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0 दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन
क्यों है? दुख के साथ प्रश्न उठते हैं। आनंद तो निष्प्रश्न स्वीकार | | अन्यथा मैं अपने ही सामने अतळ मालूम होऊंगा। मुझे खुद को हो जाता है। अगर आपके जीवन में आनंद ही आनंद हो, तो आप | | ही समझाना पड़ेगा कि मैं नास्तिक क्यों हूं। तो एक ही उपाय है कि यह न पूछेगे कि आनंद क्यों है? आप आस्तिक होंगे। क्यों का ईश्वर नहीं है, इसलिए मैं नास्तिक हूं। सवाल ही न उठेगा।
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर आप नास्तिक हैं, लेकिन जहां जीवन में दुख ही दुख है, वहां आस्तिक होना थोथा तो इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है, बल्कि इसलिए कि आप दुखी मालूम होता है। वहां तो नास्तिक ही ठीक मालूम पड़ता है। क्योंकि | | हैं। आपकी नास्तिकता आपके दुख से निकलती है। और अगर वह पूछता है कि दुख क्यों है? और दुख क्यों है, यही सवाल गहरे | | आप कहते हैं कि मैं दुखी हूं और फिर भी आस्तिक हूं, तो मैं आपसे में उतरकर सवाल बन जाता है कि इतने दुख की मौजूदगी में | कहता हूं, आपकी आस्तिकता झूठी और ऊपरी होगी। दुख से परमात्मा का होना असंभव है। इस दुख को बनाने वाला परमात्मा सच्ची आस्तिकता का जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि दुख के लिए हो सके, यह मानना कठिन है। और ऐसा परमात्मा अगर हो भी, कैसे स्वीकार किया जा सकता है! दुख के प्रति तो गहन अस्वीकार तो उसे मानना उचित भी नहीं है।
बना ही रहता है। और तब फिर एक उपद्रव की घटना घटती है। जीवन में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतनी नास्तिकता बढ़ती __टाल्सटाय ने लिखा है कि हे ईश्वर, मैं तुझे तो स्वीकार करता जाती है। नास्तिकता को मैं मानसिक, मनोवैज्ञानिक घटना मानता हूं, लेकिन तेरे संसार को बिलकुल नहीं। लेकिन बाद में उसे भी हूं, तार्किक, बौद्धिक नहीं। कोई तर्क के कारण नास्तिक नहीं होता। खयाल आया कि अगर मैं ईश्वर को सच में ही स्वीकार करता हूं, यद्यपि जब कोई नास्तिक हो जाता है, तो तर्क खोजता है। तो उसके संसार को अस्वीकार कैसे कर सकता हूं? और अगर मैं
सिमॉन वेल ने, एक फ्रेंच विचारक महिला ने लिखा है अपने | | उसके संसार को अस्वीकार करता हूं, तो मेरे ईश्वर को स्वीकार आत्म-कथ्य में, कि तीस वर्ष की उम्र तक सतत मेरे सिर में दर्द करने की बात में कहीं न कहीं धोखा है। बना रहा, मेरा शरीर अस्वस्थ था। और तब मेरे मन में ईश्वर के जब कोई ईश्वर को स्वीकार करता है, तो उसकी समग्रता में ही प्रति बड़े संदेह उठे। और यह खयाल मुझे कभी भी न आया कि मेरे | | स्वीकार कर सकता है। यह नहीं कह सकता कि तेरे संसार को मैं शरीर का अस्वास्थ्य ही ईश्वर के संबंध में उठने वाले प्रश्नों का | अस्वीकार करता हूं। यह आधा काटा नहीं जा सकता है ईश्वर को। कारण है। और फिर मैं स्वस्थ हो गई और शरीर ठीक हुआ और क्योंकि ईश्वर का संसार ईश्वर ही है। और जो उसने बनाया है, उसमें सिर का दर्द खो गया, तो मुझे पता न चला कि मेरे प्रश्न जो ईश्वर | वह मौजूद है। और वह जो हमें दिखाई पड़ता है, उसमें वह छिपा है। के संबंध में उठते थे संदेह के, वे कब गिर गए। और बहुत बाद में जो आदमी दखी है, उसकी आस्तिकता झठी होगी: वह छिपे में ही मुझे होश आया कि मैं किसी क्षण में आस्तिक हो गई हूं। नास्तिक ही होगा। और जो आदमी आनंदित है, अगर वह यह भी . वह जो जीवन में स्वास्थ्य की धार बहने लगी, वह जो जीवन में कहता हो कि मैं नास्तिक हूं, तो उसकी नास्तिकता झूठी होगी; वह थोड़े से रस की झलक आने लगी, वह जो जीवन में थोड़ा अर्थ और | छिपे में आस्तिक ही होगा। अभिप्राय दिखाई पड़ने लगा, फूल, आकाश के तारे और हवाओं । बुद्ध ने इनकार किया है ईश्वर से। महावीर ने कहा है कि कोई के झोंकों में आनंद की थोड़ी-सी खबर आने लगी, तो सिमॉन वेल | ईश्वर नहीं है। लेकिन फिर भी महावीर और बुद्ध से बड़े आस्तिक का मन नास्तिकता से आस्तिकता की तरफ झुक गया। और तब खोजना मुश्किल है। और आप कहते हैं कि ईश्वर है, लेकिन आप उसे खयाल आया कि जब वह नास्तिक थी, तो नास्तिकता के पक्ष जैसे नास्तिक खोजना मुश्किल है। बुद्ध ईश्वर को इनकार करके भी में तर्क जुटा लिए थे उसने। और अब जब वह आस्तिक हो गई, तो आस्तिक ही होंगे, क्योंकि वह जो आनंद, वह जो नृत्य, वह जो उसने आस्तिकता के पक्ष में तर्क जटा लिए।
भीतर का संगीत गूंज रहा है, वही आस्तिकता है। तर्क आप पीछे जुटाते हैं, पहले आप आस्तिक हो जाते हैं या सुना है मैंने, यहूदी एक कथा है कि परमात्मा ने अपने एक दूत नास्तिक हो जाते हैं। तर्क तो सिर्फ बौद्धिक उपाय है, अपने को को भेजा इजराइल। यहूदियों के बड़े मंदिर के निकट, और मंदिर समझाने का। क्योंकि मैं जो भी हो जाता हूं, उसके लिए का जो बड़ा पुजारी था, उसके पास वह दूत आया और उसने कहा रेशनलाइजेशन, उसके लिए तर्कयुक्त करना जरूरी हो जाता है। कि मैं परमात्मा का दूत हूं और यहां की खबर लेने आया हूं।
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