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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 श्रीमद्भगवद्गीता जब तक मैं भ्रांत कारण खोजता रहूं, तब तक कारण तो मुझे मिल अथ त्रयोदशोऽध्यायः सकते हैं, लेकिन समाधान, दुख से मुक्ति, दुख से छुटकारा नहीं हो सकता। श्रीभगवानुवाच | और आश्चर्य की बात है कि सभी लोग सख की खोज करते हैं। इदं शरीर कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । और शायद ही कोई कभी सुख को उपलब्ध हो पाता है। इतने लोग एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्धिदः ।।१।। खोज करते हैं, इतने लोग श्रम करते हैं, जीवन दांव पर लगाते हैं और क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । परिणाम में दुख के अतिरिक्त हाथ में कुछ भी नहीं आता। जीवन के क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोजानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।२।। बीत जाने पर सिर्फ आशाओं की राख ही हाथ में मिलती है। सपने, तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । टूटे हुए; इंद्रधनुष, कुचले हुए; असफलता, विफलता, विषाद! सच यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु।।३।। मौत के पहले ही आदमी दुखों से मर जाता है। मौत को मारने उसके उपरांत श्रीकृष्ण भगवान बोल्ने, हे अर्जुन, यह शरीर की जरूरत नहीं पड़ती; आप बहुत पहले ही मर चुके होते हैं; क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको | जिंदगी ही काफी मार देती है। जीवन आनंद का उत्सव तो नहीं बन क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। पाता, दुख का एक तांडव नृत्य जरूर बन जाता है। और हे अर्जुन, तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज भी मेरे को ही जान। और तब स्वाभाविक है कि यह संदेह मन में उठने लगे कि इस और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार सहित प्रकृति का और | दुख से भरे जीवन को क्या परमात्मा ने बनाया होगा? और अगर पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। | परमात्मा इस दुख से भरे जीवन को बनाता है, तो परमात्मा कम इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला | और शैतान ज्यादा मालूम होता है। और अगर इतना दुख जीवन का है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है | फल है, तो परमात्मा सैडिस्ट, दुखवादी मालूम होता है। लोगों को और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन । | सताने में जैसे उसे कुछ रस आता हो! तो फिर स्वाभाविक ही है कि अधिक लोग दुख के कारण परमात्मा को अस्वीकार कर दें। जितना ही मैं इस संबंध में लोगों के मनों की छानबीन करता हूं, 1 बह से सांझ तक न मालूम कितने प्रकार के दुखी लोगों | तो मुझे लगता है कि नास्तिक कोई भी तर्क के कारण नहीं होता। रा से मेरा मिलना होता है। एक बात की मैं तलाश करता नास्तिक लोग दुख के कारण हो जाते हैं। तर्क तो पीछे आदमी इकट्ठे रहा हूं कि कोई ऐसा दुखी आदमी मिल जाए, जिसके कर लेता है। दुख का कारण कोई और हो। अब तक वैसा आदमी खोज नहीं | लेकिन जीवन में इतनी पीड़ा है कि आस्तिक होना मुश्किल है। पाया। दुख चाहे कोई भी हो, दुख के कारण में आदमी खुद स्वयं इतनी पीड़ा को देखते हए आस्तिक हो जाना असंभव है। या फिर ही होता है। दुख के रूप अलग हैं, लेकिन दुख की जिम्मेवारी सदा | ऐसी आस्तिकता झूठी होगी, ऊपर-ऊपर होगी, रंग-रोगन की गई ही स्वयं की है। होगी। ऐसी आस्तिकता का हृदय नहीं हो सकता। आस्तिकता तो दुख कहीं से भी आता हुआ मालूम होता हो, दुख स्वयं के ही सच्ची सिर्फ आनंद की घटना में ही हो सकती है। जब जीवन एक भीतर से आता है। चाहे कोई किसी परिस्थिति पर थोपना चाहे, चाहे | आनंद का उत्सव दिखाई पड़े, अनुभव में आए, तो ही कोई आस्तिक किन्हीं व्यक्तियों पर, संबंधों पर, संसार पर, लेकिन दुख के सभी हो सकता है। कारण झूठे हैं। जब तक कि असली कारण का पता न चल जाए। | आस्तिक शब्द का अर्थ है, समग्र जीवन को हां कहने की और वह असली कारण व्यक्ति स्वयं ही है। पर जब तक यह दिखाई भावना। लेकिन दुख को कोई कैसे हां कह सके? आनंद को ही न पड़े कि मेरे दुख का कारण मैं हूं, तब तक दुख से छुटकारे का | कोई हां कह सकता है। दुख के साथ तो संदेह बना ही रहता है। है। क्योंकि ठीक कारण का ही पता न हो, ठीक | शायद आपने कभी सोचा हो या न सोचा हो, कोई भी नहीं पछता निदान ही न हो सके, तो इलाज के होने का कोई उपाय नहीं है। और कि आनंद क्यों है? लेकिन दुख होता है, तो आदमी पूछता है, दुख 186
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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