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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 तो उस पुजारी ने पूछा कि यहां की मैं तुम्हें सिर्फ एक ही खबर जिम्मेवार ठहराने से। आप हिम्मत न करते हों खोज की, और पहले दे सकता हूं कि यहां जो आस्तिक हैं, उनकी आस्तिकता में मुझे ही रुक जाते हों, यह बात अलग है। लेकिन अगर आप अपने शक है। और इस गांव में दो नास्तिक हैं, उनकी नास्तिकता में भी | | भीतर खोज करेंगे, तो आप आखिर में पाएंगे कि आपकी शिकायत मुझे शक है। गांव में दो नास्तिक हैं, उन्हें हमने कभी दुखी नहीं | की अंगुली ईश्वर की तरफ उठी हुई है। देखा। और गांव में इतने आस्तिक हैं, जो मंदिर में रोज प्रार्थना और | सुना है मैंने, एक अरबी कहावत है कि जब परमात्मा ने दुनिया पूजा करने आते हैं, वे सिवाय दुख की कथा के मंदिर में कुछ भी | बनाई, तो सबसे पहले वह भी जमीन पर अपना मकान बनाना नहीं लाते: सिवाय शिकायतों के उनकी प्रार्थना में और कुछ भी नहीं चाहता था। लेकिन फिर उसके सलाहकारों ने सलाह दी कि यह है। परमात्मा से अगर वे कछ मांगते भी हैं, तो दुखों से छटकारा |भल मत करना। तम्हारे मकान की एक खिड़की साबित न बचेगी. मांगते हैं। और तुम भी जिंदा लौट आओ, यह संदिग्ध है। लोग पत्थर मारकर लेकिन दुख से भरा हुआ हृदय परमात्मा के पास आए कैसे! वह | | तुम्हारे घर को तोड़ डालेंगे। और तुम एक क्षण को सो भी न दुख में ही इतना डूबा है, उसकी दृष्टि ही इतने अंधेरे से भरी है! इस पाओगे, क्योंकि लोग इतनी शिकायतें ले आएंगे! रहने की भूल . जगत में एक तो अंधेरा है, जिसे हम प्रकाश जलाकर मिटा सकते | | जमीन पर मत करना। तुम वहां से सही-साबित लौट न सकोगे। हैं। और एक भीतर का अंधेरा है, उस अंधेरे का नाम दुख है। और | कभी अपने मन में आपने सोचा है कि अगर परमात्मा आपको जब तक हम भीतर आनंद का चिराग न जला लें, तब तक हम भीतर | मिल जाए, तो आप क्या निवेदन करेंगे? आप क्या कहेंगे? अपने के अंधेरे को नहीं मिटा सकते। हृदय में आप खोजेंगे, तो आप पाएंगे कि आप उसको जिम्मेवार तो उस पुजारी ने पूछा कि हे ईश्वर के राजदूत, मैं तुमसे यह | ठहराएंगे आपके सारे दुखों के लिए। पछता है कि इस गांव में कौन लोग परमात्मा के राज्य में प्रवेश | धार्मिक व्यक्ति का जन्म ही इस विचार से होता है. इस करेंगे? तो उस राजदूत ने कहा कि तुम्हें धक्का तो लगेगा, लेकिन | | आत्म-अनुसंधान से कि दुख के लिए कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं, वे जो दो नास्तिक हैं इस गांव में, वे ही परमात्मा के राज्य में प्रवेश | | दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं। और जैसे ही यह दृष्टि साफ होने करेंगे। उन्होंने कभी प्रार्थना नहीं की है, पूजा नहीं की है, वे मंदिर लगती है कि दुख के लिए मैं जिम्मेवार हूं, वैसे ही दुख से मुक्त में कभी नहीं आए हैं, लेकिन उनका हृदय एक आनंद-उल्लास से हुआ जा सकता है। और मुक्त होने का कोई मार्ग भी नहीं है। भरा है, एक उत्सव से भरा है; जीवन के प्रति उनकी कोई शिकायत | अगर मैं ही जिम्मेवार हूं, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। नहीं है। और इस जीवन के प्रति जिसकी शिकायत नहीं है, यही अगर कोई और मुझे दुख दे रहा है, तो मैं दुख से कैसे छूट सकता आस्तिकता है। हूं? क्योंकि जिम्मेवारी दूसरे के हाथ में है। ताकत किसी और के मनुष्य दुखी है, और दुख उसे परमात्मा से तोड़े हुए है। और जब हाथ में है। मालिक कोई और है। मैं तो केवल झेल रहा हूं। और मनुष्य दुखी है, तो उसके सारे मन की एक ही चेष्टा होती है कि | जब तक यह सारी दुनिया न बदल जाए जो मुझे दुख दे रही है, तब दुख के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराए। और जब तक आप दुख तक मैं सुखी नहीं हो सकता। के लिए किसी को जिम्मेवार ठहराते हैं, तब तक यह मानना इसीलिए कम्युनिज्म और नास्तिकता में एक तालमेल है। और मुश्किल है कि आप अंतिम रूप से दुख के लिए परमात्मा को | मार्क्स की इस अंतर्दृष्टि में अर्थ है कि मार्क्स मानता है कि जब तक जिम्मेवार नहीं ठहराएंगे। अंततः वही जिम्मेवार होगा। धर्म जमीन पर प्रभावी है, तब तक साम्यवाद प्रभावी न हो सकेगा। जब तक मैं कहता हूं कि मैं अपनी पत्नी के कारण दुखी हूं, कि | | इसलिए धर्म की जड़ें काट देनी जरूरी हैं, तो ही साम्यवाद प्रभावी अपने बेटे के कारण दुखी हूं, कि गांव के कारण दुखी हूं, पड़ोसी | | हो सकता है। उसकी बात में मूल्य है, उसकी बात में गहरी दृष्टि है। के कारण दुखी हूं-जब तक मैं कहता हूं, मैं किसी के कारण दुखी | ___ क्योंकि धर्म और साम्यवाद का बुनियादी भेद यही है कि हूं-तब तक मुझे खोज करूं तो पता चल जाएगा कि अंततः मैं यह | साम्यवाद कहता है कि दुख के लिए कोई और जिम्मेवार है। और भी कहूंगा कि मैं परमात्मा के कारण दुखी हूं। धर्म कहता है कि दुख के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार है। यह दूसरे पर जिम्मा ठहराने वाला बच नहीं सकता परमात्मा को | बुनियादी विवाद है। यह जड़ है विरोध की। | 188|
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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