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पुरुष-प्रकृति-लीला
और सांख्य की पकड़ बड़ी वैज्ञानिक है।
प्रकृति का अर्थ है, जो कृति के पूर्व है । और पुरुष का अर्थ | है - वह उसी से बना है, जिससे पुर बनता है; नागपुर या कानपुर में जो पुर लगा है, पुरुष उसी शब्द से बना है - पुरुष का अर्थ है, जिसके चारों तरफ नगर बसा है और जो बीच में है। पुर के बीच में जो है, वह पुरुष
तो सारी प्रकृति पर है और उसके बीच में जो बसा है, जो निवासी है, वह पुरुष है। सारी घटनाएं नगर में घट रही हैं। और वह बीच में जो बसा है, अगर होशपूर्वक रहे, तो उसे कुछ भी न छुएगा, स्पर्श भी न करेगा। वह कुंवारा ही आएगा और कुंवारा ही चला जाएगा। वह कुंवारा ही है। जब आप उलझ जाते हैं, तब भी वह कुंवारा है; क्योंकि उसे कुछ छू नहीं सकता। निर्दोषता उसका स्वभाव है।
इसलिए कोई पाप पुरुष को छूता नहीं; सिर्फ आपकी भ्रांति है कि छूता है । कोई पुण्य पुरुष को छूता नहीं; सिर्फ भ्रांति है कि छूता है । कोई सुख-दुख नहीं छूता । पुरुष स्वभावतः निर्दोष है।
लेकिन यह जिस दिन होश आएगा, उसी दिन आप सजग होकर जाग जाएंगे और पाएंगे कि टूट गया वह तारतम्य सुख-दुख का । आप भीतर रहते बाहर हो गए। आप पुरुष हो गए; पुर के बीच पुर से अलग हो गए।
प्रकृति और पुरुष की इस दृष्टि को सिर्फ सिद्धांत की तरह, सिद्धांत की भांति समझने से कोई सार नहीं है। इसे थोड़ा जिंदगी में पहचानना। कहां प्रकृति और कहां पुरुष, इसका बोध रखना। और जब प्रकृति में पुरुष आरोपित होने लगे, तो चौंककर खड़े हो जाना और आरोपित मत होने देना ।
थोड़ी-थोड़ी कठिनाई होगी; शुरू-शुरू में अड़चन पड़ेगी। पुरानी आदत हैं। जन्मों-जन्मों की आदत है। पता ही नहीं चलता और आरोपण हो जाता है। फूल देखा नहीं और पहले ही कह देते हैं, सुंदर है; बड़ा आनंद आया। अभी ठीक से देखा भी नहीं था । अभी ठीक से पहचाना भी नहीं था कि सुंदर है या नहीं। कह दिया। रुकें थोड़ा। और पुरुष को आरोपित न होने दें। आरोपण है बंधन और आरोपण से मुक्त हो जाना है मुक्ति ।
पांच मिनट कोई उठे नहीं। कीर्तन में सम्मिलित हों, और फिर
जाएं।
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