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________________ दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन साम्यवाद कहता है, समाज बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे; परिस्थिति बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे; व्यवस्था बदल जाए, तो लोग सुखी हो जाएंगे। व्यक्ति के बदलने की कोई बात साम्यवाद नहीं उठाता। कुछ और बदल जाए, मुझे छोड़कर मैं सुखी हो जाऊंगा। सब बदल जाए, लेकिन धर्म का सारा अनुसंधान यह है कि दूसरा मेरे दुख का कारण है, यही समझ दुख है। दूसरा मुझे दुख दे सकता है, इसलिए दुख पाता हूं, इस खयाल से, इस विचार से। और तब मैं अनंत काल तक दुख पा सकता हूं, दूसरा बदल जाए तो भी। क्योंकि मेरी जो दृष्टि है दुख पाने की, वह कायम रहेगी। समाज बदल जाए...समाज बहुत बार बदल गया । आर्थिक व्यवस्था बहुत बार बदल गई। कितनी क्रांतियां नहीं हो चुकी हैं! और फिर भी कोई क्रांति नहीं हुई। आदमी वैसा का वैसा दुखी है। सब कुछ बदल गया। अगर आज से दस हजार साल पीछे लौटें, तो क्या बचा है? सब बदल गया है। एक ही चीज बची है, दुख वैसा का वैसा बचा है, शायद और भी ज्यादा बढ़ गया है। गीता के इस अध्याय में दुख के इस कारण की खोज है। और दुख के इस कारण को मिटाने का उपाय है। और यह अध्याय गहन साधना की तरफ आपको ले जा सकता है। लेकिन इस बुनियादी बात को पहले ही खयाल में ले लें, तो इस अध्याय में प्रवेश बहुत आसान हो जाएगा। बहुत कठिन मालूम होता है अपने आप को जिम्मेवार ठहराना । क्योंकि तब बचाव नहीं रह जाता कोई। जब मैं यह सोचता हूं कि मैं ही कारण हूं अपने दुखों का, तो फिर शिकायत भी नहीं बचती । किससे शिकायत करूं ! किस पर दोष डालूं ! और जब मैं ही जिम्मेवार हूं, तो फिर यह भी कहना उचित नहीं मालूम होता कि मैं दुखी क्यों हूं? क्योंकि मैं अपने को दुखी बना रहा हूं, इसलिए। और मैं न बनाऊं, तो दुनिया की कोई ताकत मुझे दुखी नहीं बना सकती। बहुत कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि तब मैं अकेला खड़ा हो जाता हूं और पलायन का, छिपने का अपने को धोखा देने का, प्रवंचना का कोई रास्ता नहीं बचता। जैसे ही यह खयाल में आ जाता है कि मैं जिम्मेवार हूं, वैसे ही क्रांति शुरू हो जाती है। ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान का पहला सूत्र है कि जो कुछ भी मेरे जीवन में घटित हो रहा है, उसे कोई परमात्मा घटित नहीं कर रहा है; उसे कोई समाज घटित नहीं कर रहा है; उसे मैं घटित कर रहा हूं, चाहे मैं जानूं और चाहे मैं न जानूं । मैं जिस कारागृह में कैद हो जाता हूं, वह ही बनाया हुआ है। और जिन जंजीरों में मैं अपने को पाता हूं, वे मैंने ही ढाली हैं। और जिन कांटों पर मैं पाता हूं कि मैं पड़ा हूं, वे मेरे ही निर्मित किए हुए हैं। जो गड्ढे मुझे उलझा लेते हैं, वे मेरे ही खोदे हुए हैं। जो भी मैं काट रहा हूं, वह मेरा बोया हुआ है, मुझे दिखाई पड़ता हो या न दिखाई पड़ता हो । अगर यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो दुख विसर्जन शुरू हो जाता है। और यह मुझे दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद की किरण भी फूटनी शुरू हो जाती है। और आनंद की किरण के साथ ही तत्व का बोध, तत्व का ज्ञान; वह जो सत्य है, उसकी प्रतीति के निकट मैं पहुंचता हूं। अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें। उसके उपरांत कृष्ण बोले, अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा | जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व | को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान। और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, | ऐसा मेरा मत है। इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो | है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन । आपका मन उदास है, दुखी है, पीड़ित है। सुबह आप उठे हैं; मन प्रफुल्लित है, शांत है; जीवन भला मालूम होता है। या कि | बीमार पड़े हैं और जीवन व्यर्थ मालूम होता है; लगता है, कोई सार | नहीं है। जवान हैं और जीवन में गति मालूम पड़ती है; बहुत कुछ करने जैसा लगता है; कोई अभिप्राय दिखाई पड़ता है। फिर बूढ़े हो गए हैं, थक गए हैं, शक्ति टूट गई है; और सब ऐसा लगता है कि | जैसे कोई एक दुखस्वप्न था । न कोई उपलब्धि हुई है, न कहीं पहुंचे हैं, और मौत करीब मालूम होती है। कोई भी अवस्था हो मन की, एक बात - बच्चे में, जवान में, बूढ़े में, सुख का आभास हो, दुख का आभास हो - उसमें एक बात समान है कि मन पर जो भी अवस्था आती है, आप अपने को | उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं। 189 अगर भूख लगती है, तो आप ऐसा नहीं कहते कि मुझे पता चल रहा है कि शरीर को भूख लग रही है। आप कहते हैं, मुझे भूख लग रही है। यह केवल भाषा का ही भेद नहीं है। यह हमारी भीतर की प्रतीति है। सिर में दर्द है, तो आप ऐसा नहीं कहते, न ऐसा सोचते,
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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