही हैं।
कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास है। कोई कहता है, मुझे अपने पर विश्वास नहीं है। लेकिन अपना तो दोनों में मौजूद रहता है। एक कहता है कि मैं कमजोर हूं, एक कहता है कि मैं ताकतवर हूं। लेकिन दोनों कहते हैं, मैं हूं। जो कमजोर है, वह ताकतवर हो सकता है कल । जो ताकतवर है, वह कल कमजोर हो सकता है। उनमें कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। वे एक ही चीज के दो रूप हैं। असहाय का अर्थ है कि मैं हूं ही नहीं । कमजोर भी नहीं हूं। ताकतवर होने का तो सवाल ही नहीं है। मैं कमजोर भी नहीं । क्योंकि कमजोरी भी ताकत का एक रूप है। मैं हूं ही नहीं। इस भांति जो अपने को मिटा लेता है, वह अध्यात्म में गति करता है।
और वहां लगन का सवाल नहीं है। यहां संसार में लगन का सवाल है। यहां तो बिलकुल पागल लगन चाहिए। यहां तो बिलकुल विक्षिप्त की तरह दौड़ने की जिद्द चाहिए। यहां तो ऐसा दांव लगाने की बात चाहिए कि चाहे जिंदगी रहे कि जाए, मगर यह चीज मैं पाकर रहूंगा। जब कोई संसार में इस भांति दौड़ता है, तभी कुछ थोड़ी छीना-झपटी कर पाता है।
अध्यात्म में लगन का कोई सवाल नहीं है। अध्यात्म में तो गति की जरूरत नहीं है, इसलिए लगन की जरूरत नहीं है।
इसे हम ऐसा समझें कि संसार में कुछ पाना हो, तो दौड़ना पड़ता है और अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो खड़े हो जाना पड़ता है। संसार में कुछ पाना हो, तो छीनना-झपटना पड़ता है। अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो मुट्ठी खोल देनी पड़ती है; कुछ झपटना नहीं, कुछ पकड़ना नहीं। संसार में कुछ पाना हो, तो दूसरों से झगड़ना पड़ता है । अध्यात्म में कुछ पाना हो, तो वहां कोई दूसरा है ही नहीं, जिससे झगड़ने का सवाल है।
संसार में कुछ पाना हो, तो यहां लगन चाहिए। लगन का
| मतलब यह है कि बहुत तरफ ध्यान न जाए। जैसे हम तांगे में घोड़े को जोत देते हैं, तो उसकी आंखों पर दोनों तरफ चमड़े की पट्टियां बांध देते हैं, ताकि उसको चारों तरफ दिखाई न पड़े, सिर्फ सामने दिखाई पड़े। क्योंकि चारों तरफ दिखाई पड़ेगा, तो घोड़े को चलने में बाधा आएगी। इधर घास दिख जाएगा, तो इधर जाना चाहेगा। उधर पास में कोई जवान घोड़ी दिख जाएगी, तो उस पर आकर्षित हो जाएगा। कहीं कोई सामने ताकतवर घोड़ा हिनहिना देगा, तो लड़ने को तैयार हो जाएगा। पच्चीस चीजें खड़ी हो जाएंगी। ध्यान बंटेगा ।
इसलिए घोड़े को हम करीब-करीब अंधा कर देते हैं। निन्यानबे प्रतिशत अंधा कर देते हैं। सिर्फ एक तरफ उसकी आंख खुली रहती है, सामने की तरफ । बस, उसको उतना ही रास्ता दिखाई पड़ता है।
लगन का इतना ही मतलब होता है, घोड़े की तरह हो जाना। तांगे में जुते हैं! कुछ दिखाई नहीं पड़ता। बस, एक ही चीज दिखाई पड़ती है । उसको हम लगन कहते हैं। लगन का मतलब है कि अब कहीं चित्त नहीं जाता, बस एक चीज पर जाता है। इसलिए सब ताकत वहीं लग जाती है।
राजनीतिज्ञ है, वह लगन का आदमी होता है। उसे सिर्फ दिल्ली दिखाई पड़ती है, कुछ नहीं दिखाई पड़ता । उसे पार्लियामेंट का भवन भर दिखाई पड़ता है और उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता । बस, उसे दिल्ली...। दिल्ली उसके मन में रहती है। वह तांगे में जुते घोड़े की | तरह है। उसको संसार में कुछ दिखाई नहीं पड़ता । बस, दिल्ली !
और वह जैसे-जैसे करीब दिल्ली के पहुंचने लगता है, वैसे-वैसे उसकी आंखें और संकीर्ण होने लगती हैं। फिर कैबिनेट दिखाई पड़ता है उसको, मंत्रिमंडल दिखाई पड़ता है। मंत्रिमंडल में पहुंच जाए, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी भर दिखाई पड़ती है, फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता ।
यह क्रमशः अंधे हो जाने की तरकीब है। ऐसे वह क्रमशः अंधा होता जाता है। लेकिन जितना वह अंधा होता जाता है, उतनी ही शक्ति संकीर्ण दिशा में प्रवाहित होने लगती है। वह उतना ही सफल हो जाता है। दिल्ली की तरफ जाने के लिए आंख पर अंधापन होना जरूरी है, तो ही सफलता मिल सकती है।
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एक आदमी धन की खोज में है। वह सब छोड़ देता है फिक्र। न उसे प्रेम से मतलब न पत्नी से, न बच्चे से, न धर्म से । उसे किसी चीज से मतलब नहीं है, उसे धन से मतलब है । उसे हर चीज में धन दिखाई पड़ता है । उठते, सोते, जागते उसके सारे सपने धन से भरे होते हैं, तब वह सफल हो पाता है। वह लगन का आदमी है।
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0 साधना और समझ
पागल आदमियों को हम लगन के आदमी कहते हैं। एक चीज भीतर जाता है। और जब सब तरफ दौड़ बंद हो जाती है, तो अपनी की तरफ जो पागल हैं, वे कुछ उपलब्ध कर लेते हैं। जो बहुत तरफ | | तरफ आता है, अपने में उतरता है, अपने में थिर होता है। भागेंगे, निश्चित ही वे कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाएंगे। संसार में | | इसलिए अध्यात्म कोई लगन नहीं है। अध्यात्म कोई सफलता, जो बहुत तरफ देखता है, वह कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाता है। कोई अहंकार की यात्रा, कोई ईगो ट्रिप नहीं है। इसलिए संसार में इसके पहले कि वह तय करे कि क्या मैं पाऊं, जिंदगी हाथ से | जो सूत्र काम देते हैं, उनका उपयोग आप अध्यात्म में मत कर लेना। निकल गई होती है।
बहुत लोग उनका उपयोग कर रहे हैं। करते हैं, इसलिए अध्यात्म लेकिन यही बात अध्यात्म के संबंध में नहीं है। अध्यात्म कोई में असफल होते हैं। लगन नहीं है। अध्यात्म तो सब तरह की लगन से छुटकारा है। । जो संसार में सफलता का सूत्र है, वही अध्यात्म में असफलता
इसे हम ऐसा समझें, तीन तरह के आदमी हैं। एक आदमी, जो का सूत्र है। और जो अध्यात्म में सफलता का सूत्र है, वही संसार सब तरफ देखता है। इधर भी चाहता है दौडूं, उधर भी चाहता है | में असफलता का सूत्र है। दोनों तरह की भूल करने वाले लोग हैं। दौडूं। सोचता है, डाक्टर भी हो जाऊं; वकील भी हो जाऊं; लेखक | और ऐसा नहीं कि थोड़े-बहुत लोग हैं। बहुत बड़ी संख्या में लोग भी हो जाऊं; राजनीतिज्ञ भी हो जाऊं। जो भी कुछ हो सकता हूं, हैं, जो दोनों तरह की भूल करते हैं। सब हो जाऊं। इस सब होने की दौड़ में वह कुछ भी नहीं हो पाता। जैसे, इस मुल्क में हमने अध्यात्म में सफलता पाने के कुछ सूत्र या जो भी होता है, वह सब कचरा हो जाता है। वह एक खिचड़ी खोज निकाले थे। हमने उनका ही उपयोग संसार में करना चाहा। हो जाता है। उसके पास कोई व्यक्तित्व नहीं निखरता। वह एक | इसलिए पूरब संसार की दुनिया में असफल हो गया। गरीब, दीन, कबाड़खाना हो जाता है, जिसमें सब तरह की चीजें हैं। दरिद्र, भुखमरा, भीख मांगता हो गया। हमने, जो सूत्र अध्यात्म
दूसरा आदमी है, जो कहता है, बस मुझे एक चीज होना है। सब | | में सफल हुए थे, उनका उपयोग संसार में करने की कोशिश की। दांव पर लगाकर एक तरफ चल पड़ता है। एकाग्रता से लग जाता | | वह मूढ़ता हो गई। इसलिए हम आज जमीन पर भिखमंगे की तरह है। वह लगन का आदमी है। वह पागल आदमी है। वह एक चीज | खड़े हैं। को पा लेगा।
पश्चिम में संसार में जिन चीजों से सफलता मिल जाती है, उन्हीं एक तीसरी तरह का आदमी है, जो न एक को पाना चाहता है, | की कोशिश अध्यात्म में भी करनी शुरू की है। उनसे कोई सफलता न सब को पाना चाहता है, जो पाना ही नहीं चाहता। यह तीसरा | नहीं मिल सकती। पश्चिम अध्यात्म में असफल हो गया है। आदमी आध्यात्मिक है, जो कहता है, सब पाना फिजूल है। एक इसलिए एक बड़ी मजेदार घटना घट रही है। का पाना भी फिजूल है; सबका पाना भी फिजूल है। बहुत-बहुत | | पूरब का मन पश्चिम की तरफ हाथ फैलाए खड़ा है-धन दो, जिंदगियों में बहुत चीजें खोजकर देख लीं, कुछ भी न पाया। अब दवा दो, भोजन दो, कपड़ा दो। और पश्चिम के लोग पूरब की तरफ खोजेंगे नहीं। अब बिना खोजे देखेंगे। अब बिना खोज में रुक | हाथ फैलाए खड़े हैं-आत्मा दो, ध्यान दो, मंत्र दो, तंत्र दो। यह जाएंगे। अब नहीं खोजेंगे। अब दौड़ेंगे नहीं। अब कहीं भी न | | बड़े मजे की बात है कि दोनों भिखमंगे की हालत में हैं। और जाएंगे। अब न तो सब तरफ देखेंगे, न एक तरफ देखेंगे। अब | इसलिए हमें बड़ी कठिनाई होती है। आंख को बंद कर लेंगे और वहां देखेंगे, जो भीतर है, जो मैं हूं। | अगर पश्चिम से युवक-युवतियां भारत की तरफ आते हैं, अब किसी तरफ न देखेंगे। अब सब दिशाएं व्यर्थ हो गईं। | खोजते हैं, तो हमें बड़ी हैरानी होती है कि तुम यहां किस लिए आ
इस घड़ी में, जब कोई चाह नहीं रहती. कोई लगन नहीं रहती, | रहे हो! हम तो यहां भूखे मर रहे हैं। हम तो तुम्हारी तरफ आशा कुछ पाने का लक्ष्य नहीं रहता, कुछ विषय नहीं रह जाता पाने के | लगाए बैठे हैं। तुम यहां किस लिए आ रहे हो? तुम्हारा दिमाग लिए, कोई अंत नहीं दिखता बाहर, बाहर कोई मंजिल नहीं रह | खराब है? जाती, जब व्यक्ति की चेतना सब भांति खड़ी हो जाती है, उसकी और जब हमारे मुल्क के युवक-युवतियां पश्चिम की तरफ जाते सब प्रवाह-यात्रा बंद हो जाती है, तब एक नया द्वार खुलता है, जो हैं, टेक्नालाजी सीखने, उनका विज्ञान सीखने, और अभिभूत होते भीतर है। जब बाहर जाना बंद हो जाता है चैतन्य का, तो चैतन्य हैं, और समर्पित होते हैं उन दिशाओं में, तो पश्चिम में भी चिंता
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ॐ गीता दर्शन भाग-600
होती है कि हम तो तुम्हारी तरफ खोजने आ रहे हैं कि कुछ तुम्हारे | | फर्क। अगर आपके पैर में कोई कांटा चुभाए, तो दो घटनाएं घटती पास होगा। तुम यहां चले आ रहे हो! क्या, मामला क्या है? | हैं। एक घटना है, कष्ट। कष्ट का अर्थ है कि आप अनुभव करते
मामला एक बुनियादी भूल का है। जो अध्यात्म में सफलता की | | हैं कि पैर में पीड़ा हो रही है। मैं जान रहा हूं कि पैर में पीड़ा हो रही कुंजी है, वही कुंजी संसार के ताले को नहीं खोलती। जो संसार के है। आप जानने वाले होते हैं। पीड़ा पैर में घटित होती है, आप ताले को खोल देती है, वही कुंजी अध्यात्म के ताले को नहीं | | देखने वाले होते हैं। आप साक्षी होते हैं। खोलती है। और अब तक कोई मास्टर-की नहीं खोजी जा सकी | इसका यह मतलब नहीं कि आप साक्षी होंगे, तो कोई आपके है-और खोजी भी नहीं जा सकती—जो दोनों तालों को एक साथ पैर में कांटा चुभाए तो आपको पीड़ा नहीं होगी। इस भ्रांति में आप खोल देती हो।
| मत पड़ना। पीड़ा होगी। कष्ट होगा। क्योंकि कांटे का चुभना एक अगर दोनों ताले खोलने हों एक साथ, तो दो कुंजियों की जरूरत | घटना है। लेकिन दुख नहीं होगा। इस फर्क को खयाल में ले लें। पड़ेगी। उनकी प्रक्रिया अलग है। संसार में अहंकार आधार है, दुख तब होता है, जब मैं कष्ट के साथ अपने को एक कर लेता महत्वाकांक्षा, संघर्ष। अध्यात्म में निरअहंकारिता, महत्वाकांक्षा से | हूं। जब मैं कहता हूं कि मुझे कोई कांटा चुभा रहा है, तब दुख शून्य हो जाना, एक गहरी विनम्रता, कोई दौड़ नहीं, कोई पागलपन | होता है। पैर को कोई कांटा चुभा रहा है, मैं देख रहा हूं, तब कष्ट नहीं, कोई यात्रा नहीं। इसे खयाल रखेंगे।
होता है। तो जब आप संसार से घबड़ाकर अध्यात्म की तरफ मुड़ने लगें, इसलिए जीसस को भी जब सूली लगी, तो उनको कष्ट हुआ तो संसार के ढंग अध्यात्म में मत ले जाना। उनको भी संसार के साथ है। दुख नहीं हुआ। ही छोड़ देना। वे ढंग वहां काम नहीं आएंगे। उस यात्रा में उनकी कोई | कष्ट तो होगा। कष्ट तो घटना है। कष्ट का तो मतलब ही इतना भी जरूरत नहीं है। उन्हें आप छोड़ देना। वे बोझ बन जाएंगे। | है कि...। इसका तो मतलब हुआ, कोई मेरा पैर काटे, तो मुझे पता
अध्यात्म की शिक्षा में आपको संसार में सीखा हुआ कुछ भी | नहीं चलेगा कि मेरा पैर किसी ने काटा? काम नहीं आएगा। सिर्फ एक बात भर कि संसार व्यर्थ है, अगर कोई मेरा पैर काटेगा, तो मुझे पता चलेगा कि पैर किसी ने मेरा इतना आपने सीख लिया हो, तो आप पीछे की तरफ मुड़ सकते हैं। काटा। वह एक घटना है। और पैर के काटने में जो पैर के तंतुओं लेकिन इस व्यर्थता में संसार के सारे अनुभव, सारे साधन, सारा |
| में तनाव और परेशानी होगी, वह मुझे अनुभव में आएगी कि ज्ञान, सब व्यर्थ हो जाता है।
परेशानी हो रही है। अगर मैं ऐसा समझ लूं कि मैं कट रहा हूं पैर संसार का एक ही उपयोग है अध्यात्म के लिए कि यह अनुभव के कटने में, तो दुख होगा। दुख है कष्ट के साथ तादात्म्य, कष्ट में आ जाए कि वह पूर्णतया व्यर्थ है, तो आप भीतर की दुनिया में के साथ एक हो जाना। प्रवेश कर सकते हैं।
इसलिए ज्ञानी को दुख नहीं होगा; कष्ट तो होगा। और एक बात मजे की है कि ज्ञानी को आपसे ज्यादा कष्ट होगा। आप तो दुख में
इतने लीन हो जाते हैं कि कष्ट का आपको पूरा पता ही नहीं चलता। एक आखिरी सवाल। एक मित्र ने पूछा है कि यदि ज्ञानी को तो कोई दुख होगा नहीं, इसलिए कोई लीनता भी नहीं प्रकृति में घटनाएं होती हैं और पुरुष में भाव, तो क्या | होगी। वह तो सजग होकर देखता रहेगा। उसकी संवेदनशीलता जब कोई सिद्धि को प्राप्त हो जाता है और अनुभव | बहुत गहन होगी, आपसे ज्यादा होगी। क्योंकि उसका तो मन कर लेता है अपनी पृथकता को, तो उसके शरीर में बिलकुल दर्पण है! सब साफ-साफ दिखाई पड़ेगा। दुख और मन में पीड़ा बंद हो जाती है?
आपको तो कष्ट दिखाई ही नहीं पड़ पाता, उसके पहले ही आप दुख में डूब जाते हैं। तो आपका तो पूरा चैतन्य धुएं से भर जाता है
दुख के। इसलिए आपको कष्ट का ठीक-ठीक बोध नहीं हो पाता। द से थोड़ा समझना पड़े।
आप तो रोना-धोना-चिल्लाना शुरू कर देते हैं। उसमें आप अपने २ पहली तो बात यह समझनी पड़े कि दुख और कष्ट का | को भुला लेते हैं।
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साधना और समझ
लेकिन ज्ञानी न तो रो रहा है, न धो रहा है, न चिल्ला रहा है, न आना बंद करते हैं। कोई धुआं है उसके भीतर। उसका मन तो पूरा, जो हो रहा है, उसे । इस बीच महीनेभर में जो कष्ट की महान घटना घटी थी, वह जान रहा है। वह कष्ट को उसकी पूर्णता में जानेगा। | आपको दिखाई नहीं पड़ती। आप इस रोने की मूर्छा में सब
आप कष्ट को पूर्णता में नहीं जान पाते हैं, क्योंकि दुख की छाया | विसर्जित कर जाते हैं। कष्ट को ढांक लेती है। शायद हमने इसीलिए दुख में डूब जाना | __अगर आप साक्षी-भाव से बैठें, तो आपको लगेगा, पत्नी ही आसान समझा है। वह कष्ट से बचने का एक उपाय है। | नहीं मर रही है, आप भी मर रहे हैं। जब भी कोई प्रिय मरता है, तो
समझें, आपके घर में कोई मर गया; पत्नी मर गई। आप रोएं | | आप भी मरते हैं। क्योंकि आपका शरीर उससे न मालूम मत, साक्षी-भाव से बैठे रहें, तो आपको कष्ट का पूरा अनुभव | | कितने-कितने रूपों में जुड़ गया था। आप एक हो गए थे। आपका होगा। वह आपके रोएं-रोएं में अनुभव होगा। आपके रग-रग में | | कुछ टूट रहा है अंग, हाथ-पैर कट रहे हैं आपके। वह पूरा कष्ट अनुभव होगा। आपके एक-एक कोष्ठ में वह पीड़ा अनुभव होगी। आपको अनुभव होगा। क्योंकि पत्नी का मरना सिर्फ पत्नी का मरना नहीं है, आपका कुछ तब आपको बड़ी चीजें साफ होंगी। तब आपको यह भी पता अनिवार्य हिस्सा भी साथ में मर गया।
चलेगा कि पत्नी के मरने से कष्ट नहीं हो रहा है। पत्नी के साथ पत्नी और आप अगर चालीस साल साथ रहे थे, तो बहुत दूर | | जो मोह था, उस मोह के टूटने से कष्ट हो रहा है। यह सवाल तक एक हो गए थे। आपके दोनों के शरीर ने बहुत तरह की एकता पत्नी के मरने का नहीं है। चूंकि मैं भी मर रहा हूं! उसके साथ जानी थी। वह एकता एक-दूसरे के शरीर में व्याप्त हो गई थी। जब | जुड़ा था, अब मेरा एक हिस्सा टूट जाएगा सदा के लिए और पत्नी मर रही है, तो सिर्फ पत्नी का शरीर नहीं मर रहा है, आपके | | खाली हो जाएगा, जिसको शायद भरना संभव नहीं होगा। उससे शरीर में भी पत्नी के शरीर का जो अनुदान था, वह बिखरेगा, और | | दुख, उससे कष्ट हो रहा है। विनष्ट होगा। वह जाएगा। बड़ा कष्ट होगा। रोएं-रोएं, रग-रग में | लेकिन कष्ट से बचने के लिए हमने बेहोश होने की बहुत-सी पीड़ा होगी।
| तरकीबें निकाली हैं। उसमें सब से गहरी तरकीब यह है कि हम लेकिन आप छाती पीटकर रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, और कह आच्छादित हो जाते हैं कष्ट से, तादात्म्य कर लेते हैं और विचलित रहे हैं कि मेरी पत्नी मर गई। और लोग आपको समझा रहे हैं और | होने लगते हैं भीतर। उस विचलित अवस्था में बाहर का कष्ट गुजर
आपको समझ में नहीं आ रहा है, इस सब में आप कष्ट से बच रहे | जाता है और हम उसे सह लेते हैं। हैं। यह तरकीब है। इस रोने-धोने में, आपको जो कष्ट अनुभव | ज्ञानी को कष्ट बिलकुल साफ होगा। क्योंकि वह किसी तरह के होता, जो उसकी तीव्रता छिद जाती छाती में भाले की तरह, वह नहीं | | दुख में नहीं पड़ेगा। उसके मन पर कोई भी कष्ट का बादल घेरकर छिदेगी। आप रो-धोकर वक्त गुजार देंगे, तब तक कष्ट विसर्जित | | उसे डुबाएगा नहीं। उसे कष्ट बिलकुल साफ होगा। हो जाएगा।
इसे हम ऐसा समझें कि आप बहुत विचारों से भरे बैठे हैं। रास्ते इसलिए बड़े होशियार लोग हैं। जब किसी के घर कोई मर जाता | पर किसी के मकान में आग लग जाए और शोरगुल मच जाए, तो है, तो बाकी लोग आ-आकर उनको बार-बार रुलाते हैं। वह बड़ा | भी आपको पता नहीं चलता। लेकिन आप ध्यान में बैठे हैं बिलकुल कारगर है। वह करना चाहिए। फिर कोई बैठने आ गया। फिर आप | शांत। एक सुई भी गिर जाए, तो आपको सुनाई पड़ेगी। एक सुई रोने लगे। और दो-तीन दिन के बाद तो हालत ऐसी हो जाती है कि | भी गिर जाए, तो आपको सुनाई पड़ेगी। आपको अब रोना भी नहीं आ रहा है और कोई बैठने आ गया, तो | | जैसे ही कोई व्यक्ति गहरे ध्यान को उपलब्ध होता है, तो आप रो रहे हैं!
| जरा-सी चीज भी शरीर में हो जाए, तो उसे पता चलेगी। कष्ट उसे ___ महीने, पंद्रह दिन में लोग आपको इतना थका देते हैं। | होगा। लेकिन दुख नहीं होगा। दुख के होने का अर्थ है कि वह कष्ट रुला-रुलाकर, कि अब आपका मन होने लगता है कि अब मरने से अपने को जोड़े तभी होता है। जब आप कष्ट से अपने को न से इतना कष्ट नहीं हो रहा है किसी के, जितना तुम्हारे आने से हो जोड़ें, तो दुख नहीं होता। रहा है। अब तुम बंद करो। जब ऐसी घड़ी आ जाती है, तभी लोग। इसलिए ध्यान रखें, अध्यात्म की यात्रा पर चलने वाले कुछ
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लोग इससे उलटा काम करने लगते हैं। वे कोशिश करते हैं कि | लेकिन कष्ट आपसे दूर होंगे। आप कष्टों से दूर होंगे। दोनों के उनको कष्ट भी न हो। कष्ट न हो, तो उसकी तरकीब दूसरी है। बीच एक फासला, एक डिस्टेंस होगा। और आप देखने वाले होंगे। उसकी तरकीब है, शरीर को धीरे-धीरे जड़ बनाना। चैतन्य को | | आप भोक्ता नहीं होंगे। बस, साक्षी जग जाए और भोक्ता खो जाए। सजग नहीं करना, साक्षी को नहीं जगाना, शरीर को जड़ बनाना। ___ तो आप यह मत सोचना कि जब कृष्ण के पैर में किसी ने तीर अगर आप काशी जाते हैं, तो वहां आपको कांटों पर सोए हुए मार दिया, तो उन्हें कोई कष्ट न हुआ होगा। आपसे बहुत
न जाएंगे। आप बडे चकित होंगे। आपको लगेगा. बेचारे हआ होगा। क्योंकि कष्ण जैसा संवेदनशील आदमी खोजना बहत कितने ज्ञान को उपलब्ध लोग! कैसा परम ज्ञान उपलब्ध हो गया। | मुश्किल है। कृष्ण कोई जड़ व्यक्ति नहीं थे, नहीं तो उनके होंठों से कि कांटों पर पड़े हैं और कोई दुख नहीं हो रहा है!
| ऐसी बांसुरी और ऐसे गीत पैदा नहीं हो सकते थे। बहुत कोमल, ___ कोई ज्ञान को उपलब्ध होकर कांटों पर पड़ने की जरूरत नहीं है।। | बहुत संवेदनशील, बहुत रसपूर्ण थे। लेकिन कांटों पर पड़ने का अभ्यास कर लिया जाता है। अभ्यास | | तो जिसके होंठों से बांसुरी पर ऐसे गीत पैदा हुए और जिसके कर लेने के बाद कोई कष्ट नहीं होता है, क्योंकि शरीर जड़ हो जाता | शरीर की कोमलता और सौंदर्य ने न मालूम कितने लोगों को है। अगर आप एक ही जगह रोज सुई चुभाते रहें, तो आज जितनी आकर्षित किया और प्रेम में गिरा लिया, आप यह मत सोचना कि तकलीफ होगी, कल कम होगी, परसों और कम होगी। आप रोज | जब उसके पैर में तीर चुभा होगा, तो उसे कष्ट नहीं हुआ होगा।
अभ्यास करते रहें। एक दो महीने बाद आप सुई चुभाएंगे और | कष्ट तो पूरा होगा। आपसे बहुत ज्यादा होगा। लेकिन दुख बिलकुल पता नहीं चलेगी। तो आप कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो | बिलकुल नहीं होगा। वह देखता रहेगा, जैसे किसी और के पैर में गए, सिर्फ दो महीने में आपने शरीर को जड़ कर लिया। उस जड़ता | तीर चुभा हो, ऐसा ही वह इसे भी देखता रहेगा। भीतर कुछ भी के कारण अब आपको कष्ट भी नहीं होता।
हलचल न होगी। भीतर जो थिर था, वह थिर ही रहेगा। भीतर जो ध्यान रहे, दुख न होना तो एक क्रांतिकारी घटना है। कष्ट न | | चेतना जैसी थी, वैसी ही रहेगी। इस तीर से शरीर में फर्क पड़ेगा। होना, शरीर को मुर्दा बना लेने का प्रयोग है।
| शरीर खबर देगा, मन के तंतु कंपेंगे। मन तक खबर पहुंचेगी। तो आप चाहें तो शरीर को मुर्दा बना ले सकते हैं। बहुत से उपाय | लेकिन चेतना अलिप्त, असंग, निर्दोष, कुंवारी ही बनी रहेगी। हैं, जिनसे शरीर जड़ हो जाता है। उसकी सेंसिटिविटी, संवेदना कम यह हमारे खयाल में न होने से बड़ा उपद्रव हुआ है। इसलिए हम हो जाती है। संवेदना कम हो जाती है, तो कष्ट नहीं होता। कष्ट | जड़ हो गए लोगों को आध्यात्मिक समझते हैं। और जड़ता पैदा कर नहीं होता, तो दुख आपको होने का कोई कारण नहीं रहा। क्योंकि लेने में न तो कोई कुशलता है, न कोई बड़े गुण की बात है। इसलिए दुख होने के लिए कष्ट का होना जरूरी था। लेकिन आपने कष्ट | अक्सर बहुत बुद्धिहीन लोग भी आध्यात्मिक होने की तरह पूजे का दरवाजा बंद कर दिया, तो अब दुख होने का कोई कारण नहीं | जाते हैं। वे कोई भी जड़ता का काम कर लें। रहा। लेकिन आप जरा भी नहीं बदले हैं। आप वही के वही हैं। ___ एक गांव से मैं गुजरा। एक आदमी दस वर्षों से खड़े हुए हैं। आपकी चेतना नहीं बदली है। अगर आपको कष्ट पहुंचाया जाए। | और कोई गुण नहीं है, बस खड़े हैं। वे खड़ेश्री बाबा हो गए हैं! नए ढंग से, तो आपको दुख होगा। क्योंकि भीतर कोई साक्षी पैदा | बस लोग उनके चरणों पर सिर रख रहे हैं। यह बड़ी भारी बात हो नहीं हो गया है।
| गई कि वे दस साल से खड़े हैं। रात भी वे दोनों हाथों का लकड़ियों ___ यह धोखा है अध्यात्म का। शरीर को जड़ बना लेना, धोखा है। | से सहारा लेकर सो जाते हैं। उनके पैर हाथीपांव हो गए हैं। सारा
अध्यात्म का। चैतन्य को और चैतन्य कर लेना असली अध्यात्म | खून शरीर का पैरों में उतर गया है। लोग समझ रहे हैं कि कोई है। लेकिन जितना आप चैतन्य को और चैतन्य करेंगे, और साक्षी | अध्यात्म घट गया है। बनेंगे, उससे आपका कष्ट से छुटकारा नहीं हो जाएगा। सच तो | मैंने उनसे कहा कि खड़ेश्री बाबा को एक दफा बैठेश्री बाबा यह है, आपको बहुत-से नए कष्ट पता चलने लगेंगे, जो आपको | | बनाकर भी तो देखो! अब वे बैठ भी नहीं सकते। सारा पैर जड़ हो पहले कभी पता नहीं चले थे। क्योंकि पहले आप जड़ थे। अब आप गया है। अब तुम बिठाना भी चाहो, तो बिठाने का कोई उपाय नहीं और संवेदनशील हो रहे हैं। आपको और कष्टों का पता चलेगा।। है। यह शरीर की विकृति और कुरूपता है। इसको अध्यात्म से क्या
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लेना-देना है! और इस आदमी में और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही आत्मा का गुण भी है।
मैंने उनसे पूछा, और कुछ? खड़े होने की बात मान ली। और आकाश सदा ही कुंवारा है। उसे कोई भी चीज छू नहीं पाती। कुछ क्या है ? बोले कि यही क्या कम है! यह बड़ी भारी घटना है। | ऐसा समझें, हम एक पत्थर पर लकीर खींचते हैं। पत्थर पर खींची दस साल से कोई आदमी खड़ा है!
| लकीर हजारों साल तक बनी रहेगी। पत्थर पकड़ लेता है लकीर तो पैरों की जड़ता का नाम अध्यात्म नहीं है। पैर जड़ हो सकते | | को। पत्थर लकीर के साथ तत्सम हो जाता है, तादात्म्य कर लेता हैं, किए जा सकते हैं। इसमें क्या अड़चन है! न तो यह कोई गुण है, | है। पत्थर लकीर बन जाता है।
और न कोई सम्मान के योग्य। लेकिन हम इस तरह की बातों को | | फिर हम लकीर खींचें पानी पर। खिंचती जरूर है, लेकिन खिंच सम्मान देते हैं, तो जड़ता बढ़ती है। और जड़ता को हम पूजते हैं। | नहीं पाती। हम खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है। हम
संवेदनशीलता पूजनीय है। लेकिन अकेली संवेदनशीलता | खींचकर पूरा कर पाते हैं, लौटकर देखते हैं, लकीर नदारद है। पानी पूजनीय नहीं है। अगर संवेदनशीलता के साथ साक्षी-भाव भी जुड़ पर लकीर खिंचती तो है, लेकिन पानी लकीर को पकड़ता नहीं। जाए, तो वही क्रांतिकारी घटना है, जिससे व्यक्ति जीवन के परम | खिंचते ही मिट जाती है। खींचते हैं, इसलिए खिंच जाती है। लेकिन तत्व को जानने में समर्थ हो पाता है।
| टिक नहीं पाती. क्योंकि पानी उसे पकडता नहीं। पत्थर पकड लेता अब हम सूत्र को लें।
है, हजारों साल तक टिक जाती है। पानी में क्षणभर नहीं टिकती; हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी | | बनती जरूर है। परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न | ___ आकाश में लकीर खींचें, वहां बनती भी नहीं। पानी पकड़ता लिपायमान होता है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश | | नहीं, लेकिन बनने देता है। पत्थर बनने भी देता है, पकड़ भी लेता 'सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता, वैसे ही सर्वत्र देह में | | है। आकाश न बनने देता है और न पकड़ता है। आकाश में लकीर स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से | खींचें, कुछ भी खिंचता नहीं। इतने पक्षी उड़ते हैं, लेकिन आकाश लिपायमान नहीं होता है।
में कोई पद-चिह्न नहीं छूट जाते। इतना सृजन, इतना परिवर्तन, जो मैं कह रहा था, यह सूत्र उसी की तरफ इशारा है। | इतना विनाश चलता है और आकाश अछूता बना रहता है,
हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी | | अस्पर्शित, सदा कुंवारा। परमात्मा शरीर में स्थित होता हुआ भी वास्तव में न करता है, न __ आकाश का यह जो गुण है, यही परमात्मा का भी गुण है। या लिपायमान होता है।
| ऐसा कहें कि जो हमें बाहर आकाश की तरह दिखता है, वही भीतरी यही अत्यधिक कठिन बात समझने की है।
आकाश परमात्मा है; इनर स्पेस, भीतर का आकाश परमात्मा है। हम देखते हैं आकाश, सबको घेरे हुए है। सब कुछ आकाश में | कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर छिपा हुआ चैतन्य है, इसे कुछ भी होता है, लेकिन फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं होता। एक | छूता नहीं। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम गंदगी का ढेर लगा है। गंदगी के ढेर को भी आकाश घेरे हुए है।। क्या करते हो, क्या होता है, इससे तुम्हारे भीतर के आकाश पर गंदगी का ढेर भी आकाश में ही लगा हुआ है, ठहरा हुआ है, कोई लकीर नहीं खिंचती। तुम भीतर शुद्ध ही बने रहते हो। यह लेकिन आकाश गंदगी के ढेर से गंदा नहीं होता। गंदगी का ढेर हट | शुद्धि तुम्हारा स्वभाव है। जाता है, आकाश जैसा था, वैसा ही बना रहता है।
यह बड़ा खतरनाक संदेश है। इसका मतलब हुआ कि पाप करते फिर एक फूल खिलता है। चारों तरफ सुगंध फैल जाती है। फूल | | हो, तो भी कोई रेखा नहीं खिंचती। पुण्य करते हो, तो भी कोई लाभ के इस सौंदर्य को भी आकाश घेरे हुए है। लेकिन आकाश इस फूल | | की रेखा नहीं खिंचती। न पाप न पुण्य, न अच्छा न बुरा-भीतर के सौंदर्य से भी अप्रभावित रहता है। वह इसके कारण सुंदर नहीं | कुछ भी छूता नहीं। भीतर तुम अछूते ही बने रहते हो। खतरनाक हो जाता। फूल आज है। कल नहीं होगा। आकाश जैसा था, वैसा | | इसलिए है कि सारी नैतिकता, सारी अनैतिकता व्यर्थ हो जाती है। ही होगा।
भीतर की शुद्धि शाश्वत है। तुम्हारे करने से कुछ आकाश के इस गुण को बहुत गहरे में समझ लेना जरूरी है, बनता-बिगड़ता नहीं। लेकिन तुम्हारे करने से तुम अकारण दुख
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पाते हुए मालूम होते हो। अगर तुम बुरा करते हो, तो तुम बुरे के | | आदर देते हैं, सम्मान करते हैं। लेकिन जब आप नाटक छोड़कर साथ तादात्म्य बना लेते हो और दुख पाते हो। अगर तुम शुभ करते घर आते हैं, तो न आप राम होते हैं, न रावण होते हैं। न तो रावण हो, तो शुभ के साथ तादात्म्य बना लेते हो और सुख पाते हो। का होना आपको छूता है, न राम का होना आपको छूता है।
लेकिन सुख-दुख दोनों तुम्हारी भ्रांतियां हैं। वह जो भीतर छिपा ___ लेकिन कभी-कभी खतरा हो सकता है। कभी-कभी अभिनय है, वह न सुख पाता है, न दुख पाता है। वह जो भीतर छिपा है, | भी छू सकता है। अगर आप अपने को एक समझ लें। अगर आप वह सदा एकरस अपने में ही है। न तो वह दुख की तरफ डोलता यह समझ लें कि मैंने इतने दिन तक राम का पार्ट किया, तो अब है, न सुख की तरफ डोलता है।
गांव के लोगों को मुझे राम समझना चाहिए। तो फिर झंझट हो वह भीतर कौन है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ, उसकी खोज ही | सकती है। अध्यात्म है। एक ऐसे बिंद को स्वयं के भीतर पा लेना. जो सभी ऐसा हुआ, अमेरिका में लिंकन का एक आदमी ने पार्ट किया चीजों से अस्पर्शित है।
| एक साल तक। क्योंकि लिंकन की कोई शताब्दी मनाई जाती थी एक गाड़ी चलती है। गाड़ी का चाक चलता है, हजारों मील की | | और उसकी शक्ल लिंकन से मिलती-जुलती थी, तो अमेरिका के यात्रा करता है। लेकिन गाड़ी के चाक के बीच में एक कील है, जो | सभी बड़े नगरों में उसे लिंकन का पार्ट करने के लिए जाना पड़ा। बिलकुल नहीं चलती, जो खड़ी ही रहती है। चाक चलता चला | एक सालभर तक वह लिंकन की तरह चलता, लिंकन की छड़ी हाथ जाता है। चाक अच्छे रास्तों पर चलता है, बुरे रास्तों पर चलता है। | में रखता, लिंकन के कपड़े पहनता, लिंकन की तरह हकलाता, चाक सुंदर और असुंदर रास्तों पर चलता है। चाक सपाट राजपथों | लिंकन की तरह बोलता, सब लिंकन की तरह करता। । पर चलता है, गंदगी-कीचड़ से भरे हुए जंगली रास्तों पर चलता सालभर लंबा वक्त था। वह आदमी भूल गया। सालभर के बाद है। वह जो कील है चाक के बीच में खड़ी, वह चलती ही नहीं; वह | जब वह घर आया, तो वह सीधा न चल सके, जैसा वह पहले खड़ी ही रहती है।
चलता रहा था। कोशिश करे, तो थोड़ी देर सीधा चले, नहीं तो फिर ठीक वैसे ही तुम्हारा मन सुख में चलता है, दुख में चलता है; | | वह लिंकन की तरह चलने लगे। बोले भी, तो लिंकन की तरह तुम्हारा शरीर कष्ट में चलता है, सुविधा में चलता है; लेकिन भीतर | बोले। जहां लिंकन अटकता था, वहीं वह भी अटके। एक कील है चैतन्य की, वह खड़ी ही रहती है, वह चलती ही नहीं। घर के लोगों ने कहा कि अब छोड़ो भी; अब बात खतम हो गई।
अगर तुम शरीर से अपने को एक समझ लेते हो, तो बहुत तरह | लेकिन एक साल का नशा उस पर ऐसा छा गया-जगह-जगह के कष्ट तुम्हारे दुख का कारण बन जाते हैं। अगर तुम मन से | सम्मान, स्वागत, सत्कार–कि उस आदमी ने कहा, क्या छोड़ो! अपने को एक समझ लेते हो, तो बहत तरह की मानसिक व्यथाएं, मैं अब्राहम लिंकन हं। तम किस भ्रांति में पड़े हो? लोगों ने समझा, चिंताएं तुम्हें घेर लेती हैं; तुम उनसे घिर जाते हो। शरीर से अलग | वह मजाक कर रहा है थोड़े दिन। लेकिन वह मजाक नहीं कर रहा कर लो, शरीर में कष्ट होते रहेंगे, लेकिन तुम दुखी नहीं। मन से | था। वह अब्राहम लिंकन हो ही गया था। अलग कर लो, भावों के तूफान चलते रहेंगे, लेकिन तुम दूर खड़े उसे बहुत समझाया-बुझाया। मित्रों ने कहा कि तुम पागल तो उनको देखते रहोगे।
| नहीं हो गए हो? लेकिन उसे पक्का भरोसा आ गया था। सालभर शरीर और मन दोनों से पार खड़ा हो जाता है जो, उसे पता | | लंबा वक्त था। उसे जितना लोगों ने समझाया, उसकी मजबूती चलता है कि यहां तो कभी भी कुछ नहीं हुआ। यहां तो सदा ही सब बढ़ती चली गई। वह लोगों से कहने लगा, तुम पागल तो नहीं हो वैसा का वैसा है। जैसा अगर सृष्टि का कोई पहला क्षण रहा होगा, | गए हो? मैं लिंकन हूं। जितना ही लोगों ने कहा कि तुम नहीं हो, तो उस दिन जितनी शुद्ध थी चेतना, उतनी ही शुद्ध आज भी है। | उतनी ही उसकी जिद्द बढ़ती चली गई। फिर तो यहां तक हालत __इसे हम ऐसा समझें कि आप एक नाटक में काम करते हैं। रावण | पहुंच गई कि मनोवैज्ञानिकों के पास ले जाकर इलाज करवाना पड़ा। बन गए हैं। बड़े बुरे काम करने पड़ते हैं। सीता चुरानी पड़ती है। __तो मनोवैज्ञानिक ने कहा कि यह आदमी कितना ही बोल रहा हो, हत्याएं करनी पड़ती हैं। युद्ध करना पड़ता है। या राम बन गए हैं। लेकिन भीतर तो यह गहरे में तो जानता ही होगा कि मैं लिंकन नहीं बड़े अच्छे काम करते हैं। बड़े आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लोग हूं। तो अमेरिका में उन्होंने लाइ डिटेक्टर एक छोटी-सी मशीन
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बनाई है; अदालत में काम लाते हैं झूठ पकड़ने के लिए। उस मशीन पर आदमी को खड़ा कर देते हैं। उससे पूछते हैं। जो बात वह सच बोलता है, तो उसके हृदय की धड़कन अलग होती है। आप भी जब सच बोलते हैं, तो धड़कन अलग होती है। जब आप झूठ बोलते हैं, तो एक धक्का लगता है। हृदय की धड़कन में फर्क हो जाता है।
किसी ने आपसे पूछा, आपकी घड़ी में कितने बजे हैं? आप कहते हैं, आठ । किसी ने पूछा कि सामने जो किताब रखी है, इसका क्या नाम है? आपने पढ़कर बता दिया। आपके हृदय में कहीं कोई झटका नहीं लगता। फिर किसी ने पूछा, आपने चोरी की ? तो भीतर से तो आप कहते हैं कि की; और ऊपर से आप कहते हैं, नहीं की। तो रिदम, भीतर की लय टूट जाती है। वह लय का टूटना मशीन पकड़ लेती है कि आपके हृदय की गति में फर्क पड़ गया। ग्राफ टूट जाता है।
तो उस आदमी को, अब्राहम लिंकन को, बने हुए अब्राहम लिंकन को खड़ा किया गया लाइ डिटेक्टर पर। वह भी परेशान हो गया था। जो देखे, वही समझाए कि अरे, क्यों पागल हो रहे हो ? होश में आओ। यह नाटक था। वह भी घबड़ा गया। उसने सोचा कि इससे कैसे छुटकारा हो!
यह
तो मनोवैज्ञानिक ने बहुत-से सवाल पूछे। फिर पूछने के बाद उसने पूछा कि 5 क्या तुम अब्राहम लिंकन हो ? तो उसने सोचा, झंझट खतम ही करो, कह दो कि नहीं हूं। तो उसने कहा कि नहीं, मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। मनोवैज्ञानिक बड़ा खुश हुआ। लेकिन नीचे मशीन ने ग्राफ बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। इतना गहरा उसको खयाल चला गया है कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। वह खुद ही मना कर रहा है। लेकिन उसका हृदय जानता है कि मैं हूं।
अब क्या करिएगा! एक साल का नाटक अगर ऐसी स्थिति बना देता हो, तो आपने शरीर के साथ बहुत जन्मों में नाटक किया है। कितनी - कितनी लंबी यात्रा है शरीर के साथ एक होने की। मन के साथ कितने समय से आप अपने को एक बनाए हुए हैं। इसलिए कठिनाई है। इसलिए तोड़ने में अड़चन मालूम पड़ती है। इतना लंबा हो गया है यह सब कि आप जन्मों-जन्मों से लिंकन का पार्ट कर
हैं। और अब कोई आपसे पूछता है, तो आप कितना ही कहें, मैं शरीर नहीं हूं, लेकिन भीतर... ।
आपको लाइ डिटेक्टर पर खड़ा करके पूछा जाए कि क्या तुम शरीर हो ? आप बड़े आत्म- ज्ञानी हैं। गीता पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते
हैं, कंठस्थ है। और आप रोज सुबह बैठकर दोहराते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। आप लाइ डिटेक्टर पर खड़े किए जाएं। आप कहेंगे, मैं शरीर नहीं हूं। वह डिटेक्टर कहेगा कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। क्योंकि आपकी मान्यता तो गहरी है कि आप शरीर हैं। आप जानते हैं। आपके गहरे तक यह बात घुस गई है। इसे तोड़ने में | इसीलिए कठिनाई है। लेकिन यह तोड़ी जा सकती है, क्योंकि यह झूठ है। यह सत्य नहीं है।
आप पृथक हैं ही। आप कितना ही मान लें कि मैं पृथक नहीं हूं, | आप पृथक हैं। आपके मानने से सत्य बदलता नहीं। हां, आपके मानने से आपकी जिंदगी असत्य हो जाती है।
कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर बैठा हुआ स्वरूप है, यह सदा मौन, सदा शांत, शुद्ध, सदा आनंद से भरा है।
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इसका हमने कभी कोई दर्शन नहीं किया है। और जो भी हम जानते हैं अपने संबंध में, वह या तो शरीर है या मन है। मन के संबंध में भी हम बहुत नहीं जानते हैं। मन की भी थोड़ी-थोड़ी सी परतें हमें पता हैं। बहुत परतें तो अचेतन में छिपी हैं, उनका हमें कोई पता नहीं है।
साक्षी का अर्थ है कि मैं शरीर से भी अपने को तोडूं और मन से भी अपने को तोडूं । और जब मैं कहता हूं तोडूं, तो मेरा मतलब है, वह जो गलत जोड़ है, वही तोड़ना है। वस्तुतः तो हम जुड़े हुए नहीं हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न लिपायमान होता है। न तो यह कुछ करता है और चाहे किसी को लगता हो कि कुछ हो भी रहा है, तो भी लिप्त नहीं होता।
कमल का पत्ता जैसे पानी में भी, पानी की बूंदें पड़ जाएं उसके ऊपर, तो भी छूता भी नहीं बूंदों को। बूंदें अलग बनी रहती हैं, पत्ते पर पड़ी हुई भी । जल छूता नहीं। वैसा यह अछूता रह जाता है। | इसने कभी भी कुछ नहीं किया है।
हम इसे कैसे मानें? हम तो सब चौबीस घंटे कुछ न कुछ कर रहे हैं। हम इसे कैसे मानें? हम यह कैसे स्वीकार करें कि यह भीतर | जो है, यह सदा शुद्ध है। क्योंकि हम बहुत-से पाप कर रहे हैं, चोरी | कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं। यह कृष्ण की बात समझ में नहीं आती | कि हम और शुद्ध हो सकते हैं! हम, जिन्होंने इतनी बुराइयां की हैं? न भी की हों, तो इतनी बुराइयां सोची हैं, करनी चाही हैं। कितनी बार हत्या करने का मन हुआ है, चोरी करने का मन हुआ है। यह
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
मन हमारा, यह कैसे भीतर सब शुद्ध हो सकता है? होगी, तो मैं आऊंगा। तू तो बस, इतना ही भाव कर, एक ही भाव
बाहर के आकाश को देखें! सब कुछ घटित हो रहा है और बाहर | | कि मैं भैंस हूं। का आकाश शुद्ध है। भीतर भी एक आकाश है, ठीक बाहर के उस युवक ने साधना करनी शुरू की। एक दिन बीता, दो दिन आकाश जैसा। बीच में सब घटित हो रहा है, वह भी भीतर शुद्ध है। | बीता, तीसरे दिन उसकी गुफा से भैंस की आवाज आनी शुरू हो
इस शुद्धता का स्मरण भी आ जाए, तो आपकी जिंदगी में एक गई। नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा कि अब चलने का वक्त आ नया आयाम खुल जाएगा। आप दूसरे आदमी होने शुरू हो जाएंगे। | गया। अब चलो, देखो, क्या हालत है। फिर आप जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने से रस खो| वे सब वहां अंदर गए। वह युवक दरवाजे के पास ही सिर जाएगा। फिर जो भी कर रहे हैं, करते रहें, लेकिन करने में से अकड़ झुकाए खड़ा था। दरवाजा काफी बड़ा था। बाहर निकल सकता खो जाएगी। फिर करना ऐसे हो जाएगा, जैसे सांप तो निकल गया था। लेकिन सिर झुकाए खड़ा था जैसे कोई अड़चन हो। भैंस की और केवल सांप का ऊपर का खोल पड़ा रह गया है। जैसी रस्सी | | आवाज कर रहा था। नागार्जुन ने कहा कि बाहर आ जाओ। उसने तो जल गई, लेकिन सिर्फ राख रस्सी के रूप की रह गई है। । | कहा कि बाहर कैसे आ जाऊं! मेरे सींग दरवाजे में अड़ रहे हैं। __ अगर आपको यह खयाल आना शुरू हो जाए कि मैं अकर्ता हूं, | आंखें उसकी बंद हैं। तो कर्म जारी रहेगा, जली हुई रस्सी की भांति, जिसमें अब रस्सी | नागार्जन के बाकी शिष्य तो बहत हैरान हए। उन्होंने कहा कि रही नहीं, सिर्फ राख है। सिर्फ रूप रह गया है पुराना। कर्म चलता | | सींग दिखाई तो पड़ते नहीं! नागार्जुन ने कहा कि जो नहीं दिखाई रहेगा अपने तल पर, और आप हटते जाएंगे। जैसे-जैसे कर्म से | | पड़ता, वह भी अड़ सकता है। जो नहीं है, वह भी अड़ सकता है। हटेंगे, वैसे-वैसे लगेगा कि मैं अलिप्त भी हूं। कुछ मुझे लिप्त नहीं | | अड़ने के लिए होना जरूरी नहीं है, सिर्फ भाव होना जरूरी है। कर सकता।
| इसका भाव पूरा है। एक घटना आपसे कहूं। एक बौद्ध भिक्षु हुआ बहुत अनूठा, | नागार्जुन ने उसे हिलाया और कहा, आंख खोल। उसने नागार्जुन। नागार्जुन के पास एक युवक आया। और उस युवक ने | घबड़ाकर आंख खोली, जैसे किसी गहरी नींद से उठा हो। तीन दिन कहा कि मैं भी चाहता हूं कि जान लूं उसको, जो कभी लिप्त नहीं की लंबी नींद, आत्म-सम्मोहन, सेल्फ हिप्नोसिस, तीन दिन तक होता। जान लूं उसको, जो अकर्ता है। जान लूं उसको, जो परम | निरंतर कि मैं भैंस हूं। जैसे बड़ी गहरी नींद से जगा हो। एकदम तो आनंदित है, सच्चिदानंदघन है। कोई रास्ता?
पहचान भी न सका कि क्या मामला है। नागार्जुन बहुत अपने किस्म का अनूठा गुरु था। उसने कहा कि | नागार्जुन ने कहा कि घबड़ा मत। कहां हैं तेरे सींग? उसने सिर पहले मैं तुझसे पूछता हूं कि तुझे किसी चीज से लगाव, कोई प्रेम तो | | पर हाथ फेरा। उसने कहा कि नहीं, सींग तो नहीं हैं। लेकिन अभी नहीं है? उस युवक ने कहा कि कोई ज्यादा तो नहीं है, सिर्फ एक | अड़ रहे थे। उसने कहा, वह भी मुझे खयाल है। मैं तीन दिन से भैंस है मेरे पास, पर उससे मुझे लगाव है। तो नागार्जुन ने कहा कि निकलने की कोशिश कर रहा हूं। और तुमने कहा था, निकलना बस इतना काफी है। इससे काम हो जाएगा। साधना शुरू हो जाएगी। मत। मैं तीन दिन से कोशिश करके भी निकल नहीं पा रहा हूं। वे __ उस युवक ने कहा कि भैंस से और साधना का क्या संबंध? और | | सींग अड़ जाते हैं बीच में। बड़ी तकलीफ भी होती है। टकराता हूं; मैं तो डर भी रहा था कि यह अपना लगाव बताऊं भी कि नहीं! कोई | | तकलीफ होती है। स्त्री से हो, किसी मित्र से हो, तो भी कुछ समझ में आता है। यह | | तो नागार्जुन ने कहा, कहां हैं सींग? कहां है तेरा भैंस होना? भैंस वाला लगाव! मैंने सोचा था कि इसकी तो चर्चा ही नहीं| नागार्जुन ने कहा कि तुझे अब मैं कुछ और सिखाऊं कि बात तू उठेगी। लेकिन आपने पूछा...।
| सीख गया? उसने कहा, मैं बात सीख गया। तीन दिन का मुझे नागार्जुन ने कहा, बस, तू एक काम कर। यह सामने मेरी गुफा | | मौका और दे दें। के जो दूसरी गुफा है, उसमें तू चला जा; और एक ही भाव कर कि नागार्जुन और उसके शिष्य वापस लौट आए। शिष्यों ने कहा, मैं भैंस है। जो तेरा प्रेम है, उसको तू आरोपित कर। बस, तू अपने | | हम कुछ समझे नहीं। यह क्या वार्तालाप हुआ? नागार्जुन ने कहा, को भैंस का रूप बना ले। और तू लौटकर मत आना। जब जरूरत | | तीन दिन बाद!
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साधना और समझ
तीन दिन तक वह युवक फिर उस कोठरी में बंद था । और जैसे तीन दिन उसने अपने को भैंस होना स्वीकार कर के भैंस बना लिया था, वैसे तीन दिन उसने अस्वीकार किया कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं। और तीन दिन बाद जब नागार्जुन और उसके शिष्य वहां पहुंचे, तो वह जो व्यक्ति उन्होंने देखा था, वहां सिर्फ रस्सी की राख रह गई थी, जली हुई ।
उस व्यक्ति ने आंख खोली और नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा, इसकी आंखों में झांको। उन आंखों में जैसे गहरा शून्य था । और नागार्जुन ने पूछा कि अब तुम कौन हो ? तो उस व्यक्ति ने कहा कि सिर्फ आकाश । अब मैं नहीं हूं। सब समाप्त हो गया। और जो मैं चाहता था जानना, वह मैंने जान लिया ! और जो मैं चाहता था होना, वह मैं हो गया हूं।
जो भी आप सोच रहे हैं कि आप हैं, यह आपकी मान्यता है। यह आटो - हिप्नोसिस है। यह आत्म सम्मोहन है। और यह सम्मोहन इतना गहरा है, बचपन से डाला जाता है, कि इससे आपको खयाल भी नहीं है कभी कि यह अपनी ही मान्यता है, जो 'हम अपने चारों तरफ खड़ी कर लिए हैं।
आपका व्यक्तित्व आपकी मान्यता है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं। अगर आप दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों का अध्ययन करें, तो आप चकित हो जाएंगे।
कुछ ऐसी कौमें हैं, जो मानती हैं, पुरुष कमजोर है और स्त्री ताकतवर है। वहां पुरुष कमजोर हो गया है और स्त्री ताकतवर हो गई है। जिन कौमों की ऐसी धारणा है कि पुरुष कमजोर है, वहां पुरुष कमजोर है । और स्त्री ताकतवर है, तो स्त्री ताकतवर है। वहां मर्दाना होने का कोई मतलब नहीं है। वहां जनाना होने की शान है। और वहां अगर कोई मर्द ताकतवर होता है, तो लोग कहते हैं कि क्या जनाना मर्द है! क्या शानदार मर्द है। ठीक औरत जैसा।
आप यह मत सोचना की औरत कमजोर है। औरत का कमजोर हा एक मान्यता है ।
आप चकित होंगे जानकर कि अमेजान में एक छोटी-सी कौम है। जब बच्चा होता है किसी स्त्री को, तो पति को भी प्रसव की पीड़ा होती है। एक खाट पर पड़ती है स्त्री, दूसरी खाट पर लेटता है पति। और दोनों तड़पते हैं। आप कहेंगे, यह पति बनता होगा। क्योंकि आखिर इधर भी तो इतने बच्चे पैदा होते हैं !
नहीं; पति बनता बिलकुल नहीं। और जब पहली दफा ईसाई मिशनरियों ने यह चमत्कार देखा, तो वे बड़े हैरान हुए कि ये पति
भी क्या ढोंग कर रहे हैं ! पति को कहीं प्रसव पीड़ा होती है ! पत्नी को बच्चा हो रहा है, तुम क्यों तकलीफ पा रहे हो ? और पत्नी से भी ज्यादा शोरगुल पति मचाता है, क्योंकि पति पति है। पत्नी तो थोड़ा-बहुत मचाती है। पति बहुत उछल-कूद करता है। गिर- गिर पड़ता है, रोता है, पीटता है। जब तक बच्चा नहीं हो जाता, तब तक तकलीफ पाता है । बच्चा होते ही से वह बेहोश होकर गिर जाता है।
तो पादरियों ने समझा कि यह भी एक खेल है। इन्होंने बना रखा है। बाकी इसमें कोई हो तो नहीं सकती सचाई। तो जब चिकित्सकों ने जांच की, तो उन्होंने पाया कि यह बात सच नहीं है। दर्द होता है। तकलीफ होती है। पेट में बहुत उथल-पुथल मच जाती है, जैसे बच्चा होने वाला हो । हजारों साल की उनकी मान्यता है कि जब दोनों का ही बच्चा है, तो दोनों को तकलीफ होगी।
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और आप यह भी जानकर हैरान होंगे कि ऐसी भी कौमें हैं, इस मुल्क में भी ऐसी ग्रामीण और आदिवासी कौमें हैं, जहां स्त्री को बच्चा बिना तकलीफ के होता है । जैसे गाय को होता है, ऐसे स्त्री को होता है। वह जंगल में काम कर रही है, खेत में काम कर रही है, बच्चा हो जाता है। बच्चे को उठाकर खुद ही अपनी टोकरी में रखकर वृक्ष के नीचे रख देती है, और फिर काम करना शुरू कर देती है।
हमारी स्त्रियां सोच भी नहीं सकतीं कि खुद को बच्चा हो, न नर्स हो, न अस्पताल हो, न डाक्टर हो; और खुद ही को बच्चा हो, और उठाकर टोकरी में रखकर और काम शुरू ! काम में कोई अंतराल | ही नहीं पड़ता । वह भी मान्यता है। स्त्रियों को जो इतनी तकलीफ हो रही है, वह भी मान्यता है। स्त्रियों को तकलीफ न हो, वह भी मान्यता है।
लोझेन करके एक फ्रेंच चिकित्सक है, उसने एक लाख स्त्रियों को बिना दर्द के प्रसव करवाया है। और सिर्फ करता इतना ही है कि वह उनको कहता है कि दर्द होता ही नहीं। यह समझाता है | पहले, दर्द तुम्हारी भ्रांति है । उनको कान में मंत्र डालता है कि दर्द होता ही नहीं । सम्मोहित करता है; समझा देता है। एक लाख स्त्रियां बिना दर्द के...।
लोन का शिष्य है, वह और एक कदम आगे बढ़ गया है। वह कहता है कि दर्द की तो बात ही गलत है, जब बच्चा पैदा होता है, तो स्त्री के जीवन में सबसे बड़ा सुख होता है। और उसने कोई पांच सौ स्त्रियों को सुख करवाकर भी बता दिया। वे स्त्रियां कहती हैं कि
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
जो समाधि का आनंद हमने जाना है बच्चे के होने में, वह तो कभी जाना ही नहीं।
वह भी उनको समझाता है कि यह परम अनुभव का क्षण है। बच्चा जब पैदा होता है, तो स्त्री के जीवन का यह शिखर है आनंद-अनुभव का। अगर इसमें वह चूक गई, तो उसे जीवन में कभी आनंद ही नहीं मिलेगा। उसका शिष्य समझाकर आनंद भी करवा देता है! __ आदमी बहुत अदभुत है। आदमी सेल्फ हिप्नोसिस करने वाला प्राणी है। वह अपने को जो भी मान लेता है, वैसा कर लेता है। आपकी सारी व्यक्तित्व की परतें आपकी मान्यताओं की परतें हैं। आप जो हैं, वह आपका सम्मोहन है। __ अध्यात्म का अर्थ है, इस सारे सम्मोहन को तोड़कर उसके प्रति जग जाना, जिसका कोई भी सम्मोहन नहीं है। यह सारा शरीर, यह मन, ये धारणाएं, यह स्त्री यह पुरुष, यह अच्छा यह बुरा, इस सबसे हटते जाना। और सिर्फ चैतन्य मात्र, शुद्ध चित्त मात्र शेष रह जाए, मैं सिर्फ जानने वाला हूं, इतनी प्रतीति भर बाकी बचे। तो उस प्रतीति के क्षण में पता चलता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ आकाश है, वह सदा कुंवारा है। न उसने कभी कुछ किया और न कुछ उस पर अभी तक लिप्त हुआ है। वह अस्पर्शित, शुद्ध है।
पांच मिनट रुकें। कोई बीच से उठे न। कीर्तन पूरा करें और फिर जाएं।
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अध्याय 13 बारहवां प्रवचन
अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी
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यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।। | जो वासना होगी, वही दूसरे जीवन का कारण बन जाएगी। क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ।। ३३ ।। __ लेकिन अगर आपने जीवनभर पाप किया है, तो अंतिम क्षण में क्षेत्रक्षेत्रजयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
| आप बुद्ध होने का विचार कर नहीं सकते। वह असंभव है। अंतिम भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।। ३४।। | विचार तो आपके पूरे जीवन का निचोड़ होगा। अंतिम विचार में हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को सुविधा नहीं है आपके हाथ में कि आप कोई भी विचार कर लें। प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को | मरते क्षण में आप धोखा नहीं दे सकते। समय भी नहीं है धोखा देने प्रकाशित करता है।
के लिए। मरते क्षण में तो आपका पूरा जीवन निचुड़कर आपकी इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्र के भेद को तथा विकारयुक्त वासना बनता है। आप वासना कर नहीं सकते मरते क्षण में। प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान-नेत्रों के द्वारा | तो जिस आदमी ने जीवनभर पाप किया हो, मरते क्षण में वह तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त | महापापी बनने की ही वासना कर सकता है। वह आपके हाथ में होते हैं।
| उपाय नहीं है कि आप मरते वक्त बुद्ध बनने का विचार कर लें। बुद्ध बनने का विचार तो तभी आ सकता है जब जीवनभर बुद्ध
बनने की चेष्टा रही हो। क्योंकि मरते क्षण में आपका जीवन पूरा पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, गीता में कहा का पूरा निचुड़कर आखिरी वासना बन जाता है। वह बीज है। उसी है कि जो मनुष्य मरते समय जैसी ही चाह करे, वैसा | बीज से फिर नए जन्म की शुरुआत होगी। ही वह दूसरा जन्म पा सकता है। तो यदि एक मनुष्य | | इसे ऐसा समझें। एक बीज हम बोते हैं; वृक्ष बनता है। फूल उसका सारा जीवन पाप करने में ही गंवा दिया हो | खिलते हैं। फूल में फिर बीज लगते हैं। उस बीज में उसी वृक्ष का
और मरते समय दूसरे जन्म में महावीर और बुद्ध जैसा | | प्राण फिर से समाविष्ट हो जाता है। वह बीज नए वृक्ष का जन्म बनने की चाह करे, तो क्या वह आदमी दूसरे जन्म बनेगा। में महावीर और बुद्ध जैसा बन सकता है?
तो आपने जीवनभर जो किया है, जो सोचा है, जिस भांति आप रहे हैं, वह सब निचुड़कर आपकी अंतिम वासना का बीज बन जाता
है। वह आपके हाथ में नहीं है। त श्चित ही, मरते क्षण की अंतिम चाह दूसरे जीवन की जिस आदमी ने जीवनभर धन की चिंता की हो, मरते वक्त वह UI प्रथम घटना बन जाती है। जो इस जीवन में अंतिम है, धन की ही चिंता करेगा। थोड़ा समझें, इससे विपरीत असंभव है। वह दूसरे जीवन में प्रथम बन जाता है।
क्योंकि जिसके मन पर धन का विचार ही प्रभावी रहा हो, मरते इसे ऐसा समझें। रात आप जब सोते हैं, तो जो रात सोते समय | | समय जीवनभर का अनुभव, जीवनभर की कल्पना, जीवनभर की आपका आखिरी विचार होता है, वह सुबह जागते समय आपका | | योजना, जीवनभर के स्वप्न, वे सब धक्का देंगे कि वह धन के पहला विचार बन जाता है। इसे आप प्रयोग करके जान सकते हैं। | संबंध में अंतिम विचार कर ले। इसलिए धन को पकड़ने वाला रात आखिरी विचार, जब आपकी नींद उतर रही हो, जो आपके | | अंतिम समय में धन को ही पकड़े हुए मरेगा। चित्त पर हो, उसे खयाल कर लें। तो सुबह आपको जैसे ही पता | लोककथाएं हैं कि अगर कृपण मर जाता है, तो अपनी तिजोड़ी लगेगा कि में जाग गया हूं, वही विचार पहला विचार होगा। | पर सांप बनकर बैठ जाता है। या अपने खजाने पर सांप बनकर बैठ
मृत्यु महानिद्रा है, बड़ी नींद है। इसी शरीर में नहीं जागते हैं, फिर | | जाता है। वे कथाएं सार्थक हैं। वे इस बात की खबर हैं कि अंतिम दसरे शरीर में जागते हैं। लेकिन इस जीवन का जो अंतिम विचार. | क्षण में आप अपने जीवन की पूरी की पूरी निचुड़ी हुई अवस्था को अंतिम वासना है, वही दूसरे जीवन का प्रथम विचार और प्रथम | बीज बना लेंगे। वासना बन जाती है।
तो गीता ठीक कहती है कि जो अंतिम क्षण में विचार होगा, वही इसलिए गीता ठीक कहती है कि अंतिम क्षण में जो विचार होगा, आपके नए जन्म की शुरुआत होगी। लेकिन आप यह मत सोचना
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0 अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी
कि आप अंतिम क्षण में कोई ऐसा विचार कर लेंगे, जिसका आपके | | आखिरी हो सकता है। उसका पता तो नहीं है। आखिरी क्षण तो हो जीवन से कोई संबंध नहीं है। वह असंभव है। वह बिलकुल ही | जाएगा, तभी पता चलेगा। लेकिन आप मर चुके होंगे। असंभव है। आप वही विचार करेंगे अंतिम क्षण में, जो आपके पूरे | तो लोग इंतजाम कर लिए हैं कि हम अगर न ले पाएं आखिरी जीवन पर
| क्षण में भगवान का नाम, तो पुरोहित, पंडे, पंडित, कोई दूसरा कान इसलिए बड़ा उपद्रव होता है। इस तरह के वचन पढ़कर हम मन | | में भगवान का नाम ले दे। लोग मर रहे हैं, बेहोश हालत में पड़े हैं में बड़ी शांति और सांत्वना पाते हैं। हम सोचते हैं, क्या हर्ज है, करते और कोई उनके कान में भगवान का नाम ले रहा है। रहो जीवनभर पाप, मरते क्षण में सोच लेंगे कि बुद्ध हो जाना है और | पाप तुमने किए, भगवान का नाम कोई और ले रहा है! अच्छा हो जाएंगे! जब गीता का आश्वासन है, तो बात हो ही जाएगी। होता, तुमने पाप किसी और पर छोड़ दिए होते कि तू कर लेना मेरी
जब आप जिंदगी में बुद्ध होना नहीं सोचते, तो मरने में आप कैसे तरफ से। लेकिन पाप आदमी खुद करता है। जो हम करना चाहते बुद्ध होना सोच लेंगे? सच तो यह है कि जिंदगी में आप वही हैं, वह हम खुद करते हैं। जो हम नहीं करना चाहते, वह हम नौकरों सोचते हैं, जो आप चाहते हैं। क्योंकि जिंदगी अवसर है। मौत तो | | पर टाल देते हैं। कोई अवसर नहीं है। तो मौत के लिए तो आप वही चीजें छोड़ देते | मरते वक्त भगवान का नाम कोई दसरा आपके कान में ले रहा हैं, जो आप वस्तुतः चाहते नहीं। उनको मरने में कर लेंगे। बाकी | है। और आप तो होश में भी नहीं हैं। क्योंकि जो आदमी जिंदगी में जो आपको करना है, वह तो आप जिंदगी में करते हैं। इसलिए हम | । होश नहीं सम्हाल सका, वह मौत में कैसे होश सम्हाल सकेगा? धर्म को टालते जाते हैं, और अधर्म को करते चले जाते हैं। । | जिसने जिंदगी में ध्यान सम्हाला हो, वही आदमी मृत्यु में भी
धर्म कोई करना नहीं चाहता, इसलिए उसे हम पोस्टपोन करते होशपूर्ण हो सकता है। आप जिंदा रहकर होश नहीं सम्हाल सकते, हैं। उसे हम कहते हैं, कर लेंगे बुढ़ापे में अभी क्या जल्दी है? पाप मरते वक्त आप कैसे होश सम्हालेंगे? करने की बड़ी जल्दी है! उसे अभी करना है। वह जवानी में ही हो । इसे समझ लें। क्योंकि मृत्यु की प्रक्रिया में आपके भीतर जितने सकता है। धर्म बुढ़ापे में कर लेंगे। और अगर कोई जवान आदमी | | जहर हैं, वे सब आपकी चेतना को घेर लेंगे और छा जाएंगे। मृत्यु धार्मिक होने लगे या उत्सुक हो जाए, तो बुद्धिमान लोग उसे | मूर्छा में घटित होगी। कभी लाख में एकाध आदमी होश में मरता समझाते हैं कि अभी तेरी उम्र नहीं है। अभी अधर्म कर। उनका | है, कभी लाख में एकाध आदमी। और वह वही आदमी है, जिसने मतलब यह है कि अभी अधर्म की उम्र है। जब तक ताकत है, तब | जीवनभर ध्यान सम्हाला हो। वह होश में मरेगा। बाकी आप तो तक अधर्म कर लो। जब ताकत न बचे, तो धर्म कर लेना। | बेहोश ही मरेंगे।
लेकिन ताकत अधर्म के लिए जरूरी है, धर्म के लिए जरूरी नहीं | | आप जीए बेहोशी में हैं, तो मृत्यु तो बहुत बड़ा आपरेशन है। है? जीवन अधर्म के लिए जरूरी है; शक्ति अधर्म के लिए जरूरी | | बड़े से बड़ा आपरेशन है। कोई चिकित्सक, कोई सर्जन इतना बड़ा है; तो आप समझते हैं, धर्म कोई नपुंसकों का काम है कि उसके | आपरेशन नहीं करता। लिए कोई शक्ति की जरूरत नहीं है!
आपरेशन सर्जन को करना पड़ता है, तो आपको बेहोश कर देता ध्यान रहे, जिस शक्ति से आप पाप करते हैं, वही शक्ति पुण्य | है। क्योंकि असह्य होगी पीड़ा। आपका हाथ काटना है, तो पहले बनती है। और जब शक्ति हाथ में नहीं रह जाती, तो न तो आप | आपको बेहोश कर देता है। आपकी एक हड़ी निकालनी है शरीर पाप कर सकते हैं, न आप पुण्य कर सकते हैं। जिस दिन आप पाप | | से, तो पहले आपको बेहोश कर देता है। जब आप बिलकुल नहीं कर सकते, उस दिन आपके पास पुण्य करने की शक्ति भी | | बेहोश होते हैं, तब हड्डी निकाल पाता है। नहीं रह गई।
___ मृत्यु तो सबसे बड़ी सर्जरी है, क्योंकि आपकी पूरी आत्मा को लोग टालते चले जाते हैं, बुढ़ापे में, बढ़ापे में...। लेकिन आपके परे शरीर से अलग
तो आपको बुढ़ापे में भी मन नहीं भरता। तो लोग कहते हैं, मरते क्षण, आखिरी | बेहोश कर ही देती है। बिना बेहोश किए आप मारे नहीं जा सकते। क्षण भगवान का नाम ले लेंगे। वह भी खुद नहीं ले पाते, क्योंकि | आप बहुत उपद्रव खड़ा करेंगे। आखिरी क्षण कोई तय तो नहीं है, कब होगा। इसके बाद का क्षण । शरीर में ग्रंथियां हैं, जिनमें जहर है। साधारण रूप से भी उन
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गीता दर्शन भाग-60
ग्रंथियों का उपयोग होता है। जब आप क्रोध से भर जाते हैं, तो | | तो जिंदगीभर जो आपने अपने अचेतन मन में बेहोश वासनाएं आपने खयाल किया, क्रोध से भरा हुआ आदमी अपने से ताकतवर पाली हैं, वे ही आपका बीज बनेंगी। उन्हीं के सहारे आप नई यात्रा आदमी को उठाकर फेंक देता है। उसकी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं, पर निकल जाएंगे। न तो आपको मृत्यु की कोई याद है, न आपको जिनसे वह पागल हो जाता है। अगर आप क्रोध में हैं, तो आप जन्म की कोई याद है। आपको याद है जब आपका जन्म हुआ? इतनी बड़ी चट्टान को सरका सकते हैं, जो आप क्रोध में न होते, कुछ भी याद नहीं है। तो कभी आपसे सरकने वाली नहीं थी। आपकी ग्रंथियां जहर छोड़ मां के पेट में नौ महीने आप बेहोश थे। वह भी बेहोशी जरूरी है। देती हैं। उस जहर के नशे में आप कुछ भी कर सकते हैं। नहीं तो बच्चे का जीना मुश्किल हो जाए। नौ महीने कारागृह हो जाए,
क्रोध में, अब तो वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि जहर छूटता अगर होश हो। अगर बच्चे को होश हो, तो मां के पेट में बहुत कष्ट है। उस जहर के प्रभाव में ही कोई हत्या कर सकता है। भीतर | हो जाए। वह कष्ट झेलने योग्य नहीं है, इसलिए बेहोश थे। ग्रंथियां हैं, जो आपको मूर्छित करती हैं। जब आप कामवासना से पैदा होने के बाद भी आपको कुछ पता नहीं है, क्या हुआ। जब भरकर पागल होते हैं, तब भी आपकी ग्रंथियां एक विषाक्त द्रव्य आप गर्भ से बाहर आ रहे थे, आपको कुछ भी पता है ? अगर आप छोड़ देती हैं। आप होश में नहीं होते। क्योंकि होश में आकर तो | बहुत कोशिश करेंगे पीछे लौटने की, तो तीन साल की उम्र, दो आप पछताते हैं। बड़ा पश्चात्ताप करते हैं कि फिर वही भूल की। | साल की उम्र; बहुत जो जान सकते हैं, स्मृति कर सकते हैं, वे भी
और आपने ही की है। और पहले भी बहुत बार करके पछताए हैं। | दो साल से पीछे नहीं हट सकते हैं। दो साल तक आप ठीक होश फिर कैसे हो गई? जरूर आप होश में नहीं थे।
| में नहीं थे। आदमी जो भी भूलें करता है, वह बेहोशी में करता है। मरने में बेहोशी, गर्भ में बेहोशी, जन्म में बेहोशी, जन्म के बाद मौत के क्षण में आपके शरीर की सारी विषाक्त ग्रंथियां पूरा विष भी बेहोशी। और जिसको आप जीवन कहते हैं, वह भी छोड़ देती हैं। आपकी पूरी चेतना धुएं से भर जाती है। आपको कुछ करीब-करीब बेहोश है। उसमें भी कुछ होश नहीं है। मरते क्षण में होश नहीं रहता। जब आपका शरीर आत्मा से अलग होता है, तो तो वही व्यक्ति अपनी वासना को होशपूर्वक निर्धारित कर सकता आप उतने ही बेहोश होते हैं, जितना सर्जरी में कोई मरीज बेहोश है, जिसने जीवनभर ध्यान साधा हो। ' होता है। उससे ज्यादा।
इसे हम ऐसा समझें कि छोटी-मोटी बात में भी तो आपका वश मृत्यु के पास अपना एनेस्थेसिया है। इसलिए आप होश में मर नहीं है, अपने जन्म को आप निर्धारित करने में क्या करेंगे! अगर नहीं सकते; आप बेहोशी में मरेंगे। इसी कारण तो आपको दूसरे | मैं आपसे कहूं कि चौबीस घंटे आप अशांत मत होना; इस पर भी जन्म में याद नहीं रह जाता पिछला जन्म। क्योंकि जो बेहोशी में घटा तो आपकी मालकियत नहीं है। आप कहेंगे, अशांति आ जाएगी, है, उसकी याददाश्त नहीं हो सकती।
तो मैं क्या करूंगा? कोई गाली दे देगा, तो मैं क्या करूंगा? हम बहुत बार मर चुके हैं। हजार बार, लाख बार मर चुके हैं। चौबीस घंटे आपसे कहा जाए, अशांत मत होना, तो इसकी भी और हमें कछ भी याद नहीं कि हम कभी भी मरे हों। हमें कोई याद आपकी मालकियत नहीं है। क्षद्र-सी बात है। अति क्षद्र बात है। नहीं है मृत्यु की पिछली। और चूंकि मृत्यु की याद नहीं है, इसलिए | लेकिन आप सोचते हैं कि पूरे जीवन को, नए जीवन को मैं अपनी बीच में एक गैप, एक अंतराल हो गया है। इसलिए पिछले जन्म आकांक्षा के अनुकूल ढाल लूंगा। की कोई भी याद नहीं है।
| एक मन की छोटी-सी तरंग भी आप सम्हाल नहीं सकते। अगर जो आदमी होश में मरता है, उसे दूसरे जन्म में याद रहेगा | | आपसे कहा जाए कि चौबीस घंटे आपके मन में यह विचार न पिछला जन्म। आपको किसी को भी याद नहीं है।
आए, उस विचार को भी आने से आप रोक नहीं सकते। इतनी तो तो जो होश में ही नहीं मर सकते, तो आप क्या करिएगा, क्या | गुलामी है। और सोचते हैं, अंतिम क्षण में इतनी मालकियत दिखा सोचिएगा मरते वक्त? मौत तो घटेगी बेहोशी में; मरने के पहले | | देंगे कि पूरे जीवन की दिशा निर्धारित करना अपने हाथ में होगा! आप बेहोश हो गए होंगे। इसलिए आखिरी विचार तो बेहोश होगा, | अपने हाथ से जरा भी तो कुछ निर्णय नहीं हो पाता। जरा-सा भी होश वाला नहीं होगा।
| संकल्प पूरा नहीं होता। सब जगह हारे हुए हैं। लेकिन इस तरह के
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FO अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी
विचार सांत्वना देते हैं। उससे आदमी सोचता है, किए चले जाओ | कोई उपाय नहीं था। नरेश लेने को राजी नहीं था बेहोशी की कोई पाप, आखिरी क्षण में सम्हाल लेंगे।
| दवा और आपरेशन एकदम जरूरी था। अगर आपरेशन न हो, तो अगर सम्हालने की ही ताकत है, तो अभी सम्हालने में क्या | भी मौत हो जाए। तो फिर यह खतरा लेना उचित मालूम पड़ा। जब तकलीफ है? अगर बुद्ध जैसे होने की ही बात है, तो अगले जन्म | बिना आपरेशन के भी मौत हो जाएगी, तो एक खतरा लेना उचित पर टालना क्यों? अभी हो जाने में कौन बाधा डाल रहा है? अगर | है। आपरेशन करके देख लिया जाए। ज्यादा से ज्यादा मौत ही होगी तुम्हारे ही हाथ में है बुद्ध होना, तो अभी हो जाओ। | जो कि निश्चित है। लेकिन संभावना है कि बच भी जाए।
लेकिन तुम भलीभांति जानते हो कि अपने हाथ में नहीं दिखता, यह पहला मौका था चिकित्सा के इतिहास में कि इतना बड़ा तो टालते हैं। इससे मन में राहत बनी रहती है कि कोई फिक्र नहीं, | आपरेशन बिना किसी बेहोशी की दवा के किया गया। काशी नरेश आज नहीं तो कल हो जाएंगे, कल नहीं तो परसों हो जाएंगे। और अपनी गीता का पाठ करते रहे, आपरेशन हो गया। हम बहते चले जाते हैं मूर्छा में।
आपरेशन पूरा हो गया। कोई कहीं अड़चन न हुई। चिकित्सक मरते क्षण में आपको कोई होश होने वाला नहीं है। जिस व्यक्ति
बहुत हैरान हुए। जो अंग्रेज डाक्टर, सर्जन ने यह आपरेशन किया को मरते क्षण में होश रखना हो, उसे जीवित क्षण को होश के लिए था, वह तो चमत्कृत हो गया। उसने कहा कि आप किए क्या? उपयोग करना होगा। और इसके पहले कि असली मृत्यु घटे | क्योंकि इतनी असह्य पीड़ा! आपको ध्यान में मरने की कला सीखनी होगी।
तो काशी नरेश ने कहा कि मैं ध्यान करता रहा कृष्ण के वचनों ध्यान मृत्यु की कला है। वह मरने की तरकीब है अपने हाथ। | का—कि न शरीर के काटे जाने से आत्मा कटती है, न छेदे जाने जब शरीर अपने आप मरेगा, तब हो सकता है, इतनी सुविधा भी से छिदती है, न जलाए जाने से जलती है। बस मैं एक ही भाव में 'न हो। वह घटना इतनी नई होगी कि आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। । डूबा रहा कि मैं अलग हूं, मैं कर्ता नहीं हूं, भोक्ता नहीं हूं, मैं सिर्फ उस वक्त होश सम्हालना अति अड़चन का होगा। ध्यान में आप | | साक्षी हूं। न मुझे कोई जला सकता है; न मुझे कोई छेद सकता है; मरकर पहले ही देख सकते हैं। ध्यान में आप शरीर को छोड़ सकते | न मुझे कोई काट सकता है। यह भाव मेरा सघन बना रहा। तुम्हारे हैं और शरीर से अलग हो सकते हैं।
औजारों की खटपट मुझे सुनाई पड़ती रही। लेकिन ऐसे जैसे कहीं जो व्यक्ति ध्यान में मृत्यु को साधने लगता है, वह मृत्यु के आने दूर फासले पर सब हो रहा है। पीड़ा भी थी, लेकिन दूर, जैसे मैं के बहुत पहले मृत्यु से भलीभांति परिचित हो जाता है। उसने मरकर उससे अलग खड़ा हूं। मैं देख रहा हूं। जैसे पीड़ा किसी और को देख ही लिया है। अब मृत्यु के पास नया कुछ भी नहीं है। और जो घटित हो रही है। व्यक्ति अपने को अपने शरीर से अलग करके देख लेता है, मृत्यु अब यह जो सम्राट है, यह मृत्यु में भी होश रख सकता है। फिर उसे बेहोश करने की आवश्यकता नहीं मानती। फिर कोई | जीवन में इसने होश का गहरा प्रयोग कर लिया है। जरूरत नहीं है।
मृत्यु पर भरोसा न करें, जीवन पर भरोसा करें। और जीवन में ऐसा हुआ कि उन्नीस सौ आठ में काशी के नरेश का एक | साध लें, जो भी होना चाहते हों। मृत्यु पर टालें मत। वह धोखा आपरेशन हुआ पेट का। लेकिन काशी के नरेश ने कहा कि मैं कोई | सिद्ध होगा। जो भी क्षण हाथ में हैं, उनका उपयोग करें। बेहोशी की दवा लेने को तैयार नहीं है। एपेंडिसाइटिस का __ और अगर बुद्धत्व को पाना है, तो इसी घड़ी उसके श्रम में लग आपरेशन था, डाक्टरों ने कहा कि मुश्किल मामला है। बेहोश तो | जाएं, क्योंकि बुद्धत्व कोई ऐसी बच्चों जैसी बात नहीं है कि आप करना ही पड़ेगा। क्योंकि इतनी असह्य पीड़ा होगी कि अगर आप सोच लेंगे और हो जाएगी। बहुत श्रम करना होगा, बहुत साधना हिल गए, चिल्लाने लगे, रोने लगे, भागने लगे, तो हम क्या करनी होगी। और तभी अंतिम क्षण में वह बीज बन जाएगा और करेंगे? सारा खतरा हो जाएगा। जीवन का खतरा है। नया जन्म उस बीज के मार्ग से अंकुरित हो सकता है।
लेकिन नरेश ने कहा कि बिलकुल चिंता मत करें। मुझे सिर्फ मेरी गीता पढ़ने दें। मैं अपनी गीता पढ़ता रहूंगा, आप आपरेशन करते रहना।
एक मित्र ने पूछा है, अगर सभी मनुष्य अकर्ता बन
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- गीता दर्शन भाग-60
जाएं, गीता की बात को मान लें, तो जीवन में, संसार | चिकित्सा खोजी जा सकी है। अगर संसार स्वास्थ्य है, तो धर्म तो में क्या रस बाकी रह जाएगा?
| बिलकुल निष्प्रयोजन है।
बड रसेल ने ठीक कहा है। उसने कहा है कि दुनिया में धर्म
| तब तक रहेगा, जब तक दुख है। इसलिए अगर हमको धर्म को OT भी क्या रस है जीवन में? अभी कर्ता बने हुए हैं गीता | | मिटाना है, तो दुख को मिटा देना चाहिए। 1 के विपरीत, अभी क्या रस है जीवन में? और अगर वह ठीक कहता है। लेकिन दुख मिट नहीं सकता। पांच हजार
जीवन में रस ही है, तो गीता को पढ़ने की जरूरत क्या साल का इतिहास तो हमें ज्ञात है। आदमी दुख को मिटाने की है? गीता को सुनने की क्या जरूरत है ? अगर जीवन में रस ही है, | कोशिश कर रहा है। और एक दुख मिटा भी लेता है, तो दस दुख तो धर्म की बात ही क्यों उठानी? परमात्मा और मोक्ष और ध्यान पैदा हो जाते हैं। पुराने दुख मिट जाते हैं, तो नए दुख आ जाते हैं। और समाधि की चर्चा ही क्यों चलानी?
| लेकिन दुख नहीं मिटता। अगर जीवन में रस है, तो बात खतम हो गई। रस की ही तो निश्चित ही, हजार साल पहले दूसरे दुख थे, आज दूसरे दुख खोज है। रस ही तो परमात्मा है। बात खतम हो गई। फिर कुछ | हैं। कल दूसरे दुख होंगे। हिंदुस्तान में एक तरह का दुख है, करना नहीं है। फिर और ज्यादा कर्ता हो जाएं, ताकि और ज्यादा | अमेरिका में दूसरी तरह का दुख है, रूस में तीसरी तरह का दुख रस मिले। और संसार में उतर जाएं, ताकि रस के और गहरे स्रोत है। लेकिन दुख नहीं मिटता। मिल जाएं।
जमीन पर कोई भी समाज आज तक यह नहीं कह सका कि हमारा अगर जीवन में रस मिल ही रहा है कर्ता बनकर, तो गीता वगैरह दुख मिट गया, अब हम आनंद में हैं। कुछ व्यक्ति जरूर कह सके को, सबको अग्नि में आहुति कर दें। कोई आवश्यकता नहीं है। | हैं कि हमारा दुख मिट गया और हम आनंद में हैं। लेकिन वे व्यक्ति
और कृष्ण वगैरह की बात ही मत सुनना। नहीं तो वे आपका रस |. | वही हैं, जिन्होंने धर्म का प्रयोग किया है। आज तक धर्म से रहित नष्ट कर दें। आप बड़े आनंद में हैं, कहां इनकी बातें सुनते हैं! | व्यक्ति यह नहीं कह सका कि मैं आनंद में हूं। वह दुख में ही है।
लेकिन आप अगर रस में ही होते, तो यह बात ठीक थी। आपको रसेल ठीक कहता है, धर्म को मिटाना हो तो दुख को मिटा देना रस बिलकुल नहीं है। दुख में हैं, गहन दुख में हैं। हां, रस की आशा | | चाहिए। मैं भी राजी हूं। लेकिन दुख अगर मिट सके, तब। बनाए हुए हैं। जब भी हैं, तब दुख में हैं; और रस भविष्य में है। दो संभावनाएं हैं। दुख मिट जाए, तो धर्म मिट जाए, एक
संसार में जरा भी रस नहीं है। सिर्फ भविष्य की आशा में रस है। | संभावना। एक दूसरी संभावना है कि धर्म आ जाए, तो दुख मिट जहां हैं. वहां तो दखी हैं। लेकिन सोचते हैं कि कल एक बड़ा जाए। रसेल पहली बात से राजी है। मैं दसरी बात से राजी हैं। मकान बनेगा और वहां आनंद होगा। जितना है, उसमें तो दुखी हैं। दुख मिट नहीं सकता। लेकिन धर्म आ जाए, तो दुख मिट लेकिन सोचते हैं, कल ज्यादा हो जाएगा और बड़ा रस आएगा। सकता है। धर्म तो चिकित्सा है। वह तो जीवन से दुख के जो-जो कल कुछ होगा, जिससे रस घटित होने वाला है।
कारण हैं, उनको नष्ट करना है। जिस कारण से हम दुख पैदा कर कल की आशा में आज के दुख को हम बिताते हैं। वह कल लेते हैं जीवन में, उस कारण को तोड़ देना है। वह कारण है, कर्ता कभी नहीं आता। कल होता ही नहीं। जो भी है, वह आज है। संसार का भाव। वह कारण है कि मैं कर रहा हूं, वही दुख का मूल है। आशा है। उस आशा में रस है। डर लगता होगा कि अगर साक्षी | अहंकार, मैं हूं, वही दुख का मूल है। उसे तोड़ते से ही दुख विलीन हो जाएंगे, तो फिर रस खो जाएगा। क्योंकि साक्षी होते ही भविष्य | हो जाता है और आनंद की वर्षा शुरू हो जाती है। खो जाता है; वर्तमान ही रह जाता है। इसलिए सवाल तो बिलकुल ये मित्र कहते हैं, जीवन में रस क्या रह जाएगा? सही है।
जीवन में रस है ही नहीं, पहली बात। पर दूसरी बात सोचने जैसी संसार में रस नहीं है, जो खो जाएगा। क्योंकि संसार में रस है, भविष्य का जो रस है, वह जरूर खो जाएगा। साक्षी के लिए होता, तब तो धर्म की कोई जरूरत ही नहीं थी। संसार में दुख है, कोई भविष्य नहीं है। इसलिए धर्म पैदा हो सका है। संसार में बीमारी है, इसलिए धर्म की । इसे थोड़ा समझें। समय के हम तीन विभाजन करते हैं, अतीत,
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0 अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी
वर्तमान, भविष्य। वे समय के विभाजन नहीं हैं। समय तो सदा यह पचास साल की उम्र आज से दस साल पहले भविष्य थी। और वर्तमान है। समय का तो एक ही टेंस है, प्रेजेंट। अतीत तो सिर्फ दस साल पहले आपने सोचा होगा, न मालूम क्या-क्या आनंद स्मृति है मन की, वह कहीं है नहीं। और भविष्य केवल कल्पना है | | आने वाला है! अब तो वह सब आप देख चुके हैं। वह अभी तक मन की, वह भी कहीं है नहीं। जो समय है, वह तो सदा वर्तमान है। आनंद आया नहीं।
आपका कभी अतीत से कोई मिलना हुआ? कि भविष्य से कोई | बचपन से आदमी यह सोचता है, कल, कल, कल! और एक मिलना हुआ? जब भी मिलना होता है, तो वर्तमान से होता है। | दिन मौत आ जाती है और आनंद नहीं आता। लौटकर देखें, कोई
आप सदा अभी और यहीं, हियर एंड नाउ होते हैं। न तो आप पीछे | | एकाध क्षण आपको ऐसा खयाल आता है, जिसको आप कह सकें होते हैं, न आगे होते हैं। हां, पीछे का खयाल आप में हो सकता | | वह आनंद था! जिसको आप कह सकें कि उसके कारण मेरा जीवन है। वह आपके मन की बात है। और आगे का खयाल भी हो सकता | | सार्थक हो गया। जिसके कारण आप कह सकें कि जीवन के सब है, वह भी मन की बात है।
दुख झेलने योग्य थे! क्योंकि वह एक आनंद का कण भी मिल अस्तित्व वर्तमान है; मन अतीत और भविष्य है। एक और मजे | गया, तो सब दुख चुक गए। कोई नुकसान नहीं हुआ। क्या एकाध की बात है, अस्तित्व वर्तमान है सदा, और मन कभी वर्तमान नहीं ऐसा क्षण जीवन में आपको खयाल है, जिसके लिए आप फिर से है। मन कभी अभी और यहीं नहीं होता। इसे थोड़ा सोचें। । | जीने को राजी हो जाएं! कि यह सारी तकलीफ झेलने को मैं राजी __ अगर आप पूरी तरह से यहीं होने की कोशिश करें इसी क्षण में; हूं, क्योंकि वह क्षण पाने जैसा था। भूल जाएं सारे अतीत को, जो हो चुका, वह अब नहीं है; भूल जाएं __ कोई क्षण याद नहीं आएगा। सब बासा-बासा, सब राख-राख, सारे भविष्य को, जो अभी हुआ नहीं है; सिर्फ यहीं रह जाएं, सब बेस्वाद। लेकिन आशा फिर भी टंगी है भविष्य में। मरते दम 'वर्तमान में, तो मन समाप्त हो जाएगा। क्योंकि मन को या तो अतीत | तक आशा टंगी है। उस आशा में रस मालूम पड़ता है। वह रस चाहिए दौड़ने के लिए पीछे, स्मृति; या भविष्य चाहिए, स्पेस धोखा है। चाहिए, जगह चाहिए। वर्तमान में जगह ही नहीं है। वर्तमान का | साक्षी, अकर्ता के भाव में धोखे का रस उपलब्ध नहीं होता, क्षण इतना छोटा है कि मन को फैलने की जरा भी जगह नहीं है। लेकिन वास्तविक रस की वर्षा हो जाती है।
क्या करिएगा? अगर अतीत छीन लिया, भविष्य छीन लिया, कृष्ण का जो नृत्य है, बुद्ध का जो मौन है, महावीर का जो सौंदर्य तो वर्तमान में मन को करने को कुछ भी नहीं बचता। इसलिए ध्यान है, वह भविष्य के रस से पैदा हुई बातें नहीं हैं। वह वर्तमान में, की एक गहनतम प्रक्रिया है और वह है, वर्तमान में जीना। तो ध्यान अभी-यहीं उनके ऊपर घनघोर वर्षा हो रही है। अपने आप फलित होने लगता है, क्योंकि मन समाप्त होने लगता। कबीर कहते हैं, अमृत बरस रहा है और मैं नाच रहा हूं। वह अमृत है। मन बच ही नहीं सकता।
| किसी भविष्य की बात नहीं है। वह अभी बरस रहा है। वह यहीं बरस समय सिर्फ वर्तमान है। मन है अतीत और भविष्य। अगर आप रहा है। कबीर कहते हैं, देखो, मेरे कपड़े बिलकुल भीग गए हैं! मैं साक्षी होंगे, तो वर्तमान में हो जाएंगे। भविष्य और अतीत दोनों खो | | अमृत की वर्षा में खड़ा हूं। बादल गरज रहे हैं और अमृत बरस रहा जाएंगे। क्योंकि साक्षी तो उसी के हो सकते हैं, जो है। अतीत के है। बरसेगा नहीं, बरस रहा है! देखो, मेरे कपड़े भीग रहे हैं! क्या साक्षी होंगे, जो है ही नहीं? भविष्य के क्या साक्षी होंगे, जो धर्म है वर्तमान की घटना, वासना है भविष्य की दौड़। अगर अभी होने को है? साक्षी तो उसी का हुआ जा सकता है, जो है। । | भविष्य में बहुत रस मालूम पड़ता हो, तो अकर्ता बनने की कोशिश
साक्षी होते ही मन समाप्त हो जाता है। इसलिए भविष्य का जो मत करना, क्योंकि बनते ही भविष्य गिर जाता है। और अगर दुख रस है, वह जरूर समाप्त हो जाएगा। लेकिन आपको पता ही नहीं | | ही दुख पाया हो- भविष्य रोज तो वर्तमान बन जाता है और दुख है कि भविष्य का रस तो समाप्त होगा, वर्तमान का आनंद आपके | | लाता है तो फिर एक दफे हिम्मत करके अकर्ता भी बनने की ऊपर बरस पड़ेगा। और भविष्य का रस तो केवल आश्वासन है। कोशिश करना। झूठा, वह कभी पूरा नहीं होता।
अकर्ता बनते ही वह द्वार खुल जाता है इटरनिटी का, शाश्वतता इसे इस तरह सोचें। अगर आप पचास साल के हो गए हैं, तो का। वह वर्तमान से ही खुलता है। वर्तमान है अस्तित्व का द्वार।
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गीता दर्शन भाग-60
अगर आप अभी और यहीं एक क्षण को भी ठहरने को राजी हो ___ जब बुद्ध भाग रहे हैं, तो उनका सारथी उनसे कहता है कि आप जाएं, तो आपका परमात्मा से मिलन हो सकता है।
क्या पागलपन कर रहे हैं! सारथी गरीब आदमी है। उसको अभी लेकिन हमारा मन बहुत होशियार है। अभी मैं बात कर रहा हूं, आशाएं हैं। वह प्रधान सारथी भी हो सकता है। वह सम्राट का मन कहेगा कि ठीक कह रहे हैं। घर चलकर इसकी कोशिश करेंगे। सारथी हो सकता है। अभी राजकुमार का सारथी है। अभी बड़ी घर चलकर? भविष्य! जरा किसी दिन फुर्सत मिलेगी, तो अकर्ता | | आशाएं हैं। वह बुद्ध को कहता है कि मैं बूढ़ा आदमी हूं; मैं तुम्हें बनने की भी चेष्टा करेंगे। भविष्य!
समझाता हूं; तुम गलती कर रहे हो। तुम नासमझी कर रहे हो। तुम जो अभी हो सकता है, उसको हम कल पर टालकर वंचित हो | अभी यौवन की भूल में हो। लौट चलो। इतने सुंदर महल कहां जाते हैं। लेकिन रस तो केवल उन्हीं लोगों ने जाना है, जो वर्तमान मिलेंगे? इतनी संदर पत्नियां कहां मिलेंगी? इतना संदर पत्र कहां में प्रविष्ट हो गए हैं। बाकी लोगों ने सिवाय दुख के और कुछ भी | पाओगे? तुम्हारे पास सब कुछ है, तुम कहां भागे जा रहे हो! नहीं जाना है।
वह सारथी और बुद्ध के बीच जो बातचीत है...। वह सारथी बुद्ध के जीवन में उल्लेख है...। बुद्ध को सभी सुख उपलब्ध गलत नहीं कहता। वह अपने हिसाब से कहता है। उसको अभी थे, जो आप खोज सकते हैं। लेकिन सभी सुख उपलब्ध होने में आशाओं का जाल आगे खड़ा है। ये महल उसे भी मिल सकते हैं एक बड़ा खतरा हो जाता है। और वह खतरा यह हो जाता है कि | भविष्य में। ये सुंदर स्त्रियां वह भी पा सकता है। अभी दौड़ कायम भविष्य की आशा नहीं रह जाती है।
है। उसे बुद्ध बिलकुल नासमझ मालूम पड़ते हैं कि यह लड़का दुख में एक सुविधा है, भविष्य में आशा रहती है। जो कार | | बिलकुल नासमझ है। यह बच्चों जैसी बात कर रहा है। जहां जाने आप चाहते हैं, वह कल मिल सकती है, आज, अभी नहीं मिल | | के लिए सारी दुनिया कोशिश कर रही है, वहां से यह भाग रहा है! सकती। श्रम करेंगे, पैसा जुटाएंगे, चोरी करेंगे, बेईमानी करेंगे, | | आखिरी क्षण में भी वह कहता है कि एक बार मैं तुमसे फिर कहता कुछ उपाय करेंगे। कल, समय चाहिए। जो मकान आप बनाना | | हूं, लौट चलो। महलों में वापस लौट चलो। चाहते हैं, वक्त लेगा।
तो बुद्ध कहते हैं, तुझे महल दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि तू उन लेकिन बुद्ध को एक मुसीबत हो गई, एक अभिशाप, जो वरदान | महलों में नहीं है। मुझे वहां सिर्फ आग की लपटें और दुख दिखाई सिद्ध हुआ। उनके पास सब था, इसलिए भविष्य का कोई उपाय न | पड़ता है। क्योंकि मैं वहां से आ रहा है। मैं उनमें रहकर आ रहा है। रहा। जो भी था, वह था। महल बड़े से बड़े उनके पास थे। स्त्रियां | | तू उनके बाहर है। इसलिए तुझे कुछ पता नहीं है। तू मुझे समझाने सुंदर से सुंदर उनके पास थीं। धन जितना हो सकता था, उनके पास की कोशिश मत कर। था। जो भी हो सकता था उस जमाने में श्रेष्ठतम, सुंदरतम, वह सब बुद्ध महल छोड़ देते हैं। और छः वर्ष तक बड़ी कठिन तपश्चर्या उनके पास था।
करते हैं परमात्मा को, सत्य को, मोक्ष को पाने की। लेकिन छः वर्ष बुद्ध मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि आशा का कोई उपाय न रहा। | की कठिन तपश्चर्या में भी न मोक्ष मिलता, न परमात्मा मिलता, न होप समाप्त हो गई। इससे बड़ा मकान नहीं हो सकता; इससे सुंदर | आत्मा मिलती। स्त्री नहीं हो सकती; इससे ज्यादा धन नहीं हो सकता। बुद्ध की बुद्ध की कथा बड़ी अनूठी है। छः वर्ष वे, जो भी कहा जाता है, तकलीफ यह हो गई कि उनके पास सब था, इसलिए भविष्य गिर | | करते हैं। जो भी साधना-पद्धति बताई जाती है, करते हैं। उनसे गुरु गया। और दुख दिखाई पड़ गया कि सब दुख है। वे भाग खड़े हुए। | घबड़ाने लगते हैं। अक्सर शिष्य गुरु से घबड़ाते हैं, क्योंकि गुरु जो ___ यह बड़े मजे की बात है, सुख में से लोग जाग गए हैं, भाग गए कहता है, वे नहीं कर पाते। लेकिन बुद्ध से गुरु घबड़ाने लगते हैं। हैं, और दुख में लोग चलते चले जाते हैं! सुख में लोग इसलिए भाग गुरु उनको कहते हैं कि बस, जो भी हम सिखा सकते थे, सिखा खड़े होते हैं कि दिखाई पड़ जाता है कि अब और तो कुछ हो नहीं | | दिया; और तुमने सब कर लिया। और बुद्ध कहते हैं, आगे सकता। जो हो सकता था, वह हो गया, और कुछ हुआ नहीं। और बताओ, क्योंकि अभी कुछ भी नहीं हुआ। तो वे कहते हैं, अब तुम भीतर दुख ही दुख है। भविष्य कुछ है नहीं। आशा बंधती नहीं। कहीं और जाओ। आशा टूट जाती है। आशा के सब सेतु गिर गए। बुद्ध भाग गए। जितने गुरु उपलब्ध थे, बुद्ध सबके पास घूमकर सबको थका
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0 अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी
डालते हैं। छः वर्ष बाद निरंजना नदी के किनारे वे वृक्ष के नीचे भीतर कोई वासना नहीं थी। आज उन्हें यह भी खयाल नहीं था कि थककर बैठे हैं। यह थकान बड़ी गहरी है। एक थकान तो महलों | उठकर कहां जाऊं। उठकर क्या करूं। उठने का भी क्या प्रयोजन की थी कि महल व्यर्थ हो गए थे। महल तो व्यर्थ हो गए थे, क्योंकि | | है। आज कोई बात ही बाकी न रही थी! वे थे; आखिरी डूबता हुआ महलों में कोई भविष्य नहीं था।
तारा था; सुबह का सन्नाटा था; निरंजना नदी का तट था। और बुद्ध इसे थोड़ा समझें बारीक है। महलों में कोई भविष्य नहीं था। को ज्ञान उपलब्ध हो गया। सब था पास में, आगे कोई आशा नहीं थी। जब उन्होंने महल छोड़े, | जो साधना से न मिला, दौड़कर न मिला, वह उस सुबह रुक तो आशा फिर बंध गई; भविष्य खुला हो गया। अब मोक्ष, जाने से मिल गया। कुछ किया नहीं, और मिल गया। कुछ कर नहीं परमात्मा, आत्मा, शांति, आनंद, इनके भविष्य की मंजिलें बन | रहे थे उस क्षण में। क्या हुआ? उस क्षण में वे साक्षी हो गए। जब गईं। अब वे फिर दौड़ने लगे। वासना ने फिर गति पकड ली। अब | कोई कर्ता नहीं होता, तो साक्षी हो जाता है। और जब तक कोई कर्ता वे साधना कर रहे थे, लेकिन वासना जग गई। क्योंकि वासना | होता है, तब तक साक्षी नहीं हो पाता। उस क्षण वे देखने में समर्थ भविष्य के कारण जगती है। वासना है, मेरे और भविष्य के बीच | हो गए। कुछ करने को नहीं था, इसलिए करने की कोई वासना मन जोड़। अब वे फिर दौड़ने लगे।
| में नहीं थी। कोई द्वंद्व, कोई तनाव, कोई तरंग, कुछ भी नहीं था। ये छः वर्ष, तपश्चर्या के वर्ष, वासना के वर्ष थे। मोक्ष पाना था। | मन बिलकुल शून्य था, जैसे नदी में कोई लहर न हो। इस लहरहीन और आज मिल नहीं सकता, भविष्य में था। इसलिए सब कठोर | अवस्था में परम आनंद उनके ऊपर बरस गया। उपाय किए, लेकिन मोक्ष नहीं मिला। क्योंकि मोक्ष तो तभी मिलता शांत होते ही आनंद बरस जाता है। मौन होते ही आनंद बरस है, जब दौड़ सब समाप्त हो जाती है। वह भीतर का शून्य तो तभी | जाता है। रुकते ही मंजिल पास आ जाती है। दौड़ते हैं, मंजिल दूर उपलब्ध होता है, या पूर्ण तभी उपलब्ध होता है, जब सब वासना | जाती है। रुकते हैं, मंजिल पास आ जाती है। गिर जाती है।
यह कहना ठीक नहीं है कि रुकते हैं, मंजिल पास आ जाती है। यह भी वासना थी कि ईश्वर को पालं. सत्य को पा लं। जो रुकते ही आप पाते हैं कि आप ही मंजिल हैं। कहीं जाने की कोई चीज भी भविष्य की मांग करती है, वह वासना है। ऐसा समझ लें जरूरत न थी। जा रहे थे, इसलिए चूक रहे थे। खोज रहे थे, कि जिस विचार के लिए भी भविष्य की जरूरत है, वह वासना है। | इसलिए खो रहे थे। रुक गए, और पा लिया।
तो बुद्ध उस दिन थक गए। यह थकान दोहरी थी। महल बेकार हो गए। अब साधना भी बेकार हो गई। अब वे वृक्ष के नीचे थककर बैठे थे। उस रात उनको लगा, अब करने को कुछ भी नहीं बचा। | एक आखिरी प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि क्या महल जान लिए। साधना की पद्धतियां जान लीं। कहीं कुछ पाने | | बिना साधना किए, अकस्मात आत्म-साक्षात्कार नहीं को नहीं है। यह थकान बड़ी गहरी उतर गई, कहीं कुछ पाने को नहीं हो सकता? है। इस विचार ने कि कहीं कुछ पाने को नहीं है, स्वभावतः दूसरे विचार को भी जन्म दिया कि कुछ करने को नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें। जब कुछ पाने को नहीं है, तो करने को क्या कठिन है सवाल, लेकिन जो मैं अभी कह रहा था, उससे बचता है? जब तक पाने को है, तब तक करने को बचता है। बुद्ध पा जोड़कर समझेंगे तो आसान हो जाएगा। को लगा कि अब कुछ न पाने को है, न कुछ करने को है। वे उस
क्या अकस्मात आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता? रात खाली बैठे रह गए उस वृक्ष के नीचे। नींद कब आ गई, उन्हें पहली तो बात, जब भी आत्म-साक्षात्कार होता है, तो पता नहीं।
| अकस्मात ही होता है। जब भी आत्मा का अनुभव होता है, तो सुबह जब रात का आखिरी तारा डूबता था, तब उनकी आंखें | | अकस्मात ही होता है। लेकिन इसका मतलब आप यह मत समझना खुलीं। आज कुछ भी करने को नहीं था। न महल, न संसार, न कि उसके लिए कुछ भी करना नहीं पड़ता है। आपके करने से नहीं मोक्ष, न आत्मा, कुछ भी करने को नहीं था। उनकी आंखें खुली। होता, लेकिन आपका करना जरूरी है।
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
इसे ऐसा समझें कि आपको किसी मित्र का नाम भूल गया है। मैं आपसे कहूंगा कि सीढ़ियों पर चढ़ना जरूरी है और फिर और आप बड़ी चेष्टा करते हैं याद करने की। और जितनी चेष्टा | सीढ़ियों को छोड़ देना भी जरूरी है। सीढ़ी पर बिना चढ़े कोई भी करते हैं, उतना ही कुछ याद नहीं आता। और ऐसा भी लगता है कि छत पर नहीं पहुंच सकता। और कोई सीढ़ियों पर ही चढ़ता रहे, बिलकुल जबान पर रखा है। आप कहते भी हैं कि बिलकुल जबान और सीढ़ियों पर ही रुका रहे, तो भी छत पर नहीं पहुंच सकता। पर रखा है। अब जबान पर ही रखा है, तो निकाल क्यों नहीं देते? | सीढ़ियों पर चढ़ना होगा; और एक जगह आएगी, जहां सीढ़ियां लेकिन पकड़ में नहीं आता। और जितनी कोशिश पकड़ने की करते छोड़कर छत पर जाना होगा। हैं, उतना ही बचता है, भागता है। और भीतर कहीं एहसास भी आप कहें कि जिस सीढ़ी पर हम चढ़ रहे थे, उसी पर चढ़ते होता है कि मालूम है। यह भी एहसास होता है कि अभी आ रहेंगे, तो फिर आप छत पर कभी नहीं पहुंच पाएंगे। सीढ़ियों पर जाएगा। और फिर भी पकड़ में नहीं आता।
| चढ़ो भी और सीढ़ियों को छोड़ भी दो। फिर आप थक जाते हैं। फिर आप थककर बगीचे में जाकर गड्डा | | __ आध्यात्मिक साधना सीढ़ियों जैसी है। उस पर चढ़ना भी जरूरी खोदने लगते हैं। या उठाकर अखबार पढ़ने लगते हैं। या सिगरेट है, उससे उतर जाना भी जरूरी है। पीने लगते हैं। या रेडियो खोल देते हैं। या कुछ भी करने लगते हैं। उदाहरण के लिए अगर आप कोई जप का प्रयोग करते हैं, राम या लेट जाते हैं। और थोड़ी देर में अचानक जैसे कोई बबूले की का जप करते हैं। तो ध्यान रहे, जब तक राम का जप न छूट जाए, तरह वह नाम उठकर आपके ऊपर आ जाता है। और आप कहते | | तब तक राम से मिलन न होगा। लेकिन छोड़ तो वही सकता है, हैं कि देखो, मैं कहता था, जबान पर रखा है। अब आ गया। | जिसने किया हो।
लेकिन इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। आपने जो कोशिश कुछ नासमझ कहते हैं कि तब तो बिलकुल ठीक ही है; हम की, उसके कारण आया नहीं है। लेकिन अगर आपने कोशिश न अच्छी हालत में ही हैं। छोड़ने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि हमने की होती, तो भी न आता। यह जरा जटिल है।
कभी किया ही नहीं। वे सीढ़ी के नीचे खड़ें हैं। छोड़ने वाला सीढ़ी आपने कोशिश की उसके कारण नहीं आया है, क्योंकि कोशिश के ऊपर से छोड़ेगा। उन दोनों के तलों में फर्क है। में तनाव हो जाता है। तनाव के कारण मन संकीर्ण हो जाता है. साधना बद्ध ने छः वर्ष की। बौद्ध चिंतन. बौद्ध धारा निरंतर दरवाजा बंद हो जाता है। आप इतने उत्सक हो जाते हैं लाने के लिए सवाल उठाती रही है कि बद्ध ने छः वर्ष साधना की. तप किया कि उस उत्सुकता के कारण ही उपद्रव पैदा हो जाता है। भीतर सब उस तप से सत्य मिला या नहीं? एक उत्तर है कि उस तप से सत्य तन जाता है। नाम के आने के लिए आपका शिथिल होना जरूरी नहीं मिला। क्योंकि उस तप से नहीं मिला, छः वर्ष की मेहनत से है, ताकि नाम ऊपर आ सके, उसका बबूला आप तक आ जाए। कुछ भी नहीं मिला। मिला तो तब, जब तप छोड़ दिया। तो एक
लेकिन आपने जो चेष्टा की है, अगर वह आप चेष्टा ही न करें, | वर्ग है बौद्धों का, जो कहता है कि बुद्ध को तप से कुछ भी नहीं तो बबूले की आने की कोई जरूरत भी नहीं रह जाती। मिला, इसलिए तप व्यर्थ है।
इसका अर्थ यह हुआ कि चेष्टा करना जरूरी है और फिर चेष्टा लेकिन जो ज्यादा बुद्धिमान वर्ग है, वह कहता है, तप से नहीं छोड़ देना भी जरूरी है। यही आध्यात्मिक साधना की सबसे कठिन | मिला; लेकिन फिर भी जो मिला, वह तप पर आधारित है। वह तप बात है। यहां कोशिश भी करनी पड़ेगी और एक सीमा पर कोशिश के बिना भी नहीं मिलेगा। को छोड़ भी देना पड़ेगा। कोशिश करना जरूरी है और छोड़ देना आप जाकर बैठ जाएं निरंजना नदी के किनारे। वह झाड़ अभी भी जरूरी है।
भी लगा हुआ है। आप वैसे ही जाकर मजे से उसके नीचे बैठ जाएं। ___ इसे हम ऐसा समझें कि आप एक सीढ़ी पर चढ़ते हैं। अगर कोई | सुबह आखिरी तारा अब भी डूबता है। सुबह आप आंख खोल मुझसे पूछे कि क्या सीढ़ियों पर चढ़ने से मैं मंजिल पर पहुंच | लेना। अलार्म की एक घड़ी लगा लेना। ठीक वक्त पर आंख खुल जाऊंगा, छत पर पहुंचा जाऊंगा? या बिना सीढ़ी चढ़े भी छत पर | जाएगी। आप तारे को देख लेना और बुद्ध हो जाना! पहुंचा जा सकता है? तो मेरी वही दिक्कत होगी, जो इस सवाल में आप बुद्ध नहीं हो पाएंगे। वह छः वर्ष की दौड़ इस बैठने के लिए हो रही है।
| जरूरी थी। यह आदमी इतना दौड़ा था, इसलिए बैठ सका। आप
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ॐ अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी ,
दौड़े ही नहीं हैं, तो बैठेंगे कैसे?
कार्य-कारण से इतनी मुक्त है कि उसके लिए कोई गणित नहीं इसे हम ऐसा समझें कि एक आदमी दिनभर मेहनत करता है, | बिठाया जा सकता। तो रात गहरी नींद में सो जाता है। नींद उलटी है। दिनभर मेहनत ___ आत्म-साक्षात्कार तो अकस्मात ही होगा। और कभी-कभी ऐसे करता है, रात गहरी नींद में सो जाता है। आप कहते हैं कि मझे नींद क्षणों में हो जाता है, जिनको आप सोच भी नहीं सकते थे कि इस क्यों नहीं आती? आप दिनभर आराम कर रहे हैं। और फिर रात क्षण में और आत्म-साक्षात्कार होगा। लेकिन अगर आप इसका नींद नहीं आती, तो आप सोचते हैं कि मुझे तो और ज्यादा नींद | यह मतलब समझ लें कि साधना करनी जरूरी नहीं है, अकस्मात आनी चाहिए। मैं तो नींद का दिनभर अभ्यास करता हूं! और यह जब होना है, हो जाएगा। तो कभी भी न होगा। साधना जरूरी है। आदमी तो दिनभर मेहनत करता है, नींद के अभ्यास का इसे मौका । साधना जरूरी है आपको तैयार करने के लिए। आत्म-साक्षात्कार ही नहीं मिलता। और मैं दिनभर नींद का अभ्यास करता हूं। आंख | साधना से नहीं आता, लेकिन आप तैयार होते हैं, आप योग्य बनते बंद किए सोफे पर पड़ा ही रहता हूं, करवट बदलता रहता हूं। और हैं, आप पात्र बनते हैं, आप खुलते हैं। और जब आप योग्य और इसको नींद आ जाती है, जिसने दिन में बिलकुल अभ्यास नहीं | पात्र हो जाते हैं, तो आत्म-साक्षात्कार की घटना घट जाती है। किया! और मुझे नींद रात बिलकुल नहीं आती, जो कि दिनभर का इस फर्क को ठीक से खयाल में ले लें। अभ्यास किया है! यह कैसा अन्याय हो रहा है जगत में?
आप परमात्मा को साधना से नहीं ला सकते। वह तो मौजूद है। आपको खयाल नहीं है कि जिसने दिनभर मेहनत की है, वही | | साधना से सिर्फ आप अपनी आंख खोलते हैं। साधना से सिर्फ विश्राम का हकदार हो जाता है। विश्राम मेहनत का फल है। इसका आप अपने को तैयार करते हैं। परमात्मा तो मौजूद है; उसको पाने यह मतलब नहीं है कि आप रात भी मेहनत करते रहें। विश्राम करना का कोई सवाल नहीं है। जरूरी है। लेकिन वह जरूरी तभी है और उपलब्ध भी तभी होता ऐसा समझें कि आप अपने घर में बैठे हैं। सूरज निकल गया है, है, जब उसके पहले श्रम गुजरा हो।
सुबह है। और आप सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद किए अंदर बैठे जो आदमी बुद्ध की तरह छः साल गहरी तपश्चर्या में दौड़ता है, | | हैं। सूरज आपके दरवाजों को तोड़कर भीतर नहीं आएगा। लेकिन वह अगर किसी दिन थककर बैठ जाएगा, तो उसके बैठने का दरवाजे पर उसकी किरणें रुकी रहेंगी। आप चाहें कि जाकर बाहर गुणधर्म अलग है। वह आप जैसा नहीं बैठा है। आप बैठे हुए भी | सूरज की रोशनी को गठरी में बांधकर भीतर ले आएं, तो भी आप चल रहे हैं। आप भी उसी बोधिवृक्ष के नीचे बैठ सकते हैं, मगर न ला सकेंगे। गठरी भीतर आ जाएगी, रोशनी बाहर की बाहर रह आपका मन चलता ही रहेगा; आपका मन योजनाएं बनाता रहेगा। जाएगी। लेकिन आप एक काम कर सकते हैं कि दरवाजे खुले छोड़ सुबह का तारा भी डूब रहा होगा, तब भी आपके भीतर हजार चीजें | दें, और सूरज भीतर चला आएगा। खड़ी होंगी। वहां कोई मौन नहीं हो सकता। जब तक वासना है, । न तो सूरज को जबरदस्ती भीतर लाने का कोई उपाय है। और तब तक मौन नहीं हो सकता।
न सूरज जबरदस्ती अपनी तरफ से भीतर आता है। आप क्या कर बुद्ध की दौड़ से सत्य नहीं मिला, यह ठीक है। लेकिन बुद्ध की | सकते हैं? एक मजेदार बात है। आप सूरज को भीतर तो नहीं ला दौड़ से ही सत्य मिला, यह भी उतना ही ठीक है। इस द्वंद्व को ठीक | सकते, लेकिन बाहर रोक सकते हैं। आप दरवाजा बंद रखें, तो से आप समझ लेंगे, तो इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। | भीतर नहीं आएगा। आप दरवाजा खोल दें, तो भीतर आएगा।
आत्म-साक्षात्कार तो सदा अकस्मात ही होता है। क्योंकि उसका | | ठीक परमात्मा ऐसा ही मौजूद है। और जब तक आप अपने कोई प्रेडिक्शन नहीं हो सकता, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती कि | विचारों में बंद, अपने मन से घिरे, मुर्दे की तरह हैं, एक कब्र में, कल सुबह ग्यारह बजे आपको आत्म-साक्षात्कार हो जाएगा। | चारों तरफ दीवालों से घिरे हुए एक कारागृह में-वासनाओं का,
आपकी मौत की भविष्यवाणी हो सकती है। आपकी बीमारी की | | विचारों का, स्मृतियों का कारागृह; आशाओं का, अपेक्षाओं का भविष्यवाणी हो सकती है। सफलता-असफलता की भविष्यवाणी | कारागृह-तब तक परमात्मा से आपका मिलन नहीं हो पाता। हो सकती है। आत्म-साक्षात्कार की कोई भविष्यवाणी नहीं हो
| जिस क्षण यह कारागृह आपसे गिर जाता है, जिस क्षण, जैसे वस्त्र सकती। क्योंकि आत्म-साक्षात्कार इतनी अनूठी घटना है और गिर जाएं, और आप नग्न हो गए, ऐसे ये सारे विचार-वासनाओं
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गीता दर्शन भाग-60
के वस्त्र गिर गए और आप नग्न हो गए अपनी शुद्धता में, उसी | | और पानी भर गया था। कुछ डबरे गंदे थे। कुछ डबरों में जानवर क्षण आपका मिलना हो जाता है।
स्नान कर रहे थे। कुछ डबरे शुद्ध थे। कुछ बिलकुल स्वच्छ थे। साधना आपको निखारती है, परमात्मा को नहीं मिलाती। लेकिन | | किन्हीं के पोखर का पानी बड़ा स्वच्छ-साफ था। किन्हीं का जिस दिन आप निखर जाते हैं...। और कोई नहीं कह सकता कि | | बिलकुल गंदा था। और सुबह का सूरज निकला। रवींद्रनाथ ने कहा कब आप निखर जाते हैं, क्योंकि इतनी अनहोनी घटना है कि कोई | | कि मैं घूमने निकला था। मुझे एक बात बड़ी हैरान कर गई और मापदंड नहीं है। और जांचने का कोई उपाय नहीं है। कोई | अकस्मात वह बात मेरे हृदय के गहरे से गहरे अंतस्तल को स्पर्श दिशासूचक यंत्र नहीं है। कोई नक्शा नहीं है, अनचार्टर्ड है। यात्रा करने लगी। बिलकुल ही नक्शेरहित है।
देखा मैंने कि सूरज एक है; गंदे डबरे में भी उसी का प्रतिबिंब बन __ आपके पास कुछ भी नहीं है कि आप पता लगा लें कि आप रहा है, स्वच्छ पानी में भी उसी का प्रतिबिंब बन रहा है। और यह कहां पहुंच गए। निन्यानबे डिग्री पर पहुंच गए, कि साढ़े निन्यानबे भी खयाल में आया कि गंदे डबरे में जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह गंदे डिग्री पर पहुंच गए, कि कब सौ डिग्री हो जाएगी, कब आप भाप पानी की वजह से प्रतिबिंब गंदा नहीं हो रहा है। प्रतिबिंब तो वैसा का बन जाएंगे। यह तो जब आप बन जाते हैं, तभी पता चलता है कि | वैसा निष्कलुष! सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह तो वैसा का बन गए। वह आदमी पुराना समाप्त हो गया और एक नई चेतना वैसा निर्दोष और पवित्र! और शुद्ध जल में भी उसका प्रतिबिंब बन का जन्म हो गया। अकस्मात, अचानक विस्फोट हो जाता है। । रहा है। वे प्रतिबिंब दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। गंदगी जल में हो
लेकिन उस अकस्मात विस्फोट के पहले लंबी यात्रा है साधना सकती है, डबरे में हो सकती है, लेकिन प्रतिबिंब की शुद्धि में कोई की। जब पानी भाप बनता है, तो सौ डिग्री पर अकस्मात बन जाता अंतर नहीं पड़ रहा है। और फिर एक ही सूर्य न मालूम कितने डबरों है। लेकिन आप यह मत समझना कि निन्यानबे डिग्री पर, अट्ठानबे | | में, करोड़ों-करोड़ों डबरों में पृथ्वी पर प्रतिबिंबित हो रहा होगा।' डिग्री पर भी अकस्मात बन जाएगा। सौ डिग्री तक पहुंचेगा, तो | - कृष्ण कहते हैं, जैसे एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित एकदम से भाप बन जाएगा। लेकिन सौ डिग्री तक पहुंचने के लिए करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा, एक ही चैतन्य समस्त जीवन जो गरमी की जरूरत है, वह साधना जुटाएगी।
को आच्छादित किए हुए है। इसलिए हमने साधना को तप कहा है। तप का अर्थ है. गरमी। वह जो आपके भीतर चैतन्य की ज्योति है, और वह जो मेरे भीतर वह तपाना है स्वयं को और एक ऐसी स्थिति में ले आना है, जहां | चैतन्य की ज्योति है, और वह जो वृक्ष के भीतर चैतन्य की ज्योति है, परमात्मा से मिलन हो सकता है।
| वह एक ही प्रकाश के टुकड़े हैं, एक ही प्रकाश की किरणें हैं। बुद्ध उस रात उस जगह आ गए, जहां सौ डिग्री पूरी हो गई। फिर __ प्रकाश एक है, उसका स्वाद एक है। उसका स्वभाव एक है। आग देने की कोई जरूरत भी न रही। वे टिककर उस वृक्ष से बैठ दीए अलग-अलग हैं। कोई मिट्टी का दीया है; कोई सोने का दीया गए। उन्होंने तप भी छोड़ दिया। लेकिन घटना सुबह घट गई। है। लेकिन सोने के दीए में जो प्रकाश होता है, वह कुछ कीमती
जीवन के परम रहस्य अकस्मात घटित होते हैं। लेकिन उन | | नहीं हो जाता। और मिट्टी के दीए में जो प्रकाश होता है, वह कोई अकस्मात घटित होने वाले रहस्यों की भी बड़ी पूर्व-भूमिका है। । कम कीमती नहीं हो जाता। और मिट्टी के दीए की ज्योति को अगर अब हम सूत्र को लें।
आप जांचें और सोने के दीए की ज्योति को जांचें, तो उन दोनों का हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित | स्वभाव एक है। करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता | चैतन्य एक है। उसका स्वभाव एक है। वह स्वभाव है, साक्षी है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति | | होना। वह स्वभाव है, जानना। वह स्वभाव है, दर्शन की क्षमता। से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान-नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, | __ प्रकाश का क्या स्वभाव है? अंधेरे को तोड़ देना। जहां कुछ न वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। | दिखाई पड़ता हो, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगे। चैतन्य का
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि एक सुबह रास्ते से निकलते वक्त, स्वभाव है, देखने की, जागने की क्षमता; दर्शन की, ज्ञान की वर्षा के दिन थे और रास्ते के किनारे जगह-जगह डबरे हो गए थे | | क्षमता। वह भी भीतरी प्रकाश है। उस प्रकाश में सब कुछ दिखाई
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ॐ अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी ®
पड़ने लगता है।
| से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान-नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, खतरा एक ही है कि जब भीतर का दीया हमारा जलता है और वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। हमें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं, तो हम चीजों को स्मरण रख लेते | क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को...। हैं और जिसमें दिखाई पड़ती हैं, उसे भूल जाते हैं। यही विस्मरण | बहुत बारीक भेद है और जरा में भूल जाता है। क्योंकि जिसे हम संसार है। जो दिखाई पड़ता है, उसे पकड़ने दौड़ पड़ते हैं। और | | देख रहे हैं, उसे देखना आसान है। और जो देख रहा है, उसे देखना जिसमें दिखाई पड़ता है, उसका विस्मरण हो जाता है। मुश्किल है। अपने को ही देखना मुश्किल है। इसलिए बार-बार
जिस चैतन्य के कारण हमें सारा संसार दिखाई पड़ रहा है, उस | दृष्टि पदार्थों पर अटक जाती है। बार-बार कोई विषय, कोई चैतन्य को हम भूल जाते हैं। और वह जो दिखाई पड़ता है, उसके | | वासना, कुछ पाने की आकांक्षा पकड़ लेती है। चारों तरफ बहुत पीछे चल पड़ते हैं। इसी यात्रा में हम जन्मों-जन्मों भटके हैं। कुछ है।
कृष्ण कहते हैं सूत्र इससे जागने का। वह सूत्र है कि हम उसका गुरजिएफ कहा करता था कि जो व्यक्ति सेल्फ रिमेंबरिंग, स्मरण करें, जिसको दिखाई पड़ता है। जो दिखाई पड़ता है, उसे | | स्व-स्मृति को उपलब्ध हो जाता है, उसे फिर कुछ पाने को नहीं रह भूलें। जिसको दिखाई पड़ता है, उसको स्मरण करें। विषय भूल | | जाता। साक्रेटीज ने कहा है कि स्वयं को जान लेना सब कुछ है; जाए, और वह जो भीतर बैठा हुआ द्रष्टा है, वह स्मरण में आ सब कुछ जान लेना है। जाए। यह स्मृति ही क्षेत्रज्ञ में स्थापित कर देती है। यह स्मृति ही क्षेत्र | | मगर यह स्वयं को जानने की कला है। और वह कला है, क्षेत्र से तोड़ देती है।
| और क्षेत्रज्ञ का भेद। वह कला है, सदा जो दिखाई पड़ रहा है, उससे यह सारा विचार कृष्ण का इन दो शब्दों के बीच चल रहा है, क्षेत्र । | अपने को अलग कर लेना। इसका अर्थ गहरा है। 'और क्षेत्रज्ञ।
है वह, और वह जो जाना जाता | इसका अर्थ यह है कि आपको मकान दिखाई पडता है तो है। जाना जो जाता है, वह संसार है। और जो जानता है, वह अलग कर लेने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन आपको अपना परमात्मा है।
शरीर भी दिखाई पड़ता है। यह हाथ मुझे दिखाई पड़ता है। तो जिस यह परमात्मा अलग-अलग नहीं है। यह हम सबके भीतर एक | | हाथ को मैं देख रहा हूं, निश्चित ही उस हाथ से मैं अलग हो गया। है। लेकिन हमें अलग-अलग दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम भीतर और तब आंख बंद करके कोई देखे, तो अपने विचार भी दिखाई तो कभी झांककर देखे नहीं। हमने तो केवल शरीर की सीमा देखी | पड़ते हैं। अगर आंख बंद करके शांत होकर देखें, तो आपको
| दिखाई पड़ेगी विचारों की कतार ट्रैफिक की तरह चल रही है। एक मेरा शरीर अलग है। आपका शरीर अलग है। स्वभावतः, वृक्ष | | विचार आया, दूसरा विचार आया, तीसरा विचार आया। भीड़ लगी का शरीर अलग है। तारों का शरीर अलग है। पत्थर का शरीर | है विचारों की। इनको भी अगर आप देख लेते हैं, तो इसका मतलब अलग है। तो शरीर हमें दिखाई पड़ते हैं, इसलिए खयाल होता है हुआ कि ये भी क्षेत्र हो गए। कि जो भीतर छिपा है. वह भी अलग है।
जो भी देख लिया गया, वह मुझसे अलग हो गया—यह सूत्र एक बार हम अपने भीतर देख लें और हमें पता चल जाए कि है साधना का। जो भी मैं देख लेता है. वह मैं नहीं हैं। और मैं उसकी शरीर में जो छिपा है, शरीर से जो घिरा है, वह अशरीरी है। पदार्थ तलाश करता रहूंगा, जिसको मैं देख नहीं पाता और हूं। उसका मुझे जिसकी सीमा बनाता है, वह पदार्थ नहीं है। सब सीमाएं टूट गईं। पता उसी दिन चलेगा, जिस दिन देखने वाली कोई भी चीज मेरे फिर सब शरीर खो गए। फिर सब आकृतियां विलुप्त हो गईं और सामने न रह जाए। निराकार का स्मरण होने लगा। इस सूत्र में उसी निराकार का संसार से आंख बंद कर लेनी बहुत कठिन नहीं है। आंख बंद स्मरण है।
| हो जाती है, संसार बंद हो जाता है। लेकिन संसार के प्रतिबिंब हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य संपूर्ण लोक को प्रकाशित । भीतर छूट गए हैं, वे चलते रहते हैं। फिर उनसे भी अपने को तोड़ करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता | लेना है। और तोड़ने की कला यही है कि मैं आंख गड़ाकर देखता है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति रहूं, सिर्फ देखता रहूं। और इतना ही स्मरण रखू कि जो भी मुझे
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गीता दर्शन भाग-6
दिखाई पड़ जाए, वह मैं नहीं हूं।
धीरे-धीरे-धीरे विचार भी खो जाएंगे। जैसे-जैसे यह धार तलवार की गहरी होती जाएगी, प्रखर होती जाएगी, और मेरी काटने की कला साफ होती जाएगी कि जो भी मुझे दिखाई पड़ जाए, वह मैं नहीं हूं, एक घड़ी ऐसी आती है, जब कुछ भी दिखाई पड़ने को शेष नहीं रह जाता है। वही ध्यान की घड़ी है। उसको शून्य कहा जाता है, क्योंकि कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन अगर शून्य दिखाई पड़ता है, तो वह भी मैं नहीं हूं, यह खयाल रखना जरूरी है। क्योंकि ऐसे बहुत से ध्यानी भूल में पड़ गए हैं। क्योंकि जब कोई भी विषय नहीं बचता, तो वे कहते हैं, शून्य रह गया।
•बौद्धों का एक शून्यवाद है। नागार्जुन ने उसकी प्रस्तावना की है। और नागार्जुन ने कहा है कि सब कुछ शून्य है।
यह भी भूल है। यह आखिरी भूल है, लेकिन भूल है। क्योंकि शून्य बचा। लेकिन तब शून्य भी एक आब्जेक्ट बन गया। मैं शून्य को देख रहा हूं। निश्चित ही, मैं शून्य भी नहीं हो सकता ।
जो भी मुझे दिखाई पड़ जाता है, वह मैं नहीं हूं। मैं तो वह हूं, जिसको दिखाई पड़ता है। इसलिए पीछे-पीछे सरकते जाना है। एक घड़ी ऐसी आती है, जब शून्य से भी मैं अपने को अलग कर लेता हूं। शून्य दिखाई पड़ता है, तब ध्यान की अवस्था है। कुछ लोग ध्यान में ही रुक जाते हैं; तो शून्य को पकड़ लेते हैं। जब शून्य को भी कोई छोड़ देता है, शून्य को छोड़ते ही सारा आयाम बदल जाता है । फिर कुछ भी नहीं बचता। संसार तो खो गया, विचार खो गए, शून्य भी खो गया । फिर कुछ भी नहीं बचता। फिर सिर्फ जानने वाला ही बच रहता है।
शून्य तक ध्यान है । और जब शून्य भी खो जाता है, तो समाधि है । जब शून्य भी नहीं बचता, सिर्फ मैं ही बच रहता हूं, सिर्फ जानने वाला !
ऐसा समझें कि दीया जलता है। सिर्फ प्रकाश रह जाता है। कोई प्रकाशित चीज नहीं रह जाती। किसी चीज पर प्रकाश नहीं पड़ता। सिर्फ प्रकाश रह जाता है। सिर्फ जानना रह जाता है और जानने को कोई भी चीज नहीं बचती, ऐसी अवस्था का नाम समाधि है। यह समाधि ही परम ब्रह्म का द्वार है।
तो कृष्ण कहते हैं, जो इस भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति से छूटने के उपाय को – यही उपाय है— ज्ञान - नेत्रों द्वारा तत्व से
जानते हैं...।
लेकिन शब्द से तो जान सकते हैं आप। मैंने कहा; आपने सुना; और एक अर्थ में आपने जान भी लिया। पर यह जानना काम नहीं आएगा। यह तो केवल व्याख्या हुई। यह तो केवल विश्लेषण हुआ। यह तो केवल शब्दों के द्वारा प्रत्यय की पकड़ हुई। लेकिन ज्ञान-नेत्रों के द्वारा जो तत्व से जान लेता है, ऐसा आपका अनुभव बन जाए।
यह तो आप प्रयोग करेंगे, तो अनुभव बनेगा। यह तो आप अपने भीतर उतरते जाएंगे और काटते चले जाएंगे क्षेत्र को, ताकि क्षेत्रज्ञ उसकी शुद्धतम स्थिति में अनुभव में आ जाए... । क्षेत्र से मिश्रित होने के कारण वह अनुभव में नहीं आता।
तो इलिमिनेट करना है, काटना है, क्षेत्र को छोड़ते जाना है, हटाते जाना है । और उस घड़ी को ले आना है भीतर, जहां कि मैं | ही बचा अकेला; कोई भी न बचा। सिर्फ मेरे जानने की शुद्ध क्षमता रह गई, केवल ज्ञान रह गया। तो जिस दिन आप अपने ज्ञान नेत्रों से... ।
स्मृति को आप ज्ञान मत समझ लेना । समझ ली कोई बात, | इसको आप अनुभव मत समझ लेना। बिलकुल अकल में आ गई, तो भी आप यह मत समझ लेना कि आप में आ गई। बुद्धि में आ जाना तो बहुत आसान है। क्योंकि साधारणतया जो सोच-समझ सकता है, वह भी समझ लेगा कि बात ठीक है, कि जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं। मैं तो वही होऊंगा, जिसको दिखाई पड़ता है। यह तो बात सीधी गणित की है। यह तो तर्क की पकड़ में आ जाती है।
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यह मेरा हाथ है, इससे मैं जो भी चीज पकड़ लूं, एक बात पक्की है कि वह मेरा हाथ नहीं होगा। जो भी चीज इससे मैं पकडूंगा, वह कुछ और होगी। इसी हाथ को इसी हाथ से पकड़ने का कोई उपाय नहीं है।
आप एक चमीटे से चीजें पकड़ लेते हैं। दुनियाभर की चीजें पकड़ सकते हैं। सिर्फ उसी चमीटे को नहीं पकड़ सकते उसी चमीटे से । दूसरे से पकड़ सकते हैं। वह सवाल नहीं है। लेकिन उसी चमीटे से आप सब चीजें पकड़ लेते हैं। यह बड़ी मुश्किल की बात है।
यह दुनिया बड़ी अजीब है। जो चमीटा सभी चीजों को पकड़ | लेता है, वह भी अपने को पकड़ने में असमर्थ है। तो आप चमीटे में कुछ भी पकड़े हों, एक बात पक्की है कि चमीटा नहीं होगा वह ; वही चमीटा नहीं होगा; कुछ और होगा। जब सब पकड़ छूट जाए,
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0 अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी 0
तो शुद्ध चमीटा बचेगा।
समझ में आ गई है। जब मेरे हाथ में कुछ भी पकड़ में न रह जाए, तो मेरा शुद्ध हाथ | | अनुभव को निरंतर स्मरण रखना जरूरी है। इसलिए कृष्ण कहते बचेगा। जब मेरी चेतना के लिए कोई भी चीज जानने को शेष न | | हैं, जिनको अपने ही ज्ञान-नेत्रों से तत्व का अनुभव होता है, वे रह जाए. तो सिर्फ चैतन्य बचेगा। लेकिन यह अनभव से। महात्माजन...। और यहां वे तत्क्षण उनके लिए महात्मा का
तर्क से समझ में आ जाता है। और एक बड़े से बड़ा खतरा है।। उपयोग करते हैं। जब समझ में आ जाता है, तो हम सोचते हैं, बात हो गई। अनुभव आपको महात्मा बना देता है। उसके पहले आप पंडित
इधर मैं देखता हूं, पचास साल से गीता पढ़ने वाले लोग हैं। रोज | हो सकते हैं। पंडित उतना ही अज्ञानी है, जितना कोई और पढ़ते हैं। भाव से पढ़ते हैं, निष्ठा से पढ़ते हैं। उनकी निष्ठा में कोई | अज्ञानी। फर्क थोड़ा-सा है कि अज्ञानी शुद्ध अज्ञानी है, और कमी नहीं है। उनके भाव में कोई कमी नहीं है। प्रामाणिक है उनका | पंडित इस भ्रांति में है कि वह अज्ञानी नहीं है। इतना ही फर्क है कि श्रम। और गीता वे बिलकुल समझ गए हैं। वही खतरा हो गया है। | पंडित के पास शब्दों का जाल है, और अज्ञानी के पास शब्दों का किया उन्होंने बिलकुल नहीं है कुछ भी।
जाल नहीं है। पंडित को भ्रांति है कि वह जानता है, और अज्ञानी सिर्फ गीता को समझते रहे हैं, बिलकुल समझ गए हैं। उनके को भ्रांति नहीं है ऐसी। खून में बह गई है गीता। वे मर भी गए हों और उनको उठा लो, तो अगर ऐसा समझें, तब तो अज्ञानी बेहतर हालत में है। क्योंकि वे गीता बोल सकते हैं, इतनी गहरी उनकी हड्डी-मांस-मज्जा में | उसका जानना कम से कम सचाई के करीब है। पंडित खतरे में है। उतर गई है। लेकिन उन्होंने किया कुछ भी नहीं है, बस उसको पढ़ते इसलिए उपनिषद कहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते हैं अंधकार में, रहे हैं, समझते रहे हैं। बुद्धि भर गई है, लेकिन हृदय खाली रह गया | ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। वे इन्हीं ज्ञानियों के लिए है। और अस्तित्व से कोई संपर्क नहीं हो पाया है।
कहते हैं। तो कई बार बहुत प्रामाणिक भाव, श्रद्धा, निष्ठा से भरे लोग भी यह तो बड़ा उलटा सूत्र मालूम पड़ता है! उपनिषद के इस सूत्र चूक जाते हैं। चूकने का कारण यह होता है कि वे स्मृति को ज्ञान | | को समझने में बड़ी जटिलता हुई। क्योंकि सूत्र कहता है, अज्ञानी समझ लेते हैं।
तो भटकते हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। तो अनुभव की चिंता रखना सदा। और जिस चीज का अनुभव न | | फिर तो बचने का कोई उपाय ही न रहा। अज्ञानी भी भटकेंगे और हुआ हो, खयाल में रखे रखना कि अभी मुझे अनुभव नहीं हुआ | ज्ञानी और बुरी तरह भटकेंगे, तो फिर बचेगा कौन? । है। इसको भूल मत जाना।
बचेगा अनुभवी। अनुभवी बिलकुल तीसरी बात है। अज्ञानी वह मन की बड़ी इच्छा होती है इसे भूल जाने की, क्योंकि मन मानना | है, जिसे शब्दों का, शास्त्रों का कोई पता नहीं। और ज्ञानी वह है, चाहता है कि हो गया अनुभव। अहंकार को बड़ी तृप्ति होती है कि | जिसे शब्दों और शास्त्रों का पता है। और अनुभवी वह है, जिसे मुझे भी हो गया अनुभव।
शास्त्रों और शब्दों का नहीं, जिसे सत्य का ही स्वयं पता है, जहां लोग मेरे पास आते हैं। वे मुझसे पूछते हैं कि मुझे ऐसा-ऐसा | से शास्त्र और शब्द पैदा होते हैं। अनुभव हुआ है, आत्मा का अनुभव हुआ है। आप कह दें कि मुझे | शास्त्र तो प्रतिध्वनि है, किसी को अनुभव हुए सत्य की। वह आत्मा का अनुभव हो गया कि नहीं?
प्रतिध्वनि है। और जब तक आपको ही अपना अनुभव न हो जाए, मैं उनसे पूछता हूं कि तुम मुझसे पूछने किस लिए आए हो? | सभी शास्त्र झूठे रहेंगे। आप गवाह जब तक न बन जाएं, जब तक क्योंकि आत्मा का जब तुम्हें अनुभव होगा, तो तुम्हें किसी से पूछने | आप न कह सकें कि ठीक, गीता वही कहती है जो मैंने भी जान की जरूरत न रह जाएगी। मैं कह दूं कि तुम्हें आत्मा का अनुभव हो । | लिया है, तब तक गीता आपके लिए असत्य रहेगी। गया, तुम बड़ी प्रसन्नता
आपके हिंद होने से गीता सत्य नहीं होती। और आपके एक सर्टिफिकेट मिल गया। सर्टिफिकेट की कोई जरूरत नहीं है। गीता-प्रेमी होने से गीता सत्य नहीं होती। जब तक आपका अनुभव तुम्हें अभी हुआ नहीं है। तुमने समझ ली है सारी बात। तुम्हें समझ | गवाही न दे दे कि ठीक, जो कृष्ण कहते हैं क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद, में इतनी आ गई है कि तुम यह भूल ही गए हो कि अनुभव के बिना | वह मैंने जान लिया है; और मैं गवाही देता हूं अपने अनुभव से;
माणपत्र,
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ॐ गीता दर्शन भाग-60
तब आपके लिए गीता सत्य होती है।
शास्त्रों से सत्य नहीं मिलता, लेकिन आप शास्त्रों के गवाही बन सकते हैं। और तब शास्त्र, जो आप नहीं कह सकते, जो आपको बताना कठिन होगा, उसको बताने के माध्यम हो जाते हैं। शास्त्र केवल गवाहियां हैं जानने वालों की। और आपकी गवाही भी जब उनसे मेल खा जाती है, तभी शास्त्र से संबंध हुआ।
गीता को रट डालो, कंठस्थ कर लो। कोई संबंध न होगा। लेकिन जो गीता कहती है, वही जान लो, संबंध हो गया।
जब तक आप गीता को पढ़ रहे हैं, तब तक ज्यादा से ज्यादा आपका संबंध अर्जुन से हो सकता है। लेकिन जिस दिन आप गीता को अनुभव कर लेते हैं, उसी दिन आपका संबंध कृष्ण से हो जाता है।
पांच मिनट रुकेंगे। आखिरी दिन है। कोई बीच में उठे न। कीर्तन में पूरी तरह सम्मिलित हों। और फिर जाएं।
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ओशो - एक परिचय
दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, पर्यावरण तथा संभावित परमाणु युद्ध के व उससे भी बढ़कर एड्स महामारी के विश्व-संकट जैसे अनेक विषयों पर भी उनकी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है।
शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन छह सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और तीस से अधिक भाषाओं में अनवादित हो चके हैं।
वे कहते हैं, "मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" __ ओशो का जन्म मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसम्बर 1931 में हुआ, 21 मार्च 1953 को उनके जीवन में परम संबोधि का विस्फोट हुआ, वे बुद्धत्व को उपलब्ध हुए और 19 जनवरी 1990 को, ओशो कम्यून इंटरनेशनल में देह-त्याग हुआ।
ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है :
बुद्धपुरुषों की अमृत धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं। वे अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके साथ ही समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है: ओशो-पूर्व तथा
ओशो-पश्चात। __ ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत का, एक नये यग का सत्रपात हआ है. जिसकी आधारशिला अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सर्वथा अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं।
ओशो एक नवोन्मेष हैं नये मनुष्य के, नयी मनुष्यता के।
ओशो का यह नया मनुष्य 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा मनुष्य है जो ज़ोरबा की भांति भौतिक जीवन का पूरा आनंद मनाना जानता है
और जो गौतम बुद्ध की भांति मौन होकर ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक समग्र व अविभाजित मनुष्य है।
ओशो का यह नया मनुष्य भविष्य की एकमात्र आशा है; इसके बिना पृथ्वी का कोई भविष्य शेष नहीं है। __ अपने प्रवचनों के द्वारा ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव, शांडिल्य, नारद, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म-आकाश के अनेक नक्षत्रों-आदिशंकराचार्य, गोरख, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं।
जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी विभिन्न साधना-परंपराओं के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान,
OSHO Never Born
Never Died Only Visited this Planet Earth between Dec 11 1931-Jan 19 1990
ध्यान और सृजन का यह अनूठा नव-संन्यास उपवन, ओशो कम्यून, ओशो की विदेह-उपस्थिति में भी आज पूरी दुनिया के लिए एक ऐसा प्रबल चुंबकीय आकर्षण केंद्र बना हुआ है कि यहां निरंतर नये-नये लोग आत्म-रूपांतरण के लिए आ रहे हैं तथा ओशो की सघन-जीवंत उपस्थिति में अवगाहन कर रहे हैं।
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एक निमंत्रण
ओशो के प्रवचनों को पढ़ना, उन्हें सुनना अपने आप में एक आनंद है। इनके द्वारा आप अपने जीवन में एक अपूर्व क्रांति की पदचाप सुन सकते हैं। लेकिन यह केवल प्रारंभ है, शुभ आरंभ है। इन प्रवचनों को पढ़ते हुए आपने महसूस किया होगा ओशो का मूल संदेश है: ध्यान। ध्यान की भूमि पर ही प्रेम के, आनंद के उत्सव के फूल खिलते हैं। ध्यान आमूल क्रांति है।
निश्चित ही आप भी चाहेंगे कि आपके जीवन में ऐसी आमूल क्रांति हो; आप भी एक ऐसी आबोहवा को उपलब्ध करें जहां आप अपने आप से परिचित हो सकें, आत्म-अनुभूति की दिशा में कुछ कदम उठा सकें; कोई ऐसा स्थान जहां और भी कुछ लोग इस दिशा में गतिमान हों।
ओशो ने एक ऐसी ही ध्यानमय, उत्सवमय आबोहवा वाला ऊर्जा क्षेत्र निर्मित किया है पूना में ओशो कम्यून इंटरनेशनल । यहां ओशो की उपस्थिति में हजारों लोगों ने ध्यान की गहराइयों को छुआ है। सतत ध्यान के द्वारा यह स्थान ध्यान की एक ऐसी सघन ऊर्जा से आविष्ट हो गया है कि ओशो के देह त्याग के बाद, आज भी आप उनकी ऊर्जा से स्पंदित इस बुद्धक्षेत्र में ओशो की
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उपस्थिति की अनुभूति कर सकते हैं तथा रूपांतरित हो सकते हैं। विश्व के लगभग सौ देशों से लोग यहां आकर इस अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में ध्यान का रसास्वादन करते हैं। दुनिया में जितने भी प्रकार के लोग हैं - अपनी आधारभूत कोटियों में – ओशो ने उन सब के लिए विशेष प्रकार की ध्यान-विधियों को ईजाद किया हैं। आज विश्व की समस्त साधना-पद्धतियों की विधियां यहां एक ही छत के नीचे मौजूद हैं। ओशो कम्यून इंटरनेशनल विश्व भर में एकमात्र ऐसा केंद्र है जहां पर सभी राष्ट्रों और धर्मों के लोग अपने अनुकूल ध्यान प्रयोगों के द्वारा एक साथ रूपांतरित हो सकते हैं। ओशो कम्यून ऐसे ही एक नये मनुष्य की जन्मभूमि है, एक क्रांति स्थल है।
इसमें आपका स्वागत है।
अतिरिक्त जानकारी के लिए संपर्क सूत्र : ओशो कम्यून इंटरनेशनल
17, कोरेगांव पार्क, पुणे - 411001, महाराष्ट्र फोन: 020-628562 फैक्स : 020-624181
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ओशो का हिन्दी साहित्य
एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में)
उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद
आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र)
जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी
दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल
कृष्ण
गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति
सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले
पलटू
अष्टावक्र अष्टावक्र महागीता (छह भागों में)
अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर
लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में)
धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन
कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद) ।
दाद सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास
महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) जिन-सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर ः मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे
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शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में)
अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) पद धुंघरू बांध (मीरा) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चु” (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (दास) झरत दसहं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र)
जो बोलें तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं पीवत रामरस लगी खुमारी रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच आपुई गई हिराय । बहुतेरे हैं घाट कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी क्या सोवै तू बावरी चल हंसा उस देस कहा कहूं उस देस की पंथ प्रेम को अटपटो माटी कहै कुम्हार सूं मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं
झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा
तंत्र
प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये
संभोग से समाधि की ओर तंत्र-सूत्र (पांच भागों में)
योग पतंजलि योग-सूत्र (पांच भागों में) योगः नये आयाम
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विचार-पत्र क्रांति-बीज पथ के प्रदीप
बोध-कथा मिट्टी के दीये
पत्र-संकलन अंतर्वीणा प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल ढाई आखर प्रेम का पद धुंघरू बांध
साधना-शिविर साधना-पथ मैं मृत्यु सिखाता हूं जिन खोजा तिन पाइयां समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की ) साधना-सूत्र (मेबिल कॉलिन्स) ध्यान-सूत्र जीवन ही है प्रभु असंभव क्रांति रोम-रोम रस पीजिए
प्रेम के फूल
प्रेम के स्वर पाथेय
ध्यान, साधना ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति नेति-नेति चेति सके तो चेति हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम् समाधि कमल साक्षी की साधना धर्म साधना के सूत्र
राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं देख कबीरा रोया स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का शिक्षा में क्रांति नये समाज की खोज नये भारत की खोज नये भारत का जन्म नारी और क्रांति शिक्षा और धर्म भारत का भविष्य
मैं कौन हूं
समाधि के द्वार पर अपने माहिं टटोल ध्यान दर्शन तृषा गई एक बूंद से ध्यान के कमल जीवन संगीत जो घर बारे आपना प्रेम दर्शन
विविध अमृत-कण मैं कहता आंखन देखी एक एक कदम जीवन क्रांति के सूत्र जीवन रहस्य करुणा और क्रांति विज्ञान, धर्म और कला शून्य के पार प्रभु मंदिर के द्वार पर
अंतरंग वार्ताएं संबोधि के क्षण प्रेम नदी के तीरा सहज मिले अविनाशी उपासना के क्षण
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तमसो मा ज्योतिर्गमय प्रेम है द्वार प्रभु का अंतर की खोज अमृत की दिशा अमृत वर्षा अमृत द्वार चित चकमक लागे नाहिं एक नया द्वार प्रेम गंगा समुंद समाना बंद में सत्य की प्यास शून्य समाधि
व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज अज्ञात की ओर धर्म और आनंद जीवन-दर्शन जीवन की खोज क्या ईश्वर मर गया है नानक दुखिया सब संसार नये मनुष्य का धर्म धर्म की यात्रा स्वयं की सत्ता सुख और शांति अनंत की पुकार
ओशो के आडियो-वीडियो प्रवचन एवं साहित्य के संबंध में समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्रः .
साधना फाउंडेशन, 17 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001
फोन : 020-628562 फैक्स : 020-624181
ओशोटाइमस.
विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र
हिंदी (मासिक पत्रिका) अंग्रेजी (त्रैमासिक पत्रिका)
एक प्रति का मूल्य
15 रुपये 55 रुपये
वार्षिक शुल्क 150 रुपये 200 रुपये
अधिक जानकारी हेतु संपर्क सूत्रः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001
फोन: 020-628562 फैक्स : 020-624181
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जो शब्द अर्जुन से कहे थे, उन पर तो
बहुत धूल जम गयी है; उसे हमें
रोज बुहारना पड़ता है। और जितनी पुरानी चीज हो, उतना ही श्रम करना पड़ता है, ताकि वह नयी बनी रहे। इसलिए समय का प्रवाह तो किसी को भी माफ नहीं करता, पर अगर हम हमेशा समय के करीब खींच लाएं पुराने शास्त्र को, तो शास्त्र पुनः-पुनः नया हो जाता है। उसमें फिर अर्थ जीवित हो उठते हैं, नये पत्ते लग जाते हैं, नये फूल खिलने लगते हैं।
गीता मरेगी नहीं, क्योंकि हम किसी एक कृष्ण से बंधे नहीं हैं। हमारी धारणा में कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं हैं-सतत आवर्तित होने वाली चेतना की परम घटना हैं। इसलिए कृष्ण कह पाते हैं कि जब-जब होगा अंधेरा, होगी धर्म की ग्लानि, तब-तब मैं वापस आ जाऊंगा–सम्भवामि युगे युगे। हर युग में वापस आ जाऊंगा।
-ओशो
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________________ ओशो वास्तव में एक अज्ञेयवादी मुक्त चिंतक हैं। वे अत्यंत गहरे ज्ञानी हैं और अति स्पष्ट धारणाओं को सरल भाषा में विनोदपूर्ण बोधकथाओं के माध्यम से समझाने में कुशल हैं। वे देवताओं, भविष्यद्रष्टाओं, शास्त्रों और धार्मिक रीति-रिवाजों का मजाक उड़ाते हैं तथा धर्म को एक नया आयाम देते हैं। आदिशंकराचार्य के बाद हमने ओशो जैसा स्पष्ट सोचनेवाला दार्शनिक पैदा नहीं किया है। -खुशवंत सिंह सुप्रसिद्ध लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार A REGEL BOOK ISBN 81-7261-124-2